टिनअहिया हीरो से मुलाकात

भाषा हेडमास्टर है। बोली उदंड छात्राएं। उदंड के साथ साथ स्वतंत्र खयालों वाली छात्राएं। जो व्याकरण की छड़ी से खुद को नहीं हांकती। बल्कि चुपचाप नए शब्द नए वाक्य कहीं से उठा लाती हैं और बोल चलती हैं। बोलियों में बहुत सारे शब्द अवधारणाओं के बनने के बाद बनते हैं। उसे अभिवयक्त करने की ललक एक नए शब्द को जन्म दे देती

हमारे इलाके में एक शब्द प्रचलित था टिनअहिया हीरो। यह एक खास किस्म का हीरो हुआ करता था। जो बांबे दिल्ली से लौटा होता था। सस्ती जीन्स, लाल कमीज़, चश्मा और होठों से सरकते पान के पीक। टिनअहिया हीरो से गांव के देशज लड़के बहुत चिढ़ते थे। वह ग्रामीण समाज में एक शहरी अपभ्रंश की तरह आ चुका होता था। मिलता अक्सर पान की दुकान पर था। जब चलायमान होता तो देखने लायक होती। वह धीरे धीरे सायकिल छोड़ सेकेंड हैंड मोटरसायकिल की सवारी करने लगता। उसकी हेयर स्टाइल किसी हीरो से मिलती थी। अक्सर गांव के लोग उसे सामने पाकर हीरो कहते थे और उसके जाने के बाद टिनअहिया हीरो। इसका बटुआ भी खास रंग का होता था। कवर पर विद्या सिन्हा या रेखा की तस्वीर हुआ करती थी। सिगरेट सरेआम पी डालता था। लगता था कि कोई शहर से आया है। उसकी नज़रें गांव की दबी कुची लड़कियों को ढूंढा करती थीं। बड़ा साहसी होता था। सबके सामने उसकी नज़र पास से गुज़रती लड़कियों पर पड़ती थी। कभी कभी वो सरकारी बालिका विद्यालय के सामने भी पाया जाता था। वो अपने कंधे पर सशरीर शहर को लेकर घूमता था। शहर जैसा लगता था। टिनअहिया हीरो कहलाता था।

कांशीराम का थप्पड़

नोएडा स्टेडियम में बामसेफ का सम्मेलन चल रहा है। यहां कई लोग मिले जो कांशीराम के युवा दिनों के साथी रहे हैं। बल्कि यह बताते रहे कि कांशीराम हमारे युवा दिनों के साथी हैं। पुणा की बात बताने लगे। कहा कि कांशीराम पुणे आर्डिनेंस फैक्ट्री में काम करते थे। तब उन्हें अंबेडकर के बारे में कुछ पता नहीं था। कांशीराम एक हंसते खेलते सिख नौजवान थे। एक दिन दिनामाना नाम के चपरासी से अपने अधिकारी कुलकर्णी से १४ अप्रैल को छुट्टी मांगी। कुलकर्णी ने अंबेडकर जयंती के लिए छुट्टी नहीं दी। दीनामाना ने नाराज़ होकर बात कांशीराम को बताई। कांशीराम ने कहा ये कौन है जिसके लिए तुम छुट्टी मांग रहे हैं। नहीं मिली तो क्या फर्क पड़ता है।

तभी बामसेफ के संस्थापक डी के खापर्डे ने कांशीराम को बहुत डांटा। समझाया कि आपको नौकरी मिली है अंबेडकर की वजह से। वर्ना बिना आरक्षण के ये लोग नौकरी भी नहीं देते। ये सब चंद पल थे जिसने कांशीराम को कुछ सोचने पर मजबूर किया। गुस्से में कांशीराम ने कुलकर्णी को चांटा मार दिया। बस सस्पेंड हो गए।

इसी बीच बामसेफ की स्थापना हो गई। ४० लोगों की टीम ने छुट्टी के दिनों में देश में घूम घूम कर सरकारी कर्मचारियों को इकट्ठा करने का फैसला किया। कहा कि अगर एक लाख लोग हमारे दायरे में आ जाएं तो हम सामाजिक परिवर्तन कर सकते हैं। इसके लिए कांशीराम सबसे उपयुक्त मान लिये गए क्योंकि सस्पेंड होने के कारण उनके पास काम नहीं था। ये काम मिल गया। एक थप्पड़ ने कांशीराम को उस ऐतिहासिक मौके के दरवाज़े पर लाकर खड़ा कर दिया जहां से हिंदुस्तान की राजनीति कई दशकों के लिए बदल जाने वाली थी।
( यह प्रसंग पूरी तरह से बामसेफ के लोगों के संस्मरणों को सुन कर लिखा गया है। इसमें कोई जानकारी कम हो या गलत हो तो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है)

ब्लागईयर

हिंदी लेखन पठन का यह साल ब्लाग लेखन पठन के काल के रूप में जाना जाएगा। यही वो साल रहा जिसमें सैंकड़ों ब्लागर पैदा हुए। तमाम अख़बारों में ब्लागोदय की चर्चा हुई। ब्लाग साहित्य माना जाए या नहीं..इस पर कुछ लोग मायूस नज़र आए। पता नहीं वो क्यों एक मरती हुई विधा की तरह होना चाहते हैं? ब्लागविधा एक नई प्रक्रिया है। आने वाले समय में साहित्य तकनीकी माध्यमों से अवतरित होगा। जिस तरह प्रकाशन ने साहित्य को सुलभ किया उसी तरह ब्लाग साहित्य को पूरे विश्व में एक ही समय में सुलभ करा रहा है। साहित्य को एक नया माध्यम मिला है। तो यह पूरा साल हिंदी ब्लागरों के नाम पर रहा। इसी साल गूगल हिंदी बोलने लगा। इंटरनेट पर हिंदी के लोग अचानक उभरे और कानपुर से लेकर इटली तक आपस में बात करने लगे, बहस करने लगे और बात नहीं करने की धमकी देने लगे। कई तरह के एग्रीगेटर आए। नारद की ऐतिहासिक भूमिका बनी रही। ब्लाग पर तरह तरह के प्रयोग भी हुए। ब्लाग से संबंध बने तो खराब भी हुए। इसलिए यह साल ब्लागईयर के नाम से जाना जाएगा।

प्रणाम सर

कई लोगों ने सर सर कह कर मुझे पका दिया है। अचानक सर संबोधन में आई वृद्धि से परेशान हो गया हूं। पहले जब लोगों ने जी संबोधन का इस्तमाल किया तो तनिक विरोध के बाद छोड़ दिया। लगा कि जी से उम्र ही अधिक लगती है वर्ना समस्या खास नहीं है। सर ने सर खपा दिया है। कई लोग अब जी की जगह सर लगाने लगे हैं। ऐसा भी नहीं कि मैं कोई बड़ा अफसर हो गया हूं। होता भी तो इसकी ख्वाहिश तो बिल्कुल ही नहीं है।

सर क्या है? नाम के बाद आने वाला एक ऐसा सामंती उपकरण जो आपको कई लोगों से अलग करता है। इंसान सर संबोधन से इतना प्रभावित क्यों हैं? जब तक इसका इस्तमाल नहीं करता, उसे लगता ही नहीं कि सामने वाले को इज्जत बख्शी है। क्या सर के बिना सम्मान का कांसेप्ट नहीं होता है? करें क्या? मैं इनदिनों बहुत परेशान हूं। अब सुन कर उल्टी होती है। कहने वाले को समझाता हूं मगर मानते ही नहीं। सर और जी से बड़ा सरदर्द कुछ नहीं होता। मुझे यह समझ नहीं आ रहा है जो लोग साथ काम करते थे वो भी सर लगा देते हैं। मज़ाक की भी हद होती है। कई बार जब कहने को कुछ भी नहीं होता तब भी सर लगा देते हैं। कैसे हैं सर? क्या सर के बिना कैसे हैं का वाक्य पूरा नहीं होता? जिस तरह मुंबई में बीएमसी ने थूकने पर फाइन लगा दिया है उसी तरह दफ्तरों में सर संबोधन पर फाइन की व्यवस्था होनी चाहिए? क्या आप भी सर संबोधन से परेशान है? क्या आप इस परेशानी को दूर करने वाले किसी हकीम को जानते हैं? मैं उसकी पुड़िया सर संबोधन कार्यकर्ताओं को खिलाना चाहता हूं। ताकि यह मर्ज जड़ से गायब हो जाए।

खोया खोया चांद

प्रेमी चांद पर बहुत भरोसा करते हैं। कभी चांद को महबूब तो कभी महबूब को चांद बना देते हैं। पता नहीं यह रिश्ता कब से बनता चला आ रहा है। इस दुनिया में प्रेमियों ने अपनी अभिव्यक्तियों की लंबी विरासत छोड़ी है। जिसमें चांद स्थायी भाव से मौजूद है। कोई बात नहीं कर रहा हो तो हाल-ए- दिल सुनने सुनाने के लिए चांद है। वो कल्पना भी अजब की रही होगी की महबूब चांद को देख महबूबा को याद किया करते होंगे। पता नहीं दुनिया के किस पहले प्रेमी ने सबसे पहले चांद में अपनी महबूबा का दीदार किया। किसने सबसे पहले देखा कि चांद देख रहा है उसके प्रेम परिणय को।

बालीवुड का एक गाना बहुत दिनों से कान में बज रहा है। मैंने पूछा चांद से कि देखा है कहीं..मेरे प्यार सा हसीं..चांद ने कहा नहीं..नहीं। यानी चांद गवाह भी है। वो सभी प्रेमियों को देख रहा है। तुलना कर रहा है कि किसकी महबूबा अच्छी है। और किसकी सबसे अच्छी। पता नहीं इस प्रेम प्रसंग में चांद मामा कैसे बन जाता है। जब इनके बच्चे यह गाने लगते हैं कि चंदा मामा से प्यारा...मेरा...। क्या चांद महबूबा का भाई है? क्या प्रेमी महबूबा के भाई से हाल-ए-दिल कहते हैं? पता नहीं लेकिन चांद का भाव स्थायी है। अनंत है।

सूरज में कितनी ऊर्जा है। मगर वो प्रेम का प्रतीक नहीं है। क्या प्रेम में ऊर्जा नहीं चाहिए? चांदनी की शीतलता प्रेम को किस मुकाम पर ले जाती है? तमाम कवियों ने चांद को ही लेकर क्यों लिखा? कुछ गीतकारों ने जाड़े की धूप में प्रेम को बेहतर माना है लेकिन सूरज से रिश्ता जोड़ना भूल गए। धूप के साथ छांव का भी ज़िक्र कर देते हैं। यानी प्रेम में सूरज अस्थायी है। चांदनी का कोई विकल्प नहीं। कई कवियों की कल्पना में प्रेमी चांदनी रात में नहाने भी लगते हैं। पानी से नहीं, चांदनी से। अजीब है चांद।हद तो तब हो जाती है जब प्रेमी चांद से ही नाराज़ हो जाते हैं कि वह खोया खोया क्यों हैं? क्यों नहीं उनकी तरफ देख रहा है? प्रेमी अपने एकांत में चांद को भी स्थायी मान लेते हैं। चांद है तभी एकांत है। चांद पर इतना भरोसा कैसे बना, कृपया मुझे बताइये। कोई शोध कीजिए। कोई किताब लाइये। मुझे चांद चाहिए।

नरेंद्र मोदी- फिफ्टी फिफ्टी

सौ फ़ीसदी नरेंद्र मोदी ही जीतेंगे। गुजरात के शहरी इलाकों में लोगों की नरेंद्र भक्त लाजवाब है। पिछली बार शहरी इलाकों का ही चक्कर मार कर लौटा था।लगा कि सभी वाइब्रैंट गुजरात में पतंग उड़ा रहे हैं। दूसरी यात्रा में कई पतंग कटे बिखरे पड़े मिले। जिनकी डोर लटाई से छूट चुकी थी।

दलित- २००२ के हिंदुत्व की आग में दलितों ने भाजप के सवर्ण हिंदू का खूब साथ दिया। इसके अपना कारण थे। किसी भी आम शहरी बसावट की तरह अहमदाबाद में भी दलित और मुसलमान एक साथ और बाहर बसे हुए थे। धीरे धीरे शहर के विस्तार के साथ इनके चारों और बसावट बनती गई। दंगों के वक्त दलितों ने असुरक्षित करने लगे और सवर्ण हिंदू के झांसे में तुरंत आ गए कि मुसलमान कभी भी कुछ भी कर सकते थे। इससे पहले दलितों ने १९९५ से कांग्रेस का साथ छोड़ना शुरू कर दिया था। लेकिन अचानक आए हिंदुत्व के ज्वार में वो भी फंस गए। और दंगों में कथित रुप से बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। कहते हैं दंगों में मारे गए हिंदू लोगों में से दलित ही ज़्यादा था।

लेकिन पांच साल की शांति में जातिवाद उभर कर सामने आ गया। जिसके साथ दलित शांति से रह रहे थे उनसे झगड़ा मोल ले चुके थे। अब बारी थी कि उनके घर बेच कर कहीं और जाने की। लेकिन कानून के अनुसार अहमदाबाद में हिंदू मुसलमान आपस में संपत्ति तभी बेच सकते हैं जब कलेक्टर की अनुमति हो। अनुमति की प्रक्रिया लंबी होने के कारण दलितों ने मुस्लिमों के हाथ अपने मकान आधे दाम पर बेच दिए। इसे खरीदा दूसरे इलाके में रहने वाले मुसलमानों ने। खतरे के माहौल में अपने लोगों के साथ रहने का चलन बढ़ा। बाद में दलितों को अहमदाबाद के चांदखेड़ा इलाके में फ्लैट खरीदना पड़ा। इसे अब दलित विस्तार कहा जाता है। इसके आस पास पटेलों के मकान हैं। जो दलितों से घुलते मिलते नहीं हैं। अब दलितों के लिए नज़दीकी दुश्मन जातिवादी पटेल हो चुके हैं। मुसलमानों से उनकी तथाकथित असुरक्षा खत्म हो चुकी थी क्योंकि वो हिंदू इलाके में रहने के लिए आ गए थे। मगर यहां जातिवादी भेदभाव होने के कारण भगवा हिंदुत्व का मुलम्मा उतर चुका है। ये वो दलित मतदाता है जो पिछली बार भाजप के साथ थे इस बार पूरी तरह से नहीं हैं।

यही हाल गांवों का भी है। पांच साल के हिंदुत्व उभार में जातिवादी अपमान नहीं बदला। दलितों ने देखा कि कैसे प्रभावशाली पटेल या कोली या कोई भी अन्य जातियां सत्ता का लाभ हासिल कर रही हैं। और हिंदुत्व का झंडा बुलंद करने में कोई लाभ नहीं। बनासकांठा के एक गांव में पचीस साल से पानी की टंकी से पटेलों के घर में पाइपलाइन बिछी है। मगर दलितों के लिए पाइपलाइन नहीं बिछी। क्योंकि इससे पटेलों का पानी अछूत हो जाता। नतीजे में दलितों की बस्ती में चापाकल यानी हैंडपम्प लगा दिया गया है। इसलिए ऐसी सामाजिक स्थिति में दलित नरेंद्र मोदी के साथ नहीं है। दलित मतदाता में दरार पड़ गई है। हिंदुत्व के चक्कर में बेवकूफ बन गए हैं।

छोटे किसान- आणंद, खेड़ा के कई छोटे किसानों से मिला। उनका कहना था कि खुशहाली बड़े किसानों के यहां आई है। मैंने कहा कि बड़े किसान कितने हैं। जवाब मिला संख्या में हम उनसे कई गुना है। फिर वो कारण बताने लगे। एक किसान ने कहा कि छोटे किसानों की ज़मीन अक्सर अंदर या पीछे होती है। बड़े किसानों की ज़मीन सड़क के पास। नतीजे में बिजली विभाग वाले सर्वे के लिए नहीं आते। खंभा और तार बिछाने का खर्चा और डिपोज़िट भी हम भरते हैं। हमने कहा यही कम है कि आठ घंटे बिजली मिल रही है। छोटे किसान का जवाब था कि २४ घंटे भी मिलती है जो हमारी बस्ती में आती है। हम घर में २४ घंटे बिजली लेकर क्या करेंगे। टीवी देखना है क्या? खेत में आठ घंटे वो भी महंगी बिजली। साथ ही पानी के लिए भी बड़े किसानों पर मेहरबान हैं। ट्यूबवेल लगाने के लिए सरकार से अनुमति चाहिए। छोटे किसानों को अनुमति मिलने में लंबा वक्त लगता है। लिहाज़ा हम पानी के लिए पटेलों या बघेलों पर निर्भर हैं। अहमदाबाद बड़ौदा एक्सप्रैस वे के कारण हमारे खेतों में बरसात के बाद लंबे अर्से तक पानी जमा रहता है। जिससे फसल बर्बाद होती है और खेत खराब होते हैं।

सरकारी कर्मचारी- पांच लाख सरकारी कर्मचारी पूरी तरह से खुश नहीं हैं। कई बार नरेंद्र मोदी की महिला रैलियों के लिए औरतों को जुटाने का जिम्मा इनके हवाले किया गया। अनाप शनाप आदेश मानने के लिए बाध्य होना पड़ा। अच्छे प्रशासन का लाभ इन्हें नहीं मिला। जबकि नरेंद्र मोदी की नीतियों को लागू करने के लिए इनकी मेहनत का कोई नतीजा नहीं निकला। सरकारी कर्मचारी नाराज़ हैं।

ग्रामीण मध्यमवर्ग और शहरी गरीब-गुजरात की अमीरी का इतना गुणगाण हो रहा है कि इस तबके को लगता है कि उसके साथ मज़ाक हो रहा है। यह वो तबका है जिसे लगता है कि उसकी हालत तो वैसी ही है। बदला क्या है? अच्छी सड़क या बिजली ही विकास नहीं है। रोज़गार में हिस्सेदारी और स्वास्थ्य और शिक्षा का हाल भी देखना होगा। आणंद ज़िले की ही सरकारी वेबसाइट कहती है ज़िले के ढाई सौ सरकारी प्राथमिक स्कूलों में से डेढ़ सौ में एक या दो टीचर हैं। गरीब और मध्यमवर्ग के बच्चे यहां पढ़ते हैं। उनका कहना है कि यह स्वर्ण नहीं बल्कि सवर्ण गुजरात है।

विकास और भ्रष्टाचार- नरेंद्र मोदी देवघर बारिया की एक सभा में चिल्लाते हैं। मुझ पर हिटलर, तानाशाह और मौत का सौदागर होने का आरोप लगा। लेकिन भ्रष्टाचार का एक भी नहीं। मगर भीड़ दमदार ताली नहीं बजाती। रैली के बाद एक दुकानदार जहां हम नाश्ता कर रहे थे, कहता है भाजप के साथ अब सब नहीं हैं। क्यों? कहते हैं सड़क बनी तो ठेका सिर्फ भाजप और उसमें भी नरेंद्र मोदी के समर्थकों को मिला। वही लोगों ने बनाया वही लोगों ने खाया। जो लोग सायकिल से आते थे अब इनोवा से आते हैं। दुकानदार ने कहा कि आपने गौर नहीं किया। नरेंद्र मोदी कहते हैं मुझ पर आरोप नहीं लगा। लेकिन पार्टी के बारे में नहीं बोलते। नहीं कहते कि पार्टी का कोई भी एक कार्यकर्ता भ्रष्टाचार के आरोप में जेल नहीं गया। जबकि हकीकत यह है कि एक पूर्व सांसद, विधायक भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं।आणंद के विधायक दीपक पटेल का टिकट इसलिए काटा कि उन्होंने अस्सी करोड़ रुपये का कोपरेटिव घोटाला किया है। आणंद में गुजरात की गद्दी कार्यक्रम की रिकार्डिंग के बाद बीजेपी के ज़िला स्तर के प्रभारी मंत्री कहते हैं आप अहमदाबाद जा रहे हैं तो शहर से पहले ही मेरा वॉटर पार्क और रिज़ार्ट है। वहां रुक कर एन्ज्वाय कर सकते हैं। मैंने कहा जी शुक्रिया। ये बीजेपी के ज़िला स्तरीय छुटभैया नेता की तरफ से मीडिया को की गई नाकाम पेशकश थी।

