अच्छी फिलम है। मीडिया के भीतर चल रहे कई संकटों का कोलाज है और एक किस्म का सिनेमाई ब्लॉग। फिलम की कहानी कई सत्य कथाओं का नाटकीय रुपांतरण है। जुलाई २००८ के विश्वासमत के दौरान संसद में रखे गए नोटे के बंडल के ज़रिये एक धृतकुमारी टंकार टाइप के ईमानदार मनमोहन सिंह की छवि बिगाड़ाने की कोशिश और स्टिंग न दिखाये जाने के पीछे की हकीकतों और अफवाहों का मिश्रण।
पहले आधे में फिलम मीडिया के कंटेंट के विवाद को छूती है। टीआरपी गिर रही है। अस्तित्व पर संकट है।चैनल घाटे में हैं। तो क्यों न थोड़ा बदल कर मार्केट के बाकी सामानों की तरह हो जाया जाए। ये कहानी कुछ कुछ एनडीटीवी इंडिया के संकट जैसी लगी। साफ साफ किसी का नाम नहीं है लेकिन लेखकीय क्षमता के ज़रिये आप इन नामों और घटनाओं को समझ सकते हैं। जब विजय मलिक अपने कमरे में गिरती टीआरपी की चर्चा करते हैं तो पीछे दीवार पर लगी टीवी में एनडीटीवी इंडिया का लोगो दिखता है। यही एक क्षण है जहां फिल्म वास्तविकता को छूती है। लेकिन यह संयोग भी हो सकता है। वहां से कहानी आगे बढ़ती है और हिन्दी फटीचर काल के तमाम कार्यक्रमों और अनुप्रासों की एक झलक दिखाई जाती है। यहां फिलम थोड़ी कमज़ोर लगती है। कंटेंट के संकट को हलके से छूती है या फिर कहानी का मकसद कंटेंट के संकट से ज़्यादा मीडिया के आर्थिक पक्ष के बहाने उस पर राजनीतिक नियंत्रण को एक्सपोज़ करने का रहा होगा।
बिल्कुल सही है कि अब पत्रकारों के सवाल में दम नहीं रहे। न वो आग है। मेरा मानना रहा है कि हिन्दी टेलीविजन का फटीचर काल इसलिए आया क्योंकि सभी स्तरों पर खुद को अच्छा कहने वाले पत्रकार फेल हो गए। वो अच्छा कहलाते रहे लेकिन बेहतर कार्यक्रमों या रिपोर्टिंग के लिए उपयुक्त श्रम नहीं किया। प्रयोग नहीं हुआ। उनकी साख इसलिए बची रह गई क्योंकि वो नैतिकता रूपी पैमाने पर अच्छा और महान मान लिये गए। इन अच्छे पत्रकारों के कार्यक्रम,एंकर लिंक, बोलने का लहज़ा इन सबको करीब से देखेंगे तो संकट का यथार्थ नज़र आएगा। सिर्फ यह कह कर गरिया देना कि खतम हो जाएगा संसार जैसे कार्यक्रम पत्रकारिता नहीं हैं,अधूरी आलोचना है। यह भी देखा जाना चाहिए कि इसके विकल्प का दावा करने वालों के कार्यक्रमों में कितना दम है। कौन से ऐसे बेहतर कार्यक्रम हैं जिनके लिए आप इंतज़ार करते है,जिसे देखकर आप धन्य हो जाते हैं। हो तो मुझे भी बताइयेगा। तभी हम सभी को एक रास्ता मिलेगा। एक बार लोग जूझेंगे कि बेहतर और नया करके इस लड़ाई में उतरते हैं न कि लेख लिख कर या फिर किसी सेमिनार में भाषण देकर। रण की तरह टीवी किसी साहित्यिक पत्रिका की तरह नहीं चल सकती,उसे जन-जन तक पहुंचने की कोशिश करनी ही चाहिए।
इसीलिए जब ये बवाल गुज़र जाए तो इस पर भी चर्चा कीजिएगा कि जो जो लोग खुद को अच्छा कहते हैं,लिखने के स्तर पर,रिपोर्टिंग के स्तर या एंकरिंग के स्तर पर,उनके काम में कितनी धार है। ऐसे अच्छे लोगों के कार्यक्रमों की विवेचना कीजिए और देखिये उसमें कितना खरापन है। ये एक किस्म की सार्थक बहस होगी और अच्छा कहलाने वालों पर बेहतर होने का दबाव बनेगा। सिर्फ नैतिकता को बचाकर छत पर खड़े हो जाने से और गलीज़ काम करने वालों को गरिया देने से ये संकट नहीं गुज़रने वाला। गरियाने के बहाने अपनी घटिया कॉपियों,घटिया कैमरा,पीटूसी और बेतरतीब ढंग से लिखी रिपोर्ट और घटिया शो को पब्लिक काहे देखेगी। इसीलिए मुझे लगता है कि मौजूदा संकट खराबी का नहीं,अच्छा समझने वालों की पंगु कल्पनाशीलता का नतीजा है।
और यहीं पर रण सार्थक हस्तक्षेप करती है। यहीं पर फिलम मेरे सवालों का हल्का जवाब देती है। परब शास्त्री के किरदार के रूप में। एक धारदार रिपोर्टर ही मीडिया के संकट को खतम करता है। हिन्दी टीवी के फटीचर काल में सभी रिपोर्टर संपादक बन गए। मैदान में कोई धारदार रिपोर्टर नहीं बचा जो खबरों को खोज रहा हो। हो सकता है कि चैनल प्रोत्साहित नहीं करता हो,हो सकता है कि रिपोर्टर भी नहीं करता हो। लेकिन परब शास्त्री का किरदार व्यक्तिगत पहल करने वाला किरदार है। वो अपना काम करता चलता है। खोज रहा किन पर्दों के पीछे साज़िश रची गई। उसके सवाल पत्रकार वाले लगते हैं। त्रिवेदी के सवाल मज़ाक तो उड़ाते हैं लेकिन आप किसी भी पोलिटिकल इंटरव्यू को देख लीजिए,करण थापर को छोड़कर,उसके ज़्यादातर हिस्से में बकवास होता है। परब के सवाल पर कि आप नया क्या करेंगे,पांडे का बड़बड़ना और लड़खड़ना लाजवाब है। रिपोर्टर की ताकत का अहसास करा कर रण ने बड़ा उपकार किया है।
एक दौर था जब हिन्दी न्यूज़ चैनलों में कई परब शास्त्री थे। अब दौर ऐसा है कि सब के सब त्रिवेदी हो गए हैं। कई रिपोर्टर अब नेताओं से संपर्क की बात ज़्यादा करते हैं। राजनीतिक दलों के साथ साथ महासचिवों के प्रति निष्ठा पैदा हो गई है। हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में राजनीतिक पत्रकारिता फटीचर काल को सुशोभित कर रही है। परब शास्त्री आज भी हैं लेकिन उनकी कदर नहीं। मीडिया संस्थान परब शास्त्री बनाना भी नहीं चाहते। कितने हिन्दी के रिपोर्टरों ने चटवाल के मामले की गहन पड़ताल की है। व्यक्तिगत या सांस्थानिक रूप से। सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस की रितु सरीन ही क्यों कर रही हैं। ये सवाल तो हिन्दी के रिपोर्टरों को व्यक्तिगत स्तर पर खुद से पूछने ही होंगे।
लेकिन ऐसा नहीं है कि आप फिलम से बोर होते हैं। गाने नहीं है। सेक्सी डांस नहीं है। पार्श्व संगीत के ज़रिये चित्कार सुनाई देती है। गाना स्पष्ट नहीं है लेकिन चित्कार से पता चलता है कि बेअसर हो चुका यह माध्यम चीख रहा है। आज कई चैनलों में उद्योगपतियों, राजनीतिक दलों के पैसे लगे हैं। मीडिया ने इसे तब स्वीकार किया जब उस पर संकट नहीं था। कई चैनल राजनेताओं के भी हैं। बिल्डरों और चीनी मिल वालों ने भी चैनल खोलें, उनका अधिकार है, लेकिन पत्रकारिता से उनका क्या लगाव हो सकता है। ये ज़रूर है कि इस फिलम से सीखने के लिए कुछ नहीं है लेकिन ये एक अच्छी डॉक्यूमेंट्री है।
नाटकीयता के बहाने ही सही रण एक मौका देती है,माफी मांग कर अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों की तरफ लौटने का। आखिर में फिलम मीडिया के प्रति उदार हो जाती है। ये नहीं कहती कि बंद करो टीवी को देखना। ये एक फिलम नहीं कह सकती। इस संकट को दूर करने के लिए खुद को याद किया जाए कि पत्रकार क्यों बने हैं? लेकिन यह समाधान बेहद सरल और आदर्श है। इससे कुछ नहीं होगा। इससे पहले भी मीडिया के संकटों पर रोज़ लेख लिखे जा रहे हैं, बहस हो रही है और अब तो मंत्री संपादकों से गाइडलाइन इश्यू करवाता है। लोकप्रियता सभी टीवी चैनलों का ख्वाब होना चाहिए। कोई नाम कमाकर लोकप्रिय हो सकता है तो कोई बदनाम होकर। लेकिन सिर्फ निमन बबुआ(good boy) बन कर आप इस रण को नहीं जीत सकते। निमन बबुआ और काबिल बबुआ की लड़ाई शुरू होनी चाहिए। इसलिए रण जारी है दोस्तों।
मूर्ति पूजा का खंडित पक्ष
आरा से यह तस्वीर सहकर्मी दीपक कुमार के सौजन्य से प्राप्त हुई है। जयप्रकाश नारायण की मूर्ति है। जन्मशति के मौके पर उनके अनुयायी आस्था व्यक्त कर रहे हैं। जयप्रकाश नारायण के जितने भी सत्ताधारी चेले हुए वो सब फटीचर गति को प्राप्त हुए लेकिन तस्वीर में दिख रहे लोग पता नहीं क्यूं जेनुइन मालूम पड़ते हैं। इसी खौफ से बहन कुमारी मायावती ऊपी में मूर्ति रक्षा दल बना रही हैं ताकि इस तरह के दिन न देखने पड़े। लेकिन उन्हें भी समझना चाहिए,जब तक इस तरह के अनुयायी बचे रहेंगे,मूर्ति का बचाखुचा कोई भी हिस्सा आस्था व्यक्त करने के काम आता रहेगा। मुझे यह तस्वीर ग़ज़ब की लगी। इस मूर्ति के नीचे से किसी भी प्रकार के लोकतांत्रिक विचार आ जा सकते हैं। दो खंभों पर खुद को टिकाने का ही तो जेपी ने प्रयोग किया था। दो तरह के विचारों को भी।
जानवरों से एंग्री शनि
भय शनि की अराधना का मुख्य तत्व है। शनि के इस प्रचार-प्रसार काल में मंदिर किसी हादसे के बाद विस्थापितों के शहर में बनने वाले मेकशिफ्ट ढांचे जैसे हैं। शनि पूरी तरह से ब्लैक रंग पसंद करने वाले देव हैं। एकरंगा। दिल्ली के सीमान्त से लगे गाज़ियाबाद के वैशाली में एक पार्क है। इस पार्क में कुछ साल तक बंगाली प्रवासियों ने दुर्गा पूजा का शानदार आयोजन किया। उसमें चंदा मैंने भी दिया। अब इन लोगों ने अपनी धार्मिक ज़रूरतों के लिए काली का मंदिर इसी पार्क में बनवा लिया है। अच्छा भोग मिलता है। जब शनि की यह तस्वीर खींचने गया था तो मंदिर में एक बालक ने मुफ्त और बिन पूजा के ही भोग दे दिया। स्वादिष्ट। इसी काली मंदिर के पीछे बना है शनि मंदिर। जानवर आते जाते होंगे। मूर्ति पर चढ़ाए गए दूध-चीनी,मीठाई और पत्तों पर मुंह साफ कर देते होंगे। जो गाय खुद पूजनीय है उसी के स्पर्श से शनि देवता नाराज हो जाते हैं।
आप भगवान की तरफ से लगाए गए नोटिस बोर्ड को पढ़ सकते हैं।शनि में मेरी दिलचस्पी है इसलिए इनके ठिकानों को खोजता रहता हूं।
अर्जुन, सानिया की सगाई टूट गई है, चल टीवी देखते हैं-कृ
सानिया मिर्ज़ा की निजी ज़िंदगी में एक तूफ़ान खामोशी से गुज़रा है लेकिन वो तूफान अब हिन्दी पत्रकारिता के फटीचर काल की शोभा बढ़ाने के काम आ जाएगा। सानिया का ब्रेक अप ब्रेकिंग न्यूज़ है। सारे गली मोहल्ले के रिश्ते विशेषज्ञ बुलाये जायेंगे। वो समझायेंगे दोस्ती और सगाई के बीच की यात्रा। वो बतायेंगे कि कैसे आज कल कामयाबी के दबाव से रिश्ते दरक जा रहे हैं। बीच बीच में फाइल फुटेज में दांते निपोड़ती सानिया की पुरानी तस्वीर इस मनोचिकित्सक की बात को तसदीक करेगी। कोई सगाई का कार्ड दिखा रहा है तो कोई सोहराब मिर्ज़ी की तस्वीर। अनुप्रास क्षमता से लैस आउटपुट संपादक आज स से शुरू होने वाले तमाम द्विअर्थी शब्दों को निकाल कर वाहवाही प्राप्त करेंगे। टीवी स्क्रिन को ऊर्जा से भर देंगे।
सानिया ने सगाई तोड़ कर फटीचर काल के हम संपादकों की कल्पनाशीलता को नई उड़ान दे दी है। इसी बहाने कोई चैनल कॉल इन शो करेगा तो कोई क्यों नहीं टिकती सेलिब्रिटी की शादियां पर पूरा फीचर बना देगा। एंजोलिनी का भी ब्रेक अप होने वाला है। सानिया का हो गया। करीना का भी किसी से टूटा था। प्रीटी ज़िंटा का भी ब्रेक अप हो गया है। कोई यह बतायेगा कि कहीं सानिया की ज़िंदगी में कोई दूसरा तो नहीं आ गया। एक न एक चैनल ज्योतिष और टैरॉट कार्ड रीडर का भी बुलायेगा। एक बतायेगा कि इस बदमाश राहू के कारण सब हो रहा है वही सोहराब के घर में घुस कर फूट डाल रहा है।
बवाली रिपोर्टर आज सानिया-सोहराब के घर से बाहर लाइव चैट दे रहे होंगे। बल्कि देने लगे हैं। रेटिंग की नाजायज़ औलाद आज की हिन्दी टीवी पत्रकारिता अपना प्रतिकार करेगी। जावेद अख्तर की किसी बची खुची स्क्रिप्ट के किसी किरदार की तरह। जो गुंडा बन कर सिस्टम से प्रतिकार करता है। जावेद अख्तर के इस अप्रतिम योगदान और इससे उपजे अमिताभ बच्चन की शोहरत का मर्म किसी ने समझा है तो हम हिन्दी के पत्रकारों ने। टीवी आज चित्कार मार मार कर बतायेगा कि सानिया और सोहराब के बीच क्या हुआ। टाइम्स ऑफ इंडिया की इस ख़बर ने वो आग दे दी है जिसमें हम सब जलेंगे। अभी अभी ईमेल आया है कि एनडीटीवी इंडिया इस खबर को नहीं दिखायेगा। तो भी मैं अपने आपको इस पतित धारणी हिन्दी पत्रकारिता से अलग नहीं करूंगा। बहने दो इस कीचड़ में खुद को। कादो लपेट कर शरीर को ठंडक पहुंचती है। मज़ा आता है। कीचड़ समानार्थी है।
ऐ अर्जुन, रख दे गांडीव। देख हिन्दी टीवी पर क्या आ रिया है। कृष्ण के इस उवाच से घबराया अर्जुन कहता है कि मैंने जब तीर ही नहीं चलाया तो सानिया की सगाई कैसे टूट गई देव। कृष्ण- अर्जुन,कमानों में तीरों को सड़ने के लिए छोड़ दे। सानिया के बाप का एसएमएस आया है। ख़बर कंफर्म है। संपादकों की मंडली एनबीए,पत्रकारिता के इन महान पर्वतीय शिखरों पर आने वाले वक्त में नाज़ करेगी। एक ईमेल भेजेगी। तब तक मंगल ग्रह के दुष्प्रभाव से आलोचक जल कर खाक हो जाएंगे। सच कहूं मुझे यह गंदगी रास आती है। धूल से बेहतर कीचड़ है। अहा..काश भैंसों के इस परमानन्द को गायें समझ पातीं। गया पहुंचने से पहले ही हाजीपुर में गंगा किनारे किचड़ में धंस गया होता,अपना गौतम। आओ,मुझे भी गाली दो। मैं भी इस कीचड़ के आनंद का सहभागी हूं। आओ। कहां हो गौतम। पत्रकारिता के महामण्डलेश्वरों को कलक्टर के दफ्तर में बुलाकर पूछो,किसकी नैतिकता का झंडा सबसे बुलंद है। अखाड़ों में पलता है सनातन धर्म। नंग-धड़ंग डुबकी लगाकर मुक्ति का मार्ग बताता है।
जाओ अर्जुन,तुम भी इसी मार्ग से जाओ। कृष्ण की आवाज़ गूंजती है। करनाल में सोये लोग जाग जाते हैं। उठ कर हिन्दी टीवी लगा देते हैं। कृष्ण कहते हैं- सानिया मिर्ज़ा और सोहराब की चंद रातों से मिलता जुलता कोई हिन्दी फिल्म का गाना है रे। पूछ तो भीम से। बोल ओही बजावेगा। तनी सेंटी होकर कुरूक्षेत्र में रिलैक्स किया जाये रे। हटाओ इ अर्जुनवा के। जब देख तब तीरे तनले रहता है। सब लड़इयां इहे लड़ेगा का रे। सेव दुर्योधन। सेव कर्ण। बचाओ। जब सबका संरक्षण हो रहा है तो इ सभन के काहे मार रहा है रे अर्जुन। देख न। लाइव हिन्दी टीवी का महाभारत। चल रिलैक्स करते हैं। कृष्ण- आज ही टीवी पर बेलमुंड ज्योतिष बोल रहा था- वृश्चिक- आज आपके ख़िलाफ साज़िश होगी लेकिन आज आराम महसूस करेंगे। व्हाट अ टाइम सर जी। साज़िश में भी आराम।
सानिया ने सगाई तोड़ कर फटीचर काल के हम संपादकों की कल्पनाशीलता को नई उड़ान दे दी है। इसी बहाने कोई चैनल कॉल इन शो करेगा तो कोई क्यों नहीं टिकती सेलिब्रिटी की शादियां पर पूरा फीचर बना देगा। एंजोलिनी का भी ब्रेक अप होने वाला है। सानिया का हो गया। करीना का भी किसी से टूटा था। प्रीटी ज़िंटा का भी ब्रेक अप हो गया है। कोई यह बतायेगा कि कहीं सानिया की ज़िंदगी में कोई दूसरा तो नहीं आ गया। एक न एक चैनल ज्योतिष और टैरॉट कार्ड रीडर का भी बुलायेगा। एक बतायेगा कि इस बदमाश राहू के कारण सब हो रहा है वही सोहराब के घर में घुस कर फूट डाल रहा है।
बवाली रिपोर्टर आज सानिया-सोहराब के घर से बाहर लाइव चैट दे रहे होंगे। बल्कि देने लगे हैं। रेटिंग की नाजायज़ औलाद आज की हिन्दी टीवी पत्रकारिता अपना प्रतिकार करेगी। जावेद अख्तर की किसी बची खुची स्क्रिप्ट के किसी किरदार की तरह। जो गुंडा बन कर सिस्टम से प्रतिकार करता है। जावेद अख्तर के इस अप्रतिम योगदान और इससे उपजे अमिताभ बच्चन की शोहरत का मर्म किसी ने समझा है तो हम हिन्दी के पत्रकारों ने। टीवी आज चित्कार मार मार कर बतायेगा कि सानिया और सोहराब के बीच क्या हुआ। टाइम्स ऑफ इंडिया की इस ख़बर ने वो आग दे दी है जिसमें हम सब जलेंगे। अभी अभी ईमेल आया है कि एनडीटीवी इंडिया इस खबर को नहीं दिखायेगा। तो भी मैं अपने आपको इस पतित धारणी हिन्दी पत्रकारिता से अलग नहीं करूंगा। बहने दो इस कीचड़ में खुद को। कादो लपेट कर शरीर को ठंडक पहुंचती है। मज़ा आता है। कीचड़ समानार्थी है।
ऐ अर्जुन, रख दे गांडीव। देख हिन्दी टीवी पर क्या आ रिया है। कृष्ण के इस उवाच से घबराया अर्जुन कहता है कि मैंने जब तीर ही नहीं चलाया तो सानिया की सगाई कैसे टूट गई देव। कृष्ण- अर्जुन,कमानों में तीरों को सड़ने के लिए छोड़ दे। सानिया के बाप का एसएमएस आया है। ख़बर कंफर्म है। संपादकों की मंडली एनबीए,पत्रकारिता के इन महान पर्वतीय शिखरों पर आने वाले वक्त में नाज़ करेगी। एक ईमेल भेजेगी। तब तक मंगल ग्रह के दुष्प्रभाव से आलोचक जल कर खाक हो जाएंगे। सच कहूं मुझे यह गंदगी रास आती है। धूल से बेहतर कीचड़ है। अहा..काश भैंसों के इस परमानन्द को गायें समझ पातीं। गया पहुंचने से पहले ही हाजीपुर में गंगा किनारे किचड़ में धंस गया होता,अपना गौतम। आओ,मुझे भी गाली दो। मैं भी इस कीचड़ के आनंद का सहभागी हूं। आओ। कहां हो गौतम। पत्रकारिता के महामण्डलेश्वरों को कलक्टर के दफ्तर में बुलाकर पूछो,किसकी नैतिकता का झंडा सबसे बुलंद है। अखाड़ों में पलता है सनातन धर्म। नंग-धड़ंग डुबकी लगाकर मुक्ति का मार्ग बताता है।
जाओ अर्जुन,तुम भी इसी मार्ग से जाओ। कृष्ण की आवाज़ गूंजती है। करनाल में सोये लोग जाग जाते हैं। उठ कर हिन्दी टीवी लगा देते हैं। कृष्ण कहते हैं- सानिया मिर्ज़ा और सोहराब की चंद रातों से मिलता जुलता कोई हिन्दी फिल्म का गाना है रे। पूछ तो भीम से। बोल ओही बजावेगा। तनी सेंटी होकर कुरूक्षेत्र में रिलैक्स किया जाये रे। हटाओ इ अर्जुनवा के। जब देख तब तीरे तनले रहता है। सब लड़इयां इहे लड़ेगा का रे। सेव दुर्योधन। सेव कर्ण। बचाओ। जब सबका संरक्षण हो रहा है तो इ सभन के काहे मार रहा है रे अर्जुन। देख न। लाइव हिन्दी टीवी का महाभारत। चल रिलैक्स करते हैं। कृष्ण- आज ही टीवी पर बेलमुंड ज्योतिष बोल रहा था- वृश्चिक- आज आपके ख़िलाफ साज़िश होगी लेकिन आज आराम महसूस करेंगे। व्हाट अ टाइम सर जी। साज़िश में भी आराम।
अपार्टमेंट आजकल- बिन बाज़ार हिन्दी
मोहल्लों की कब्र पर बने ये अपार्टमेंट अब बाज़ार का विस्तार बनते जा रहे हैं। पहले अख़बारों ने इनके गेट पर प्रायोजित बोर्ड लगाया,अब वो भीतर आने का जुगाड़ निकाल रहे हैं। आजकल अचानक ड्राइंग कंपटीशन की बाढ़ आ गई है। सतमोला चाय का इन बच्चों से क्या लेना देना लेकिन चाय वाले ड्राइंग कंपटीशन करा रहे हैं। बीच में थ्री इडियट का बेहूदा सुर में गाना बजता था और सतमोला चाय की खूबी बखान होती थी। बच्चे रंग रहे थे,नाच रहे थे और कंपटीशन में जगह पा रहे थे। सबको कुछ न कुछ प्राइज़ दिया गया। इस तरह से एक रविवार की दुपहर खराब कर सतमोला चाय का विज्ञापन हो गया। सर्टिफिकेट भी मिला। जिस रफ्तार से ये कंपटीशन हो रहे हैं,उससे तो यही लगता है कि ड्राइंग रूम में सतमोला, आईसीआईसीआई,महेंद्रा और महेंद्रा,मैगी,लक्स,पैराशूट नारियल तेल के सर्टिफिकेट टंग जायेंगे। घर के भीतर भी इनकी लघु-होर्डिंगिका भर जाएगी। देह के ऊपर लगने वाले और भीतर कोशिकाओं में धकेले जाने वाले सभी उत्पादों के ड्राइंग कंपटीशन बाल काल से ही जीत रहा हूं। इसका दंभ भऱता हुआ लिफ्ट के किसी किनारे कोई युवा हिन्दी अखबारों के अनुसार किसी युवती को गुलाब के फूल दे रहा होगा। अभी इसमें टाइम है। लेकिन होगा।
(नोट-हिन्दी के अखबारों में अक्सर ये कैप्शन होता है- बारिश में भींगती युवती, हिन्दी के अखबारों में कभी किसी युवक या वृद्धा को भींगते नहीं देखेंगे। सिर्फ युवतियां भींगती हैं)
मेरी बेटी ने भी महेंद्रा एंड महेंद्रा में प्राइज़ जीत लिया। उसकी खुशी में हम भी झूमे। वोडाफोन और टाटा इंडिकॉम के फोन से पटना कोलकाता फोन कर दिये। घर में पिकासो के बालागमन का एलान कर पितृत्व और मातृत्व की खुशी का ज्वाइंट अकाउट खोल बैठे। लेकिन हर हफ्ते सोसायटी के बोर्ड पर ड्राइंग कंपटीशन की सूचना आने लगी। उसके बाद महेंद्रा एंड महेंद्रा के लोगों ने फोन कर टार्चर कर दिया कि आप आइये और एक घंटा हमारा लेक्चर सुनिये,फिर पत्नी के लिए डायमंड सेट ले जाइये। हमने कहा कि भई जब विजेता हैं तो एक मिनट में प्राइज़ दो। नहीं दिया और हम नहीं गए। हीरे के लिए एक घंटा नहीं दे सकते। रख लीजिए अपना नकली नौलखा। न हम राजा कहीं के न वो महारानी। तीन नंबरी पत्रकार ने पूरे स्वाभिमान से बाज़ार की इस गुज़ारिश को रिजेक्ट कर दिया। नेपथ्य से तालियां बजने लगती हैं।
लेकिन दोस्तों,टीवी सेट के ज़रिये ब्रेकों में विज्ञापनों का असर कम हो रहा है क्या? ये लघु-होर्डिंगिका लेकर अपार्टमेंट में क्यों आ रहे हैं? पता नहीं,वो दिन दूर नहीं जब मेरा सोफा आईसीआईसीआई से प्रायोजित होगा,बदले में सोफे की कीमत पंद्रह फीसदी कम होगी, थाली की ऊपरी सतह पर लिखा होगा,पका है हाकिन्स में। ग्लास पर लिखा होगा,एक्वा की कसम। भीतर से घर बिना एमसीडी और बीएमसी के भय के बाज़ार में बदल जाएगा। एक मेज़ बची रहेगी जिस पर हम लिखा करेंगे,हिन्दी पत्रकारिता के समाजवादी संस्थानों में पहचाने जाने के लिए,बाज़ार का विरोध किया करेंगे।
अशोक वाजपेयी दुखी हैं आजकल कि जयपुर फेस्टिवल में कोई हिन्दी वाला नहीं गया,अपने लेखक से आटोग्राफ लेने। हिन्दी का साहित्य संसार कालजयी रचनाओं के लोड से दबा जा रहा है। योगदान से कम भाव पर कोई साहित्य रचना हो नहीं रही है। पोपुलर होंगे नहीं लेकिन पब्लिक को ढूंढेंगे। महान लेखकों के श्रमदान की पाठकों ने ऐसी कीमत लगाई कि प्रकाशक भी बिना पैसे दिये किताब छापता है।
