मैं महान हूं
परचून की दुकान हूं
हल्दी धनिया अदरक
प्रकाशक लेखक विचारक
खुद की नुमाइश में
बिक्री योग्य सामान हूं
मैं महान हूं
साया न छाया
काया न माया
आगे न पीछे
दायें न बायें
अकेला खड़ा हूं
मैं महान हूं
जो लिखा है
वो लिख चुका हूं
जो कहा है
वो कह चुका हूं
मैं महान हूं
महान होना
आसान नहीं
दुकान खोलना
आसान नहीं
आज नगद
कल उधार हूं
मैं महान हूं
कई लोग
खारिज करते हैं
कई लोग
स्वागत करते हैं
विरोध और पक्ष में
हर तरफ बराबर हूं
मैं महान हूं
(उन सभी महान लोगों को जिन्हें लगता है कि वो महान हैं। महानता को समर्पित व्यंग्यरहित यह कविता दशहरा के पावन अवसर पर उन्हें भेंट की जाती है।)
अपने भीतर का कुछ गांव
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं
पूछते रहते हैं जो हमसे सब
कैसा है तुम्हारा गांव यार
कहता रहता हूं सबसे अब
जैसा है तुम्हारा शहर यार
दोस्तों से मिले तोहफों के बदले
मैं भी कुछ उनको देना चाहता हूं
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं
क्या करूंगा सब गांव ले कर
बैलों को बांधने की जगह नहीं
अनाज रखने का खलिहान नहीं
ग्रेटर कैलाश के अपने दोस्तों को
अपने भीतर का कुछ गांव
थोड़ा थोड़ा देना चाहता हूं
जाने क्या करेंगे उन टुकड़ों का
बेचेंगे या फार्म हाउस बना देंगे
कुछ हिस्सा दिल्ली सा बना देंगे
तब जब वो मुझसे पूछेंगे
कैसा है तुम्हारा गांव यार
कह दूंगा उन सबसे तब
जैसा है तुम्हारा शहर यार
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं
दिल्ली के दोस्तों के बिना
अब कहां मैं रह पाता हूं
इतना मिलता रहता हूं
फिर भी अनजाना रहता हूं
अपनी पहचान के बदले में
कुछ उनको देना चाहता हूं
कितना कुछ उनसे मिलता है
अब उनको मैं देना चाहता हूं
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं
( दिल्ली में मिले उन तमाम दोस्तों के लिए जिनके घर किसी गांव के उजाड़ कर बसाए गए कालोनियों में हैं। लेकिन उन्होंने गांव ही नहीं देखा। पहले पूछते थे मुझसे गांव के बारे में लेकिन जब से मैं उनके जैसा हो गया, पूछना बंद कर दिया। बस याद दिलाने के लिए मैंने यह कविता लिखी है।)
उन सबको देना चाहता हूं
पूछते रहते हैं जो हमसे सब
कैसा है तुम्हारा गांव यार
कहता रहता हूं सबसे अब
जैसा है तुम्हारा शहर यार
दोस्तों से मिले तोहफों के बदले
मैं भी कुछ उनको देना चाहता हूं
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं
क्या करूंगा सब गांव ले कर
बैलों को बांधने की जगह नहीं
अनाज रखने का खलिहान नहीं
ग्रेटर कैलाश के अपने दोस्तों को
अपने भीतर का कुछ गांव
थोड़ा थोड़ा देना चाहता हूं
जाने क्या करेंगे उन टुकड़ों का
बेचेंगे या फार्म हाउस बना देंगे
कुछ हिस्सा दिल्ली सा बना देंगे
तब जब वो मुझसे पूछेंगे
कैसा है तुम्हारा गांव यार
कह दूंगा उन सबसे तब
जैसा है तुम्हारा शहर यार
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं
दिल्ली के दोस्तों के बिना
अब कहां मैं रह पाता हूं
इतना मिलता रहता हूं
फिर भी अनजाना रहता हूं
अपनी पहचान के बदले में
कुछ उनको देना चाहता हूं
कितना कुछ उनसे मिलता है
अब उनको मैं देना चाहता हूं
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं
( दिल्ली में मिले उन तमाम दोस्तों के लिए जिनके घर किसी गांव के उजाड़ कर बसाए गए कालोनियों में हैं। लेकिन उन्होंने गांव ही नहीं देखा। पहले पूछते थे मुझसे गांव के बारे में लेकिन जब से मैं उनके जैसा हो गया, पूछना बंद कर दिया। बस याद दिलाने के लिए मैंने यह कविता लिखी है।)
देखो बापू जा रहे हैं
देखो बापू जा रहे हैं
हम सबके भीतर से
चुपचाप चले जा रहे हैं
कहीं कोई शोर नहीं है
लाठी की ठक ठक से
ऐसे कैसे जा रहे है
देखो बापू जा रहे हैं
हम सबके भीतर से
चुपचाप चले जा रहे हैं
कहीं कोई शोर नहीं है
लाठी की ठक ठक से
ऐसे कैसे जा रहे है
देखो बापू जा रहे हैं
हिंसा के चतुर रास्तों से
बचते बचाते खतरों से
अहिंसा का सामान लिये
सत्य बोलने का साहस छोड़
देखो बापू जा रहे हैं
कोई उठाता नहीं सड़कों से
हीरे की तरह साहस को
कंकड़ की तरह विचारों को
फेंकते हुए जा रहे हैं
देखो बापू जा रहे हैं
कहीं कोई शोर नहीं
लाठी की ठक ठक से
ऐसे कैसे जा रहे हैं
देखो बापू जा रहे हैं
दो अक्तूबर को जन्म हुआ
बापू का कितना नाम हुआ
सब जन्मदिन मना रहे हैं
चरखे पर कट रहा केक है
बापू का भी अब रीमेक है
सारा सामान समेट कर
खुद को उठाए हुए
वो कहीं जा रहे हैं
देखो बापू जा रहे हैं
(दोस्तों गांधी जयंती पर बापू ऐसे ही याद आए। कविता बनते बनते चले
गए- रवीश )
जब आप अकेले होते हैं
जब आप अकेले होते हैं
तब सबसे अच्छे होते है
दम भर खाते रहते हैं
मन भर सोते रहते हैं
घूमना फिरना होता है
पढ़ना लिखना होता है
कितना सब कुछ होता है
जब आप अकेले होते हैं
मिलजुल कर रहना भी
कोई होना होता है
ठेलम ठेल के मेले में
कोई अपना होता है
अपनों की तलाश ही
जाने क्यों करते हैं
जब आप अकेले होते हैं
तब सबसे अच्छे होते हैं
क्या क्या होना है बाकी
ये होना वो होना है ताकि
होने को लेकर अक्सर ही
आप क्यों रोते रहते हैं
कुछ नहीं होता है
जब कुछ नहीं होते हैं
जब भी कुछ होते हैं
आप अकेले होते हैं
जब आप अकेले होते हैं
तब सबसे अच्छे होते हैं
तब सबसे अच्छे होते है
दम भर खाते रहते हैं
मन भर सोते रहते हैं
घूमना फिरना होता है
पढ़ना लिखना होता है
कितना सब कुछ होता है
जब आप अकेले होते हैं
मिलजुल कर रहना भी
कोई होना होता है
ठेलम ठेल के मेले में
कोई अपना होता है
अपनों की तलाश ही
जाने क्यों करते हैं
जब आप अकेले होते हैं
तब सबसे अच्छे होते हैं
क्या क्या होना है बाकी
ये होना वो होना है ताकि
होने को लेकर अक्सर ही
आप क्यों रोते रहते हैं
कुछ नहीं होता है
जब कुछ नहीं होते हैं
जब भी कुछ होते हैं
आप अकेले होते हैं
जब आप अकेले होते हैं
तब सबसे अच्छे होते हैं
स्मॉल टाउन कौन तय करता है
स्माल टाउन के कई प्रकार हो सकते हैं। एक स्माल टाउन होता है जो सिर्फ अंग्रेजी के अखबार और टीवी के पत्रकारों को दिखाई देता है। दूसरा स्माल टाउन वो होता है जो होता तो है स्माल यानी छोटा लेकिन उसकी गिनती नहीं होती।
दिल्ली और मुंबई के विचारकों, पत्रकारों को स्माल टाउन खूब नज़र आता है। उन्हें बरेली, मेरठ, आगरा और जमशेदपुर स्माल टाउन नज़र आते हैं। रांची के महेंद्र सिंह धोनी कप्तान बना तो सबने कहा कि स्माल टाउन का उदय हो रहा है। तो क्या रांची वाकई स्माल टाउन है? क्या धोनी के कप्तान बनने से पहले रांची का कोई वजूद नहीं था?
रांची झारखंड की राजधानी है। उससे पहले औद्योगिक शहर हुआ करता था। इसी के बगल में जमशेदपुर में आरआईटी है जिसकी अपनी मान्यता है। जमशेदपुर में देश का एक बेहतर मैनजमेंट संस्थान है एक्सएलआरआई। जहां सभी किस्म के टाउन के प्रतिभाशाली बच्चे बढ़ते हैं। आगरा और मेरठ तो हर दूसरे दिन स्माल टाउन में गिने जाते हैं। क्या ये शहर वाकई में इतने स्माल हैं?
स्माल टाउन किसे कहेंगे? रीवां, सासाराम, जलगांव या मोतिहारी को या फिर रांची, आगरा या को। दिल्ली मुंबई, पुणे, बंगलौर और कोलकाता से बाहर क्या हर शहर स्माल टाउन है? या फिर स्माल टाउन कहलाने वाले शहरों में भी बदलाव आया है।
महानगरों के विचारक भूल जाते हैं कि दिल्ली और मुंबई में भी कई स्माल टाउन हैं। साउथ दिल्ली के मुकाबले पूर्वी दिल्ली का यमुना विहार स्माल टाउन न हो लेकिन डाउन टाउन तो हैं ही।कल अगर यमुना विहार से दस लड़के आईएएस हो जाएं तो क्या इस पर बहस करेंगे कि दक्षिण दिल्ली का वर्चस्व कम हो जाएगा। क्या दिल्ली और मुंबई स्माल टाउन के लोगों से नहीं बनें? मुंबई, दिल्ली या कोलकाता हर बड़ा महानगर छोटे शहरों से आए लोगों से बना है। इनके ज़रिये बड़े शहरों का ताल्लुक छोटे शहरों में रहा है। सिर्फ भूगोल और आर्थिक विस्तार के कारण ही तो बिग टाउन का दंभ पाल रहे हैं। ठीक है कि इन शहरों में सुविधाएं हैं।बिजली, सड़क और अस्पताल। लेकिन क्या महत्वकांक्षा सिर्फ कम सुविधाओं में ही पनपती है? इसका क्या प्रमाण है कि स्माल टाउन साबित करना चाहता है?अगर ऐसा है तो स्माल टाउन की अपनी हालत खराब क्यों है? क्यों वहां का डाक्टर काम पर नहीं जाता? क्यों वहां लिंग अनुपात कम है? क्यों वहां कानून व्यवस्था खराब है? लेकिन यह सब सवाल पीछे रह जाते हैं जब इन शहरों से कोई आईएएस में अव्वल आ जाता है या कोई अपनी मेहनत से कप्तान बन जाता है तो इसमें स्माल टाउन का क्या योगदान है?