आदिवासी- पंचमहल का भीतरी इलाका। सड़क बहुत अच्छी है। मगर एक आटो वाला कहता है कि आदिवासी लोगों के पास पैसा नहीं होता। बहुत गरीब हैं। पांच रुपये का किराया भी नहीं दे पाते।इसलिए दो रुपये में छत पर बैठ कर जाते हैं। सरकारी बस का किराया आटो के किराये से सिर्फ एक रुपया महंगा है। फिर भी वो आटो में चलते हैं। इनकी गरीबी में कोई सुधार नहीं आया है। एक आदिवासी ने कहा गरीबी तो नहीं बदली साहब। सड़क अच्छी हो गई है। समझ में नहीं आता इस अच्छी सड़क का क्या करें।

वीएचपी- मेरे कार्यक्रम में आए बीजेपी के एक कार्यकर्ता कहते हैं मोदी जी का जवाब नहीं है। मैंने पूछा कि फिर विश्व हिंदू परिषद क्यों अलग है? अगर हिंदुत्व का इतना ही भला हो गया तो वो नराज क्यों हैं? वो मुझे अपनी होंडा सिटी कार में आणंद के कैफे कॉफी होम में ले गया। हॉट ब्राउनी का आर्डर दिया और बोला कि वीएचपी वाले ज़मीन मांग रहे थे। कहीं आश्रम बनाना था तो कहीं दफ्तर बनाना था। सरकार ने नहीं दिया। इसलिए नराज़ हैं। बड़ौदा के वीएचपी के अध्यक्ष अतुल जोशी से हमारी बातचीत होने लगी। मेरा सवाल था-
क्या नरेंद्र मोदी हिंदुत्व के नेता हैं?
अतुल जोशी- आपको बेहतर पता होगा।
क्या नरेंद्र मोदी ने हिंदुत्व के लिए काम किया है?
अतुल जोशी- आपको पता होगा।
हिंदुत्व के हज़ार नेता हैं। क्या नरेंद्र मोदी एक हज़ार में एक नेता हैं?
अतुल जोशी- आप मालूम कर लो।
इस जवाब से मैं सकते में आ गया। अभी तक बातचीत कैमरे पर हो रही थी। मैंने कैमरा बंद कर दिया। बोला ऑफ द रिकार्ड बोलिये। जोशी जी कहते हैं नरेंद्र मोदी हिंदुत्व का झंडा लिये घूमते हैं लेकिन दंगों में नाम किसका आता है। हमारे लोगों का। कोई भी पकड़ा जाता है उसके आगे वीएचपी लिख दिया जाता है। और सत्ता नरेंद्र मोदी भोग रहे हैं। हिंदुत्व के इन पटीदारों, गोतियों का हाल देख समझ में आने लगा कि हिंदुत्व कुछ नहीं है। मोदीत्व तो और भी
कुछ नहीं है। सिर्फ मीडिया की जुगाली है।

इन्हीं सब असंतोष के छोटे छोटे कारणों से दो चार होते हुए लगने लगा कि गुजरात वाइब्रैंट नहीं है। नरेंद्र मोदी का एक छत्र करिश्मा नहीं है। इसीलिए लोग अब कहने लगे हैं कि नरेंद्र मोदी का जीतना फिफ्टी फिफ्टी है। किसी भी ज़िले में बात करता हूं सब कहते हैं फिफ्टी फिफ्टी है। नरेंद्र मोदी की जीत एकतरफा नहीं है। अगर जीत रहे हैं

मेरी दादी मर गई है

हमारी दादियां नानियां न जाने कितनी बार मारीं जाती हैं, उन्हें भी पता नहीं होगा। बहुत सारी दादियां मरने से पहले गंभीर रूप से बीमार पड़ती हैं। कुछ दादियों को अचानक चेकअप के लिए ले जाना पड़ता है। स्कूल, कालेज और दफ्तर में बहानेबाज़ी के अचूक हथियार के रूप में दादी का मरना,बीमार पड़ना आम होता जा रहा है। और कारगर भी। पहले भी इस बहाने का इस्तमाल होता था और आज कल भी हो रहा है। वो लोग भी इस बहाने का इस्तमाल करते हैं जिनकी दादी कब की मर चुकी है या जिन्होंने दुनिया में आने के बाद से ही अपनी दादी को कभी नहीं देखा।

मेरे दोस्तों को इस तरह का अनुभव हो रहा है। वो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। एक छात्रा ने अपनी दादी को इसलिए मार दिया क्योंकि वो समय पर अपना असाइन्मेंट नहीं कर सकी थी। उसी छात्रा ने किसी और टीचर के सामने अपने चाचा को मृत घोषित कर दिया। शायद यह छात्रा स्कूल के दिनों से दादी को बीमार बताते बताते बोर हो गई होगी। कालेज में आकर लगा होगा कि कितने दिन बीमार रहेगी अब तो मरने का भी वक्त आ गया है। स्कूल के दिनों में भी कई लोग इस तरह के बहाने करते थे। इस पर एक राष्ट्रव्यापी शोध होना चाहिए कि भारतीय छात्र छात्राएं छुट्टी लेने या काम न पूरा करने के लिए क्या क्या कारण देते हैं? मातहत अपने अफसर से छुट्टी पाने के लिए क्या बहाने करते हैं। मैं अपनी बेटी का बर्थ सर्टिफिकेट सत्यापित कराने के लिए नोएडा के एसएसपी के दफ्तर में बैठा था। एक सिपाही आया। जनाब छुट्टी चाहिए। क्यों? एसएसपी ने पूछा। मेरी दादी मर गई है। कब मरी है? परसो साब। कितने दिन की छुट्टी चाहिए?। साब तेरह दिन की। एसएसपी नाराज़ हो गए। बोले कि एक तो तीन दिन बाद छुट्टी मांग रहा है और वो भी तेरह दिन की। तुरंत बाद एक और सिपाही आया। साब छुट्टी की दरख्वास्त है। क्यों चाहिए छुट्टी? जनाब दादा जी बीमार हैं। आगे कहने की ज़रूरत नहीं हैं।

पता नहीं कितने बच्चों के साथ दादी रहती होगी। ये बच्चे अपनी दादी को मारने में संकोच नहीं करते। शायद इससे पता चलता है कि हमारे घरों में दादियों की बाकी बची ज़िंदगी की हालत क्या है? शायद घरों में दादियों की हालत मरी हुई जैसी ही है। उनके साथ ऐसा ही व्यावहार होता होगा या फिर अब मरी कि तब मरी के रुप में मरने का इंतज़ार होता होगा। कोई भावनात्मक संबंध नहीं होगा। कई घरों में दादियां रहती ही न होंगी। जहां रहती होंगी वहां मौत के करीब या मरने वाली दादी ही मानी जाती होगी। तभी एक छोटे से काम के लिए बच्चे स्वाभाविक रुप से अपनी दादी को मार देते हैं। जबकि घरों में जाइये तो बच्चे के लिए दादी का दिल बहुत पिघलता है। काश दादी को पता होता कि ये बच्चा जिसे वो पुचकारना चाहती है, वही आज उन्हें अपने प्रोफेसर के सामने मृत घोषित कर आ रहा है। हंसती बोलती सफेद धवल हमारी दादियां। जिनके साये में हम बड़े होते हैं। पलते रहते हैं। महफूज़ रहते हैं। वो हमें ज़रा सी चोट लगने पर घर आसमान पर उठा लेती हैं। हम उन्हें मारते रहते हैं।

जो भी इस लेख को पढ़ रहा है क्या वह स्वीकार करने का हौसला दिखाएगा कि उसने भी किसी प्रसंग में दादी या किसी रिश्तेदार के बीमार होने से लेकर मर जाने तक का बहाना किया है। यह एक गंभीर सामाजिक शोध का विषय हो सकता है। इससे पता चलेगा कि झूठ बोलने के इन मौकों में हम किन किन लोगों का इस्तमाल करते हैं। कुछ लोगों ने बताया कि मां बीमार है कहने में कलेजा कांप जाता है। पापा को बीमार कह नहीं सकते। दादी ही है जिसे बीमार से लेकर मारा भी जा सकता है। मैं उन तमाम दादियों की आत्मा की शांति के प्रार्थना करता हूं जिनके पोते पोतियां उन्हें मार देते हैं। झूठ की सामाजिकता इन्हीं सब बहानों से बनती जाती है। ईश्वर सभी दादियों को बहुत लंबी उम्र दे ताकि उनके पोते पोतियों को मारने का यह बहाना कई सालों तक काम आता रहे। बल्कि दादियों के लिए एक आइडिया है। वो पता करती रहें कि पोती ने होमवर्क किया है या नहीं. या फिर स्कूल गई है या नहीं। जब भी उन्हें लगे कि ऐसा हुआ है तो वो झट से स्कूल फोन कर दें औऱ बता दें कि मैं मरी नहीं हूं। बीमार नहीं हूं। ज़िंदा हूं। दादियों को भी स्ट्रीट स्मार्ट होना होगा।

अहमदाबाद

अहमदाबाद
दंगों के बाद का शहर
पतली टांगों में फंसी जिन्स का शहर
लिवाइस जीन्स का खरीदार शहर
मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं है
वह नया ब्रांड पहनता है
जैन पिज़्‍ज़ा खाता है
और नवरात्रा में कंडोम की बिक्री बढ़ाता है

अहमदाबाद

मोदी पर मंत्रमुग्ध है शहर
मॉल के माल पर मालामाल है शहर
गोधरा से पहले और बाद के दंगों से भागता
एक्सक्लेटर से गड्ढे में उतरता एक कतराता शहर
सब दोषी है
लेकिन पहले वो दोषी हैं
गोधरा के बाद ही हम दोषी हैं
हिसाब किताब करता एक अच्छा सा साहूकार शहर

अहमदाबाद

दंगों में मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं है
प्लाईओवर पर भागता रहता है
हवाई जहाज़ में छुपता रहता है
स्टाक एक्सचेंज में गिरता चढ़ता है
कांग्रेस को गरियाता
मोदी को मर्द बताता है

अहमदाबाद

दंगों में मारे गए लोगो के लिए रोता नहीं है
रात भर नाचता रहता है
जासूस की निगाहों से बचता हुआ
जल्दी से कहीं रात गुजार देता है
नवरात्रा में कंडोम की बिक्री बढ़ाता है

अहमदाबाद

हादसों को भूल जाने वाला शहर
हादसे के बाद घर में छुप जाने वाला शहर
मर्दानगी ढूंढता रहता है नेता में
वह मोदी को पसंद करता है
बिजली पानी की कमी नहीं
वह एक मर्द को ढूंढता रहता है
दंगों में मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं है

अहमदाबाद

एक ही तो नेता हुआ है शहर में
गोधरा के पहले का सच
गोधरा के बाद का सच
कभी एक से छुपता है
तो कभी एक से भागता है
मर्दों की मर्दानगी वाले इस शहर में
सिर्फ एक ही मर्द क्यों मिलता है
अहमदाबाद
दंगों में मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं हैं

मोहल्ले की बेटी

अविनाश का मोहल्ला बड़ा हो गया है। एक बेटी आई है। मोहल्ला पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचने और लिखे हुए पर अपनी उंगलियों से काटपिट करने के लिए। कस्बा की तरफ से मोहल्ले की नई मेहमान का स्वागत किया जा रहा है। अविनाश छुट्टी पर हैं इसलिए उनके घर मिठाई खाने कभी भी जा सकते हैं।
बेटी की क्‍यारी

मोदी की जीत

दिल्ली से आने वाले हर फोन में यही बेचैनी थी। मोदी की जीत कहीं पक्की तो नहीं है। सब एक दूसरे से अपनी तसल्ली के लिए पूछ रहे थे। लेकिन ज़मीन पर हकीकत कुछ और कह रही थी। कई जगहों पर गया। कहीं भी मोदी को लेकर लोगों में कोई शंका नहीं थी। इन लोगों से मतलब हिंदू गुजराती से है। मोदी की विकासवादी सांप्रदायिकता के आलोचक सिर्फ मुसलमान नज़र आते हैं। कुछ एनजीओ। कुछ मीडिया के लोग और इन सबके सहारे कांग्रेस।


भावनगर से मिलने आए एक सज्जन ने मुझसे कहा कि मोदी के विरोध या समर्थन में तर्कों की कमी नहीं। हमारी जनता हिंसक शासकों से नफरत नहीं करती है। इतिहास में कई ऐसे राजा हुए जिन्होंने कुआं खुदवाने और पानी लाने के लिए गरीबों की बेटियों की बलि दे दी। जब पानी आया तो लोगों ने राजा के गुनगान में कई गीत रचे। किसी ने मारी गई बेटी और उसके परिवार पर शोक गीत नहीं लिखा। गुजरात में भी नरेंद्र मोदी को इसी मानसिकता से समर्थन मिल रहा है। भावनगर वाले सज्जन बताए जा रहे थे कि लोग कहते हैं कि दंगों में जो मरे सो मरे लेकिन राजा ने गुजरात का भला तो कर दिया। यह कोई मामूली बात नहीं है। सज्जन की बातों से मुझे वो सब जवाब मिलने लगे जिन्हें ढूंढ रहा था।

चुनावी राजनीति में राजनेता को घेरने के कुछ ठोस पैमाने चाहिए। टूटी सड़कें, गायब बिजली और पानी, खराब सरकारी व्यवस्था आदि आदि। गुजरात में यह सब नहीं है। ऐसी बात नहीं है कि पानी की समस्या नहीं हैं और सभी सड़के शानदार हैं। मगर हालत इतनी भी खराब नहीं लगती कि आप बिजली सड़क पानी को मुद्दा बना सकें। अभी भी कई लोग हैं जिनके आधार पर मोदीवादी विकास को चुनौती दी जा सकती है। लेकिन विकास की कमी को लेकर लोग इतने भी परेशान नहीं कि मोदी के खिलाफ लामबंद होने लगे हों। कम से कम सतही तौर पर तो यही लगता है। कई लोगों से मिला। किसी ने नहीं कहा कि मोदी को हरा कर रहेंगे। कांग्रेस से यह सवाल कीजिए तो जवाब मिलता है कि उम्मीद तो है कि मोदी हारेंगे क्योंकि कई विधायक बागी हो गए हैं। सब किसी न किसी बाह्य कारणों से मोदी के हार जाने का ख्वाब देख रहे हैं।

मान लीजिए कि मोदी हार ही जाते हैं। तो क्या हो जाएगा। क्या यह सांप्रदायिकता के खिलाफ जनादेश होगा? जबकि कांग्रेस यह मुद्दा ही नहीं उठा रही है और कई लोग हमें भी राय देते हैं कि आप गुजरात में हैं तो मुसलमानों पर स्टोरी मत कीजिएगा,इससे मोदी को लाभ हो जाएगा। हद है ऐसी सोच की। क्या कोई इस चुनाव में नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिकता के सवाल पर चुनौती दे रहा है? २००२ में गुजरात की जनता ने मोदी के पक्ष में जनादेश दिया था। तो फिर मोदी के हारने या न हारने से सांप्रदायिकता का सवाल कहां उठता है? क्या सिर्फ मोदी के कारण ही वहां सांप्रदायिकता का ज़हर फैला हुआ है। सिर्फ मोदी को हरा कर सांप्रदायिकता को नहीं हरा सकते। इसलिए जीत का लक्ष्य कुछ और होना चाहिए। उनमें से एक मोदी की हार भी होनी चाहिए न कि मोदी की हार से धर्मनिरपेक्षता की जीत का लक्ष्य।

ज़मीन पर गुजरात एक बेहतर राज्य लगता है। कई लोग कहते हैं कि गुजरात हमेशा से अच्छा रहा है। तो क्या यही कम नहीं कि मोदी ने इसे बिगड़ने नहीं दिया। ये लोग नरेंद्र मोदी को श्रेय देने से इसलिए डरते हैं कि कहीं कोई यह न कह दे कि आप मोदी की तारीफ कर रहे हैं। सांप्रदायिकता का साथ दे रहे हैं। तो क्या करें। बतौर रिपोर्टर वह कहे जो वहां के लोग कह रहे हैं या वो कहें जो मैं कहना चाहता हूं। दरअसल यह मुसीबत आई है धर्मनिरपेक्षवादी ताकतों की खोखली लड़ाई से। सांप्रदायिकता से सीधे नहीं लड़ते। यही लोग कहते रहे कि आम आदमी को रोज़ी रोटी चाहिए। सांप्रदायिकता नहीं। एक विकल्प पेश कर रहे थे। उसे खत्म नहीं कर रहे थे। मोदी ने सड़क बिजली और पानी का बंदोबस्त कर दिया। और सांप्रदायिक मानसिकता भी बनी रही। धर्मनिरपेक्षवादी विकास के सवालों से सांप्रदायिकता से लड़ रहे थे। वो यह नहीं कह रहे थे कि अच्छी सड़क और पानी के व्यापक इंतज़ाम के बावजूद सांप्रदायिकता खतरा है। यूपीए की सरकार के घटक दलों ने कितनी जनचेतना रैली सांप्रदायिकता के खिलाफ की है। क्या वो कोई जनजागरण कर रहे हैं?