तभी एक चीख सुनाई पड़ती है... नहीं....महारानी..हम इस कालखंड को खंड खंड कर तीन वॉल्यूम छापेंगे लेकिन अपने हिन्दी के पाठकों के लिए नहीं। बाज़ार के लिए। प्रतिवाद होता है- साहित्य और समाजवादियों बाज़ार से मत डरो। बुलाओ किसी अमर सिंह को। वीर संघवी ने कह दिया कि जब हर पार्टी को अमर सिंह चाहिए तो साहित्य को क्यों नहीं चाहिए। जवाब दो। कालजयी कलमकारो। सतमोला चाय वाले ड्राइंग कंपटीशन करा सकते हैं तो क्या हम लेखक पांच सौ शब्दों की लघु कहानी की प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकते। सेल्फ कांफिडेंस लाओ,साहित्य अकादमियों के पूर्व विजेताओं। सेल्फ कांफिडेंस लाओ। वो आता है मार्केट वैल्यू से। मूर्खों।
तभी प्रकारांतर से आवाज़ आती है...नहीं...बलेश्वर...ऐसा मत कहो। अपमान मत करो। क्यों गुप्तेश्वर...हिन्दी के लोग अपमानरहित जीवन चाहते हैं क्या? तुम अपार्टमेंट की कुंठा का व्यापक अप्लीकेशनीकरण मत करो। गंभीर दिखो। हिन्दी के लेखक हो..कुंठा से ही कालजयी रचनाएं बहरती हैं। हहराकर बाहर आने दो। करमजरू कहीं के,ग्लैमरसविहीन हिन्दी वाले। आव तनी एन्ने...बतइते हऊ तोरा..हम..। तभी एक धीर- गंभीर आवाज़ आती है..पहली विदेश यात्रा से खरीद कर लाए गए कंबल में लिपटा एक साहित्यकार बाज़ार मीमांसा करता है।
हर प्रभाव के लिए ज़िम्मेदार अगर कोई है तो वो बाज़ार है। जहां कोई प्रभाव नहीं हैं,वहां कोई बाज़ार नहीं है। बाज़ार के खिलाफ लिखीं कविताओं को सैमसंग रविद्रनाथ टैगोर पुरस्कार में चयनित होने के लिए भेज दो, नेशनल अवार्ड के लिए सुधीश पचौरी से सिफारिश लगा दो। ढूंढो मथुरा जाकर, किस किस ने खेले हैं बाल सुधीश के साथ कंचे। वहीं दिलायेंगे अवार्ड। शर्तिया और एलानिया कहता हूं। फ्री के इस जनसंदेश के साथ अपार्टमेंट में विज्ञापन तलाशने की संभावना पर यह लेख यहीं समाप्त होता है। तालियां। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गुमनाम अपितु स्थानीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त हिन्दी के इस पत्रकार की यह अल्पकालिक कालजयी रचना यहीं समाप्त होती है।
क्रिकेट का गणतंत्र
अमीरी और ग़रीबी पर जितना लिखा गया है,उसकी रद्दी बेच दी जाए तो लाखों लोगों की ग़रीबी दूर हो जाए। दिल्ली के सीमान्त पर बसे वैशाली मोहल्ले के एक पार्क की यह दोनों तस्वीर है। एक ही समय में ली गई है। क्रिकेट के मोहल्ला प्लेयर अब सुविधाओं से लैस हो रहे हैं। अब से तात्पर्य है पिछले कुछ सालों में। उनके कंधे पर बल्ले को इस तरह से लटका देखा तो एक अनुशासन का बोध हुआ। लगा कि ये क्रिकेट खेलने से पहले क्रिकेट कैसे खेले वाली पांच रुपये की किताब पढ़ कर आ रहे हैं। दूसरी तस्वीर में ये चार बालक हाथों में ईंट लिये हुए हैं जो धरती पर रखे जाते ही अहिल्या की तरह विकेट में बदल जायेंगे। इन्हें देख कर लगा कि ये खेलने आये हैं। बस क्रिकेट को खेलना जानते हैं।
जब दूसरी तस्वीर को ब्लैकबेरी से क्लिक कर रहा था तो मेरे द्वारा पंद्रह बार देखी जा चुकी ग़ुलामी का डायलॉग याद आ गया। देख रहा हूं जगत की मां के सर पर फूल है और मेरी मां के सर पर जूते। ये संवाद मुझे तुम मुझे खून दो,मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा से भी ज्यादा प्रभावशाली लगा था। लड़कपन की उम्र में जोश से भर गया। कोई शक। अच्छा संवाद तो था ही। क्रिकेट बाज़ारू हो गया लेकिन इसकी औलादें अभी बाज़ारू नहीं हुई हैं। वो जोड़-जाड़ कर खेल रही हैं और मज़े ले रही हैं।
रिपोर्टिंग के रिश्ते
सात साल की रिपोर्टिंग से न जाने कितने रिश्ते अरज लाया हूं। ये रिश्ते मुझे अक्सर बुलाते रहते हैं। जिससे भी मिला सबने कहा दुबारा आना। ऐसा कभी नहीं हुआ कि दुबारा उस जगह या शख्स के पास लौटा जा सके। तात्कालिक भावुकता ने दोबारा आने का वादा करवा दिया। मिलने वालों से स्नेह-सत्कार,भोजन और उनका प्रभाव इतना घोर रहा कि बिना दुबारा मिलने का वादा किये आया भी नहीं जाता था। सबको बोल आया कि जल्दी आऊंगा। अब आंसुओं से भर जाता हूं। एक रिपोर्टर सिर्फ दर्शकों का नहीं होता,वो उनका भी होता है जिनसे वो मिलता है,जिनकी सोहबत में वो जानकारियां जमा करता है और जिनके सहारे वो दुनिया में बांट देता है। रिपोर्टिंग में मिले इन सभी रिश्तों में झूठा साबित होता जा रहा हूं। क्या करूं उनका इंतज़ार खतम नहीं होता और मेरा वादा पूरा नहीं होता।
झांसी की मिसेज कैंटम आज तक इंतज़ार कर रही हैं। अक्सर फोन आ जाता है। हाउ आर यू माई डियर सन। गॉड ब्लेस यू। व्हेन आर यू कमिंग टू झांसी। न जाने वो किस जनम की मेरी मां है। अठारह सौ सत्तावन के डेढ़ सौ साल होने के वर्ष झांसी गया था। अस्सी साल की एक वृद्धा। एंग्लो-इंडियन। साधारण सा घर। मिसेज कैंटम आईं और पहले पूछा टेल मी सन,कभी एंग्लो इंडियान खाना खाया है? जवाब- नहीं। लेकिन जब आपने बेटा कह दिया तो पूछती क्यों हैं? खिला दीजिए न। स्पेशल रिपोर्ट की शूटिंग शुरू होने से पहले मेरे इस जवाब पर कैमरा मैन घबरा गया। मिसेज कैंटम ने कहा एंग्लो-इंडियन शैली में मटन बनाया है। तुम खाता है। क्या नाम बताया तुमने अपना? जी रवीश कुमार। यू नो,यू आर लाइक माइ सन। आई एम सो हैप्पी टू सी यू। छोटी सी मेज़ पर ऐसा रिश्ता बना कि क्या कहें। लगा कि ये किसी क्रांतिकारी की मां होगी। इस जनम में अपने क्रांतिकारी बेटे के हाथों मारे गए अंग्रेंजों की मौत का प्रायश्चित कर रही होगी। या फिर भारत की उदारता की निशानी को बचा कर रख रही होंगी। तभी उन्होंने डरते हुए कहा कि दरअसल,मैं जो काम करती हूं उससे कई लोगों को प्राब्लम होता है,सन। इतनी बार बेटा कहा कि मैं भी मिसेज कैंटम को मॉम कहने लगा। एक घंटे में ऐसा रिश्ता।
मिसेज कैंटम झांसी के कैन्टोनमेंट के क्रबिस्तान की देखरेख करने लगी थी। उस दौर में मारे गए और अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए अंग्रेज अफसरों की कब्रों को फिर से सजा दिया था। कहा कि इतनी हालत खराब थी कि पूछो मत। यहां कोई आता नहीं था। लेकिन देखों मैंने कितना सुन्दर बना दिया। राष्ट्रवाद के झंझटों में फंसे बिना एक हिन्दुस्तानी महिला उनकी देखरेख कर रही है,जिसके दम पर हमारा राष्ट्रवादी आंदोलन गर्विला होता है। मैंने पूछा भी कि मॉम,ये एक प्राब्लम है। लेकिन भारत एक परिपक्व देश भी है। किसी को प्राब्लम नहीं होगा। भावुक तो हम दुश्मनों के लिए भी होते हैं। उस रिपोर्ट के बाद से आज तक मिसेज कैंटम अचानक फोन कर देती हैं। आवाज़ का ज़ोर बताता है कि एक मां अपने अधिकार से बेटे को बुला रही है। दुबारा कब आओगे। प्लीज कम न। अपनी वाइफ और बेटी को भी लाना। आई विल कूक फॉर यू। नाइस मटन। यू लाइक न। फोन रखने के बाद थोड़ा रो लेता हूं। फिर उस दफ्तर की नियति में खुद को झोंक देता हूं जिसने इन रिश्तों को पाने में मदद तो की लेकिन जोड़ कर रखने में साथ नहीं दिया। जानबूझ कर नहीं लेकिन रिपोर्टर तो घटनाओं का साक्षी होता है। ख़बर बदलते ही उसकी दुनिया बदल जाती है। एक साथ वो कई शहरों और कई संबंधों में रहता है।
इसी तरह से बीकानेर के शौकत भाई आज तक फोन करते हैं। छह साल हो गए बीकानेर गए। धर्मेंद्र चुनाव लड़ रहे थे। ट्रेन में जगह नहीं थी तो शौकत भाई ने कहा कि अरे रवीश भाई, चिन्ता मत करो, मेरी सीट पर बिकानेर चलो। तब से एक रिश्ता बन गया। पहले उनका फोन आता है, फिर उनकी पत्नी बात करती है और फिर उनकी बेटी। शौकत भाई बहुत शान से कहते हैं कि एक बार तो आ जाओ। तुम्हारा ही घर है। बीकानेर में कोई यकीन नहीं करता कि रवीश भाई अपने दोस्त हैं। मैं सबको बोलता हूं न। मेरी पत्नी तो हमेशा याद करती हैं आपको। हां इस साल देखिये, आ जाऊंगा। दिल कहता है कि मत बोल झूठ। फिर बोलने लगता हूं, शौकत भाई, मेरा इंतजार क्यों करते हैं? शौकत भाई का जवाब लाजवाब कर देता है। रवीश भाई, ये आपका घर है। घरवाले तो इंतज़ार करेंगे न।
जमालुद्दीन को आप सब नहीं जानते। लेकिन हो सके तो इनसे मिल आइये। एक मामूली दर्जी। आंखें कमज़ोर पड़ रही हैं। लेकिन ग्यारह किलो की कॉपी पर ताज महल की शक्ल में उसका इतिहास लिख रहे हैं। ग़ज़ब का काम है। आगरा में रहते हैं। जमालुद्दीन कहते हैं कि उन्हें अकबराबाद और ताज को देखते ही कुछ हो जाता है। इसलिए वो ताज के करीब नहीं जाते। जब वो ये बात कह रहे होते हैं तो उनके चेहरे पर ताज को बनाने वाले मज़दूरों की रूहें उतर आती हैं। लाल हो जाता है। हाथ लरज़ने लगते हैं। बहुत ज़िद की,जमाल भाई,चलो न,ताज के सामने। दो बार गया। मना कर दिया। जमालुद्दीन ने कहा कि नहीं,मैं ताज के सामने नहीं जा सकता। कहने लगे कि सामने शाहजहां को देखकर कांप जाता हूं। शाहजहां के किस्से और उस संगमरमर की इमारत का इतना शानदार कथाकार मुझे आज तक नहीं मिला। जमालुद्दीन आज तक फोन करते हैं। कुछ मदद कर आया था तो थोड़ी और आस होगी। लेकिन इसके लिए वो कभी फोन नहीं करते। उनकी चिंता यही है कि ताज पर जो इतिहास लिखा है वो दुनिया के सामने नुमाया हो जाए। जमालुद्दीन ने कितनी बार कहा, बेटा कब आओगे। उनका यह सवाल अपराधी बना देता है। लगता है कि किसी बूढ़े बाप को अकेला छोड़ आया हूं। दो साल पहले जब उनके घर से निकला तो जमालुद्दीन ने मुझे एक नक्श दिया। एक कागज़ का टुकड़ा। किसी भी ओर और छोर से देखिये तो अल्लाह लिखा मिलेगा। जमाल ने कहा कि बुरी नज़र न लगे। आज तक मेरी पर्स में वो नक्श है।
पंजाब के रियाड़का गया था। गुरुदासपुर में। सच बोलने का स्कूल पर स्पेशल रिपोर्ट करने। पूरे परिवार से ऐसी दोस्ती हुई कि हर तीज त्योहार पर वहां से फोन आता है। कब आ रहे हो? आने का वादा मेरा ही था। दो दिन तक उस स्कूल में रहा। परिवार में ऐसे घुल मिल गया कि वादा कर आया कि अबकी परिवार के साथ आऊंगा। मौका ही नहीं लगा। स्पेशल रिपोर्ट के दौरान अमृतसर के एक स्कूल की प्रिंसिपल से मुलाकात हुई थी। वो अब कनाडा में हैं। उनका फोन आया था। कहां इंटरनेट पर आपकी आवाज़ आ रही थी तो हम सब दौड़ गए कि ये तो अपने रवीश कुमार की रिपोर्ट लगती है। वो बहुत भावुक थीं। कह रही थीं कि बेटे कभी कनाडा आना। हम हिन्दुस्तान आ रहे हैं तो ज़रूर मिलेंगे। मैं हंसने लगा। माता जी, कितना झूठ बोलूं मैं। दुबारा कब मिलना हुआ है। अरे क्या बात करते हो जी। आपको टाइम नहीं तो हम आ जायेंगे। रियाड़का स्कूल के प्रिंसिपल के बेटे गगनदीप आज तक एसएमएस करते हैं। कई बार पलट कर फोन करता हूं तो पूरे घर में खुशी की लहर दौड़ जाती है। अद्भुत स्कूल है। इतना मोहित हो गया था कि खुद ही वादा कर दिया कि गर्मियों में पत्नी और बेटी के साथ यहां आकर रहूंगा। आज तक नहीं जा सका।
ऐसा ही इंतज़ार गुजरात में हो रहा है। मेरठ में डॉक्टर साहब कर रहे हैं,मैनपुरी में प्रोफेसर साहब कर रहे हैं,भिवानी में प्रीतम भाई कर रहे हैं,अलीगढ़ के दारोगा जी कर रहे हैं,बारामती में सुशील कर रहे हैं,जयपुर के चंद्रपरिहार साहब कर रहे हैं। आगरा के देवकीनंदन सोन कहते हैं कि आप से मिलने के बाद लगा कि कोई रिश्ता है। जब भी आपकी आवाज़ आती है घर में हंगामा मच जाता है। सब कहने लगते हैं कि अरे ये तो अपने रवीश भाई हैं। क्या बात है। इजाज़त हो तो भावुक हो लूं। इतराना अच्छा नहीं लगता। मेरा स्वभाव भी नहीं है। लेकिन क्या करूं इन रिश्तों का? कब तक दुबारा आने के भरोसे पर ये टिके रहेंगे। मालूम नहीं लेकिन जब इनलोगों का फोन आता है तो बहुत अच्छा लगता है। कम मिलने-जुलने वाला आदमी हूं और बिना मेहनत किये ऐसा खजाना मिल जाए तो सहेज कर रखने का लालच भी होता है। कई लोग ऐसे हैं जिनसे सिर्फ फोन पर रिश्तेदारी है। आवाज़ से उनको जानता हूं। कभी मिला नहीं। डर भी लगता है कि पांच साल से जिससे फोन पर बात कर रहा हूं, वो अचानक मिल जाए तो न पहचान पाने का असर कितना खतरनाक होगा। कहीं ये न सोच बैठे कि दंभी है।
रिपोर्टर दुबारा क्यों नहीं जा पाता और नहीं जा पाता है तो पहली बार में ऐसे रिश्ते क्यों बनाता है? रिश्तों के बिना हर रिपोर्टर अधूरा है। काश इन सब को संभाल पाता। दुबारा जा पाता। इन सबका अपराधी तो हूं लेकिन इन्हीं लोगों से पूरा भी होता हूं। हम रिपोर्टरों को कितना कुछ मिलता है। इनती सारी मायें, इतने संगे संबंधी सब इसी पेशे में मिले हैं। ग़ज़ब का काम है ये पत्रकारिता। दुनिया के सबसे आसान कामों में से एक लेकिन रिश्ते इतने मुश्किल कि भावुक कर तोड़ देते हैं। सारे रिपोर्टर को भावुकता के इन लम्हों से गुज़रना होता होगा। सबको मरना पड़ता होगा।
झांसी की मिसेज कैंटम आज तक इंतज़ार कर रही हैं। अक्सर फोन आ जाता है। हाउ आर यू माई डियर सन। गॉड ब्लेस यू। व्हेन आर यू कमिंग टू झांसी। न जाने वो किस जनम की मेरी मां है। अठारह सौ सत्तावन के डेढ़ सौ साल होने के वर्ष झांसी गया था। अस्सी साल की एक वृद्धा। एंग्लो-इंडियन। साधारण सा घर। मिसेज कैंटम आईं और पहले पूछा टेल मी सन,कभी एंग्लो इंडियान खाना खाया है? जवाब- नहीं। लेकिन जब आपने बेटा कह दिया तो पूछती क्यों हैं? खिला दीजिए न। स्पेशल रिपोर्ट की शूटिंग शुरू होने से पहले मेरे इस जवाब पर कैमरा मैन घबरा गया। मिसेज कैंटम ने कहा एंग्लो-इंडियन शैली में मटन बनाया है। तुम खाता है। क्या नाम बताया तुमने अपना? जी रवीश कुमार। यू नो,यू आर लाइक माइ सन। आई एम सो हैप्पी टू सी यू। छोटी सी मेज़ पर ऐसा रिश्ता बना कि क्या कहें। लगा कि ये किसी क्रांतिकारी की मां होगी। इस जनम में अपने क्रांतिकारी बेटे के हाथों मारे गए अंग्रेंजों की मौत का प्रायश्चित कर रही होगी। या फिर भारत की उदारता की निशानी को बचा कर रख रही होंगी। तभी उन्होंने डरते हुए कहा कि दरअसल,मैं जो काम करती हूं उससे कई लोगों को प्राब्लम होता है,सन। इतनी बार बेटा कहा कि मैं भी मिसेज कैंटम को मॉम कहने लगा। एक घंटे में ऐसा रिश्ता।
मिसेज कैंटम झांसी के कैन्टोनमेंट के क्रबिस्तान की देखरेख करने लगी थी। उस दौर में मारे गए और अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए अंग्रेज अफसरों की कब्रों को फिर से सजा दिया था। कहा कि इतनी हालत खराब थी कि पूछो मत। यहां कोई आता नहीं था। लेकिन देखों मैंने कितना सुन्दर बना दिया। राष्ट्रवाद के झंझटों में फंसे बिना एक हिन्दुस्तानी महिला उनकी देखरेख कर रही है,जिसके दम पर हमारा राष्ट्रवादी आंदोलन गर्विला होता है। मैंने पूछा भी कि मॉम,ये एक प्राब्लम है। लेकिन भारत एक परिपक्व देश भी है। किसी को प्राब्लम नहीं होगा। भावुक तो हम दुश्मनों के लिए भी होते हैं। उस रिपोर्ट के बाद से आज तक मिसेज कैंटम अचानक फोन कर देती हैं। आवाज़ का ज़ोर बताता है कि एक मां अपने अधिकार से बेटे को बुला रही है। दुबारा कब आओगे। प्लीज कम न। अपनी वाइफ और बेटी को भी लाना। आई विल कूक फॉर यू। नाइस मटन। यू लाइक न। फोन रखने के बाद थोड़ा रो लेता हूं। फिर उस दफ्तर की नियति में खुद को झोंक देता हूं जिसने इन रिश्तों को पाने में मदद तो की लेकिन जोड़ कर रखने में साथ नहीं दिया। जानबूझ कर नहीं लेकिन रिपोर्टर तो घटनाओं का साक्षी होता है। ख़बर बदलते ही उसकी दुनिया बदल जाती है। एक साथ वो कई शहरों और कई संबंधों में रहता है।
इसी तरह से बीकानेर के शौकत भाई आज तक फोन करते हैं। छह साल हो गए बीकानेर गए। धर्मेंद्र चुनाव लड़ रहे थे। ट्रेन में जगह नहीं थी तो शौकत भाई ने कहा कि अरे रवीश भाई, चिन्ता मत करो, मेरी सीट पर बिकानेर चलो। तब से एक रिश्ता बन गया। पहले उनका फोन आता है, फिर उनकी पत्नी बात करती है और फिर उनकी बेटी। शौकत भाई बहुत शान से कहते हैं कि एक बार तो आ जाओ। तुम्हारा ही घर है। बीकानेर में कोई यकीन नहीं करता कि रवीश भाई अपने दोस्त हैं। मैं सबको बोलता हूं न। मेरी पत्नी तो हमेशा याद करती हैं आपको। हां इस साल देखिये, आ जाऊंगा। दिल कहता है कि मत बोल झूठ। फिर बोलने लगता हूं, शौकत भाई, मेरा इंतजार क्यों करते हैं? शौकत भाई का जवाब लाजवाब कर देता है। रवीश भाई, ये आपका घर है। घरवाले तो इंतज़ार करेंगे न।
जमालुद्दीन को आप सब नहीं जानते। लेकिन हो सके तो इनसे मिल आइये। एक मामूली दर्जी। आंखें कमज़ोर पड़ रही हैं। लेकिन ग्यारह किलो की कॉपी पर ताज महल की शक्ल में उसका इतिहास लिख रहे हैं। ग़ज़ब का काम है। आगरा में रहते हैं। जमालुद्दीन कहते हैं कि उन्हें अकबराबाद और ताज को देखते ही कुछ हो जाता है। इसलिए वो ताज के करीब नहीं जाते। जब वो ये बात कह रहे होते हैं तो उनके चेहरे पर ताज को बनाने वाले मज़दूरों की रूहें उतर आती हैं। लाल हो जाता है। हाथ लरज़ने लगते हैं। बहुत ज़िद की,जमाल भाई,चलो न,ताज के सामने। दो बार गया। मना कर दिया। जमालुद्दीन ने कहा कि नहीं,मैं ताज के सामने नहीं जा सकता। कहने लगे कि सामने शाहजहां को देखकर कांप जाता हूं। शाहजहां के किस्से और उस संगमरमर की इमारत का इतना शानदार कथाकार मुझे आज तक नहीं मिला। जमालुद्दीन आज तक फोन करते हैं। कुछ मदद कर आया था तो थोड़ी और आस होगी। लेकिन इसके लिए वो कभी फोन नहीं करते। उनकी चिंता यही है कि ताज पर जो इतिहास लिखा है वो दुनिया के सामने नुमाया हो जाए। जमालुद्दीन ने कितनी बार कहा, बेटा कब आओगे। उनका यह सवाल अपराधी बना देता है। लगता है कि किसी बूढ़े बाप को अकेला छोड़ आया हूं। दो साल पहले जब उनके घर से निकला तो जमालुद्दीन ने मुझे एक नक्श दिया। एक कागज़ का टुकड़ा। किसी भी ओर और छोर से देखिये तो अल्लाह लिखा मिलेगा। जमाल ने कहा कि बुरी नज़र न लगे। आज तक मेरी पर्स में वो नक्श है।
पंजाब के रियाड़का गया था। गुरुदासपुर में। सच बोलने का स्कूल पर स्पेशल रिपोर्ट करने। पूरे परिवार से ऐसी दोस्ती हुई कि हर तीज त्योहार पर वहां से फोन आता है। कब आ रहे हो? आने का वादा मेरा ही था। दो दिन तक उस स्कूल में रहा। परिवार में ऐसे घुल मिल गया कि वादा कर आया कि अबकी परिवार के साथ आऊंगा। मौका ही नहीं लगा। स्पेशल रिपोर्ट के दौरान अमृतसर के एक स्कूल की प्रिंसिपल से मुलाकात हुई थी। वो अब कनाडा में हैं। उनका फोन आया था। कहां इंटरनेट पर आपकी आवाज़ आ रही थी तो हम सब दौड़ गए कि ये तो अपने रवीश कुमार की रिपोर्ट लगती है। वो बहुत भावुक थीं। कह रही थीं कि बेटे कभी कनाडा आना। हम हिन्दुस्तान आ रहे हैं तो ज़रूर मिलेंगे। मैं हंसने लगा। माता जी, कितना झूठ बोलूं मैं। दुबारा कब मिलना हुआ है। अरे क्या बात करते हो जी। आपको टाइम नहीं तो हम आ जायेंगे। रियाड़का स्कूल के प्रिंसिपल के बेटे गगनदीप आज तक एसएमएस करते हैं। कई बार पलट कर फोन करता हूं तो पूरे घर में खुशी की लहर दौड़ जाती है। अद्भुत स्कूल है। इतना मोहित हो गया था कि खुद ही वादा कर दिया कि गर्मियों में पत्नी और बेटी के साथ यहां आकर रहूंगा। आज तक नहीं जा सका।
ऐसा ही इंतज़ार गुजरात में हो रहा है। मेरठ में डॉक्टर साहब कर रहे हैं,मैनपुरी में प्रोफेसर साहब कर रहे हैं,भिवानी में प्रीतम भाई कर रहे हैं,अलीगढ़ के दारोगा जी कर रहे हैं,बारामती में सुशील कर रहे हैं,जयपुर के चंद्रपरिहार साहब कर रहे हैं। आगरा के देवकीनंदन सोन कहते हैं कि आप से मिलने के बाद लगा कि कोई रिश्ता है। जब भी आपकी आवाज़ आती है घर में हंगामा मच जाता है। सब कहने लगते हैं कि अरे ये तो अपने रवीश भाई हैं। क्या बात है। इजाज़त हो तो भावुक हो लूं। इतराना अच्छा नहीं लगता। मेरा स्वभाव भी नहीं है। लेकिन क्या करूं इन रिश्तों का? कब तक दुबारा आने के भरोसे पर ये टिके रहेंगे। मालूम नहीं लेकिन जब इनलोगों का फोन आता है तो बहुत अच्छा लगता है। कम मिलने-जुलने वाला आदमी हूं और बिना मेहनत किये ऐसा खजाना मिल जाए तो सहेज कर रखने का लालच भी होता है। कई लोग ऐसे हैं जिनसे सिर्फ फोन पर रिश्तेदारी है। आवाज़ से उनको जानता हूं। कभी मिला नहीं। डर भी लगता है कि पांच साल से जिससे फोन पर बात कर रहा हूं, वो अचानक मिल जाए तो न पहचान पाने का असर कितना खतरनाक होगा। कहीं ये न सोच बैठे कि दंभी है।
रिपोर्टर दुबारा क्यों नहीं जा पाता और नहीं जा पाता है तो पहली बार में ऐसे रिश्ते क्यों बनाता है? रिश्तों के बिना हर रिपोर्टर अधूरा है। काश इन सब को संभाल पाता। दुबारा जा पाता। इन सबका अपराधी तो हूं लेकिन इन्हीं लोगों से पूरा भी होता हूं। हम रिपोर्टरों को कितना कुछ मिलता है। इनती सारी मायें, इतने संगे संबंधी सब इसी पेशे में मिले हैं। ग़ज़ब का काम है ये पत्रकारिता। दुनिया के सबसे आसान कामों में से एक लेकिन रिश्ते इतने मुश्किल कि भावुक कर तोड़ देते हैं। सारे रिपोर्टर को भावुकता के इन लम्हों से गुज़रना होता होगा। सबको मरना पड़ता होगा।
विकास के आंकड़ों में बिहार की राजनीति
बिहार इनदिनों आर्थिक संवृद्धि (इकॉनामिक ग्रोथ) को लेकर खासे चर्चा में है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) द्वारा जारी आंकड़े में बिहार का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) काफी बढ़ गया है। आंकड़े के अनुसार 2004 से 2009 के बीच राज्य के जीडीपी में औसतन 11.03 प्रतिशत का सालाना इजाफा हुआ है। यह 8.49 के राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। पूरे देश में सिर्फ गुजरात के जीडीपी के ग्रोथ रेट का औसत बिहार से थोड़ा अधिक 11.06 प्रतिशत है।