दिल्ली में ही कई स्माल टाउन हैं। कोई कह सकता है कि मैं जहांगीरपुरी के मामूली स्लम स्कूल से पढ़कर आईएएस बन गया। कोई कह सकता है कि मैं राजधानी कालेज में पढ़ कर पूरे दिल्ली विश्वविद्यालय में टाप कर गया। वैसे यह एक तथ्य भी है। इस बार यानी २००७ में दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विषय में तीसरे और पहले साल में राजधानी कालेज का लड़का टॉप किया है। दूसरे वर्ष में आरएसडी कालेज का लड़का टॉप किया है। स्टीफेंस या लेडी श्रीराम कालेज का नाम नहीं है। अब स्मॉल टाउन की अवधारणा यहां भी फिट हो सकती है। महानगर पूरी तरह से बिग टाउन नहीं है। यह कई स्माल टाउन का समुच्य है।
तुलना विश्लेषण का अनिवार्य अंग है। मगर पैमाना बनाते समय भी विश्लेषण होना चाहिए। अंग्रेजों ने कुछ छोटे शहरों को कस्बा कहा और कस्बों को मुफस्सिल। जहां रहने की सिर्फ बुनियादी सुविधा होती है। आज इस पैमाने पर सिर्फ कस्बे ही हैं। और देश के दो सौ से अधिक पिछड़े ज़िले। बाकी कई ज़िलों की हालत बेहतर है। स्माल टाउन की अवधारणा से अलग है। पटना, भुवनेश्वर और रांची राजधानी होने के कारण स्माल टाउन में नहीं गिने जा सकते। इन ज़िलों से आने वाले कई सांसद केंद्रीय स्तर पर मंत्री बनते हैं। कई ऐसे ज़िलों से आते हैं जिनकी चर्चा राष्ट्रीय अखबारों में साल में भी एक बार नहीं होती होगी। लेकिन वहां से चुने जाने के कारण वो गृहमंत्री से लेकर शिक्षा मंत्री बनते हैं। तब तो कोई स्माल टाउन के उदय की बात नहीं करता। लेकिन कप्तान या साफ्टवेयर कंपनी बना देने पर स्माल टाउन का उदय हो जाता है। इस अवधारणा से समस्या है। पहले शहरों को देखने का नज़रिया बदलना चाहिए फिर शहरों की आपस में तुलना होनी चाहिए। स्माल टाउन महानगरों के विचारकों की छोटी होती नज़र से दिखने वाला एक ऐसा शहर है जो हमेशा छोटा ही रहता है। नए पावर के चश्मे की ज़रूरत है।
दिल्ली और मुंबई के विचारकों, पत्रकारों को स्माल टाउन खूब नज़र आता है। उन्हें बरेली, मेरठ, आगरा और जमशेदपुर स्माल टाउन नज़र आते हैं। रांची के महेंद्र सिंह धोनी कप्तान बना तो सबने कहा कि स्माल टाउन का उदय हो रहा है। तो क्या रांची वाकई स्माल टाउन है? क्या धोनी के कप्तान बनने से पहले रांची का कोई वजूद नहीं था?
रांची झारखंड की राजधानी है। उससे पहले औद्योगिक शहर हुआ करता था। इसी के बगल में जमशेदपुर में आरआईटी है जिसकी अपनी मान्यता है। जमशेदपुर में देश का एक बेहतर मैनजमेंट संस्थान है एक्सएलआरआई। जहां सभी किस्म के टाउन के प्रतिभाशाली बच्चे बढ़ते हैं। आगरा और मेरठ तो हर दूसरे दिन स्माल टाउन में गिने जाते हैं। क्या ये शहर वाकई में इतने स्माल हैं?
स्माल टाउन किसे कहेंगे? रीवां, सासाराम, जलगांव या मोतिहारी को या फिर रांची, आगरा या को। दिल्ली मुंबई, पुणे, बंगलौर और कोलकाता से बाहर क्या हर शहर स्माल टाउन है? या फिर स्माल टाउन कहलाने वाले शहरों में भी बदलाव आया है।
महानगरों के विचारक भूल जाते हैं कि दिल्ली और मुंबई में भी कई स्माल टाउन हैं। साउथ दिल्ली के मुकाबले पूर्वी दिल्ली का यमुना विहार स्माल टाउन न हो लेकिन डाउन टाउन तो हैं ही।कल अगर यमुना विहार से दस लड़के आईएएस हो जाएं तो क्या इस पर बहस करेंगे कि दक्षिण दिल्ली का वर्चस्व कम हो जाएगा। क्या दिल्ली और मुंबई स्माल टाउन के लोगों से नहीं बनें? मुंबई, दिल्ली या कोलकाता हर बड़ा महानगर छोटे शहरों से आए लोगों से बना है। इनके ज़रिये बड़े शहरों का ताल्लुक छोटे शहरों में रहा है। सिर्फ भूगोल और आर्थिक विस्तार के कारण ही तो बिग टाउन का दंभ पाल रहे हैं। ठीक है कि इन शहरों में सुविधाएं हैं।बिजली, सड़क और अस्पताल। लेकिन क्या महत्वकांक्षा सिर्फ कम सुविधाओं में ही पनपती है? इसका क्या प्रमाण है कि स्माल टाउन साबित करना चाहता है?अगर ऐसा है तो स्माल टाउन की अपनी हालत खराब क्यों है? क्यों वहां का डाक्टर काम पर नहीं जाता? क्यों वहां लिंग अनुपात कम है? क्यों वहां कानून व्यवस्था खराब है? लेकिन यह सब सवाल पीछे रह जाते हैं जब इन शहरों से कोई आईएएस में अव्वल आ जाता है या कोई अपनी मेहनत से कप्तान बन जाता है तो इसमें स्माल टाउन का क्या योगदान है?
दिल्ली में ही कई स्माल टाउन हैं। कोई कह सकता है कि मैं जहांगीरपुरी के मामूली स्लम स्कूल से पढ़कर आईएएस बन गया। कोई कह सकता है कि मैं राजधानी कालेज में पढ़ कर पूरे दिल्ली विश्वविद्यालय में टाप कर गया। वैसे यह एक तथ्य भी है। इस बार यानी २००७ में दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विषय में तीसरे और पहले साल में राजधानी कालेज का लड़का टॉप किया है। दूसरे वर्ष में आरएसडी कालेज का लड़का टॉप किया है। स्टीफेंस या लेडी श्रीराम कालेज का नाम नहीं है। अब स्मॉल टाउन की अवधारणा यहां भी फिट हो सकती है। महानगर पूरी तरह से बिग टाउन नहीं है। यह कई स्माल टाउन का समुच्य है।
तुलना विश्लेषण का अनिवार्य अंग है। मगर पैमाना बनाते समय भी विश्लेषण होना चाहिए। अंग्रेजों ने कुछ छोटे शहरों को कस्बा कहा और कस्बों को मुफस्सिल। जहां रहने की सिर्फ बुनियादी सुविधा होती है। आज इस पैमाने पर सिर्फ कस्बे ही हैं। और देश के दो सौ से अधिक पिछड़े ज़िले। बाकी कई ज़िलों की हालत बेहतर है। स्माल टाउन की अवधारणा से अलग है। पटना, भुवनेश्वर और रांची राजधानी होने के कारण स्माल टाउन में नहीं गिने जा सकते। इन ज़िलों से आने वाले कई सांसद केंद्रीय स्तर पर मंत्री बनते हैं। कई ऐसे ज़िलों से आते हैं जिनकी चर्चा राष्ट्रीय अखबारों में साल में भी एक बार नहीं होती होगी। लेकिन वहां से चुने जाने के कारण वो गृहमंत्री से लेकर शिक्षा मंत्री बनते हैं। तब तो कोई स्माल टाउन के उदय की बात नहीं करता। लेकिन कप्तान या साफ्टवेयर कंपनी बना देने पर स्माल टाउन का उदय हो जाता है। इस अवधारणा से समस्या है। पहले शहरों को देखने का नज़रिया बदलना चाहिए फिर शहरों की आपस में तुलना होनी चाहिए। स्माल टाउन महानगरों के विचारकों की छोटी होती नज़र से दिखने वाला एक ऐसा शहर है जो हमेशा छोटा ही रहता है। नए पावर के चश्मे की ज़रूरत है।
जय श्री राम रमेश बनाम डीएमके के राम
जय राम रमेश तो बिल्कुल जय श्री राम रमेश के अंदाज़ में बोले। ऐसा लगा कि राम के अस्तित्व न होने की बात को वो अपने दिल पर ले बैठे। उन्हें लगा कि पार्टी को उनके भी मंत्री न होने का ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिल रहा है। वो नज़र आते ही नहीं हैं। बेचारे रमेश जी। जब कांग्रेस विपक्ष में थी तब तमाम तरह के आंकड़े जमा कर राजनीतिक का आर्थिक विश्लेषण कर रहे थे। उन्हें लगा कि सरकार बनेगी तो पार्टी महत्व देगी। बड़ी मुश्किल से मंत्री बने तो मन आहत हो गया। पढ़े लिखे होने के बाद भी राज्य मंत्री का दर्जा। इतना सब होने के बाद भी जयराम रमेश राजनीति में चुप रहने या मीठा बोलने के कारण जाने जाते हैं।
चुनौती अब दी है। जब राम सेतु को लेकर सियासी दल और नेता दौड़ रहे हैं। अंबिका सोनी मां अबे की तरह बता रही थी कि अफसर ने गलती कर दी। कानून मंत्रालय ने देखा नहीं। राम की आस्था के खेल में दो अफसरों का घर इस वक्त राम को कितना याद कर रहा होगा...वही जानते होंगे। वे लोग राम को कैसे याद कर रहा होगा इस पर चुप रहूंगा। बहरहाल बात जय राम रमेश की हो रही है। उन्होंने जय और राम के बीच श्री जोड़ लिया। एलान कर दिया कि अगर मैं मंत्री होता तो नैतिकता के सवाल पर इस्तीफा दे देता। राम रमेश ने मान लिया है कि राम के प्रमाण न होने की बात से नैतिकता का उल्लंघन हुआ है।
पलटकर अंबिका ने भी कह दिया कि मैं जय राम नहीं हूं। वो अंबे आप जय राम। हिंदू धर्म में हर देवी देवता अपना अलग प्रसार करते हैं। उनका अलग महत्व है। सब मिल कर सामूहिक प्रचार नहीं करते। सबके भक्तों को अलग सेना है। सबके लिए पूजा के अलग दिन है। तो अंबिका जयराम कैसे हो जाती। और जय राम जय श्री राम कैसे हो गए? इसका जवाब देखना होगा। आखिर इस अर्थशास्त्री नेता को क्या हुआ है। उम्मीद थी कि वो सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट को लेकर कुछ आंकड़े पेश करेंगे। बतायेंगे कि भारत की आर्थिक प्रगति होगी इस सेतु से। राजनीति नुकसान होगा। लेकिन वो तो सेतु स्वर में बोलने लगे। बाबा रे। सियासत में कब बुद्धि पर चादर पड़ जाए पता नहीं। राम के नाम के कारण सियासत पवित्र तो होती नहीं अलबत्ता गंदी हो जाती है। बल्कि किसी भी मज़हब के आते ही सियासत गंदी हो जाती है।
इसलिए दोस्तों। बोलो। चुप मत रहो।बोलो कि भगत सिंह ने जब कहा कि मैं नास्तिक हूं तो क्या उन्होंने किसी की आस्था को ठेस पहुंचाई थी।समाजशास्त्री और दलित लेखक कांचा इलैया ने किताब लिखी कि मैं हिंदू नहीं हूं तो क्या किसी को ठेस पहुंची थी। इन जैसे तमाम लोगों ने तमाम तरह की आस्थाओं को एकमुश्त नकार ही दिया।