रही बात गुजरात की तो वहां की सड़को को देखिये। शानदार हैं। राज्य परिवहन की बसें समय पर चलती हैं और बेहतर सेवा है। किसान कहते हैं कि बिजली जाती भी है तो आ जाती है। व्यापारी कहते हैं कि निगम वाले अफसर परेशान नहीं करते। मीडिया मोदी जी को बदनाम करती है। लेकिन हम मोदी जी के साथ है। इसी भरोसे मोदी ने कई विधायकों के टिकट काट दिये क्योंकि लोग इनसे नाराज़ थे। यहां एक विचित्र फर्क दिखता है। लोग स्थानीय विधायकों से तो नाराज़ मिल जाते हैं लेकिन मोदी से नाराज नहीं मिलते। मैं शत प्रतिशत की बात नहीं कर रहा हूं लेकिन सापेक्षिक तौर पर ऐसे लोग मिलते हैं जिनसे अंदाज़ा हो जाता है कि मोदी के खिलाफ कोई लहर नहीं है। हां चाहूं तो गरीब किसानों को ढूंढ सकता हूं, वैसे खेत अभी भी हैं जहां पानी नहीं पहुंचा और वैसे अस्पताल भी हैं जहां कोई डाक्टर नहीं है। लेकिन इनके गुस्से से राजनीति का ऐसा कोई मानस बनता नहीं दिखता जिससे मोदी की हार दिखाई देती हो। यह ज़मीनी हालात हैं। अब यह हो सकता है कि लोगों ने मोदी को हराने का मन बना लिया हो लेकिन ज़ाहिर नहीं करना चाहते। वो मतदान के दिन ही फैसला करेंगे। तब तो अलग बात है। लोगों के ऐसे गुस्से का अंदाज़ा नहीं हुआ। राजनीतिक जानकार इस बात पर मगजमारी कर रहे हैं कि सीटें कम हो जाएंगी। फर्क क्या पड़ता है? सरकार बनाने के लिए जितनी चाहिएं अगर उतनी आ रहीं हैं तो मोदी की वापसी ही कहेंगे न।

बहुमत की जीत पर कविता

पिछले दिनों चुनाव के सिलसिले में गुजरात में था। साबरमती आश्रम के सामने गुजरात टूरिज़्म के होटल में ठहरा था। सड़क पार कर साबरमती पहुंचा तो सबसे पहले इस कविता पर नज़र पड़ी। कोई पढ़ नहीं रहा था सोचा ब्लाग पर उतार देता हूं।

ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का
ज़्यादा से ज़्यादा लाभवाला सिद्धांत
मैं नहीं मानता।
उसे नंगे रूप में देखें तो उसका अर्थ यह होता है
कि ५१ फीसदी लोगों के हितों की ख़ातिर ४९ फीसदी
लोगों के हितों का बलिदान किया जा सकता है।
बल्कि कर देना चाहिए।
यह एक निर्दय सिद्धांत है और मानव समाज को
इससे बहुत हानि हुई है।
सबका ज़्यादा से ज़्यादा भला किया जाए
यही एक मात्र सच्चा, गौरवपूर्ण और मानवीय सिद्धांत है
और इसे पूर्ण आत्मबलिदान के द्वारा ही अमल में लाया जा सकता है।
---महात्मा गांधी, चार जून उन्नीस सौ बत्तीस

अस्सी के दशक में नाईटी

अस्सी का दशक। पटना की दुपहरी। रिक्शे से मां बेटी उतरी थीं। खरीदारी कर आईं थीं। मोहल्लों की दुनिया में हर खरीदी हुई चीज़ की पड़ोसियों के बीच नुमाइश होती है। सबको पहले से पता होता है कि कौन क्या खरीदने जा रहा है। कोई कटोरा गिलास भी खरीदता था तो नुमाइश होती थी। कई बार तो खरीदार सारा सामान लेकर पड़ोसी के घर में ही आ जाता था। इस बार खास चीज़ थी। नाईटी। कुछ औरतें इसे मैक्सी बुला रही थीं। कुछ ने गाउन कहा। कुछ औरतें हंस रही थीं और कह रही थीं कि कहां पहनियेगा। पटना में ई नहीं चलेगा। इ सब तक बांबे में चलता होगा। तब दिल्ली का नाम सहसा ज़ुबान पर नहीं आता था। और हां नाईटी खरीदी गई है इसे कुछ दिन तक के लिए घर के कर्ता पुरुष से गुप्त रखा गया था। उन्हें धीरे धीरे बताया गया था। पहले उनके आफिस जाने पर पहना गया फिर धीरे धीरे आने के बाद भी।

खरीदार चाची ने कहा था बढ़िया है।घर में पहनने के लिए। दरअसल तब औऱतें बाहर ही कहां जाती थीं। उन्हें घर में ही कुछ बदलाव चाहिए होता था। खैर उनकी बेटी ने वो गाउन या नाईटी पहनना शुरू कर दिया। जिन पड़ोसनों ने नुमाइश देखी थी कहने लगीं कि कैसी लगती है। बताइये अभी से अपनी बेटी को नाईटी पहना रही हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या मतलब होता होगा। बस बातें याद हैं। सो लिख रहा हूं। एक सांस्कृतिक बहस तो छिड़ ही गई थी। वो लड़की अब ख़राब नज़रों से देखी जाने लगी। वजह उसकी नाईटी। जब भी पहन कर कटोरे में चीनी या दूध देने लेने के लिए किसी पड़ोसी के घर आती, एक मिनट के रास्ते में चंद नज़रे हज़ार बार देख लेतीं थीं। लड़के और खासकर लड़कियों की नज़रें। धीरे धीरे नाईटी कुछ और लड़कियों ने पहनना शुरू कर दिया। बुजुर्गों की मंडली में बहस तेज हो गई कि ये कोई पहनने की चीज़ हैं। मांओं को ताना देने लगे कि सभी अपनी बेटी को बंदर बना रही हैं। हाई फाई सोसायटी का नकल करने से कोई फायदा है। जहां इन सबकी शादी होगी वहां कौन नाईटी पहनाएगा। कई बार बुज़ुर्ग हताश होकर गुस्सा हो जाते और कह देते कि ससुराल में पहनेगी तो ननदें बाल नोच लेंगी और सास लात मारेगी। जब भी किसी को नाईटी पहने देखता हूं, सारी बातें याद आ जाती हैं। मैक्सी की तरह मिडी को लेकर भी गाहे बगाहे बवाल हो जाता था। तब तो और हो गया जब पड़ोसी लड़की नाईटी पहनकर किसी के घर जा रही थी। लेकिन पास से तेजी से गुज़रते हुए सायकिल सवार ने उसे स्वीटी कह कर सीटी बजा दी। मोहल्ले के सारे वीर किस्म के लड़के मारने के लिए दौड़ पड़े। लड़की घबराहट में चिल्लाने लगी थी। वो तो फरार हो गया मगर मैक्सी या नाइटी को दोषी ठहरा दिया गया। सब कहने लगे कि बोलिये ये पहनने की चीज़ है।

दिल्ली आया तो कुछ लड़कियों ने मुझसे कहा था कि जीन्स खरीदना है। वो अकेले नहीं गईं। मुझे कहा कि तुम साथ चलो। दुकानदार से कहा कि इन्हें जीन्स खरीदनी है। उसने साइज़ पूछ दिया। लड़कियों को कहा कि जवाब दीजिए तो मुझे ठीक ठीक याद है उन्होंने बहुत धीरे से कुछ कहा था। खैर उन दोनों ने जीन्स की पैंट खरीदी। बाद में मेरे बिना ही खरीदने लगीं होंगी। क्योंकि उसके बाद फिर नहीं कहा। लेकिन मुझे साथ ले जाने का क्या मतलब होगा। क्या उनके मन में द्वंद चल रहा था कि पता नहीं अकेले जीन्स खरीदने जाएं तो दुकानदार क्या समझेगा। यह १९९४ की एक दुपहर की बात है। या यह लगता होगा कि यह कोई असामाजिक पहनावा है जिसे खरीदने के लिए किसी का साथ चाहिए। ताकि लगे कि जो खरीद रहे हैं वो सही है। याद है मेरे पिताजी ने भी कहा था जिन्स का पैंट लोफर लड़का पहनता है। दिल्ली में कई लड़के एक साथ रहते थे। सबने जीन्स की पैंट इसी तरह से खरीदी। उनके मां बाप बिगड़ने लगे कि जीन्स पहनने लगा है। हीरो बन गया है। दिल्ली जाकर पढ़ता लिखता नहीं होगा। वो भी अजीब किस्म की दलील देते थे। मां, जीन्स इसलिए पहनता हूं कि बार बार धोना नहीं पड़े। दिल्ली में पानी नहीं है। इतना पैंट कौन धोएगा। और समय कितना बचेगा। टाइम बचेगा तो पढ़ने में ही लगेगा न। लड़के और लड़कियों के लिए जीन्स की पैंट के सामाजिक मायने अलग अलग थे।

औरतों के कपड़ों को लेकर हमारा समाज बहुत कुछ कहता रहा है। आज उसी पटना और बिहार के समाज में जब लड़कियों को गांवों तक में देखता हूं तो हैरान रह जाता हूं। जिन्स और टाप। बिहार की कई लड़कियों को अपने ससुराल में जिन्स टाप पहने देखता हूं। उनकी सास और मांएं किसी गुज़रे ज़माने की तरह नज़र झुकाए कमरे में इधर से उधर आती जाती रहती हैं। कोई कुछ नहीं कहता। तब तो स्लीवलेस ब्लाउज़ पर ही बवाल हो जाता था। लेकिन अस्सी के दशक तक सारी औरतें नहीं पहनती थीं। बड़े अफसरों की बीबीयों की पहचान हुआ करता था। वो ही स्लीवलेस ब्लाउज़ पहना करती थीं। धीरे धीरे दूसरे दर्जे के अफसरों की बीबीयों ने भी नकल करना शुरू कर दिया। क्योंकि उन्हें तीसरे दर्जे के कर्मचारियों की बीबीयों से अलग दिखना था। अब तो गांव में खेतों में काम करने वाली महिलाएं भी स्लीवलेस ब्लाउज़ पहने दिख जाती हैं। ज़माना इसी तरह से बदलता है क्या। जब ऊपर वालों की कोई चीज़ लुढ़कती हुई नीचे तक आ जाती है और इस तरह से स्वीकार कर लिया जाता हो जैसे यह हमारे पहनावे का हिस्सा ही था।

लड़की की दिखाई

कभी कभी पुरुषों को सोचना चाहिए कि एक स्त्री या लड़की उनके बारे में कैसी कल्पना करती होगी। पुरुषों के कल्पना लोक में लड़कियां आतीं रहती हैं। फिल्म के पर्दे से लेकर पड़ोस की खिड़की से। मैगज़ीन के कवर से लेकर रेलगाड़ी में सामने की सीट से। फिल्म और छपाई के ज़माने में लड़कियों के सौंदर्य की एक सार्वभौमिक अभिव्यक्ति बनाई गई। जिनकी पूर्ति के लिए कई लड़कियों ने मटके के पीछे खड़ी होकर शादी के लिए तस्वीरें खींचाईं। फोटो की फाइनल कॉपी से पहले स्टुडियो वाले ने प्रूफ की कॉपी बनाई। उसके बाद यह कॉपी न जाने कितने योग्य वरों के घरों में गई। नहीं मालूम कि योग्य वर ने इंकार करने के बाद उस लड़की के साथ अपने कल्पना लोक में क्या किया। नहीं मालूम की मटकी के पीछे और राजस्थानी घाघरा चोली में खड़ी लड़की की तस्वीर हाथ में आते ही लड़के की नज़र पहले कहां गई। इसका कोई सामाजिक शोध उपलब्ध नहीं है।

मेरे पिता जी ने एक योग्य वर के नखरे से तंग आकर खरी खोटी सुना दी थी। गोरखपुर में किसी रिश्ते के अपने भाई की बेटी के लिए अगुवई में गए थे। लड़के वाले कैसी लड़की चाहिए पर वाम दलों की तरह सूची लंबी किए जा रहे थे। पिता जी की ज़ुबान फिसल गई या गुस्से में कह गए पता नहीं। चिल्लाने लगे कि लड़का को हेमा मालिनी चाहिए तो लड़की को भी धर्मेंद्र जैसा हैंडसम लड़का मिलना चाहिए। आपका बेटा इंजीनियर ही तो है। शक्ल देखिये इसकी। पतलून में बेल्ट लगाने नहीं आता, बाल में तेल है और कमीज़ की कोई फिटिंग तक नहीं। और आप हमारी लड़की में गुण ढूंढ रहे हैं। शादी करेंगे या नहीं। पिताजी बोल तो गए मगर शादी नहीं हुई। लड़के वाले इस बात को स्वीकार नहीं कर सके कि योग्य वर के बारे में योग्य दुल्हन की भी कोई कल्पना होगी?

ऐसे कई प्रसंगों में मैं खुद भी मौजूद रहा हूं। जहां लड़के वालों ने लड़कियों को ड्राइंग रूम में चला कर देखा कि चलती कैसी हैं। कभी चश्में का नंबर पूछा गया तो कभी लड़के की बहन ने लड़की की आंख को घूर से देखा कि कहीं कांटेक्ट लेंस तो नहीं लगा है। यह प्रक्रिया शादी के बाद भी जारी रहती है जब शादी के बाद घर आई दुल्हन की मुंहदिखाई के लिए लोग आते हैं। घूंघट उठा कर देखते हैं और सौ दो सौ रुपया दे जाते हैं। मैंने कई औरतों को देखा है कि दुल्हन की घूंघट उठाई और बोलते रह गईं। किसी ने वहीं कह दिया कि फलां कि बहू जैसी खूबसूरत है। बस इस तुलना से दुल्हन की तौहिन हुई सो अलग, वहीं बवाल मच गया। खैर ऐसे आयोजन को अंग्रेजी में रिसेप्शन कहते हैं। हिंदी में प्रीतिभोज।

यही देखते हुए बड़ा हुआ था। कई बार मां पिताजी, या रिश्तेदारों को पिछले दरवाज़े से जाते हुए देखा था। किसी को पता न चले कि लड़की दिखाने ले जा रहे हैं। बदनामी के डर से कि इनकी बेटी बार बार छंट जा रही है। पिताजी इस खौफ से कई अनर्गल और अवांछित रिश्तेदारों का मान मनौव्वल करते रहते थे कि कहीं वे उन जगहों पर जाकर बेटी के बारे में शिकायत न कर दें। शादी न कट जाए। यही जुमला चलता था। शादी कट गई क्या? रिश्तेदार कोई अनजाने नहीं बल्कि अपने ही मामा चाचा हुआ करते थे। हर दिखाई के बाद जब पड़ोस की चाची पूछती थीं तो पूरा परिवार तुरंत झूठ बोलने लगता था। मैं भी बोलता था। अपनी बहनों की भलाई के लिए। कोई नहीं कहता कि लड़के वाले ने देखा है। कुछ लोग यही गिनते रहते थे कि कितनी बार छंटाई हुई है। कई बार लड़की दिखाने के लिए मां नहीं जाती थी। गांव से बुआ आ जाती थी। ताकि किसी को शक न हो। लगे कि भतीजी अपनी बुआ के साथ कुछ खरीदने गई है।

यही देखते देखते कुछ और बड़ा हुआ। इतना कि मेरी कल्पनाओं में लड़कियां आने लगी थीं। किस रूप में आती थी उस पर बहस फिर कभी। लेकिन कभी कोई लड़की गुज़र जाए तो बहनें या पड़ोस की चाचियां ही कह देती थी कि सुंदर है..रवीश की दुल्हन ऐसी ही होगी। लंबी, गोरी और काले बालों वाली। मैं भी सुन लेता था। कान बंद करने का कोई उपाय नहीं होता था। मगर अच्छा नहीं लगता था। क्योंकि दुल्हन देखने के रस्मों की कड़वाहट ज़हन में उतर गई थी।

पटना स्टेशन के पास हनुमान मंदिर में पड़ोस की चाची की एक बेटी को स्कूटर पर बिठा कर ले गया था। मुझे यह काम इसलिए सौंपा गया कि किसी को शक न हो। मेरी ऐसी साख बन गई थी मोहल्ले की लड़कियों के बीच। लोगों को लगे कि कहीं कोचिंग सेंटर छोड़ने ले जा रहा होगा। मेरा एक काम यह भी था। इसलिए किसी को शक नहीं होता था। उस दिन मैं उस लड़की को हनुमान मंदिर ले गया था। चाची ने कह दिया था धीरे धीरे चलाना। शुभ काम है। मैं भी लगता था कि कितना बड़ा काम मिला है, कर ही देना है। पटना का हनुमान मंदिर। वहां लड़के वाले आ चुके थे। उसे देखने। चाची रिक्शे से पहुंची थीं। अलग से। लड़के ने लड़की को देखना शुरू किया। उसकी नज़रों को मैंने देखना शुरू कर दिया। वो कहां कहां देख रहा है। कहां ज्यादा रूक रहा है।मोहल्ले के फिल्मी भाई की तरह गुस्सा भी आया।लेकिन भला उसी का था, चाची के सर से बोझ उतरना था इसलिए चुप भी रहना था। वो मेरी बहन नहीं थी इसलिए सर उठा कर देख रहा था।अपनी बहनों के वक्त तो नज़र नीचे ही रहती थी। इसी से कई लोगों को लगा कि मैं सीधा हूं।अच्छा लड़का हूं।खैर पहली बार देखा कि मर्द कैसे लड़की को देखता है।साला सामान ही समझता है।और कुछ नहीं।बाद में
उस लड़की को स्कूटर के पीछे बिठा कर घर ला रहा था।रास्ते भर सोचता रहा कि कितना अपमान है।लड़की नहीं होना चाहिए। पहली बार मुझे यह पता चला था कि लड़कों की नज़रें गंदी हो सकती हैं। बुरा या गंदी पता नहीं। अच्छाई के विरोध में तब शब्द भी कम होते थे। उस लड़के ने पसंद नहीं किया। क्या पता किसी और को हनुमान के सामने घूर रहा होगा? पता नहीं।

हिंदुस्तान के लड़के बदसूरत, बेढंग और बेहूदे होते हैं। लड़कियां तो सज कर कुछ बेहतर से बहुत बेहतर लगती रहती हैं। लड़कों के पास नौकरी न हो और समाज में शादी का चलन न हो तो मेरा यकीन है कि लाखों की संख्या में लड़के कुंवारे रह जाते। पिता जी की बात सही लगती रही। आज तक लगती है। शाहरूख ख़ान सिक्स पैक बना रहा है तो मुझे ठीक लगता है। सारे लड़कों को नौकरी के अलावा इस लायक तो होना ही चाहिए कि किसी लड़की की कल्पना लोक में आ सके। वर्ना मैंने शादी से पहले सैंकड़ों मौके देखे हैं जब लड़कियों को लड़कों के सामने दिखाया गया है। एक भी मौके पर किसी भी लड़की ने लड़के की तरफ नज़र उठा कर नहीं देखा। कभी नहीं देखा कि लड़के ने भी लड़की के लिए तस्वीर खिंचाई है। सूट में। स्टुडियो वाले से टाई लेकर। यकीन न हो तो पटना के मौर्या लोक में एक स्टुडियो है। डैफोडिल्स। वहां जाकर पूछ लीजिएगा। यह स्टुडियो स्थानीय स्तर पर लड़कियों की ऐसी तस्वीर तो बना ही देता था कि पहले राउंड में क्लियर हो जाए। और लड़के वाले अपने ड्राइंग रूम में या हनुमान मंदिर में उसे देखने के लिए बुला लें। लड़कियों के सामने लड़कों की तस्वीरों का विकल्प कभी नहीं रहा। क्या पता उन्हें भी पिता जी की तरह लगता हो इंजीनियर ही तो है। जीवन काटना है। हां कह देंगे तो मां बाप है हीं मेरी तरफ से हां कहने के लिए।

मुझे फैशन से चिढ़ है। मेक अप से चिढ़ है। लेकिन जब पढ़ता हूं कि पुरुषों के सजने संवरने का कारोबार हज़ार करोड़ का हो रहा हो तो कभी कभी खुशी होती है। बीते दिनों की ख़राशों पर इसी बात से मरहम लगती होगी। जब मेरी एक दोस्त ने कहा कि शाहरूख इज़ हॉट तो सुनकर अच्छा लगा। एक बार लड़कियों की नज़रे लड़कों को नापने लगे तो कस्बे से लेकर महानगरों के कुंवारे इंजीनियरों, डाक्टरों और एमबीए लड़कों के होश उड़ने लगेंगे। वो भी सिक्स पैक बनाने लगेंगे। बल्कि बना ही रहे हैं।

