गोलाबाज़। इस शब्द का ज़िक्र कामिल बुल्के से लेकर हरदेव बाहरी की डिक्शनरी में नहीं मिला। जनसत्ता के प्रभाष जोशी के लेख में गोलंदाज़ का ज़िक्र आता था। मगर उससे गोलाबाज़ के अर्थ का कोई क्लू नहीं मिला। दीपक और उसके तीन दोस्त इस मंत्र नुमा रहस्यमयी शब्द के तीर से घायल हो गए। मधुकर का ख्याल आया। वो जानता होगा कि गोलाबाज़ क्या होता है। आखिर स्टीफेंस के राजेश में क्या खास है कि पटना की सुप्रीया उसी से बात करती है। पता करना होगा। चल मधुकर के घर। डीटीसी मुद्रीका पकड़कर गोविंदपुरी से मुखर्जीनगर की तरफ चल दिया गया। हकीकत नगर से गुजरते ही इंदिरा विहार के पास राकेश मिल गया। सुप्रीया के साथ। आंखें फटीं रह गई। गोलाबाज़ जा रहा है। गोला दे रहा है। ये गोला क्या होता है जो दिए जा रहा है?
इन सब सवालों से टकराते चार यार रिक्शे टैंपों से बचते बचाते इंदिरा विहार की तरफ मुड़ गए। अंदर जाते ही फुकना मिल गया। फुकना अक्सर फूको दरिदा को लेकर परेशान रहता था।हर बात में वह दरिदा और फुको का विश्लेषण करने लगता।फुकना ने देखते पूछा इधर क्या करने आ गए? नार्थ कब आए? दिल्ली में दो ध्रुव हैं। एक नान कैंपस घसीटा कालेज जो दक्षिणी ध्रुव पर स्थित हैं। दूसरा कैंपस इलीट कालेज जो उत्तरी ध्रुव पर स्थित है। नार्थ में रहने या इस ध्रुव के कालेज में पढ़ने वाले बिहारी लड़कों का थोड़ा अहंकार बनने लगा था। स्मार्ट भी कह सकते हैं। दक्षिणी ध्रुव से आए चारों यारों ने कहा- पता करने। फुकना ने कहा क्या पता कर रहे हो? दीपक ने कहा ई गोलाबाज़ का होता है रे? राकेश जी वा छौड़िया सब को देख कौन चीज़ पर चालू हो जाता है हो। फुकना जिसका नाम फूलचंद प्रसाद था हंसने लगा। बुरबक है का रे तू सब। गोला नहीं मालूम।
ये पीसपीओ नहीं जानता। इस विज्ञापन के आने के कुछ साल पहले ही फुकना ने कह दिया था कि कारे गोलाबाज़े नहीं मालूम तू सब को। दूर साला। दीपक गुस्सा गया। बोला बेसी ज्ञान देगा रे। बताता काहे नहीं है। फुकना कहा ज्ञान देना ही तो गोला देना है। दीपक को काठ मार गया। जो वह जानता था उसी का एक पर्यायवाची नाम। जिसके लिए दो ध्रुवों की यात्रा करनी पड़ी। बाकी के तीन दोस्तों में एक था प्रमोद। प्रमोद जी उम्र में बड़े थे। बीएससी करके बीए कर रहे थे। सिविल सर्विस के लिए। हिस्ट्री में। ताकि मेन्स में हिस्ट्री से ज़्यादा स्कोर कर लें। प्रमोद ने कहा कि राकेश जी ज्ञान देते रहते हैं। उसी से पट जाती है का। एतना इजी है।फुकना बोला आपकी शकल पर रिटायरमेंट दिख रहा है तो कैसे बात करेगी कोई। पढ़ाई कीजिए। न पढ़िएगा तो तेल में जाइयेगा।
यह कहते हुए फुकना पोस्ट मार्डन थ्योरी पर आ गया। सेकेंड ईयर में होने के कारण एक सेमिनार में फूको देरिदा के बारे में सुमित सरकार को बोलते सुना था। बोलने लगा कि रिलेशनशिप बदल गया है। नॉलेज के आधार पर रिश्ते बनते हैं। जहां मन मिलता है यानी मन को खुराक मिलती है वहीं संबंध होते हैं। संबंधों का बंधन वहीं हैं। न कि वहां जहां सात फेरे लिए जाते हैं। दीपक प्रमोद और बाकी के दो दोस्त। खिसक लेते हैं। गोलाबाज़ का मतलब आ चुका था। फिर से रिक्शा पकड़ कर मुखर्जी नगर की तरफ चल पड़े। राकेश और सुप्रीया बत्रा सिनेमा में डर देखने जा चुके थे। चारों को पास से गुज़रता हर नौजवान जोड़ा राकेश सुप्रीया लगता था। गोलाबाज़ लगता था। हमनी भी गोला देंगे।सीढ़ी से जब भी बरसाती वाली उतरेगी, हमारी आवाज़ नीचे तक जाएगी। कभी तो सुनेगी वो।दीपक ने प्रमोद जी को कहा कि अरे बुढ़वा छोड़ न। कबाड़ीवाले की तरह हांक लगाने से दिल्ली की लड़की तुमको भाव देगी रे। औकात में रह। एक बार सिविल निकल जाए फिर यही लड़की का बाप नवगछीया आवेगा। बाबू का गोड़ धरने।सक्सेस भी चीज़ होती है। सांत्वना देते हुए प्रमोद जी मुखर्जी नगर की बालकनियों में लड़की ढूंढने लगे। चार यार मंज़िल पर पहुंच गए।
मधुकर यह शब्द सुन कर खूब हंसा। बोला वही तो मैं करता हूं। देखते नहीं हो। अरे दिल्ली की लड़की को कुछ मालूम नहीं होता। तुम्हारे पास कार और निरूला में खिलाने के पैसे तो नहीं है। तो कैसे आगे बढ़ोगे। कुछ न कुछ तो गोला देना होगा न। बताना पड़ता है। प्राचीन भारत के मगध साम्राज्य से लेकर बोलो कि कैसे तुम अपने ख्यालों में पोस्ट माडर्न हो। प्रमोद ने कहा बिना माडर्न हुए पोस्ट माडर्न कैसे हो गए। मधुकर ने कहा कि ज्ञान दो। किसी भी चीज़ पर। उनको बोल कि गुप्त काल पर जो नोट्स बनाया है वो सबसे बेहतर है। दस किताब पढ़ कर लिखा है। दस पेज का नोट्स पढ़ लो फिर कुछ पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। नोट्स के लिए वो पीछे पीछे घूमेगी। जब रातों को वह तुम्हारे नोट्स पढ़ेगी तो तुम उसके करीब पहुंच जाओगे। तुम्हारे विचार लिखावट सब उसकी बांहों में। सिर्फ तुम नहीं। तब तक कोशिश करते रहो। उसे बताओ कि दिल्ली की ज़िंदगी में रखा क्या है? आईएएस बनने के बाद सहारनपुर या सासाराम के कलेक्टर बन कर दुनिया को बदलना है। तुम दहेज में यकीन नहीं करते। समाज को बदलना होगा। बिहार की खराब हालत है। मगर तुम्हारे पिताजी के पास सैंकड़ों एकड़ ज़मीन है। प्रमोद ने कहा लेकिन कहां है। कुछ बीघा है। मधुकर ने कहा कि देखो हर बिहारी दिल्ली आकर लड़कियों के सामने खुद को ज़मींदार बताता है। वो इम्प्रैस होती है। लैंडेड फैमिली का लड़का है। फिर बोल कि तुम फ्यूडल नहीं हो। यू वांट टू चेंज। यू वांट टू बिकम आईएएस। फिर बोल किस तरह से देर रात पढ़ते पढ़ते तुम बाड़ा हिंदूराव चले गए। वहां देखा कि कई बिहारी वक्त बर्बाद कर रहे हैं। तुम फर्क बताओ कि तुम उनके जैसे नहीं हो। लड़की सीरीयसली लेने लगेगी। दिल्ली की लड़की है न। गोला तो देना ही पड़ता है। दीपक ने कहा मधुकर तुम तो दे देते हो लेकिन तुमसे पट गई का। हमनी वही गोला दे जो तुम दे रहे हो। इसके डिफरेंट कैसे बनाए। मधुकर ने कहा...
क्रमश...........
दिल्ली की लड़कियां- पार्ट टू
दीपक को अंग्रेज़ी नहीं आती थी। वो यह जानता था। दोस्तों को भी मालूम था। लेकिन जब भी वो आती दीपक की ज़बान से अंग्रेज़ी छलकने लगती। ऐन वक्त पर जहां वाक्य खत्म होता..वहीं शब्द की अचानक पैदा हुई कमी से उसके वाक्य लड़खड़ा जाते। लड़की जल्दी से सर हिला कर इशारा कर देती कि जितनी भी अंग्रेजी बोली गई है उसका अधिकांश समझ लिया गया है। आगे कोशिश न हो तो ठीक। रिलैक्स। पता नहीं लड़की को देख हज़ारों बिहारी लड़कों में अंग्रेज़ी बोलने की तड़प क्यों पैदा हुई। आशीष नंदी से लेकर योगेंद्र यादव सब इस बेचैनी को मिस कर गए। फालतू के राजनीतिक विवादों को समझाने में लगे रहे।
दीपक टाइम्स आफ इंडिया मंगाने लगा। किसी ने कहा कि संपादकीय पढ़ने से अंग्रेजी बेहतर होती है। एक दोपहर उसने वसंतकुंज के प्रिया सिनेमा का पता पूछना शुरू कर दिया। दोस्तों ने मज़ाक उड़ाया कि वहां क्यों जाएगा, उधर तो अंग्रेज़ी सिनेमा लगता है। दीपक ने कहा वही देखना है। दोस्तों ने हंस तो दिया मगर उसके जाने के बाद सबने कहा कि कम से कम कोशिश तो कर रहा है। हमें भी करनी चाहिए। इंटरव्यू या वायवा में अंग्रेजी बोलेंगे तो चांस बन जाएगा। और लड़की भी। दिल्ली की लड़की तो बिना अंग्रेज़ी के बात ही नहीं करती।
दीपक वायवा के लिए नहीं उस लड़की के लिए अंग्रेज़ी सिनेमा देखने लगा।जो बरसाती की खिड़की से दिखती रहती थी। हवा में सूखते उसके कपड़े। किस दिन क्या पहनती है सब मालूम था। फिल्म का नाम था- गॉन विद द विंड। चार घंटे की फिल्म देखते देखते वह बीमार हो गया। फिल्म का एक भी प्लाट समझ नहीं पाया। अमेरिकन सिविल वार। क्या करें इसका। बिहार का सिविल वार छोड़ अमरीकन वार। जो हवा के साथ चला गया उसे देखने में इतनी तकलीफ। मगर जो हवा के साथ आने वाली थी उसके लिए ज़ुबान कहां से लाऊं। इंटरवल में उसने भुने मक्के का नाम पूछा। जवाब मिला पॉप कॉर्न। दाम पूछा तो जवाब मिलते ही कह दिया रहने दो। नहीं चाहिए। प्रिया सिनेमा की लॉबी में वो सबको देख रहा था। एक बार लगा कि कोई लड़की देख तो नहीं रही। धीरे धीरे वो सब लड़कियों को देखने लगा। उनके कपड़े। स्कर्ट, टॉप, जीन्स और ग्रे टी शर्ट। दिल्ली की लड़कियां सासाराम की लड़कियों से कितनी अलग।पास से गुज़रती हुई उस लड़की के डियोड्रेंट ने ताज़गी से भर दिया। वो अब इन सबके जैसा होना चाहता था। उसे पता चल रहा था कि एक दोस्त लड़की भी होनी चाहिए। दोस्ती और प्रेम के बीच वह संबंधों को तौलता रहता।
मधुकर का संकट कुछ और था। वह भागलपुर के प्रोफेसर का लड़का था। अंग्रेजी आती थी। मधुकर सिविल सर्विस की बात नहीं करता। उसका लक्ष्य कैट निकालना था। जब भी वो लड़की से मिलता चारों लड़कों( इनका नाम धीरे धीरे आएगा) के नेता के रूप में बोलने लगता। अंग्रेज़ी में। दीपक मधुकर से चिढ़ता था। इम्प्रैस करने के चांस में किसी का कूदना ठीक नहीं लगता। मगर हताश मधुकर भी था। कोई इम्प्रैस नहीं होती। हारकर कहता एक बार कैट क्लियर हो जाए हज़ार लड़कियां पीछे पीछे आ जाएंगी।
लेकिन शाम होते ही चारों की कल्पनाओं में कोई न कोई लड़की आती थी। रात का खाना बनाते वक्त, प्राचीन इतिहास के पन्नों को अंडरलाइन करते वक्त तो शाम को खाने के बाद टहलने के बहाने। उन्हें अक्सर लगता कि पर्सनाल्टी तभी बनेगी जब अंग्रेज़ी आएगी। मधुकर कभी कभी कह देता कि मुझे तो आती मगर क्या वो आती है नहीं न। ये सब काम्प्लैक्स है। सक्सेस से लड़की मिलती है। दीपक ज़ोर देकर कहता...नहीं दिल्ली में लड़की अंग्रेज़ी से मिलती है।बिहार के
पतनशील राजनीतिक समाज ने युवाओं को अपने राज्य के क्रांतिकारी विरासत से दूर कर दिया था। उन्हें लगता था कि आखिर वो क्यों नहीं दिल्ली की इन खुशहाल लड़कियों के हमसफर बन सकते हैं। आखिर भरी महफिल में लड़कियां उनका हाथ पकड़कर डांस के लिए क्यों नहीं बुलाती। मधुकर अक्सर मिरांडा हाउस के होस्टल डे की पार्टी का ज़िक्र करता रहता। उसी ने बताया कि मेन्स क्लियर करके कई लड़के यहां बुलाये गए। सब खाने के बाद डांस कर रहे थे मगर ज़्यादातर अपने ही ग्रुप में। यानी कमलेश सर, प्रकाश जी और दिलीप बॉस। आपस में ही टांग भिड़ाकर जादू तेरी नज़र...खुश्बू तेरा बदन .तूहां..कर...या ना कर.. गाने की धुन पर दिए जा रहे थे। दिए जा रहे थे मतलब झूमे जा रहे थे। कोई लड़की उनके साथ डांस नहीं कर रही थी। पटना की सुप्रीया भी सेंट स्टीफेंस के राजेश के साथ डांस करती थी। मधुकर ने कहा आईएएस अफसर का बेटा राजेश बहुत बड़ा गोलाबाज़ है। दीपक और उसके तीन दोस्त यानी रुममेट चुप। हल्के से पूछा कि ये गोलाबाज़ क्या होता है? क्या कोई अंग्रेज़ी का उस्ताद होता है?
क्रमश.....
दीपक टाइम्स आफ इंडिया मंगाने लगा। किसी ने कहा कि संपादकीय पढ़ने से अंग्रेजी बेहतर होती है। एक दोपहर उसने वसंतकुंज के प्रिया सिनेमा का पता पूछना शुरू कर दिया। दोस्तों ने मज़ाक उड़ाया कि वहां क्यों जाएगा, उधर तो अंग्रेज़ी सिनेमा लगता है। दीपक ने कहा वही देखना है। दोस्तों ने हंस तो दिया मगर उसके जाने के बाद सबने कहा कि कम से कम कोशिश तो कर रहा है। हमें भी करनी चाहिए। इंटरव्यू या वायवा में अंग्रेजी बोलेंगे तो चांस बन जाएगा। और लड़की भी। दिल्ली की लड़की तो बिना अंग्रेज़ी के बात ही नहीं करती।
दीपक वायवा के लिए नहीं उस लड़की के लिए अंग्रेज़ी सिनेमा देखने लगा।जो बरसाती की खिड़की से दिखती रहती थी। हवा में सूखते उसके कपड़े। किस दिन क्या पहनती है सब मालूम था। फिल्म का नाम था- गॉन विद द विंड। चार घंटे की फिल्म देखते देखते वह बीमार हो गया। फिल्म का एक भी प्लाट समझ नहीं पाया। अमेरिकन सिविल वार। क्या करें इसका। बिहार का सिविल वार छोड़ अमरीकन वार। जो हवा के साथ चला गया उसे देखने में इतनी तकलीफ। मगर जो हवा के साथ आने वाली थी उसके लिए ज़ुबान कहां से लाऊं। इंटरवल में उसने भुने मक्के का नाम पूछा। जवाब मिला पॉप कॉर्न। दाम पूछा तो जवाब मिलते ही कह दिया रहने दो। नहीं चाहिए। प्रिया सिनेमा की लॉबी में वो सबको देख रहा था। एक बार लगा कि कोई लड़की देख तो नहीं रही। धीरे धीरे वो सब लड़कियों को देखने लगा। उनके कपड़े। स्कर्ट, टॉप, जीन्स और ग्रे टी शर्ट। दिल्ली की लड़कियां सासाराम की लड़कियों से कितनी अलग।पास से गुज़रती हुई उस लड़की के डियोड्रेंट ने ताज़गी से भर दिया। वो अब इन सबके जैसा होना चाहता था। उसे पता चल रहा था कि एक दोस्त लड़की भी होनी चाहिए। दोस्ती और प्रेम के बीच वह संबंधों को तौलता रहता।
मधुकर का संकट कुछ और था। वह भागलपुर के प्रोफेसर का लड़का था। अंग्रेजी आती थी। मधुकर सिविल सर्विस की बात नहीं करता। उसका लक्ष्य कैट निकालना था। जब भी वो लड़की से मिलता चारों लड़कों( इनका नाम धीरे धीरे आएगा) के नेता के रूप में बोलने लगता। अंग्रेज़ी में। दीपक मधुकर से चिढ़ता था। इम्प्रैस करने के चांस में किसी का कूदना ठीक नहीं लगता। मगर हताश मधुकर भी था। कोई इम्प्रैस नहीं होती। हारकर कहता एक बार कैट क्लियर हो जाए हज़ार लड़कियां पीछे पीछे आ जाएंगी।
लेकिन शाम होते ही चारों की कल्पनाओं में कोई न कोई लड़की आती थी। रात का खाना बनाते वक्त, प्राचीन इतिहास के पन्नों को अंडरलाइन करते वक्त तो शाम को खाने के बाद टहलने के बहाने। उन्हें अक्सर लगता कि पर्सनाल्टी तभी बनेगी जब अंग्रेज़ी आएगी। मधुकर कभी कभी कह देता कि मुझे तो आती मगर क्या वो आती है नहीं न। ये सब काम्प्लैक्स है। सक्सेस से लड़की मिलती है। दीपक ज़ोर देकर कहता...नहीं दिल्ली में लड़की अंग्रेज़ी से मिलती है।बिहार के
पतनशील राजनीतिक समाज ने युवाओं को अपने राज्य के क्रांतिकारी विरासत से दूर कर दिया था। उन्हें लगता था कि आखिर वो क्यों नहीं दिल्ली की इन खुशहाल लड़कियों के हमसफर बन सकते हैं। आखिर भरी महफिल में लड़कियां उनका हाथ पकड़कर डांस के लिए क्यों नहीं बुलाती। मधुकर अक्सर मिरांडा हाउस के होस्टल डे की पार्टी का ज़िक्र करता रहता। उसी ने बताया कि मेन्स क्लियर करके कई लड़के यहां बुलाये गए। सब खाने के बाद डांस कर रहे थे मगर ज़्यादातर अपने ही ग्रुप में। यानी कमलेश सर, प्रकाश जी और दिलीप बॉस। आपस में ही टांग भिड़ाकर जादू तेरी नज़र...खुश्बू तेरा बदन .तूहां..कर...या ना कर.. गाने की धुन पर दिए जा रहे थे। दिए जा रहे थे मतलब झूमे जा रहे थे। कोई लड़की उनके साथ डांस नहीं कर रही थी। पटना की सुप्रीया भी सेंट स्टीफेंस के राजेश के साथ डांस करती थी। मधुकर ने कहा आईएएस अफसर का बेटा राजेश बहुत बड़ा गोलाबाज़ है। दीपक और उसके तीन दोस्त यानी रुममेट चुप। हल्के से पूछा कि ये गोलाबाज़ क्या होता है? क्या कोई अंग्रेज़ी का उस्ताद होता है?