इस खबर के आने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चुनावी वर्ष में एक बड़ा हथियार मिल गया है। साथ ही उनकी मुरीद मीडिया को सुशासन का भोंपू और तेजी से बजाने का मौका हाथ लग गया है। दोनों इस अवसर को लेकर इतने मदांध हैं कि उन्हें सही-गलत और असलियत को जानने-समझने या समझाने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। इसी का नतीजा है कि इकॉनामिक ग्रोथ को आर्थिक विकास (इकॉनामिक डेवलपमेंट) बताने की मुहिम छेड़ दी गई है। दोनों शब्दों(इकॉनामिक ग्रोथ और इकॉनामिक डेवलपमेंट)को पर्यायवाची बना कर परोसा जा रहा है।
जबकि इकॉनामिक ग्रोथ और इकॉनामिक डेवलपमेंट दो अलग-अलग चीजें हैं। सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली वृद्धि को इंगित करने के लिए इकॉनामिक ग्रोथ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। इस इकॉनामिक ग्रोथ को सकल घरेलू उत्पाद में होने वाले बदलाव की दर के आधार पर मापा जाता है। इकॉनामिक ग्रोथ अपने आप में इकॉनामिक डेवलपमेंट नहीं है। इकॉनामिक ग्रोथ या सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर विकास को नहीं आंका जा सकता। दरअसल, इकॉनामिक ग्रोथ सिर्फ उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के परिमाण को बताता है। इनका उत्पादन किस तरह हुआ , इसके बारे में यह कुछ नहीं बताता। इसके विपरीत आर्थिक विकास (इकॉनामिक डेवलपमेंट) वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन के तरीके में होने वाले बदलावों को बताता है। सकारात्मक आर्थिक विकास के लिए ज्यादा कुशल या उत्पादक तकनीक या सामाजिक संगठन की जरूरत पड़ती है।
इसी तरह प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद देश या राज्य के औसत आय को बताता है। इससे इस बात का पता नहीं चलता कि आय को किस तरह बांटा गया है या आय को किस तरह खर्च किया गया है। इस कारण प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अधिक होने के बावजूद आम जनता के विकास का सूचकांक नीचे रह सकता है। उदाहरण के लिए ओमान में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बहुत अधिक है, लेकिन वहां शिक्षा का स्तर काफी नीचे है । इसके कारण उरग्वे की तुलना में ओमान का ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स (एचडीआइ) नीचे है जबकि उरग्वे का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद ओमान की तुलना में आधा है।
हकीकत तो यह है कि पिछले कुछ सालों में भारत का तीव्र इकॉनामिक ग्रोथ हुआ है। इसके बावजूद देश के समक्ष गंभीर समस्याएं बनी हुई हैं। हालिया ग्रोथ ने आर्थिक विषमता को और ज्यादा चैड़ा किया है। इकाॅनामिक ग्रोथ का दर ऊंचा रहने के बावजूद देश की करीब 80 प्रतिशत आबादी बदहाली की जिंदगी जीने को विवश है। बिहार के तीन साल से कम उम्र के 56 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट हैं। बिहार की आधी से अधिक आबादी गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जीवन वसर करने को मजबूर है।
यह सही है कि गरीबी उन्मूलन के साथ सकारात्मक विकास के लिए एक सीमा का इकॉनामिक ग्रोथ जरूरी है। लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि इकॉनामिक ग्रोथ होने से विकास हो ही जाएगा। इकॉनामिक ग्रोथ इस बात की कोई गारंटी नहीं देता कि सभी लोगों को समान रूप से लाभ मिलेगा। यह ग्रोथ गरीब और हाशिए पर रहने वालों की अनदेखी कर सकता है। इसके कारण विषमता बढ़ सकती है। आर्थिक विषमता बढ़ने पर गरीबी उन्मूलन का दर घटेगा और अंततः इकॉनामिक ग्रोथ भी घटेगा। राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक सौहार्द पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसलिए विषमता को पाटना विकास नीति की प्रमुख चुनौती बनी हुई है और यही कारण है कि हाल के वर्षों में सम्मिलित संवर्धन (इनक्लूसिव ग्रोथ) पर जोर दिया जा रहा है। जिस ग्रोथ के तहत सामाजिक अवसर बढ़ेगे उसे इनक्लूसिव ग्रोथ कहा जाएगा। यह सामाजिक अवसर दो बातों, आबादी को उपलब्ध औसत अवसर और इस अवसर को आबादी के बीच किस तरह बांटा गया, पर निर्भर करता है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ग्रोथ को लेकर स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर के जिस लेख की चर्चा बार-बार कर रहें हैं उसमें बिहार,केरल,ओड़िसा,झारखंड और छत्तीसगढ़ के ऊंचे ग्रोथ रेट का उल्लेख तो किया गया है,लेकिन इसका श्रेय केंद्र सरकार को नहीं दिया गया है। लेख में कहा गया है कि 1980 के दशक और फिर 1991 से उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद केंद्र की नीतियों का लाभ तो इन राज्यों को मिला, लेकिन हाल के वर्षों में इनका जो ग्रोथ बढ़ा है वह पूरी तरह राज्य सरकार की करामात है। लेकिन इस करामात को साबित करने के लिए स्वामीनाथन उसी लेख में बताते हैं कि इसके कारण ग्रामीण इलाकों में मोटर साइकिलों और ब्रांडेड उत्पादों की बिक्री बढ़ी है। उनके अनुसार ग्रोथ रेट बढ़ने का इससे भी बड़ा सबूत सेलफोन की क्रांति है। प्रति माह लगभग सवा करोड़ (12-15 मिलियन) सेलफोन की बिक्री हो रही है। बिहार और झारखंड में सेलफोन की बिक्री में 99.41 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन स्वामीनाथन साहब पहले टाइम्स आफ इंडिया (3जनवरी,2010) और फिर इकॉनामिक टाइम्स (6 जनवरी, 2010) के अपने पूरे लेख में इससे अधिक और कोई सबूत नहीं दे पाए हैं,जो साबित करे कि सचमुच में विकास हो रहा है।
स्वामीनाथन ने ग्रोथ के जो प्रमाण दिए हैं उससे हाल में एशियाई विकास बैंक के द्वारा व्यक्त की गई आशंकाओं को ही बल मिलता है। एशियाई विकास बैंक के एक अध्ययन दल ने रिपोर्ट दी थी कि ग्रोथ की मौजूदा प्रक्रिया ऐसे नए आर्थिक अवसरों को सृजित करती है जिनका बंटवारा असमान तरीके से होता है। आम तौर पर इन अवसरों से गरीब वंचित रह जाते हैं। साथ ही बाजार का प्रभाव उन्हें इन अवसरों का लाभ नहीं लेने देता। नतीजा होता है कि गैर गरीबों की तुलना में गरीबों को ग्रोथ का लाभ कम मिल पाता है। ऐसे में अगर ग्रोथ को पूरी तरह बाजार के हाथों में छोड़ दिया जाएगा तो इसका लाभ गरीबों को नहीं मिल पाएगा। ऐसी स्थिति नहीं बने इसके लिए सरकार को सजग रहना होगा और ऐसी नीतियां बनानी होगी जिसमें गरीबों की हिस्सेदारी बढ़े। ऐसा होने पर ही इनक्लूसिव ग्रोथ हो पाएगा। लेकिन बिहार सरकार की नीतिगत कार्रवाइयां इन पैमानों पर सकारात्मक नहीं दिखतीं।
बिहार की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है। इसके बावजूद राज्य में भूमि सुधार के लिए गठित भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को लागू करने से सरकार ने साफ तौर पर इंकार कर दिया है। तमाम दावों के बावजूद मात्र एक हजार करोड़ से कुछ ज्यादा का कुल निवेश पिछले चार साल में हुआ है। शिक्षण संस्थानों में तीस से चालीस प्रतिशत पद रिक्त हैं। राज्य में बिजली की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। अगले पांच साल तक कोई राहत मिलने की उम्मीद नहीं है।
अभी बिहार में जो ग्रोथ हुआ है, उसमें क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ता नजर आ रहा है। विश्व बैंक अगर कहता है कि व्यापार करने के लिए दिल्ली के बाद पटना देश का सबसे उपयुक्त जगह है तो हमें इससे गौरवान्वित होने की जरूरत नहीं। हम ग्रोथ के उस पैटर्न पर चल रहे हैं जिसमें ऐसी ही स्थिति उभरेगी। पैसा पटना में संकेद्रित हो रहा है। पटना में फ्लैटों के दाम एनसीआर के बराबर हो गए हैं। पटना में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों का औसत दिल्ली के बराबर है। हवाई यात्रा करने वालों की संख्या पटना में दिल्ली के बराबर हो रही है। राज्य के अंदर ही विषमता बढ़ रही है। लेकिन उत्तर बिहार, पूर्वी बिहार बदहाल है। आधी आबादी गरीबी की सीमा रेखा के नीचे है।
इस तरह स्वामीनाथन हों या विश्व बैंक, उदारीकरण के हथियार से पूंजीवाद का साम्राज्य फैलाने की जुगत में लगे हर व्यक्ति और संस्था के लिए विकास का मानक यही, यानी उपभोक्तावाद और विषमता, है। बिहार सरकार अपने कामकाज के पक्ष में बार-बार विश्व बैंक के प्रमाण पत्र का हवाला दे रही है, लेकिन वह भूल जाती है और लोगों से यह कहने की हिम्मत नहीं करती कि देश की गुलाम बनाने में ईस्ट इंडिया कंपनी की जो भूमिका थी वही भूमिका आज अमेरिकी साम्राज्यवाद को दुनिया पर लादने में विश्व बैंक अदा कर रहा है। इसलिए विश्व बैंक के प्रमाणपत्र पर आज बिहार या नीतीश जी को इठलाने की जरूरत नहीं , बल्कि चैकस होने की जरूरत है। लेकिन मुख्यमंत्री शायद चैकस नहीं हो पाएंगे। अभी तो वे कारपोरेट सेक्टर के हीरो बने हुए हैं। लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए, एक समय में इसी कारपोरेट सेक्टर, विश्व बैंक और मीडिया के हीरो अटल बिहारी वाजपेई से लेकर चंद्राबाबू नायडू, दिग्गविजय सिंह और राम कृष्ण हेगड़े तक थे। लेकिन उनका हश्र क्या हुआ, यह बताने की जरूरत नहीं है। यह हर कोई बखूबी जानता है।
जीडीपी के ग्रोथ को लेकर इतना हल्ला मचाने की कोई जरूरत नहीं। इसे लेकर सुशासन की ढाल बजाने जैसी कोई स्थिति नहीं बनती। ध्यान देने की बात है कि जिन आंकड़ों का हवाला दिया जा रहा है, उसी के अनुसार सभी पिछड़े राज्यों में जीडीपी का ग्रोथ रेट बढ़ा है। यहां तक कि झारखंड जैसे राजनीतिक रूप से अस्थिर और कुशासित राज्य में भी यह ग्रोथ रेट बढ़ा है। सवाल उठता है कि अगर बिहार में सुशासन और मुख्यमंत्री के कुशल नेतृत्व के कारण ग्रोथ रेट बढ़ गया तो आखिर झारखंड का ग्रोथ रेट कैसे बढ़ा।
हकीकत तो यह है कि हाल के वर्षों में प्रायः सभी राज्यों में केंद्र प्रायोजित योजनाएं बड़े पैमाने पर शुरू की गई हैं। पिछड़े राज्यों का ग्रोथ रेट बढ़ने में उसका बड़ा योगदान है। फिर इसमें लो बेस इफेक्ट का भी योगदान है। राज्य सरकार का कामकाज पहले की अपेक्षा ठीक हुआ है, उसका भी निश्चित तौर पर योगदान है, लेकिन यह सिर्फ उसी का नतीजा नहीं है। क्योंकि सरकारी कामकाज में सुधार का जितना प्रचार मीडिया में तथाकथित विशेषज्ञों के द्वारा किया जा रहा है वह हकीकत नहीं है। हकीकत का पता लगाना है तो कोई दूरदराज की बात छोड़िए, पटना मुफ्फसिल अंचल कार्यालय में जाकर कोई व्यक्ति निधार्रित समय के अंदर मामूली आय प्रमाण पत्र या निवास या जाति प्रमाण बनवा लें और फिर यह बात कहे तो मैं सुशासन की बात स्वीकार करने को तैयार हूं।
और अंत में एक सवाल और है। बिहार के ग्रोथ से अति उत्साहित मुख्यमंत्री और उनकी हमदर्द मीडिया गलतबयानी क्यों कर रहे हैं। इनके द्वारा बार-बार कहा जा रहा है कि जीडीपी का जो ग्रोथ रेट सामने आया है वह पूरी तरह प्रामाणिक है, क्योंकि इसे केंद्रीय संगठन सीएसओ ने तैयार किया है। क्या मुख्यमंत्री और मीडिया वालों को यह पता नहीं कि सीएसओ राज्यों के जीडीपी का आकंड़ा नहीं तैयार करता। राज्यों के जीडीपी का आंकड़ा संबंधित राज्य सरकार खुद तैयार करती हैं और उसे जारी करने के लिए सीएसओ को सौंप देती है। सीएसओ सभी राज्यों के इस आंकड़े को जारी भर करता है, वह इसे सत्यापित नहीं करता।
इस संबंध में भारत सरकार के मुख्य सांख्यिकीविद् और केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के सचिव प्रणब सेन का बयान भी आया है कि ‘‘ सीएसओ राज्यों के जीडीपी का डाटा नहीं उपलब्ध कराता है। सीएसओ और राज्यों के बीच एक व्यवस्था बनी हुई है जिसके तहत राज्य सरकारें खुद अपने जीडीपी का अनुमानित डाटा सीएसओ को देती हैं और सीएसओ उसे जारी करता है। इन डाटा को सीएसओ सत्यापित नहीं करता है। इसलिए इसे सीएसओ का डाटा कहना उचित नहीं है। ’’ इस संबंध में सही जानकारी के लिए भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम मंत्रालय की साइट (http:// mospi.gov.in/state-wise_SDP_1999-2000_20nov.pdf ) को देखा जा सकता है, जहां से इस डाटा को जारी किया गया है। राज्यवार डाटा के नीचे स्पष्ट तौर पर स्रोत अंकित है। इसमें लिखा हुआ है कि राज्यों के आंकड़े संबंधित राज्य के वित्त एवं सांख्यिकी निदेशालय के हैं, जबकि राष्ट्रीय आंकड़े सीएसओ के हैं। इसके बावजूद मुख्यमंत्री के द्वारा किया जा रहा दावा क्या चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत को चरितार्थ नहीं करती।
(विपेंद्र बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं। १३ साल की उम्र से अखबारों में छप रहे हैं। १६ साल की उम्र में ही मासिक पत्रिका युवा चिंतन निकाली। 2004 से प्रभात खबर(रांची),पाटलिपुत्र टाइम्स (पटना),हिंदुस्तान (पटना) और फिर प्रभात खबर (पटना) में अप्रैल, 2009 तक उप संपादक से लेकर समाचार समन्वयक तक का काम किया। इसी बीच 2004 में पटना से दोपहर का दैनिक महानगर टूडे भी निकाला।)
इस खबर के आने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चुनावी वर्ष में एक बड़ा हथियार मिल गया है। साथ ही उनकी मुरीद मीडिया को सुशासन का भोंपू और तेजी से बजाने का मौका हाथ लग गया है। दोनों इस अवसर को लेकर इतने मदांध हैं कि उन्हें सही-गलत और असलियत को जानने-समझने या समझाने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। इसी का नतीजा है कि इकॉनामिक ग्रोथ को आर्थिक विकास (इकॉनामिक डेवलपमेंट) बताने की मुहिम छेड़ दी गई है। दोनों शब्दों(इकॉनामिक ग्रोथ और इकॉनामिक डेवलपमेंट)को पर्यायवाची बना कर परोसा जा रहा है।
जबकि इकॉनामिक ग्रोथ और इकॉनामिक डेवलपमेंट दो अलग-अलग चीजें हैं। सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली वृद्धि को इंगित करने के लिए इकॉनामिक ग्रोथ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। इस इकॉनामिक ग्रोथ को सकल घरेलू उत्पाद में होने वाले बदलाव की दर के आधार पर मापा जाता है। इकॉनामिक ग्रोथ अपने आप में इकॉनामिक डेवलपमेंट नहीं है। इकॉनामिक ग्रोथ या सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर विकास को नहीं आंका जा सकता। दरअसल, इकॉनामिक ग्रोथ सिर्फ उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के परिमाण को बताता है। इनका उत्पादन किस तरह हुआ , इसके बारे में यह कुछ नहीं बताता। इसके विपरीत आर्थिक विकास (इकॉनामिक डेवलपमेंट) वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन के तरीके में होने वाले बदलावों को बताता है। सकारात्मक आर्थिक विकास के लिए ज्यादा कुशल या उत्पादक तकनीक या सामाजिक संगठन की जरूरत पड़ती है।
इसी तरह प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद देश या राज्य के औसत आय को बताता है। इससे इस बात का पता नहीं चलता कि आय को किस तरह बांटा गया है या आय को किस तरह खर्च किया गया है। इस कारण प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अधिक होने के बावजूद आम जनता के विकास का सूचकांक नीचे रह सकता है। उदाहरण के लिए ओमान में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बहुत अधिक है, लेकिन वहां शिक्षा का स्तर काफी नीचे है । इसके कारण उरग्वे की तुलना में ओमान का ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स (एचडीआइ) नीचे है जबकि उरग्वे का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद ओमान की तुलना में आधा है।
हकीकत तो यह है कि पिछले कुछ सालों में भारत का तीव्र इकॉनामिक ग्रोथ हुआ है। इसके बावजूद देश के समक्ष गंभीर समस्याएं बनी हुई हैं। हालिया ग्रोथ ने आर्थिक विषमता को और ज्यादा चैड़ा किया है। इकाॅनामिक ग्रोथ का दर ऊंचा रहने के बावजूद देश की करीब 80 प्रतिशत आबादी बदहाली की जिंदगी जीने को विवश है। बिहार के तीन साल से कम उम्र के 56 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट हैं। बिहार की आधी से अधिक आबादी गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जीवन वसर करने को मजबूर है।
यह सही है कि गरीबी उन्मूलन के साथ सकारात्मक विकास के लिए एक सीमा का इकॉनामिक ग्रोथ जरूरी है। लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि इकॉनामिक ग्रोथ होने से विकास हो ही जाएगा। इकॉनामिक ग्रोथ इस बात की कोई गारंटी नहीं देता कि सभी लोगों को समान रूप से लाभ मिलेगा। यह ग्रोथ गरीब और हाशिए पर रहने वालों की अनदेखी कर सकता है। इसके कारण विषमता बढ़ सकती है। आर्थिक विषमता बढ़ने पर गरीबी उन्मूलन का दर घटेगा और अंततः इकॉनामिक ग्रोथ भी घटेगा। राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक सौहार्द पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसलिए विषमता को पाटना विकास नीति की प्रमुख चुनौती बनी हुई है और यही कारण है कि हाल के वर्षों में सम्मिलित संवर्धन (इनक्लूसिव ग्रोथ) पर जोर दिया जा रहा है। जिस ग्रोथ के तहत सामाजिक अवसर बढ़ेगे उसे इनक्लूसिव ग्रोथ कहा जाएगा। यह सामाजिक अवसर दो बातों, आबादी को उपलब्ध औसत अवसर और इस अवसर को आबादी के बीच किस तरह बांटा गया, पर निर्भर करता है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ग्रोथ को लेकर स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर के जिस लेख की चर्चा बार-बार कर रहें हैं उसमें बिहार,केरल,ओड़िसा,झारखंड और छत्तीसगढ़ के ऊंचे ग्रोथ रेट का उल्लेख तो किया गया है,लेकिन इसका श्रेय केंद्र सरकार को नहीं दिया गया है। लेख में कहा गया है कि 1980 के दशक और फिर 1991 से उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद केंद्र की नीतियों का लाभ तो इन राज्यों को मिला, लेकिन हाल के वर्षों में इनका जो ग्रोथ बढ़ा है वह पूरी तरह राज्य सरकार की करामात है। लेकिन इस करामात को साबित करने के लिए स्वामीनाथन उसी लेख में बताते हैं कि इसके कारण ग्रामीण इलाकों में मोटर साइकिलों और ब्रांडेड उत्पादों की बिक्री बढ़ी है। उनके अनुसार ग्रोथ रेट बढ़ने का इससे भी बड़ा सबूत सेलफोन की क्रांति है। प्रति माह लगभग सवा करोड़ (12-15 मिलियन) सेलफोन की बिक्री हो रही है। बिहार और झारखंड में सेलफोन की बिक्री में 99.41 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन स्वामीनाथन साहब पहले टाइम्स आफ इंडिया (3जनवरी,2010) और फिर इकॉनामिक टाइम्स (6 जनवरी, 2010) के अपने पूरे लेख में इससे अधिक और कोई सबूत नहीं दे पाए हैं,जो साबित करे कि सचमुच में विकास हो रहा है।
स्वामीनाथन ने ग्रोथ के जो प्रमाण दिए हैं उससे हाल में एशियाई विकास बैंक के द्वारा व्यक्त की गई आशंकाओं को ही बल मिलता है। एशियाई विकास बैंक के एक अध्ययन दल ने रिपोर्ट दी थी कि ग्रोथ की मौजूदा प्रक्रिया ऐसे नए आर्थिक अवसरों को सृजित करती है जिनका बंटवारा असमान तरीके से होता है। आम तौर पर इन अवसरों से गरीब वंचित रह जाते हैं। साथ ही बाजार का प्रभाव उन्हें इन अवसरों का लाभ नहीं लेने देता। नतीजा होता है कि गैर गरीबों की तुलना में गरीबों को ग्रोथ का लाभ कम मिल पाता है। ऐसे में अगर ग्रोथ को पूरी तरह बाजार के हाथों में छोड़ दिया जाएगा तो इसका लाभ गरीबों को नहीं मिल पाएगा। ऐसी स्थिति नहीं बने इसके लिए सरकार को सजग रहना होगा और ऐसी नीतियां बनानी होगी जिसमें गरीबों की हिस्सेदारी बढ़े। ऐसा होने पर ही इनक्लूसिव ग्रोथ हो पाएगा। लेकिन बिहार सरकार की नीतिगत कार्रवाइयां इन पैमानों पर सकारात्मक नहीं दिखतीं।
बिहार की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है। इसके बावजूद राज्य में भूमि सुधार के लिए गठित भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को लागू करने से सरकार ने साफ तौर पर इंकार कर दिया है। तमाम दावों के बावजूद मात्र एक हजार करोड़ से कुछ ज्यादा का कुल निवेश पिछले चार साल में हुआ है। शिक्षण संस्थानों में तीस से चालीस प्रतिशत पद रिक्त हैं। राज्य में बिजली की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। अगले पांच साल तक कोई राहत मिलने की उम्मीद नहीं है।
अभी बिहार में जो ग्रोथ हुआ है, उसमें क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ता नजर आ रहा है। विश्व बैंक अगर कहता है कि व्यापार करने के लिए दिल्ली के बाद पटना देश का सबसे उपयुक्त जगह है तो हमें इससे गौरवान्वित होने की जरूरत नहीं। हम ग्रोथ के उस पैटर्न पर चल रहे हैं जिसमें ऐसी ही स्थिति उभरेगी। पैसा पटना में संकेद्रित हो रहा है। पटना में फ्लैटों के दाम एनसीआर के बराबर हो गए हैं। पटना में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों का औसत दिल्ली के बराबर है। हवाई यात्रा करने वालों की संख्या पटना में दिल्ली के बराबर हो रही है। राज्य के अंदर ही विषमता बढ़ रही है। लेकिन उत्तर बिहार, पूर्वी बिहार बदहाल है। आधी आबादी गरीबी की सीमा रेखा के नीचे है।