जेनएक्स की प्रेम कविता

ओमेक्स मॉल की छत पर हमने
देखे थे तुम्हारे साथ कुछ सपने
मिक्सियों और टीवी को निहारते हुए
मेरी निगाह बार बार देखती थी तुमको
ठीक उसी बीच तुम्हारी नज़र पड़ गई
परफ्यूम की एक खूबसूरत शीशी पर
कहने का तरीका तो आसानी से मिल गया
हमने शीशी खरीदी और बिल पे कर दिया
मगर कहने का अर्थ बदल गया
मॉल से बाहर निकलते हुए तुमने
कॉफी की चुस्की के बाद कहा था
पता नहीं टीवी और मिक्सी की तरह
तुम भी क्यों पसंद आते हो मुझको
लगता है कि मैंने तुम्हें पसंद किया है
और बिल किसी और ने पे किया है
हाथ पकड़ कर चलती हूं तो साथ साथ लगता है
साथ साथ चलती हूं तो जकड़ा जकड़ा सा लगता है
कहीं से खुद को छुड़ा कर आती हूं जब तुम्हारे पास
न जाने क्यों हर बार बंधा बंधा सा लगता है
मल्टीप्लेक्स की अंधेरी सीट पर पॉप कॉर्न के दाने
हमारे प्यार के लम्हों को कितना कुरकुरा बना देते हैं
एक्सलेटर की सीढ़ियों पर खड़े खड़े क्यों नहीं लगता
कि तुम्हारा हाथ थाम कर कुछ देर यूं ही उतरती रहूं
वहां भी तुम इस छोर होते हो मैं उस छोर होती हूं
मॉल में तमाम खरीदारियों के बीच हमारा प्यार
अक्सर पेमेंट के बाद न जाने क्यों टिसता रहता है
हमदोनों के लिए मोहब्बत किसी शॉपिंग मॉल है
जहां हर सामान दूसरे सामान से बेहतर लगता है
जनम जनम का साथ नहीं अगले सीज़न का इंतज़ार लगता है।

बम बंदूक और बुद्धदेब

बम बंदूक और बुद्धदेब
युद्धदेब युद्धदेब
बाइक पर सवार कॉमरेड
झूम रहे हैं बुद्धदेब
बुद्धदेब का महासंग्राम
माओवाद या नंदीग्राम
मारो इसको पीटो उसको
काडर तुम बस करो काम
पुलिस नहीं है पब्लिक है
हाथ में जिनके रिपब्लिक है
बुद्धदेब बोले हे पब्लिक
निकाल तू अपनी मोटरबाइक
होकर सवार कर लाल सलाम
जो न बोले लाल सलाम
उनको दे तू बंदूक सलाम
बम बंदूक और बुद्धदेब
युद्धदेब युद्धदेब
बंगाल के बुद्धदेब किसके सीएम
सीपीएम सीपीएम सीपीएम
बंगाल के बुद्धदेब किसके साथ
कडर, बंदूक और लाल सलाम

नंदीग्राम के बुद्धूदेब

किताब पढ़ना, साहित्य पढ़ना आदि आदि यह सब बेकार हो जाता है जब आप सत्ता के शिखर पर पहुंचते हैं। वहां पर पहुंचा हुआ व्यक्ति एक खास किस्म की सनक का शिकार हो ही जाता है। जहां विचारधारा खत्म हो जाती है और सोच में सत्ता हावी हो जाती है। बुद्धदेब बाबू भी इस मामले में बुद्धूदेब बाबू ही निकले।

काडर ने जो किया ठीक किया। भाई साहब ने नज़ीर पेश कर दी है। आगे के लिए। पहले कहा कि नंदीग्राम में माओवादी का कब्ज़ा हो गया है। यह कभी नहीं कहा कि कौन से माओवादी वहां घुसे हैं। ठीक है कि माओवादियों का एक बड़ा संगठन सीपीएम माओवादी है। लेकिन पार्टी ने इस संगठन का भी नाम नहीं लिया। सिर्फ माओवादी कहा। कई तरह के माओवादी संगठन हैं। मगर सीपीएम को नाम नहीं पता चल सका। और जिस माओवादी को पुलिस नहीं हटा सकी उसे सीपीएम के काडर ने हटा दिया। वाह। अगर ऐसा है तो केंद्र सरकार को नक्सल प्रभावित इलाकों से सीआरपीएफ हटाकर सीपीएम काडर भेजने चाहिए। माओवादी भाग जाएंगे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह चाहे तो दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर सीपीएम के काडर को न्योता भेज सकते हैं। इससे उनके राज्य को नक्सली कब्जे से मुक्ति मिल जाएगी। यह आइडिया उन्हें मुफ्त में दे रहा हूं।

बुद्धदेब बाबू अपनी तरह बाकी लोगों को भी बुद्धू समझते हैं। वाकई यह देश में पहला मौका है जब नक्सलियों को सीपीएम के काडर ने खदेड़ दिया। पश्चिम बंगाल की पुलिस तो सिर्फ मीडिया को रोकने के लिए पिकेट बना कर खड़ी रही। काम तो काडर ने किया। आखिर कौन मुख्यमंत्री अपनी पुलिस से सक्षम काडर की तारीफ नहीं करता। इन्हें तो केंद्र सरकार की तरफ से भी ईनाम मिलना चाहिए।

दुख की बात है कि जिस सुमित सरकार ने आवाज़ उठाई उन्हें ही पागल करार दिया गया। कहा गया कि वे तो आलोचक ही रहे हैं। सुमित सरकार के पढ़ाये न जाने कितने इतिहासकार आज की तारीख में सीपीएम की राजनीति कर रहे हैं। लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया। बल्कि नंदीग्राम का मामला सीपीएम या बीजेपी का नहीं था। यह मामला था कि किसी भी विचारधारा के लोकतांत्रिक मूल्यों से भटक कर तानाशाही हो जाने का। इसका तो विरोध किया ही जा सकता था।

तिसपर से सीपीएम ने जिस तरह से बचाव किया है वो काबिल-ए तारीफ है। हम गलत हो ही नहीं सकते। यह भाव सर चढ़ कर बोल रहा था। सीपीएम नंदीग्राम की लड़ाई किस लिए लड़ रही थी। नव आर्थिक उदारवाद की नीति लागू करने के लिए न। जिसके कारण सीपीएम मनमोहन सिंह का विरोध भी करती है और उनका समर्थन भी।

नंदीग्राम का मुद्दा तो वहीं से शुरू हुआ था। यह सही है कि ममता बनर्जी ने भी इस मामले को राजनीतिक फायदे के लिए खराब किया है मगर यह तो उनकी साख ही है। यहां दांव पर सीपीएम थी। जिससे उम्मीद भर की जा रही थी कि आप सत्ता के मामले में लोकतांत्रिक मूल्यों का निर्वाह करेंगे। मगर उम्मीद के स्तर पर ही फेल हो गए। सीपीएम सत्ता के मामले में चाहे जितनी बातें कर लें...उसका दिल भी वैसा ही है जैसे दूसरे दलों का है। मिल जाए तो हाथ से न जाए। वैसे सीपीएम काडरों को जो कामयाबी मिली है उस पर भरोसा करें तो यह सब मिलकर अपनी बाइक पर सवार हो कर अमरीका को भी भगा देंगे। तब न्यूक्लियर डील एक बार में क्लियर हो जाएगा।

पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री को कुछ हो गया है। वो भाजपाई या कांग्रेस होने के लिए बेचैन हैं। इसलिए वो मुख्यमंत्री होकर काडर की पीठ ठोंक देते हैं और चुनौती दे देते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। पढ़े लिखे संभ्रात लोगों की यह सड़क छाप हकीकत देख सुन अच्छा लगा। बुद्धदेब बाबू ने सड़क छाप नेताओं की हैसियत बढ़ा दी है। बधाई।

फेसबुक का चेहरा

दोस्तों,

अब मैं फेसबुक पर आ गया हूं। वहां कुछ पुराने ही दोस्तों से लिखा पढ़ी के तौर पर बात हो रही है। टाइप करते रहिये और बकते रहिये। कुछ बचपने का भी नमूना है। जैसे आप दोस्तों को बलून या बाल्टी भर पानी भेज सकते हैं। बलून आपके फेसबुक पर ब्लिंक करता रहेगा। कई दोस्त इसी में ही ही करते रहते हैं। बहुत देर तक फेसबुक पर बोर होने के बाद लगा कि सकारात्मक हुआ जाए। इंटरेस्ट पैदा किया जाए। तो कुल मिला कर चार कविताएं निकल आईं। भावनात्मक बयार में निकली इन पंक्तियों को अन्यथा मत लीजिएगा। पढ़ लीजिएगा।

(१)
प्रेम का मुकम्मल महीना कौन सा है
जब अमलतास खिलता है
जब बारिश होती है
जब सर्दी होती है
जब ठंडी हवायें चलती हैं
जब गर्मी की छांव होती है
प्रेम के एक मुकम्मल महीने की तलाश में
प्रेम का हर लम्हा गुज़रता जा रहा है

(२)
बहुत कुछ लिखना बाकी है
जो बाकी है उस पर फिर कभी
जो शुरू किया है उन सबको
अभी ख़त्म करना बाक़ी है
(३)
कहीं हम उस दौर में तो नहीं लौट रहे
जब लिखा करते थे ख़त दोस्तों को
जब लिखी जाती थी कविता प्रेम में
जब गाये जाते थे गीत विरह में
फेसबुक उन्हीं दिनों को वापस ला रहा है
अब लोग लिख रहे हैं
फिर से ख़त, कविता और गीत
(४)


दोस्त कई जगहों पर मिलते हैं

बार बार मिलते हैं

कई दिनों तक नहीं मिलते हैं

फिर मिलते हैं

तो कई जगहों पर मिलते हैं।

मिलते रहने का रोमांच अगर कहीं है

तो दोस्ती में है

दोस्त कहीं हैं तो कहीं नहीं

सिर्फ फेसबुक में हैं

कानपुर- ब्लू बनाम ब्लैक लेबल

हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी बता रहे थे कि ब्लू लेबल शराब ब्लैक लेबल से अच्छी होती है।शराब के बारे में मेरी जानकारी कम है। इसलिए प्रभावित होकर सुन रहा था। लेकिन अनमने ढंग से कि इस जानकारी का क्या करना है। लेकिन सुनी गई बातें कई बार काम आ जाती हैं।

आज कानपुर में भारत पाक मैच हुआ तो काले रंग के कपड़े पर प्रतिबंध लग गया। कैमरे दिखा रहे थे कि दर्शकों के काले जुराब तक उतरवा लिये गए। काले गंजी और काले रुमाल। काले अंडरवियर के बारे में कैमरे ने कुछ नहीं कहा। सो इसे ऑफ द रिकार्ड मान लिया जाए। पुलिस को काले रंग से सुरक्षा को ख़तरा था। इसलिए दर्शकों के ज़र्रे ज़र्रे से काले रंग को निकाला जा रहा था। कैमरा दिखा रहा था कि बगल से अंबेसडर कारों का काफिला आ रहा है। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती आ रही हैं। एक जैमर पजेरो भी था। काले रंग था। बाकी सभी कारें सफेद। बेदाग़। नीले रंग की पार्टी की मुखिया को काला रंग सुहाया नहीं।

क्यों? क्योंकि बर्खास्त सिपाही काला झंडा दिखा कर मायावती के खिलाफ नारेबाज़ी कर सकते थे। कानपुर का पुलिस महकमा इसी बात में लगा था कि कोई काला कपड़ा पहनकर आ गया और उतार कर स्टेडियम में लहरा दिया तो नौकरी गई। आदेश ऊपर से आया था। काला उतारो। और कोई भी रंग चलेगा। हमें यह जानकर खुशी हुई कि नेताओं को काले रंग से डर लगता है। वो इसे गंभीरता से लेते हैं। अब आगे हर प्रदर्शन में काला रंग का इस्तमाल होना चाहिए। अगर काला रंग पर प्रतिबंध लगता है तो जल्दी ही पीले रंग को प्रदर्शन और विरोध का रंग बना देना चाहिए। बहुत रंग है। कमी नहीं है। हम आज से विरोध के रूप में बाजू पर पीली पट्टी बांधेंगे। लेकिन प्रदर्शनकारी नया नया आइडिया लाते नहीं इसलिए मायावती के लिए आसान हो गया कि काले रंग पर लगाम लगाओ।

क्या बहन जी। इतना क्या डरना। आपने अच्छा किया है चोर रास्ते से बहाल सिपाहियों को निकाल कर। फिर उनके प्रदर्शन से घबराहट कैसा। ग्रीनपार्क में अगर काला झंडा लहराते भी तो आपकी इज्जत बढ़ जाती कि मायावती ने सही किया है। आखिर किसे इन सिपाहियों से सहानुभूति है। बहन जी का क्रिकेट से कोई लेना देना नहीं। वो कहती रहती हैं बहुजन के काम के लिए वक्त कम पड़ जाता है ऐसे में न बालीवुड की फिल्में देखती हूं न मैच। मैच के बारे में कभी आधिकारिक रूप से नहीं कहा। लेकिन इसी दलील में मान लिया कि क्रिकेट भी बहुजन समाज की लड़ाई के रास्ते में एक गैर ज़रूरी चीज़ है। अब अचानक बहन जी के स्टेडियम पहुंचने की खबर सुनी तो लगा कि शायद संदेश देना चाहती हैं कि अब उन्हें हर चीज़ से नफरत नहीं है। वो शहरी लोगों के शौक को पसंद करती हैं। क्रिकेट देखती हैं। यह छवि उनके काम आती। बड़े शहरों के लोगों पर जादू करने में। पैन इंडियन खेल को अपना कर।

लेकिन उन्होंने काले रंग के कारण मौका गंवा दिया। बेचारे काले जुराब क्या करते। इतने बड़े स्टेडियम में कोई काला जुराब लहरा भी देता तो किसे दिखाई देता अगर कैमरा न दिखाता। कोई फेंक भी देता तो यही समझा जाता कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों पर किसी ने फेंका है। तब लोग हैरान हो जाते क्योंकि अब ऐसा नहीं होता है। कोई पाकिस्तान के खिलाड़ियों से ऐसा बर्ताव नहीं करता।

लेकिन सत्ता है। विपक्ष में रहते हुए नीले रंग की बीएसपी ने कई बारे काले रंग के झंडे दिखाये होंगे। लेकिन सत्ता में आते ही उसे काले रंग से घबराहट होने लगती है। कहीं वह जनता से डरने तो नहीं लगीं या कहीं मायावती अब विरोध प्रदर्शन को सहन नहीं कर पातीं। माजरा क्या है...वही जाने। लेकिन नीले रंग को जब काला पसंद नहीं आया तो वरिष्ठ पत्रकार की बात याद आ गई। ब्लू लेबल का क्लास अलग है।महंगा है। ब्लैक लेबक थोड़ा कम है। कहीं ऐसा तो नहीं है। इसलिए ब्लू दल को ब्लैक झंडा बर्दाश् नहीं हुआ।

राजनीति में इस तरह के अजब गजब होते हैं । खासकर सत्ता में आने के बाद ऐसे आइडियाज़ आने लगते हैं। इसीलिए कहता हूं प्रदर्शन में हर रंग का इस्तमाल करो। ये हमारी भी नाकामी है। सिर्फ ब्लैक लेबल को ही उठाये फिरते हैं। तभी तो बहन जी को लगा कि एक ही रंग की बात है...बैन कर दे। उतरवा दे जुराब। निकलवा ले गंजी। और भेज दे घर। जा कुछ और कलर पहन कर आ। पता नहीं हमारे राजनेता कब क्या कर बैठते हैं। ये फिल्म वाले जैसे हो गए हैं। हर समय नया आइडिया ढूंढते रहते हैं। इन्हें बर्दाश्त करना आना चाहिए। काले रंग को भी। भले ही यूपी में इस वक्त ब्लू लेबल टॉप पर चल रहा है।

सेक्स सर्वे

आए दिन होने लगा है। तमाम पत्रिकाएं सर्वे कर रही हैं। सेक्स सर्वेयर न जाने किस घर में जाकर किससे ऐसी गहरी बातचीत कर आता है। कब जाता है यह भी एक सवाल है। क्या तब जाता है जब घर में सिर्फ पत्नी हो या तब जाता है जब मियां बीबी दोनों हों। क्या आप ऐसे किसी को घर में आने देंगे जो कहे कि हम फलां पत्रिका की तरफ से सेक्स सर्वे करने आए हैं या फिर वो यह कह कर ड्राइंग रूम में आ जाता होगा कि हम हेल्थ सर्वे करने आए हैं। एक ग्लास पानी पीने के बाद मिसेज शर्मा को सेक्स सर्वे वाला सवाल दे देता होगा। मिसेज शर्मा भी चुपचाप बिना खी खी किए सवालों के खांचे में टिक कर देती होंगी। और सर्वेयर यह कह कर उठ जाता होगा कि जी हम आपका नाम गुप्त रखेंगे। सिर्फ आपकी बातें सार्वजनिक होंगी। मिसेज शर्मा कहती होंगी कोई नहीं जी। नाम न दीजिए। पड़ोसी क्या कहेंगे। सर्वेयर कहता होगा डोंट वरी...पड़ोसी ने भी सर्वे में जवाब दिए हैं। मिसेज शर्मा कहती होंगी...हां....आप तो...चलिए जाइये।

ज़रूरी नहीं कि ऐसा ही होता हो। मैं तो बस कल्पना कर रहा हूं। सर्वे में शामिल समाज को समझने की कोशिश कर रहा हूं। क्या हमारा समाज हर दिन सेक्स पर किसी अजनबी से बात करने के लिए तैयार हो गया है। हर तीन महीने में सेक्स का सर्वे आता है। औरत क्या चाहती है? मर्द क्या चाहता है? क्या औरत पराई मर्द भी चाहती है? क्या मर्द हरजाई हो गया है? क्या शादी एक समझौता है जिसमें एक से अधिक मर्दो या औरतों के साथ सेक्स की अनुमति है? क्या सेक्स को लेकर संबंधों में इतनी तेजी से बदलाव आ रहे हैं कि हर दिन किसी न किसी पत्रिका में सर्वे आता है?