क्रमश.....
दिल्ली की लड़कियां
मगध एक्सप्रेस से उतर कर दक्षिण दिल्ली के गोविंदपुरी की गलियां। बिहार से वाया दिल्ली यूपीएससी का सफ़र कई लोगों ने ऐसी तमाम गलियों मोहल्लों से तय किया है। कई लोगों ने अगले स्टेशन पर गाड़ी बदल ली। तो कुछ तैयारी के नाम पर सिर्फ जवान ही बने रहे। अपने झड़ते बालों के बीच यूपीएससी का सपना उन्हें बुढ़ाने से रोकता रहा। लेकिन सबके अनुभवों में एक बात आम रही। दिल्ली की लड़की। ठीक वैसे ही जैसे सबका सामना बरसाती शब्द से दिल्ली में ही पहली बार हुआ। जून के महीने में बरसाती नाम सुन कर लगा कि बारिश होगी तो बरसाती ओढ़ कर कहीं जाने की चीज़ का नाम होगा बरसाती। मकान मालिक ने कहा छत पर बचे खुचे कोनों में बनाए गए कमरे को बरसाती कहते हैं। बरसाती का बरसात से कोई लेना देना नहीं होता लेकिन तपते सूरज का मकान से डायरेक्ट संबंध बरसाती से ही हुआ करता है। छत के कोने में बनी बरसाती के एक कोने में कोई और रहने आ गई। ये वो लड़कियां हैं जिनमें से कई आईएएस या मैनेजर बनकर लौटे बिहारी लड़के के साथ तो नहीं जा सकीं मगर उनकी कामयाबी के सफर में हमेशा मौजूद रहीं। लड़कियों को भले न मालूम चला हो या फिर मालूम हो...बिहारी नौजवानों के अकेलेपन को दूर करने में उनके योगदान को कोई नहीं भुला सकेगा। वो सिर्फ सपनों में आती थीं। ब्रश करते वक्त या चाय की दुकान पर बैठने से पहले एक बार छत की तरफ देख लेने का अभ्यास एनसीईआरटी के चैप्टरों के देख लेने के अभ्यास सा बना ही रहा।
ख़ैर इन बरसाती के लिए भी मकान मालिक खूब नखरे करता। मगध एक्सप्रेस से आया पतला दुबला नौजवान यह सोच कर रहने को तैयार हो गया कि कुछ करना है तो त्याग करना होगा। बरसाती में रहना होगा। कुछ का मतलब यूपीएससी से है। इस कुछ के रास्ते में कई पड़ाव आने थे। जिसका अंदाज़ा नहीं था।
बरसाती की छत से जुड़े कई मकानों की एक खिड़की जब भी खुलती थी लड़की झांकती नज़र आती। एनसीईआरटी की प्राचीन भारत की किताब में मगध साम्राज्य के पतन के कारणों को पढ़ते पढ़ते वह कई बार मोहब्बत की कल्पनाओं में गिरने लगता। जब भी वो लड़की आती, मगध साम्राज्य का अहं टूट जाता। बिना उसके देखे या देख लिये जाने की उम्मीद में वह पिघलता हुआ सा एक लड़का था। बिहारी। यह नाम नहीं। मगर इस नाम के बिना दीपक नाम का कोई मतलब भी नहीं। बरसाती में रहने वाला बिहारी।
दिल्ली में आए कई नौजवान बिहारियों की स्मृतियों में कोई न कोई लड़की (दिल्ली वाली लड़की) है। जिसे वह देखकर चौंका होगा, उसके आने जाने का समय याद रखता होगा और कई बार जनरल स्टडी की भारी और बोर किताब के बीच उसे बुकमार्क बनाकर चुपचाप पढ़ता होगा। भारत के जीडीपी के आंकड़ों के बीच वो लड़की। होती ही थी। बिहार में अपने अपने इलाके में ये लड़के जवान तो हो गए मगर इस तरह से लड़कियों से साक्षात्कार नहीं हुआ। इससे पहले इतने करीब और मिलने के इतने मौके कहां आए। वो भी मिल जाया करती। आती जाती सीढ़ियों पर। उसके आने का कोई औसत समय नहीं निकाला जा सका इसलिए चार लोगों में फैसला हुआ कि दरवाज़ा खुला रहेगा। और पढ़ते रहा जाएगा ताकि उसकी एक नज़र हमेशा के लिए यकीन में बदल जाए कि हम भी सूटेबल ब्वाय हैं। विक्रम सेठ के नहीं मगर विक्रमशीला बिहार के तो हैं ही।
लालू यादव के राज और खंडहर होते बिहार से भाग कर आए बिहारियों की कल्पनाओं में आने वाली दिल्ली की लड़कियां उनके भीतर बिहार की खराब हालत के दर्द को हल्का करती रहती। इन्हीं लड़कियों के कारण कई बिहारियों का संपर्क बहुत जल्दी बिहार से टूट गया। चारा घोटाला के शोर से बहुत दूर यूपीएससी के सपनों के बीच छोटे छोटे सपने देखे जाने लगे। सरोजनी नगर या बस स्टाप पर खड़ी लड़कियों को देखते देखते उनके सपने बदल गए। बाज़ार और बस स्टाप पर खड़ी लड़कियां कब अपने घर चलीं गईं और उनकी जगह दूसरी लड़कियां बिहारी नौजवानों के सपनों में आ गईं। किसी को पता ही नहीं चल पाता। दिल्ली की कई लड़कियों ने अनजाने में ही सही अपने हाव भाव और अंदाज़ से कई बिहारी नौजवानों को बदल दिया। वो कैट हो गए। होना ही था वर्ना कब तक देखते ही रहते। कभी न कभी कोई पलट कर तो देखेगी। बस इसी एक चांस ने बिहार के बाहर दिल्ली आकर ढाबे में खाने वाले लड़कों को बदल दिया। काश.....क्या करें..... अंग्रेज़ी आएगी तब न लड़की आएगी। चार यारों की गोष्ठियों में बिहारी युवकों का दर्द ये था। न कि जातिवाद या लालूवाद। लड़की के आने के इंतज़ार में अंग्रेजी नहीं आने का मातम।
क्रमश.....
ख़ैर इन बरसाती के लिए भी मकान मालिक खूब नखरे करता। मगध एक्सप्रेस से आया पतला दुबला नौजवान यह सोच कर रहने को तैयार हो गया कि कुछ करना है तो त्याग करना होगा। बरसाती में रहना होगा। कुछ का मतलब यूपीएससी से है। इस कुछ के रास्ते में कई पड़ाव आने थे। जिसका अंदाज़ा नहीं था।
बरसाती की छत से जुड़े कई मकानों की एक खिड़की जब भी खुलती थी लड़की झांकती नज़र आती। एनसीईआरटी की प्राचीन भारत की किताब में मगध साम्राज्य के पतन के कारणों को पढ़ते पढ़ते वह कई बार मोहब्बत की कल्पनाओं में गिरने लगता। जब भी वो लड़की आती, मगध साम्राज्य का अहं टूट जाता। बिना उसके देखे या देख लिये जाने की उम्मीद में वह पिघलता हुआ सा एक लड़का था। बिहारी। यह नाम नहीं। मगर इस नाम के बिना दीपक नाम का कोई मतलब भी नहीं। बरसाती में रहने वाला बिहारी।
दिल्ली में आए कई नौजवान बिहारियों की स्मृतियों में कोई न कोई लड़की (दिल्ली वाली लड़की) है। जिसे वह देखकर चौंका होगा, उसके आने जाने का समय याद रखता होगा और कई बार जनरल स्टडी की भारी और बोर किताब के बीच उसे बुकमार्क बनाकर चुपचाप पढ़ता होगा। भारत के जीडीपी के आंकड़ों के बीच वो लड़की। होती ही थी। बिहार में अपने अपने इलाके में ये लड़के जवान तो हो गए मगर इस तरह से लड़कियों से साक्षात्कार नहीं हुआ। इससे पहले इतने करीब और मिलने के इतने मौके कहां आए। वो भी मिल जाया करती। आती जाती सीढ़ियों पर। उसके आने का कोई औसत समय नहीं निकाला जा सका इसलिए चार लोगों में फैसला हुआ कि दरवाज़ा खुला रहेगा। और पढ़ते रहा जाएगा ताकि उसकी एक नज़र हमेशा के लिए यकीन में बदल जाए कि हम भी सूटेबल ब्वाय हैं। विक्रम सेठ के नहीं मगर विक्रमशीला बिहार के तो हैं ही।
लालू यादव के राज और खंडहर होते बिहार से भाग कर आए बिहारियों की कल्पनाओं में आने वाली दिल्ली की लड़कियां उनके भीतर बिहार की खराब हालत के दर्द को हल्का करती रहती। इन्हीं लड़कियों के कारण कई बिहारियों का संपर्क बहुत जल्दी बिहार से टूट गया। चारा घोटाला के शोर से बहुत दूर यूपीएससी के सपनों के बीच छोटे छोटे सपने देखे जाने लगे। सरोजनी नगर या बस स्टाप पर खड़ी लड़कियों को देखते देखते उनके सपने बदल गए। बाज़ार और बस स्टाप पर खड़ी लड़कियां कब अपने घर चलीं गईं और उनकी जगह दूसरी लड़कियां बिहारी नौजवानों के सपनों में आ गईं। किसी को पता ही नहीं चल पाता। दिल्ली की कई लड़कियों ने अनजाने में ही सही अपने हाव भाव और अंदाज़ से कई बिहारी नौजवानों को बदल दिया। वो कैट हो गए। होना ही था वर्ना कब तक देखते ही रहते। कभी न कभी कोई पलट कर तो देखेगी। बस इसी एक चांस ने बिहार के बाहर दिल्ली आकर ढाबे में खाने वाले लड़कों को बदल दिया। काश.....क्या करें..... अंग्रेज़ी आएगी तब न लड़की आएगी। चार यारों की गोष्ठियों में बिहारी युवकों का दर्द ये था। न कि जातिवाद या लालूवाद। लड़की के आने के इंतज़ार में अंग्रेजी नहीं आने का मातम।
क्रमश.....
एक प्रेमी की डायरी
हर शाम उसकी याद आती रही। घर लौटते वक्त। डायरी के पन्ने उसकी यादों से भरते जा रहे थे। वो सिर्फ शब्दों में मौजूद रही। उसका चेहरा धीरे धीरे धुंधला होता जा रहा था। तभी उसने चेहरे का स्केच बनाना छोड़ दिया। लिखता था। क्योंकि उसके साथ शब्दों के बीच लंबा वक्त गुज़रा। प्रेम में अक्सर वो दानी उदार और महान हो जाया करता। शब्दों के सहारें ही वह अपनी उंगलियों को उसकी हथेलियों तक ले जाता था। वो मतलब ढूंढती चुप रह जाती और अपनी हथेली उसकी उंगलियों के बीच सौंप देती। काफी लंबे समय तक चलता रहा। दोनों जब भी मिले आंखें बंद कर मिलते रहे। प्रेम के उन विस्तृत लम्हों में एक दूसरे को जी भर कर कभी देखा ही नहीं। सिर्फ कहा। सुना। इसीलिए उसकी डायरी के पन्नों में शब्द ही उतरते रहते हैं याद करने के लिए। चेहरा नहीं उतरता। अहसास ही तो याद बनती है। आंखों का देखा प्रेम को भोगा हुआ नहीं होता। हिंदुस्तान के एक असफल प्रेमी की डायरी के पन्ने शब्दों से भरे जा रहे थे। वो अपनी कहानी खुद पढ़ने के लिए लिख रहा था। जिस कहानी को पूरी ज़िंदगी जी न सका। मगर वो वहां तक कभी नहीं पहुच पाता जहां से दोनों बिछड़े थे। सिर्फ उसके पहले की यादों को जी रहा है। बहुत मुश्किल होता है उबर पाना। आसान होता डायरी लिखना। घटना वक्त और शब्द का चुनाव अपना होता है।
( प्रमोद सिंह की कहानियों से प्रेरित होकर हिंदी के मूर्धन्य साहित्याकर बनने का सुविचारित प्रयास। पसंद आए तो वाह..नहीं तो आह। क्या किया जा सकता है। ब्लागर को रोकना मुश्किल है)
( प्रमोद सिंह की कहानियों से प्रेरित होकर हिंदी के मूर्धन्य साहित्याकर बनने का सुविचारित प्रयास। पसंद आए तो वाह..नहीं तो आह। क्या किया जा सकता है। ब्लागर को रोकना मुश्किल है)
हिंदी पत्रकारिता का प्रश्न काल
स्वर्ण न पतन काल। हम हिंदी पत्रकारिता के प्रश्न काल में रह रहे हैं। इससे पहले पत्रकारिता अपनी आलोचनाओं में इतनी अंतर्मुखी नहीं रही होगी। एक ज़माना था जब उदार संपादक स्पेस के नाम पर अनुमति देते थे कि आप आलोचना करें या बहस करें। आज भी संपादक के कमरे में ईमानदारी से इसके लिए स्पेस नहीं मिलती। मिलती है तो अलग से। अनुमति के रूप में। ये किसी एक व्यक्ति विशेष की तरफ इशारा नहीं है। खुद से संवाद है।
मगर अच्छी बात यह है कि पत्रकार बोलने लगे हैं। संपादक को मालूम है कि उसकी समीक्षा हो रही है। वो अपने मातहतों की कसौटी पर कसा जा रहा है। अब तो कारपोरेट जगत में भी यह परिपाटी चली है कि बॉस से मातहत कितने संतुष्ट है? इस सवाल का जवाब व्यक्ति विशेष के बॉस बने रहने की निरंतरता
से जुड़ा होता है। ख़ैर कई बार आप राजनीतिक या निजी गुटबाज़ी के कारण भी हमले करते हैं। न कि पेशेवर कारणों से। सवालों के भी राजनीतिक मायने होते हैं।
मैं भटक रहा हूं। मगर कहना यह चाहता हूं कि ब्लाग से लेकर चौराहों तक पत्रकार अपने पेशे पर सवाल उठा रहे हैं। सवाल इसका नहीं कि हमारा अतीत क्या था और वर्तमान कैसा है? सवाल इसका भी नहीं हमारा मकसद क्या है? सवाल यह है कि हम बेचैन हो रहे हैं या नहीं? तो जवाब है कि हम बेचैन हो रहे हैं। पेशे के अंदर घट रही चीज़ों को लेकर। तभी तो आज हिंदी का पत्रकार खुलकर सवाल उठा रहा है। पत्रकारिता के भीतर यह लोकतंत्र को मज़बूत करने या उसके लिए जगह बनाने जैसा प्रयास है।
बाज़ार हावी रहेगा मगर पत्रकार को भी हावी रहना होगा। भूत प्रेत दिखाने की वजहों पर आ जाना चाहिए। क्या सिर्फ बाज़ार का ही दबाव है या फिर दिखाने वाले की अक्षमता भी। क्यों टीआरपी के दबाव में वह भूतों और सेक्स की कहानियों के अंधेरे में जाता है? क्या उसे अपने समय और समाज की पहचान नहीं रही? ज़ाहिर है भूत प्रेत के बहाने उस पर भी सवाल उठ रहा है। क्या यह कम नहीं कि इन सब उठते सवालों से भूत प्रेत दिखाने वालों की रातों की नींद खराब होती होगी? सम्मान मांगा नहीं जाता कमांड किया जाता है। कहावत अंग्रेजी की है। मगर मतलब सब भाषा के लोग जानते हैं। अच्छी बात यही है कि उनके पद पर रहते यह सब सवाल उठ रहे हैं। दफ्तरों में भी चोरी छुपे लोग बात कर रहे हैं। प्रेस क्लब में भी। ब्लाग पर भी। इसीलिए कहता हूं कि सामंती संपादकों का युग चला गया है। जो संपादक रह कर गए हैं उनमें इसका तत्व रहा है। कुछ नाम क्यों लूं जिनमें नहीं रहा है। कोई मतलब नहीं बनता। आज के संपादक भी बदल रहे होंगे। या इस बदलाव को समझ रहे होंगे। सवाल का उठना बता रहा है कि हिंदी पत्रकारिता का ऐसा प्रश्न काल पहले कभी नहीं रहा। जब पेशे को लेकर इतनी बहसें हो रही हैं। हिंदी के पत्रकारों ने ही बाज़ार बनाया और वही इस पतन का रास्ता ढूंढ लेंगे । देखना होगा कि वही ढूंढेंगे जो भूत प्रेत दिखा रहे हैं या फिर वो ढूंढेंगे जो सवाल उठा रहे हैं? यह देखना वाकई दिलचस्प होगा।
मगर अच्छी बात यह है कि पत्रकार बोलने लगे हैं। संपादक को मालूम है कि उसकी समीक्षा हो रही है। वो अपने मातहतों की कसौटी पर कसा जा रहा है। अब तो कारपोरेट जगत में भी यह परिपाटी चली है कि बॉस से मातहत कितने संतुष्ट है? इस सवाल का जवाब व्यक्ति विशेष के बॉस बने रहने की निरंतरता
से जुड़ा होता है। ख़ैर कई बार आप राजनीतिक या निजी गुटबाज़ी के कारण भी हमले करते हैं। न कि पेशेवर कारणों से। सवालों के भी राजनीतिक मायने होते हैं।
मैं भटक रहा हूं। मगर कहना यह चाहता हूं कि ब्लाग से लेकर चौराहों तक पत्रकार अपने पेशे पर सवाल उठा रहे हैं। सवाल इसका नहीं कि हमारा अतीत क्या था और वर्तमान कैसा है? सवाल इसका भी नहीं हमारा मकसद क्या है? सवाल यह है कि हम बेचैन हो रहे हैं या नहीं? तो जवाब है कि हम बेचैन हो रहे हैं। पेशे के अंदर घट रही चीज़ों को लेकर। तभी तो आज हिंदी का पत्रकार खुलकर सवाल उठा रहा है। पत्रकारिता के भीतर यह लोकतंत्र को मज़बूत करने या उसके लिए जगह बनाने जैसा प्रयास है।