इस तरह स्वामीनाथन हों या विश्व बैंक, उदारीकरण के हथियार से पूंजीवाद का साम्राज्य फैलाने की जुगत में लगे हर व्यक्ति और संस्था के लिए विकास का मानक यही, यानी उपभोक्तावाद और विषमता, है। बिहार सरकार अपने कामकाज के पक्ष में बार-बार विश्व बैंक के प्रमाण पत्र का हवाला दे रही है, लेकिन वह भूल जाती है और लोगों से यह कहने की हिम्मत नहीं करती कि देश की गुलाम बनाने में ईस्ट इंडिया कंपनी की जो भूमिका थी वही भूमिका आज अमेरिकी साम्राज्यवाद को दुनिया पर लादने में विश्व बैंक अदा कर रहा है। इसलिए विश्व बैंक के प्रमाणपत्र पर आज बिहार या नीतीश जी को इठलाने की जरूरत नहीं , बल्कि चैकस होने की जरूरत है। लेकिन मुख्यमंत्री शायद चैकस नहीं हो पाएंगे। अभी तो वे कारपोरेट सेक्टर के हीरो बने हुए हैं। लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए, एक समय में इसी कारपोरेट सेक्टर, विश्व बैंक और मीडिया के हीरो अटल बिहारी वाजपेई से लेकर चंद्राबाबू नायडू, दिग्गविजय सिंह और राम कृष्ण हेगड़े तक थे। लेकिन उनका हश्र क्या हुआ, यह बताने की जरूरत नहीं है। यह हर कोई बखूबी जानता है।
जीडीपी के ग्रोथ को लेकर इतना हल्ला मचाने की कोई जरूरत नहीं। इसे लेकर सुशासन की ढाल बजाने जैसी कोई स्थिति नहीं बनती। ध्यान देने की बात है कि जिन आंकड़ों का हवाला दिया जा रहा है, उसी के अनुसार सभी पिछड़े राज्यों में जीडीपी का ग्रोथ रेट बढ़ा है। यहां तक कि झारखंड जैसे राजनीतिक रूप से अस्थिर और कुशासित राज्य में भी यह ग्रोथ रेट बढ़ा है। सवाल उठता है कि अगर बिहार में सुशासन और मुख्यमंत्री के कुशल नेतृत्व के कारण ग्रोथ रेट बढ़ गया तो आखिर झारखंड का ग्रोथ रेट कैसे बढ़ा।
हकीकत तो यह है कि हाल के वर्षों में प्रायः सभी राज्यों में केंद्र प्रायोजित योजनाएं बड़े पैमाने पर शुरू की गई हैं। पिछड़े राज्यों का ग्रोथ रेट बढ़ने में उसका बड़ा योगदान है। फिर इसमें लो बेस इफेक्ट का भी योगदान है। राज्य सरकार का कामकाज पहले की अपेक्षा ठीक हुआ है, उसका भी निश्चित तौर पर योगदान है, लेकिन यह सिर्फ उसी का नतीजा नहीं है। क्योंकि सरकारी कामकाज में सुधार का जितना प्रचार मीडिया में तथाकथित विशेषज्ञों के द्वारा किया जा रहा है वह हकीकत नहीं है। हकीकत का पता लगाना है तो कोई दूरदराज की बात छोड़िए, पटना मुफ्फसिल अंचल कार्यालय में जाकर कोई व्यक्ति निधार्रित समय के अंदर मामूली आय प्रमाण पत्र या निवास या जाति प्रमाण बनवा लें और फिर यह बात कहे तो मैं सुशासन की बात स्वीकार करने को तैयार हूं।
और अंत में एक सवाल और है। बिहार के ग्रोथ से अति उत्साहित मुख्यमंत्री और उनकी हमदर्द मीडिया गलतबयानी क्यों कर रहे हैं। इनके द्वारा बार-बार कहा जा रहा है कि जीडीपी का जो ग्रोथ रेट सामने आया है वह पूरी तरह प्रामाणिक है, क्योंकि इसे केंद्रीय संगठन सीएसओ ने तैयार किया है। क्या मुख्यमंत्री और मीडिया वालों को यह पता नहीं कि सीएसओ राज्यों के जीडीपी का आकंड़ा नहीं तैयार करता। राज्यों के जीडीपी का आंकड़ा संबंधित राज्य सरकार खुद तैयार करती हैं और उसे जारी करने के लिए सीएसओ को सौंप देती है। सीएसओ सभी राज्यों के इस आंकड़े को जारी भर करता है, वह इसे सत्यापित नहीं करता।
इस संबंध में भारत सरकार के मुख्य सांख्यिकीविद् और केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के सचिव प्रणब सेन का बयान भी आया है कि ‘‘ सीएसओ राज्यों के जीडीपी का डाटा नहीं उपलब्ध कराता है। सीएसओ और राज्यों के बीच एक व्यवस्था बनी हुई है जिसके तहत राज्य सरकारें खुद अपने जीडीपी का अनुमानित डाटा सीएसओ को देती हैं और सीएसओ उसे जारी करता है। इन डाटा को सीएसओ सत्यापित नहीं करता है। इसलिए इसे सीएसओ का डाटा कहना उचित नहीं है। ’’ इस संबंध में सही जानकारी के लिए भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम मंत्रालय की साइट (http:// mospi.gov.in/state-wise_SDP_1999-2000_20nov.pdf ) को देखा जा सकता है, जहां से इस डाटा को जारी किया गया है। राज्यवार डाटा के नीचे स्पष्ट तौर पर स्रोत अंकित है। इसमें लिखा हुआ है कि राज्यों के आंकड़े संबंधित राज्य के वित्त एवं सांख्यिकी निदेशालय के हैं, जबकि राष्ट्रीय आंकड़े सीएसओ के हैं। इसके बावजूद मुख्यमंत्री के द्वारा किया जा रहा दावा क्या चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत को चरितार्थ नहीं करती।
(विपेंद्र बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं। १३ साल की उम्र से अखबारों में छप रहे हैं। १६ साल की उम्र में ही मासिक पत्रिका युवा चिंतन निकाली। 2004 से प्रभात खबर(रांची),पाटलिपुत्र टाइम्स (पटना),हिंदुस्तान (पटना) और फिर प्रभात खबर (पटना) में अप्रैल, 2009 तक उप संपादक से लेकर समाचार समन्वयक तक का काम किया। इसी बीच 2004 में पटना से दोपहर का दैनिक महानगर टूडे भी निकाला।)
अब वो अमर हो जायेंगे- प्रभात शुंगलू
अमर सिंह कहते हैं मैं समाजवादी बनूंगा मुलायमवादी नहीं। मुलायम के नाम से इतनी बेरूखी। वो तो आपके नेताजी हैं। आप उनके राइट हैंड,लेफ्ट हैंड,उनकी नाक,नाक के बाल,कान,उनकी लाज,उनकी साख,उनके धन,उनकी सम्पदा दिल, दिमाग,मन,मस्तिष्क,उनके सैफेई सब कुछ थे। मुलायम तो केवल नाम के मुलायम सिंह यादव रह गये थे असली समाजवादी तो आप थे। पार्टी की साइकिल तो आप ही थे। जिसके आगे अमिताभ और जया बच्चन थे,पीछे कैरियर पर संजय दत्त थे,हैंडल पर जया प्रदा भाभी थीं,अनिल अंबानी की घंटी थी। पीछे मेडगार्ड में गोदरेज की लाइट। आप खुद साइकिल की चेन,उसका पहिया और उसके पहिये में डलने वाले मोबिल ऑयल। वो अलग बात है कि साइकिल मुलायमवादी अमर सिंह की समाजवादी पार्टी का बस चुनाव निशान थी। बाकी तो आप तो कभी एसयूवी से नीचे चले नहीं। नेताजी को भी उसकी खूब सवारी करवायी।
सॉरी वो एसयूवी तो पार्टी के नाम कर दी थी आपने। आप हैं ही इतने दानवीर। आप कलियुग के कर्ण हैं। गलत लोगों के चक्कर में पड़ गये। मुलायम और उनके परिवार के फेर में पड़ गये। देश में समाजवाद लाने का बयाना जो ले लिया था। आपने नेताजी को भी माइनस पावर वाला दूर का चश्मा पहना दिया था ताकि वो सैफेई में बैठ कर मुंबई के बच्चन परिवार, अंबानी परिवार, जया प्रदा, संजय दत्त सरीखे 24 कैरेट के समाजवादियों को पहचान सकें। आप उनके संजय बन गये। इसलिये नेताजी की पास की रोशनी मंद हो गयी। वो अपने पुराने समाजवादी मित्र बेनी प्रसाद वर्मा और आज़म खान को नहीं पहचान पाये। वो राज बब्बर को नहीं पहचान पाये।
पार्टी में आपके पदार्पण के बाद मुलायम सिंह ने आपकी नज़रों से ही समाजवाद देखा, समझा, जाना, पर्खा। आपने कहा कि बीजेपी को हराने के लिये देश के सारे समाजवादियों को साथ लेना चाहिये। इसलिये एक दिन आप कल्याण सिंह के चरणों में गिर पड़े कि हे प्रभु राम के सच्चे भक्त बस हमारी डूबती नैय्या पार लगा दो। बन जाओ हमारे केवट। और पार करा दो वैतरणी। वैतरणी पार तो नहीं हुयी उल्टे आप के नेताजी ने जो मुल्ला-कट दाढ़ी उगा ली थी वो धीरे धीरे सुफैद पड़ने लगी। और 2009 पार करते तो शक होने लगा कि उनकी कभी ऐसी दाढ़ी थी भी या नहीं। इसलिये जब जब ये इल्ज़ाम लगते कि यूपी में मुलायम सिंह बीजेपी से सीक्रेट डील करके सत्ता में लौटे हैं तो ये इल्ज़ाम आप अपने सर ले लेते थे।
समाजवाद को शिखर पर पहुंचाने के लिये आपने ऐसे कितने इल्ज़ाम अपने सर लिये। लेकिन आपको कोई नहीं समझ पाया। अखिलेश, धर्मेन्द्र, राम गोपल आपको कोई नहीं समझ पाया। अब ये लोग आपको उसी भाषा में समझाने में लगे हैं जिस तरह से आपने बेनी प्रसाद, राज बब्बर और आज़म खान का समझाया सॉरी निपटाया। देखिये न मुलायम सिंह अपने नज़दीकी परिवार वालों की ही साइड ले रहे। उनका उनसे खून का रिश्ता है। आप तो पैराट्रूपर थे। सॉरी हैं। इसलिये आपका इस्तीफा मंज़ूर कर लिया। और आपको बीते कल की कमज़ोरी बताकर कैसे मुंह फेर लिया। अब आपका उनसे दर्द का रिश्ता भर बचा है। इसलिये समाजवाद में फैले परिवारवाद की खातिर, समाजवाद में फैले पूंजीवाद की खातिर, मुलायम सिंह से अमर प्रेम की खातिर ये विष का प्याला तो आपको पीना ही पड़ेगा। आपको नीलकंठ बनना पड़ेगा। और अमृत्व को प्राप्त होना पड़ेगा।
(लेखक पत्रकार हैं। सीएनएन आईबीएन)
सॉरी वो एसयूवी तो पार्टी के नाम कर दी थी आपने। आप हैं ही इतने दानवीर। आप कलियुग के कर्ण हैं। गलत लोगों के चक्कर में पड़ गये। मुलायम और उनके परिवार के फेर में पड़ गये। देश में समाजवाद लाने का बयाना जो ले लिया था। आपने नेताजी को भी माइनस पावर वाला दूर का चश्मा पहना दिया था ताकि वो सैफेई में बैठ कर मुंबई के बच्चन परिवार, अंबानी परिवार, जया प्रदा, संजय दत्त सरीखे 24 कैरेट के समाजवादियों को पहचान सकें। आप उनके संजय बन गये। इसलिये नेताजी की पास की रोशनी मंद हो गयी। वो अपने पुराने समाजवादी मित्र बेनी प्रसाद वर्मा और आज़म खान को नहीं पहचान पाये। वो राज बब्बर को नहीं पहचान पाये।
पार्टी में आपके पदार्पण के बाद मुलायम सिंह ने आपकी नज़रों से ही समाजवाद देखा, समझा, जाना, पर्खा। आपने कहा कि बीजेपी को हराने के लिये देश के सारे समाजवादियों को साथ लेना चाहिये। इसलिये एक दिन आप कल्याण सिंह के चरणों में गिर पड़े कि हे प्रभु राम के सच्चे भक्त बस हमारी डूबती नैय्या पार लगा दो। बन जाओ हमारे केवट। और पार करा दो वैतरणी। वैतरणी पार तो नहीं हुयी उल्टे आप के नेताजी ने जो मुल्ला-कट दाढ़ी उगा ली थी वो धीरे धीरे सुफैद पड़ने लगी। और 2009 पार करते तो शक होने लगा कि उनकी कभी ऐसी दाढ़ी थी भी या नहीं। इसलिये जब जब ये इल्ज़ाम लगते कि यूपी में मुलायम सिंह बीजेपी से सीक्रेट डील करके सत्ता में लौटे हैं तो ये इल्ज़ाम आप अपने सर ले लेते थे।
समाजवाद को शिखर पर पहुंचाने के लिये आपने ऐसे कितने इल्ज़ाम अपने सर लिये। लेकिन आपको कोई नहीं समझ पाया। अखिलेश, धर्मेन्द्र, राम गोपल आपको कोई नहीं समझ पाया। अब ये लोग आपको उसी भाषा में समझाने में लगे हैं जिस तरह से आपने बेनी प्रसाद, राज बब्बर और आज़म खान का समझाया सॉरी निपटाया। देखिये न मुलायम सिंह अपने नज़दीकी परिवार वालों की ही साइड ले रहे। उनका उनसे खून का रिश्ता है। आप तो पैराट्रूपर थे। सॉरी हैं। इसलिये आपका इस्तीफा मंज़ूर कर लिया। और आपको बीते कल की कमज़ोरी बताकर कैसे मुंह फेर लिया। अब आपका उनसे दर्द का रिश्ता भर बचा है। इसलिये समाजवाद में फैले परिवारवाद की खातिर, समाजवाद में फैले पूंजीवाद की खातिर, मुलायम सिंह से अमर प्रेम की खातिर ये विष का प्याला तो आपको पीना ही पड़ेगा। आपको नीलकंठ बनना पड़ेगा। और अमृत्व को प्राप्त होना पड़ेगा।
(लेखक पत्रकार हैं। सीएनएन आईबीएन)
सनातन समागम का बेईमान गुणा-भागम
कुंभ में जाते तो हैं लेकिन क्या लेकर लौटते हैं? अपने पापों को तज कर और गंगा को अंजुरी में भर कर सूरज की तरफ उड़ेलने के बाद हम अपनी उस सामूहिकता का क्या करते हैं जिसके लिए कुंभ में जाना अनिवार्य माना जाता है। मंथन और मनन की प्रक्रिया के बिना कुंभ का कोई मतलब नहीं। देश भर के गांवों से लोग हरिद्वार के गंगा तट पर इसलिए जमा हो जायेंगे कि उन्हें डुबकी लगा कर लौटना है। अपनी तमाम सीमाओं को छोड़ समूह में घुल मिल जाने के लिए कुंभ होता है या समूह में जाकर अपनी सीमा रेखा को और गहरा करने के लिए कुंभ होता है? खंड-खंड और कई उपधाराओं में बंटी सनातन धारा को फिर से एक अमृत कलश चाहिए जिसे पीने से बराबरी का संदेश सनातन बन जाए।
हर की पौड़ी पर राजस्थान के लोगों की भीड़ देखकर रूक गया। दीवार पर पीले रंग की पुताई की गई थी। काले मोटे अक्षरों से लिखा था- पंडित गंगाराम। अनुसूचित जाति का एकमात्र पंडा। जिज्ञासा ने बेचैन कर दिया। यहां राजस्थान के कौन लोग आते हैं? पंडाजी ने जवाब दिया, ये सभी दलित हैं और हम सिर्फ दलितों का संस्कार करते हैं। हमारे अलावा कोई और हरिजनों को संस्कार नहीं करता। कई सौ साल पहले पंडित गंगाराम जी ने संत रविदास से दान लिया था तब से हमीं हरिजनों का दान लेते हैं।
अब कई सवालों के जवाब ज़रूरी थे। पंडाजी ने कहा कि यूपी और बिहार के हरिजन कम आते हैं। राजस्थान से ज्यादा आते हैं। वहां दलितों की आर्थिक हैसियत बदल गई है। उनमें जज, आईएएस और मंत्री सब हो गए हैं। यही लोग आकर हमें भारी चढ़ावा दे जाते हैं। सोचने लगा कि राजस्थान के दलितों की आर्थिक हैसियत बदल गई है तो सामाजिक हैसियत क्यों नहीं बदली है? क्यों उन्हें हरिद्वार के घाट पर अनुसूचित जाति के एकमात्र पंडा के यहां आना पड़ता है? अंतिम संस्कार के वक्त ऐसी गैरबराबरी किसी भी धार्मिक सामूहिकता के लिए बड़ी चुनौती होनी चाहिए लेकिन हम गज़ब के संस्कारवान लोग हैं। सामने खड़ी चुनौती को नज़रअंदाज़ कर पतली गली बना कर निकल लेते हैं।
राजस्थान से आए एक सज्जन ने कहा कि हमारे पास सब कुछ है लेकिन जब ऐसा व्यावहार होता है तो दिल टूट जाता है। अगर हम ग़लती से भी दूसरे पंडे के पास चले गए तो जाति का पता लगते हैं वो दान पुण्य कराने से इंकार कर देता है। हरिद्वार के घाटों की सुंदरता इस हकीकत से बदसूरत लगने लगी। हैरान भी हुआ कि इतनी गैरबराबरी झेलने के बाद कर्मकांडों में विश्वास कैसे बचा हुआ है। कहीं ऐसा तो नहीं कि राजस्थान के दलितों का वैकल्पिक राजनीतिक धारा में विश्वास कम रहा। उत्तर प्रदेश की घनघोर दलित राजनीति में तपने के कारण यूपी के दलितों को ऐसे घाटों पर जाना शायद अखरता होगा। इसीलिए उनकी संख्या कम है और राजस्थान के दलितों की संख्या ज़्यादा है।
कोई धर्म सनातन कैसे बनता है? क्या सिर्फ हज़ारों सालों से चले आने से या चलते रहने की इस अनंत यात्रा में अपने गुण-दोषों के परिष्कार करने से? कुंभ में जाने वाले सभी लोग क्या उस घाट पर जाकर अनुसूचित जाति के पंडे से अपना संस्कार करायेंगे। मुज़फ्फरनगर के अमित वर्मा ने साफ इंकार कर दिया। पंडित गोपाल रूआंसे हो गए। कहने लगे कि हम भी ब्राह्मण हैं लेकिन दूसरे ब्राह्मण हमारे हाथ का पानी तक नहीं पीते। घाटों और नदी की देखरेख करने वाली संस्था गंगा सभा हमें सदस्य नहीं बनाती।
जाति के अलावा हैसियत के आधार पर भी हरिद्वार के घाटों का वर्गीकरण हो चुका है।आश्रमों और धर्मशालाओं के अपने-अपने घाट हैं। वीवीआईपी के लिए अलग घाट बनाये गए हैं। आश्रमों के भीतर भी सनातन सामूहिकता दरकती नज़र आती है। सांसारिक मोहमाया का भ्रम तोड़ने वाले ज़बरदस्त संदेश और बाबाओं की अपनी भंगिमाएं। आश्रमों की सज्जा ऐसे की गई है जैसे वो कोई शहरी मॉल हों।
तय करना मुश्किल हो जाता है कि फलां बाबा अच्छे है या फलां बाबा कारोबारी। समन्वय की जगह प्रतिस्पर्धा दिखती है। हरिद्वार प्रवेश करते ही चौक पर बाबाओं के बड़े-बड़े होर्डिंग। साबुन-तेल वाले विज्ञापनों के मॉडल की मानिंद बाबा लोग भी मॉडल लगते हैं। वो अपना प्रचार क्यों करवा रहे हैं? क्या हर बाबा अपने आप में ब्रांड हैं? अगर आध्यात्म का रास्ता एक ही है तो सामूहिक प्रयास क्यों नहीं हैं ताकि दलित और सर्वण सबका सामूहिक धार्मिक अनुभव एक जैसा हो। बराबरी का हो।
सारे बाबाओं के होर्डिंग हैं लेकिन वहीं गंगा प्रदूषित हो रही है। जिन धार्मिक मंचों से गंगा के लिए आवाज उठती है वो इतने राजनीतिक हो गए हैं कि सबकी माता होने के बाद भी गंगा को लेकर सामूहिकता नहीं बन पाती। गंगा को लेकर कोई चिंतन नहीं है। गंगासागर की तरफ जाने वाले मार्ग में गंगा की हालत देखी नहीं जाती। हरिद्वार के ठीक ऊपर पहाड़ों को देखिये। वृक्ष कट गए हैं। वृक्ष की जगह होर्डिंग उग आए हैं। मुख्यमंत्री के चेहरे से लेकर मोहन पूरी वाले का बोर्ड दूर से दिख जाएगा। कहीं से नहीं लगता है कि हरिद्वार आध्यात्मिक जगह है।
दरअसल तीर्थों की सात्विकता को बचाने के कोई प्रयास ही नहीं हुए। कुंभ के लिए हरिद्वार पहले से ज्यादा कंक्रीट में बदल चुका है। अकेले हरिद्वार में इकतालीस पुल बन गए हैं.। गंगा के किनारे के हर घाट को कंक्रीट में बदल दिया गया है। मल्टी लेवल पार्किंग, तरह-तरह के होटल और रंग बिरंगे आश्रम पहले से ज्यादा बन चुके होंगे। इसकी चिंता किसी को नहीं होगी। सांकेतिक रूप से पर्यावरण और गंगा को लेकर नारे ज़रूर लगाये जा रहे हैं लेकिन तीर्थों को होटल में बदलने को लेकर कोई चिंतित नहीं है। अब तीर्थ जाना वीकेंड मनाना होता है। चिंतन और मनन की प्रक्रिया खतम होती जा रही है। ऐसा नहीं है कि आने वाले लोगों की श्रद्धा कम हो गई हो। वो आज भी उतनी ही श्रद्धा से डुबकी लगाते हैं, अपने पीतरों को याद करते हैं और पूजा करते हैं। कुंभ का असली मतलब तो यही है कि हम समाज को बेहतर बनाने के लिए सामूहिक चिंतन करें। बराबरी लाने के लिए संघर्ष करें। तीर्थों का उत्साह तब औऱ दुगना हो जाएगा।
(यह लेख राजस्थान पत्रिका में छप चुका है)
हर की पौड़ी पर राजस्थान के लोगों की भीड़ देखकर रूक गया। दीवार पर पीले रंग की पुताई की गई थी। काले मोटे अक्षरों से लिखा था- पंडित गंगाराम। अनुसूचित जाति का एकमात्र पंडा। जिज्ञासा ने बेचैन कर दिया। यहां राजस्थान के कौन लोग आते हैं? पंडाजी ने जवाब दिया, ये सभी दलित हैं और हम सिर्फ दलितों का संस्कार करते हैं। हमारे अलावा कोई और हरिजनों को संस्कार नहीं करता। कई सौ साल पहले पंडित गंगाराम जी ने संत रविदास से दान लिया था तब से हमीं हरिजनों का दान लेते हैं।
अब कई सवालों के जवाब ज़रूरी थे। पंडाजी ने कहा कि यूपी और बिहार के हरिजन कम आते हैं। राजस्थान से ज्यादा आते हैं। वहां दलितों की आर्थिक हैसियत बदल गई है। उनमें जज, आईएएस और मंत्री सब हो गए हैं। यही लोग आकर हमें भारी चढ़ावा दे जाते हैं। सोचने लगा कि राजस्थान के दलितों की आर्थिक हैसियत बदल गई है तो सामाजिक हैसियत क्यों नहीं बदली है? क्यों उन्हें हरिद्वार के घाट पर अनुसूचित जाति के एकमात्र पंडा के यहां आना पड़ता है? अंतिम संस्कार के वक्त ऐसी गैरबराबरी किसी भी धार्मिक सामूहिकता के लिए बड़ी चुनौती होनी चाहिए लेकिन हम गज़ब के संस्कारवान लोग हैं। सामने खड़ी चुनौती को नज़रअंदाज़ कर पतली गली बना कर निकल लेते हैं।
राजस्थान से आए एक सज्जन ने कहा कि हमारे पास सब कुछ है लेकिन जब ऐसा व्यावहार होता है तो दिल टूट जाता है। अगर हम ग़लती से भी दूसरे पंडे के पास चले गए तो जाति का पता लगते हैं वो दान पुण्य कराने से इंकार कर देता है। हरिद्वार के घाटों की सुंदरता इस हकीकत से बदसूरत लगने लगी। हैरान भी हुआ कि इतनी गैरबराबरी झेलने के बाद कर्मकांडों में विश्वास कैसे बचा हुआ है। कहीं ऐसा तो नहीं कि राजस्थान के दलितों का वैकल्पिक राजनीतिक धारा में विश्वास कम रहा। उत्तर प्रदेश की घनघोर दलित राजनीति में तपने के कारण यूपी के दलितों को ऐसे घाटों पर जाना शायद अखरता होगा। इसीलिए उनकी संख्या कम है और राजस्थान के दलितों की संख्या ज़्यादा है।
कोई धर्म सनातन कैसे बनता है? क्या सिर्फ हज़ारों सालों से चले आने से या चलते रहने की इस अनंत यात्रा में अपने गुण-दोषों के परिष्कार करने से? कुंभ में जाने वाले सभी लोग क्या उस घाट पर जाकर अनुसूचित जाति के पंडे से अपना संस्कार करायेंगे। मुज़फ्फरनगर के अमित वर्मा ने साफ इंकार कर दिया। पंडित गोपाल रूआंसे हो गए। कहने लगे कि हम भी ब्राह्मण हैं लेकिन दूसरे ब्राह्मण हमारे हाथ का पानी तक नहीं पीते। घाटों और नदी की देखरेख करने वाली संस्था गंगा सभा हमें सदस्य नहीं बनाती।
जाति के अलावा हैसियत के आधार पर भी हरिद्वार के घाटों का वर्गीकरण हो चुका है।आश्रमों और धर्मशालाओं के अपने-अपने घाट हैं। वीवीआईपी के लिए अलग घाट बनाये गए हैं। आश्रमों के भीतर भी सनातन सामूहिकता दरकती नज़र आती है। सांसारिक मोहमाया का भ्रम तोड़ने वाले ज़बरदस्त संदेश और बाबाओं की अपनी भंगिमाएं। आश्रमों की सज्जा ऐसे की गई है जैसे वो कोई शहरी मॉल हों।
तय करना मुश्किल हो जाता है कि फलां बाबा अच्छे है या फलां बाबा कारोबारी। समन्वय की जगह प्रतिस्पर्धा दिखती है। हरिद्वार प्रवेश करते ही चौक पर बाबाओं के बड़े-बड़े होर्डिंग। साबुन-तेल वाले विज्ञापनों के मॉडल की मानिंद बाबा लोग भी मॉडल लगते हैं। वो अपना प्रचार क्यों करवा रहे हैं? क्या हर बाबा अपने आप में ब्रांड हैं? अगर आध्यात्म का रास्ता एक ही है तो सामूहिक प्रयास क्यों नहीं हैं ताकि दलित और सर्वण सबका सामूहिक धार्मिक अनुभव एक जैसा हो। बराबरी का हो।