हो सकता है कि ऐसा होने लगा हो। लोग नाम न छापने की शर्त पर अपनी सेक्स ज़रूरतों पर खुल कर बात करते हों। समाज खुल रहा है। सेक्स संबंधों को लेकर लोग लोकतांत्रिक हो रहे हैं। क्या सेक्स संबंधों में लोकतांत्रिक होने से औरत मर्द के संबंध लोकतांत्रिक हो जाते हैं? या फिर यह संबंध वैसा ही है जैसा सौ साल पहले था। सिर्फ सर्वे वाला नया आ गया है। सर्वे वाला टीन सेक्स सर्वे भी कर रहा है। लड़के लड़कियों से पूछ आता है कि वो अब कौमार्य को नहीं मानते। शादी से पहले सेक्स से गुरेज़ नहीं। शादी के बाद भी नहीं। सेक्स सर्वे संडे को ही छपते हैं। सोमवार को नहीं। क्या इस दिन सेक्स सर्वे को ज़्यादा पढ़ा जाता है।

आज के टाइम्स आफ इंडिया में भी एक कहानी आई है। नाम न छापने की शर्त पर कुछ लड़के लड़कियों ने बताया है कि वो शादी संबंध के बाहर सिर्फ सेक्स के लिए कुछ मित्र बनाते हैं। फन के बाद मन का रिश्ता नहीं रखते। सीधे घर आ जाते हैं। इस कहानी में यही नहीं लिखा है। जब पति पत्नी को पता ही होता है कि उनके बीच दो और लोग हैं। तो सेक्स कहां होता होगा। घर में? इसकी जानकारी नहीं है। सिर्फ कहानी है। ऐसी कि आप नंदीग्राम छोड़ सेक्सग्राम की खबरें पढ़ ही लेंगे। सेक्स संबंधों में बदलाव तो आता है। आ रहा है। हमारा समाज बहुत बदल गया है। लेकिन वो सर्वे में आकर सार्वजनिक घोषणा करने की भी हिम्मत रखता है तो सवाल यही उठता है कि वो अपना नाम क्यों छुपाता है। क्या सिर्फ २००७ के साल में ही लोग शादी से बाहर सेक्स संबंध बना रहे हैं? उससे पहले कभी नहीं हुआ? इतिहास में कभी नहीं? अगली बार कुछ सवालों का सैंपल बनाकर मित्रों के बीच ही सर्वे करने की कोशिश कीजिएगा। पता चलेगा कि कितने लोग जवाब देते हैं। या नहीं तो किसी बरिस्ता में बैठे जोड़ों से पूछ आइयेगा। जवाब मिल गया तो मैं गलत। अगर मार पड़ी तो अस्पताल का बिल खुद दीजिएगा।

आपातकाल

भूतकाल न भविष्यकाल
आपातकाल आपातकाल
सारा पावर अपना माल
सारी सेना अपनी ढाल
कदमताल कदमताल
आपातकाल आपातकाल


मोटी वर्दी बन कर खाल
दो दो कुर्सी की है चाल
बीच में टपका है यह काल
सत्ता का है यह मायाजाल
मुशर्रफ़ पर आया महाकाल
आपातकाल आपातकाल

बुढ़ापे का बजट

चालीस के पास रिटायर होना चाहें तो कहां निवेश करें। आज कल निवेश निवेदन कार्यक्रमों में ऐसे सुझाव आते रहते हैं। बुढ़ाने से पहले ही बुढ़ापे का इंतज़ाम। हमने अपने बुज़ुर्गों को उनकी जवानी में परेशान होते हुए नहीं देखा है। वो पूरी जवानी अपने बाल बच्चों को पढ़ाने लिखाने, शादी करने और बाकी बचे पैसे से मकान बनाने में ही खपे रहे। उन्होंने कोई जीवन बीमा की कोई पालिसी नहीं खरीदी। न ही म्यूचुअल फंड खरीदा। वो अपना फर्ज़ पूरा करते रहे। एक जोखिम के साथ जीते रहे कि कोई न कोई बाल बच्चा पूछ ही लेगा। अपनी ज़रूरतें कितनी हैं, दवा दारू का इंतज़ाम हो जाए बस बाकी ज़िंदगी कट जाएगी।

लेकिन अब ऐसा नहीं है। आप जवानी के साथ साथ बुढ़ापे का भी इंतज़ाम कर रहे हैं। रिटायरमेंट प्लान खरीद रहे हैं। मेडिकल इंश्योरेंस करवा रहे हैं। आप जानते हैं कि बुढ़ापा आपका बोझ होने वाला है। बच्चों का नहीं होगा। बच्चे अपनी जवानी का बोझ उठाने में मशगूल रहेंगे। अब बाप अकेला है। पहले उसके पास कई लोग होते थेँ। हालांकि तब भी बाप को यह खतरा होता था कि बेटा नहीं पूछेगा तो क्या होगा। यही दिलासा देते रहते थे कि जो भी पेंशन मिलेगा काम चल जाएगा। बुढ़ा-बुढ़ी हरिद्वार जाकर ज़िंदगी काट लेंगे। ऐसे बचे खुचे बुज़ुर्गों को कोई बता देता कि हरिद्वार में प्रोपर्टी प्राइस बढ़ गया है। वहां यूं ही जाकर बुढ़ापे का गुज़ारा नहीं किया जा सकता। हरिद्वार में जाना एक निवेश है। जिसके लिए आपको रामदेव के आश्रम के पास बन रहे हाउसिंग कालोनी में फ्लैट बुक कराना होगा। जिनका नाम स्वर्गाश्रम, हैवन एन्क्लेव होता है।

हमारा समाज और हम हर दिन बदल रहे हैं। वैसे बाप को, जिनके दो चार बच्चे हैं, तनाव से गुज़रना पड़ रहा है। क्योंकि इनके बच्चे अपने बुढ़ापे के लिए जीवन बीमा की पालिसी खरीद रहे हैं। इनके पास बाप के बुढ़ापे के लिए कोई पैसा नहीं है। हाल ही में दिल्ली के एक बाप ने अपने बच्चों पर मुकदमा कर दिया। अदालत ने भी बेटों से कमाई का हिसाब किताब मांगा है। जवानी के तूफान में हम उम्र की हकीकत को नहीं देख पाते।

सर्वे में कहा जाता है कि भारत की आबादी युवा हो रही है। फिर भी लोग बुढ़ापे की पालिसी की जमकर मार्केंटिंग कर रहे हैं। उन्हें बुढ़ापे का भय दिखा रहे हैं। एक तरह से बता रहे हैं कि आपने जिस तरह अपने बाप को नहीं पूछा, या पूछा तो देख लिया होगा कि कितना महंगा होता है, बुढ़ापे में बाप का ख्याल रखना। इसलिए आप रिटायरमेंट पालिसी खरीद लीजिए। क्योंकि आपके पास इतने सारे बच्चों के आप्शन नहीं होंगे। डर लगता है। हम इस नश्वर जीवन को कितना कंक्रीट बनाएंगे। रिश्ते बनाने निभाने की पालिसी नहीं है। अपना अपना गुज़ारा करने के लिए तमाम पालिसी है। इतना ही नहीं बुढ़ापे को भी रंगीन बनाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अगर पालिसी खरीदी होगी तो साठ साल के बाद विदेशों का भ्रमण कीजिए, माल में शौपिंग कीजिए और रेस्त्रां में खाना खाइये। बुढ़े लोगों की दुनिया भी बदल रही है। बदलेगी ही। जो नौजवान जवानी भर सिर्फ अपने बुढ़ापे के लिए बचत करता रहा, उसके पास पैसा तो होगा ही। और वो पैसा कहां खर्च होगा। लिहाज़ा उसे भी खर्च कराने के तमाम पालिसी निकल रही हैं। भाई साहब बीमाओं का बुढ़ापा कब आएगा। एक चक्र लगता है जिसमें जवानी में आप फंसते हैं और बुढ़ापे में उलझ जाते हैं।

सड़क निर्माण सीएम

आज कल नेताओं को बिजली सड़क पानी पर को जनादेश मिल जाता है तो उन्हें लगता है कि उनका काम यहीं तक है। हज़ार किमी सड़क बनवा दो, बिजली के खंभे लगवा दो और पानी के टैंकर भिजवा दो। अगर इतना ही काम है तो मुख्यमंत्री और पूरी सरकार का चुनाव क्यों। क्यों नहीं पांच साल पर जनता सिर्फ पीडब्ल्यू डी मंत्री, बिजली मंत्री और जल मंत्री का चुनाव करे। मुख्यमंत्री का पद ख़त्म कर दिया जाए।

जब से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने हैं बिहार नहीं गया हूं। सुनता रहता हूं कि सड़क का शिलान्यास हो रहा है तो कहीं निर्माण कार्य शुरू हो गया है। मैं भी खुश होता रहा कि बिहार बदल रहा है। क्या बिहार सिर्फ सड़क के बनने से ही बदलेगा? क्या नीतीश कुमार का सड़कें बनवाना काफी है? पांच साल बाद वो यह कह कर वोट मांगेगे कि हमने दस हज़ार किमी सड़कों को निर्माण करवाया है, वोट दीजिए।

गुजरात में भी अच्छी सड़के हैं। दिल्ली में भी अच्छी सड़के हैं। तो क्या राजनीति का यही चरम है कि कोई सड़क बनवा कर अपनी मंज़िल पा लेगा। नीतीश कुमार के बिहार में सड़क, बिजली और पानी के अलावा क्या बदल रहा है? क्या मुख्यमंत्री पार्षद की तरह गली नाली बनवाने में व्यस्त हैं? या फिर नई राजनीतिक संस्कृति भी बना रहे हैं? कैसे बनायेंगे। राम नाम वाली पार्टी का साथ है। खुद की पार्टी में कमीशन कट खाने वाले नेता खत्म नहीं कर पाए। क्या नीतीश दावे के साथ कह पायेंगे कि उनके राज्य में तबादलों में पैसे का लेन देन खत्म हो गया। उनके मंत्रियों ने पैसे नहीं बनाये।

अगर इस पर अंकुश लग गया होता तो अनंत सिंह की हिम्मत नहीं होती कि वो एनडीटीवी के पत्रकार प्रकाश सिंह और कैमरामैन हबीब की पिटाई करता। यह एक अपराधी और बददिमाग़ किस्म का नेता लगता है। जो अपने घर के जिम में शारीरिक ताकत बढ़ाता रहता है। दिमाग से नहीं सोचता। नीतीश कुमार ने अभी तक अपनी पार्टी के बाहुबलियों का क्या किया? क्या जनता के पास गए कि इस बार से बाहुबलियों को भी हरा दीजिएगा? जैसे लालू को हराया?

सवाल वही दस साल पुराना है। यहां की सामाजिक राजनीतिक संस्कृति कब बदलेगी। कब लोग ट्रांसफर पोस्टिंग की कामना लिए मंत्रियों के चक्कर नहीं लगाएंगे? कब लोग अपनी बेटी की शादी के लिए पटना के हनुमान मंदिर में मन्नत नहीं मांगेगे। एक जड़ समाज बनता जा रहा है बिहार का। जहां हर तरह के गैरकानूनी काम का सामाजिक समर्थन नज़र आता है। वर्ना अनंत सिंह जैसे नेताओं को अपनी पार्टी का बताने में नीतीश को शर्म आती और अनंत सिंह और उनके साथी शर्म से बताते नहीं कि हम भी विधायक है। मगर ऐसा नहीं है। ये सीना ठोक कर चलते हैं। बताते हैं कि बिहार इसी लायक है। बिहार के लड़के हीरो बन जायेंगे, आईआईटी चले जायेंगे मगर उन्हें नेता इसी लायक मिलेंगे। जो बंदूक लेकर चलता हो, गाली देता हो। इसीलिए लगता है कि बिहार नहीं बदला है। जैसे बिहार के लड़के सिलिकन वैली में इंजीनियर बन कर बिहार के बदलने का झांसा देते लगते हैं उसी तरह नीतीश कुमार गली नाली बनवाकर बिहार को बना देने का झांसा दे रहे हैं। प्रकाश सिंह, हबीब अली, अजय कुमार और सभी मीडियाकर्मियों पर हुए हमले की निंदा की जानी चाहिए। ये वही बिहार है। याद रखा जाना चाहिए। सड़कों में नए बिहार की तस्वीर मत ढूंढिये।

आओ तुम्हें मैं चांद दिखाऊं

दक्षिण दिल्ली। डिफेंस कालोनी फ्लाई ओवर। शाम आठ बजे। दिन करवां चौथ। मर्सिडिज़, बीएम डब्ल्यू और पजेरो। अचानक किनारे इतनी कारों को देखकर लगा कि दुर्घटना हुई होगी।ध्यान से देखा तो नई नई साड़ियों में चमकती खनकती प्राण प्यारियां चांद निहार रही थीं। प्राण प्यारे कार में बैठे थे। कार का एसी ऑन था। कुछ प्राण प्यारी कार में बैठी थीं। एक पत्नी अपने पति के लिए दिन भर भूखी रही और पति क्रूड ऑयल के महंगे होने के ज़माने में एसी नहीं चलाएगा। हाय राम। कैसे कैसे पति हो गए। वो भी जब सेसेंक्स बीस हज़ारी हो गया हो।

लेकिन फ्लाई ओवर पर प्राण प्यारियां? जब बीएमडब्ल्यू कार है तो चांद देखने के लिए छत नहीं क्या? दिमाग खराब हो गया सोचते सोचते। आइडिया समझ में आ गया। डिफेंस कालोनी में हर अमीर ने दूसरे अमीर से ऊंची छत डाल ली है। नतीजा आसमान के करीब पहुंचने के बाद भी आसमान नहीं दिखता। जब आसमान नहीं दिखेगा तो चांद कहां से दिखेगा। ये सभी नव और पुरा दुल्हनें फ्लाई ओवर पर आईं थीं ताकि उसकी ऊंचाई से चांद दिख जाए। और वहीं ट्रैफिक के बीचो बीच पांव छूकर आरती उतारकर करवां चौथ संपन्न कर लिया जाए। जिनके पास छत है उन्हें चांद दिखता नहीं। जिनके पास छत नहीं उन्हें चांद से मतलब नहीं।

दिल दुखता है। वो छत ही क्या जहां से आसमान और चांद न दिखे। प्राण प्यारी को व्रत तोड़ने के लिए फ्लाई ओवर तो मॉल की छत पर जाना पड़े। अब अगले साल से करवां चौथ का फेस्टिवल डिफेंस कालोनी फ्लाई ओवर पर होगा। वहीं मेले लगेंगे। वहीं आरती होगी। वहीं चांद दिखेगा। हमें लगता था कि छत पर जाओ और चांद देखे। वाह। अब तो कार में बैठो और चांद देखने चले। एक गाना याद आ गया। आओ तुम्हें मैं प्यार सिखाऊं..सिखला दो न। उसी की तर्ज पर ये गाना है...
आओ तुम्हें मैं चांद दिखाऊं...दिखला दो न।

गांवों को बुलडोजर से ढहा दो

भारत के सभी गांवों पर बुलडोजर चला देना चाहिए।सारे घर और सड़के तोड़ देनी चाहिए। बाभन टोली, कुम्हार टोली, ठाकुर टोली, चमर टोली आदि आदि। ये क्या है। क्या हमने सोचा कि इन नामों की टोलियों में जातिवाद बेशर्मी से मौज कर रहा है।जब तक ये टोलियां है जातिवाद से हमारी लड़ाई फिज़ूल है। लोग खड़े हों और गांवों पर हमला कर दें। एक एक घर को तोड़ दें। ताकि चमर टोली, बाभन टोली और कुम्हार टोली का वजूद हमेशा के लिए खत्म हो जाए।

ऐसे गांवों का अस्तित्व भारत के लिखित और मान्य संविधान की तमाम भावनाओं के खिलाफ है। बराबरी की बात करते हैं। और गैर बराबरी के मोहल्ले बने हुए हैं। जिनका आधार जातिवादी है। ठीक है कि आरक्षण के कारण और शहरों में पलायन के कारण दलित टोली के कुछ मकान पक्के होने लगे हैं। लेकिन क्या इन नए और सवर्णों जैसे मकानों का बाभन टोली के मकानों से कोई नया रिश्ता बन रहा है। क्या भारत की आबादी के इस बड़े हिस्से में आ रहे बदलाव में बभन टोली, ठाकुर टोली के लोग शामिल हैं। करीब से देख पा रहे हैं? आर्थिक प्रगति के बाद भी जातिवादी टोलियां मज़बूत हो रही हैं।

अब इन टोलियों में पलने बढ़ने वाला सवर्ण बच्चा सामान्य व्यावहार में भी दलित बच्चों से फर्क करना सीखता होगा। दलित बच्चे इस अपमान को सहजता से स्वीकार करते हुए बड़े होते होंगे। ठीक है कि कई गांवों में अब दलितों को चप्पल नहीं उतारना होता है मगर पहचान कहां मिट रही है। उसे व्यापक समाजिक प्रक्रिया में साझीदार कहां बनाया जा रहा है।

इसलिए एक नया राजनीतिक आंदोलन खड़ा होना चाहिए। जिसकी शुरूआत गांवों से हो और बाद में शहरों में पहुंचे। दिल्ली जैसे शहर में भी माथुर अपार्टमेंट, गुप्ता हाउसिंग सोसायटी, अहमदाबाद के चांदनगर में दलित डुप्लेक्स बन गए हैं क्योंकि पटेल अपने अपार्टमेंट में रहने नहीं देते। इनका नंबर बाद में आएगा। गांवों से शुरूआत का मतलब यह है कि कुछ चार पांच गांवों को मॉडल के रूप में चुना जाना चाहिए। जहां के तमाम घरों और उनसे जुड़ी स्मृतियों को बुलडोजर से ढहा दिया जाए। नई नगर योजना के तहत सड़के बनें, जिनके आने जाने से जाति का पता न चले। घर बने। एक कतार में सबके घर हों। सब जाति के लोग हों। एक ही मैदान हो ताकि सभी के बच्चे एक ही जगह खेलें।यह नियम बने कि एक कतार में लगातार किसी एक जाति का घर नहीं होगा। यानी ठाकुर टोली और चमर टोली खत्म।

अब आप यह पूछेंगे कि जातिवाद खत्म हो जाएगा? जवाब यह है कि नहीं होगा। लेकिन जातिवाद के नाम पर बने सीमेंट और मिट्टी के कुछ घर मिटा देने से उसका कंक्रीट ढांचा तो खत्म हो जाएगा। जो आपकी मानसिकता को आकार देता है। पहचान देता है। उसमें खांचे बना देता है। जहां आप ऊंच नीच के भाव के साथ रहते हैं।

मैं यह बात गुस्से में नहीं लिख रहा है। स्टालिन के की डाक्यूमेंटरी देखने के बाद जातिवाद पर विचार करते हुए यह रास्ता दिखा है। यह डाक्यूमेंटरी उन तमाम लोगों के मुंह पर तमाचा है जिन्हें लगता है कि हिंदुस्तान बदल गया है। इंडिया अनटच्ड नाम की इस डाक्यूमेंटरी में देश भर में फैले छूआछूत को पर्दे में उतारा गया है। इसे देखिये। आपको शर्म नहीं आएगी क्योंकि आप जानते हैं कि छूआछूत हमारे देश में अब भी है। हम सबने इस शर्म को छुपा कर जीना सीख लिया है। जैसे कोई शातिर अपराधी अपने इरादों को छुपा कर शरीफ दिखने की कोशिश करता है।स्टालिन की डाक्यूमेंटरी हर धर्म
में छूआछूत की कंक्रीट इमारतों को पकड़ती है। स्टालिन गुजरात के एक प्रसंग में कैमरे पर दिखाते हैं कि कैसे पटेल(सवर्ण) की गाय का दूध स्थानीय बाज़ार में बिकता है और दलित की गाय का दूध बाहर के राज्य में भेज दिया जाता है। क्योंकि स्थानीय लोग दलितों की गाय का दूध नहीं पीते। ये गुजरात की कापरेटिव सोसायटी की हकीकत है। जहां दलित दुग्ध उत्पादकों के साथ यह बर्ताव हो रहा है। अब इसमें एक बात हो सकती है कि दूसरे ज़िलों या बाहर के राज्यों में अलग से प्रचारित किया जाए कि आप जो दूध पी रहे हैं वो दलित कोपरेटिव का है। देखते हैं कि कितने पढ़े लिखे और प्रगतिशील भारत के लोग पीना जारी रखते हैं।

इसीलिए आइये मेरे साथ चलिए। गांवों को तोड़ने। इनकी प्रशंसा बंद करने का वक्त आ गया है। हिंदुस्तान में इससे भ्रष्ट और गंध बसावट नहीं है। इसे तोड़ दो। नया गांव बनाओ। गांवों को तोड़ कर नया बसाने के काम से क्रांतिकारी बदलाव आएगा।

हैप्पी विजयादशमी !