बाज़ार हावी रहेगा मगर पत्रकार को भी हावी रहना होगा। भूत प्रेत दिखाने की वजहों पर आ जाना चाहिए। क्या सिर्फ बाज़ार का ही दबाव है या फिर दिखाने वाले की अक्षमता भी। क्यों टीआरपी के दबाव में वह भूतों और सेक्स की कहानियों के अंधेरे में जाता है? क्या उसे अपने समय और समाज की पहचान नहीं रही? ज़ाहिर है भूत प्रेत के बहाने उस पर भी सवाल उठ रहा है। क्या यह कम नहीं कि इन सब उठते सवालों से भूत प्रेत दिखाने वालों की रातों की नींद खराब होती होगी? सम्मान मांगा नहीं जाता कमांड किया जाता है। कहावत अंग्रेजी की है। मगर मतलब सब भाषा के लोग जानते हैं। अच्छी बात यही है कि उनके पद पर रहते यह सब सवाल उठ रहे हैं। दफ्तरों में भी चोरी छुपे लोग बात कर रहे हैं। प्रेस क्लब में भी। ब्लाग पर भी। इसीलिए कहता हूं कि सामंती संपादकों का युग चला गया है। जो संपादक रह कर गए हैं उनमें इसका तत्व रहा है। कुछ नाम क्यों लूं जिनमें नहीं रहा है। कोई मतलब नहीं बनता। आज के संपादक भी बदल रहे होंगे। या इस बदलाव को समझ रहे होंगे। सवाल का उठना बता रहा है कि हिंदी पत्रकारिता का ऐसा प्रश्न काल पहले कभी नहीं रहा। जब पेशे को लेकर इतनी बहसें हो रही हैं। हिंदी के पत्रकारों ने ही बाज़ार बनाया और वही इस पतन का रास्ता ढूंढ लेंगे । देखना होगा कि वही ढूंढेंगे जो भूत प्रेत दिखा रहे हैं या फिर वो ढूंढेंगे जो सवाल उठा रहे हैं? यह देखना वाकई दिलचस्प होगा।
जाम में शाम
मैं किसी शराबी के अड्डे की बात नहीं कर रहा। अपने उस अड्डे की बात कर रहा हूं जहां हर शाम कटती है। दिल्ली के आश्रम से गाज़ीपुर के बीच। जाम में। बेतरतीब और कतार में सरकती कारों के बीच। हार्न की आवाज़ और अंदर चलती एसी की खामोशी के बीच। डेढ़ घंटे के इस जाम में शाम तमाम हो जाती है।
दस किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलती हुई कार चलती कम रूकती ज़्यादा है। पूरा सफर नौकरी की तरह हो जाता है। मंज़िल दिखती नहीं फिर भी चले जा रहे हैं। बीच में कार छोड़ भी नहीं सकते। बगल वाले को देख भी नहीं सकते। तब तक सामने वाली कार खिसक जाती है और पीछे वाली कार हार्न बजाने लगती है।
कार चलती है। कारवां बन जाता है। बैक मिरर से पीछे की कार में बैठे किसी खूसट का चेहरा या फिर किसी सुंदरी का चेहरा दोनों को देखना पीड़ादायक लगता है। पांव की एड़ियां क्लच और ब्रेक पर सताए जाने की पीड़ा कहती भी है तो पांव फैलाकर रक्त संचार बढ़ाने की कोई जगह नहीं होती। काश जाम में कार की छत पर बैठने का इंतज़ाम होता। या कार में कवि सम्मेलन का। बोर हो जाता हूं तो मोबाइल फोन का बैटरी डिस्चार्ज करने लगता हूं। एफएम चैनल सुनते सुनते बंद करता हूं। दो कारों के बीच फंसे बाइक पर पीछे बैठी लड़की। हेल्मेट में सर फंसाए उसका ब्वाय फ्रैंड। संकरी गली खोजते नज़र आते हैं।
निकल जाने के लिए। इसी बीच सरकती कारों को कोई पैदल यात्री हाथ देकर रोकता है। भाई ज़रा और धीरे हो जाओ। धीरे तो हो ही लेकिन मैं सड़क पार कर लूंगा। तभी बगल में आटो में दस बीस लोग धंसे लटके नज़र आते हैं। आगे दिखता नहीं मगर कोशिश करते रहते हैं। जिनके पास स्कार्पियो,सूमो खानदान की कारें होती है वही देख पाते हैं। सरकने की बनती हुई थोड़ी सी जगह। और सरक लेते हैं। उनके पीछे हम भी होते हैं।
आपका ध्यान कहीं और होता है। तभी खिड़की पर कोई नॉक करता है। मैगजीन किताब खरीदेंगे। तो कोई शनि के नाम पर मांग रहा होता है। जीवन के इस कष्ट से मुक्ति पाने के लिए दान देने का भी मन नहीं करता। पता भी नहीं चलता कि जाम में इंतज़ार कर रहे लोग व्यवस्था से नाराज़ होते हैं या नहीं। या सिर्फ घर पहुंचना चाहते हैं। अपनी नियति मानकर। सरकार बदल कर क्या होगा, सड़क तो बदलती नहीं।
सरकना धैर्य का काम है। हम जाम में फंस कर यही सीखते हैं। तरह तरह के नंबर प्लेट। कार के पीछे भगत सिंह की तस्वीर और आसाराम बापू की तस्वीर। मुक्ति के लिए क्रांति और भक्ति का विकल्प। जाम में मिलता है। मेरे पास जाम के कारण किताब पढ़ने का वक्त नहीं है। इसीलिए सोच रहा हूं कि हर शाम जाम को ही पढ़ा जाए।
दस किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलती हुई कार चलती कम रूकती ज़्यादा है। पूरा सफर नौकरी की तरह हो जाता है। मंज़िल दिखती नहीं फिर भी चले जा रहे हैं। बीच में कार छोड़ भी नहीं सकते। बगल वाले को देख भी नहीं सकते। तब तक सामने वाली कार खिसक जाती है और पीछे वाली कार हार्न बजाने लगती है।
कार चलती है। कारवां बन जाता है। बैक मिरर से पीछे की कार में बैठे किसी खूसट का चेहरा या फिर किसी सुंदरी का चेहरा दोनों को देखना पीड़ादायक लगता है। पांव की एड़ियां क्लच और ब्रेक पर सताए जाने की पीड़ा कहती भी है तो पांव फैलाकर रक्त संचार बढ़ाने की कोई जगह नहीं होती। काश जाम में कार की छत पर बैठने का इंतज़ाम होता। या कार में कवि सम्मेलन का। बोर हो जाता हूं तो मोबाइल फोन का बैटरी डिस्चार्ज करने लगता हूं। एफएम चैनल सुनते सुनते बंद करता हूं। दो कारों के बीच फंसे बाइक पर पीछे बैठी लड़की। हेल्मेट में सर फंसाए उसका ब्वाय फ्रैंड। संकरी गली खोजते नज़र आते हैं।
निकल जाने के लिए। इसी बीच सरकती कारों को कोई पैदल यात्री हाथ देकर रोकता है। भाई ज़रा और धीरे हो जाओ। धीरे तो हो ही लेकिन मैं सड़क पार कर लूंगा। तभी बगल में आटो में दस बीस लोग धंसे लटके नज़र आते हैं। आगे दिखता नहीं मगर कोशिश करते रहते हैं। जिनके पास स्कार्पियो,सूमो खानदान की कारें होती है वही देख पाते हैं। सरकने की बनती हुई थोड़ी सी जगह। और सरक लेते हैं। उनके पीछे हम भी होते हैं।
आपका ध्यान कहीं और होता है। तभी खिड़की पर कोई नॉक करता है। मैगजीन किताब खरीदेंगे। तो कोई शनि के नाम पर मांग रहा होता है। जीवन के इस कष्ट से मुक्ति पाने के लिए दान देने का भी मन नहीं करता। पता भी नहीं चलता कि जाम में इंतज़ार कर रहे लोग व्यवस्था से नाराज़ होते हैं या नहीं। या सिर्फ घर पहुंचना चाहते हैं। अपनी नियति मानकर। सरकार बदल कर क्या होगा, सड़क तो बदलती नहीं।
सरकना धैर्य का काम है। हम जाम में फंस कर यही सीखते हैं। तरह तरह के नंबर प्लेट। कार के पीछे भगत सिंह की तस्वीर और आसाराम बापू की तस्वीर। मुक्ति के लिए क्रांति और भक्ति का विकल्प। जाम में मिलता है। मेरे पास जाम के कारण किताब पढ़ने का वक्त नहीं है। इसीलिए सोच रहा हूं कि हर शाम जाम को ही पढ़ा जाए।
पत्रकारिता को ज़िंदा रखने वाले लोग
रामनाथ गोयनका पुरस्कार मिला तो कई मित्रों और शुभचिंतकों का एसएमएस आया। ज़्यादातर में लिखा था कि भूत प्रेत के दौर में मैं कुछ पत्रकारिता कर रहा हूं। मैं कुछ परेशान हूं। मैं तो सिर्फ अपना काम समझ करता रहा हूं। कभी सोचा नहीं कि मेरे काम से पत्रकारिता में कुछ योगदान हो रहा है। मेरा काम भी हर पत्रकारों की तरह ख़राब,औसत और अच्छा होता है । पुरस्कार भी मिला तो लगा कि कुछ किया होगा तो मिला है। शायद मेरी स्टोरी पसंद आई हो। यह कभी नहीं लगा कि जो स्टोरी पसंद आई है और उससे पत्रकारिता में कुछ योगदान हो गया होगा। मैं सिर्फ नौकरी के लिए काम करता हूँ। मेरा काम पत्रकारिता से जोड़ा जाता है तो अच्छी बात है। ये किसी को लगा तो उसकी राय है। मैं सहमत नहीं हूं।
एनडीटीवी का नीतिगत फैसला है कि भूत प्रेत नहीं दिखायेंगे। यह ठीक है कि ऐसी ही सोच मेरी भी है। तमाम मजबूरियों के बीच नहीं मानता कि यही एक विकल्प है कि भूत प्रेत की कहानी बिकती है। न ही किसी दलील से इसके पक्ष में खड़ा हूं। लेकिन एनडीटीवी की इस नीति का लाभ मुझे क्यों मिल रहा है? अगर एनडीटीवी तय कर ले कि भूत प्रेत दिखायेंगे तो हम क्या कर सकते हैं? विरोध या फिर नौकरी की शर्त पर समझौता। विरोध करेंगे तो जायेंगे कहां, वहीं जहां भूत प्रेत दिखाने की छूट है। ज़ाहिर है सारा इंतज़ाम एनडीटीवी ने किया है। हम सिर्फ उसका फायदा उठा रहे हैं। एनडीटीवी ने ऐसे मौके न दिये होते तो दलितों के अपार्टमेंट पर आधे घंटे का कार्यक्रम बनाने का मौका कहां मिलता। मुझे लगता है कि कंपनी को ही श्रेय मिलना चाहिए। ये इस कंपनी की उदारता और महानता है कि वो टीआरपी की दौड़ के बाद भी तमाम तरह की विचलनों के खिलाफ है।
तभी कहता हूं इसका श्रेय हमें नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि हमारी परीक्षा नहीं हुई है। मसलन कि भूत प्रते चलाने का आदेश हो और हम विरोध करें। अपनी रोज़ी रोटी की शर्त पर और सड़क पर। हमारे सामने ऐसे मौके आए ही नहीं हैं। हम एक अनुकूल हालात में काम कर रहे हैं। उनके बारे में पता कीजिए जो अपने चैनलों में भूत प्रेत के खिलाफ आवाज़ उठाते होंगे। ऐसा करने वाले लोग हार कर भी इम्तहान में पास हो रहे हैं। जिन चैनलों में जो लोग भूत प्रेत चला रहे हैं उनका दबाव समझा जाना चाहिए। इतना कहने की छूट तो उन्हें भी मिलनी चाहिए कि वो दिल से भूत प्रेत नहीं चलाना चाहते होंगे। या फिर वो कमज़ोर हैं जो धारा के खिलाफ या नई धारा बनाने की ताकत नहीं रखते।
हिंदी पत्रकारिता अपने भटियारेपन से गुज़र रही है। देखा जाना चाहिए कि क्या यह सब पत्रकारों की नाकामी से हो रहा है। क्या टीआरपी सिर्फ भूत प्रेत से आएगी ? जिस तरह से आजतक ने नकली दवाओं का पर्दाफाश किया उससे टीआरपी, बाज़ार और पत्रकारिता का रास्ता नहीं दिखता? करोड़ों लोगों की ज़िंदगी से समझौता करने वाली नकली दवाईयां। उसे तो दस दिन तक लगातार दिखाना चाहिए। या फिर ऐसी खोजी पत्रकारिता की सीमा है? रोज़ नहीं मिल सकती? रोज़ हासिल करने के लिए भूत तांत्रिकों को लाना होगा?
एक संभावना बची है। हिंदी के पत्रकारों ने ही अपनी मेहनत से टीवी के लिए बाज़ार बनाया। तभी अंग्रेजी और हिंदी चैनल साथ साथ खुलते हैं। हमें याद रखना चाहिए उन तमाम औसत, बेहतर और खराब पत्रकारों को, जिन्होंने रात रात भर जाग कर और भाग कर खबरों का पीछा किया। अंग्रेजी पत्रकार से पहले ख़बरे दीं और अपने ही वर्तमान में अंग्रेजी पत्रकारों के सामने मामूली करार दे दिए गए। उन्हें कोई पूछने तक नहीं आया। बाज़ार की दुनिया में स्टेट्स नहीं बना। उनसे किसी अखबार ने साप्ताहिक कालम लिखने के लिए नहीं कहा। अंग्रेजी के पत्रकारों से कहा। हिंदी और अंग्रेजी ने उनसे पूछा कि आप कालम लिखा करें। ऐसा नहीं कि हिंदी के टीवी पत्रकार किसी से कम है। बल्कि सब उनसे कम हैं। एक चीज़ और हो रही है कि हिंदी पत्रकारिता के संकट पर अंग्रेजी के संपादक बहस कर रहे हैं। रामनाथ गोयनका अवार्ड के दौरान बहस को पढ़िये। सत्रह जुलाई के अखबारों में छपा है। टीवी पर भी आया है। आपको पता चलेगा कि हिंदी के संकट पर बहस कौन कर रहा है? मुझे हिंदी पत्रकारिता के लिए पुरस्कार मिला वो भी रीजनल कैटगरी में।
कई सवाल हैं। इनमें एक चीज़ तो साफ है कि पत्रकारिता स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं रही। तो फिर हम कैसे इसका श्रेय ले सकते हैं। मैं पत्रकारिता के लिए कुछ कर रहा हूं। योगदानों की बात करने वालों से पूछा जाए कि गुटबाज़ी और गैरपेशेवर होती हिंदी पत्रकारिता ने एक दूसरे का कितना नुकसान किया है। एक सर्वे हो जाएं। सबके आंसूओं से सर्वे के सवाल भींग जाएंगे। हां फिर भी आप बधाई देना चाहते हैं तो मुझे स्वीकार करने में कोई हर्ज़ नहीं है। आप सबका धन्यवाद।
एनडीटीवी का नीतिगत फैसला है कि भूत प्रेत नहीं दिखायेंगे। यह ठीक है कि ऐसी ही सोच मेरी भी है। तमाम मजबूरियों के बीच नहीं मानता कि यही एक विकल्प है कि भूत प्रेत की कहानी बिकती है। न ही किसी दलील से इसके पक्ष में खड़ा हूं। लेकिन एनडीटीवी की इस नीति का लाभ मुझे क्यों मिल रहा है? अगर एनडीटीवी तय कर ले कि भूत प्रेत दिखायेंगे तो हम क्या कर सकते हैं? विरोध या फिर नौकरी की शर्त पर समझौता। विरोध करेंगे तो जायेंगे कहां, वहीं जहां भूत प्रेत दिखाने की छूट है। ज़ाहिर है सारा इंतज़ाम एनडीटीवी ने किया है। हम सिर्फ उसका फायदा उठा रहे हैं। एनडीटीवी ने ऐसे मौके न दिये होते तो दलितों के अपार्टमेंट पर आधे घंटे का कार्यक्रम बनाने का मौका कहां मिलता। मुझे लगता है कि कंपनी को ही श्रेय मिलना चाहिए। ये इस कंपनी की उदारता और महानता है कि वो टीआरपी की दौड़ के बाद भी तमाम तरह की विचलनों के खिलाफ है।
तभी कहता हूं इसका श्रेय हमें नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि हमारी परीक्षा नहीं हुई है। मसलन कि भूत प्रते चलाने का आदेश हो और हम विरोध करें। अपनी रोज़ी रोटी की शर्त पर और सड़क पर। हमारे सामने ऐसे मौके आए ही नहीं हैं। हम एक अनुकूल हालात में काम कर रहे हैं। उनके बारे में पता कीजिए जो अपने चैनलों में भूत प्रेत के खिलाफ आवाज़ उठाते होंगे। ऐसा करने वाले लोग हार कर भी इम्तहान में पास हो रहे हैं। जिन चैनलों में जो लोग भूत प्रेत चला रहे हैं उनका दबाव समझा जाना चाहिए। इतना कहने की छूट तो उन्हें भी मिलनी चाहिए कि वो दिल से भूत प्रेत नहीं चलाना चाहते होंगे। या फिर वो कमज़ोर हैं जो धारा के खिलाफ या नई धारा बनाने की ताकत नहीं रखते।
हिंदी पत्रकारिता अपने भटियारेपन से गुज़र रही है। देखा जाना चाहिए कि क्या यह सब पत्रकारों की नाकामी से हो रहा है। क्या टीआरपी सिर्फ भूत प्रेत से आएगी ? जिस तरह से आजतक ने नकली दवाओं का पर्दाफाश किया उससे टीआरपी, बाज़ार और पत्रकारिता का रास्ता नहीं दिखता? करोड़ों लोगों की ज़िंदगी से समझौता करने वाली नकली दवाईयां। उसे तो दस दिन तक लगातार दिखाना चाहिए। या फिर ऐसी खोजी पत्रकारिता की सीमा है? रोज़ नहीं मिल सकती? रोज़ हासिल करने के लिए भूत तांत्रिकों को लाना होगा?