सारे बाबाओं के होर्डिंग हैं लेकिन वहीं गंगा प्रदूषित हो रही है। जिन धार्मिक मंचों से गंगा के लिए आवाज उठती है वो इतने राजनीतिक हो गए हैं कि सबकी माता होने के बाद भी गंगा को लेकर सामूहिकता नहीं बन पाती। गंगा को लेकर कोई चिंतन नहीं है। गंगासागर की तरफ जाने वाले मार्ग में गंगा की हालत देखी नहीं जाती। हरिद्वार के ठीक ऊपर पहाड़ों को देखिये। वृक्ष कट गए हैं। वृक्ष की जगह होर्डिंग उग आए हैं। मुख्यमंत्री के चेहरे से लेकर मोहन पूरी वाले का बोर्ड दूर से दिख जाएगा। कहीं से नहीं लगता है कि हरिद्वार आध्यात्मिक जगह है।
दरअसल तीर्थों की सात्विकता को बचाने के कोई प्रयास ही नहीं हुए। कुंभ के लिए हरिद्वार पहले से ज्यादा कंक्रीट में बदल चुका है। अकेले हरिद्वार में इकतालीस पुल बन गए हैं.। गंगा के किनारे के हर घाट को कंक्रीट में बदल दिया गया है। मल्टी लेवल पार्किंग, तरह-तरह के होटल और रंग बिरंगे आश्रम पहले से ज्यादा बन चुके होंगे। इसकी चिंता किसी को नहीं होगी। सांकेतिक रूप से पर्यावरण और गंगा को लेकर नारे ज़रूर लगाये जा रहे हैं लेकिन तीर्थों को होटल में बदलने को लेकर कोई चिंतित नहीं है। अब तीर्थ जाना वीकेंड मनाना होता है। चिंतन और मनन की प्रक्रिया खतम होती जा रही है। ऐसा नहीं है कि आने वाले लोगों की श्रद्धा कम हो गई हो। वो आज भी उतनी ही श्रद्धा से डुबकी लगाते हैं, अपने पीतरों को याद करते हैं और पूजा करते हैं। कुंभ का असली मतलब तो यही है कि हम समाज को बेहतर बनाने के लिए सामूहिक चिंतन करें। बराबरी लाने के लिए संघर्ष करें। तीर्थों का उत्साह तब औऱ दुगना हो जाएगा।
(यह लेख राजस्थान पत्रिका में छप चुका है)
फिल्मों में दारोगा का प्रमोशन हो गया है।
जगदीश राज और इफ्तिख़ार की याद आ गई। सब-इंस्पेक्टर और इंस्पेकटर का किरदार इन्हीं दो के नाम रहा। पर्दे पर जब भी आए दारोगा बन कर। अमिताभ,शशि कपूर और शत्रुध्न सिन्हा जैसे बड़े कलाकारों ने भी अपनी फिल्मों दारोगा की वर्दी पहनी है। लेकिन अब फिल्मों से दारोगा का रोल गायब हो रहा है। सेंट्रल कैरेक्टर में दारोगा कब से नहीं है। इस बीच में शायद शूल ही एक फिल्म रही जिसमें दारोगा का रोल महत्वपूर्ण रहा। वर्ना अब इन सारे दारागाओं का प्रमोशन हो गया है। सरफरोश में आमिर खान ने एसीपी की भूमिका अदा की थी। वेडनेसडे में अनुपम खेर पुलिस कमिश्नर बनते हैं। जिस तरह से सिनेमा से फ्रंट स्टाल गायब हो गए उसी तरह से फिल्मों से हमारी ज़िंदगी के आस-पास के ये किरदार भी गायब कर दिए गए। सदाशिव अमरापुरकर और ओम पुरी ने दारोगा के किरदारों की विभत्सता को बखूबी उभारा था। इन किरदारों में एक किस्म की चुनौती होती थी। वो भिड़ते थे और जान भी दे देते थे। वेडनेसडे में पुलिस कमिश्नर अनुपम खेर को कंप्यूटर की हैकिंग के बारे में पता तक नहीं। पंद्रह साल का एक बच्चा आकर मदद करता है। लगता है अब जल्दी ही फिल्मों पुलिसवाले रिटायर्ड अफसर की भूमिका में आयेंगे। दारोगा से कमिश्नर बनने के बाद तो अगली सीढ़ी वही बचती है। सक्सेना और माथुर अब रिटायर्ड होने के बाद किसी घोर आतंकवादी संकट में सरकार की मदद करेंगे। प्रेमचंद ने दारोगा का अलग चित्रण किया है। मेरी मामी कहा करती थीं कि दारोगा का मतलब होता द रो गा के। यानी रोते गाते रहिए लेकिन घूस दीजिए।
वो जो प्रधानमंत्री न बन सका, चला गया
ज्योति बसु चले गए। ९५ साल की उम्र। उम्र के आखिरी पड़ाव तक सियासी सक्रियता। पश्चिम बंगाल से केंद्र की राजनीति में धुरी बने रहने वाले वे आखिरी मुख्यमंत्री साबित हुए। एक राज्य की ज़मीन में मजबूती से पांव गड़ाए ज्योति बाबू दिल्ली में धर्मनिरपेक्षता की राजनीति से पहले कांग्रेसवाद के खिलाफ गोलबंदी को सक्रिय करने वाले नेताओं में से रहे। संयुक्त मोर्चा का प्रयोग कई नाकामियों से निकलता हुआ यूपीए सरकार में आकर परिपक्व हुआ। अब सीपीएम केंद्र सरकार के साथ नहीं है,लेकिन पांच साल तक सरकारी की नीतियों पर उसका राजनीतिक प्रभाव गज़ब का रहा। इतना सख्त रहा कि मनमोहन सिंह अपनी आर्थिक नीतियों के कारण नहीं बल्कि सामाजिक नीतियों के कारण दुबारा सत्ता में आए। ये सीपीएम की दूसरी बड़ी ऐतिहासिक गलती थी। न्यूक्लियर डील पर इतनी घोर कम्युनिस्ट लाइन ली कि उस धुरी से बाहर ही छिटक गई जो उनके दम पर ही घूम रही थी। ज्योति बसु न्यूक्लियर डील के समर्थन में थे। प्रकाश करात नहीं थे। लेकिन तब शायद एक पार्टीमैन के नाते ज्योति बसु ने अपनी हैसियत का बेज़ा इस्तमाल नहीं किया। बल्कि इस बार भी पार्टी के नेताओं की बात मान ली।
इतिहास उन्हें जीडीपी ग्रोथ रेट के आंकड़ों पर देखेगा या उन नीतियों के लिए जिनसे लाखों गरीब का जीवन बदला? या उन नीतियों के लिए जिसे बसु और सुरजीत आगे बढ़ाते रहे। वो नीति थी सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष दलों की गोलबंदी। वर्ना गुजरात दंगों के बाद जब एनडीए की सरकार आती तो धर्मनिरपेक्ष सोच वाली बड़ी आबादी को गहरा धक्का लगता। एक बात यह भी कही जाती है कि पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास की दौड़ में आगे नहीं निकल सका। लेकिन जो उनका दौर था उस दौर में तो पूरे भारत की आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी। इस दौरान ज्योति बसु ने बंगाल में जो राजनैतिक और सामाजिक संस्कृति विकसित की,वो अगर उनके काडर अपने नेताओं की शह पर धूमिल न करते तो उसका भी अध्ययन किया जाता। बंगाल के सियासी माहौल में कभी सांप्रदायिकता कभी घुल नहीं पाई। लेकिन बाद के वर्षों में पार्टी के काडर भ्रष्ट होते चले गए। आततायी हो गए। अब सीपीएम भी ऐसे कार्यकर्ताओं को निकाल रही है। लेकिन लगता है अब देर हो गई। एक ऐसे समय में जब सीपीएम पश्चिम बंगाल में सबसे कमज़ोर लग रही है,उसके एक सर्वमान्य नेता का चला जाना,कई मायनों में सांकेतिक महत्व रखता है।
शरद यादव ने कहा कि जब गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को अनाज देने की बात हो रही थी तो ज्योति बसु अड़ गए। कहा कि इच्छाशक्ति होनी चाहिए,संसाधन आ जायेंगे। जिस व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की गई हो, वो पार्टी की बात मानकर इंकार कर दे, इसकी एक ही मिसाल है। पंद्रह लाख भूमिहीनों को कोई एक नीति के दम पर ज़मीन दे दे,ये किस जीडीपी ग्रोथ रेट में आएगा। प्रमोद दासगुप्ता के ट्रेन किए हुए बसु और सुरजीत दोनों ने कम्युनिस्ट राजनीति को अपने जीते जी हमेशा प्रासंगिक बनाए रखा। नीतीश कुमार भूमि सुधार लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। बसु ने कई दशक पहले ये काम कर दिखाया। उनकी साख हमेशा बनी रही। सत्ता का त्याग करने की मिसालें दी। जब शरीर थक गया तो मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी और जब पार्टी ने कह दिया तो प्रधानमंत्री बन कर कुछ करने की अभिलाषा भी। जिसकी अपनी विश्वसनीयता पार्टी से ऊपर रही।
वो प्रधानमंत्री होते तो क्या होता और न बनने से क्या हुआ,इस सवाल का कोई ठोस जवाब मिलना मुश्किल है। जहां से ज्योति बसु ने अपनी पीठ मोड़ कर इतिहास बना दिया, वहीं से हिन्दुस्तान का इतिहास दूसरी दिशा में मुड़ गया। कंप्यूटर क्लर्कों का देश बन गया। देश के डीलर उद्योगपतियों का राज( ये पंक्ति सुशांत झा के लेख से प्रेरित है),जो सिर्फ बड़े डीलर बन कर शाइनिंग इंडिया में कामयाबी के प्रतीक बन गए। भारत के उद्योगपतियों ने मौलिक संस्थान कम बनाएं बल्कि लाइसेंस हटवा कर मल्टी नेशनल कंपनियों की डीलरशिप ले ली। इस उदारीकरण का नतीजा यह है कि देश में आज चालीस करोड़ लोग गरीब हैं। बाकी गरीब ही हैं।
लेकिन ज्योति बसु भी इन्हीं संभावनाओं में कोई आर्थिक तस्वीर ढूंढ रहे थे। उनके पास भी कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति नहीं थी। तेईस सालों तक कम्युनिस्ट विचारधारा के दम पर राज करने के बाद भी कोई मॉडल नहीं बना पाए जिसकी कम्युनिस्ट आर्थिक विचारधारा के तहत व्याख्या की जाती। वो भी सीमित अर्थो में उदारीकरण के ज़रिये ही आर्थिक मुक्ति तलाश रहे थे। ठीक है कि कम्युनिस्ट आंदोलन के कई स्वरूप रहे हैं। कोई बंदूक के रास्ते चला तो कोई वोट के। देश के कई ज़िलों में बंदूकधारी साम्यवाद खड़ा हो गया और पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र के तहत दमनकारी होता लेफ्ट ममता बनर्जी की बेतुकी राजनीति के आगे कमज़ोर पड़ गया। फैसला नहीं आया है लेकिन लेफ्ट की कमज़ोरी झलक रही है। अपने बनाये किले को ढहते देखने से पहले ज्योति बसु ने दुनिया को विदा कह दिया। शायद इस बार भी उन्होंने ठीक समय पर पीठ मोड़ ली। इतिहास पर फैसला छोड़ दिया। काडर और विचारधारा के दम पर चलने वाली पार्टी अब भगवान भरोसे चलने वाली अराजक तृणमूल से अपने अस्तित्व की लड़ाई जीत पायेगी या नहीं,इस पर नतीजा आने से पहले ही लिखा जा रहा है। लेफ्ट की गलतियां इतनी हो गईं हैं कि सिर्फ आईने में झांकने से काम नहीं चलेगा। धर्मनिरपेक्ष राजनीति और लोकनीतियों के लिए लेफ्ट की मौजूदगी ज़रूरी है। सीपीएम के लिए ये समय धूल झाड़ने का है। वर्ना सामने से तेज आंधी आ रही है।
इतिहास उन्हें जीडीपी ग्रोथ रेट के आंकड़ों पर देखेगा या उन नीतियों के लिए जिनसे लाखों गरीब का जीवन बदला? या उन नीतियों के लिए जिसे बसु और सुरजीत आगे बढ़ाते रहे। वो नीति थी सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष दलों की गोलबंदी। वर्ना गुजरात दंगों के बाद जब एनडीए की सरकार आती तो धर्मनिरपेक्ष सोच वाली बड़ी आबादी को गहरा धक्का लगता। एक बात यह भी कही जाती है कि पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास की दौड़ में आगे नहीं निकल सका। लेकिन जो उनका दौर था उस दौर में तो पूरे भारत की आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी। इस दौरान ज्योति बसु ने बंगाल में जो राजनैतिक और सामाजिक संस्कृति विकसित की,वो अगर उनके काडर अपने नेताओं की शह पर धूमिल न करते तो उसका भी अध्ययन किया जाता। बंगाल के सियासी माहौल में कभी सांप्रदायिकता कभी घुल नहीं पाई। लेकिन बाद के वर्षों में पार्टी के काडर भ्रष्ट होते चले गए। आततायी हो गए। अब सीपीएम भी ऐसे कार्यकर्ताओं को निकाल रही है। लेकिन लगता है अब देर हो गई। एक ऐसे समय में जब सीपीएम पश्चिम बंगाल में सबसे कमज़ोर लग रही है,उसके एक सर्वमान्य नेता का चला जाना,कई मायनों में सांकेतिक महत्व रखता है।
शरद यादव ने कहा कि जब गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को अनाज देने की बात हो रही थी तो ज्योति बसु अड़ गए। कहा कि इच्छाशक्ति होनी चाहिए,संसाधन आ जायेंगे। जिस व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की गई हो, वो पार्टी की बात मानकर इंकार कर दे, इसकी एक ही मिसाल है। पंद्रह लाख भूमिहीनों को कोई एक नीति के दम पर ज़मीन दे दे,ये किस जीडीपी ग्रोथ रेट में आएगा। प्रमोद दासगुप्ता के ट्रेन किए हुए बसु और सुरजीत दोनों ने कम्युनिस्ट राजनीति को अपने जीते जी हमेशा प्रासंगिक बनाए रखा। नीतीश कुमार भूमि सुधार लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। बसु ने कई दशक पहले ये काम कर दिखाया। उनकी साख हमेशा बनी रही। सत्ता का त्याग करने की मिसालें दी। जब शरीर थक गया तो मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी और जब पार्टी ने कह दिया तो प्रधानमंत्री बन कर कुछ करने की अभिलाषा भी। जिसकी अपनी विश्वसनीयता पार्टी से ऊपर रही।
वो प्रधानमंत्री होते तो क्या होता और न बनने से क्या हुआ,इस सवाल का कोई ठोस जवाब मिलना मुश्किल है। जहां से ज्योति बसु ने अपनी पीठ मोड़ कर इतिहास बना दिया, वहीं से हिन्दुस्तान का इतिहास दूसरी दिशा में मुड़ गया। कंप्यूटर क्लर्कों का देश बन गया। देश के डीलर उद्योगपतियों का राज( ये पंक्ति सुशांत झा के लेख से प्रेरित है),जो सिर्फ बड़े डीलर बन कर शाइनिंग इंडिया में कामयाबी के प्रतीक बन गए। भारत के उद्योगपतियों ने मौलिक संस्थान कम बनाएं बल्कि लाइसेंस हटवा कर मल्टी नेशनल कंपनियों की डीलरशिप ले ली। इस उदारीकरण का नतीजा यह है कि देश में आज चालीस करोड़ लोग गरीब हैं। बाकी गरीब ही हैं।
लेकिन ज्योति बसु भी इन्हीं संभावनाओं में कोई आर्थिक तस्वीर ढूंढ रहे थे। उनके पास भी कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति नहीं थी। तेईस सालों तक कम्युनिस्ट विचारधारा के दम पर राज करने के बाद भी कोई मॉडल नहीं बना पाए जिसकी कम्युनिस्ट आर्थिक विचारधारा के तहत व्याख्या की जाती। वो भी सीमित अर्थो में उदारीकरण के ज़रिये ही आर्थिक मुक्ति तलाश रहे थे। ठीक है कि कम्युनिस्ट आंदोलन के कई स्वरूप रहे हैं। कोई बंदूक के रास्ते चला तो कोई वोट के। देश के कई ज़िलों में बंदूकधारी साम्यवाद खड़ा हो गया और पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र के तहत दमनकारी होता लेफ्ट ममता बनर्जी की बेतुकी राजनीति के आगे कमज़ोर पड़ गया। फैसला नहीं आया है लेकिन लेफ्ट की कमज़ोरी झलक रही है। अपने बनाये किले को ढहते देखने से पहले ज्योति बसु ने दुनिया को विदा कह दिया। शायद इस बार भी उन्होंने ठीक समय पर पीठ मोड़ ली। इतिहास पर फैसला छोड़ दिया। काडर और विचारधारा के दम पर चलने वाली पार्टी अब भगवान भरोसे चलने वाली अराजक तृणमूल से अपने अस्तित्व की लड़ाई जीत पायेगी या नहीं,इस पर नतीजा आने से पहले ही लिखा जा रहा है। लेफ्ट की गलतियां इतनी हो गईं हैं कि सिर्फ आईने में झांकने से काम नहीं चलेगा। धर्मनिरपेक्ष राजनीति और लोकनीतियों के लिए लेफ्ट की मौजूदगी ज़रूरी है। सीपीएम के लिए ये समय धूल झाड़ने का है। वर्ना सामने से तेज आंधी आ रही है।
दलित रिसोर्ट- दलित खाना से लेकर रहने का उत्तम प्रबंध
राजनाथ सिंह भी अब दलितों के घर खाने लगे हैं। राहुल गांधी तो खा ही रहे हैं। आजकल दलित फूड काफी चल निकला है। पोलिटिकली। पंजाब के उभार के दिनों में जब वहां के ट्रक ड्राईवर देशाटन पर निकलें तो पंजाबी ढाबा खुल गए। अब दलित ढाबा और दलित रिसोर्ट खोलने का टाईम आ गया है। दलित व्यंजन। मेनू में दलित नेताओं के नाम पर रखें जायें। फूले फुल्का। अंबेडकर आचार। मायावती मलाई। कांशीराम ककड़ी। शाहू पनीर। इन महापुरुषों के नाम पर बने इन व्यंजनों को तभी परोसा जाए जब खाने वाला कोई नेता इनकी एक किताब पढ़ ले। दलित ढाबे में बनाने वाले भी दलित होंगे। जो खायेगा उसे मैनेजर के साथ फोटे खिंचवा कर दिया जाएगा ताकि वे अपनी पार्टी के नेताओं को दिखा सकें। वहां पर सारे महापुरुषों की मूर्तियां भी लग सकती हैं। हर महापुरुष के हिसाब से उनके इलाके का व्यंजन हो। ये भी एक आइडिया हो सकता है। यानी अगर आप देश भर के सभी दलित महापुरुषों के इलाके का व्यंजन खा लें तो बड़े पोस्ट के दावेदार हो सकते हैं। दलित रिसोर्ट अच्छा आइडिया है। इसमें आप स्विमिग पूल में नहाने से लेकर शराब पीने की व्यवस्था हो और दलित चिंतन के एक्सपर्ट बुला कर लंबे लंबे भाषण सुनायें जायें। फिर अगले दिन दोपहर उनका टेस्ट हो और पास हो जाएं तो सर्टिफिकेट मिले। यह लिखा हुआ कि अमुक शर्मा ने पांच प्रकार के दलित व्यंजनों का किया है और पांच किस्म के विशेषज्ञों का भाषण भी सुना। बोर्ड लगा दे कि हमारे यहां दलित भोजन का उत्तम प्रबंध है। उचित दर की दुकान। खाने पीने को लेकर दलित आत्मविश्वास वैसे ही नहीं झलकता है। मेरी एक परिचित हैं जो होटल चलाती हैं। उनसे कहा कि आप पर स्टोरी करूंगा तो महिला ने कहा कि लोग जान जायेंगे तो खाना खाने नहीं आएंगे।
शुरू में तो ये भोजन विश्राम यात्रा ठीक लगी लेकिन अब यह दलितों को जानने के अलावा नौटंकी लगने लगी है। इसलिए नहीं कि ठाकुर राजनाथ सिंह भी खाने लगे हैं बल्कि इसलिए कि हो क्या रहा है। राजनाथ सिंह कब से दलितों के बारे में बात करने लगे। एक तरफ वो दलितों के घर खाना खाते हैं और दूसरी तरफ कहते हैं कॉमनवेल्थ गेम्स में बीफ मत परोसो। उन्हें खाने के संस्कारों की विविधता के बारे में कुछ नहीं मालूम। वो धर्म और जाति की राजनीति का कॉकटेल अब तो न बनायें। चार साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहते हुए तो कुछ किया नहीं। अब फोटोकॉपी पोलिटिक्स कर रहे हैं।
लेकिन क्या यह ठोस उपाय है? सारे गांवों की बसावट जात के आधार पर है। बहुत पहले मैंने इस ब्लॉग पर लिखा भी था कि गांवों की पारंपरिक बसावट को ध्वस्त कर दिया जाए और एक नया मास्टर प्लान बने। गांवों में इस तरह से घरों को बसाया जाए ताकि एक घर पंडित का हो और दूसरा दलित का, उसका पड़ोसी ठाकुर का। वैसे भी सरकार इंदिरा आवास योजना के तहत गरीबों के लिए घर बनवाती ही है। कई सरकारी योजनाएं हैं जिनके तहत गांवों में गरीबों के लिए घर बनते हैं। इन घरों को गांव के किसी छोर पर न बनाया जाए। आज भी इंदिरा आवास के घर दलितों की बस्ती में ही बनते हैं। ये चलन तुरंत बंद होना चाहिए। इंदिरा आवास के तहत सभी जाति के गरीबों को घर मिले। जब तक हम बसावट में मिलावट नहीं करेंगे, दलितों को जानने के लिए उनकी बस्तियों में जाते ही रह जाएंगे। अलग से जाकर नौटंकी करने की ज़रूरत न पड़े इसलिए गांवों की बसावट को ध्वस्त करने की योजना पर काम करना चाहिए। बवाल होगा तो होगा। ठाकुर साहब का घर एक छोर पर और जाटव जी का एक छोर पर नहीं चलेगा।
जिन शहरों में माथुर अपार्टमेंट और राजपूत अपार्टमेंट बने हैं उन्हें भी तोड़ दिया जाए। आगे से किसी भी अपार्टमेंट को इलाका और जात धरम के आधार न बनने दिया जाए। जाति को तोड़ने के कोई सकारात्मक उपाय नहीं किये जा रहे हैं। बीएसपी भी समन्वय की राजनीति कर रही है। लेकिन समन्वय की इस ताकत का इस्तमाल जाति को तोड़ने के लिए नहीं करती है। राहुल गांधी खुद तो कहते हैं कि जाति में यकीन नहीं करता लेकिन पार्टी में अभी भी जाति के नाम पर सूची बनती है। शहरों में ब्राह्मण युवती परिचय सम्मेलन, गर्ग परिचय सम्मेलन बंद कर दिया जाए। महाराष्ट्र से लेकर कई राज्यों में जाति तोड़ कर शादी करने पर पचास हज़ार रुपये दिये जा रहे हैं। इससे कुछ नहीं होने वाला। एक बार फिर से इस जाति के खिलाफ उठिये। जाति को तोड़िये।
शुरू में तो ये भोजन विश्राम यात्रा ठीक लगी लेकिन अब यह दलितों को जानने के अलावा नौटंकी लगने लगी है। इसलिए नहीं कि ठाकुर राजनाथ सिंह भी खाने लगे हैं बल्कि इसलिए कि हो क्या रहा है। राजनाथ सिंह कब से दलितों के बारे में बात करने लगे। एक तरफ वो दलितों के घर खाना खाते हैं और दूसरी तरफ कहते हैं कॉमनवेल्थ गेम्स में बीफ मत परोसो। उन्हें खाने के संस्कारों की विविधता के बारे में कुछ नहीं मालूम। वो धर्म और जाति की राजनीति का कॉकटेल अब तो न बनायें। चार साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहते हुए तो कुछ किया नहीं। अब फोटोकॉपी पोलिटिक्स कर रहे हैं।
लेकिन क्या यह ठोस उपाय है? सारे गांवों की बसावट जात के आधार पर है। बहुत पहले मैंने इस ब्लॉग पर लिखा भी था कि गांवों की पारंपरिक बसावट को ध्वस्त कर दिया जाए और एक नया मास्टर प्लान बने। गांवों में इस तरह से घरों को बसाया जाए ताकि एक घर पंडित का हो और दूसरा दलित का, उसका पड़ोसी ठाकुर का। वैसे भी सरकार इंदिरा आवास योजना के तहत गरीबों के लिए घर बनवाती ही है। कई सरकारी योजनाएं हैं जिनके तहत गांवों में गरीबों के लिए घर बनते हैं। इन घरों को गांव के किसी छोर पर न बनाया जाए। आज भी इंदिरा आवास के घर दलितों की बस्ती में ही बनते हैं। ये चलन तुरंत बंद होना चाहिए। इंदिरा आवास के तहत सभी जाति के गरीबों को घर मिले। जब तक हम बसावट में मिलावट नहीं करेंगे, दलितों को जानने के लिए उनकी बस्तियों में जाते ही रह जाएंगे। अलग से जाकर नौटंकी करने की ज़रूरत न पड़े इसलिए गांवों की बसावट को ध्वस्त करने की योजना पर काम करना चाहिए। बवाल होगा तो होगा। ठाकुर साहब का घर एक छोर पर और जाटव जी का एक छोर पर नहीं चलेगा।
जिन शहरों में माथुर अपार्टमेंट और राजपूत अपार्टमेंट बने हैं उन्हें भी तोड़ दिया जाए। आगे से किसी भी अपार्टमेंट को इलाका और जात धरम के आधार न बनने दिया जाए। जाति को तोड़ने के कोई सकारात्मक उपाय नहीं किये जा रहे हैं। बीएसपी भी समन्वय की राजनीति कर रही है। लेकिन समन्वय की इस ताकत का इस्तमाल जाति को तोड़ने के लिए नहीं करती है। राहुल गांधी खुद तो कहते हैं कि जाति में यकीन नहीं करता लेकिन पार्टी में अभी भी जाति के नाम पर सूची बनती है। शहरों में ब्राह्मण युवती परिचय सम्मेलन, गर्ग परिचय सम्मेलन बंद कर दिया जाए। महाराष्ट्र से लेकर कई राज्यों में जाति तोड़ कर शादी करने पर पचास हज़ार रुपये दिये जा रहे हैं। इससे कुछ नहीं होने वाला। एक बार फिर से इस जाति के खिलाफ उठिये। जाति को तोड़िये।
क्या टीआरपी के खिलाफ संपादक खड़े होने लगे हैं?