सुबह से ही मुर्गे की तरह मोबाइल टूं टूं करता हुआ बांग देने लगा। विजयादशमी मुबारक। हैप्पी विजयादशमी। लगा कि होली, दीवाली है। याद करने लगा कि क्या पहले भी हम हैप्पी विजयादशमी बोला करते थे। यह नया नया सा क्यों लग रहा है? याद ही नहीं आया कि कोई हैप्पी दीवाली की तरह हैप्पी विजयादशमी बोलता था। मेरी भाभी ने भी फोन कर कह दिया...हैप्पी दशहरा। दशहरे के लिए ईद नुमा खुशी। रावण को फूंक फांक कर और मां दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन कर हम घर आ जाते थे।लेकिन किसी को हैप्पी दशहरा नहीं बोलते थे। बंगाल में शुभ बिजोया बोलने की परंपरा है। बड़े बुजुर्गों को बोलना पड़ता है। दोस्तों को भी। बच्चों को भी।

लेकिन हैप्पी दशहरा। लगा कि इसकी खोज कल हुई है और चौबीस घंटे के भीतर लांच कर दिया गया है। विश यानी मुबारक बाद देने का दबाव इतना बढ़ गया है कि हर कोई एक एसएमएस भेज देता है। कुछ भाई ने तो रिप्लाय सेंटर डिफाइंड वाला संदेश भेजा। जिसमें आप सेम टू यू लिखकर रिप्लाय नहीं कर सकते। यह कुछ भले लोगों का काम था। समझ रहे होंगे कि एसएमएस भेज कर ही झेल काम कर रहे हैं कम से कम रिप्लाय करने का मानसिक दबाव या तनाव न बढ़ाया जाए। ऐसे लोगों को दिल से मुबारक।

हम बधाई युग में जी रहे हैं। बधाई के इस आदान प्रदान में रिश्तेदारों को भेजे गए एसएमएस की संख्या कम होती है। ज़्यादातर ऐसे एसएमएस क्लायंट, व्यावसायिक मित्रो, दफ्तर और पेशे के परिचितों को भेजे जाते हैं। कोई अपने पिता या मां को हैप्पी विजयादशमी का एसएमएस भेजता होगा इसमें मुझे संदेह है। हालांकि हैरानी नहीं होगी।

अब एक नज़र एसएमएस पर।

दुर्गा है इसलिए ताकत से जुड़ी तमाम चीज़ें मिलने की दुआ की जाती है। शांति, शक्ति, संपत्ति, संयम, सादगी, सफलता, समृद्धि, संस्कार, स्वास्थ्य, सम्मान, सरस्वती और स्नेह। एक एसएमएस में मेरे लिए मां दुर्गे से इतना कुछ मांगा गया। सारे एक दूसरे के विरोधी। शांति, संपत्ति और सादगी एक साथ। संपत्ति और समृद्धि का मतलब शायद अलग होगा। खैर।

एक एसएमएस अंग्रेजी में लिखा था। May this Vijayadashmi brings joy to you, happiness and affluence of all the bright aspects in the life along with the best of everything.

2. We pray to MAA SHERAWALI to shower her blessing to you and your family Happy Vijayadashmi.

3. विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं। इस शुभअवसर पर आपको विशेष तरक्की मिले।

४. कुछ संदेश नवरात्रि पर भी आ गए।

-इस नवरात्रि पर मां वैष्णो देवी आपकी मनोकामना पूरी करें
मां नैना देवी नैनों को ज्योति दें
मां चिंतपूर्णि चिंता दूर करें
मां काली दुश्मनों का नाश करें
मां मनसा देवी मंशा पूरी करें
मां शेरांवाली परिवार में सुख शांति दें
मां लक्ष्मी धन दें
मां ज्वाला देवी जीवन में रौशनी प्रदान करें

इन सब संदेशों में विरोधाभास है। इन संदेशों का पाठ किया जाना चाहिए। यही सब संदेश होली और दीवाली में भी आएंगे। सिर्फ दुर्गा की जगह लक्ष्मी का नाम होगा। हैप्पी न्यू ईयर के संदेश भी यही सब होते हैं। उनमें दुर्गा और लक्ष्मी की जगह मे दिस ईयर ब्रिंग्स....लिखा होता है।

लोग आपके लिए वही कामना करते हैं जिनकी पूर्ति से बाज़ार को फायदा होगा। यानी आपकी क्रयशक्ति बढ़ जाए और माल बिक जाए। या फिर जिनकी चिंता में आप मरे जाते हैं। वेतन बढ़ेगा तो एसी खरीदेंगे। कार खरीदेंगे। तभी खुशी आएगी। यही फिक्र एसएमएस भेजने वाले की भी होती है। मुबारकबाद बदल गया है। मुबारकबाद के नए मौके तलाशे जा रहे हैं। एसएमएस भेजने वालों की मंशा ठीक होगी लेकिन अचानक विजयादशमी पर हुए इस हमले से मैं घबरा गया हूं। लगता है कि बूढ़ा होने लगा हूं। अपने दौर में जब खुद पूजा का आयोजन करता था तब तो किसी ने हैप्पी विजयादशमी नहीं बोला। सिर्फ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के संदेश आते थे। वो भी अकेले मेरे लिए नहीं बल्कि पूरे देश के नाम होते थे। इन संदेशों में उपराष्ट्रपति का संदेश तो किसी गरीब की चीख की तरह होता था। कोई ध्यान भी नहीं देता था। और तो और इनमें बिना वजह सांप्रदायिक सौहार्द का मसला ठूंस दिया जाता था। हिंदू मुस्लिम सिख और ईसाई सबका है। मिल कर मनायें। भारत एक है। ख्वामख्वाह दशहरे के दिन टेंशन पैदा करने वाले संदेश होते हैं। अब भी वैसा ही होता है। लगता है विजयादशमी पर बधाई देने का आइडिया वहीं से आया है।

आइये इस दौर में मैं भी एक संदेश छोड़ मारता हूं। नया संदेश है। अगले साल किसी को भेज दीजिएगा। या फिर एसएमएस बनाने के लिए एक नई कंपनी लांच करें। जो आइडिया निकाला करेगी।

जैसे-

हिप हिप हुर्रे। विजयादशमी विजयादशमी। इसे तीन बार बोले। काफी लय है।

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वैसे एक एसएमएस मुझे अच्छा लगा।

Best wishesh on occassion of 51th Dhammachakra Pravartan Din. Let us resolve to work hard for making Buddhist India, Casteless Society and to establish our rightful claim on India.

----हैप्पी डी डे।

सफल होने के उपाय-

सत्य और सफलता पर खूब शोध होता रहता है। हासिल करने के तमाम उपाय बताये जाते हैं। वनिता पत्रिका के साथ एक आरती संग्रह आया है। जिसमें राशि के अनुसार सफलता के उपाय दिए गए हैं।कुछ उपायों को पेश कर रहा हूं ताकि आपकों भी पढ़कर पता लग जाए कि सफलता कितनी दो कौड़ी की चीज़ होती है जिसे आलतू फालतू तरीके से भी हासिल किया जा सकता है। हर राशि के नीचे मेरा नोट भी है। देखिए सफल होने के नाम पर क्या कूड़ा हमारे घरों में आ रहा है।

मेष- हर मंगलवार हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाएं और पूरा प्रसाद मंदिर में ही बांट दें। पहले हनुमान जी के पैर देखें फिर चेहरा।
( नोट- ये कैसा प्रसाद है। जो घर नहीं ला सकते। भगवान के भोग के साथ ऐसा व्यावहार। जातिवाद की बू आती है)
वृषभ- काम शुरू हो क बीच में अधूरा रह जाता हो तो २१ गुरुवार गरीब ब्राह्मण को भोजन कराएं।
(नोट- इतने में क्या अधूरा काम पूरा नहीं हो सकता है? इतना बड़ा बवाल क्यों लादे भई?)
मिथुन- बीमारी में पैसा खर्च हो रहा हो या दफ्तर मे परेशानी आ रही हो तो किसी को मीठा व नमकीन दोनों खिलाएं।
---शोहरत पाने के लिए पानी में फिटकरी डाल कर स्नान करें।
(नोट- धोनी, अमिताभ या मडोना की तरह शोहरत पानी हो तो फिटकरी लेकर चलिए। नहाते नहाते आप दुनिया में मशहूर हो जाएंगे। लेकिन बाथरूम से निकलिएगा नहीं। नहाते रहिएगा।)
कर्क- बहस हो जाती हो तो शिव मंदिर में लाल चंदन दान करें
( नोट- आस पास शिव मंदिर न हों तो बहस ही न करें)
सिंह- ७ शुक्रवार कुएं में फिटकरी का टुकड़ा डालें। काम बन जाएगा।
--सौहार्द के लिए हर बुधवार गणेश जी को किशमिश चढ़ाएं।
(नोट- कुंआ ढूंढने के लिए दिल्ली से रोहतक जाना होगा। गुजरात के लोग गणेश जी को किशमिश खिलाएं। सांप्रदायिक सौहार्द बन जाएगा)
कन्या- परेशानी से बचने के लिए घर में कुत्ता न पालें।
-किसी से बेकार बहस हो जाती हो तो खाने के बाद सौंफ खाएं।
(नोट- दफ्तर सौंफ ले कर जाएं। खूब बहस करें और सौंफ खाते रहें, लेकिन कन्या राशि वालों ने कुत्तों का क्या बिगाड़ा है ???)
तुला-- दो सौ ग्राम गुड़ का रेवड़ी और दो सौ ग्राम बताशे इक्कीस मंगलवार तक बहते पानी में प्रवाहित करें। धन की समस्या दूर होगी।
( नोट- चार सौ ग्राम गुड़ और बताशे से अमीर बन सकते हैं। अंबानी को बता दीजिए। स्टाक मार्केट छोड़ बताशा खाना शुरू कर दें)
वृश्चिक--उच्च शिक्षा के लिए केले के पेड़ की पूजा करें, जल चढ़ाएं।
( नोट- अर्जुन सिंह सर्व शिक्षा अभियान बंद करें। और ज्योतिष से पूछें कि प्राथमिक शिक्षा के लिए किस पेड़ की पूजा कराएं)
धनु-- उच्च शिक्षा के लिए तांबे के बरतन में पानी भर कर अपने कमरे में रखें और सुबह पौधे में डाल दें।
( नोट- यूजीसी सारे विद्यार्थियों को तांबे का बर्तन उपलब्ध कराये। जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय में खासकर)
मकर- परेशानी से बचने के लिए लाल सांड को मीठी रोटी खिलाएं।
(नोट- कहां मिलेगा ये लाल सांड, दिल्ली के साउथ एक्स पर या नरीमन प्वाइंट में)
कुंभ-- उच्च शिक्षा के लिए तुलसी के पत्ते खाएं।
( नोट- यूजीसी या नॉलेज कमीशन ध्यान दें)
मीन-- नौकरी में परेशानी आ रही हो तो पीपल की जड़ में पानी डालें और कभी भी झूठ न बोलें।
(नोट- सही आइडिया है। झूठ बोलने से भी परेशानी होती है।)

बाप रे बाप। भगवान बचाए इस मुल्क को। वो भी अपने बंदों को कैसा कैसा आइडिया देता रहता है। राशिफल के नाम पर ज्योतिष भाई लोग खूब फल खा रहे

स्वेटर

तब की बात है जब अक्तूबर में हल्की सर्दी आने लगती थी। दुर्गा पूजा के पंडाल के खंभे सितंबर की बरसात में ही गड़ने लगते थे। बारिश के खत्म होते ही दिन छोटा होने लगता। शाम धुंधली होने लगती। सुबह सुबह ओस की बूंदे दिन की गरमाहट को कम कर देती।

तब फुल स्वेटर से पहले हाफ स्वेटर निकला करता था। पुराने के साथ साथ नया बुनता था। मनोरमा पत्रिका में छपी डिज़ाइन या किसी के हाथ का फन। हर बार स्वेटर कुछ नया होने की ज़िद करता था। रंग वही होते थे।गाढ़े लाल। नारंगी। सफेद। नीला। पीला। आज कल ऐसे रंगों से बने स्वेटर देहाती कहलाते हैं।तब स्वेटर का बनना तमाम लड़कियों और घर-पड़ोस की औरतों की कारीगरी हुआ करता था। बेटों के रंग चटकदार होते ही थे ताकि लगे कि कोई इस पितृसत्तामक समाज में उन्हें दुलार रहा है।

हाफ स्वेटर जल्दी बन जाता था। दस दिन में।सब मिलकर बना देते। सामने का पल्ला बड़ी दीदी ने बुन दिया। तो पीछे का पल्ला पड़ोसी की चाची ने। मेरे घर के ठीक पीछे गीता दीदी अक्सर स्वेटर का बार्डर तैयार कर देती थी। और हमारी उम्र की लड़कियां। उनके हाथों में अपना स्वेटर बुनता देख बहुत अच्छा लगता था। रोमांस तो नहीं लेकिन रोमांस जैसा ही लगता था। स्वेटर का बुनना एक संसार का बनना लगता था।

घीरे घीरे बुनता था स्वेटर। हर चार अंगुल की बुनाई पर नाप लेने का सिलसिला। कंधे से पहले कमर। कमर के बाद पीठ। पीठ के बाद गर्दन। गर्दन तक पहुंचने की बेकरारी चार अंगुल के नाप से तय होती रहती थी। पटना मार्केट से खरीदा गया ऊन का गोला। धीरे धीरे उघड़ता जाता। खुल कर बुनता जाता।

स्वेटर के साथ रिश्ते भी बुन जाते। इतनी मेहनत से कई दिनों तक बुना गया होगा। कभी बुआ, कभी बहन तो कभी मां। कभी कभी वो लड़कियां भी, जिनसे कभी बात करने की हिम्मत न हुई लेकिन उनका बुना हुआ स्वेटर पहन कर शहर में घूमते रहे। आखिर स्वेटर में उनका भी हिस्सा होता ही था।

अब कोई स्वेटर नहीं बुनता। स्वेटर का कांटा और ऊन का गोला...लोग अब भी खरीदते होंगे। लेकिन मेरी ज़िंदगी के दायरे से ऐसे लोग दूर हो गए हैं। अब किसी पड़ोसी को नहीं जानता। बहनों से दो साल में एक बार मिलता हूं। लेकिन कोई सात साल पहले तक ऐसे ही बुने स्वेटरों से मेरी सर्दी का संसार भरा था। चेक की डिज़ाइन हो या फिर रंग बिरंगे ऊन से बनती आड़ी तिरछी रेखाएं। बहुत शान से पहनकर एनडीटीवी आ गया । नया नया रिपोर्टर बना था। लगा कि इस स्वेटर का रंग कैमरे पर कितना खिल उठेगा। तभी प्रोड्यूसर ने कहा कि इन्हें उतार दो। बाय सम नाइस स्वेटर। यू कांट वेयर देम ऑन कैमरा। मैं सदमें आ गया। इस कदर इतनी मेहनत से बने स्वेटर को रिजेक्ट होते देखना। मौके पर मेरी एक सहयोगी खड़ी थी। पहली पहचान थी। हंसती रही। बहुत देर तक। स्वेटर पुराना पड़ गया। सात साल बाद वो मेरी दोस्त हैं। एक अच्छी दोस्त।
लेकिन एक बात खलती है। हंसते हंसते उसने कह दिया कि चेक वाले स्वेटर नहीं चलेंगे। वो पहली बार मिली थी लेकिन बात साफ साफ कह गई। बदल जाओ। नहीं तो बेटा ये दुनिया तुम्हारा मजाक उड़ाएगी। मेरे पास विकल्प नहीं था। आदेश था। हमेशा के लिए कई हाथों से बुना वो स्वेटर उतार दिया गया। नया स्वेटर है। नए दोस्त हैं। वो दोस्त अब भी हैं। हर सर्दी में चेक स्वेटर की याद दिला देती हैं।

अब बुना हुआ स्वेटर नहीं पहनता। अक्तूबर कब आता है कब जाता है पता नहीं चलता। सर्दी कम हुई है तो हाफ स्वेटर पहनने का चलन भी कम होने लगा है। स्वेटर के साथ रिश्ते नहीं पहनता। ब्रांड पहनता हूं। मांटे कार्लो। कासाब्लांका। होते बहुत रद्दी हैं। लेकिन पहनता हूं।

दोस्तों के बिना....

ज़िंदगी बेकार है। बहुत लोग कहते हैं। मुझे लगता था कि बेकार की बातें हैं। सही नहीं कहते हैं। बीस साल पहले तमाम दोस्तों से घिरा रहा। दिन रात उनके बीच। धीरे धीरे लगा कि दोस्ती एक दिन छूट जाती है। ज़िंदगी बदल जाती है। ऐसा होने भी लगा। जो बचपन के दोस्त थे, गायब होने लगे। जो जवानी के दोस्त थे,कम होने लगे। कंपनी के काम में कंपनी मिलती है दोस्ती नहीं बनती। बहुत सारी चीज़ें दोस्त नहीं बनने देती।


जिन लोगों ने दफ्तर में अच्छे दोस्त हासिल किए वो वाकई दिलदार होंगे। मेरे भी दफ्तर में कुछ ऐसे ही दोस्त हैं। कह नहीं सकता कि मैं दिलदार हूं। लेकिन वो मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं। मिलकर, बात कर अच्छा लगता है। सब कुछ बता आता हूं। बिना परवाह किए कि उन बातों का क्या होगा। कहीं गलत इस्तमाल तो नहीं हो जाएगा। यही भरोसा काफी है कि जिसे बता रहे हैं उसे आप दोस्त समझते हैं। ये और बात है कि ऐसे दोस्त बहुत कम हैं। उनके खो जाने का डर भीतर से खाली कर देता है।बदल जाने का डर मार देता है।साथ मिलने का अहसास ज़िंदा रखता है। कई साल से वो दोस्त हैं। दिन रात बात करता हूं। खोजता रहता हूं। ये मेरा व्यक्तिगत मामला है। फिर क्यों लोगों की नजर होती है कि ये या वो दोस्त क्यों हैं? आप से कोई नाराज़ हुआ तो दोस्त को लपेट लिया। दफ्तर में दोस्ती बैड क्यों मानी जाती है? लोग घबराते क्यों हैं कि कोई किसी का दोस्त है।

मैं तो कहता हूं हजार दोस्त हों। क्यों ऐसा है कि दोस्त एक या दो ही होते हैं। दस बीस क्यों नहीं हो सकते। वर्ना हमने बारह साल की अपनी नौकरी में कई लोगों को देखा है। प्रतिस्पर्धा के बहाने दोस्ती दागदार होती रहती है। आप किसी के लिए दिल से संवेदनशील नहीं रह जाते। सिर्फ अपनी बात कहने के लिए या फिर अपनी बात कहने के बहाने किसी के दिल तक उतरने के खेल में माहिर हो जाते हैं। तमाम सूचनाएं किसी को न बताने की शर्त पर चुपचाप इधर से उधर हो जाती है। कुछ लोग तो रोने के लिए भी मिलने लगते हैं। रोने के बाद उसी को रुलाने में लग जाते हैं जिसके साथ रोते रहते हैं। दोस्तों के बिना आदमी खूंखार हो जाता है।


बहुतों को देखा है। एक ही गाड़ी से आते हैं। एक ही शिफ्ट में काम करते हैं। करीब जाने पर पता चलता है दोनों दोस्त नहीं। वो दफ्तर में दोस्त होने के लिए काम नहीं करते। कुछ हासिल करने के लिए काम करते हैं। इसीलिए हमारे संबंध बहुत जटिल होते हैं। हम संबंधों का इस्तमाल करते हैं। अपने आप को बचाने के लिए तो किसी को गिराने के लिए। सवाल है कि क्या आप संबंधों के बिना जी सकते हैं।