एक संभावना बची है। हिंदी के पत्रकारों ने ही अपनी मेहनत से टीवी के लिए बाज़ार बनाया। तभी अंग्रेजी और हिंदी चैनल साथ साथ खुलते हैं। हमें याद रखना चाहिए उन तमाम औसत, बेहतर और खराब पत्रकारों को, जिन्होंने रात रात भर जाग कर और भाग कर खबरों का पीछा किया। अंग्रेजी पत्रकार से पहले ख़बरे दीं और अपने ही वर्तमान में अंग्रेजी पत्रकारों के सामने मामूली करार दे दिए गए। उन्हें कोई पूछने तक नहीं आया। बाज़ार की दुनिया में स्टेट्स नहीं बना। उनसे किसी अखबार ने साप्ताहिक कालम लिखने के लिए नहीं कहा। अंग्रेजी के पत्रकारों से कहा। हिंदी और अंग्रेजी ने उनसे पूछा कि आप कालम लिखा करें। ऐसा नहीं कि हिंदी के टीवी पत्रकार किसी से कम है। बल्कि सब उनसे कम हैं। एक चीज़ और हो रही है कि हिंदी पत्रकारिता के संकट पर अंग्रेजी के संपादक बहस कर रहे हैं। रामनाथ गोयनका अवार्ड के दौरान बहस को पढ़िये। सत्रह जुलाई के अखबारों में छपा है। टीवी पर भी आया है। आपको पता चलेगा कि हिंदी के संकट पर बहस कौन कर रहा है? मुझे हिंदी पत्रकारिता के लिए पुरस्कार मिला वो भी रीजनल कैटगरी में।
कई सवाल हैं। इनमें एक चीज़ तो साफ है कि पत्रकारिता स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं रही। तो फिर हम कैसे इसका श्रेय ले सकते हैं। मैं पत्रकारिता के लिए कुछ कर रहा हूं। योगदानों की बात करने वालों से पूछा जाए कि गुटबाज़ी और गैरपेशेवर होती हिंदी पत्रकारिता ने एक दूसरे का कितना नुकसान किया है। एक सर्वे हो जाएं। सबके आंसूओं से सर्वे के सवाल भींग जाएंगे। हां फिर भी आप बधाई देना चाहते हैं तो मुझे स्वीकार करने में कोई हर्ज़ नहीं है। आप सबका धन्यवाद।
अख़बारों की युवतियां
हिंदी के अख़बारों का स्वर्ण युग चल रहा है। टीवी को गरियाए जाने के इस काल में अख़बारों को खूब वाक ओवर मिल रहे हैं। मान लिया गया है कि टीवी ख़राब है तो अख़बार ही ठीक है। वैसे मेरी दिलचस्पी मुकाबले में नहीं हैं। सवाल उठाने में हैं।
हिंदी के तमाम अख़बारों का युवती प्रेम समझ नहीं आता। बारिश की फुहारें पड़ रही हों तो भींगती हुई युवती की तस्वीर छपेगी। या भींगने से बचने की कोशिश करती हुई युवतियों की तस्वीर छपेगी। बाकायदा नीचे लिखते भी हैं कि बारिश की पहली फुहार में भींगती युवतियां। जैसे युवकों को फुहारें अच्छी नहीं लगती। आंधी आती हैं तो तस्वीर छपती है। नीचे लिखते हैं- खुद को संभालतीं युवतियां। गर्मी में भी युवतियों की तस्वीरें छपती हैं। कालेज खुलते हैं तो सिर्फ युवतियों की तस्वीरें छपती हैं। सीबीएसई के नतीजे के अगले दिन वाले अख़बार देखिये। तीन चार युवतियों की उछलते हुए तस्वीर होती ही है। जब भी मौसम बदलता है तो युवतियों की तस्वीरें छप जाती हैं। इन तस्वीरों को भी खास नज़र से छापा जाता है। दुपट्टा उड़ता रहे। बारिश से भींगने के बाद बूंदों से लिपटी रहे। कालेज के पहले दिन वैसे कपड़ों वाली युवतियां होती हैं जिनके कपड़े वैसे होते हैं। लेंसमैन को लगता है कि कोई लड़की टॉप में है। जिन्स में है। कहीं से कुछ दिख रहा है तो छाप दो। बस नीचे लिख दो कि तस्वीर में जो मूरत हैं वो युवती है। वो नीता गीता नहीं है।
मैं हर दिन हिंदी अखबारों में युवतियों को देख कर परेशान हो गया हूं। युवकों का भी मन मचलता होगा। युवक भी बारिश में भींगते होंगे। युवक भी कालेज में पहले दिन जाते होंगे। युवक भी सीबीएसई के इम्तहान पास करते होंगे। उनकी तस्वीरें तो छपती ही नहीं। यह मान लेने में हर्ज नहीं कि लड़कियों से सुंदर दुनिया में कुछ नहीं। मगर उस सुंदरता को एक खास नज़र से देखना तो कुंठा ही कहलाती होगी।
मुझे आज तक कोई भी लड़की नहीं मिली जो खुद को युवति कहती हो। मिसाल के तौर पर मैं सपना एक युवती हूं। लड़कियों से लड़की लोग जैसे सामूहिक संबोधन तो सुना है मगर युवती लोग या युवतियां नहीं सुना है। पता नहीं अख़बार में कहां से युवतियां आ जाती हैं। आपको कोई अख़बार का संपादक मिले तो पूछियेगा कि कहीं युवतियों से टीआरपी वाला मकसद तो पूरा नहीं होता। जैसे टीवी में सुंदर चेहरे से कारोबार होता है क्या पता अख़बारों को भी युवतियों के गीले बदन से कुछ मिल जाता होगा। वो बताते ही नहीं। सिर्फ टीवी पर कालम लिख देते हैं।
हिंदी के तमाम अख़बारों का युवती प्रेम समझ नहीं आता। बारिश की फुहारें पड़ रही हों तो भींगती हुई युवती की तस्वीर छपेगी। या भींगने से बचने की कोशिश करती हुई युवतियों की तस्वीर छपेगी। बाकायदा नीचे लिखते भी हैं कि बारिश की पहली फुहार में भींगती युवतियां। जैसे युवकों को फुहारें अच्छी नहीं लगती। आंधी आती हैं तो तस्वीर छपती है। नीचे लिखते हैं- खुद को संभालतीं युवतियां। गर्मी में भी युवतियों की तस्वीरें छपती हैं। कालेज खुलते हैं तो सिर्फ युवतियों की तस्वीरें छपती हैं। सीबीएसई के नतीजे के अगले दिन वाले अख़बार देखिये। तीन चार युवतियों की उछलते हुए तस्वीर होती ही है। जब भी मौसम बदलता है तो युवतियों की तस्वीरें छप जाती हैं। इन तस्वीरों को भी खास नज़र से छापा जाता है। दुपट्टा उड़ता रहे। बारिश से भींगने के बाद बूंदों से लिपटी रहे। कालेज के पहले दिन वैसे कपड़ों वाली युवतियां होती हैं जिनके कपड़े वैसे होते हैं। लेंसमैन को लगता है कि कोई लड़की टॉप में है। जिन्स में है। कहीं से कुछ दिख रहा है तो छाप दो। बस नीचे लिख दो कि तस्वीर में जो मूरत हैं वो युवती है। वो नीता गीता नहीं है।
मैं हर दिन हिंदी अखबारों में युवतियों को देख कर परेशान हो गया हूं। युवकों का भी मन मचलता होगा। युवक भी बारिश में भींगते होंगे। युवक भी कालेज में पहले दिन जाते होंगे। युवक भी सीबीएसई के इम्तहान पास करते होंगे। उनकी तस्वीरें तो छपती ही नहीं। यह मान लेने में हर्ज नहीं कि लड़कियों से सुंदर दुनिया में कुछ नहीं। मगर उस सुंदरता को एक खास नज़र से देखना तो कुंठा ही कहलाती होगी।
मुझे आज तक कोई भी लड़की नहीं मिली जो खुद को युवति कहती हो। मिसाल के तौर पर मैं सपना एक युवती हूं। लड़कियों से लड़की लोग जैसे सामूहिक संबोधन तो सुना है मगर युवती लोग या युवतियां नहीं सुना है। पता नहीं अख़बार में कहां से युवतियां आ जाती हैं। आपको कोई अख़बार का संपादक मिले तो पूछियेगा कि कहीं युवतियों से टीआरपी वाला मकसद तो पूरा नहीं होता। जैसे टीवी में सुंदर चेहरे से कारोबार होता है क्या पता अख़बारों को भी युवतियों के गीले बदन से कुछ मिल जाता होगा। वो बताते ही नहीं। सिर्फ टीवी पर कालम लिख देते हैं।
इंश्योरेंस से मौत
हिंदू अख़बार में पॉल क्रुगमन का कॉलम आता है। १७ जुलाई वाले कॉलम में उन्होंने एक ख़तरनाक विषय पर लिखा है। जिसके बारे में हम ब्लागरों को जागरूकता फैलानी चाहिए। जानकारी हासिल करनी चाहिए।
क्रुगमन लिखते हैं कि अमरीका में इमरजेंसी के वक्त डॉक्टर तुरंत ध्यान नहीं देते हैं। इस मामले में अमरीका दुनिया का सबसे खराब देश है। यानी पायदानों में नीचे। लेखक कहते हैं कि कई बार इंश्योरेंस कंपनियों की साज़िश की वजह से देरी होती है। उन्होंने एक अमरीकी प्रोफेसर का हवाला दिया है। उन्हें कैंसर था। और तुरंत मेडिकल ईलाज की ज़रूरत थी। मगर डॉक्टरों ने जानबूझ कर देरी की। इंश्योरेंस कंपनी ने जानबूझ कर क्लियरेंस देने में देरी की। ताकि उनके महंगे ईलाज के ख़र्चे से बचा जाए। प्रोफेसर साहब गुज़र गए। मगर गुज़रने से पहले ब्लाग पर लिख गए कि ऐसा कई लोगों के साथ हुआ होगा। इसीलिए अमरीका की इंश्योरेंस कंपनियां जल्दी क्लियरेंस के नाम पर टायर टू पालिसी चलाती हैं जिसका प्रीमीयम आम तौर पर बहुत अधिक होता है। यानी देरी के नाम पर कमाई तो कर लेती हैं मगर देरी इसलिए भी करती हैं कि मरीज़ को महंगा ईलाज न कराना पड़े। जो उसके प्रीमीयम से कई गुना हो। यानी उसका मरना इंश्योरेंस कंपनी के हित में हैं।
मुझे लगता है कि ऐसी जानकारी हमें आस पास से जमा करनी चाहिए। हर पाठक को पता लगाना चाहिए। पत्रकार कर सकते हैं मगर दुनिया में सारे काम या बदलाव पत्रकारों की सूचना के आधार पर नहीं होते। अगर कोई इंश्योरेंस कंपनी में काम करने वाला ब्लागर पाठक है तो वो नाम बदल कर ज़्यादा रौशनी डाल सकता
क्रुगमन लिखते हैं कि अमरीका में इमरजेंसी के वक्त डॉक्टर तुरंत ध्यान नहीं देते हैं। इस मामले में अमरीका दुनिया का सबसे खराब देश है। यानी पायदानों में नीचे। लेखक कहते हैं कि कई बार इंश्योरेंस कंपनियों की साज़िश की वजह से देरी होती है। उन्होंने एक अमरीकी प्रोफेसर का हवाला दिया है। उन्हें कैंसर था। और तुरंत मेडिकल ईलाज की ज़रूरत थी। मगर डॉक्टरों ने जानबूझ कर देरी की। इंश्योरेंस कंपनी ने जानबूझ कर क्लियरेंस देने में देरी की। ताकि उनके महंगे ईलाज के ख़र्चे से बचा जाए। प्रोफेसर साहब गुज़र गए। मगर गुज़रने से पहले ब्लाग पर लिख गए कि ऐसा कई लोगों के साथ हुआ होगा। इसीलिए अमरीका की इंश्योरेंस कंपनियां जल्दी क्लियरेंस के नाम पर टायर टू पालिसी चलाती हैं जिसका प्रीमीयम आम तौर पर बहुत अधिक होता है। यानी देरी के नाम पर कमाई तो कर लेती हैं मगर देरी इसलिए भी करती हैं कि मरीज़ को महंगा ईलाज न कराना पड़े। जो उसके प्रीमीयम से कई गुना हो। यानी उसका मरना इंश्योरेंस कंपनी के हित में हैं।
मुझे लगता है कि ऐसी जानकारी हमें आस पास से जमा करनी चाहिए। हर पाठक को पता लगाना चाहिए। पत्रकार कर सकते हैं मगर दुनिया में सारे काम या बदलाव पत्रकारों की सूचना के आधार पर नहीं होते। अगर कोई इंश्योरेंस कंपनी में काम करने वाला ब्लागर पाठक है तो वो नाम बदल कर ज़्यादा रौशनी डाल सकता
माइक थेवर को जानना ज़रूरी है
माइक थेवर। हज़ार शोहरतमंद नामों में एक गुमनाम। मगर काम बेहद ज़रूरी। माइक थेवर वो काम कर रहे हैं जिसकी हिम्मत बड़े बड़े उद्योगतियों को नहीं हो सकी। माइक की एक कंपनी है। अमरीका के फिलाडेलफिया शहर में। १६० करोड़ टर्नओवर वाली कंपनी। माइक ने १५ साल की कड़ी मेहनत से तैयार की है। इसकी एक नीति है जो नई बहस और साहस के लिए प्रेरित करती है।
माइक अपनी कंपनी के लिए सौ फीसदी अफरमेटिव एक्शन के तहत लोगों को नौकरी देते हैं। अफरमेटिव एक्शन यानी जब कंपनी सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े तबके को आगे लाने के लिए नौकरियां देती हैं। अमरीका में सारी बड़ी कंपनियां करती हैं। पत्रकारिता के बड़े अखबार वाशिंगटन पोस्ट में भी अफरमेटिव एक्शन लागू है। यानी तथाकथित मेरिट नहीं होने पर भी नौकरी।
माइक अनुसूचित जाति जनजाति और ओबीसी के लड़कों को नौकरी देते हैं। हाल ही में उन्होंने २५ लड़कों का चयन किया है। इनमें से कोई भी नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखता है। अमरीका न हिंदुस्तान में। लेकिन माइक इन्हें मुंबई में अमरीकन अंग्रेजी की ट्रेनिंग देंगे फिर ले जाएंगे। इससे पहले भी वो १५ लड़कों को नौकरी दे चुके हैं। ये लड़के मुंबई के धारावी के रहने वाले हैं। ज़्याजातर के मां बाप बड़ा पाव बेचने और आटो चलाने वाले हैं। वो अब अपने घर हर महीने पच्चीस हजार भेजते हैं। मां बाप की भी जिंदगी बदल रही है।
ये लड़के भी नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखते थे। इनके चयन की एक ही पात्रता देखी गई...सामाजिक और आर्थिक रुप से सताए हुए तबके की पात्रता। माइक ने इन्हें व्हाईट कालर वाला बना दिया। जिसके लिए कई लोग लाखों खर्चते हैं। डिग्री लेते हैं। फिर कहते हैं हमारे पास मेरिट है। माइक सोचते हैं कि यह सब कुछ नहीं होता। काम का प्रशिक्षण देकर काम कराया जा सकता है। और वो शायद दुनिया की अकेली कंपनी के मालिक हैं जिनकी कंपनी में यह नीति सत्ताईस या बाइस प्रतिशत नहीं बल्कि सौ प्रतिशत लागू है। यानी सारी नौकरी अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़े तबके के कमजोर छात्रों को।
अब माइक कौन हैं। वो केरल के गरीब ओबीसी परिवार के हैं। कई साल पहले इनका परिवार मुंबई के धारावी आ कर रहने लगा। स्लम में। माइक ने खुद बड़ा पाव बेचा है। मुंबई के निर्मला निकेतन से बैचलर इन सोशल साइंस की डिग्री ली। टाटा इंस्टि्यूट आफ सोशल साइंस से मास्टर डिग्री ली। एक दलित लड़की से शादी की। तमाम विरोध के बाद भी। और स्कालरशिप पर अमरीका चले गए। वहां उन्होंने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाली एक कंपनी टेम्प्ट सल्यूशन कायम की। एक काययाब कंपनी। कामयाबी के बाद माइक को एक बड़ी ज़िम्मेदारी का अहसास हुआ। पिछड़े और सताए हुए तबके को लोगों को मौका देना का। जिस समाज से उन्हें मिला वो उसे वापस करना चाहते थे।
फिर उनकी कंपनी की यह लाजवाब नीति सामने हैं। वहां किसी को मेरिट के आधार पर नौकरी नहीं मिलती है। माइक चुनते हैं। चुनते समय ध्यान रखते हैं कि जिसे मौका मिल रहा है उसमें भी सामाजिक प्रतिबद्धता है या नहीं। यानी वो आगे जाकर बाकी को आगे लाने में मदद करेगा या नहीं। माइक जल्दी ही अपनी कंपनी के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों के ऐसे लड़कों को मौका देने की योजना लागू करने वाले हैं।
यह कहानी इसलिए सुनाई कि एक दो रोज पहले भारत के बड़े उद्योगपति प्रधानमंत्री से मिलने गए। वो दो साल से अफरमेटिव एक्शन के नाम पर आना कानी कर रहे हैं। कहते हैं सरकार की बेकार आईटीआई संस्थानों को दीजिए और हम वहां ट्रेनिंग देकर देखेंगे कि ये काम करने लायक है या नहीं। क्यों भई अपने बाप की जमीन पर उद्दोग खड़े किए हैं क्या? तमाम रियायतें, आयात निर्यात नीति में बदलाव, फ्री की ज़मीन और आप दुनिया से कंपीट कर सके उसके लिए सरकार का समर्थन। कोई उद्योग कह दे कि उनकी कामयाबी में इन हिस्सों का योगदान है या नहीं। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि जिन गरीब बच्चों को माइक अमरीका ले जा रहे हैं अपनी कंपनी में नौकरी देने के लिए वो गरीब बच्चे वहां के फुटपाथ या तीसरे दर्जे के होटल में नहीं ठहराये जाते हैं। वो सभी माइक के घर में रहते हैं। इसीलिए कहता हूं माइक थेवर को जानना ज़रूरी