हमारी संस्कृति में ईश्वर की सत्ता को हमेशा चुनौती दी गई है। लोगों ने महात्माओं से पूछा है और बहस भी हुई है। गीता में अर्जुन को कृष्ण आत्मा के वजूद के बारे में बताते हैं। इसे कोई मार सकता है न छेद सकता है न जला सकता है। यह कोई जवाब है भला। हम भी इसे सत्य मान कर बैठे हैं। जब बता रहे थे तो दिखा ही देते। अब कोई इसे अधूरा जवाब मानकर आत्मा की तलाश करने निकलेगा तो क्या करेंगे। उसे मार देंगे कि कृष्ण ने जब बोल ही दिया है तो अब आत्मा पर अनुसंधान क्यों? हिंदू सनातन परंपरा में ईश्वर पर सवाल उठे हैं और कहानियों में भी आता है कि किस तरह से ईश्वर ने भेष बदलकर अहसास कराया कि मैं हूं। ऐसी हज़ार कहानियां हैं।
मानो तो देव न मानो तो पत्थर। यह मुहावरा आया कहां से। किसी ने देव मानने से इंकार किया होगा तभी तो यह मुहावरा जन्मा होगा। अब लोग कहते हैं कि यही सवाल अल्लाह और ईसा के बारे में करेंगे। क्यों नहीं करेंगे। होता रहा है। पूरी दुनिया में नास्तिकों की परंपरा है जो ईश्वर अल्लाह और ईसा के वजूद को नकारता है। नकारने की आज़ादी होनी चाहिए।
ये ठेस का पहुंचना सिर्फ राम के रास्ते से ही क्यों गुज़रता है। जय श्री राम रमेश और मां अंबिका को पता होगा। उन्हें डर लग रहा है कि कहीं आडवाणी जी इस बार वोल्वो रथ से देशाटन पर न निकल जाएं।निकल जाएंगे तो क्या हो जाए।यूपी में ब्राह्मण अपना कमंडल ले गया दलितों के द्वारे। उन्ही के साथ सत्ता भजन में लगा है। सब राम को ढूंढ रहे हैं। राम हैं कि अयोध्या से निकल कर रामसेतु पहुंच गए हैं।
यही नहीं डीएमके नेता करुणानिधि तो राम के अस्तित्व को ही नकार रहे हैं। तो क्या करेंगे आप उत्तर भारत से कार सेवकों को लेकर जाकर दक्षिण पर हमला कर देंगे। करुणानिधि ने कहा है कि द्रविड़ संस्कृति पर आर्य संस्कृति थोपी जा रही है। वो बार बार कह रहे हैं बल्कि टीवी पर सीधा प्रसारण में आकर कह रहे हैं कि न राम हैं न सेतु है। दोनों काल्पनिक बाते हैं। करुणानिधि के इस बयान से सांप्रदायिक तनाव क्यों नहीं हो रहा है। सिर्फ कांग्रेस के बयान से ही क्यों भड़कता है? यह समझ में नहीं आता। अभी तक आडवाणी ने नहीं कहा कि करुणानिधि करोड़ों की आस्था का अपमान कर रहे हैं। एक अरब की आबादी में कितने करोड़ हैं राम के साथ। इसकी गिनती हो जानी चाहिए। फिर करोड़ों का भ्रम भी टूट जाएगा। ज़ाहिर है करुणानिधि के हमले पर वीएचपी, संघ और बीजेपी की चुप्पी बताती है कि राम दक्षिण में नहीं हैं।उधर के लोग नहीं मानते हैं। ज़ाहिर है राम को लेकर संघ परिवार चुनाव करता है। जब कांग्रेस राम के खिलाफ होगी तभी मुखालफत करेंगे। जब डीएमके वाले राम के बारे में बोलेंगे तो चुप रहेंगे। उसे ईशनिंदा नहीं कहेंगे। आडवाणी जी तो ईशनिंदा करने वालों को मृत्यु दंड दिलवाना चाहते हैं। करुणानिधि के बारे में क्या राय है भाई। ज़ाहिर है भारत के हिंदू होने का भ्रम इलाकाई है। खासकर उत्तर और पश्चिम भारत तक। जय श्री राम रमेश करुणानिधि को क्या कहेंगे कि यूपीए छोड़ दें नैतिकता के आधार पर। इस बार ऐसा बोलेंगे तो लिख लीजिए बेचारे भूतपूर्व मंत्री हो जाएंगे। सरकार जाएगी सो
चुनौती अब दी है। जब राम सेतु को लेकर सियासी दल और नेता दौड़ रहे हैं। अंबिका सोनी मां अबे की तरह बता रही थी कि अफसर ने गलती कर दी। कानून मंत्रालय ने देखा नहीं। राम की आस्था के खेल में दो अफसरों का घर इस वक्त राम को कितना याद कर रहा होगा...वही जानते होंगे। वे लोग राम को कैसे याद कर रहा होगा इस पर चुप रहूंगा। बहरहाल बात जय राम रमेश की हो रही है। उन्होंने जय और राम के बीच श्री जोड़ लिया। एलान कर दिया कि अगर मैं मंत्री होता तो नैतिकता के सवाल पर इस्तीफा दे देता। राम रमेश ने मान लिया है कि राम के प्रमाण न होने की बात से नैतिकता का उल्लंघन हुआ है।
पलटकर अंबिका ने भी कह दिया कि मैं जय राम नहीं हूं। वो अंबे आप जय राम। हिंदू धर्म में हर देवी देवता अपना अलग प्रसार करते हैं। उनका अलग महत्व है। सब मिल कर सामूहिक प्रचार नहीं करते। सबके भक्तों को अलग सेना है। सबके लिए पूजा के अलग दिन है। तो अंबिका जयराम कैसे हो जाती। और जय राम जय श्री राम कैसे हो गए? इसका जवाब देखना होगा। आखिर इस अर्थशास्त्री नेता को क्या हुआ है। उम्मीद थी कि वो सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट को लेकर कुछ आंकड़े पेश करेंगे। बतायेंगे कि भारत की आर्थिक प्रगति होगी इस सेतु से। राजनीति नुकसान होगा। लेकिन वो तो सेतु स्वर में बोलने लगे। बाबा रे। सियासत में कब बुद्धि पर चादर पड़ जाए पता नहीं। राम के नाम के कारण सियासत पवित्र तो होती नहीं अलबत्ता गंदी हो जाती है। बल्कि किसी भी मज़हब के आते ही सियासत गंदी हो जाती है।
इसलिए दोस्तों। बोलो। चुप मत रहो।बोलो कि भगत सिंह ने जब कहा कि मैं नास्तिक हूं तो क्या उन्होंने किसी की आस्था को ठेस पहुंचाई थी।समाजशास्त्री और दलित लेखक कांचा इलैया ने किताब लिखी कि मैं हिंदू नहीं हूं तो क्या किसी को ठेस पहुंची थी। इन जैसे तमाम लोगों ने तमाम तरह की आस्थाओं को एकमुश्त नकार ही दिया।
हमारी संस्कृति में ईश्वर की सत्ता को हमेशा चुनौती दी गई है। लोगों ने महात्माओं से पूछा है और बहस भी हुई है। गीता में अर्जुन को कृष्ण आत्मा के वजूद के बारे में बताते हैं। इसे कोई मार सकता है न छेद सकता है न जला सकता है। यह कोई जवाब है भला। हम भी इसे सत्य मान कर बैठे हैं। जब बता रहे थे तो दिखा ही देते। अब कोई इसे अधूरा जवाब मानकर आत्मा की तलाश करने निकलेगा तो क्या करेंगे। उसे मार देंगे कि कृष्ण ने जब बोल ही दिया है तो अब आत्मा पर अनुसंधान क्यों? हिंदू सनातन परंपरा में ईश्वर पर सवाल उठे हैं और कहानियों में भी आता है कि किस तरह से ईश्वर ने भेष बदलकर अहसास कराया कि मैं हूं। ऐसी हज़ार कहानियां हैं।
मानो तो देव न मानो तो पत्थर। यह मुहावरा आया कहां से। किसी ने देव मानने से इंकार किया होगा तभी तो यह मुहावरा जन्मा होगा। अब लोग कहते हैं कि यही सवाल अल्लाह और ईसा के बारे में करेंगे। क्यों नहीं करेंगे। होता रहा है। पूरी दुनिया में नास्तिकों की परंपरा है जो ईश्वर अल्लाह और ईसा के वजूद को नकारता है। नकारने की आज़ादी होनी चाहिए।
ये ठेस का पहुंचना सिर्फ राम के रास्ते से ही क्यों गुज़रता है। जय श्री राम रमेश और मां अंबिका को पता होगा। उन्हें डर लग रहा है कि कहीं आडवाणी जी इस बार वोल्वो रथ से देशाटन पर न निकल जाएं।निकल जाएंगे तो क्या हो जाए।यूपी में ब्राह्मण अपना कमंडल ले गया दलितों के द्वारे। उन्ही के साथ सत्ता भजन में लगा है। सब राम को ढूंढ रहे हैं। राम हैं कि अयोध्या से निकल कर रामसेतु पहुंच गए हैं।
यही नहीं डीएमके नेता करुणानिधि तो राम के अस्तित्व को ही नकार रहे हैं। तो क्या करेंगे आप उत्तर भारत से कार सेवकों को लेकर जाकर दक्षिण पर हमला कर देंगे। करुणानिधि ने कहा है कि द्रविड़ संस्कृति पर आर्य संस्कृति थोपी जा रही है। वो बार बार कह रहे हैं बल्कि टीवी पर सीधा प्रसारण में आकर कह रहे हैं कि न राम हैं न सेतु है। दोनों काल्पनिक बाते हैं। करुणानिधि के इस बयान से सांप्रदायिक तनाव क्यों नहीं हो रहा है। सिर्फ कांग्रेस के बयान से ही क्यों भड़कता है? यह समझ में नहीं आता। अभी तक आडवाणी ने नहीं कहा कि करुणानिधि करोड़ों की आस्था का अपमान कर रहे हैं। एक अरब की आबादी में कितने करोड़ हैं राम के साथ। इसकी गिनती हो जानी चाहिए। फिर करोड़ों का भ्रम भी टूट जाएगा। ज़ाहिर है करुणानिधि के हमले पर वीएचपी, संघ और बीजेपी की चुप्पी बताती है कि राम दक्षिण में नहीं हैं।उधर के लोग नहीं मानते हैं। ज़ाहिर है राम को लेकर संघ परिवार चुनाव करता है। जब कांग्रेस राम के खिलाफ होगी तभी मुखालफत करेंगे। जब डीएमके वाले राम के बारे में बोलेंगे तो चुप रहेंगे। उसे ईशनिंदा नहीं कहेंगे। आडवाणी जी तो ईशनिंदा करने वालों को मृत्यु दंड दिलवाना चाहते हैं। करुणानिधि के बारे में क्या राय है भाई। ज़ाहिर है भारत के हिंदू होने का भ्रम इलाकाई है। खासकर उत्तर और पश्चिम भारत तक। जय श्री राम रमेश करुणानिधि को क्या कहेंगे कि यूपीए छोड़ दें नैतिकता के आधार पर। इस बार ऐसा बोलेंगे तो लिख लीजिए बेचारे भूतपूर्व मंत्री हो जाएंगे। सरकार जाएगी सो
सेतु का हेतु
आस्था का प्रमाण नहीं होता। लेकिन आस्था की राजनीति के प्रमाण होते हैं। कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद का ताला खोला और संघ परिवार के राम जन्म भूमि आंदोलन ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया। आस्था वहीं रह गई। दोनों ढांचे को भूल गए। सरयू किनारे राम का नाम लेकर आने वाले लोगों ने अयोध्या से किनारा कर लिया। और अपने भीतर राम की तलाश कर एक अयोध्या बसा ली। वो कभी तिरुपति जाते हैं तो कभी साईं बाबा के दर्शन करने जाते हैं। उनके भगवान सिर्फ राम नहीं बल्कि सिद्धिविनायक भी हैं। अयोध्या में दुकानदार पुजारी कहते हैं अब पहले जैसा मेला नहीं लगता। चहलपहल नहीं रही अयोध्या जी में। हिंदू सनातन धर्म में एक भगवान का वर्चस्व नहीं है। लेकिन हिंदू सनातन के सियासत में एक ही भगवान का वर्चस्व है। राम का।