बस मैंने अपने पुराने दोस्तों की तलाश शुरू कर दी। बारह साल में इंटरव्यू के अलावा किसी व्यक्तिगत काम से कम ही लोगों से मिला हूं। दफ्तर के बाहर कोई ज़िंदगी नहीं रही। तो दोस्त भी नहीं रहे। अब मुझे मेरे तमाम दोस्त याद आते हैं। जो दोस्त हैं लगता है कि कैसे इन्हें संभाल लिया जाए। बचा लिया जाए ,उन पलों के लिए जहां ज़िंदगी अपना मतलब ढूंढती है। तीन महीने में मैंने दस दोस्तों को ढूंढ निकाला। बचपन और जवानी के दोस्त। ज़िंदगी में कुछ कामयाब तो कुछ असफल। जिसने भी बात की लगा कि सब मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे। मेरे फोन का। पुराने दोस्तों के मिलने की खुशी ठीक उसी तरह है जैसे सर्दी के दिनों में बक्से से कोट निकाला और कोट की जेब से पिछले साल का रखा दस रुपया निकल आया हो। इस पैसे से आप कुछ कर तो नहीं सकते मगर खुशी जो मिलती है, वो खरीद नहीं सकते। पुराने दोस्तों का मिलना भी वैसा ही लगा। दोस्त मिलते रहने चाहिए। उससे ज़्यादा बनते रहने चाहिए।

ये कोई सलीम जावेद की थर्ड क्लास कहानी नहीं है। पुराने दोस्तें के मिलने के अहसास को बांट रहा हूं। प्रमोद सिंह ने कहा कि मिला जुला करो। वो खुद मेरे घर आ गए। अच्छा लगा। दोस्त हुए या नहीं पर इतना तो लगा ही कि कोई दोस्त जैसा ही आया है। संजय श्रीवास्तव ने कहा कि अरे रवीशवा... तुम हमलोग के बिना कैसे रह लेता है रे। एतना अच्छा लगा है कि का कहे। संजय बोलता रहा और पूछता रहा कि रवीशवा तू अभी भी हंसता है कि नहीं। मस्त है न। चिंता मत करना। हम लोग तो है ही। कोई काम हो तो बोल देना। जब से पत्रकार बना हूं लोग मुझे किसी काम के बहाने फोन करते हैं। पहली बार किसी ने कहा कि तुम्हें काम हो तो बोलना। ये कोई दोस्त ही कह सकता है। दोस्त होने चाहिए। बनते रहने

यह गुजराती गुर्राता क्यों हैं

बहुत अच्छी सड़क है
घर में है बिजली
फिर वो क्यों अपने
घर में दबा सहमा है
कोई गरीब नहीं
सब अमीर हो गए
फिर वो क्यों अपनों
से खौफज़दा है

गुजरात में कितना कुछ है
पांच करोड़ गुजराती खुशहाल हैं
फिर क्यों पांच करोड़ में
मुसलमान शामिल नहीं है
अहमद की आंखों में इनदिनों
वो खौफ का मंज़र क्यों हैं
ज़ुबेर की ज़बान पर इनदिनों
इस बार अल्लाह खैर करे
हर बार क्यों हैं

दूर से चमकता है गुजरात
अच्छा लगता है गुजरात
इतना विकसित गुजरात का
इतना छोटा सा दिल क्यों है

मोदी को सिर्फ नज़र आता है
विकास और पांच करोड़
इस तंगदिल नेता का गुरूर
कुछ कम होता क्यों नहीं है

गया गुजरा नहीं गुजरात
चालीस करोड़ हिंदुस्तानियों के लिए
एक गांधी निकला था गुजरात से
उसी गुजरात से अब निकला मोदी
सौ करोड़ को डराता क्यों है
पांच करोड़ की बात कर
यह गुजराती गुर्राता क्यों हैं

मोदी का सांप्रदायिक विकास

नरेंद्र मोदी को सिर्फ गुजराती नज़र आते हैं। साढ़े पांच करोड़ गुजराती। उन्हीं के विकास के लिए नरेंद्र मोदी दिन रात काम करना चाहते हैं। सड़कों का विकास किया है। बिजली दी है और शिक्षा दी है। नरेंद्र मोदी अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद को बकवासवाद मानते हैं। नरेंद्र मोदी कहते हैं कि जनता उनके साथ है। उन्हें किसी की परवाह नहीं।


किसी ने कहा है क्या कि सांप्रदायिक सिर्फ नेता होता है? वोटर नहीं होता। नरेंद्र मोदी अक्सर सांप्रदायिकता से जुड़े सवालों को जनता के काम और विकास से जोड़ कर बच निकलते हैं। जनता भी सांप्रदायिक होती है। सांप्रदायिकता के खिलाफ की लड़ाई सिर्फ नेताओं से नहीं बल्कि उनका साथ देने वाले वोटर से भी है। बिहार में कई सालों तक वोटर ने भ्रष्ट औऱ गुंडे नेताओं को चुना। तो क्या वोटर के बहाने नेता अपना पाप धो लेगा? वोटर भी अपराधी है। बाद में जब वोटर को अहसास हुआ तो आज शहाबुद्दीन जेल में है। ऐसे नेताओं को शह देने वाली सरकार बाहर है। नई सरकार बहुत अलग नहीं है। मगर हाशिये पर दिखने वाले जनमत का दबाव तो है कि नीतीश लालू से कितने अलग है।

लोकतंत्र में लड़ाई नेता से नहीं बल्कि वोटर से और उसके बीच भी होती है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है। किसी एक चुनाव का नतीजा उस लड़ाई का अंतिम फैसला नहीं होता। कई चुनावों के बाद भी फैसला हो सकता है। जैसे बिहार की राजनीति का अंतिम फैसला अभी नहीं हुआ है। लेकिन हो रहा है।

नरेंद्र मोदी जानते हैं कि वो हिंदुत्व की लड़ाई में कमज़ोर पड़ रहे हैं। हारे नहीं हैं। जिस आलोचना को वो हाशिया कहते हैं उसी का दबाव है कि वो अब खुलकर इस पहचान की बात नहीं करते। इसलिए वो विकास के लहज़े में हिंदुत्व की बात करते हैं। सांप्रदायिकता को नई धार देने के लिए। पांच करोड़ गुजराती की बात करते हैं। जैसे सारे गुजराती मोदी के बोरे में आ गए हैं। जैसे पांच करोड़ गुजराती देश से अलग होने का फैसला कर लें तो बाकी भारत के लोग मान लेंगे। बाकी के कई करोड़ भारतीय इस सांप्रदायिकता के खिलाफ हैं उनका क्या करेंगे। नरेंद्र मोदी वोटर के नाम पर अपने पाप धोने की कोशिश न करें। सांप्रदायिकता की कीमत पर अगर विकास को चुनना होगा तो यह भयानक है। ऐसे विकास को उसी तरह खारिज कर देना चाहिए जैसे आर्थिक उदारीकरण को खारिज करने की मुहिम है।

गुजरात के वोटर से बात करनी चाहिए। क्या उसका सांप्रदायिकता को समर्थन है? क्यों नहीं जनता ने मोदी का विरोध किया? क्या पांच करोड़ गुजराती की बात कर मोदी अपने सांप्रदायिक राजनीति में उसे भी सहभागी बना रहे हैं? गुजराती से पूछना चाहिए। क्या इस पांच करोड़ गुजराती में वो भी शामिल हैं जो मोदी के साथ नहीं है। चाहे वो जितने भी हैं। एक करोड़ ही सही। इतने लोग तो होंगे ही जो कांग्रेस या बीजेपी के विरोधियों को वोट देते होंगे या फिर मोदी के साथ नहीं होंगे। फिर किस हक से मोदी सभी गुजरातियों को एक ही बाड़े में हांक रहे हैं। गुजरात में पटेल की कालोनी में कोई दलित नहीं रह सकता। पटेलों के किसी अपार्टमेंट में दलित फ्लैट नहीं खरीद सकता। तो क्या गुजरात में जातिवाद की आलोचना बंद कर दें क्योंकि सारे पटेल ऐसा करते हैं। वो किसी दलित को पड़ोस में नहीं रहने देते। अगर गुजराती किसी समस्या से ग्रस्त हैं तो उसकी आलोचना हर हाल में होनी चाहिए। उसका इलाज होना चाहिए। मोदी संख्या न दिखायें।

नरेंद्र मोदी का अब भारत नहीं रहा। वो सिर्फ गुजरात है। एक ऐसी पहचान की राजनीति जो सांप्रदायिक सोच से अपना चेहरा ढांकती है। मोदी के गुजरात में सिर्फ गुजराती हैं। मोदी किसी अलगाववादी नेताओं की तरह बात कर रहे हैं। गुजरात गौरव क्या होता है? गुजरात की अच्छी सड़कों पर गाड़ी चलाते हुए यह समझना होगा कि आखिर कार का मालिक इतनी अच्छी सुविधाओं के बाद भी सांप्रदायिकता जैसी संकीर्ण सोच क्यों रखता है? लगातार बिजली और अधिक पैसा सांप्रदायिकता की बीमारी को हवा देती है। अधिक पैसे से कई बीमारियां समाज में फैल रही हैं। मोबाइल फोन से कान खराब हो रहे हैं, सेक्स की क्षमता कम हो रही है। तो मोबाइल फोन के सीमित इस्तमाल की बात हो रही है या नहीं? मोदी को बताओ कि विकास अंतिम सत्य नहीं है। जैसे किसी एक या दो चुनाव का नतीजा अंतिम फैसला नहीं।

चुनाव की पनबिजली

अंधेरे में रहने वाले देशवासियों

आज तक किसी को फिक्र नहीं थी। तुम्हारे घरों में घंटों बिजली नहीं आती थी। जो तुममें अमीर था उसने जेनरेटर और इंवर्टर से बिजली का उत्पादन शुरू कर दिया। फिर भी बिजली की कमी बनी रही। गांव गांव और दिल्ली मुंबई जैसे शहरों के कई हिस्से में बिजली, बिजली की तरह की आती रही है। घंटों कटौती। याद कीजिए कब बिजली को लेकर राजनीतिक दलों में घमासान मचा है। अभी तक मुफ्त बिजली देने को लेकर युद्ध होता था इस बार बिजली पैदा करने की तकनीक को लेकर मार मची है। परमाणु ऊर्जा से बिजली बने इसलिए मनमोहन सिंह अमरीका से करार कर आए तो करात साहब को अच्छा नहीं लगा। क्या वो नहीं चाहते कि आज न सही कम से कम दो हजार बीस तक लोगों के घरों में बिजली आ जाए। घंटों कटौती न हो।

खैर यह ज़रूरी नहीं है कि किसे अच्छा लगा या नहीं लगा। लेकिन यह तय हो गया कि कभी भी हो सकने वाला अगला चुनाव उन लोगों की बातें करेगा जो घंटों बिजली के नहीं आने से तौलिये और लुंगी से पंखा करते आए हैं। वो छात्र अब खुश हो सकते हैं कि इस बार मोमबत्ती की रौशनी में बोर्ड इम्तहान देने के दुख पर बड़े बड़े नेता बात करेंगे। वादे करेंगे। तब आप छत पर खटिया लगा कर तारे देखते हुए बिजली की बातें और वादे सुना कीजिएगा।

कांग्रेस वाले कहेंगे कि हम परमाणु बिजली पैदा कर अंधेरा दूर करना चाहते थे। कब तक २०२० तक। तब तक दो और चुनाव हो जाएंगे। बीजेपी कहती है कि दो चुनाव बाद पैदा होने वाली बिजली के करार की शर्तें दिखाओ। करात कहते हैं देशवासियों तुमने साठ साल अंधेरे में ज़िंदगी काट दी। कुछ साल और सही । मगर अमरीका के सामने झुकना मत। देशहित बिजली की रौशनी से कहीं ज़्यादा महान है। सो करात का फरमान है करार नहीं हो। ज्योति बसु कह रहे हैं कि प्रणब बाबू की सुन लो भई। करात और राजा कहते हैं कि उनकी नहीं सुनेंगे। अपनी कहेंगे।

इसीलिए कहता हूं अंधेरे में रहने वाले लोगों आपकी ज़िंदगी में उजाला आने वाला है। बिजली नहीं आएगी मगर बिजली की कमी पर बातें होंगे। अभी तक बिजली कटौती की खबरें अखबारों के कोने में छपती थी। टीवी तो दिखाता ही नहीं था। लेकिन इस बार लोग खूब बोलेंगे कि भइया वोट देना तो बिजली पर। वो भी परमाणु बिजली पर। पनबिजली पर नहीं। प्रकाश करात के झांसे में मत आओ। कहते हैं कि भारत अपनी बिजली बना सकता है। तो बना क्यों नहीं रहा था। बिजली विभाग के कर्मचारी इनदिनों नए नए इलाकों में बन रहे अपार्टमेंट्स में मीटर लगाने के कमीशन में मालामाल हो रहे हैं। इधर हाल है कि इनके लिए सरकार गिर रही है। मैं तो कहता हूं कि इस देश में बिजली नहीं आएगी। जितनी आ गई काफी है। बस घंटों कटौती को हफ्तों कटौती में बदल दो।

इसलिए इस पूरे बहस में मैं खुश हूं। कम से कम बिजली की बात तो हो रही है। अभी तक बिजली का चुनावी ज़िक्र बिजली सड़क पानी के नारे को पूरा करने के लिए होता था। नेता बिजली और पानी को छोड़ जवाहर रोजगार योजना के तहत सड़क बनवाने में ही रह जाता था। अब बिजली बनेगी। अंधेरा दूर होगा। गिरने दो साली सरकार को। हम तो चाहते हैं कि अभी गिरे। अगर ये सरकारें बिजली पैदा करती रहती हैं तो आज यह नौबत न आती। तीन साल में बिजली के लिए ढेले भर काम नहीं किया तिस पर से तुर्रा यह कि परमाणु बिजली से देशभक्ति तय करेंगे। कीजिएगा। जून के महीने में किसी स्मॉल टाउन जहां घंटो बिजली नहीं होती है वहां जाकर।

यह भारत का पहला चुनाव होगा जो बिजली को लेकर लड़ा जाएगा। सड़क और पानी को लेकर नहीं।

मैं महान हूं

मैं महान हूं
परचून की दुकान हूं
हल्दी धनिया अदरक
प्रकाशक लेखक विचारक
खुद की नुमाइश में
बिक्री योग्य सामान हूं
मैं महान हूं

साया न छाया
काया न माया
आगे न पीछे
दायें न बायें
अकेला खड़ा हूं
मैं महान हूं

जो लिखा है
वो लिख चुका हूं
जो कहा है
वो कह चुका हूं
मैं महान हूं

महान होना
आसान नहीं
दुकान खोलना
आसान नहीं
आज नगद
कल उधार हूं
मैं महान हूं

कई लोग
खारिज करते हैं
कई लोग
स्वागत करते हैं
विरोध और पक्ष में
हर तरफ बराबर हूं
मैं महान हूं

(उन सभी महान लोगों को जिन्हें लगता है कि वो महान हैं। महानता को समर्पित व्यंग्यरहित यह कविता दशहरा के पावन अवसर पर उन्हें भेंट की जाती है।)

अपने भीतर का कुछ गांव

अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं
पूछते रहते हैं जो हमसे सब
कैसा है तुम्हारा गांव यार
कहता रहता हूं सबसे अब
जैसा है तुम्हारा शहर यार

दोस्तों से मिले तोहफों के बदले
मैं भी कुछ उनको देना चाहता हूं
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं


क्या करूंगा सब गांव ले कर
बैलों को बांधने की जगह नहीं
अनाज रखने का खलिहान नहीं
ग्रेटर कैलाश के अपने दोस्तों को
अपने भीतर का कुछ गांव
थोड़ा थोड़ा देना चाहता हूं

जाने क्या करेंगे उन टुकड़ों का
बेचेंगे या फार्म हाउस बना देंगे
कुछ हिस्सा दिल्ली सा बना देंगे
तब जब वो मुझसे पूछेंगे
कैसा है तुम्हारा गांव यार
कह दूंगा उन सबसे तब
जैसा है तुम्हारा शहर यार
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं

दिल्ली के दोस्तों के बिना
अब कहां मैं रह पाता हूं
इतना मिलता रहता हूं
फिर भी अनजाना रहता हूं
अपनी पहचान के बदले में
कुछ उनको देना चाहता हूं
कितना कुछ उनसे मिलता है
अब उनको मैं देना चाहता हूं
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं

( दिल्ली में मिले उन तमाम दोस्तों के लिए जिनके घर किसी गांव के उजाड़ कर बसाए गए कालोनियों में हैं। लेकिन उन्होंने गांव ही नहीं देखा। पहले पूछते थे मुझसे गांव के बारे में लेकिन जब से मैं उनके जैसा हो गया, पूछना बंद कर दिया। बस याद दिलाने के लिए मैंने यह कविता लिखी है।)

देखो बापू जा रहे हैं


देखो बापू जा रहे हैं
हम सबके भीतर से
चुपचाप चले जा रहे हैं
कहीं कोई शोर नहीं है
लाठी की ठक ठक से
ऐसे कैसे जा रहे है
देखो बापू जा रहे हैं


हिंसा के चतुर रास्तों से
बचते बचाते खतरों से
अहिंसा का सामान लिये
सत्य बोलने का साहस छोड़
देखो बापू जा रहे हैं
कोई उठाता नहीं सड़कों से
हीरे की तरह साहस को
कंकड़ की तरह विचारों को
फेंकते हुए जा रहे हैं
देखो बापू जा रहे हैं


कहीं कोई शोर नहीं
लाठी की ठक ठक से
ऐसे कैसे जा रहे हैं
देखो बापू जा रहे हैं

दो अक्तूबर को जन्म हुआ
बापू का कितना नाम हुआ
सब जन्मदिन मना रहे हैं
चरखे पर कट रहा केक है
बापू का भी अब रीमेक है
सारा सामान समेट कर
खुद को उठाए हुए
वो कहीं जा रहे हैं
देखो बापू जा रहे हैं
(दोस्तों गांधी जयंती पर बापू ऐसे ही याद आए। कविता बनते बनते चले
गए- रवीश )

जब आप अकेले होते हैं

जब आप अकेले होते हैं
तब सबसे अच्छे होते है
दम भर खाते रहते हैं
मन भर सोते रहते हैं
घूमना फिरना होता है
पढ़ना लिखना होता है
कितना सब कुछ होता है
जब आप अकेले होते हैं

मिलजुल कर रहना भी
कोई होना होता है
ठेलम ठेल के मेले में
कोई अपना होता है
अपनों की तलाश ही
जाने क्यों करते हैं
जब आप अकेले होते हैं
तब सबसे अच्छे होते हैं

क्या क्या होना है बाकी
ये होना वो होना है ताकि
होने को लेकर अक्सर ही
आप क्यों रोते रहते हैं
कुछ नहीं होता है
जब कुछ नहीं होते हैं
जब भी कुछ होते हैं
आप अकेले होते हैं


जब आप अकेले होते हैं
तब सबसे अच्छे होते हैं

स्मॉल टाउन कौन तय करता है

स्माल टाउन के कई प्रकार हो सकते हैं। एक स्माल टाउन होता है जो सिर्फ अंग्रेजी के अखबार और टीवी के पत्रकारों को दिखाई देता है। दूसरा स्माल टाउन वो होता है जो होता तो है स्माल यानी छोटा लेकिन उसकी गिनती नहीं होती।

दिल्ली और मुंबई के विचारकों, पत्रकारों को स्माल टाउन खूब नज़र आता है। उन्हें बरेली, मेरठ, आगरा और जमशेदपुर स्माल टाउन नज़र आते हैं। रांची के महेंद्र सिंह धोनी कप्तान बना तो सबने कहा कि स्माल टाउन का उदय हो रहा है। तो क्या रांची वाकई स्माल टाउन है? क्या धोनी के कप्तान बनने से पहले रांची का कोई वजूद नहीं था?