माइक अपनी कंपनी के लिए सौ फीसदी अफरमेटिव एक्शन के तहत लोगों को नौकरी देते हैं। अफरमेटिव एक्शन यानी जब कंपनी सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े तबके को आगे लाने के लिए नौकरियां देती हैं। अमरीका में सारी बड़ी कंपनियां करती हैं। पत्रकारिता के बड़े अखबार वाशिंगटन पोस्ट में भी अफरमेटिव एक्शन लागू है। यानी तथाकथित मेरिट नहीं होने पर भी नौकरी।
माइक अनुसूचित जाति जनजाति और ओबीसी के लड़कों को नौकरी देते हैं। हाल ही में उन्होंने २५ लड़कों का चयन किया है। इनमें से कोई भी नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखता है। अमरीका न हिंदुस्तान में। लेकिन माइक इन्हें मुंबई में अमरीकन अंग्रेजी की ट्रेनिंग देंगे फिर ले जाएंगे। इससे पहले भी वो १५ लड़कों को नौकरी दे चुके हैं। ये लड़के मुंबई के धारावी के रहने वाले हैं। ज़्याजातर के मां बाप बड़ा पाव बेचने और आटो चलाने वाले हैं। वो अब अपने घर हर महीने पच्चीस हजार भेजते हैं। मां बाप की भी जिंदगी बदल रही है।
ये लड़के भी नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखते थे। इनके चयन की एक ही पात्रता देखी गई...सामाजिक और आर्थिक रुप से सताए हुए तबके की पात्रता। माइक ने इन्हें व्हाईट कालर वाला बना दिया। जिसके लिए कई लोग लाखों खर्चते हैं। डिग्री लेते हैं। फिर कहते हैं हमारे पास मेरिट है। माइक सोचते हैं कि यह सब कुछ नहीं होता। काम का प्रशिक्षण देकर काम कराया जा सकता है। और वो शायद दुनिया की अकेली कंपनी के मालिक हैं जिनकी कंपनी में यह नीति सत्ताईस या बाइस प्रतिशत नहीं बल्कि सौ प्रतिशत लागू है। यानी सारी नौकरी अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़े तबके के कमजोर छात्रों को।
अब माइक कौन हैं। वो केरल के गरीब ओबीसी परिवार के हैं। कई साल पहले इनका परिवार मुंबई के धारावी आ कर रहने लगा। स्लम में। माइक ने खुद बड़ा पाव बेचा है। मुंबई के निर्मला निकेतन से बैचलर इन सोशल साइंस की डिग्री ली। टाटा इंस्टि्यूट आफ सोशल साइंस से मास्टर डिग्री ली। एक दलित लड़की से शादी की। तमाम विरोध के बाद भी। और स्कालरशिप पर अमरीका चले गए। वहां उन्होंने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाली एक कंपनी टेम्प्ट सल्यूशन कायम की। एक काययाब कंपनी। कामयाबी के बाद माइक को एक बड़ी ज़िम्मेदारी का अहसास हुआ। पिछड़े और सताए हुए तबके को लोगों को मौका देना का। जिस समाज से उन्हें मिला वो उसे वापस करना चाहते थे।
फिर उनकी कंपनी की यह लाजवाब नीति सामने हैं। वहां किसी को मेरिट के आधार पर नौकरी नहीं मिलती है। माइक चुनते हैं। चुनते समय ध्यान रखते हैं कि जिसे मौका मिल रहा है उसमें भी सामाजिक प्रतिबद्धता है या नहीं। यानी वो आगे जाकर बाकी को आगे लाने में मदद करेगा या नहीं। माइक जल्दी ही अपनी कंपनी के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों के ऐसे लड़कों को मौका देने की योजना लागू करने वाले हैं।
यह कहानी इसलिए सुनाई कि एक दो रोज पहले भारत के बड़े उद्योगपति प्रधानमंत्री से मिलने गए। वो दो साल से अफरमेटिव एक्शन के नाम पर आना कानी कर रहे हैं। कहते हैं सरकार की बेकार आईटीआई संस्थानों को दीजिए और हम वहां ट्रेनिंग देकर देखेंगे कि ये काम करने लायक है या नहीं। क्यों भई अपने बाप की जमीन पर उद्दोग खड़े किए हैं क्या? तमाम रियायतें, आयात निर्यात नीति में बदलाव, फ्री की ज़मीन और आप दुनिया से कंपीट कर सके उसके लिए सरकार का समर्थन। कोई उद्योग कह दे कि उनकी कामयाबी में इन हिस्सों का योगदान है या नहीं। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि जिन गरीब बच्चों को माइक अमरीका ले जा रहे हैं अपनी कंपनी में नौकरी देने के लिए वो गरीब बच्चे वहां के फुटपाथ या तीसरे दर्जे के होटल में नहीं ठहराये जाते हैं। वो सभी माइक के घर में रहते हैं। इसीलिए कहता हूं माइक थेवर को जानना ज़रूरी
हे दुखभंजन मारुतिनंदन...जय हनुमान
कल्याण (गीता प्रेस) का एक अंक है हनुमान। इस अंक में हनुमान कथा की विस्तृत जानकारी है। हनुमान में मेरी दिलचस्पी इसलिए भी हुई है कि वाक् पत्रिका में अभय कुमार दूबे ने हनुमान पूजा पर ग़ज़ब का एक लेख लिखा है। जानकारी से भरपूर। तब से मैं और अधिक जानकारी चाहता हूं। हनुमान जी के बारे में। कल्याण में कुछ पंक्तियां मिलीं जो मैं यहां आपके सामने रखना चाहता हूं।
हनुमान और रावण के राक्षसों के बीच संवाद हो रहा है। उसी प्रसंग पर यह संवाद हनुमान विशेषांक में छपित है। यानी छपा हुआ है।
हनुमान- याद रखो, मैं वासुदेव का पुत्र होने के कारण उतनी ही बलवान भी हूं।
राक्षस- अजी, और कहीं यह डींग हांको, पता भी है- यह रावण की लंका है, जिसमें सभी देव-दानव-मानव थर्राते हैं?
हनुमान- होगी, हमें इसकी चिंता नहीं है। एक क्या हज़ारों रावण भी अकेले मेरे सामने नहीं टिक सकते।
राक्षस- रावण के पास तोप, टैंक, मशीनगन एटमबम. हाइड्रोजन बम, राकेट आदि हैं, तुम्हारे पास तो कुछ नहीं।
हनुमान- ये सब के सब धरे रह जाएंगे। जब मैं पर्वतों, पर्वत शिलाओं, वृक्षों.महावृक्षों से प्रहार करने लगूंगा तो सृष्टि उलट-पलट हो जायेगी।
रोचक संवाद है। कल्याण के अंक में यह नहीं लिखा है कि कब का छपा है। खैर किस तरह से भक्ति मानस में आधुनिक चीज़ें चली आ रही हैं। शुक्र है इस संवाद में हनुमान जी कुछ भी ऐसा नहीं बोल रहे। वो अपने समय की क्षमता की ही घोषणा कर रहे हैं। मगर ये राक्षस तो....क्या कहें...मशीनगन और हाइड्रोजन बम?
खैर इसी विशेषांक में कई रोगों के उपचार भी दिए गए हैं। इन मंत्रों के जाप से दूर हो सकते हैं। मैंने कोशिश नहीं की है। आप चाहें तो कर सकतें हैं। मगर वैध से पूछ लीजिएगा। कहीं रिएक्शन न हो जाए।
१- नेत्ररोग- शमन के लिए
मंत्र-- ओम नमो वने विआई बानरी जहां जहां हनुवन्त आंखि पीड़ा कषावरि गिहिया थनै लाइ चरिउ जाई भस्मन्तन गुरु की शक्ति मेरी भक्ति फुरो मंत्र इश्वरो वाचा।।
- कहा गया है कि आंख पर हाथ फेरते हुए सात बार मंत्र पढ़कर फूंके। व्यथा दूर हो जाएगी।
२- टीवी पर भूत प्रते का आतंक है। भूत प्रेत कवर करने वाले रिपोर्टरों के लिए यह मंत्र लाभदायक हो सकता है। फ्री में दे रहा हूं। हनुमान विशेषांक की मदद से।
मंत्र-
(बांधो भूत जहां तु उपजो छाड़ों गिरे पर्वत चढ़ाई सर्ग दुहेली तुजभि झिलिमिलाहि हुंकारे हनुवन्त पचारइ भीमा जरि जारि-जारि भस्क करे जौं तापें सींउ)
कितनी बार जाप करना है यह नहीं लिखा है। लगता है एक बार जाप करना ही काफी होगा। भूत भाग जाएंगे।
नोट- मैंने अपनी तरफ से कुछ नहीं कहा है। आस्था का मामला है। गीता प्रेस की जानकारी पर कोई सवाल नहीं खड़े कर सकता।
हनुमान और रावण के राक्षसों के बीच संवाद हो रहा है। उसी प्रसंग पर यह संवाद हनुमान विशेषांक में छपित है। यानी छपा हुआ है।
हनुमान- याद रखो, मैं वासुदेव का पुत्र होने के कारण उतनी ही बलवान भी हूं।
राक्षस- अजी, और कहीं यह डींग हांको, पता भी है- यह रावण की लंका है, जिसमें सभी देव-दानव-मानव थर्राते हैं?
हनुमान- होगी, हमें इसकी चिंता नहीं है। एक क्या हज़ारों रावण भी अकेले मेरे सामने नहीं टिक सकते।
राक्षस- रावण के पास तोप, टैंक, मशीनगन एटमबम. हाइड्रोजन बम, राकेट आदि हैं, तुम्हारे पास तो कुछ नहीं।
हनुमान- ये सब के सब धरे रह जाएंगे। जब मैं पर्वतों, पर्वत शिलाओं, वृक्षों.महावृक्षों से प्रहार करने लगूंगा तो सृष्टि उलट-पलट हो जायेगी।
रोचक संवाद है। कल्याण के अंक में यह नहीं लिखा है कि कब का छपा है। खैर किस तरह से भक्ति मानस में आधुनिक चीज़ें चली आ रही हैं। शुक्र है इस संवाद में हनुमान जी कुछ भी ऐसा नहीं बोल रहे। वो अपने समय की क्षमता की ही घोषणा कर रहे हैं। मगर ये राक्षस तो....क्या कहें...मशीनगन और हाइड्रोजन बम?
खैर इसी विशेषांक में कई रोगों के उपचार भी दिए गए हैं। इन मंत्रों के जाप से दूर हो सकते हैं। मैंने कोशिश नहीं की है। आप चाहें तो कर सकतें हैं। मगर वैध से पूछ लीजिएगा। कहीं रिएक्शन न हो जाए।
१- नेत्ररोग- शमन के लिए
मंत्र-- ओम नमो वने विआई बानरी जहां जहां हनुवन्त आंखि पीड़ा कषावरि गिहिया थनै लाइ चरिउ जाई भस्मन्तन गुरु की शक्ति मेरी भक्ति फुरो मंत्र इश्वरो वाचा।।
- कहा गया है कि आंख पर हाथ फेरते हुए सात बार मंत्र पढ़कर फूंके। व्यथा दूर हो जाएगी।
२- टीवी पर भूत प्रते का आतंक है। भूत प्रेत कवर करने वाले रिपोर्टरों के लिए यह मंत्र लाभदायक हो सकता है। फ्री में दे रहा हूं। हनुमान विशेषांक की मदद से।
मंत्र-
(बांधो भूत जहां तु उपजो छाड़ों गिरे पर्वत चढ़ाई सर्ग दुहेली तुजभि झिलिमिलाहि हुंकारे हनुवन्त पचारइ भीमा जरि जारि-जारि भस्क करे जौं तापें सींउ)
कितनी बार जाप करना है यह नहीं लिखा है। लगता है एक बार जाप करना ही काफी होगा। भूत भाग जाएंगे।
नोट- मैंने अपनी तरफ से कुछ नहीं कहा है। आस्था का मामला है। गीता प्रेस की जानकारी पर कोई सवाल नहीं खड़े कर सकता।
न्यू भगवान शनि
शनि महाराज कहे जाते थे। इनकी वक्र दृष्टि से भय खाये लोग महाराज कह कर बुलाया करते थे। देव की श्रेणी में नहीं माने जाते थे इसलिए इन्हें महाराज कहकर काम चलाते रहे। मगर ज़माना बदला है। बल्कि कहें कि शनि का ज़माना आया है। शनि महाराज से भगवान हो गए हैं। हमारी धार्मिक आस्था
परंपरा में शनि की कभी स्वतंत्र हैसियत नहीं रही। उनकी नाराज़गी का बटन हनुमान के हाथ में माना जाता रहा। मसलन शनि खराब हैं...या शनि ढैया या साढ़े साती नुमा कोई चाल रहा है तो हनुमान जी की शरण में जाओ। शनि से कोई बचा सकता है तो सिर्फ हनुमान ही। मगर शनि हनुमान के बराबर हो रहे हैं। वो लोकप्रिय हो रहे हैं।
शनि अमावस्या नया त्योहार बन रहा है। लोग उस दिन व्रत रख रहे हैं। दिल्ली के शनिधाम में शनि पूजा की अलग विधि है। वहां के कार्यकर्ता ने बताया कि चूंकि लोग नए भक्त बने हैं इसलिए पूजा कैसे और कहां करनी है उसे बताने के लिए जनसंपर्क अधिकारी रखा गया है। कार्यकर्ता ने कहा कि लोग पहचाने भी नहीं कि शनि की मूर्ति या तस्वीर कैसी होती है। लिहाज़ा प्रसाद कहीं और चढ़ा देते हैं। शनि के भक्त काले लिबास में घूमते नजर आते हैं। वो समझा रहे हैं कि शनि शत्रु नहीं है। वो तो दोस्त है। उससे भागो मत उसके पास जाओ। एक कैंपेन यानी अभियान चल रहा है कि शनि के प्रति नज़रिया बदलने का।
हमने दिल्ली के शनिधाम के संस्थापक पंडित मदन लाल राजस्थानी से पूछा कि शनि की पूजा होने लगेगी तो हनुमान जी का क्या होगा। वैसे हनुमान की पूजा कई कारणों से होती है। मगर एक बड़ा कारण तो शनि भी है। अक्सर ज्योतिष भय दिखाते रहे हैं कि शनि नाराज़ है, हनुमान की पूजा करो। अब कहा जा रहा है कि शनि नाराज़ है तो शनि की ही पूजा करो। राजस्थानी जी से हमारा सवाल यही था। उनका जवाब साफ नहीं था। उन्होंने कहा कि भई मेरे शनिधाम में हनुमान की पांच प्रतिमाएं हैं। दोनों साथ साथ रह सकते हैं। दरअसल ठीक ही कर रहे होंगे। याद कीजिए उन फिल्मी दृश्यों को जिसमें रावण एक कोठरी में शनि को बांध कर रखता था। शनि की वक्र दृष्टि के कारण ही उसका नाश हो गया। डर की व्याख्या यहीं से शुरू होती है। तो क्या शनि ने हनुमान जी का काम आसान कर दिया? रावण की ग्रह दशा खराब कर। तभी राजस्थानी जी कहते हैं कि शनि और हनुमान में टकराव नहीं है। वो एक दूसरे की मदद करते हैं।
हमारी आस्था संसार रचना में करोड़ों देवी देवताओं के लिए जगह है। भक्त सारे भगवानों से बना कर रखता है। उसका दिल बड़ा है। इसलिए शनि जैसे नए देव को हनुमान का कंपटीटर नहीं समझा जाना चाहिए। राजस्थानी जी ज़ोर देते हैं। वैसे भी टीवी पर काले लिबास में शनि के प्रवक्ता के रूप में राजस्थानी जी ही दिखते हैं। कोई दस साल से वो शनि को दोस्त बनाने के लिए अभियान चला रहे हैं।
शनि के नए भक्त कहते हैं शनि इफेक्टिव है। असरदार हैं। दिल्ली के एक करोड़पति व्यावसायी ने बताया कि शनि से अच्छा कोई भगवान नहीं। वो सबसे अच्छा है। दोस्त है। वो सारे भगवानों की छुट्टी कर देगा। वो शनि फ्रेड्स के नाम से एक वेबसाईट बनाने की योजना बना रहे हैं। मैंने स्पेशल रिपोर्ट के सिलसिले में इन भक्तों से बात की थी। जो हाल के दिनों में शनि की पूजा करने लगे हैं।
एक विद्वान ने कहा कि शनि का भय दिखा कर उसे लोकप्रिय किया जा रहा है। शनि की पूजा तो होती रही है। दान दिया जाता रहा है। हमने भी शनिधाम में एक निरतंर घोषणा सुनी। शनि अगर प्रसन्न हो जाए तो रंक को राजा बना देता है। शनि अगर प्रतिकूल हो जाए तो राजा को रंक बना देता है। भला बताइये कौन जोखिम लेगा। एक तो शेयर बाज़ार का ठिकाना नहीं ऊपर से शनि को और दुश्मन बना लो। भक्ति करेंगे कि नहीं। लेकिन शनि पुजारी की दलील भी कम दिलचस्प नहीं। वो कहते हैं ज्योतिष भी तो शनि का भय दिखाता है। साढ़े साती आ गई तो नाश हो जाएगा। यानी सब एक दूसरे के भय का दोहन कर रहे होंगे।