क्या मान लिया जाए कि अब टीआरपी के खिलाफ लड़ाई शुरू होने जा रही है? आज सुबह पहली नज़र हिन्दुस्तान में आशुतोष के लेख पर पड़ी फिर दैनिक भाष्कर में एन के सिंह के लेख पर। हैदराबाद के न्यूज़ चैनलों ने जो फर्ज़ी खबरें चलाईं हैं,लगता है कि इस भयंकर भूल ने टीआरपी लिप्त हम सभी पत्रकारों का सब्र तोड़ दिया है। आशुतोष के इस लेख से पहले कुछ साल पहले अजित अंजुम ने लिखा था कि इस बक्से को बंद करो। अब लग रहा है कि इसके विरोध को लेकर मुखरता आने वाली है।
पिछले एक साल में टैम के टीआरपी के आंकड़ों को देखने का अनुभव प्राप्त हुआ। हरा,पीला और ग्रे रंग से रंगे खांचे बताते हैं कि आपका कार्यक्रम कितना देखा गया। पहले शुक्रवार को आता था,अब बुधवार को आता है और अब तो ए मैप अगले ही दिन रेटिंग भेज देता है। टीवी वाले तो हर दिन बारहवीं का इम्तहान देते हैं। फर्क ये है कि सुसाइड की जगह खबरों को मार काट कर अनाप-शनाप खबरें ला रहे हैं। यह भी एक किस्म की आत्महत्या है। जिसे देखो वही टीआरपी का आइडिया ढूंढ रहा है। मैंने अपने ही ब्लॉग पर लिखा था कि गोबर हमारे समय का सबसे बड़ा आइडिया है और टीवी गोबर का पहाड़ है। गद्य से असर नहीं हुआ तो पद्य शैली में आ गया। हम लोगों ने भी मुकाबले के लिए प्रस्तुति शैली बदली। थोडे टाइम में ही लग गया कि घटिया होकर यह लड़ाई लड़ी जा सकती है लेकिन इस जीत का कोई मजा नहीं। एडिट की मामूली शैली बदलते ही रेटिंग दिखने लगी। लेकिन जल्दी ही सब आजिज आ गए। सहमति से फैसला हो गया कि इस चक्कर में नहीं पड़ते हैं। ये अब और नहीं हो सकता है। हमारे कुछ शो एनडीटीवी इंडिया के पुराने निष्ठावान दर्शकों को पसंद नहीं आ रहे है। हमने कुछ कार्यक्रम बंद भी कर दिये। रेटिंग के फार्मूले में भयंकर गड़बड़ी है। कोई दर्शक तालिबान या चीन पर बनने वाले एक ही तरह के विजुअल और शो को कैसे एक ही समय पर लगातार देख सकता है। मुमकिन नहीं है। आज तक यह नहीं समझा कि प्रतियोगिता से उत्पाद बेहतर होते हैं लेकिन हिन्दी न्यूज चैनलों में घटिया क्यों हो रहे हैं।
लेकिन क्या आशुतोष,अंजुम और तमाम पत्रकारों के लिख देने से टीआरपी समाप्त हो जाएगी? वैकल्पिक पैमाने की तस्वीर अभी तक सामने नहीं आई है। पूरी दुनिया में यह सिस्टम मान्य है। विज्ञापन कहां से आयेंगे। कैसे मिलेंगे। जब तक इसका विकल्प नहीं आता तब तक इस सवाल से भी जूझना होगा कि क्या हमने बेहतर काम कर रेटिंग लाने की कोशिश की। आशुतोष लिखते हैं कि खबरों की नयी दुनिया तलाशी जाए। उनके इस महत्वपूर्ण लेख में एक लाइन आ कर चली गई है। हिन्दी के चैनल और पत्रकार नए इदारों की तरफ जा रहे हैं? क्या वे प्रस्तुति शैली को लेकर कोई प्रयोग करने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं? दरअसल हमने बेहतर विकल्पों को ढूंढे बिना खुद को टीआरपी के गटर के हवाले कर दिया।
अच्छा पत्रकार होने का मतलब यह नहीं कि कुछ भी लिखेंगे या दिखायेंगे तो लोग देखेंगे। एक अच्छे पत्रकार को सर्जनात्मक भी होना चाहिए। ये नहीं चलेगा कि आप कुछ भी शूट कर लाए,बेतरतीब ढंग से पीटूसी कर के लाएं और अनुप्रासों के ज़रिये स्क्रिप्ट लिख मारे और फिर कहें कि आप अच्छी पत्रकारिता कर रहे हैं और अब दर्शकों को देखना भी पड़ेगा। ज़्यादातर पत्रकारों के शूट टेप निकाल कर देख लीजिए। उन्हें क्रिएटिव होना गुनाह लगता है। टीवी की खबरों को एजेंसी की तरह बनाने वाले रिपोर्टरों और कापीडेस्क के लोगों की नकारा शैली ने भी घटिया उत्पादों को जगह दी। घटिया इसलिए आया कि खुद को अच्छा कहने वाले तमाम पत्रकार,संपादकों और लेखकों ने मेहनत नहीं की। खबरों की नई दुनिया के साथ साथ खबरों की नई शैली भी लानी पड़ेगी। पुराने बीट रहेंगे लेकिन नई बीटों की खोज कीजिए। यह बात टीआरपी विरोधियों के मन में भी साफ होनी चाहिए कि अच्छी पत्रकारिता का मतलब होता है अच्छे पत्रकार और संसाधनों पर खर्च जिनसे होगी खबरों की तलाश। अभी तक जो हो रहा है अच्छी पत्रकारिता के नाम पर,उसको भी खारिज करना होगा। उसमें कोई ताकत नहीं है। हिन्दी न्यूज़ चैनल सिर्फ टीआरपी के मारे नहीं हैं। सिस्टम ही सड़ा हुआ लगता है। तो क्या हम इसके लिए भी तैयार हैं?
समस्या यही है कि हिन्दी न्यूज चैनल अच्छाई के छोर पर भी कमजोर लगते हैं। अब सवाल यह है कि टीआरपी के विरोध करने से पहले हम करना क्या चाहते हैं? क्या अब तमाम तरह के घटिया शो बंद हो जाएंगे? मुश्किल लगता है। टीवी एक मंहगा माध्यम है। राजस्व के बिना टिक नहीं सकता। इसलिए आज दैनिक भाष्कर की पहली खबर से गुदगुदी हुई। दूरदर्शन अपना डीटीएच लाएगा। फीस के खर्चे कम होंगे। इससे निजी चैनलों को लाभ होगा। चालीस फीसदी पैसा वितरण पर खर्च हो जाता है। किसी भी बिजनेस में वितरण का खर्चा इतना नहीं है। टीवी को यही मार रहा है। टीआरपी खतम करने से पहले राजस्व का नया वैकल्पिक मॉ़डल की भी ढूंढना होगा। वर्ना हैदराबाद में जो कुछ भी हुआ है,उससे पहले भी ऐसे कई पल आए हैं जब टीवी पत्रकारिता ने इस तरह की गिरावट देखी है। हर बार कुछ करने की बेचैनी सामने आई लेकिन कुछ नहीं हुआ। इस बार उम्मीद लगती है। वर्ना एक ही दिन दैनिक भाष्कर में एन के सिंह और हिन्दुस्तान में आशुतोष के लेख नहीं आते।
यह भी अच्छा लगता है कि टीवी अपनी खराब चीजों के बारे में खुल कर बात करने लगा है। अखबारों की तरह नहीं कि चुनावों में खबरों के लिए पैसे लिए और चुप्पी मार गए। प्रिट में भयंकर चुप्पी है। राजदीप सरदेसाई को लेख लिखना पड़ता है लेकिन हिन्दी अखबारों का कोई संपादक बोलता नहीं है। हिन्दी की बुराई अंग्रेजी अखबार में छपती है। न्यूज़ चैनलों में तो अच्छे बुरे को लेकर न्यूज फ्लोर पर ही घमासान रहती है। व्यंग्य के लहज़े में ही सही लेकिन फैसले लेने वाले को पता चल जाता है कि अगला मन से नहीं मन मार के कर रहा है। ऐसे हालात में कब तक जीयेंगे। शायद अब और बर्दाश्त नहीं हो रहा है। तो देखते हैं कि इसका असर हिन्दी न्यूज चैनलों के कंटेंट पर कितना असर पड़ता है। बहरहाल टीआरपी मीटर के खिलाफ इस बगावत का स्वागत कीजिए।
पिछले एक साल में टैम के टीआरपी के आंकड़ों को देखने का अनुभव प्राप्त हुआ। हरा,पीला और ग्रे रंग से रंगे खांचे बताते हैं कि आपका कार्यक्रम कितना देखा गया। पहले शुक्रवार को आता था,अब बुधवार को आता है और अब तो ए मैप अगले ही दिन रेटिंग भेज देता है। टीवी वाले तो हर दिन बारहवीं का इम्तहान देते हैं। फर्क ये है कि सुसाइड की जगह खबरों को मार काट कर अनाप-शनाप खबरें ला रहे हैं। यह भी एक किस्म की आत्महत्या है। जिसे देखो वही टीआरपी का आइडिया ढूंढ रहा है। मैंने अपने ही ब्लॉग पर लिखा था कि गोबर हमारे समय का सबसे बड़ा आइडिया है और टीवी गोबर का पहाड़ है। गद्य से असर नहीं हुआ तो पद्य शैली में आ गया। हम लोगों ने भी मुकाबले के लिए प्रस्तुति शैली बदली। थोडे टाइम में ही लग गया कि घटिया होकर यह लड़ाई लड़ी जा सकती है लेकिन इस जीत का कोई मजा नहीं। एडिट की मामूली शैली बदलते ही रेटिंग दिखने लगी। लेकिन जल्दी ही सब आजिज आ गए। सहमति से फैसला हो गया कि इस चक्कर में नहीं पड़ते हैं। ये अब और नहीं हो सकता है। हमारे कुछ शो एनडीटीवी इंडिया के पुराने निष्ठावान दर्शकों को पसंद नहीं आ रहे है। हमने कुछ कार्यक्रम बंद भी कर दिये। रेटिंग के फार्मूले में भयंकर गड़बड़ी है। कोई दर्शक तालिबान या चीन पर बनने वाले एक ही तरह के विजुअल और शो को कैसे एक ही समय पर लगातार देख सकता है। मुमकिन नहीं है। आज तक यह नहीं समझा कि प्रतियोगिता से उत्पाद बेहतर होते हैं लेकिन हिन्दी न्यूज चैनलों में घटिया क्यों हो रहे हैं।
लेकिन क्या आशुतोष,अंजुम और तमाम पत्रकारों के लिख देने से टीआरपी समाप्त हो जाएगी? वैकल्पिक पैमाने की तस्वीर अभी तक सामने नहीं आई है। पूरी दुनिया में यह सिस्टम मान्य है। विज्ञापन कहां से आयेंगे। कैसे मिलेंगे। जब तक इसका विकल्प नहीं आता तब तक इस सवाल से भी जूझना होगा कि क्या हमने बेहतर काम कर रेटिंग लाने की कोशिश की। आशुतोष लिखते हैं कि खबरों की नयी दुनिया तलाशी जाए। उनके इस महत्वपूर्ण लेख में एक लाइन आ कर चली गई है। हिन्दी के चैनल और पत्रकार नए इदारों की तरफ जा रहे हैं? क्या वे प्रस्तुति शैली को लेकर कोई प्रयोग करने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं? दरअसल हमने बेहतर विकल्पों को ढूंढे बिना खुद को टीआरपी के गटर के हवाले कर दिया।
अच्छा पत्रकार होने का मतलब यह नहीं कि कुछ भी लिखेंगे या दिखायेंगे तो लोग देखेंगे। एक अच्छे पत्रकार को सर्जनात्मक भी होना चाहिए। ये नहीं चलेगा कि आप कुछ भी शूट कर लाए,बेतरतीब ढंग से पीटूसी कर के लाएं और अनुप्रासों के ज़रिये स्क्रिप्ट लिख मारे और फिर कहें कि आप अच्छी पत्रकारिता कर रहे हैं और अब दर्शकों को देखना भी पड़ेगा। ज़्यादातर पत्रकारों के शूट टेप निकाल कर देख लीजिए। उन्हें क्रिएटिव होना गुनाह लगता है। टीवी की खबरों को एजेंसी की तरह बनाने वाले रिपोर्टरों और कापीडेस्क के लोगों की नकारा शैली ने भी घटिया उत्पादों को जगह दी। घटिया इसलिए आया कि खुद को अच्छा कहने वाले तमाम पत्रकार,संपादकों और लेखकों ने मेहनत नहीं की। खबरों की नई दुनिया के साथ साथ खबरों की नई शैली भी लानी पड़ेगी। पुराने बीट रहेंगे लेकिन नई बीटों की खोज कीजिए। यह बात टीआरपी विरोधियों के मन में भी साफ होनी चाहिए कि अच्छी पत्रकारिता का मतलब होता है अच्छे पत्रकार और संसाधनों पर खर्च जिनसे होगी खबरों की तलाश। अभी तक जो हो रहा है अच्छी पत्रकारिता के नाम पर,उसको भी खारिज करना होगा। उसमें कोई ताकत नहीं है। हिन्दी न्यूज़ चैनल सिर्फ टीआरपी के मारे नहीं हैं। सिस्टम ही सड़ा हुआ लगता है। तो क्या हम इसके लिए भी तैयार हैं?
समस्या यही है कि हिन्दी न्यूज चैनल अच्छाई के छोर पर भी कमजोर लगते हैं। अब सवाल यह है कि टीआरपी के विरोध करने से पहले हम करना क्या चाहते हैं? क्या अब तमाम तरह के घटिया शो बंद हो जाएंगे? मुश्किल लगता है। टीवी एक मंहगा माध्यम है। राजस्व के बिना टिक नहीं सकता। इसलिए आज दैनिक भाष्कर की पहली खबर से गुदगुदी हुई। दूरदर्शन अपना डीटीएच लाएगा। फीस के खर्चे कम होंगे। इससे निजी चैनलों को लाभ होगा। चालीस फीसदी पैसा वितरण पर खर्च हो जाता है। किसी भी बिजनेस में वितरण का खर्चा इतना नहीं है। टीवी को यही मार रहा है। टीआरपी खतम करने से पहले राजस्व का नया वैकल्पिक मॉ़डल की भी ढूंढना होगा। वर्ना हैदराबाद में जो कुछ भी हुआ है,उससे पहले भी ऐसे कई पल आए हैं जब टीवी पत्रकारिता ने इस तरह की गिरावट देखी है। हर बार कुछ करने की बेचैनी सामने आई लेकिन कुछ नहीं हुआ। इस बार उम्मीद लगती है। वर्ना एक ही दिन दैनिक भाष्कर में एन के सिंह और हिन्दुस्तान में आशुतोष के लेख नहीं आते।
यह भी अच्छा लगता है कि टीवी अपनी खराब चीजों के बारे में खुल कर बात करने लगा है। अखबारों की तरह नहीं कि चुनावों में खबरों के लिए पैसे लिए और चुप्पी मार गए। प्रिट में भयंकर चुप्पी है। राजदीप सरदेसाई को लेख लिखना पड़ता है लेकिन हिन्दी अखबारों का कोई संपादक बोलता नहीं है। हिन्दी की बुराई अंग्रेजी अखबार में छपती है। न्यूज़ चैनलों में तो अच्छे बुरे को लेकर न्यूज फ्लोर पर ही घमासान रहती है। व्यंग्य के लहज़े में ही सही लेकिन फैसले लेने वाले को पता चल जाता है कि अगला मन से नहीं मन मार के कर रहा है। ऐसे हालात में कब तक जीयेंगे। शायद अब और बर्दाश्त नहीं हो रहा है। तो देखते हैं कि इसका असर हिन्दी न्यूज चैनलों के कंटेंट पर कितना असर पड़ता है। बहरहाल टीआरपी मीटर के खिलाफ इस बगावत का स्वागत कीजिए।
अपराध का नारीवाद
दिल सा कोई कमीना नहीं...दिल तो बच्चा है जी..
इश्क की अनगिनत नाकाम कथाओं के इस देश में सामाजिक बंधनों को सहलाने वाली तमाम कथाएं, गाने और तस्वीरें मन को सहलाती हैं। शादी की दहलीज़ पर पहुंचने से अनगिनत प्रेम के पल भ्रूण हत्या के शिकार हो जाते हैं। अहसासों को गरम कर उन पर पानी डालने वाला हमारा समाज रिश्तों में बंधकर उसमें बुढ़ा कर मर जाने वाली प्रेम कहानियां पैदा करता है। इसीलिए फिल्मी परदे में प्रेम कथाओं का अनंत सफर जारी है। एक नई कथा आ गई है। विशाल भारद्वाज और अभिषेक चौबे लेकर आ रहे हैं। इश्किया। प्रोमो और गाने ने मन मोह लिया है। जब भी दिल तो बच्चा है जी, कानों तक पहुंचता है, सब कुछ रूक जाता है। एक एक अल्फाज़ के पीछे मन चलने लगता है। म्यूज़िक में जब गिटार के तार झनझनाते हैं और हारमोनियम से निकली कोई बांसुरीनुमा धुन किसी जानी पहचानी इश्किया तकलीफों से जोड़ देती है तो गाना अंदर ही अंदर अमर होने लगता है। गुलज़ार के पास न जाने अहसासों का कितना बड़ा खजाना है जो आज तक भरा ही लगता है। विनीत और पंड्या के लेख के बाद भी लिखने का मन कर रहा है। आखिर कैस रोक लूं खुद को इस लाइन के सुनने के बाद----
हाय ज़ोर करे,कितना शोर करे
बेवजह बातों पे ऐं वें ग़ौर करे
दिल सा कोई कमीना नहीं
कोई तो रोके,कोई तो टोके
इश्क में अब खाओगे धोखे
डर लगता है अब इश्क करने में जी
दिल्ली तो बच्चा है जी,दिल्ली तो बच्चा है जी
थोड़ा कच्चा है जी,दिल्ली तो बच्चा है जी
अभिषेक चौबे ने इस गाने को बेहद खूबसूरती से फिल्माया है। जब पहली बार देखा तो लगा कि वाह। जब बार बार देखा तो और लगा..वाह। ऐसा गाना सुनने को मन करता है जी। अच्छा लगता है जी। सुंदर लगता है जी। सच्चा लगता है जी।
विशाल भारद्वाज के सीने में पश्चिम उत्तर प्रदेश के समाज का हिंसक चेहरा अटका हुआ है। ओमकारा के बाद लगता है एक बार फिर वो अपने दर्द को हलका करेंगे। नैना सूरमा और तमंचा किसी मेट्रो में पले बढ़े कहानीकार के सामान नहीं हो सकते। तभी तो ऐसे संवाद हैं- हमारे गांव में चूतड़ धोने से पहले तमंचा चलाना सीखाते हैं। प्रोमो फिल्म को देखने के लिए उकसा रहा है।
दो चोर एक ऐसी जगह में फंस जाते हैं जो सुरक्षित नहीं हैं। दो चोरों के बीच एक अल्हड़ सी दिखने वाली बालन है। उसकी बतियाती आंखें और दो अलग अलग उम्र के नायकों के साथ इश्क की सहजता। सीधा पल्ला की साड़ी। लंबे बाल। चूड़ीदार चोटी वाले। एक साहसिक फिल्म लगती है। वर्ना एक औरत दो मर्दो से बराबरी से प्रेम करते हुए कब पर्दे पर देखी गई। मेट्रो शहरों की कई सच्ची कहानियों में ऐसी लड़कियां हैं मगर छुप छुप कर। उनके साथी मर्दों को भी पता है मगर छुप छुप कर। सामंती समाज के कोठों पर एक औरत के कई आशिक रहे हैं। मुझे पता भी नहीं कि विद्या का किरदार तवायफ का है या एक आजाद औरत का। जो अपने संबंधों का फैसला और अंजाम दोनों खुद तय करती है। इश्क का फैसला उसका अपना है या बंदूक की कमज़ोरियों का। यही सवाल फिल्म देखने के लिए बेचैन करेंगे। लेकिन जब वो औरत बंदूक चला कर अपने आशिकों को ढेर करती हुई लगती है तो कहानी एक बार फिर से ओमकारा फ्रेम में घुस कर कुछ ढूंढने लगती है।
लेकिन प्रेम के इन अंतरंग और नितांत शहरी लम्हों को गांव या छोटे शहरों की सेटिंग में सहजता से फिल्माने का साहस विशाल भारद्वाज कर सकते हैं। अभिषेक चौबे के बारे में नहीं जानता लेकिन लगता है कि उन्होंने इस कहानी को खूब समझा है। लिखते लिखते गाना यहां आ पहुंचा है...
प्रेम की मारे कटार रे
तौबा ये लम्हे कटते नहीं क्यों
आंखो से मेरी हटते नहीं क्यों
डर लगता है मुझसे कहने में जी
दिल्ली तो बच्चा है जी
एक और गाना हिट होने जा रहा है। इब्न बतूता का। फिल्म चलेगी,लगता है। मैंने फिर से इस गाने को रिवाइंड कर दिया है....
ऐसी उलझी नज़र उनसे,हटती नहीं...
दांत से डोर रेशम की कटती नहीं....
डर लगता है इश्क करने में जी..
दिल तो बच्चा है जी..
क्या बात है,साल की शुरूआत बेहतरीन गानों से हो रही है। इश्क में सब बेवजह होता है। बेवजह के ये गाने कसक पैदा कर रहे हैं।
हाय ज़ोर करे,कितना शोर करे
बेवजह बातों पे ऐं वें ग़ौर करे
दिल सा कोई कमीना नहीं
कोई तो रोके,कोई तो टोके
इश्क में अब खाओगे धोखे
डर लगता है अब इश्क करने में जी
दिल्ली तो बच्चा है जी,दिल्ली तो बच्चा है जी
थोड़ा कच्चा है जी,दिल्ली तो बच्चा है जी
अभिषेक चौबे ने इस गाने को बेहद खूबसूरती से फिल्माया है। जब पहली बार देखा तो लगा कि वाह। जब बार बार देखा तो और लगा..वाह। ऐसा गाना सुनने को मन करता है जी। अच्छा लगता है जी। सुंदर लगता है जी। सच्चा लगता है जी।
विशाल भारद्वाज के सीने में पश्चिम उत्तर प्रदेश के समाज का हिंसक चेहरा अटका हुआ है। ओमकारा के बाद लगता है एक बार फिर वो अपने दर्द को हलका करेंगे। नैना सूरमा और तमंचा किसी मेट्रो में पले बढ़े कहानीकार के सामान नहीं हो सकते। तभी तो ऐसे संवाद हैं- हमारे गांव में चूतड़ धोने से पहले तमंचा चलाना सीखाते हैं। प्रोमो फिल्म को देखने के लिए उकसा रहा है।
दो चोर एक ऐसी जगह में फंस जाते हैं जो सुरक्षित नहीं हैं। दो चोरों के बीच एक अल्हड़ सी दिखने वाली बालन है। उसकी बतियाती आंखें और दो अलग अलग उम्र के नायकों के साथ इश्क की सहजता। सीधा पल्ला की साड़ी। लंबे बाल। चूड़ीदार चोटी वाले। एक साहसिक फिल्म लगती है। वर्ना एक औरत दो मर्दो से बराबरी से प्रेम करते हुए कब पर्दे पर देखी गई। मेट्रो शहरों की कई सच्ची कहानियों में ऐसी लड़कियां हैं मगर छुप छुप कर। उनके साथी मर्दों को भी पता है मगर छुप छुप कर। सामंती समाज के कोठों पर एक औरत के कई आशिक रहे हैं। मुझे पता भी नहीं कि विद्या का किरदार तवायफ का है या एक आजाद औरत का। जो अपने संबंधों का फैसला और अंजाम दोनों खुद तय करती है। इश्क का फैसला उसका अपना है या बंदूक की कमज़ोरियों का। यही सवाल फिल्म देखने के लिए बेचैन करेंगे। लेकिन जब वो औरत बंदूक चला कर अपने आशिकों को ढेर करती हुई लगती है तो कहानी एक बार फिर से ओमकारा फ्रेम में घुस कर कुछ ढूंढने लगती है।
लेकिन प्रेम के इन अंतरंग और नितांत शहरी लम्हों को गांव या छोटे शहरों की सेटिंग में सहजता से फिल्माने का साहस विशाल भारद्वाज कर सकते हैं। अभिषेक चौबे के बारे में नहीं जानता लेकिन लगता है कि उन्होंने इस कहानी को खूब समझा है। लिखते लिखते गाना यहां आ पहुंचा है...