रांची झारखंड की राजधानी है। उससे पहले औद्योगिक शहर हुआ करता था। इसी के बगल में जमशेदपुर में आरआईटी है जिसकी अपनी मान्यता है। जमशेदपुर में देश का एक बेहतर मैनजमेंट संस्थान है एक्सएलआरआई। जहां सभी किस्म के टाउन के प्रतिभाशाली बच्चे बढ़ते हैं। आगरा और मेरठ तो हर दूसरे दिन स्माल टाउन में गिने जाते हैं। क्या ये शहर वाकई में इतने स्माल हैं?

स्माल टाउन किसे कहेंगे? रीवां, सासाराम, जलगांव या मोतिहारी को या फिर रांची, आगरा या को। दिल्ली मुंबई, पुणे, बंगलौर और कोलकाता से बाहर क्या हर शहर स्माल टाउन है? या फिर स्माल टाउन कहलाने वाले शहरों में भी बदलाव आया है।

महानगरों के विचारक भूल जाते हैं कि दिल्ली और मुंबई में भी कई स्माल टाउन हैं। साउथ दिल्ली के मुकाबले पूर्वी दिल्ली का यमुना विहार स्माल टाउन न हो लेकिन डाउन टाउन तो हैं ही।कल अगर यमुना विहार से दस लड़के आईएएस हो जाएं तो क्या इस पर बहस करेंगे कि दक्षिण दिल्ली का वर्चस्व कम हो जाएगा। क्या दिल्ली और मुंबई स्माल टाउन के लोगों से नहीं बनें? मुंबई, दिल्ली या कोलकाता हर बड़ा महानगर छोटे शहरों से आए लोगों से बना है। इनके ज़रिये बड़े शहरों का ताल्लुक छोटे शहरों में रहा है। सिर्फ भूगोल और आर्थिक विस्तार के कारण ही तो बिग टाउन का दंभ पाल रहे हैं। ठीक है कि इन शहरों में सुविधाएं हैं।बिजली, सड़क और अस्पताल। लेकिन क्या महत्वकांक्षा सिर्फ कम सुविधाओं में ही पनपती है? इसका क्या प्रमाण है कि स्माल टाउन साबित करना चाहता है?अगर ऐसा है तो स्माल टाउन की अपनी हालत खराब क्यों है? क्यों वहां का डाक्टर काम पर नहीं जाता? क्यों वहां लिंग अनुपात कम है? क्यों वहां कानून व्यवस्था खराब है? लेकिन यह सब सवाल पीछे रह जाते हैं जब इन शहरों से कोई आईएएस में अव्वल आ जाता है या कोई अपनी मेहनत से कप्तान बन जाता है तो इसमें स्माल टाउन का क्या योगदान है?

दिल्ली में ही कई स्माल टाउन हैं। कोई कह सकता है कि मैं जहांगीरपुरी के मामूली स्लम स्कूल से पढ़कर आईएएस बन गया। कोई कह सकता है कि मैं राजधानी कालेज में पढ़ कर पूरे दिल्ली विश्वविद्यालय में टाप कर गया। वैसे यह एक तथ्य भी है। इस बार यानी २००७ में दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विषय में तीसरे और पहले साल में राजधानी कालेज का लड़का टॉप किया है। दूसरे वर्ष में आरएसडी कालेज का लड़का टॉप किया है। स्टीफेंस या लेडी श्रीराम कालेज का नाम नहीं है। अब स्मॉल टाउन की अवधारणा यहां भी फिट हो सकती है। महानगर पूरी तरह से बिग टाउन नहीं है। यह कई स्माल टाउन का समुच्य है।


तुलना विश्लेषण का अनिवार्य अंग है। मगर पैमाना बनाते समय भी विश्लेषण होना चाहिए। अंग्रेजों ने कुछ छोटे शहरों को कस्बा कहा और कस्बों को मुफस्सिल। जहां रहने की सिर्फ बुनियादी सुविधा होती है। आज इस पैमाने पर सिर्फ कस्बे ही हैं। और देश के दो सौ से अधिक पिछड़े ज़िले। बाकी कई ज़िलों की हालत बेहतर है। स्माल टाउन की अवधारणा से अलग है। पटना, भुवनेश्वर और रांची राजधानी होने के कारण स्माल टाउन में नहीं गिने जा सकते। इन ज़िलों से आने वाले कई सांसद केंद्रीय स्तर पर मंत्री बनते हैं। कई ऐसे ज़िलों से आते हैं जिनकी चर्चा राष्ट्रीय अखबारों में साल में भी एक बार नहीं होती होगी। लेकिन वहां से चुने जाने के कारण वो गृहमंत्री से लेकर शिक्षा मंत्री बनते हैं। तब तो कोई स्माल टाउन के उदय की बात नहीं करता। लेकिन कप्तान या साफ्टवेयर कंपनी बना देने पर स्माल टाउन का उदय हो जाता है। इस अवधारणा से समस्या है। पहले शहरों को देखने का नज़रिया बदलना चाहिए फिर शहरों की आपस में तुलना होनी चाहिए। स्माल टाउन महानगरों के विचारकों की छोटी होती नज़र से दिखने वाला एक ऐसा शहर है जो हमेशा छोटा ही रहता है। नए पावर के चश्मे की ज़रूरत है।

जय श्री राम रमेश बनाम डीएमके के राम

जय राम रमेश तो बिल्कुल जय श्री राम रमेश के अंदाज़ में बोले। ऐसा लगा कि राम के अस्तित्व न होने की बात को वो अपने दिल पर ले बैठे। उन्हें लगा कि पार्टी को उनके भी मंत्री न होने का ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिल रहा है। वो नज़र आते ही नहीं हैं। बेचारे रमेश जी। जब कांग्रेस विपक्ष में थी तब तमाम तरह के आंकड़े जमा कर राजनीतिक का आर्थिक विश्लेषण कर रहे थे। उन्हें लगा कि सरकार बनेगी तो पार्टी महत्व देगी। बड़ी मुश्किल से मंत्री बने तो मन आहत हो गया। पढ़े लिखे होने के बाद भी राज्य मंत्री का दर्जा। इतना सब होने के बाद भी जयराम रमेश राजनीति में चुप रहने या मीठा बोलने के कारण जाने जाते हैं।

चुनौती अब दी है। जब राम सेतु को लेकर सियासी दल और नेता दौड़ रहे हैं। अंबिका सोनी मां अबे की तरह बता रही थी कि अफसर ने गलती कर दी। कानून मंत्रालय ने देखा नहीं। राम की आस्था के खेल में दो अफसरों का घर इस वक्त राम को कितना याद कर रहा होगा...वही जानते होंगे। वे लोग राम को कैसे याद कर रहा होगा इस पर चुप रहूंगा। बहरहाल बात जय राम रमेश की हो रही है। उन्होंने जय और राम के बीच श्री जोड़ लिया। एलान कर दिया कि अगर मैं मंत्री होता तो नैतिकता के सवाल पर इस्तीफा दे देता। राम रमेश ने मान लिया है कि राम के प्रमाण न होने की बात से नैतिकता का उल्लंघन हुआ है।


पलटकर अंबिका ने भी कह दिया कि मैं जय राम नहीं हूं। वो अंबे आप जय राम। हिंदू धर्म में हर देवी देवता अपना अलग प्रसार करते हैं। उनका अलग महत्व है। सब मिल कर सामूहिक प्रचार नहीं करते। सबके भक्तों को अलग सेना है। सबके लिए पूजा के अलग दिन है। तो अंबिका जयराम कैसे हो जाती। और जय राम जय श्री राम कैसे हो गए? इसका जवाब देखना होगा। आखिर इस अर्थशास्त्री नेता को क्या हुआ है। उम्मीद थी कि वो सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट को लेकर कुछ आंकड़े पेश करेंगे। बतायेंगे कि भारत की आर्थिक प्रगति होगी इस सेतु से। राजनीति नुकसान होगा। लेकिन वो तो सेतु स्वर में बोलने लगे। बाबा रे। सियासत में कब बुद्धि पर चादर पड़ जाए पता नहीं। राम के नाम के कारण सियासत पवित्र तो होती नहीं अलबत्ता गंदी हो जाती है। बल्कि किसी भी मज़हब के आते ही सियासत गंदी हो जाती है।

इसलिए दोस्तों। बोलो। चुप मत रहो।बोलो कि भगत सिंह ने जब कहा कि मैं नास्तिक हूं तो क्या उन्होंने किसी की आस्था को ठेस पहुंचाई थी।समाजशास्त्री और दलित लेखक कांचा इलैया ने किताब लिखी कि मैं हिंदू नहीं हूं तो क्या किसी को ठेस पहुंची थी। इन जैसे तमाम लोगों ने तमाम तरह की आस्थाओं को एकमुश्त नकार ही दिया।

हमारी संस्कृति में ईश्वर की सत्ता को हमेशा चुनौती दी गई है। लोगों ने महात्माओं से पूछा है और बहस भी हुई है। गीता में अर्जुन को कृष्ण आत्मा के वजूद के बारे में बताते हैं। इसे कोई मार सकता है न छेद सकता है न जला सकता है। यह कोई जवाब है भला। हम भी इसे सत्य मान कर बैठे हैं। जब बता रहे थे तो दिखा ही देते। अब कोई इसे अधूरा जवाब मानकर आत्मा की तलाश करने निकलेगा तो क्या करेंगे। उसे मार देंगे कि कृष्ण ने जब बोल ही दिया है तो अब आत्मा पर अनुसंधान क्यों? हिंदू सनातन परंपरा में ईश्वर पर सवाल उठे हैं और कहानियों में भी आता है कि किस तरह से ईश्वर ने भेष बदलकर अहसास कराया कि मैं हूं। ऐसी हज़ार कहानियां हैं।


मानो तो देव न मानो तो पत्थर। यह मुहावरा आया कहां से। किसी ने देव मानने से इंकार किया होगा तभी तो यह मुहावरा जन्मा होगा। अब लोग कहते हैं कि यही सवाल अल्लाह और ईसा के बारे में करेंगे। क्यों नहीं करेंगे। होता रहा है। पूरी दुनिया में नास्तिकों की परंपरा है जो ईश्वर अल्लाह और ईसा के वजूद को नकारता है। नकारने की आज़ादी होनी चाहिए।

ये ठेस का पहुंचना सिर्फ राम के रास्ते से ही क्यों गुज़रता है। जय श्री राम रमेश और मां अंबिका को पता होगा। उन्हें डर लग रहा है कि कहीं आडवाणी जी इस बार वोल्वो रथ से देशाटन पर न निकल जाएं।निकल जाएंगे तो क्या हो जाए।यूपी में ब्राह्मण अपना कमंडल ले गया दलितों के द्वारे। उन्ही के साथ सत्ता भजन में लगा है। सब राम को ढूंढ रहे हैं। राम हैं कि अयोध्या से निकल कर रामसेतु पहुंच गए हैं।


यही नहीं डीएमके नेता करुणानिधि तो राम के अस्तित्व को ही नकार रहे हैं। तो क्या करेंगे आप उत्तर भारत से कार सेवकों को लेकर जाकर दक्षिण पर हमला कर देंगे। करुणानिधि ने कहा है कि द्रविड़ संस्कृति पर आर्य संस्कृति थोपी जा रही है। वो बार बार कह रहे हैं बल्कि टीवी पर सीधा प्रसारण में आकर कह रहे हैं कि न राम हैं न सेतु है। दोनों काल्पनिक बाते हैं। करुणानिधि के इस बयान से सांप्रदायिक तनाव क्यों नहीं हो रहा है। सिर्फ कांग्रेस के बयान से ही क्यों भड़कता है? यह समझ में नहीं आता। अभी तक आडवाणी ने नहीं कहा कि करुणानिधि करोड़ों की आस्था का अपमान कर रहे हैं। एक अरब की आबादी में कितने करोड़ हैं राम के साथ। इसकी गिनती हो जानी चाहिए। फिर करोड़ों का भ्रम भी टूट जाएगा। ज़ाहिर है करुणानिधि के हमले पर वीएचपी, संघ और बीजेपी की चुप्पी बताती है कि राम दक्षिण में नहीं हैं।उधर के लोग नहीं मानते हैं। ज़ाहिर है राम को लेकर संघ परिवार चुनाव करता है। जब कांग्रेस राम के खिलाफ होगी तभी मुखालफत करेंगे। जब डीएमके वाले राम के बारे में बोलेंगे तो चुप रहेंगे। उसे ईशनिंदा नहीं कहेंगे। आडवाणी जी तो ईशनिंदा करने वालों को मृत्यु दंड दिलवाना चाहते हैं। करुणानिधि के बारे में क्या राय है भाई। ज़ाहिर है भारत के हिंदू होने का भ्रम इलाकाई है। खासकर उत्तर और पश्चिम भारत तक। जय श्री राम रमेश करुणानिधि को क्या कहेंगे कि यूपीए छोड़ दें नैतिकता के आधार पर। इस बार ऐसा बोलेंगे तो लिख लीजिए बेचारे भूतपूर्व मंत्री हो जाएंगे। सरकार जाएगी सो

सेतु का हेतु

आस्था का प्रमाण नहीं होता। लेकिन आस्था की राजनीति के प्रमाण होते हैं। कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद का ताला खोला और संघ परिवार के राम जन्म भूमि आंदोलन ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया। आस्था वहीं रह गई। दोनों ढांचे को भूल गए। सरयू किनारे राम का नाम लेकर आने वाले लोगों ने अयोध्या से किनारा कर लिया। और अपने भीतर राम की तलाश कर एक अयोध्या बसा ली। वो कभी तिरुपति जाते हैं तो कभी साईं बाबा के दर्शन करने जाते हैं। उनके भगवान सिर्फ राम नहीं बल्कि सिद्धिविनायक भी हैं। अयोध्या में दुकानदार पुजारी कहते हैं अब पहले जैसा मेला नहीं लगता। चहलपहल नहीं रही अयोध्या जी में। हिंदू सनातन धर्म में एक भगवान का वर्चस्व नहीं है। लेकिन हिंदू सनातन के सियासत में एक ही भगवान का वर्चस्व है। राम का।

इसीलिए कांग्रेस यह बता कर डर गई कि राम का ऐतिहासिक अस्तित्व नहीं है। इतना डर गई कि सुप्रीम कोर्ट में दिया हलफनामा वापस ले लिया। दो मंत्री आपस में लड़ गए। दो अफसर निलंबित हो गए। बीजेपी ने कहा कि आस्था का प्रमाण कहां होता है। ठीक कहा। कहीं नहीं होता।

आप ज़िंदगी में तय करते हैं। किस चीज़ का प्रमाण चाहिए और किस चीज़ का नहीं। प्रमाण मिलता भी है तो सिर्फ प्रमाण से फैसला नहीं होता। अदालतें प्रमाण के साथ इरादे को भी तौलती हैं। हिंदुस्तान की राजनीति में आस्था एक प्रमाण है लेकिन इसके इरादे पर बहस हो सकती है। होती रही है। कांग्रेस में वो हिम्मत नहीं थी कि वो बहस करने पर उतरे। इसलिए इस बार उसने ताला खोल कर शिलान्यास करने की गलती नहीं की। बल्कि स्थगित कर दिया।

ऐसी बात नहीं है कि बीजेपी वाले आस्था के आगे प्रमाण को नहीं मानते। बाबरी मस्जिद मामले में पार्टी की तय नीति है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही सर्वमान्य होगा। यानी सुप्रीम कोर्ट यह कह दे कि जिस जगह पर बाबरी मस्जिद गिराई गई वहां राम का जन्म नहीं होगा तो बीजेपी मान लेगी। अगर अदालत यह कहे कि राम का जन्म हुआ था तो इसे कांग्रेस भी मानेगी। हमारी राजनीति अदालत का सम्मान करती है। सिर्फ अदालत में हलफनामा देते वक्त झूठ बोल देती है। कार सेवा के वक्त सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश के तब के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कानून व्यवस्था का हलफनामा दिया था। बाद में मस्जिद गिरते ही उसके श्रेय लेने लगे। फिर राम को छोड़ वाजपेयी से भिड़ गए तो पार्टी से ही निकाल दिए गए। वापस बीजेपी में आए हैं तो राम की बात कर रहे हैं। मगर बीजेपी से जितने दिन बाहर रहे राम को बनवास दे दिया। खैर इसी तरह का हलफनामा कांग्रेस सरकार ने दिया। उन्हें लगा कि बीजेपी वाले राम को भूल गए हैं। वो अदालत की ही बात मानते हैं। तो अदालत से कह दिया जाए कि राम का प्रमाण नहीं।

बात ज़ीरो से शुरू हो कर ज़ीरो पर पहुंच गई। बीजेपी के लोगों ने कहा आस्था का सवाल है। राम के होने का प्रमाण मांगते हो। अल्लाह और ईसा का प्रमाण कौन देगा। किसी के पास है नहीं तो देगा कौन। खैर सवाल यह नहीं था। मगर सब ने हथियार डाल दिए। कभी कभी करना चाहिए। दुनिया में आस्था और विज्ञान के बीच बहस चल रही है। चलती रहेगी। राम के होने का प्रमाण महत्वपूर्ण नहीं है। राम के नाम पर आस्था का सवाल महत्वपूर्ण है। तोगड़िया ने कह दिया बीजेपी को राम का नाम लेने का हक नहीं। आडवाणी जी फुर्ती में आ गए। उनके नेतृत्व को दी जा रही चुनौती पर राम ने पानी डाल दिया। आडवाणी राम को भूल गए लेकिन ऐन वक्त पर राम ने आडवाणी को बचा लिया। कब तक बचाया यह पता नहीं।

हमने आस्था को हज़ार बार चुनौती दी है। आस्था से अंधविश्वास को अलग किया है। जाति व्यवस्था का उदगम तो ब्रह्मा के शरीर से है। उसे इतनी चुनौती दी कि ब्रह्मा के शरीर का पता नहीं। अब ब्रह्मा के मुख से निकले ब्राह्मण दलितों के साथ चल रहे हैं। हम गंगा यमुना में भी आस्था रखते हैं। उसका इतना बुरा हाल किया कि है किसी में मज़ाल जो इन नदियों को बचा ले। हम आस्था पर सवाल नहीं करना चाहते इसीलिए बार बार मना करने पर पूजा की सामग्री नदियों में डाल आते हैं। यह जानते हुए कि हमारी आस्था इन नदियों में है। हम आस्था पर सवाल भी उठाते हैं और आस्था का इस्तमाल भी करते हैं। बस समय और इरादा अलग अलग होता है। सेतु का हेतु सब जानते हैं। राम की भक्ति तो सब करते हैं मगर कोई आस्था के नाम पर राम का इस्तमाल करे तो सवाल होना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे हम नदियों को आस्था के नाम पर मलिन कर रहे हैं। अपने छोटे छोटे स्वार्थों के लिए कराई गई पूजा से निकली सामग्री से प्रदूषित कर। इस पर सवाल उठता है तो लोग भाग जाते हैं। पता नहीं लगता है कि कोई है भी जो गंगा और यमुना के लिए रो रहा है। कांग्रेस और बीजेपी के बवाल में राम भी फंस गए हैं। राम की भक्ति कीजिए। राम को लेकर हो रहे बवाल पर सवाल भी कीजिए। जय श्री राम का मतलब राम की पूजा भी है। जय श्री राम का मतलब राम को लेकर राजनीति भी है। क्या दोनों जगह पर आस्था एक समान है। इसका कोई प्रमाण है आपके पास।