अब कारोबार भी हो रहा है। हर तरफ शनि मंदिर खुल रहे हैं। करोलबाग के एक मंदिर प्रबंधक ने बनाया कि हाल के दिनों में बाकी भगवानों के लिए मंदिर में आने वाले भक्तों की संख्या कम हुई है। भक्त मांग कर रहे थे कि शनि मंदिर बनाओ वर्ना वो दूर के दूसरे मंदिर में जाने लगेंगे। प्रबंधक के कहा कि अपने मंदिर की लोकप्रियता को बनाए रखने के लिए अलग से शनि का कमरा बनवाना पड़ा। लेकिन बना मंदिर के दरवाजे के बाहर। भीतर नहीं जहां दुर्गीजी, गणेश जी और शिवजी की प्रतिमाएं हैं। इसीलिए अब शनि के नए मंदिर बन रहे हैं। जहां आने वाले भक्तों की भीड़ हनुमानजी के भक्तों से अधिक होती जा रही है।
शनि जागरण जागरण संस्कृति में नया आइटम है। शनि के कैसेट चालीसा सब निकल रहे हैं। राजौरी गार्डन के एक आयोजन ने बहुत अच्छी व्याख्या दी। पहले हमारे देश में लकड़ी का इस्तमाल होता था। लकड़ी की बैलगाड़ी, रथ, दरवाज़े। अब लोहे का इस्तमाल होता है। मकान, पुल, कार, दरवाजे सब लोहे के बने होते हैं। और लोहे का संबंध शनि से है। इसलिए भी लोग शनि के भक्त हो रहे हैं। मनमोहन की उदार आर्थिक नीतियों का कमाल होगा कि शनि को जगह मिल रही है।
एक ज़माना था जब प्रशासन हनुमान जी से ड़रा करता था। हनुमान शत्रुनाशक देव के रूप में भी प्रतिष्ठत हैं। दफ्तरों में शत्रु ही शत्रु होते हैं। लिहाज़ा दफ्तर जाने वालों में हनुमान के प्रति असीम भक्ति देखी जा सकती है। कई लोग भगवान के ज़रिये शत्रुओं को निपटाने की अभिलाषा रखते हैं। दिल्ली के पुष्प विहार में एक हनुमान का मंदिर है। दिल्ली नगर निगम वाले जब तक अतिक्रमण के नाम पर तोड़ देते थे। मंदिर के पुजारी ने बताया कि बनवाते बनवाते परेशान हो गया। बस बगल में शनि का मंदिर बनवा दिया। नतीजा नगर निगम वालों ने रास्ता बदल लिया। ध्यान कीजिए कि हाल के दिनों में कई शहरों में सड़क चौराहे से हनुमान मंदिर गिरा दिया जाता है। अफसर हनुमान से कम डरते हैं। लगता है कि वर्षो की भक्ति के बाद दफ्तरों में शत्रु उत्पादन में कमीं नहीं आई। लेकिन शनि मंदिर के पास फटकने की किसी की हिम्मत नहीं होती। पुष्प विहार के मंदिर में अब हनुमान को शनि का सहारा मिल गया है। भक्तों की संख्या बढ़ने लगी है।
सामाजिक धार्मिक राजनीतिक प्रक्रियाओं में समय समय पर भगवानों का ज़ोर बढ़ा है। लेकिन शनि का उदय इन सबमें अलग है। जो तिरस्कृत था वो आज समादरित है। अब दो ही बात होने जा रही है। आने वाले दस साल में। शनि के भक्तों की संख्या बढ़ेगी। शत्रुनाशक हनुमान की कम होगी। शनि शत्रुनाशक के रूप में प्रतिष्ठित किये जा रहे हैं। लाखों लोग अब शनि की पूजा करने लगे हैं। यह भी ठीक है। शत्रुओं का विनाश करने के लिए साप्ताहिक, दैनिक और स्थायी देव तो हनुमान ही हैं। एक हनुमान जी पर कितना दबाव रहता होगा। अब शत्रुविनाशक के रूप में शनि के आ जाने पर दो दो भगवान हो जाएंगे।
यानी दुनिया भर के दुश्मन सावधान हो जाएं। उनके नाश के लिए शनि और हनुमान दो दो भगवान आ चुके हैँ। हमारी भक्ति की कोई सीमा नहीं। इसी खूबी के कारण देर से ही सही शनि प्रतिष्ठित हो रहे हैं। बस आप शनि को शत्रु न समझें। उसके करीब जाइये। आस्तिक है तो ठीक। नास्तिक हैं तो कोई बात नहीं।
परंपरा में शनि की कभी स्वतंत्र हैसियत नहीं रही। उनकी नाराज़गी का बटन हनुमान के हाथ में माना जाता रहा। मसलन शनि खराब हैं...या शनि ढैया या साढ़े साती नुमा कोई चाल रहा है तो हनुमान जी की शरण में जाओ। शनि से कोई बचा सकता है तो सिर्फ हनुमान ही। मगर शनि हनुमान के बराबर हो रहे हैं। वो लोकप्रिय हो रहे हैं।
शनि अमावस्या नया त्योहार बन रहा है। लोग उस दिन व्रत रख रहे हैं। दिल्ली के शनिधाम में शनि पूजा की अलग विधि है। वहां के कार्यकर्ता ने बताया कि चूंकि लोग नए भक्त बने हैं इसलिए पूजा कैसे और कहां करनी है उसे बताने के लिए जनसंपर्क अधिकारी रखा गया है। कार्यकर्ता ने कहा कि लोग पहचाने भी नहीं कि शनि की मूर्ति या तस्वीर कैसी होती है। लिहाज़ा प्रसाद कहीं और चढ़ा देते हैं। शनि के भक्त काले लिबास में घूमते नजर आते हैं। वो समझा रहे हैं कि शनि शत्रु नहीं है। वो तो दोस्त है। उससे भागो मत उसके पास जाओ। एक कैंपेन यानी अभियान चल रहा है कि शनि के प्रति नज़रिया बदलने का।
हमने दिल्ली के शनिधाम के संस्थापक पंडित मदन लाल राजस्थानी से पूछा कि शनि की पूजा होने लगेगी तो हनुमान जी का क्या होगा। वैसे हनुमान की पूजा कई कारणों से होती है। मगर एक बड़ा कारण तो शनि भी है। अक्सर ज्योतिष भय दिखाते रहे हैं कि शनि नाराज़ है, हनुमान की पूजा करो। अब कहा जा रहा है कि शनि नाराज़ है तो शनि की ही पूजा करो। राजस्थानी जी से हमारा सवाल यही था। उनका जवाब साफ नहीं था। उन्होंने कहा कि भई मेरे शनिधाम में हनुमान की पांच प्रतिमाएं हैं। दोनों साथ साथ रह सकते हैं। दरअसल ठीक ही कर रहे होंगे। याद कीजिए उन फिल्मी दृश्यों को जिसमें रावण एक कोठरी में शनि को बांध कर रखता था। शनि की वक्र दृष्टि के कारण ही उसका नाश हो गया। डर की व्याख्या यहीं से शुरू होती है। तो क्या शनि ने हनुमान जी का काम आसान कर दिया? रावण की ग्रह दशा खराब कर। तभी राजस्थानी जी कहते हैं कि शनि और हनुमान में टकराव नहीं है। वो एक दूसरे की मदद करते हैं।
हमारी आस्था संसार रचना में करोड़ों देवी देवताओं के लिए जगह है। भक्त सारे भगवानों से बना कर रखता है। उसका दिल बड़ा है। इसलिए शनि जैसे नए देव को हनुमान का कंपटीटर नहीं समझा जाना चाहिए। राजस्थानी जी ज़ोर देते हैं। वैसे भी टीवी पर काले लिबास में शनि के प्रवक्ता के रूप में राजस्थानी जी ही दिखते हैं। कोई दस साल से वो शनि को दोस्त बनाने के लिए अभियान चला रहे हैं।
शनि के नए भक्त कहते हैं शनि इफेक्टिव है। असरदार हैं। दिल्ली के एक करोड़पति व्यावसायी ने बताया कि शनि से अच्छा कोई भगवान नहीं। वो सबसे अच्छा है। दोस्त है। वो सारे भगवानों की छुट्टी कर देगा। वो शनि फ्रेड्स के नाम से एक वेबसाईट बनाने की योजना बना रहे हैं। मैंने स्पेशल रिपोर्ट के सिलसिले में इन भक्तों से बात की थी। जो हाल के दिनों में शनि की पूजा करने लगे हैं।
एक विद्वान ने कहा कि शनि का भय दिखा कर उसे लोकप्रिय किया जा रहा है। शनि की पूजा तो होती रही है। दान दिया जाता रहा है। हमने भी शनिधाम में एक निरतंर घोषणा सुनी। शनि अगर प्रसन्न हो जाए तो रंक को राजा बना देता है। शनि अगर प्रतिकूल हो जाए तो राजा को रंक बना देता है। भला बताइये कौन जोखिम लेगा। एक तो शेयर बाज़ार का ठिकाना नहीं ऊपर से शनि को और दुश्मन बना लो। भक्ति करेंगे कि नहीं। लेकिन शनि पुजारी की दलील भी कम दिलचस्प नहीं। वो कहते हैं ज्योतिष भी तो शनि का भय दिखाता है। साढ़े साती आ गई तो नाश हो जाएगा। यानी सब एक दूसरे के भय का दोहन कर रहे होंगे।
अब कारोबार भी हो रहा है। हर तरफ शनि मंदिर खुल रहे हैं। करोलबाग के एक मंदिर प्रबंधक ने बनाया कि हाल के दिनों में बाकी भगवानों के लिए मंदिर में आने वाले भक्तों की संख्या कम हुई है। भक्त मांग कर रहे थे कि शनि मंदिर बनाओ वर्ना वो दूर के दूसरे मंदिर में जाने लगेंगे। प्रबंधक के कहा कि अपने मंदिर की लोकप्रियता को बनाए रखने के लिए अलग से शनि का कमरा बनवाना पड़ा। लेकिन बना मंदिर के दरवाजे के बाहर। भीतर नहीं जहां दुर्गीजी, गणेश जी और शिवजी की प्रतिमाएं हैं। इसीलिए अब शनि के नए मंदिर बन रहे हैं। जहां आने वाले भक्तों की भीड़ हनुमानजी के भक्तों से अधिक होती जा रही है।
शनि जागरण जागरण संस्कृति में नया आइटम है। शनि के कैसेट चालीसा सब निकल रहे हैं। राजौरी गार्डन के एक आयोजन ने बहुत अच्छी व्याख्या दी। पहले हमारे देश में लकड़ी का इस्तमाल होता था। लकड़ी की बैलगाड़ी, रथ, दरवाज़े। अब लोहे का इस्तमाल होता है। मकान, पुल, कार, दरवाजे सब लोहे के बने होते हैं। और लोहे का संबंध शनि से है। इसलिए भी लोग शनि के भक्त हो रहे हैं। मनमोहन की उदार आर्थिक नीतियों का कमाल होगा कि शनि को जगह मिल रही है।
एक ज़माना था जब प्रशासन हनुमान जी से ड़रा करता था। हनुमान शत्रुनाशक देव के रूप में भी प्रतिष्ठत हैं। दफ्तरों में शत्रु ही शत्रु होते हैं। लिहाज़ा दफ्तर जाने वालों में हनुमान के प्रति असीम भक्ति देखी जा सकती है। कई लोग भगवान के ज़रिये शत्रुओं को निपटाने की अभिलाषा रखते हैं। दिल्ली के पुष्प विहार में एक हनुमान का मंदिर है। दिल्ली नगर निगम वाले जब तक अतिक्रमण के नाम पर तोड़ देते थे। मंदिर के पुजारी ने बताया कि बनवाते बनवाते परेशान हो गया। बस बगल में शनि का मंदिर बनवा दिया। नतीजा नगर निगम वालों ने रास्ता बदल लिया। ध्यान कीजिए कि हाल के दिनों में कई शहरों में सड़क चौराहे से हनुमान मंदिर गिरा दिया जाता है। अफसर हनुमान से कम डरते हैं। लगता है कि वर्षो की भक्ति के बाद दफ्तरों में शत्रु उत्पादन में कमीं नहीं आई। लेकिन शनि मंदिर के पास फटकने की किसी की हिम्मत नहीं होती। पुष्प विहार के मंदिर में अब हनुमान को शनि का सहारा मिल गया है। भक्तों की संख्या बढ़ने लगी है।
सामाजिक धार्मिक राजनीतिक प्रक्रियाओं में समय समय पर भगवानों का ज़ोर बढ़ा है। लेकिन शनि का उदय इन सबमें अलग है। जो तिरस्कृत था वो आज समादरित है। अब दो ही बात होने जा रही है। आने वाले दस साल में। शनि के भक्तों की संख्या बढ़ेगी। शत्रुनाशक हनुमान की कम होगी। शनि शत्रुनाशक के रूप में प्रतिष्ठित किये जा रहे हैं। लाखों लोग अब शनि की पूजा करने लगे हैं। यह भी ठीक है। शत्रुओं का विनाश करने के लिए साप्ताहिक, दैनिक और स्थायी देव तो हनुमान ही हैं। एक हनुमान जी पर कितना दबाव रहता होगा। अब शत्रुविनाशक के रूप में शनि के आ जाने पर दो दो भगवान हो जाएंगे।
यानी दुनिया भर के दुश्मन सावधान हो जाएं। उनके नाश के लिए शनि और हनुमान दो दो भगवान आ चुके हैँ। हमारी भक्ति की कोई सीमा नहीं। इसी खूबी के कारण देर से ही सही शनि प्रतिष्ठित हो रहे हैं। बस आप शनि को शत्रु न समझें। उसके करीब जाइये। आस्तिक है तो ठीक। नास्तिक हैं तो कोई बात नहीं।
नोट पर अंबेडकर
दिल्ली विश्वविद्यालय का एक कालेज है हिंदू कालेज। वहां इतिहास के एक लेक्चरर हैं रतन लाल। मेरे मित्र भी। रतन दलित आत्मविश्वास और सवर्ण समझ के बीच पुल बनाने का काम कर रहे हैं।
रतन का एक प्रस्ताव पर मैं चौंक गया। उनका कहना है कि भारतीय नोट पर महात्मा गांधी के अलावा अंबेडकर की भी तस्वीर होनी चाहिए। उनकी दलील है कि जब अंबेडकर की तस्वीर होगी तो हम सब उनका सम्मान करेंगे। मूर्तियां तो तोड़ी जा सकेंगी मगर नोट कोई नहीं फाड़ेगा। अंबेडकर हर किसी की जेब और पर्स में रहेंगे। लोग संभाल कर अपने ऊपर की जेब में रखेंगे। अंबेडकर को करीब और महत्व से रखने की यह आदत हर तबके में होगी। उनकी प्रतिमा का अनावरण बंद होना चाहिए और नोट पर तस्वीर छाप कर उनकी मौजूदगी घर घर और हर जेब में बढ़ानी चाहिए। ऐसा हो सकता है क्योंकि एक रुपये से लेकर एक हज़ार तक के नोट में आधे या वैकल्पिक तौर पर अंबेडकर की तस्वीर छप सकती है।
रतन लाल का कहना है कि शादी या धार्मिक कर्मकांड में जब पंडित दक्षिणा या चढ़ावे के लिए नोट मांगेगा तो जजमान गर्व से पंडित के हाथ में अंबेडकर की तस्वीर वाले नोट को थमा देगा। उसकी हिचक खत्म हो जाएगी। अंबेडकर की स्वीकार्यता कर्मकांडों से लेकर बचत योजनाओं तक में होगी। लोग अपने आप अंबेडकर का सम्मान करना सीख जाएंगे। या फिर अंबेडकर से सामान्य हो जाएंगे।
एक सवाल स्वाभाविक है कि क्या गांधी की तस्वीर होने से उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है? उनका सम्मान बढ़ा है? तो जवाब में यही कहा जा सकता है कि गांधी और अंबेडकर में फर्क है। गांधी की स्वीकार्यता को लेकर कोई विवाद नहीं। यह भी ठीक है कि लोग गांधी के आदर्श को भूल चुके हैं। लेकिन अंबेडकर की स्वीकार्यता खासकर सामाजिक नहीं बनी है। किसी सवर्ण के घर में अंबेडकर की तस्वीर देखी है? अब तो कोई किसी की तस्वीर नहीं रखता मगर जब रखते थे क्या तब रखते थे? अंबेडकर राजनीतिक रूप से अपरिहार्य हैं। उनकी राजनीतिक सोच आंदोलन है। फार्मूला भी। तो क्या ब्राह्मण दलित गठबंधन की तरह अंबेडकर को भी स्वीकार्य नहीं बनाना चाहिए? क्या यह कदम सांकेतिक तौर पर मदद नहीं करेगा?
क्या उनका सोचना ठीक है? गुरुवार को दिल्ली में रतन एक प्रेस कांफ्रेस कर इसकी जानकारी देने वाले हैं। कई सांसदों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया है। आप ब्लाग पाठकों का क्या कहना है? रतन उन दलित चिंतकों में से हैं जो यह मानते हैं कि मायावती भ्रष्टाचार के ज़रिये दलित उत्कर्ष का प्रतीक नहीं बन सकती। मायावती का योगदान सराहनीय है मगर दलित आंदोलन कभी इतना खोखला नहीं रहा कि वो भ्रष्टाचार से कमाए पैसे से धनवान बनी एक नेता का सम्मान करे। रतन दलित आंदोलन को नए नज़रिये से समझने की कोशिश कर रहे हैं।
उनका एक प्रस्ताव यह भी है कि जिस तरह से टैक्स छूट में महिलाओं को रियायत दी गई है उसी तरह से दलितों को भी विशेष छूट मिलनी चाहिए। उनका कहना है कि इसका लाभ सवर्ण समाज को होगा। सरकारी नौकरी कम होने से दलितों के पास नौकरी के अवसर कम हैं। लिहाज़ा उनके परिवारों में पूंजी निर्माण नहीं हो रहा। टैक्स छूट मामूली रूप से पूंजी निर्माण में मदद करेगा। दलित का आर्थिक आत्मविश्वास बढ़ेगा और बड़े समाज के साथ आर्थिक संवाद भी।
क्या आपको लगता है कि रतन ठीक सोच रहे हैं? क्या नोट पर अंबेडकर की तस्वीर होनी चाहिए? कई बार सांकेतिक बदलाव भी महत्वपूर्ण होते हैं? तो क्या इससे सांकेतिक तौर पर ही सही कोई फर्क पड़ेगा? क्या टैक्स छूट से दलितों को विशेष आर्थिक लाभ होगा?