इसीलिए कांग्रेस यह बता कर डर गई कि राम का ऐतिहासिक अस्तित्व नहीं है। इतना डर गई कि सुप्रीम कोर्ट में दिया हलफनामा वापस ले लिया। दो मंत्री आपस में लड़ गए। दो अफसर निलंबित हो गए। बीजेपी ने कहा कि आस्था का प्रमाण कहां होता है। ठीक कहा। कहीं नहीं होता।
आप ज़िंदगी में तय करते हैं। किस चीज़ का प्रमाण चाहिए और किस चीज़ का नहीं। प्रमाण मिलता भी है तो सिर्फ प्रमाण से फैसला नहीं होता। अदालतें प्रमाण के साथ इरादे को भी तौलती हैं। हिंदुस्तान की राजनीति में आस्था एक प्रमाण है लेकिन इसके इरादे पर बहस हो सकती है। होती रही है। कांग्रेस में वो हिम्मत नहीं थी कि वो बहस करने पर उतरे। इसलिए इस बार उसने ताला खोल कर शिलान्यास करने की गलती नहीं की। बल्कि स्थगित कर दिया।
ऐसी बात नहीं है कि बीजेपी वाले आस्था के आगे प्रमाण को नहीं मानते। बाबरी मस्जिद मामले में पार्टी की तय नीति है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही सर्वमान्य होगा। यानी सुप्रीम कोर्ट यह कह दे कि जिस जगह पर बाबरी मस्जिद गिराई गई वहां राम का जन्म नहीं होगा तो बीजेपी मान लेगी। अगर अदालत यह कहे कि राम का जन्म हुआ था तो इसे कांग्रेस भी मानेगी। हमारी राजनीति अदालत का सम्मान करती है। सिर्फ अदालत में हलफनामा देते वक्त झूठ बोल देती है। कार सेवा के वक्त सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश के तब के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कानून व्यवस्था का हलफनामा दिया था। बाद में मस्जिद गिरते ही उसके श्रेय लेने लगे। फिर राम को छोड़ वाजपेयी से भिड़ गए तो पार्टी से ही निकाल दिए गए। वापस बीजेपी में आए हैं तो राम की बात कर रहे हैं। मगर बीजेपी से जितने दिन बाहर रहे राम को बनवास दे दिया। खैर इसी तरह का हलफनामा कांग्रेस सरकार ने दिया। उन्हें लगा कि बीजेपी वाले राम को भूल गए हैं। वो अदालत की ही बात मानते हैं। तो अदालत से कह दिया जाए कि राम का प्रमाण नहीं।
बात ज़ीरो से शुरू हो कर ज़ीरो पर पहुंच गई। बीजेपी के लोगों ने कहा आस्था का सवाल है। राम के होने का प्रमाण मांगते हो। अल्लाह और ईसा का प्रमाण कौन देगा। किसी के पास है नहीं तो देगा कौन। खैर सवाल यह नहीं था। मगर सब ने हथियार डाल दिए। कभी कभी करना चाहिए। दुनिया में आस्था और विज्ञान के बीच बहस चल रही है। चलती रहेगी। राम के होने का प्रमाण महत्वपूर्ण नहीं है। राम के नाम पर आस्था का सवाल महत्वपूर्ण है। तोगड़िया ने कह दिया बीजेपी को राम का नाम लेने का हक नहीं। आडवाणी जी फुर्ती में आ गए। उनके नेतृत्व को दी जा रही चुनौती पर राम ने पानी डाल दिया। आडवाणी राम को भूल गए लेकिन ऐन वक्त पर राम ने आडवाणी को बचा लिया। कब तक बचाया यह पता नहीं।
हमने आस्था को हज़ार बार चुनौती दी है। आस्था से अंधविश्वास को अलग किया है। जाति व्यवस्था का उदगम तो ब्रह्मा के शरीर से है। उसे इतनी चुनौती दी कि ब्रह्मा के शरीर का पता नहीं। अब ब्रह्मा के मुख से निकले ब्राह्मण दलितों के साथ चल रहे हैं। हम गंगा यमुना में भी आस्था रखते हैं। उसका इतना बुरा हाल किया कि है किसी में मज़ाल जो इन नदियों को बचा ले। हम आस्था पर सवाल नहीं करना चाहते इसीलिए बार बार मना करने पर पूजा की सामग्री नदियों में डाल आते हैं। यह जानते हुए कि हमारी आस्था इन नदियों में है। हम आस्था पर सवाल भी उठाते हैं और आस्था का इस्तमाल भी करते हैं। बस समय और इरादा अलग अलग होता है। सेतु का हेतु सब जानते हैं। राम की भक्ति तो सब करते हैं मगर कोई आस्था के नाम पर राम का इस्तमाल करे तो सवाल होना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे हम नदियों को आस्था के नाम पर मलिन कर रहे हैं। अपने छोटे छोटे स्वार्थों के लिए कराई गई पूजा से निकली सामग्री से प्रदूषित कर। इस पर सवाल उठता है तो लोग भाग जाते हैं। पता नहीं लगता है कि कोई है भी जो गंगा और यमुना के लिए रो रहा है। कांग्रेस और बीजेपी के बवाल में राम भी फंस गए हैं। राम की भक्ति कीजिए। राम को लेकर हो रहे बवाल पर सवाल भी कीजिए। जय श्री राम का मतलब राम की पूजा भी है। जय श्री राम का मतलब राम को लेकर राजनीति भी है। क्या दोनों जगह पर आस्था एक समान है। इसका कोई प्रमाण है आपके पास।
इसीलिए कांग्रेस यह बता कर डर गई कि राम का ऐतिहासिक अस्तित्व नहीं है। इतना डर गई कि सुप्रीम कोर्ट में दिया हलफनामा वापस ले लिया। दो मंत्री आपस में लड़ गए। दो अफसर निलंबित हो गए। बीजेपी ने कहा कि आस्था का प्रमाण कहां होता है। ठीक कहा। कहीं नहीं होता।
आप ज़िंदगी में तय करते हैं। किस चीज़ का प्रमाण चाहिए और किस चीज़ का नहीं। प्रमाण मिलता भी है तो सिर्फ प्रमाण से फैसला नहीं होता। अदालतें प्रमाण के साथ इरादे को भी तौलती हैं। हिंदुस्तान की राजनीति में आस्था एक प्रमाण है लेकिन इसके इरादे पर बहस हो सकती है। होती रही है। कांग्रेस में वो हिम्मत नहीं थी कि वो बहस करने पर उतरे। इसलिए इस बार उसने ताला खोल कर शिलान्यास करने की गलती नहीं की। बल्कि स्थगित कर दिया।
ऐसी बात नहीं है कि बीजेपी वाले आस्था के आगे प्रमाण को नहीं मानते। बाबरी मस्जिद मामले में पार्टी की तय नीति है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही सर्वमान्य होगा। यानी सुप्रीम कोर्ट यह कह दे कि जिस जगह पर बाबरी मस्जिद गिराई गई वहां राम का जन्म नहीं होगा तो बीजेपी मान लेगी। अगर अदालत यह कहे कि राम का जन्म हुआ था तो इसे कांग्रेस भी मानेगी। हमारी राजनीति अदालत का सम्मान करती है। सिर्फ अदालत में हलफनामा देते वक्त झूठ बोल देती है। कार सेवा के वक्त सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश के तब के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कानून व्यवस्था का हलफनामा दिया था। बाद में मस्जिद गिरते ही उसके श्रेय लेने लगे। फिर राम को छोड़ वाजपेयी से भिड़ गए तो पार्टी से ही निकाल दिए गए। वापस बीजेपी में आए हैं तो राम की बात कर रहे हैं। मगर बीजेपी से जितने दिन बाहर रहे राम को बनवास दे दिया। खैर इसी तरह का हलफनामा कांग्रेस सरकार ने दिया। उन्हें लगा कि बीजेपी वाले राम को भूल गए हैं। वो अदालत की ही बात मानते हैं। तो अदालत से कह दिया जाए कि राम का प्रमाण नहीं।
बात ज़ीरो से शुरू हो कर ज़ीरो पर पहुंच गई। बीजेपी के लोगों ने कहा आस्था का सवाल है। राम के होने का प्रमाण मांगते हो। अल्लाह और ईसा का प्रमाण कौन देगा। किसी के पास है नहीं तो देगा कौन। खैर सवाल यह नहीं था। मगर सब ने हथियार डाल दिए। कभी कभी करना चाहिए। दुनिया में आस्था और विज्ञान के बीच बहस चल रही है। चलती रहेगी। राम के होने का प्रमाण महत्वपूर्ण नहीं है। राम के नाम पर आस्था का सवाल महत्वपूर्ण है। तोगड़िया ने कह दिया बीजेपी को राम का नाम लेने का हक नहीं। आडवाणी जी फुर्ती में आ गए। उनके नेतृत्व को दी जा रही चुनौती पर राम ने पानी डाल दिया। आडवाणी राम को भूल गए लेकिन ऐन वक्त पर राम ने आडवाणी को बचा लिया। कब तक बचाया यह पता नहीं।
हमने आस्था को हज़ार बार चुनौती दी है। आस्था से अंधविश्वास को अलग किया है। जाति व्यवस्था का उदगम तो ब्रह्मा के शरीर से है। उसे इतनी चुनौती दी कि ब्रह्मा के शरीर का पता नहीं। अब ब्रह्मा के मुख से निकले ब्राह्मण दलितों के साथ चल रहे हैं। हम गंगा यमुना में भी आस्था रखते हैं। उसका इतना बुरा हाल किया कि है किसी में मज़ाल जो इन नदियों को बचा ले। हम आस्था पर सवाल नहीं करना चाहते इसीलिए बार बार मना करने पर पूजा की सामग्री नदियों में डाल आते हैं। यह जानते हुए कि हमारी आस्था इन नदियों में है। हम आस्था पर सवाल भी उठाते हैं और आस्था का इस्तमाल भी करते हैं। बस समय और इरादा अलग अलग होता है। सेतु का हेतु सब जानते हैं। राम की भक्ति तो सब करते हैं मगर कोई आस्था के नाम पर राम का इस्तमाल करे तो सवाल होना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे हम नदियों को आस्था के नाम पर मलिन कर रहे हैं। अपने छोटे छोटे स्वार्थों के लिए कराई गई पूजा से निकली सामग्री से प्रदूषित कर। इस पर सवाल उठता है तो लोग भाग जाते हैं। पता नहीं लगता है कि कोई है भी जो गंगा और यमुना के लिए रो रहा है। कांग्रेस और बीजेपी के बवाल में राम भी फंस गए हैं। राम की भक्ति कीजिए। राम को लेकर हो रहे बवाल पर सवाल भी कीजिए। जय श्री राम का मतलब राम की पूजा भी है। जय श्री राम का मतलब राम को लेकर राजनीति भी है। क्या दोनों जगह पर आस्था एक समान है। इसका कोई प्रमाण है आपके पास।
क्रिकेट का फोर ट्वेंटी
हर चौके छक्के पर उत्तम नाच की व्यवस्था। अब दिन भर का नहीं ये तीन घंटे का मनोरंजन है। अरे भाई देखता नहीं क्या। ध्यान मत बंटाओ मैच अभी खत्म हुआ जाता है। स्वागत है आपका बीस बटा बीस में। टेस्ट क्रिकेट से वन डे और वन डे से हाफ डे। क्या बात है क्रिकेट फटाफट नहीं झटाझट है रे। देखा पहले ये लोग कितना धीरे धीरे खेलते थे। जमते थे। फिर दौड़ते थे। अब तो बेटा उतरो और मारो। नहीं तो जाओ मैदान से बाहर। क्रिकेट का मैच है कोई नेट प्रैक्टिस नहीं। मारो नहीं तो मरो।