प्रेम की मारे कटार रे
तौबा ये लम्हे कटते नहीं क्यों
आंखो से मेरी हटते नहीं क्यों
डर लगता है मुझसे कहने में जी
दिल्ली तो बच्चा है जी
एक और गाना हिट होने जा रहा है। इब्न बतूता का। फिल्म चलेगी,लगता है। मैंने फिर से इस गाने को रिवाइंड कर दिया है....
ऐसी उलझी नज़र उनसे,हटती नहीं...
दांत से डोर रेशम की कटती नहीं....
डर लगता है इश्क करने में जी..
दिल तो बच्चा है जी..
क्या बात है,साल की शुरूआत बेहतरीन गानों से हो रही है। इश्क में सब बेवजह होता है। बेवजह के ये गाने कसक पैदा कर रहे हैं।
सभ्यता
सभ्यता के मतलब बदल रहे हैं। गाय कूड़ेदान से खा रही है और इंसान को कूड़ा फेंकने पर असभ्य कहा जा रहा है। पहली तस्वीर हरिद्वार के घाट की है और दूसरी राम झूले के पास की है। गाय का खाना पीना बदल गया है। बचपन में कई सालों तक गाय को पहली रोटी खिलाई है। मां दे देती थी और हम गाय को खिला आते थे। बाद में पता चला कि इसी पहली रोटी को पिछली रोटी कहते हैं। जब पहली रोटी के ऊपर बाकी रोटियों का थाक लग जाता था तब पहली पिछली हो जाती थी। ऊपर की रोटियां गिनती में आगे हो जाती थीं। हम सब कूड़ा उत्पादक शहरी सभ्यता में रह रहे हैं। इन संदेशों को देखकर यही लगता है कि भारत एक कृषि प्रधान नहीं बल्कि संदेश प्रधान देश है।
बाबरी भवन में राम मंदिर
मेरी नज़र गंगा के तट पर बनी इस इमारत पर कैसे नहीं पड़ती। देखते ही जानने का मन करने लगा। जब इसके पुरोहित से पूछा कि भाई अयोध्या में लोग बाबरी मस्जिद गिरा आए और आपके यहां बाबरी भवन,वो कैसे? आप इस सनातन परंपरा में कब से घुले मिले हुए हैं? जवाब इतना साधारण था कि अपनी मूर्खता पर हंसी आ गई। पुरोहित मनीष शर्मा ने कहा कि वत्स तुम नहीं,हर दिन सैंकड़ों आकर पूछ जाते हैं। पूछते हैं कि गंगा के तट पर बाबरी भवन कैसे। मैं रोज़ सैंकड़ों लोगों को जवाब देता हूं। मुज़फ्फरनगर के पास एक गांव है जिसका नाम बाबरी है। वहीं के हिंदू ज़मींदार हैं,उन्होंने ही अपने गांव के नाम पर धर्मशाला बनवा दिया। कोई पचहत्तर साल पहले। हम लोग जयपुर दरबार के भी राजपुरोहित हैं। मनीष शर्मा ने बताया कि बाबरी भवन की पहली मंज़िल पर राम मंदिर है। इशारे से दिखा दिया। पहली तस्वीर में आप देखे सकते हैं कि पहली मंज़िल पर कोने में एक लाल इमारत है। वही राम मंदिर है। दोस्तों ने कहा कि रिपोर्ट करने से पहले ब्लॉग पर मत डालो। न्यूज़ चैनल वाले पहले कर लेंगे। एक बार फिर अपनी इस प्रतिस्पर्धी मूर्खता पर हंसी आई। गंगा तट पर ज्ञान प्राप्त हुआ कि कथा तो बार बार कही जाती है। हर कथा मुझसे पहले कही जा चुकी है। जो इमारत पचहत्तर साल से खड़ी है वो आज और कल में किसी न्यूज़ चैनल पर आ जाए तो मुझे फर्क नहीं पड़ता। बहुत देखा कंपटीशन का ड्रामा। तो दोस्तों बाबरी भवन में राम मंदिर। इस सनातन गंगा पर थोड़ा इतरा गया।धर्म में समन्वय की ही गुज़ाइश है। समन्वय से ही धर्म महान बनता है। कर्मकांड और झूठे नारों से नहीं। वर्ना क्या आप सोच सकते हैं जिस राम के लिए बाबरी मस्जिद उजाड़ कर लोग भारत राष्ट्र के वजूद के निर्माण में निकल कर सत्ता की खोज में जाने कहां भटक गए,उसी धर्म को ढोने वाली गंगा अपने किनारे बने बाबरी भवन को हर दिन राम का प्रणाम स्वीकार कर बहती जाती होगी। मुझे तो बहुत गुदगुदी हुई।
पेन्टागन और कुम्भ में क्या संबंध हैं?
कुंभ कलश से छलकी अमृत बूंदों से भावी काल में मॉल बनेंगे इसकी कल्पना किसी वेद-पुराण ने क्यों नहीं की,नहीं मालूम।किसी ब्लॉग या अख़बार में एक लेख पढ़ रहा था कि उत्सवों को बाजार यानी मार्केटिंग की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन मार्केटिंग को उत्सवों की ज़रूरत पड़ती है। हम कितना भी संचय कर लें,ऐसे मौकों पर दान देकर खुद को महादानी समझने का अहसास ज़रूर पाना चाहते हैं। अपने उन तमाम जाने-अनजाने पापों को याद करते हुए जेब से जब एक अठन्नी निकल कर भिक्षापात्र में खनकती है या नदी में प्रवाहित होती है तो लगता है वाकई कोई सज़ा चोरी छुपके काट ली है। कुंभ की शुरूआत हो रही है। देव-असुरों के युद्ध को छोड़िये कोक-कपड़ों के युद्ध के शिकार होकर कुछ दान कर आइये। हरिद्वार से ऐसी कई तस्वीरें आप लोगों तक ले कर आऊंगा। एनडीटीवी इंडिया पर भी रिपोर्ट देख सकते हैं। शाम के किसी वक्त। अभी वक्त तय नहीं है लेकिन आ ही जाऊंगा। आध्यात्म की इस सनातन यात्रा में शामिल होने जा रहा हूं। उसके सार को समझने के लिए उसी में विलिन हो जाऊंगा। कभी छिटक कर बाहर से भी देखूंगा। संत होना आईएएस होने से कम है क्या वैसे। बाबा नाम केवलम।
क्या आप इस भगवान को जानते हैं?
हरिद्वार गया था। वहीं पर ये भगवान मुझे मिले। किसके और किन प्रयत्नों से अवतरित हुए हैं,जानना चाहता हूं। बिल्कुल आधुनिक हैं। हिन्दू धर्म के संगठित न होने की सबसे बड़ी खूबी यही है कि कोई भी अपने को देवता घोषित कर सकता है। इस खूबी के कारण इस धर्म की जीवंतता दिलचस्प है। बिल्कुल आधुनिक लिबास में हैं। टाई और सूट पहने हुए हैं,परंपरा की तरह घोड़े की कान को पकड़े हुए हैं। किसी की भावना को आहत नहीं करना चाहता बल्कि किसी आकर्षक आधुनिक ईश्वर नुमा शख्स के अवतरित होने की सूचना दे रहा हूं। पूछ रहा हूं कि आप लोगों को जानकारी हो तो बताइयेगा। ईश्वर रूप में हैं या नहीं,ये नहीं कह सकता। आशीर्वाद की मुद्रा में संत लोग फोटू से लेकर मूर्ति बना लेते हैं। यह भी जानना चाहूंगा कि क्या ये संत हैं और अगर हां तो किस परंपरा में संत हुए हैं।
क्या आप बिहारियों को भी अच्छा लग रहा है?
बिहार से अच्छी ख़बर आने का मतलब आप समझते हैं। हम सब वहां से भागे प्रवासी नागरिक आज कल खुश तो होंगे ही कि बिहार तरक्की कर रहा है। अपने राज्य को लेकर इतना सकारात्मक और सतर्क भाव कभी नहीं आया। पिछले तीन चार सालों में जितनी बार पटना गया,लोगों को डरा हुआ नहीं पाया। उससे पहले घरों और चौराहों की आम बातचीत में भय और विवशता झलकती थी। नीतीश ने यही दूर कर दिया,काफी है। मेरा भी यही मानना है कि बिहार को सिर्फ अच्छी सड़क, बिजली और कानून व्यवस्था चाहिए। कानून व्यवस्था का संबंध कार्य संस्कृति से है। यह खराब होती है तो व्यक्तिगत प्रयासों पर असर पड़ता है।
अपरहरण के टाइम में लोग इतने हताश हो चुके थे कि अपनी दुकान बंद कर दिल्ली बंबई की तरफ रूख करने लगे थे। गांव गया तो पहली बार जम कर घूम रहा था। यह किसी आज़ादी से कम नहीं थी। पहले कब कौन सी गाड़ी रूक जाए और बोलेरो से कोई तिवारी पांडे का भाई बंदूक लिये उतर आता था। हालचाल ऐसे पूछता था मानो अब गोली भी मारेगा। पिछले साल गांव गया था तो इस संस्कृति के अवशेष तो नज़र आए मगर इमारत ढह चुकी थी। बिहार के नेताओं और लोगों ने खतम व्यवस्था के साये में अपराधीकरण का सामाजिकरण कर दिया था। आम संपन्न लोग भी अपराधी रिश्तेदारों को नाम गर्व से लेते थे। अब काफी बदल गया है।
बिहार के ११ फीसदी से अधिक की विकास दर ने साबित कर दिया है कि बिहार की प्रगति बड़े उद्योगों से नहीं होनी है। बिहार की उपजाऊ ज़मीन और पानी की अधिकता उसे बिना उद्योगों के ही तरक्की के रास्ते पर ले जाएगी। कृषि और कृषि आधारित व्यावसाय का जितना विकास होगा,आम बिहारियों की भागीदारी उतनी बढ़ेगी। पलायन रूकेगा और लोगों की कमाई का शेयर बढ़ेगा। इस तरक्की से भले ही कोई शहर खूबसूरत न लगे लेकिन आम घरों में लोग सूकून में नज़र आयेंगे।
एक पहचान के रूप में बिहारी होने का मतलब कई सारे नकारात्मक तत्वों का सार होना है। यह जब भी बदलता है, जितना भी बदलता है अच्छा लगता है। महाराष्ट्र से धकियाये जाने की इतनी दलीलों के बाद भी बिहार के लोगों में क्षेत्रीयता नहीं पनपी। वो इस संकीर्णता से बचे रहे तभी बिहारी होना अच्छा रहेगा। कई लोग हैं जो बिहार की तरक्की की खबर को आशंकाओं से भी देख रहे हैं। उनकी आशंकाएं वाजिब है। इन्हीं आशंकाओं से जब आशा की किरण निकलती है तो बेहतर लगता है।
बिहार के प्रवासी लोग अपने अपने शहरों में राज्य की छवि को लेकर काफी चिंतित रहते हैं। ये उनकी किसी भी कामयाब पहचान को प्रभावित करता है। अगर आप यू ट्यूब देखेंगे तो उसमें पटना शहर को लेकर कितने तरह के वीडियो हैं। विदेशों में बसे लोग पटना की चंद इमारतों को खूबसूरत लगने वाले एंगल से शूट कर उन्हें अंग्रेजी गाने के साथ परोस रहे हैं। दावा करते हैं कि देखो, ये है पटना। किसी की मत सुनो,अपनी आंखों से देख लो। और बिस्कोमान का एफिल टावर नुमा शाट घूमने लगता है। कोने में पड़ा कृष्ण मेमोरियल वीडियो में बुर्ज दुबई की तरह दिखने लगता है। वीडियो अपलोड करने वाला कहता है,देखा पटना गांव नहीं हैं। बिहार को लेकर नई किस्म की इस उत्कंठा पर और नज़र डालनी चाहिए। दिवाली के दिन मैंने अपने इसी ब्लॉग पर वीडियो में बसता एक शहर लिखा था। जिसमें पटना को लेकर बिहारी अभिलाषाओं की झलक मिलती है।
सतह पर भले ही बदलाव कंक्रीट रूप में न दिखे लेकिन इतना तो है कि समझ और सोच में दिखने लगा है। राजनीति होती रहेगी। नीतीश क्या हैं और लालू क्या हैं। लेकिन नीतीश ने कुछ तो किया। शून्य से एक राज्य को यहां तक पहुंचा दिया है। कमियां होंगी तो उनकी आलोचना करते रहिए ताकि नीतीश काम करते रहें। तारीफ करने लायक बात हो तो जम कर कीजिए। बिहार की उन समस्याओं और तस्वीरों को भी सामने लाइये जिनके बारे में अभी कुछ नहीं किया गया है।
तभी हमें भी लोग महफिलों में कह सकेंगे कि ओह...आप बिहार के हैं। वाह। अभी तो लोग कहते हैं...ये सारे के सारे बिहारी। कहने का मतलब होता है कि चोर होते हैं और हर वक्त चोरी की ही बात करते रहते हैं। एक बंडल में समेट कर फेंक दिये जाने का दुख तो होता है लेकिन संकीर्ण न होने की ताकत कहां से आ जाती है,यही समझ नहीं आता। शायद यही बिहारी होना होता है। प्रवासी होकर भी हम संकीर्ण नहीं होते। हम दुनिया को विचार देने वाले लोग रहे हैं। बीच के पचास सालों में सार्वजनिक और व्यक्तिगत संस्कार कम हो गये थे और विकास खतम। ये दो सुधर जाएं तो जितनी कामयाबी बिहार के लोग दूसरे प्रदेशों और मुल्कों में प्रवासी जीवन व्यतीत कर पा रहे हैं,उससे कहीं अधिक कामयाबी अपनी मिट्टी में पा लेंगे।
दूसरे राज्य के पाठक बिल्कुल न सोचें कि हम संकीर्ण हो रहे हैं या हमारे भीतर कहीं किसी दमित रूप में बिहारीवाद बसा था। हम बस हल्का सा खुश हो रहे हैं। इतनी गाली सुनी है कि सरकार का ये आंकड़ा अपने घर का लगता है। बाकी हकीकत आप भी जानते हैं और हम भी जानते हैं।
अपरहरण के टाइम में लोग इतने हताश हो चुके थे कि अपनी दुकान बंद कर दिल्ली बंबई की तरफ रूख करने लगे थे। गांव गया तो पहली बार जम कर घूम रहा था। यह किसी आज़ादी से कम नहीं थी। पहले कब कौन सी गाड़ी रूक जाए और बोलेरो से कोई तिवारी पांडे का भाई बंदूक लिये उतर आता था। हालचाल ऐसे पूछता था मानो अब गोली भी मारेगा। पिछले साल गांव गया था तो इस संस्कृति के अवशेष तो नज़र आए मगर इमारत ढह चुकी थी। बिहार के नेताओं और लोगों ने खतम व्यवस्था के साये में अपराधीकरण का सामाजिकरण कर दिया था। आम संपन्न लोग भी अपराधी रिश्तेदारों को नाम गर्व से लेते थे। अब काफी बदल गया है।
बिहार के ११ फीसदी से अधिक की विकास दर ने साबित कर दिया है कि बिहार की प्रगति बड़े उद्योगों से नहीं होनी है। बिहार की उपजाऊ ज़मीन और पानी की अधिकता उसे बिना उद्योगों के ही तरक्की के रास्ते पर ले जाएगी। कृषि और कृषि आधारित व्यावसाय का जितना विकास होगा,आम बिहारियों की भागीदारी उतनी बढ़ेगी। पलायन रूकेगा और लोगों की कमाई का शेयर बढ़ेगा। इस तरक्की से भले ही कोई शहर खूबसूरत न लगे लेकिन आम घरों में लोग सूकून में नज़र आयेंगे।
एक पहचान के रूप में बिहारी होने का मतलब कई सारे नकारात्मक तत्वों का सार होना है। यह जब भी बदलता है, जितना भी बदलता है अच्छा लगता है। महाराष्ट्र से धकियाये जाने की इतनी दलीलों के बाद भी बिहार के लोगों में क्षेत्रीयता नहीं पनपी। वो इस संकीर्णता से बचे रहे तभी बिहारी होना अच्छा रहेगा। कई लोग हैं जो बिहार की तरक्की की खबर को आशंकाओं से भी देख रहे हैं। उनकी आशंकाएं वाजिब है। इन्हीं आशंकाओं से जब आशा की किरण निकलती है तो बेहतर लगता है।
बिहार के प्रवासी लोग अपने अपने शहरों में राज्य की छवि को लेकर काफी चिंतित रहते हैं। ये उनकी किसी भी कामयाब पहचान को प्रभावित करता है। अगर आप यू ट्यूब देखेंगे तो उसमें पटना शहर को लेकर कितने तरह के वीडियो हैं। विदेशों में बसे लोग पटना की चंद इमारतों को खूबसूरत लगने वाले एंगल से शूट कर उन्हें अंग्रेजी गाने के साथ परोस रहे हैं। दावा करते हैं कि देखो, ये है पटना। किसी की मत सुनो,अपनी आंखों से देख लो। और बिस्कोमान का एफिल टावर नुमा शाट घूमने लगता है। कोने में पड़ा कृष्ण मेमोरियल वीडियो में बुर्ज दुबई की तरह दिखने लगता है। वीडियो अपलोड करने वाला कहता है,देखा पटना गांव नहीं हैं। बिहार को लेकर नई किस्म की इस उत्कंठा पर और नज़र डालनी चाहिए। दिवाली के दिन मैंने अपने इसी ब्लॉग पर वीडियो में बसता एक शहर लिखा था। जिसमें पटना को लेकर बिहारी अभिलाषाओं की झलक मिलती है।
सतह पर भले ही बदलाव कंक्रीट रूप में न दिखे लेकिन इतना तो है कि समझ और सोच में दिखने लगा है। राजनीति होती रहेगी। नीतीश क्या हैं और लालू क्या हैं। लेकिन नीतीश ने कुछ तो किया। शून्य से एक राज्य को यहां तक पहुंचा दिया है। कमियां होंगी तो उनकी आलोचना करते रहिए ताकि नीतीश काम करते रहें। तारीफ करने लायक बात हो तो जम कर कीजिए। बिहार की उन समस्याओं और तस्वीरों को भी सामने लाइये जिनके बारे में अभी कुछ नहीं किया गया है।
तभी हमें भी लोग महफिलों में कह सकेंगे कि ओह...आप बिहार के हैं। वाह। अभी तो लोग कहते हैं...ये सारे के सारे बिहारी। कहने का मतलब होता है कि चोर होते हैं और हर वक्त चोरी की ही बात करते रहते हैं। एक बंडल में समेट कर फेंक दिये जाने का दुख तो होता है लेकिन संकीर्ण न होने की ताकत कहां से आ जाती है,यही समझ नहीं आता। शायद यही बिहारी होना होता है। प्रवासी होकर भी हम संकीर्ण नहीं होते। हम दुनिया को विचार देने वाले लोग रहे हैं। बीच के पचास सालों में सार्वजनिक और व्यक्तिगत संस्कार कम हो गये थे और विकास खतम। ये दो सुधर जाएं तो जितनी कामयाबी बिहार के लोग दूसरे प्रदेशों और मुल्कों में प्रवासी जीवन व्यतीत कर पा रहे हैं,उससे कहीं अधिक कामयाबी अपनी मिट्टी में पा लेंगे।
दूसरे राज्य के पाठक बिल्कुल न सोचें कि हम संकीर्ण हो रहे हैं या हमारे भीतर कहीं किसी दमित रूप में बिहारीवाद बसा था। हम बस हल्का सा खुश हो रहे हैं। इतनी गाली सुनी है कि सरकार का ये आंकड़ा अपने घर का लगता है। बाकी हकीकत आप भी जानते हैं और हम भी जानते हैं।
सिस्टम के थ्री इटियॉटिक बागी
साढ़े चार स्टार्स की फ़िल्म देख रहा था। तारे छिटकते थे और फिर कहीं कहीं जुड़ जाते थे। साल की असाधारण फिल्म की साधारण कहानी चल रही थी। चार दिनों में सौ करोड़ की कमाई का रिकार्ड बज रहा था और दिमाग के भीतर कोई छवि नहीं बन पा रही थी। थ्री इडियट्स की कहानी शिक्षा प्रणाली को लेकर हो रही बहसों के तनाव में कॉमिक राहत दिलाने की सामान्य कोशिश है। कामयाबी काबिल के पीछे भागती है। संदेश किसी बाबा रणछोड़दास का बार बार गूंज रहा था।
पढ़ाई का सिस्टम ख़राब है लेकिन विकल्प भी बहुत बेकार। इसी ख़राब सिस्टम ने कई प्रतिभाओं को विकल्प चुनने के मौके दिये हैं। इसी खराब सिस्टम ने लोगों को सड़ा भी दिये हैं। लेकिन यह टाइम दूसरा है। हम विकल्पों के लिए तड़प रहे हैं। लेकिन क्या हम वाकई विकल्प का कोई मॉडल बना पा रहे हैं? सवाल हम सबसे है।
मद्रास प्रेसिडेंसी में सबसे पहले इम्तहानों का दौर शुरू हुआ था। अंग्रेजों ने जब विश्वविद्यालय बनाकर इम्तहान लिये तो सर्वण जाति के सभी विद्यार्थी फेल हो गए। उसी के बाद पहली बार थर्ड डिविज़न का आगमन हुआ। हिंदुस्तान में सर्टिफिकेट आधारित प्रतिभा की यात्रा यहीं से शुरू होती है। डेढ़ सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में परीक्षा को लेकर हमने एक समाज के रूप में तनाव की कई मंज़िलें देखी हैं। ज़िला टॉपर और पांच बार मैट्रिक फेल अनुभव प्राप्त प्रतिभावान और नाकाबिल हर घर परिवार में रहे हैं। दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे में अनुपम खेर अपने खानदान के सभी मेट्रिक पास या फेल पूर्वजों की तस्वीरें लगा कर रखते हैं। शाह रूख खान को दिल की सुनने के लिए भेज देते हैं। पंद्रह साल पहले आई यह कहानी सुपरहिट हो जाती है। अनुपम खेर शाहरूख खान से कहते है कि जा तू मेरी भी ज़िंदगी जी कर आ।
शिक्षा व्यवस्था से भागने के रास्ते को लेकर कई फिल्में बनीं हैं। भागने के कई रास्ते भी हैं।थ्री इडियट्स फिल्म पूंजीवादी सिस्टम को रोमांटिक बनाने का प्रयास करती है। काबिलियत पर ज़ोर से ही कामयाबी का रास्ता निकलता है। काबिल होना पूंजीवादी सिस्टम की मांग है। रणछोड़ दास का विकल्प भी किसी अमेरिकी कंपनी की कामयाबी के लिए डॉलर पैदा करने की पूंजी बन जाता है। कामयाबी के बिना ज़िंदा रहने का रास्ता नहीं बताती है यह फिल्म। शायद ये किसी फिल्म की ज़िम्मेदारी नहीं होती। उसका काम होता है जीवन से कथाओं को उठाकर मनोरंजन के सहारे पेश कर देना। ताकि हम तनाव के लम्हों में हंसने की अदा सीख सकें।
बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में ही प्रेमचंद की कहानी आ गई थी। बड़े भाई साहब। इम्तहान सिस्टम पर बेहतरीन व्यंग्य। बड़े भाई साहब अपने छोटे भाई साहब को नए सिस्टम में ढालने के बड़े जतन करते हैं। छोटा भाई कहता है कि इस जतन में वो एक साल के काम को तीन तीन साल में करते हैं। एक ही दर्जे में फेल होते रहते हैं। लिहाजा खेलने-कूदने वाला छोटा भाई हंसते खेलते पास होने लगात है और बड़े भाई के दर्जे तक पहुंचने लगते हैं।
कहानी में बड़े भाई का संवाद है। गौर कीजिएगा। "सफल खिलाड़ी वह है,जिसका कोई निशाना खाली न जाए। मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दांतों पसीना आ जाएगा। जब अलजेबरा और ज्योमेट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे. इंग्लिस्तान का इतिहास पढ़ना प़ड़ेगा। बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं, आठ-आठ हेनरी हुए हैं। कौन सा कांड किस हेनरी के समय में हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो। हेनरी सातवें की जगह हेनती आठवां लिखा और सब नंबर गायब। सफाचट। सिफर भी न मिलेगा,सिफर भी। दर्जनों तो जेम्स हुए हैं,दर्जनों विलियम,कौड़ियों चार्ल्स। दिमाग चक्कर खाने लगता है।"
भारतीय शिक्षा प्रणाली को लेकर ऐसे किस्से इसके आगमन से ही भरे पड़े हुए हैं। प्रेमचंद की यह कहानी बेहतरीन तंज है। उस वक्त का व्यंग्य है जब इम्तहानों का भय और रूटीन आम जीवन के करीब पहुंच ही रहा था। थ्री इडियट्स की कहानी तब की है जब इम्तहानों को लेकर देश में बहस चल रही है। एक सहमति बन चुकी है कि नंबर या टॉप करने का सिस्टम ठीक नहीं है। दिल्ली के सरदार पटेल में कोई टॉपर घोषित नहीं होता। किसी को नंबर नहीं दिया जाता। ऐसे बहुत से स्कूल हैं जहां मौजूदा खामियों को दूर किया गया है या दूर करने का प्रयास हो रहा है। इसी साल सीबीएसई के बोर्ड में नंबर नहीं दिये जायेंगे। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में बोर्ड के इम्तहानों में करीब बीस लाख से ज़्यादा बच्चे फेल हो गए थे।
इन सभी हकीकतों के बीच आमिर की यह फिल्म एजुकेशन के सिस्टम को कॉमिक में बदल देती है। जो मन करो वही पढ़ो। यही आदर्श स्थिति है लेकिन ऐसा सिस्टम नहीं होता। न पूंजीवाद के दफ्तर में और न कालेज में। अभी तक कोई ठोस विकल्प सामने नहीं आया है। प्रतिभायें कालेज में नहीं पनपती हैं। यह एक मान्य परंपरा है। थ्री इडियट्स मौजूदा सिस्टम से निकलने और घूम फिर कर वहीं पहुंच जाने की एक सामान्य फिल्म है। जिस तरह से तारे ज़मीन पर मज़ूबती से हमारे मानस पर चोट करती है और एक मकसद में बदल जाती है,उस तरह से थ्री इडियट्स नहीं कर पाती है। चंद दोस्तों की कहानियों के ज़रिये गढ़े गए भावुकता के क्षण सामूहिक बनते तो हैं लेकिन दर्शकों को बांधने के लिए,न कि सोचने के लिए मजबूर करने के लिए। फिल्मों के तमाम भावुक क्षण खुद ही अपने बंधनों से आजाद हो जाते हैं। जो सहपाठी आत्महत्या करता है उसका प्लॉट किसी मकसद में नहीं बदल पाता। दफनाने के साथ उसकी कहानी खतम हो जाती है। कहानी कालेज में तीन मसखरों की हो जाती है जो इस सिस्टम को उल्लू बनाने का रास्ता निकालने में माहिर हैं। ऐसे माहिर और प्रतिभाशाली बदमाश हर कालेज में मिल जाते हैं।