रतन का एक प्रस्ताव पर मैं चौंक गया। उनका कहना है कि भारतीय नोट पर महात्मा गांधी के अलावा अंबेडकर की भी तस्वीर होनी चाहिए। उनकी दलील है कि जब अंबेडकर की तस्वीर होगी तो हम सब उनका सम्मान करेंगे। मूर्तियां तो तोड़ी जा सकेंगी मगर नोट कोई नहीं फाड़ेगा। अंबेडकर हर किसी की जेब और पर्स में रहेंगे। लोग संभाल कर अपने ऊपर की जेब में रखेंगे। अंबेडकर को करीब और महत्व से रखने की यह आदत हर तबके में होगी। उनकी प्रतिमा का अनावरण बंद होना चाहिए और नोट पर तस्वीर छाप कर उनकी मौजूदगी घर घर और हर जेब में बढ़ानी चाहिए। ऐसा हो सकता है क्योंकि एक रुपये से लेकर एक हज़ार तक के नोट में आधे या वैकल्पिक तौर पर अंबेडकर की तस्वीर छप सकती है।
रतन लाल का कहना है कि शादी या धार्मिक कर्मकांड में जब पंडित दक्षिणा या चढ़ावे के लिए नोट मांगेगा तो जजमान गर्व से पंडित के हाथ में अंबेडकर की तस्वीर वाले नोट को थमा देगा। उसकी हिचक खत्म हो जाएगी। अंबेडकर की स्वीकार्यता कर्मकांडों से लेकर बचत योजनाओं तक में होगी। लोग अपने आप अंबेडकर का सम्मान करना सीख जाएंगे। या फिर अंबेडकर से सामान्य हो जाएंगे।
एक सवाल स्वाभाविक है कि क्या गांधी की तस्वीर होने से उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है? उनका सम्मान बढ़ा है? तो जवाब में यही कहा जा सकता है कि गांधी और अंबेडकर में फर्क है। गांधी की स्वीकार्यता को लेकर कोई विवाद नहीं। यह भी ठीक है कि लोग गांधी के आदर्श को भूल चुके हैं। लेकिन अंबेडकर की स्वीकार्यता खासकर सामाजिक नहीं बनी है। किसी सवर्ण के घर में अंबेडकर की तस्वीर देखी है? अब तो कोई किसी की तस्वीर नहीं रखता मगर जब रखते थे क्या तब रखते थे? अंबेडकर राजनीतिक रूप से अपरिहार्य हैं। उनकी राजनीतिक सोच आंदोलन है। फार्मूला भी। तो क्या ब्राह्मण दलित गठबंधन की तरह अंबेडकर को भी स्वीकार्य नहीं बनाना चाहिए? क्या यह कदम सांकेतिक तौर पर मदद नहीं करेगा?
क्या उनका सोचना ठीक है? गुरुवार को दिल्ली में रतन एक प्रेस कांफ्रेस कर इसकी जानकारी देने वाले हैं। कई सांसदों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया है। आप ब्लाग पाठकों का क्या कहना है? रतन उन दलित चिंतकों में से हैं जो यह मानते हैं कि मायावती भ्रष्टाचार के ज़रिये दलित उत्कर्ष का प्रतीक नहीं बन सकती। मायावती का योगदान सराहनीय है मगर दलित आंदोलन कभी इतना खोखला नहीं रहा कि वो भ्रष्टाचार से कमाए पैसे से धनवान बनी एक नेता का सम्मान करे। रतन दलित आंदोलन को नए नज़रिये से समझने की कोशिश कर रहे हैं।
उनका एक प्रस्ताव यह भी है कि जिस तरह से टैक्स छूट में महिलाओं को रियायत दी गई है उसी तरह से दलितों को भी विशेष छूट मिलनी चाहिए। उनका कहना है कि इसका लाभ सवर्ण समाज को होगा। सरकारी नौकरी कम होने से दलितों के पास नौकरी के अवसर कम हैं। लिहाज़ा उनके परिवारों में पूंजी निर्माण नहीं हो रहा। टैक्स छूट मामूली रूप से पूंजी निर्माण में मदद करेगा। दलित का आर्थिक आत्मविश्वास बढ़ेगा और बड़े समाज के साथ आर्थिक संवाद भी।
क्या आपको लगता है कि रतन ठीक सोच रहे हैं? क्या नोट पर अंबेडकर की तस्वीर होनी चाहिए? कई बार सांकेतिक बदलाव भी महत्वपूर्ण होते हैं? तो क्या इससे सांकेतिक तौर पर ही सही कोई फर्क पड़ेगा? क्या टैक्स छूट से दलितों को विशेष आर्थिक लाभ होगा?
प्रेमी पागल का प्रेमालाप
प्रेमी- मैं पागल हो रहा हूं।
प्रेमिका- होश में आ जाओ।
प्रेमी- नहीं पागल रहने दो।
प्रेमिका- फिर बातें कैसी होंगी।
प्रेमी- क्या करना है बातों का।
प्रेमिका- और वादों का?
प्रेमी- टूट जाते हैं। सुना नहीं तुमने।
प्रेमिका- किससे?
प्रेमी- ज़माने से।
प्रेमिका-तुम पागल हो।
प्रेमी- तो रहने दो।
प्रेमिका- नहीं। होश में आओ।
प्रेमी- दुनिया का डर है।
प्रेमिका- पागल को डर भी लगता है।
प्रेमी- हां। दुनिया पागल है।
प्रेमिका- मैं पागल से डरती हूं।
प्रेमी- मैं तुमसे डरता हूं।
प्रेमिका- मुझसे?
प्रेमी- तुम पागल नहीं हो।
प्रेमिका- मैं क्यों पागल बनूं?
प्रेमी- तो फिर प्रेम कैसे करोगी?
प्रेमिका- मुझे दुनिया का डर नहीं
प्रेमी- और पागल से डरती हो
प्रेमिका- क्योंकि पागल दुनिया से डरता है।
प्रेमिका- होश में आ जाओ।
प्रेमी- नहीं पागल रहने दो।
प्रेमिका- फिर बातें कैसी होंगी।
प्रेमी- क्या करना है बातों का।
प्रेमिका- और वादों का?
प्रेमी- टूट जाते हैं। सुना नहीं तुमने।
प्रेमिका- किससे?
प्रेमी- ज़माने से।
प्रेमिका-तुम पागल हो।
प्रेमी- तो रहने दो।
प्रेमिका- नहीं। होश में आओ।
प्रेमी- दुनिया का डर है।
प्रेमिका- पागल को डर भी लगता है।
प्रेमी- हां। दुनिया पागल है।
प्रेमिका- मैं पागल से डरती हूं।
प्रेमी- मैं तुमसे डरता हूं।
प्रेमिका- मुझसे?
प्रेमी- तुम पागल नहीं हो।
प्रेमिका- मैं क्यों पागल बनूं?
प्रेमी- तो फिर प्रेम कैसे करोगी?
प्रेमिका- मुझे दुनिया का डर नहीं
प्रेमी- और पागल से डरती हो
प्रेमिका- क्योंकि पागल दुनिया से डरता है।
एक दुख का विमोचन
मुझे एक दुख हो रहा है। दो दिन पहले तक इस दुख का नाम भी नहीं सुना था। अब पता चला है। इसका नाम है- विमोचन का दुख। मैंने कोई किताब नहीं लिखी। विषय का चुनाव नहीं हो पाया या प्रकाशक का प्रस्ताव नहीं आया, दोनों के जवाब नहीं हैं। ज़ाहिर है विमोचन के अभाव से ग्रस्त हूं। लेकिन अब मैं लिखना चाहता हूं। किताब। रविवार को हमारे वरिष्ठ सहयोगी प्रियदर्शन जी की कहानी का विमोचन था। उसी में गया तो यह दुख के लेकर लौटा हूं।
इससे पहले अभिरंजन की पुस्तक का भी विमोचन था। दिल्ली में नहीं होने के कारण नहीं जा सका। जाता तो अब तक विमोचन का दुख चार महीने पुराना हो चुका होता। अभिरंजन की पुस्तक पहले छप चुकी थी। अभिरंजन और प्रियदर्शन दोनों साहित्य जगत के नाम हैं। मैं बड़ा छोटा नहीं मानता। ये दोनों भी नहीं मानते हैं। क्योंकि दोनों ही सहयोगी बहुत पहले से साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठापित हैं। पहली नज़र में किताब की महक, उसके विषय से ज़्यादा मोहक लगी। कवर का रंग देखकर खरीद लिया। कहानी की विषय वस्तु नहीं देखी। किताब का नाम- उसके हिस्से का जादू। विमोचन समारोह में बड़े पत्रकारों और साहित्यकारों को देख विमोचन युक्त हीनभावना का शिकार हो गया। विमोचन के बाद संक्षिप्त तालीवादन के बाद चर्चा शुरू हुई। यह मेरी पहली विमोचन यात्रा थी।
विमोचन से पहले चाय और चिप्स के साथ बड़े साहित्यकारों पत्रकारों से मिलना। चंद विषयों पर सरसरी टिप्पणी के साथ बार बार बुलाये जाने के बाद कुर्सी पर बैठना। किसी को खुद जाकर नमस्कार करना तो अपने किए गए नमस्कार के जवाब का इंतज़ार करना। अनजाने लोग को देख हल्का मुस्करा देना। पहचाने लोग से ऐसे मिलना जैसे आज ही पहली बार मिले हैं। क्या माहौल बंध रहा था।
जो लोग विमोचन के लिए बुलाये गए शायद वो पढ़ कर आए थे। या फिर लेखक के बारे में पहले से भी जानते रहे होंगे। प्रियदर्शन नया नाम तो नहीं है। पहले से जाने और पढ़े जाते रहे हैं। मिडनाइट्स चिल्ड्रन का हिंदी में अनुवाद कर चुक हैं। यह जानकारी उनके साथ काम करते हुए नहीं थी। पता चला किताब के आखिरी पन्ने पर छपे संक्षिप्त परिचय से। संक्षिप्त में ही इतनी बड़ी जानकारी। खैर उनकी किताब की चर्ची सुनकर खुद का हौसला बढ़ने लगा। उसके हिस्से का जादू मेरे हिस्से आ चुका था।
काश हम भी एक किताब लिखते। संक्षिप्त परिचय छपता। किसी को समर्पित करते। यही सब सोचता हुआ घर के लिए निकल पड़ा। कम से कम लेखक तो होते यार। वरिष्ठ न सही युवा ही। युवा न सही उदयीमान ही। सिर्फ टीवी में चेहरा दिखाने से क्या होता है? चेहरे बदल जाते हैं। किताब नहीं बदलती है। कापीराइट के साथ छपती है। आप लेखक कहलाते हैं।
विमोचन कोई मामूली समारोह नहीं होता। लेखक का दिल भी धड़कता होगा। उसका लिखा हुआ कितनों के घर जाएगा। लोग पढ़ेंगे। पता नहीं वैसा समझेंगे या नहीं जैसा विमोचन के वक्त कहा गया है।प्रियदर्शन से तुरंता विषयों पर रोज़ बात हो जाती है। उनका लिखा मशहूर है। मगर किताब देखकर मेरी नज़र बदल गई। पहले भी बेहतर थी और बाद में और बेहतर हो गई। साक्षात लेखक के रूप में देखने का अनुभव अच्छा लगा। तभी अहसास हुआ बाबू तुम भी लेखक होते। कोई तुम्हें भी लेखक समझता। किताब आती। विमोचन होता। कोई आता या न आता, प्रियदर्शन और अभिरंजन तो आते ही। कुछ अच्छी बातें तो कह ही जाते। तब से विमोचन समारोह के दुख से मरा जा रहा हूं। जल्दी ही किताब लिखूंगा। तब तक विमोचन युक्त हीनभावना का शिकार होते हुए सारे किताबों को नई नज़र से देखूंगा। खुद को सज़ा दूंगा। काश मैंने भी लेखकों को गंभीरता से लिया होता। किताब लिखी होती। तो मंच पर मेरी भी एक कुर्सी लगती। किताब का नाम होता- मेरी पहली रचना यात्रा। या पहला विमोचन। नाम तो समझ में आ गया विषय का सुझाव कौन देगा?
नोट- उसके हिस्से का जादू, राधाकृष्ण प्रकाशन से आई है। कीमत एक सौ पचास रु है। कहानी बहुत अच्छी है। पूरी नहीं पढ़ी। मगर पढ़ रहा हूं।
इससे पहले अभिरंजन की पुस्तक का भी विमोचन था। दिल्ली में नहीं होने के कारण नहीं जा सका। जाता तो अब तक विमोचन का दुख चार महीने पुराना हो चुका होता। अभिरंजन की पुस्तक पहले छप चुकी थी। अभिरंजन और प्रियदर्शन दोनों साहित्य जगत के नाम हैं। मैं बड़ा छोटा नहीं मानता। ये दोनों भी नहीं मानते हैं। क्योंकि दोनों ही सहयोगी बहुत पहले से साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठापित हैं। पहली नज़र में किताब की महक, उसके विषय से ज़्यादा मोहक लगी। कवर का रंग देखकर खरीद लिया। कहानी की विषय वस्तु नहीं देखी। किताब का नाम- उसके हिस्से का जादू। विमोचन समारोह में बड़े पत्रकारों और साहित्यकारों को देख विमोचन युक्त हीनभावना का शिकार हो गया। विमोचन के बाद संक्षिप्त तालीवादन के बाद चर्चा शुरू हुई। यह मेरी पहली विमोचन यात्रा थी।
विमोचन से पहले चाय और चिप्स के साथ बड़े साहित्यकारों पत्रकारों से मिलना। चंद विषयों पर सरसरी टिप्पणी के साथ बार बार बुलाये जाने के बाद कुर्सी पर बैठना। किसी को खुद जाकर नमस्कार करना तो अपने किए गए नमस्कार के जवाब का इंतज़ार करना। अनजाने लोग को देख हल्का मुस्करा देना। पहचाने लोग से ऐसे मिलना जैसे आज ही पहली बार मिले हैं। क्या माहौल बंध रहा था।
जो लोग विमोचन के लिए बुलाये गए शायद वो पढ़ कर आए थे। या फिर लेखक के बारे में पहले से भी जानते रहे होंगे। प्रियदर्शन नया नाम तो नहीं है। पहले से जाने और पढ़े जाते रहे हैं। मिडनाइट्स चिल्ड्रन का हिंदी में अनुवाद कर चुक हैं। यह जानकारी उनके साथ काम करते हुए नहीं थी। पता चला किताब के आखिरी पन्ने पर छपे संक्षिप्त परिचय से। संक्षिप्त में ही इतनी बड़ी जानकारी। खैर उनकी किताब की चर्ची सुनकर खुद का हौसला बढ़ने लगा। उसके हिस्से का जादू मेरे हिस्से आ चुका था।
काश हम भी एक किताब लिखते। संक्षिप्त परिचय छपता। किसी को समर्पित करते। यही सब सोचता हुआ घर के लिए निकल पड़ा। कम से कम लेखक तो होते यार। वरिष्ठ न सही युवा ही। युवा न सही उदयीमान ही। सिर्फ टीवी में चेहरा दिखाने से क्या होता है? चेहरे बदल जाते हैं। किताब नहीं बदलती है। कापीराइट के साथ छपती है। आप लेखक कहलाते हैं।
विमोचन कोई मामूली समारोह नहीं होता। लेखक का दिल भी धड़कता होगा। उसका लिखा हुआ कितनों के घर जाएगा। लोग पढ़ेंगे। पता नहीं वैसा समझेंगे या नहीं जैसा विमोचन के वक्त कहा गया है।प्रियदर्शन से तुरंता विषयों पर रोज़ बात हो जाती है। उनका लिखा मशहूर है। मगर किताब देखकर मेरी नज़र बदल गई। पहले भी बेहतर थी और बाद में और बेहतर हो गई। साक्षात लेखक के रूप में देखने का अनुभव अच्छा लगा। तभी अहसास हुआ बाबू तुम भी लेखक होते। कोई तुम्हें भी लेखक समझता। किताब आती। विमोचन होता। कोई आता या न आता, प्रियदर्शन और अभिरंजन तो आते ही। कुछ अच्छी बातें तो कह ही जाते। तब से विमोचन समारोह के दुख से मरा जा रहा हूं। जल्दी ही किताब लिखूंगा। तब तक विमोचन युक्त हीनभावना का शिकार होते हुए सारे किताबों को नई नज़र से देखूंगा। खुद को सज़ा दूंगा। काश मैंने भी लेखकों को गंभीरता से लिया होता। किताब लिखी होती। तो मंच पर मेरी भी एक कुर्सी लगती। किताब का नाम होता- मेरी पहली रचना यात्रा। या पहला विमोचन। नाम तो समझ में आ गया विषय का सुझाव कौन देगा?
नोट- उसके हिस्से का जादू, राधाकृष्ण प्रकाशन से आई है। कीमत एक सौ पचास रु है। कहानी बहुत अच्छी है। पूरी नहीं पढ़ी। मगर पढ़ रहा हूं।
वेतन का सच और सवाल
पिता- कितना मिलता है?
पुत्र- काम चल जाता है।
पिता- कितना?
पुत्र- खर्चा इतना कि बचता नहीं।
पिता- कितना?
पुत्र- स्कूल, दवा और किराया।
पिता- कितना?
पुत्र- साल भर से नया कपड़ा नहीं खरीदे।
पिता- कितना?
पुत्र- बैंक में एक रुपया नहीं।
पिता- कितना?
पुत्र- दिल्ली में रहना महंगा है।
पिता- कितना?
पुत्र- टैक्स भी भरना है।
पिता- कितना?
पुत्र- आपके पास कुछ है?
पिता- है। चाहिए।
पुत्र- कितना?
पिता- उतना तो नहीं।
पुत्र- कितना?
पिता- रिटायरमेंट के बाद मकान में लग गया।
पुत्र- कितना?
पिता-चुप...
पुत्र- चुप
नोट-( कहानी ख़त्म नहीं हुई। खत्म नहीं हो सकती। चलती रहेगी। बस आप बता दीजिए। किस किस घर में इस सवाल का जवाब बाप और बेटे ने ईमानदारी से दिया है)
पुत्र- काम चल जाता है।
पिता- कितना?
पुत्र- खर्चा इतना कि बचता नहीं।
पिता- कितना?
पुत्र- स्कूल, दवा और किराया।
पिता- कितना?
पुत्र- साल भर से नया कपड़ा नहीं खरीदे।
पिता- कितना?
पुत्र- बैंक में एक रुपया नहीं।
पिता- कितना?
पुत्र- दिल्ली में रहना महंगा है।
पिता- कितना?
पुत्र- टैक्स भी भरना है।
पिता- कितना?
पुत्र- आपके पास कुछ है?
पिता- है। चाहिए।
पुत्र- कितना?
पिता- उतना तो नहीं।
पुत्र- कितना?