दुनिया बदल गई है। हम एसएमएस में बात करते हैं। कपड़े कम पहनते हैं। खाना कम खाना चाहते हैं। बात नहीं करना चाहते हैं। तो ये दिन भर मैच देखने की चाहत कैसे बची रह सकती है। और पहले तो कमा के चल देते थे भाई लोग। कुछ लुटाते भी नहीं थे। अभी देखिये तो हर छक्का पर छौड़ा छौड़ी का डांस फ्री में अलग। कल को यह डांस भी प्रायोजित होगा। धोनी के छक्का मारने पर यह डांस हो रहा है साधु यादव की तरफ से। चौके का यह डांस राजा भैया की तरफ से है भैया। छमिया नाचेगी और बबुआ शाट लगाएगा। क्या मजा है रे। पहले तो मजा ही नहीं था। अब हो गया है। कइसन रिलायंस छौड़िया सब को नचा रहा था। कोई बोला कि डांस का प्रयोजन होता है तो प्रायोजक न होगा का जी। क्या विश्व कप है। कल को बेंड इट लाइक बेकहम नीयत गेल भैया धोनी का बलवा धर पटक ही देंगे। इहे होगा। तभी न अंपायर को सीटी मिलेगा। बजा बजा के बाहर करेगा। खिलाड़ी को लाल कार्ड दिखाओ। जइसन इंडिया में लोग मनमोहन सिंह को लाल कार्ड दिखाते फिर रहे हैं।
कहते थे कि फुटबाल कोई खेला है। फुटबाल बोला कि क्रिकेट कोई खेला है। फुटबाल ने अइसन पटकनी दी है क्रिकेट को कि दिमागे ठंडा हो गया। फुलपैंट को काट कर हाफ पैंट कर दिया। फुटबाल वालों ने अपना उतरन पहनवा दिया क्रिकेट को। ड्रेसिंग रूम में सजते थे भाई लोग। चल इहां मैदान में। इहें बैइठ। आउट होगा तो दौड़ल जाएगा मैदान पर। फुटबाल तो हरा दिहिस क्रिकेट को जी। अब का करोगे। ट्वेंटी ट्वेंटी का फोर ट्वेंटी कर दिया इ तो।
खिलाड़ी नहीं बाबू दर्शक का भी हुलिया बदल गया। उ लोग भी फुटबाल के मैच की तरह हू हा हो कर रहे थे। दर्शक बलून लेकर बइठा था हो। कद्दू नीयत बलून लेकर। बूम बाम टकरा कर मज़ा ले रहा था। लग रहा था कि इस मैच के लिए क्रिकेट के नहीं फुटबाल के दर्शकों को भाड़े पर लाया गया था। कैमरा भी कइसन छमक रहा था जी। मार लचक लचक के घूम रहा था। उफ मस्ती आ गया जी। क्रिकेट का कट टू कट हो गया है। हमरे स्पोर्ट्स संवाददाता विमल भैया कहिन कि इ त फ्यूचर है। हम बोल दिये। देख हो विमल भैया फ्यूचर में का है कोन जाने हे। फ्यूचर में तो टास में ही मैचवा फरिया जाएगा। उ हे रीयल ट्वेंटी ट्वेटी होगा। बीसे मिनट में मैच फिनिस।
जोहानिसबर्ग में औपनिवेशिक क्रिकेट का आधुनिकीकरण अब हुआ है। बिना गान्ही बाबा के। हम तो सोच रहे है। एक और बात। टेस्ट से लेकर वन डे तक में भाई लोग जो रिकार्ड बनाए हैं। उ का होगा। उसको देश के किसी सचिवालय में भेज दीजिए। उहां किरानी बाबू और मूस मिल कर बेच खाएंगे या कतर खाएंगे। रिकार्ड बना रहे थे तेंदुलकर जी। धुत। ट्वेंटी ट्वेंटी देखे कि नहीं। जय हो जय हो। क्रिकेट फुटबाल और बेसबाल के करीब आ गया। अब तो बस बैटवा मुगदर नीयत न हो जाए ओकरे डर है। का हो विमल भैया। का कहते हैं।
दुनिया बदल गई है। हम एसएमएस में बात करते हैं। कपड़े कम पहनते हैं। खाना कम खाना चाहते हैं। बात नहीं करना चाहते हैं। तो ये दिन भर मैच देखने की चाहत कैसे बची रह सकती है। और पहले तो कमा के चल देते थे भाई लोग। कुछ लुटाते भी नहीं थे। अभी देखिये तो हर छक्का पर छौड़ा छौड़ी का डांस फ्री में अलग। कल को यह डांस भी प्रायोजित होगा। धोनी के छक्का मारने पर यह डांस हो रहा है साधु यादव की तरफ से। चौके का यह डांस राजा भैया की तरफ से है भैया। छमिया नाचेगी और बबुआ शाट लगाएगा। क्या मजा है रे। पहले तो मजा ही नहीं था। अब हो गया है। कइसन रिलायंस छौड़िया सब को नचा रहा था। कोई बोला कि डांस का प्रयोजन होता है तो प्रायोजक न होगा का जी। क्या विश्व कप है। कल को बेंड इट लाइक बेकहम नीयत गेल भैया धोनी का बलवा धर पटक ही देंगे। इहे होगा। तभी न अंपायर को सीटी मिलेगा। बजा बजा के बाहर करेगा। खिलाड़ी को लाल कार्ड दिखाओ। जइसन इंडिया में लोग मनमोहन सिंह को लाल कार्ड दिखाते फिर रहे हैं।
कहते थे कि फुटबाल कोई खेला है। फुटबाल बोला कि क्रिकेट कोई खेला है। फुटबाल ने अइसन पटकनी दी है क्रिकेट को कि दिमागे ठंडा हो गया। फुलपैंट को काट कर हाफ पैंट कर दिया। फुटबाल वालों ने अपना उतरन पहनवा दिया क्रिकेट को। ड्रेसिंग रूम में सजते थे भाई लोग। चल इहां मैदान में। इहें बैइठ। आउट होगा तो दौड़ल जाएगा मैदान पर। फुटबाल तो हरा दिहिस क्रिकेट को जी। अब का करोगे। ट्वेंटी ट्वेंटी का फोर ट्वेंटी कर दिया इ तो।
खिलाड़ी नहीं बाबू दर्शक का भी हुलिया बदल गया। उ लोग भी फुटबाल के मैच की तरह हू हा हो कर रहे थे। दर्शक बलून लेकर बइठा था हो। कद्दू नीयत बलून लेकर। बूम बाम टकरा कर मज़ा ले रहा था। लग रहा था कि इस मैच के लिए क्रिकेट के नहीं फुटबाल के दर्शकों को भाड़े पर लाया गया था। कैमरा भी कइसन छमक रहा था जी। मार लचक लचक के घूम रहा था। उफ मस्ती आ गया जी। क्रिकेट का कट टू कट हो गया है। हमरे स्पोर्ट्स संवाददाता विमल भैया कहिन कि इ त फ्यूचर है। हम बोल दिये। देख हो विमल भैया फ्यूचर में का है कोन जाने हे। फ्यूचर में तो टास में ही मैचवा फरिया जाएगा। उ हे रीयल ट्वेंटी ट्वेटी होगा। बीसे मिनट में मैच फिनिस।
जोहानिसबर्ग में औपनिवेशिक क्रिकेट का आधुनिकीकरण अब हुआ है। बिना गान्ही बाबा के। हम तो सोच रहे है। एक और बात। टेस्ट से लेकर वन डे तक में भाई लोग जो रिकार्ड बनाए हैं। उ का होगा। उसको देश के किसी सचिवालय में भेज दीजिए। उहां किरानी बाबू और मूस मिल कर बेच खाएंगे या कतर खाएंगे। रिकार्ड बना रहे थे तेंदुलकर जी। धुत। ट्वेंटी ट्वेंटी देखे कि नहीं। जय हो जय हो। क्रिकेट फुटबाल और बेसबाल के करीब आ गया। अब तो बस बैटवा मुगदर नीयत न हो जाए ओकरे डर है। का हो विमल भैया। का कहते हैं।
उफ अमरीका- इरफ़ान अली
(इरफ़ान अली सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल हैं। नौजवान हैं। काम के सिलसिले में अमरीका गए थे। इस आशंका के साथ कि अमरीका में मुसलमान शक की नज़र से देखा जाता होगा। इस आशंका के साथ कि हिंदुस्तान में अमरीका की जितनी बुराई सुनी है..वैसा ही होगा। इरफ़ान ने जो भी देखा जितना भी देखा, लिखा है। तीन महीने में अमरीका को सिर्फ देखा ही जा सकता है)
आजकल हर न्यूज़ चैनल पर एक ही ख़बर देखता हूं। हर तरफ एक ही मुद्दा है। अमरीका के साथ परमाणु करार की। देश को अमरीका के हाथों बेचने की बात हो रही है। वैसे ही हम हिंदुस्तानी अमरीका के बारे में अच्छी बातें सुनकर नहीं बड़े होते। खुद पर ही गर्व करते रहते हैं। अपनी अच्छाई में अपनी गलती छुपा लेते हैं और दूसरे की बुराई में उसकी अच्छाई ढंक देते हैं। हमारी हालत कुएं के मेढक जैसी हो गई है।जिसके लिए कुआं ही संसार है।
मैं अमरीका में अपने तीन महीने के अनुभव के बारे में दो चार बातें लिखना चाहता हूं। ज़ाहिर है थोड़ी बहुत हिंदुस्तान से तुलना भी होगी। हम हिंदुस्तानी लोग पता नहीं क्यों अमरीका के बारे में इतना बुरा क्यों सोचते हैं। मैं भी बुरा ही सोचता था। इसी सोच के साथ अमरीका गया था। मगर धीरे धीरे मेरी सोच में कुछ बदलाव भी आया।
अमरीका एक अलग दुनिया है। जहां एक बेहतर व्यवस्था है। हर आदमी अपनी ज़िंदगी में व्यस्त और खुश है। हर शख्स अपनी मर्जी से जीता है। कोई किसी की ज़िंदगी में
दखल नहीं देता। अमरीका को लेकर कई राजनीति सवाल हैं जिनपर बहस चलते रहती हैं। मगर राजनीति से अलग अमरीका का एक समाज भी है। जिस पर चर्चा कम होती है।
सामाजिक रूप से अगर दुनिया में किसी भी धर्म का आदर है तो अमरीका में होता है। मैंने देखा कि जैक्सन हाइट्स की सड़क पर एक मौलाना साहिब माइक पर तकरीर कर रहे थे। हैरान होना लाज़िमी था। तकरीर का उन्वान था- दुनिया पर इस्लाम की हुकूमत कायम होने वाली है। दिन के वक्त। बीच सड़क पर। आने जाने वाले ठहर कर सुन रहे थे। मौलाना के लगाए पोस्टर को कोई नहीं फाड़ रहा था। फिर भी न्यूयार्क की पुलिस तैनात थी। लेकिन तकरीर में कोई व्यावधान नहीं था। लोग मौलाना को गौर से सुन रहे थे। सवाल जवाब का दौर भी चला। मैं ये सोच रहा था कि अगर यही तकरीर कोई मौलाना हिंदुस्तान की सड़क पर देता तो कैसी प्रतिक्रिया होती । अमरीका में यह काम बिना मुश्किल के हो रहा था।
मेरे दफ्तर में भी सारे कर्मचारी अमरीकी थे। वो मेरे दोस्त भी बने। कभी भेदभाव महसूस नहीं किया। हम सब सामान्य रूप से दोस्त बने। अक्सर चर्चा होती थी। एक दिन किसी चर्चा में मैं गर्व के साथ बता रहा था कि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दुनिया से सबसे पढ़े लिखे राजनेताओं में से एक है। वहीं किसी अखबार में जार्ज बुश और मनमोहन सिंह की तस्वीर छपी थी । मुझे केविन के उस जुमले पर हंसी आई जब उसने कहा कि एक तरफ सबसे पढ़े लिखे तो दूसरी तरफ बेवकूफ इंसान खडा है। हम सब हंस रहे थे। हिंदुस्तान में आजादी ोत सिर्फ शिवसेना बजरंग दल और वीएचपी जैसे सांप्रदायिक दलों को ही है। हम अमरीका को इस्लाम का दुश्मन बताते हैं।
एक कहावत है कि काम जम के करो और पार्टी भी जम कर करो”..ऐसा नहीं है कि वो लोग बहुत अमीर हैं। वहां भी भीखारी होते हैं। लेकिन उनके मांगने का तरीका अलग होता है। करीब आकर हंसते हैं और कहते हैं क्या आप उनकी थोड़ी मदद कर सकते हैं। अगर आप नहीं करना चाहते तो कुछ नहीं बोलेंगे। मुस्करा कर कहेंगे हैव अ गुड डे?