चेतन भगत की दूसरी किताब पढ़ी है। टू स्टेट्स। थ्री इडियट्स की कहानी अगर पहली किताब फाइव प्वाइंट्स समवन से प्रभावित है तो यह साबित हो जाता है कि फिल्म आईआईटी में गए एक कामयाब लड़के की कहानी है जो आईआईटी के सिस्टम को एक नॉन सीरीयस तरीके से देखता है। चेतन भगत का इस विवाद में उलझना बताता है कि उसकी कहानियों का यह किरदार लेखक एक चालू किस्म का बाज़ारू आदमी है। क्रेडिट और पैसा। दोनों बराबर और ठीक जगह पर चाहिए। विधू विनोद चोपड़ा का जवाब बताता है कि कामयाबी के लिए क्या-क्या किये जा सकते हैं। परदे पर चेतन को क्रेडिट मिली है।लेकिन कितनी मिली है उसे ईंची टेप से नापा जाना बताता है कि फिल्म अपने मकसद में कमज़ोर है।
इसीलिए इस फिल्म की कहानी लगान और तारे ज़मीं पर जैसी नहीं है। हां दोस्ती के रिश्तों को फिर से याद दिलाने की कोशिश ज़रूर है। आमिर खान किसी कहानी में ऐसे फिट हो जाते हैं जैसे वो कहानी उन्हीं के लिए बनी हो। कहानी इसलिए अपनी लगती है क्योंकि कंपटीशन अब एक व्यापक सामाजिक दायरे में हैं। शिक्षा और उससे पैदा होने वाली कामयाबी का विस्तार हुआ है। हम भी कामयाब हैं और आमिर भी कामयाब है। पहले ज़िले में चार लोग कामयाब होते थे,अब चार हज़ार होते हैं। मेरे ही गांव में ज़्यादातर लोगों के पास अब पक्के के मकान है। पहले तीन चार लोगों के होते थे। कामयाबी के सार्वजनिक अनुभव के इस युग में यह फिल्म कई लोगों के दिलों से जुड़ जाती है।
भारत महान के प्रखर चिंतकों के लेखों में एक कामयाब मुल्क बनने की ख्वाहिश दिखती है। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी का भारत या अगले दशक भारत का। भारत एक मुल्क के रूप में चीन और अमेरिका से कंपीट कर रहा है। ज़ाहिर है नागरिकों के पास विकल्प कम होंगे। सब रेस में दौ़ड़ रहे हैं। आत्महत्या करने वालों की कोई कमी नहीं है। दिमाग फट रहे हैं। सिस्टम क्रूर हो रहा है। काश थ्री इडियट्स के ये किरदार मिलकर इसकी क्रूरता पर ठोस प्रहार करते। लेकिन ये क्या। ये तीनों कहानी की आखिर में लौटते हैं कामयाब ही होकर। अगर कामयाब न होते तो कहानी का मामूली संदेश की लाज भी नहीं रख पाते। बड़ी सी कार में दिल्ली से शिमला और शिमला से मनाली होते लद्दाख। साधारण और सिर्फ सर्जनात्मक किस्म के लोगों की कहानी नहीं हो सकती। ये कामयाब लोगों की कहानी है जो काबिल भी हैं। कामयाब चतुर रामालिंगम भी है। दोनों अंत में एक डील साइन करने के लिए मिलते हैं। एक दूसरे को सलामी ठोंकते हैं। थोड़ा मज़ा भी लेते हैं। वो सिस्टम से बगावत नहीं करते हैं,एडजस्ट होने के लिए टाइम मांग लेते हैं। सिस्टम का विकल्प नहीं देती है यह फिल्म। न ही तारे ज़मीं की तरह सिस्टम में अपने किरदार के लिए जगह देने की मांग करती है। मनोरजंन करने में कामयाब हो जाती है। शायद किसी फिल्म के लिए यही सबसे बड़ा पैमाना है। साढ़े चार स्टार्स की फिल्म।
नोट- ज़ुबी डूबी गाना रेट्रो इफेक्ट देता है। ओम शांति ओम से लेकर रब ने बना दी जोड़ी तक में ऐसे प्रयोग हो चुके हैं। इससे पहले भी कई फिल्मों में रेट्रो इफेक्ट के ज़रिये पुरानी फिल्मों के क्लिशे को हास्य को बदला जा चुका है। गाना बेहद अच्छा है।
पढ़ाई का सिस्टम ख़राब है लेकिन विकल्प भी बहुत बेकार। इसी ख़राब सिस्टम ने कई प्रतिभाओं को विकल्प चुनने के मौके दिये हैं। इसी खराब सिस्टम ने लोगों को सड़ा भी दिये हैं। लेकिन यह टाइम दूसरा है। हम विकल्पों के लिए तड़प रहे हैं। लेकिन क्या हम वाकई विकल्प का कोई मॉडल बना पा रहे हैं? सवाल हम सबसे है।
मद्रास प्रेसिडेंसी में सबसे पहले इम्तहानों का दौर शुरू हुआ था। अंग्रेजों ने जब विश्वविद्यालय बनाकर इम्तहान लिये तो सर्वण जाति के सभी विद्यार्थी फेल हो गए। उसी के बाद पहली बार थर्ड डिविज़न का आगमन हुआ। हिंदुस्तान में सर्टिफिकेट आधारित प्रतिभा की यात्रा यहीं से शुरू होती है। डेढ़ सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में परीक्षा को लेकर हमने एक समाज के रूप में तनाव की कई मंज़िलें देखी हैं। ज़िला टॉपर और पांच बार मैट्रिक फेल अनुभव प्राप्त प्रतिभावान और नाकाबिल हर घर परिवार में रहे हैं। दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे में अनुपम खेर अपने खानदान के सभी मेट्रिक पास या फेल पूर्वजों की तस्वीरें लगा कर रखते हैं। शाह रूख खान को दिल की सुनने के लिए भेज देते हैं। पंद्रह साल पहले आई यह कहानी सुपरहिट हो जाती है। अनुपम खेर शाहरूख खान से कहते है कि जा तू मेरी भी ज़िंदगी जी कर आ।
शिक्षा व्यवस्था से भागने के रास्ते को लेकर कई फिल्में बनीं हैं। भागने के कई रास्ते भी हैं।थ्री इडियट्स फिल्म पूंजीवादी सिस्टम को रोमांटिक बनाने का प्रयास करती है। काबिलियत पर ज़ोर से ही कामयाबी का रास्ता निकलता है। काबिल होना पूंजीवादी सिस्टम की मांग है। रणछोड़ दास का विकल्प भी किसी अमेरिकी कंपनी की कामयाबी के लिए डॉलर पैदा करने की पूंजी बन जाता है। कामयाबी के बिना ज़िंदा रहने का रास्ता नहीं बताती है यह फिल्म। शायद ये किसी फिल्म की ज़िम्मेदारी नहीं होती। उसका काम होता है जीवन से कथाओं को उठाकर मनोरंजन के सहारे पेश कर देना। ताकि हम तनाव के लम्हों में हंसने की अदा सीख सकें।
बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में ही प्रेमचंद की कहानी आ गई थी। बड़े भाई साहब। इम्तहान सिस्टम पर बेहतरीन व्यंग्य। बड़े भाई साहब अपने छोटे भाई साहब को नए सिस्टम में ढालने के बड़े जतन करते हैं। छोटा भाई कहता है कि इस जतन में वो एक साल के काम को तीन तीन साल में करते हैं। एक ही दर्जे में फेल होते रहते हैं। लिहाजा खेलने-कूदने वाला छोटा भाई हंसते खेलते पास होने लगात है और बड़े भाई के दर्जे तक पहुंचने लगते हैं।
कहानी में बड़े भाई का संवाद है। गौर कीजिएगा। "सफल खिलाड़ी वह है,जिसका कोई निशाना खाली न जाए। मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दांतों पसीना आ जाएगा। जब अलजेबरा और ज्योमेट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे. इंग्लिस्तान का इतिहास पढ़ना प़ड़ेगा। बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं, आठ-आठ हेनरी हुए हैं। कौन सा कांड किस हेनरी के समय में हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो। हेनरी सातवें की जगह हेनती आठवां लिखा और सब नंबर गायब। सफाचट। सिफर भी न मिलेगा,सिफर भी। दर्जनों तो जेम्स हुए हैं,दर्जनों विलियम,कौड़ियों चार्ल्स। दिमाग चक्कर खाने लगता है।"
भारतीय शिक्षा प्रणाली को लेकर ऐसे किस्से इसके आगमन से ही भरे पड़े हुए हैं। प्रेमचंद की यह कहानी बेहतरीन तंज है। उस वक्त का व्यंग्य है जब इम्तहानों का भय और रूटीन आम जीवन के करीब पहुंच ही रहा था। थ्री इडियट्स की कहानी तब की है जब इम्तहानों को लेकर देश में बहस चल रही है। एक सहमति बन चुकी है कि नंबर या टॉप करने का सिस्टम ठीक नहीं है। दिल्ली के सरदार पटेल में कोई टॉपर घोषित नहीं होता। किसी को नंबर नहीं दिया जाता। ऐसे बहुत से स्कूल हैं जहां मौजूदा खामियों को दूर किया गया है या दूर करने का प्रयास हो रहा है। इसी साल सीबीएसई के बोर्ड में नंबर नहीं दिये जायेंगे। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में बोर्ड के इम्तहानों में करीब बीस लाख से ज़्यादा बच्चे फेल हो गए थे।
इन सभी हकीकतों के बीच आमिर की यह फिल्म एजुकेशन के सिस्टम को कॉमिक में बदल देती है। जो मन करो वही पढ़ो। यही आदर्श स्थिति है लेकिन ऐसा सिस्टम नहीं होता। न पूंजीवाद के दफ्तर में और न कालेज में। अभी तक कोई ठोस विकल्प सामने नहीं आया है। प्रतिभायें कालेज में नहीं पनपती हैं। यह एक मान्य परंपरा है। थ्री इडियट्स मौजूदा सिस्टम से निकलने और घूम फिर कर वहीं पहुंच जाने की एक सामान्य फिल्म है। जिस तरह से तारे ज़मीन पर मज़ूबती से हमारे मानस पर चोट करती है और एक मकसद में बदल जाती है,उस तरह से थ्री इडियट्स नहीं कर पाती है। चंद दोस्तों की कहानियों के ज़रिये गढ़े गए भावुकता के क्षण सामूहिक बनते तो हैं लेकिन दर्शकों को बांधने के लिए,न कि सोचने के लिए मजबूर करने के लिए। फिल्मों के तमाम भावुक क्षण खुद ही अपने बंधनों से आजाद हो जाते हैं। जो सहपाठी आत्महत्या करता है उसका प्लॉट किसी मकसद में नहीं बदल पाता। दफनाने के साथ उसकी कहानी खतम हो जाती है। कहानी कालेज में तीन मसखरों की हो जाती है जो इस सिस्टम को उल्लू बनाने का रास्ता निकालने में माहिर हैं। ऐसे माहिर और प्रतिभाशाली बदमाश हर कालेज में मिल जाते हैं।
चेतन भगत की दूसरी किताब पढ़ी है। टू स्टेट्स। थ्री इडियट्स की कहानी अगर पहली किताब फाइव प्वाइंट्स समवन से प्रभावित है तो यह साबित हो जाता है कि फिल्म आईआईटी में गए एक कामयाब लड़के की कहानी है जो आईआईटी के सिस्टम को एक नॉन सीरीयस तरीके से देखता है। चेतन भगत का इस विवाद में उलझना बताता है कि उसकी कहानियों का यह किरदार लेखक एक चालू किस्म का बाज़ारू आदमी है। क्रेडिट और पैसा। दोनों बराबर और ठीक जगह पर चाहिए। विधू विनोद चोपड़ा का जवाब बताता है कि कामयाबी के लिए क्या-क्या किये जा सकते हैं। परदे पर चेतन को क्रेडिट मिली है।लेकिन कितनी मिली है उसे ईंची टेप से नापा जाना बताता है कि फिल्म अपने मकसद में कमज़ोर है।
इसीलिए इस फिल्म की कहानी लगान और तारे ज़मीं पर जैसी नहीं है। हां दोस्ती के रिश्तों को फिर से याद दिलाने की कोशिश ज़रूर है। आमिर खान किसी कहानी में ऐसे फिट हो जाते हैं जैसे वो कहानी उन्हीं के लिए बनी हो। कहानी इसलिए अपनी लगती है क्योंकि कंपटीशन अब एक व्यापक सामाजिक दायरे में हैं। शिक्षा और उससे पैदा होने वाली कामयाबी का विस्तार हुआ है। हम भी कामयाब हैं और आमिर भी कामयाब है। पहले ज़िले में चार लोग कामयाब होते थे,अब चार हज़ार होते हैं। मेरे ही गांव में ज़्यादातर लोगों के पास अब पक्के के मकान है। पहले तीन चार लोगों के होते थे। कामयाबी के सार्वजनिक अनुभव के इस युग में यह फिल्म कई लोगों के दिलों से जुड़ जाती है।
भारत महान के प्रखर चिंतकों के लेखों में एक कामयाब मुल्क बनने की ख्वाहिश दिखती है। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी का भारत या अगले दशक भारत का। भारत एक मुल्क के रूप में चीन और अमेरिका से कंपीट कर रहा है। ज़ाहिर है नागरिकों के पास विकल्प कम होंगे। सब रेस में दौ़ड़ रहे हैं। आत्महत्या करने वालों की कोई कमी नहीं है। दिमाग फट रहे हैं। सिस्टम क्रूर हो रहा है। काश थ्री इडियट्स के ये किरदार मिलकर इसकी क्रूरता पर ठोस प्रहार करते। लेकिन ये क्या। ये तीनों कहानी की आखिर में लौटते हैं कामयाब ही होकर। अगर कामयाब न होते तो कहानी का मामूली संदेश की लाज भी नहीं रख पाते। बड़ी सी कार में दिल्ली से शिमला और शिमला से मनाली होते लद्दाख। साधारण और सिर्फ सर्जनात्मक किस्म के लोगों की कहानी नहीं हो सकती। ये कामयाब लोगों की कहानी है जो काबिल भी हैं। कामयाब चतुर रामालिंगम भी है। दोनों अंत में एक डील साइन करने के लिए मिलते हैं। एक दूसरे को सलामी ठोंकते हैं। थोड़ा मज़ा भी लेते हैं। वो सिस्टम से बगावत नहीं करते हैं,एडजस्ट होने के लिए टाइम मांग लेते हैं। सिस्टम का विकल्प नहीं देती है यह फिल्म। न ही तारे ज़मीं की तरह सिस्टम में अपने किरदार के लिए जगह देने की मांग करती है। मनोरजंन करने में कामयाब हो जाती है। शायद किसी फिल्म के लिए यही सबसे बड़ा पैमाना है। साढ़े चार स्टार्स की फिल्म।
नोट- ज़ुबी डूबी गाना रेट्रो इफेक्ट देता है। ओम शांति ओम से लेकर रब ने बना दी जोड़ी तक में ऐसे प्रयोग हो चुके हैं। इससे पहले भी कई फिल्मों में रेट्रो इफेक्ट के ज़रिये पुरानी फिल्मों के क्लिशे को हास्य को बदला जा चुका है। गाना बेहद अच्छा है।
मत लिखो भाई
हर दर-ओ-दीवार पर जब हम लिख आयेंगे
इमारतों के साये से भी लोग घबरायेंगे
खुलेंगी खिड़कियां तो शब्द लटकते नज़र आयेंगे
आएंगी आंधियां तो मतलब उखड़ जायेंगे
कितना लिखोगे कबीर तुम कब तक छपोगे
पढ़ने वाले पढ़ कर तुम्हें कहीं भूल आयेंगे
इमारतों के साये से भी लोग घबरायेंगे
खुलेंगी खिड़कियां तो शब्द लटकते नज़र आयेंगे
आएंगी आंधियां तो मतलब उखड़ जायेंगे
कितना लिखोगे कबीर तुम कब तक छपोगे
पढ़ने वाले पढ़ कर तुम्हें कहीं भूल आयेंगे
जगत और योगदान- इसके बिना हिन्दी
जगत। नाना प्रकार के होते हैं। जगत के भी उप-जगत होते हैं। जैसे एक हिन्दी जगत। फलाने जो उठ गए हैं धरती से, हिन्दी जगत के मूर्धन्य टाइप के कुछ थे। फलाने जो नहीं उठ पा रहे हैं वो अभी तक हिन्दी जगत में योगदान कर रहे हैं। हिन्दी जगत और योगदान ये दोनों मूल भाव हैं उनके, जो आगे चलकर महान बनना चाहते हैं। पहले हिन्दी जगत की ज्ञात उप-शाखओं के बारे में विनम्र प्रस्तुति करना चाहता हूं। नए साल के पहले दिन दार्शनिक व्याख्या करना चाहता हूं। इससे पहले कि खारिज कर दिया जाऊं, योगदान और जगत का विश्लेषण कर री-एंट्री करना चाहता हूं। दुकान-भाव में।
हिन्दी जगत कई शाखाओं में विभाजित है। दो मुख्य शाखाएं हैं। साहित्य जगत और पत्रकारिता जगत। साहित्य जगत की कई उप शाखाएं हैं। कविता-जगत,कथा-जगत,आलोचना-जगत,अनुवाद-जगत,लघु-पत्रिका-जगत,मासिक पत्रिका जगत। पत्रकारिता जगत की भी कई शाखाएं हैं। प्रिट पत्रकारिता-जगत,टीवी पत्रकारिता-जगत,वेब पत्रकारिता-जगत,ब्लॉग-जगत। जगत के इतने रूप होंगे, जगत कायम करने वाले ने कभी नहीं सोचा होगा। इन सब जगतों में योगदान करने की गंभीर उत्कंठा हिंदी जगत के लेखों में दिखती है। योगदान एक ऐसा लक्ष्य है जो कुछ लोगों को भरी जवानी में ही बूढ़ा बना देता है। मालूम पड़ता है कि वो कई जगतों में योगदान के लोड से मरा जा रहा है। कुछ लिख दीजिए तो प्रतिक्रिया आती है कि ये योगदान कैटगरी का है। योगदान करने का एक लाभ है कि दुनिया में नहीं रहने के बाद गोष्ठियां आयोजित होती हैं। संस्मरण उस योगदान भाव को ज़िंदा रखने की एक विधा है। बहुत सारे पत्रकार भी अपने जगत में योगदान कर जाना चाहते हैं। बहुत सारे साहित्य जगत में योगदान के साथ-साथ पत्रकारिता जगत में भी योगदान करना चाहते हैं
योगदान और जगत। ये सभी भाषाओं में हैं। योगदान भाव से मुक्त हो गए तो आप फिनिश हो गए। सायास योगदान करने का एक कोर्स बनाना चाहता हूं। अनायास कुछ भी अच्छा नहीं लगता। खुद को बुलंद साबित कर दीजिए तो सवाल उठाया जाता है कि उनका योगदान क्या है। अब इस महादान का हिसाब ही नहीं पूरा होता। क्या हो अगर कुछ भी योगदान न हो और महान बना दिये जाएं। कई लोग इस रास्ते भी अपनी दुकान चला गए हैं। मोबाइल दुकान। जो हर गोष्ठियों और लघु-समूहों में महानता के गुण गा आती है। पान की गुमटियों को हाज़िर-नाज़िर मान कर मित्र-मंडलियों की बैठकों में बकरीवाद के नए शिखर बनाये जाते हैं। बकौल चचा शेष नारायण सिंह बकरीवाद का जीनोम सबसे पहले पत्रकारों में नोटिस किया था। मेरी ख़बर, मैंने ये मैंने वो....टाइप से कर दिया है, वो अब तमाम आने वाली और आ कर मेरी तरह गुज़र जाने वाली पीढ़ियों से नहीं होगा। शिल्प और कथ्य कोई बता देता तो इन दोनों का ख्याल करते हुए किसी महान रचना की तरफ कदम बढ़ाता। भाषा की सहजता भी अब जटिल अवधारणाओं से परिभाषित की जानी चाहिए। इस तरह की बातें कोर्स में होनी चाहिए।
मैं ये क्यों लिख रहा हूं। पता नहीं। अनादर करने के लिए तो बिल्कुल नहीं। लेकिन कई रचनाओं में जब इन दो शब्दों पर नज़र पड़ती है तो लगता है कि इसके पीछे के मनोभावों का विश्लेषण किया जाना चाहिए। ये क्षमता मुझमें नहीं है और न ज्ञान। लेकिन विषय तो रख ही सकता हूं। मूर्तियों में गढ़े गए नायकों की तरह आसमान ताकते और सुदूर खड़ी आभाषी भीड़ को किसी राह चला देने का रास्ता बताती वो एक उंगली की तरह सम्मान तभी मिलता है जब आप किसी एक जगत में योगदान कर जाएं या फिर आपका योगदान इतना बड़ा हो कि वो कई जगतों की सीमाएं लांघ जाए। महानता की दुकान खड़ी हो जाएगी। तारीफ इसका फ्री गिफ्ट है। आह और वाह इसकी दो टॉफियां। चाटते चाटते कब किसी दांत के कोने में चटक जाएं पता नहीं चलता। क्या कोई ड्रेस कोड नहीं होना चाहिए? उनका जो किसी जगत में योगदान करना चाहते हैं। उनका हुलिया कुछ डिफरेंट होना चाहिए।
नोट- हमारे एक मित्र काफी लिख रहे हैं. उनका परिचय छपता है- लेखक पत्रकार हैं। मैंने कहा कि इतना लिखेंगे तो अब छपेगा- पत्रकार लेखक है।
हिन्दी जगत कई शाखाओं में विभाजित है। दो मुख्य शाखाएं हैं। साहित्य जगत और पत्रकारिता जगत। साहित्य जगत की कई उप शाखाएं हैं। कविता-जगत,कथा-जगत,आलोचना-जगत,अनुवाद-जगत,लघु-पत्रिका-जगत,मासिक पत्रिका जगत। पत्रकारिता जगत की भी कई शाखाएं हैं। प्रिट पत्रकारिता-जगत,टीवी पत्रकारिता-जगत,वेब पत्रकारिता-जगत,ब्लॉग-जगत। जगत के इतने रूप होंगे, जगत कायम करने वाले ने कभी नहीं सोचा होगा। इन सब जगतों में योगदान करने की गंभीर उत्कंठा हिंदी जगत के लेखों में दिखती है। योगदान एक ऐसा लक्ष्य है जो कुछ लोगों को भरी जवानी में ही बूढ़ा बना देता है। मालूम पड़ता है कि वो कई जगतों में योगदान के लोड से मरा जा रहा है। कुछ लिख दीजिए तो प्रतिक्रिया आती है कि ये योगदान कैटगरी का है। योगदान करने का एक लाभ है कि दुनिया में नहीं रहने के बाद गोष्ठियां आयोजित होती हैं। संस्मरण उस योगदान भाव को ज़िंदा रखने की एक विधा है। बहुत सारे पत्रकार भी अपने जगत में योगदान कर जाना चाहते हैं। बहुत सारे साहित्य जगत में योगदान के साथ-साथ पत्रकारिता जगत में भी योगदान करना चाहते हैं
योगदान और जगत। ये सभी भाषाओं में हैं। योगदान भाव से मुक्त हो गए तो आप फिनिश हो गए। सायास योगदान करने का एक कोर्स बनाना चाहता हूं। अनायास कुछ भी अच्छा नहीं लगता। खुद को बुलंद साबित कर दीजिए तो सवाल उठाया जाता है कि उनका योगदान क्या है। अब इस महादान का हिसाब ही नहीं पूरा होता। क्या हो अगर कुछ भी योगदान न हो और महान बना दिये जाएं। कई लोग इस रास्ते भी अपनी दुकान चला गए हैं। मोबाइल दुकान। जो हर गोष्ठियों और लघु-समूहों में महानता के गुण गा आती है। पान की गुमटियों को हाज़िर-नाज़िर मान कर मित्र-मंडलियों की बैठकों में बकरीवाद के नए शिखर बनाये जाते हैं। बकौल चचा शेष नारायण सिंह बकरीवाद का जीनोम सबसे पहले पत्रकारों में नोटिस किया था। मेरी ख़बर, मैंने ये मैंने वो....टाइप से कर दिया है, वो अब तमाम आने वाली और आ कर मेरी तरह गुज़र जाने वाली पीढ़ियों से नहीं होगा। शिल्प और कथ्य कोई बता देता तो इन दोनों का ख्याल करते हुए किसी महान रचना की तरफ कदम बढ़ाता। भाषा की सहजता भी अब जटिल अवधारणाओं से परिभाषित की जानी चाहिए। इस तरह की बातें कोर्स में होनी चाहिए।
मैं ये क्यों लिख रहा हूं। पता नहीं। अनादर करने के लिए तो बिल्कुल नहीं। लेकिन कई रचनाओं में जब इन दो शब्दों पर नज़र पड़ती है तो लगता है कि इसके पीछे के मनोभावों का विश्लेषण किया जाना चाहिए। ये क्षमता मुझमें नहीं है और न ज्ञान। लेकिन विषय तो रख ही सकता हूं। मूर्तियों में गढ़े गए नायकों की तरह आसमान ताकते और सुदूर खड़ी आभाषी भीड़ को किसी राह चला देने का रास्ता बताती वो एक उंगली की तरह सम्मान तभी मिलता है जब आप किसी एक जगत में योगदान कर जाएं या फिर आपका योगदान इतना बड़ा हो कि वो कई जगतों की सीमाएं लांघ जाए। महानता की दुकान खड़ी हो जाएगी। तारीफ इसका फ्री गिफ्ट है। आह और वाह इसकी दो टॉफियां। चाटते चाटते कब किसी दांत के कोने में चटक जाएं पता नहीं चलता। क्या कोई ड्रेस कोड नहीं होना चाहिए? उनका जो किसी जगत में योगदान करना चाहते हैं। उनका हुलिया कुछ डिफरेंट होना चाहिए।
नोट- हमारे एक मित्र काफी लिख रहे हैं. उनका परिचय छपता है- लेखक पत्रकार हैं। मैंने कहा कि इतना लिखेंगे तो अब छपेगा- पत्रकार लेखक है।
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