पिता- रिटायरमेंट के बाद मकान में लग गया।
पुत्र- कितना?
पिता-चुप...
पुत्र- चुप
नोट-( कहानी ख़त्म नहीं हुई। खत्म नहीं हो सकती। चलती रहेगी। बस आप बता दीजिए। किस किस घर में इस सवाल का जवाब बाप और बेटे ने ईमानदारी से दिया है)
भाई-भाई का झगड़ा- लघु कहानी
कौन। मैं। मैं कौन। तू कौन। खोल दरवाज़ा। बाप का घर है। क्यों? तेरे बाप का है? हां है। अभी यह घर बंटा नही है। भारत पाकिस्तान बंट गए घर क्यों नहीं बंटा। वसीयत है मेरे पास। तेरे पास क्या है? मेरे पास स्टे आर्डर है। सड़क पर भाई भाई लड़ेंगे? अंदर आने दे। तो क्या भीतर आकर लड़ेगा? हां वर्ना पिताजी की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। उससे पहले घर को मिट्टी में मिला दूंगा। बड़े भाई से तमीज़ से बात कर। छोटे भाई से बात करना सीख। मैंने तेरे लिए बहुत कुछ किया है। मैंने भी हर बात मानी है। तो अब मान। अब नहीं। क्यों नहीं। बात हक की है। ओहदे की नहीं। तू लड़ेगा मुझसे। हां मैं लड़ूंगा। तू नहीं तेरी बीबी बोल रही है। मैं नहीं बोलता अगर तुम्हारी बीबी न बोलती। अच्छा भाभी अब बीबी हो गई। जब मेरी पत्नी बीबी हो सकती है तो भाभी भी बीबी कही जा सकती है। लाशें गिरेंगी। किसलिए। घर के लिए। रहेगा कौन। जो बच जाएगा। दोनों मर गए तो। घर बच जाएगा। खोल दरवाज़ा। नहीं खोलता। खोल। नहीं। खोल। नहीं।
गोत्र का स्रोत-2
मैंने सिर्फ बहस की गुज़ारिश की थी। प्रतिक्रिया में बुद्धिजीवियों को गरियाने से क्या फायदा? मेरा मकसद परंपरा बनाम विज्ञान के बीच बहस नहीं छेड़ना बल्कि दोनों पैमानों से समझना है। पश्चिम में इतना तो हुआ ही है कि वहां की पारंपरिक मान्यताओं के खिलाफ वैज्ञानिक धारणाएं बनाईं गई हैं। परंपराओं को परखा गया है। जो नहीं परख पाए वो क्रिसमस या धार्मिक त्योहारों के रूप में मनाते रहते हैं। मगर वैज्ञानिक आधार और सोच किसी मूर्ख की कल्पना में नहीं बने हैं । वे भी इसी समाज के बीच बहस मुबाहिसों से बनते हैं।
एक पाठक मित्र के अनुसार विज्ञान ने कहा है कि जीन से बीमारियां एक पीढीं से दूसरी पीढ़ी में चली आती हैं। तो क्या इशारा गोत्र की तरफ है? डीएनए या जीन की बात क्या गोत्र की बात है? मुसलमानों में गोत्र की शर्त नहीं होती? तो क्या हर मुसलमान बीमार होता है? स्वस्थ्य नहीं होता? उसी तरह से ईसाई धर्म के लोग भी गोत्र नहीं मानते। बौद्ध धर्म के लोग मानते हैं या नहीं, मैं नहीं जानता।
एक और उदाहरण देना चाहूंगा। मेरी एक दोस्त हैं। उनके माता पिता ने अंतर्राज्यीय और अंतर्जातीय विवाह किए। उनसे सिर्फ एक लड़की हुई। वही जो मेरी दोस्त हैं। अब आप कह सकते हैं कि जो पिता का गोत्र है वही बेटी का होगा। ठीक मान लिया। लेकिन उस लड़की ने दूसरे धर्म के पुरुष से शादी की। अब उसकी एक बेटी है। इस मामले में गोत्र कहां गया? गायब हो गया क्या? कोई मेरी दोस्त की बेटी का गोत्र बता सकता है?
मैं इस बहस में पड़ना चाहता हूं। सबके अनुभवों और जानकारी के आधार से कुछ सीखने में हर्ज नहीं। हो सकता है गोत्र के व्यावहारिक पक्ष हों मगर इसे लाठी के बल पर तो साबित नहीं किया जा सकता। परंपरा के नाम पर हम कई वाहियात चीज़े ढोते रहे हैं। और पश्चिम को गरियाने के नाम पर बेतुकी बातें करते रहते हैं। जैसे पश्चिम के प्रभाव ने सीखाया कि जाति गलत है। औरतों को आज़ादी मिलनी चाहिए। तो क्या पश्चिम का गान नहीं करेंगे। कौन सा आपका साठ साल पुराना राष्ट्रीय स्वाभिमान आहत हो जाता है। अब आप एक दो ऋषि मुनियों की पत्नियों या उन्हें चुनौति देने वाली महिला विद्वानों की मिसाल दे कर यह न बतायें कि भारतवर्ष में महिलाओं का आदर था। विधवा विवाह का समर्थन और बाल विवाह की आलोचना पश्चिम की मान्यताओं ने सीखाईं हैं। पश्चिम की बहुत सारी मान्यताओं का हमने गलत इस्तमाल भी किया है। गोत्र से हिंदू धर्म के नागरिकों ने क्या हासिल किया है? इसका लाठीगत विरोध करें या तर्कसंगत। सिर्फ नारेबाज़ी नहीं, कहीं से कुछ पढ़ने को मिले यानी शोध वाली बात हो तो बताइये। साझा कीजिए।
एक पाठक मित्र के अनुसार विज्ञान ने कहा है कि जीन से बीमारियां एक पीढीं से दूसरी पीढ़ी में चली आती हैं। तो क्या इशारा गोत्र की तरफ है? डीएनए या जीन की बात क्या गोत्र की बात है? मुसलमानों में गोत्र की शर्त नहीं होती? तो क्या हर मुसलमान बीमार होता है? स्वस्थ्य नहीं होता? उसी तरह से ईसाई धर्म के लोग भी गोत्र नहीं मानते। बौद्ध धर्म के लोग मानते हैं या नहीं, मैं नहीं जानता।
एक और उदाहरण देना चाहूंगा। मेरी एक दोस्त हैं। उनके माता पिता ने अंतर्राज्यीय और अंतर्जातीय विवाह किए। उनसे सिर्फ एक लड़की हुई। वही जो मेरी दोस्त हैं। अब आप कह सकते हैं कि जो पिता का गोत्र है वही बेटी का होगा। ठीक मान लिया। लेकिन उस लड़की ने दूसरे धर्म के पुरुष से शादी की। अब उसकी एक बेटी है। इस मामले में गोत्र कहां गया? गायब हो गया क्या? कोई मेरी दोस्त की बेटी का गोत्र बता सकता है?
मैं इस बहस में पड़ना चाहता हूं। सबके अनुभवों और जानकारी के आधार से कुछ सीखने में हर्ज नहीं। हो सकता है गोत्र के व्यावहारिक पक्ष हों मगर इसे लाठी के बल पर तो साबित नहीं किया जा सकता। परंपरा के नाम पर हम कई वाहियात चीज़े ढोते रहे हैं। और पश्चिम को गरियाने के नाम पर बेतुकी बातें करते रहते हैं। जैसे पश्चिम के प्रभाव ने सीखाया कि जाति गलत है। औरतों को आज़ादी मिलनी चाहिए। तो क्या पश्चिम का गान नहीं करेंगे। कौन सा आपका साठ साल पुराना राष्ट्रीय स्वाभिमान आहत हो जाता है। अब आप एक दो ऋषि मुनियों की पत्नियों या उन्हें चुनौति देने वाली महिला विद्वानों की मिसाल दे कर यह न बतायें कि भारतवर्ष में महिलाओं का आदर था। विधवा विवाह का समर्थन और बाल विवाह की आलोचना पश्चिम की मान्यताओं ने सीखाईं हैं। पश्चिम की बहुत सारी मान्यताओं का हमने गलत इस्तमाल भी किया है। गोत्र से हिंदू धर्म के नागरिकों ने क्या हासिल किया है? इसका लाठीगत विरोध करें या तर्कसंगत। सिर्फ नारेबाज़ी नहीं, कहीं से कुछ पढ़ने को मिले यानी शोध वाली बात हो तो बताइये। साझा कीजिए।
गोत्र का स्रोत
करनाल में समगोत्री विवाह को लेकर हत्या हुई है। इससे पहले हरियाणा के ही झज्जर के असांदा गांव में यही कांड हुआ था। एक ही गोत्र में शादी के कारण बिरादरी वाले आ गए। फरमान सुनाया कि शादी खारिज की जाती है और दंपति अब से भाई बहन होंगे। पंचायत ने उनके बच्चे के बारे में क्या कहा नहीं मालूम। लेकिन इस फैसले के खिलाफ मानवाधिकार आयोग में शिकायत की गई थी। कुछ हुआ या नहीं वही जानते होंगे। इसी से पंचायतों के फरमान सुनाने की परंपरा और अधिकार का सवाल भी जुड़ा है। सरकार भी इस सवाल को जानती है मगर करती नहीं। हर बार पंचायतें बैठती हैं, फैसला होता है और फिर हत्या कर दी जाती है या शादी का जोड़ा फरार होने पर मजबूर हो जाता है।
सवाल बड़ा है? गोत्र का सवाल। क्या गोत्र के भीतर शादी हो सकती है? होनी चाहिए? गोत्र के भीतर के सब स्त्री पुरुष एक ही रिश्ते से बंधे होते हैं भाई और बहन। कैसे?
गोत्र क्या है? इतिहासकार डी एन झा लिखते हैं कि जब आर्य भारत आए तो वो घुमंतू भी थे और पशुचारण भी कर रहे थे। पशुचारण और खेती उनकी आर्थिक गतिविधियां थीं। सबसे अहम गतिविधि थी गाय पालन। गायों की संख्या से हैसियत तय होती थी। गाय पर आधिपत्य को लेकर लड़ाई भी होती थी। इसका मतलब यह नहीं कि हम गाय नहीं खाते थे। गाय और बैल के मांस खाने के प्रमाण हैं। ब्राह्मण ही खाते थे। धीरे धीरे कम हो गई। आज भी कई हिंदू परिवार गौ मांस खाते हैं। शौक से। लेकिन वो स्वीकार नहीं करते। विरोध के डर से।
बहरहाल इस बवाल को छोड़ते हुए कि खाते थे या नहीं खाते थे आगे बढ़ते हैं। गोत्र पर। गाय पालन आर्यों के सामाजिक जीवन का अहम हिस्सा होता जा रहा था। धीरे धीरे गायों के आस पास सामाजिक ढांचा बनने लगा। गोत्र का संबंध उस बाड़े से हो गया जहां एक समूह विशेष की गायें बांधी जाती थीं। वह समूह वंश में बदलता गया। चूंकि एक गोत्र और दूसरे गोत्र के बीच गायों को लेकर युद्ध होता था इसलिए अलायंस यानी सैन्य गठबंधन बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। शायद इसी ज़रूरत की वजह से एक गोत्र के भीतर विवाह को निषेध किया गया। दूसरे गोत्र यानी बाड़े के समूह के किसी परिवार की संतान से शादी करने पर एक गठबंधन बन जाता था। इसलिए अगर आपके गोत्र का कोई दूसरा गांव होगा वहां आपका कोई रिश्तेदार नहीं मिलेगा। गोत्रों की परंपरा वर्ण या जाति व्यवस्था के साथ साथ मज़बूत होती गई। हर जाति के लोग गोत्र नियम मानते हैं। एक गोत्र के लोग एक ऋषि के संतान कहे जाते हैं। गोत्र ब्राह्मणों ने शुरू किया मगर हर जाति ने अपनाया। कुछ ऋषियों के संतानों ने अपना अलग गोत्र चलाने का प्रयास किया। मध्यकाल में क्षत्रियों ने गोत्र परंपरा को और मजबूत किया होगा। युद्ध के वक्त नए घरानों की ज़रूरत होती होगी। इसलिए शादी अपने गोत्र से बाहर कर एक और एक राजपरिवार आपस में रिश्तेदार हो जाते थे। उनके बीच युद्ध नहीं होता था। या इसकी संभावना कम हो जाती होगी।
फिर औरतों का क्या गोत्र होता है? शुरू में प्रमाण मिलते हैं कि विवाह के बाद बहू का गोत्र वही होता है जो उसके पिता का हुआ करता था। बाद में पितृसत्तात्मक मूल्यों के मज़बूत होने से बहू के नाम और गोत्र भी पति से तय होने लगे। पुरुष का गोत्र नहीं बदलता मगर स्त्री का बदलता है।
मैंने जो लिखा है वो गोत्र पर संक्षिप्त ऐतिहासिक जानकारी है। लेकिन बहस समकालीन होनी चाहिए। क्या गोत्र संभव है? कुछ लोग डीएनए के ज़रिये इसे साबित करने की कोशिश कर रहे हैं? फिर भी इसका जैविक आधार क्या है?
महानगरों में या एनआरआई जगत में जब अंतर्जातीय विवाह होता होगा तो गोत्र की परवाह करते होंगे? क्या अंतर्जातीय विवाह की भी शर्त गोत्र है? एक वक्त की ज़रूरत में बने इस व्यवस्था को आज इतनी सख्ती से लागू किया जा सकता है कि किसी जोड़े को मार दिया जाए। क्या कानून में विवाह की शर्तों में गोत्र को जोड़ा गया है? क्या गोत्र स्थायी है? अपरिवर्तनशील है? एक ही ऋषि के संतान अलग अलग जाति वाले कैसे हो सकते हैं? यह कैसे हो सकता कि एक ही गोत्र के ब्राह्मण, कायस्थ और क्षत्रिय हो सकते हैं? क्या ऋषियों ने हर जाति के संतान पैदा किये? बहस शुरू होती है अब।
सवाल बड़ा है? गोत्र का सवाल। क्या गोत्र के भीतर शादी हो सकती है? होनी चाहिए? गोत्र के भीतर के सब स्त्री पुरुष एक ही रिश्ते से बंधे होते हैं भाई और बहन। कैसे?
गोत्र क्या है? इतिहासकार डी एन झा लिखते हैं कि जब आर्य भारत आए तो वो घुमंतू भी थे और पशुचारण भी कर रहे थे। पशुचारण और खेती उनकी आर्थिक गतिविधियां थीं। सबसे अहम गतिविधि थी गाय पालन। गायों की संख्या से हैसियत तय होती थी। गाय पर आधिपत्य को लेकर लड़ाई भी होती थी। इसका मतलब यह नहीं कि हम गाय नहीं खाते थे। गाय और बैल के मांस खाने के प्रमाण हैं। ब्राह्मण ही खाते थे। धीरे धीरे कम हो गई। आज भी कई हिंदू परिवार गौ मांस खाते हैं। शौक से। लेकिन वो स्वीकार नहीं करते। विरोध के डर से।
बहरहाल इस बवाल को छोड़ते हुए कि खाते थे या नहीं खाते थे आगे बढ़ते हैं। गोत्र पर। गाय पालन आर्यों के सामाजिक जीवन का अहम हिस्सा होता जा रहा था। धीरे धीरे गायों के आस पास सामाजिक ढांचा बनने लगा। गोत्र का संबंध उस बाड़े से हो गया जहां एक समूह विशेष की गायें बांधी जाती थीं। वह समूह वंश में बदलता गया। चूंकि एक गोत्र और दूसरे गोत्र के बीच गायों को लेकर युद्ध होता था इसलिए अलायंस यानी सैन्य गठबंधन बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। शायद इसी ज़रूरत की वजह से एक गोत्र के भीतर विवाह को निषेध किया गया। दूसरे गोत्र यानी बाड़े के समूह के किसी परिवार की संतान से शादी करने पर एक गठबंधन बन जाता था। इसलिए अगर आपके गोत्र का कोई दूसरा गांव होगा वहां आपका कोई रिश्तेदार नहीं मिलेगा। गोत्रों की परंपरा वर्ण या जाति व्यवस्था के साथ साथ मज़बूत होती गई। हर जाति के लोग गोत्र नियम मानते हैं। एक गोत्र के लोग एक ऋषि के संतान कहे जाते हैं। गोत्र ब्राह्मणों ने शुरू किया मगर हर जाति ने अपनाया। कुछ ऋषियों के संतानों ने अपना अलग गोत्र चलाने का प्रयास किया। मध्यकाल में क्षत्रियों ने गोत्र परंपरा को और मजबूत किया होगा। युद्ध के वक्त नए घरानों की ज़रूरत होती होगी। इसलिए शादी अपने गोत्र से बाहर कर एक और एक राजपरिवार आपस में रिश्तेदार हो जाते थे। उनके बीच युद्ध नहीं होता था। या इसकी संभावना कम हो जाती होगी।
फिर औरतों का क्या गोत्र होता है? शुरू में प्रमाण मिलते हैं कि विवाह के बाद बहू का गोत्र वही होता है जो उसके पिता का हुआ करता था। बाद में पितृसत्तात्मक मूल्यों के मज़बूत होने से बहू के नाम और गोत्र भी पति से तय होने लगे। पुरुष का गोत्र नहीं बदलता मगर स्त्री का बदलता है।
मैंने जो लिखा है वो गोत्र पर संक्षिप्त ऐतिहासिक जानकारी है। लेकिन बहस समकालीन होनी चाहिए। क्या गोत्र संभव है? कुछ लोग डीएनए के ज़रिये इसे साबित करने की कोशिश कर रहे हैं? फिर भी इसका जैविक आधार क्या है?
महानगरों में या एनआरआई जगत में जब अंतर्जातीय विवाह होता होगा तो गोत्र की परवाह करते होंगे? क्या अंतर्जातीय विवाह की भी शर्त गोत्र है? एक वक्त की ज़रूरत में बने इस व्यवस्था को आज इतनी सख्ती से लागू किया जा सकता है कि किसी जोड़े को मार दिया जाए। क्या कानून में विवाह की शर्तों में गोत्र को जोड़ा गया है? क्या गोत्र स्थायी है? अपरिवर्तनशील है? एक ही ऋषि के संतान अलग अलग जाति वाले कैसे हो सकते हैं? यह कैसे हो सकता कि एक ही गोत्र के ब्राह्मण, कायस्थ और क्षत्रिय हो सकते हैं? क्या ऋषियों ने हर जाति के संतान पैदा किये? बहस शुरू होती है अब।
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