अमरीका वैसा नहीं है जैसा कहा जाता है। उसकी बुराइयां सब जानते हैं। लेकिन एक मुस्लिम होने के कारण मुझे कभी नहीं लगा कि कोई मेरा पीछा कर रहा है। मुझे ख़ास नज़र से देख रहा है।
आजकल हर न्यूज़ चैनल पर एक ही ख़बर देखता हूं। हर तरफ एक ही मुद्दा है। अमरीका के साथ परमाणु करार की। देश को अमरीका के हाथों बेचने की बात हो रही है। वैसे ही हम हिंदुस्तानी अमरीका के बारे में अच्छी बातें सुनकर नहीं बड़े होते। खुद पर ही गर्व करते रहते हैं। अपनी अच्छाई में अपनी गलती छुपा लेते हैं और दूसरे की बुराई में उसकी अच्छाई ढंक देते हैं। हमारी हालत कुएं के मेढक जैसी हो गई है।जिसके लिए कुआं ही संसार है।
मैं अमरीका में अपने तीन महीने के अनुभव के बारे में दो चार बातें लिखना चाहता हूं। ज़ाहिर है थोड़ी बहुत हिंदुस्तान से तुलना भी होगी। हम हिंदुस्तानी लोग पता नहीं क्यों अमरीका के बारे में इतना बुरा क्यों सोचते हैं। मैं भी बुरा ही सोचता था। इसी सोच के साथ अमरीका गया था। मगर धीरे धीरे मेरी सोच में कुछ बदलाव भी आया।
अमरीका एक अलग दुनिया है। जहां एक बेहतर व्यवस्था है। हर आदमी अपनी ज़िंदगी में व्यस्त और खुश है। हर शख्स अपनी मर्जी से जीता है। कोई किसी की ज़िंदगी में
दखल नहीं देता। अमरीका को लेकर कई राजनीति सवाल हैं जिनपर बहस चलते रहती हैं। मगर राजनीति से अलग अमरीका का एक समाज भी है। जिस पर चर्चा कम होती है।
सामाजिक रूप से अगर दुनिया में किसी भी धर्म का आदर है तो अमरीका में होता है। मैंने देखा कि जैक्सन हाइट्स की सड़क पर एक मौलाना साहिब माइक पर तकरीर कर रहे थे। हैरान होना लाज़िमी था। तकरीर का उन्वान था- दुनिया पर इस्लाम की हुकूमत कायम होने वाली है। दिन के वक्त। बीच सड़क पर। आने जाने वाले ठहर कर सुन रहे थे। मौलाना के लगाए पोस्टर को कोई नहीं फाड़ रहा था। फिर भी न्यूयार्क की पुलिस तैनात थी। लेकिन तकरीर में कोई व्यावधान नहीं था। लोग मौलाना को गौर से सुन रहे थे। सवाल जवाब का दौर भी चला। मैं ये सोच रहा था कि अगर यही तकरीर कोई मौलाना हिंदुस्तान की सड़क पर देता तो कैसी प्रतिक्रिया होती । अमरीका में यह काम बिना मुश्किल के हो रहा था।
मेरे दफ्तर में भी सारे कर्मचारी अमरीकी थे। वो मेरे दोस्त भी बने। कभी भेदभाव महसूस नहीं किया। हम सब सामान्य रूप से दोस्त बने। अक्सर चर्चा होती थी। एक दिन किसी चर्चा में मैं गर्व के साथ बता रहा था कि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दुनिया से सबसे पढ़े लिखे राजनेताओं में से एक है। वहीं किसी अखबार में जार्ज बुश और मनमोहन सिंह की तस्वीर छपी थी । मुझे केविन के उस जुमले पर हंसी आई जब उसने कहा कि एक तरफ सबसे पढ़े लिखे तो दूसरी तरफ बेवकूफ इंसान खडा है। हम सब हंस रहे थे। हिंदुस्तान में आजादी ोत सिर्फ शिवसेना बजरंग दल और वीएचपी जैसे सांप्रदायिक दलों को ही है। हम अमरीका को इस्लाम का दुश्मन बताते हैं।
एक कहावत है कि काम जम के करो और पार्टी भी जम कर करो”..ऐसा नहीं है कि वो लोग बहुत अमीर हैं। वहां भी भीखारी होते हैं। लेकिन उनके मांगने का तरीका अलग होता है। करीब आकर हंसते हैं और कहते हैं क्या आप उनकी थोड़ी मदद कर सकते हैं। अगर आप नहीं करना चाहते तो कुछ नहीं बोलेंगे। मुस्करा कर कहेंगे हैव अ गुड डे?
अमरीका वैसा नहीं है जैसा कहा जाता है। उसकी बुराइयां सब जानते हैं। लेकिन एक मुस्लिम होने के कारण मुझे कभी नहीं लगा कि कोई मेरा पीछा कर रहा है। मुझे ख़ास नज़र से देख रहा है।
बिजली चोर कान्हा
माखन चोर के नाम पर बिजली चोर। बाप रे बाप। ऐसा अधर्म। कान्हा तुम कहां थे। क्या तुम माखन चुराने में इतना व्यस्त हो गए कि पूर्वी दिल्ली के सनातन धर्म वालों ने चार सौ पचास किलोवाट बिजली चुरा ली। यशोदा मां से कह देते कि कुछ किलोवाट बिजली है छीके पर रखे दो। बाल गोपाल सब चुरा लेंगे। बीएसईएस बहुत नाराज़ है। कान्हा बिजली कंपनी ने सभी आयोजकों पर दो करोड़ का जुर्माना कर दिया है।
ये बिजली कंपनी वाले भी घोर अधर्मी है। मथुरा में कितनी हांडी दही तुमने चुरा कर खा ली। किसी ने जुर्माना लगाया। शिकायत भर की और यशोदा मैया ने हंस कर टाल दिया। लेकिन यह अच्छी बात नहीं है। कान्हा तुम्हारे नाम पर मक्खन की चोरी हो, कोई बात नहीं। तुम्हारे नाम पर गोपियों का कोई दिल चुरा ले, कोई बात नहीं। लेकिन सबसे कह दो कोई बिजली न चुराये। किसी के घर अंधेरा हो सकता है। बिजली कंपनी को घाटा हो सकता है। बिजली चोरों से काफी परेशान हैं।
यह खबर पढ़कर यशोदा मैय्या बहुत नाराज़ हैं। कह रही थीं कि कान्हा को बदनाम कर ये लोग अब बिजली भी चुराने लगे हैं। कल को ये इल्जाम कान्हा तुम्हारे सर आ गया तो क्या करोगे। मैय्या कंपनी वालों से कैसे कहेंगी कि कान्हा तो छोटा है। पावर ग्रीड से बिजली कैसे चुरा सकता है। मुझे शक है कि ये सनातन धर्म वाले ये कहने लगेंगे कि चोरी हमने नहीं कान्हा ने ही की है। कान्हां ने कटिया लगाकर बिजली चुरा ली है।
ये बिजली कंपनी वाले भी घोर अधर्मी है। मथुरा में कितनी हांडी दही तुमने चुरा कर खा ली। किसी ने जुर्माना लगाया। शिकायत भर की और यशोदा मैया ने हंस कर टाल दिया। लेकिन यह अच्छी बात नहीं है। कान्हा तुम्हारे नाम पर मक्खन की चोरी हो, कोई बात नहीं। तुम्हारे नाम पर गोपियों का कोई दिल चुरा ले, कोई बात नहीं। लेकिन सबसे कह दो कोई बिजली न चुराये। किसी के घर अंधेरा हो सकता है। बिजली कंपनी को घाटा हो सकता है। बिजली चोरों से काफी परेशान हैं।
यह खबर पढ़कर यशोदा मैय्या बहुत नाराज़ हैं। कह रही थीं कि कान्हा को बदनाम कर ये लोग अब बिजली भी चुराने लगे हैं। कल को ये इल्जाम कान्हा तुम्हारे सर आ गया तो क्या करोगे। मैय्या कंपनी वालों से कैसे कहेंगी कि कान्हा तो छोटा है। पावर ग्रीड से बिजली कैसे चुरा सकता है। मुझे शक है कि ये सनातन धर्म वाले ये कहने लगेंगे कि चोरी हमने नहीं कान्हा ने ही की है। कान्हां ने कटिया लगाकर बिजली चुरा ली है।
तोहफे की हैसियत
कैडबरीज़ का एक विज्ञापन आ रहा है।जिसमें बेमन से खरीदा गया एक मामूली तोहफा कई हाथों से गुज़रता हुआ लौट आता है। चाकलेट की मिठास बेचने वाला यह विज्ञापन तोहफों की ऐसी औकात दिखाता है कि डर लगने लगता है। शुक्र है लोग गिफ्ट रैप को सामने नहीं खोलते। कैडबरीज की चले तो यह सब के सामने गिफ्ट रैप फड़वाने लगे। तब क्या होगा, ईमानदारी से कल्पना कर लीजिए।
इन दिनों अब कई ऐसे मौके आते हैं जब तोहफे की ज़रूरत होती है। कई बार आप दफ्तर से लेट आने और दुकानों के बंद होने के कारण तोहफा खरीदने में दिक्कत आती है। कई बार वक्त होता है तो समझ नहीं आता कि क्या खरीदें। कई बार दुकान पर जाते हैं तो पसंद की चीज़ नहीं मिलती। तोहफा खरीदना एक सिरदर्द है। एक ऐसा रिवाज बन गया है जिसके नाम पर आप बेतुकी चीज़ों पर बेवजह पैसा खर्च करने लगते हैं। यही कि कुछ लेकर चलना चाहिए। इस चक्कर में कई बार ब्रांड वाली चीज़ छूट जाती है। इसलिए कैडबरीज ने ऐसा डराया कि आगे से कुछ भी खरीदें कैडबरीज़ भी ले लें। वर्ना ये विज्ञापन वाले गिफ्ट रैप को फाड़ कर आपके तोहफे को बाज़ार में रख देंगे। बोलेंगे कि देखो यही रवीश कुमार ने तोहफा दिया है। क्या यह तोहफे में देने की चीज़ है। इससे आप शर्मिंदा महसूस करेंगे और तमाशा देखने वाले दूसरे लोग डर जायेंगे कि अगली बार से महंगा खरीदो। फूल मत खरीदो। तोहफे की दुनिया में फूल अब तिरस्कृत है। डाउन मार्केट है। लेकिन फिर भी बिक रहा है। बेवजह।
तो क्या करें। कोई गिफ्ट न खरीदें। मेरे हिसाब से यही किया जाए। आपके अंदर ग्रंथी पैदा कर ये बाज़ार जेब उलटवाना चाहता है। रिश्ते होंगे तो पकते रहेंगे। अपने आप। तोहफे की ज़रूरत नहीं। रिश्तों का आध्यात्मवाद कायम होना चाहिए। कैडबरीज़ खाना है तो किसी और मौके पर खाइये। गिफ्ट के डर से इसे न खरीदें। अगर खरीद रहे हैं तो सोच लीजियेगा। अगर कल कोई दूसरा प्रोडक्ट यह विज्ञापन लेकर उतर जाए कि कैडबरीज़ के चॉकलेट गिफ्ट देने की चीज़ नहीं हैं। उनकी कोई हैसियत नहीं। तब क्या करेंगे। इसका कोई अंत है। एक समाधान है। कोई बुलाये तो जाइये मगर तोहफे के साथ नहीं। दस बार कीजिए। बाज़ार मुफ्त में माल दे जाएगा कि खाली हाथ क्यों जा रहे हैं। आप बस जाइये गिफ्ट हम खरीद कर देंगे। बदले में जिस दोस्त के घर जाएंगे वहां आपको केक, कटलेट और प्लेट प्रायोजित मिलेंगे। कुछ भी मुफ्त नहीं होता। बस संयम करो भाई। विज्ञापन न जाने क्या क्या स्कीम बना रहा
इन दिनों अब कई ऐसे मौके आते हैं जब तोहफे की ज़रूरत होती है। कई बार आप दफ्तर से लेट आने और दुकानों के बंद होने के कारण तोहफा खरीदने में दिक्कत आती है। कई बार वक्त होता है तो समझ नहीं आता कि क्या खरीदें। कई बार दुकान पर जाते हैं तो पसंद की चीज़ नहीं मिलती। तोहफा खरीदना एक सिरदर्द है। एक ऐसा रिवाज बन गया है जिसके नाम पर आप बेतुकी चीज़ों पर बेवजह पैसा खर्च करने लगते हैं। यही कि कुछ लेकर चलना चाहिए। इस चक्कर में कई बार ब्रांड वाली चीज़ छूट जाती है। इसलिए कैडबरीज ने ऐसा डराया कि आगे से कुछ भी खरीदें कैडबरीज़ भी ले लें। वर्ना ये विज्ञापन वाले गिफ्ट रैप को फाड़ कर आपके तोहफे को बाज़ार में रख देंगे। बोलेंगे कि देखो यही रवीश कुमार ने तोहफा दिया है। क्या यह तोहफे में देने की चीज़ है। इससे आप शर्मिंदा महसूस करेंगे और तमाशा देखने वाले दूसरे लोग डर जायेंगे कि अगली बार से महंगा खरीदो। फूल मत खरीदो। तोहफे की दुनिया में फूल अब तिरस्कृत है। डाउन मार्केट है। लेकिन फिर भी बिक रहा है। बेवजह।
तो क्या करें। कोई गिफ्ट न खरीदें। मेरे हिसाब से यही किया जाए। आपके अंदर ग्रंथी पैदा कर ये बाज़ार जेब उलटवाना चाहता है। रिश्ते होंगे तो पकते रहेंगे। अपने आप। तोहफे की ज़रूरत नहीं। रिश्तों का आध्यात्मवाद कायम होना चाहिए। कैडबरीज़ खाना है तो किसी और मौके पर खाइये। गिफ्ट के डर से इसे न खरीदें। अगर खरीद रहे हैं तो सोच लीजियेगा। अगर कल कोई दूसरा प्रोडक्ट यह विज्ञापन लेकर उतर जाए कि कैडबरीज़ के चॉकलेट गिफ्ट देने की चीज़ नहीं हैं। उनकी कोई हैसियत नहीं। तब क्या करेंगे। इसका कोई अंत है। एक समाधान है। कोई बुलाये तो जाइये मगर तोहफे के साथ नहीं। दस बार कीजिए। बाज़ार मुफ्त में माल दे जाएगा कि खाली हाथ क्यों जा रहे हैं। आप बस जाइये गिफ्ट हम खरीद कर देंगे। बदले में जिस दोस्त के घर जाएंगे वहां आपको केक, कटलेट और प्लेट प्रायोजित मिलेंगे। कुछ भी मुफ्त नहीं होता। बस संयम करो भाई। विज्ञापन न जाने क्या क्या स्कीम बना रहा
पत्रकारिता का स्वर्ग काल
मोबाइल की घंटी बज रही थी। लेकिन नंबर फ्लैश नहीं हो रहा था। उधेड़बुन के बाद हरा बटन दबा ही दिया। काल ले लिया। मैं द्रौपदी बोल रही हूं। द्रौपदी। रवीश कुमार जी बोल रहे हैं। हां हां बोल रहा हूं। आय एम वाइफ ऑफ पांडवाज़। सेम द्रौपदी। डोंट जोक विद मी। तभी द्रौपदी ने कहा कि कोई मज़ाक नहीं। स्वर्ग में बीएसएनएल पहुंच गया है इसलिए फोन कर पा रही हूं। तो बोलते रहिए न। मुझे क्यों याद किया। मेरे बोलते ही द्रौपदी नाराज़ हो गई। बोली कि तुम आउटडेटेड हो गए हो। कुछ पता ही नहीं। तुम्हें मालूम है कि एक टीवी चैनल मेरे सबसे बड़े पति के स्वर्ग पहुंचने के रास्ते पर पहुंच गया है। मुझे डर लग रहा है।
द्रौपदी को डर लग रहा है। पर क्यों मैम। टीवी चैनल तो कहीं भी पहुंच जाते हैं। वो बात नहीं है रवीश। तो क्या बात है? आप टीवी चैनल को गरियाना चाहती है तो सॉरी। हिंदी टीवी वाले एक तो नए ज़माने के साथ चल रहे हैं और आप उन्हें गरिया कर पुरातनपंथी बनाना चाहती है। मुझे नहीं सुननी।
प्लीज़। लिसन टू मी। टीवी का रिपोर्टर पहुंच गया। इसीलिए डर रही हूं। क्यों डर रही हैं? क्योंकि उसे युधिष्ठिर का कुत्ता मिल गया है। अब लोग तो यही जानते हैं कि धर्मराज कुत्ते और सभी भाईयों के साथ स्वर्ग चले गए। हां यही जानते हैं। उसके बाद लोगों ने उनके स्वर्ग जाने के रास्ते में इंटरेस्ट खो दिया। लोग बद्रीनाथ केदारनाथ तो गए मगर स्वर्ग की सीढ़ी तक नहीं गए। लेकिन द्रौपदी जी। हमने एक और सीढ़ी की बात सुनी थी कि रावण भी स्वर्ग तक जाने की कोई सीढ़ी बना रहा है मगर राम ने प्लान फेल कर दिया। रावण को शूट कर। तब से ये आइडिया ड्रॉप कर दिया गया था। लेकिन क्या है कि हिंदी टीवी के रिपोर्टर को कम मत समझिए। वैसे भी बेचारे परेशान से हैं। आज कल हर कोई हिंदी पत्रकारिता के नरक में जाने का एलान कर रहा है। मातमपुर्सी हो रही है। ऐसे में किसी ने पत्रकारिता को स्वर्ग की सीढ़ी तक पहुंचा दिया तो कुछ ग़लत नहीं। मेरे हिसाब से हौसला बढ़ाना चाहिए। और आप द्रौपदी जी डरने की बजाए उसे रास्ता बताने में मदद कीजिए। कम से कम उसने सीढ़ी तो खुद खोजी न। मुझे तो बड़ा गर्व हो रहा है कि हिंदी पत्रकारिता ने स्वर्ग खोज लिया। वो भी इसी कलयुग में। वो भी उस समय में जब उसके नरक में चले जाने की घोषणा कर दी गई हो।
द्रौपदी बोली- अरे भाई परेशानी तो उन कुत्तों को लेकर हैं। लोग यह जान जाएंगे कि धर्मराज उन्हें छोड़ गए। तब से हिंदुस्तान के सारे कुत्ते धर्मराज को खोज रहे हैं। इसीलिए वो घरों में नहीं रहते। गलियों में रात बिरात घूमते रहते हैं। और ये तीन कुत्ते यहीं इंतज़ार कर रहे हैं कि अगर धर्मराज सीढ़ी से नीचे उतरे तो यहीं काट खायेंगे। हां हा..मैंने भी टीवी पर देखा ये सीन। द्रौपदी यू आर राइट। ग्रेट यार। वैरी क्यूट डॉगीज़। टेल मी। स्वर्ग में क्या ख़बर है इस ख़बर पर। द्रौपदी कांपने लगी। अगर मुझे अधिकारिक रूप से कोट न करो तो बता सकती हूं। मैंने भी कहा ऑफ द रिकार्ड चलेगा। द्रौपदी ने कहा कि सारे अभी तक आराम कर रहे थे। मौज कर रहे थे। लेकिन जैसे ही स्वर्ग की सीढ़ी तक किसी रिपोर्टर के पहुंचने की खबर आई है हलचल है। लोगों को लग रहा है कि कहीं यहां भी स्टिंग न होने लगे। खुलासा हो जाएगा तो गड़बड़ हो जाएगी। ये बेचारे धरती पर यह तो बता कर आ गए कि मर गए हैं। ज़िंदगी खत्म हो गई है। मगर यहां तो भाई लोग रॉक कर रहे हैं। रवीश सुन रहे हो न। हां हां द्रौप.. बोल न। तो मैं कह रही थी कि धर्मराज तो अब मुझे भूल ही गए हैं। गांधी जी को भी देखा मैंने। उन्होंने तो यहां गोड्से को माफ ही कर दिया है। कहते हैं कि हिंसा तभी खत्म होगी जब हिंसा करने वाले को माफ किया जाए। अरे बाप रे। नेहरू अब खुलकर माउंटबेटन की लुगाई के साथ घूम रहे हैं। चारों तरफ अप्सरायें हैं। मर्द तो वहीं अड्डा जमाए बैठते हैं। तो द्रौप..ये खबर छाप दूं। नो नो...तुमने वादा किया है। ये सब ऑफ द रिकार्ड है।
ठीक है मैं नहीं छापूंगा। लेकिन क्या मैं स्वर्ग के सूत्रों के हवाले से यह खबर ब्रेक कर फोन इन कर सकता हूं। द्रौपदी बोली...कर सकते हो। लेकिन तुम मुझे एक डिश टीवी गिफ्ट कर दो। मुझे तुम्हारे चैनल्स देखने हैं। मैंने कहा कि दे दूंगा लेकिन एक वादा करना होगा। द्रौपदी ने तुरंत हां कर दी। बोली क्या वादा करना है। तुम सिर्फ हिंदी टीवी चैनल देखोगी। क्योंकि अंग्रेजी वाले बदमाश हैं। उनके रिपोर्टर ने तो स्वर्ग की सीढ़ी खोजी नहीं। न ही उसे अंग्रेज़ी में दिखाया। वो मान्यताओ में यकीन नहीं करते। हमारे काबिल ऋषि मुनियों को याद भी नहीं करते। इसकी खोज तो हिंदी वाले ने की है। रिपोर्टर के साथ दो कैमरामैन भी है। जो नरक की ज़िंदगी छोड़ स्वर्ग खोजने गए। उम्मीद है कि उनके वेतन खूब बढ़ गए होंगे कि वो धरती पर जब तक हैं तब तक स्वर्ग का मजा ले सकें। आखिर रूट टू हैवन खोजने का इतना इनाम तो मिला ही होगा।
वैसे द्रौपदी एक बात है। कार्यक्रम बेजोड़ था। मैं रेणुका चौधरी से कहने वाला हूं कि वहां पर्यटन का विकास करें। विज़ुअल आकर्षक थे। कम से कम एक अनजान जगह पर कैमरा पहुंचा तो। अब लोग लोग स्वर्ग की सीढ़ी भी देखने आएंगे। मुझे लगता है बाकी पत्रकारों को भी धरती पर नरक खोजने की बजाए स्वर्ग की खोज में लग जाना चाहिए। कब तक नरक की कहानियां बना बना कर दिखाते रहेंगे। दुनिया बदल गई है। मेरे जैसे लोग इस दुनिया में आउटडेटेड हो गए हैं। स्वर्ग के मेरे सूत्र बता रहे हैं कि वहां कई खबरें हैं। स्वर्ग की अप्सराएं बार बालाओं से लुभाने का नुस्खा सीख रही हैं। कई बार रात को वो मुंबई के धारावी में चुप चाप जाकर डांस देखती हैं। पुण्यात्माओं को बोरियत हो रही है इसलिए वो चोरी छुपे रेन डांस भी कर लेते हैं। हाय हाय। उनके नाती पोते यहां धरती पर देख लें तो शर्म से मर जाएं।
स्वर्ग की सीढ़ी कार्यक्रम की एडिटिंग देख लगा कि सिनेमा देख रहे हैं। क्या ग़ज़ब का कार्यक्रम था। मैं तो अभी से तैयार हूं। बछेंद्रीपाल को को-ट्रैवलर बना कर स्वर्ग की सीढ़ी चढ़ने के लिए। कितना मजा आएगा। स्वर्ग के गेट पर टोल टैक्स वसूलता रहूंगा। डीएनडी प्लाइओवर बनवा दूंगा। बीस साल के टीवी के जीवन में यह एक ऐतिहासिक मौका है। इस ऐतिहासिक मौके का मैं भी साझी हुआ हूं। टीवी इन दिनों इतिहास भी बना रहा है। अपने बीस साल के इतिहास में पहली बार। इतिहास एक खोज है। टीवी चैनल पर निर्माण कार्य। आप कब किसी ऐतिहासिक कार्यक्रम के विटनेस बन जाएं पता नहीं। इतिहास का हिस्सा बनने पर मुझे बहुत खुशी हुई।
( यह एक औपचारिक व्यंग्य से ज़्यादा कुछ नहीं। कई बार लोग व्यंग्य से भी नाराज़ हो जाते हैं और भविष्य में नौकरी न देने का एलान कर देते हैं। लेकिन अपनी बात कहने का अलग ही आनंद है। सो कह दी। इसके नाम, पात्र और कथ्य सब काल्पनिक है। हकीकत में किसी से नहीं मिलते। सिर्फ लेखक ओरिजनल हैं।)
द्रौपदी को डर लग रहा है। पर क्यों मैम। टीवी चैनल तो कहीं भी पहुंच जाते हैं। वो बात नहीं है रवीश। तो क्या बात है? आप टीवी चैनल को गरियाना चाहती है तो सॉरी। हिंदी टीवी वाले एक तो नए ज़माने के साथ चल रहे हैं और आप उन्हें गरिया कर पुरातनपंथी बनाना चाहती है। मुझे नहीं सुननी।
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द्रौपदी बोली- अरे भाई परेशानी तो उन कुत्तों को लेकर हैं। लोग यह जान जाएंगे कि धर्मराज उन्हें छोड़ गए। तब से हिंदुस्तान के सारे कुत्ते धर्मराज को खोज रहे हैं। इसीलिए वो घरों में नहीं रहते। गलियों में रात बिरात घूमते रहते हैं। और ये तीन कुत्ते यहीं इंतज़ार कर रहे हैं कि अगर धर्मराज सीढ़ी से नीचे उतरे तो यहीं काट खायेंगे। हां हा..मैंने भी टीवी पर देखा ये सीन। द्रौपदी यू आर राइट। ग्रेट यार। वैरी क्यूट डॉगीज़। टेल मी। स्वर्ग में क्या ख़बर है इस ख़बर पर। द्रौपदी कांपने लगी। अगर मुझे अधिकारिक रूप से कोट न करो तो बता सकती हूं। मैंने भी कहा ऑफ द रिकार्ड चलेगा। द्रौपदी ने कहा कि सारे अभी तक आराम कर रहे थे। मौज कर रहे थे। लेकिन जैसे ही स्वर्ग की सीढ़ी तक किसी रिपोर्टर के पहुंचने की खबर आई है हलचल है। लोगों को लग रहा है कि कहीं यहां भी स्टिंग न होने लगे। खुलासा हो जाएगा तो गड़बड़ हो जाएगी। ये बेचारे धरती पर यह तो बता कर आ गए कि मर गए हैं। ज़िंदगी खत्म हो गई है। मगर यहां तो भाई लोग रॉक कर रहे हैं। रवीश सुन रहे हो न। हां हां द्रौप.. बोल न। तो मैं कह रही थी कि धर्मराज तो अब मुझे भूल ही गए हैं। गांधी जी को भी देखा मैंने। उन्होंने तो यहां गोड्से को माफ ही कर दिया है। कहते हैं कि हिंसा तभी खत्म होगी जब हिंसा करने वाले को माफ किया जाए। अरे बाप रे। नेहरू अब खुलकर माउंटबेटन की लुगाई के साथ घूम रहे हैं। चारों तरफ अप्सरायें हैं। मर्द तो वहीं अड्डा जमाए बैठते हैं। तो द्रौप..ये खबर छाप दूं। नो नो...तुमने वादा किया है। ये सब ऑफ द रिकार्ड है।
ठीक है मैं नहीं छापूंगा। लेकिन क्या मैं स्वर्ग के सूत्रों के हवाले से यह खबर ब्रेक कर फोन इन कर सकता हूं। द्रौपदी बोली...कर सकते हो। लेकिन तुम मुझे एक डिश टीवी गिफ्ट कर दो। मुझे तुम्हारे चैनल्स देखने हैं। मैंने कहा कि दे दूंगा लेकिन एक वादा करना होगा। द्रौपदी ने तुरंत हां कर दी। बोली क्या वादा करना है। तुम सिर्फ हिंदी टीवी चैनल देखोगी। क्योंकि अंग्रेजी वाले बदमाश हैं। उनके रिपोर्टर ने तो स्वर्ग की सीढ़ी खोजी नहीं। न ही उसे अंग्रेज़ी में दिखाया। वो मान्यताओ में यकीन नहीं करते। हमारे काबिल ऋषि मुनियों को याद भी नहीं करते। इसकी खोज तो हिंदी वाले ने की है। रिपोर्टर के साथ दो कैमरामैन भी है। जो नरक की ज़िंदगी छोड़ स्वर्ग खोजने गए। उम्मीद है कि उनके वेतन खूब बढ़ गए होंगे कि वो धरती पर जब तक हैं तब तक स्वर्ग का मजा ले सकें। आखिर रूट टू हैवन खोजने का इतना इनाम तो मिला ही होगा।
वैसे द्रौपदी एक बात है। कार्यक्रम बेजोड़ था। मैं रेणुका चौधरी से कहने वाला हूं कि वहां पर्यटन का विकास करें। विज़ुअल आकर्षक थे। कम से कम एक अनजान जगह पर कैमरा पहुंचा तो। अब लोग लोग स्वर्ग की सीढ़ी भी देखने आएंगे। मुझे लगता है बाकी पत्रकारों को भी धरती पर नरक खोजने की बजाए स्वर्ग की खोज में लग जाना चाहिए। कब तक नरक की कहानियां बना बना कर दिखाते रहेंगे। दुनिया बदल गई है। मेरे जैसे लोग इस दुनिया में आउटडेटेड हो गए हैं। स्वर्ग के मेरे सूत्र बता रहे हैं कि वहां कई खबरें हैं। स्वर्ग की अप्सराएं बार बालाओं से लुभाने का नुस्खा सीख रही हैं। कई बार रात को वो मुंबई के धारावी में चुप चाप जाकर डांस देखती हैं। पुण्यात्माओं को बोरियत हो रही है इसलिए वो चोरी छुपे रेन डांस भी कर लेते हैं। हाय हाय। उनके नाती पोते यहां धरती पर देख लें तो शर्म से मर जाएं।
स्वर्ग की सीढ़ी कार्यक्रम की एडिटिंग देख लगा कि सिनेमा देख रहे हैं। क्या ग़ज़ब का कार्यक्रम था। मैं तो अभी से तैयार हूं। बछेंद्रीपाल को को-ट्रैवलर बना कर स्वर्ग की सीढ़ी चढ़ने के लिए। कितना मजा आएगा। स्वर्ग के गेट पर टोल टैक्स वसूलता रहूंगा। डीएनडी प्लाइओवर बनवा दूंगा। बीस साल के टीवी के जीवन में यह एक ऐतिहासिक मौका है। इस ऐतिहासिक मौके का मैं भी साझी हुआ हूं। टीवी इन दिनों इतिहास भी बना रहा है। अपने बीस साल के इतिहास में पहली बार। इतिहास एक खोज है। टीवी चैनल पर निर्माण कार्य। आप कब किसी ऐतिहासिक कार्यक्रम के विटनेस बन जाएं पता नहीं। इतिहास का हिस्सा बनने पर मुझे बहुत खुशी हुई।
( यह एक औपचारिक व्यंग्य से ज़्यादा कुछ नहीं। कई बार लोग व्यंग्य से भी नाराज़ हो जाते हैं और भविष्य में नौकरी न देने का एलान कर देते हैं। लेकिन अपनी बात कहने का अलग ही आनंद है। सो कह दी। इसके नाम, पात्र और कथ्य सब काल्पनिक है। हकीकत में किसी से नहीं मिलते। सिर्फ लेखक ओरिजनल हैं।)
सूरज दक्षिणायन हो रहा है
दक्षिण की दिशा में यमराज होता है। संस्कृत में दक्षिण को याम्या भी कहते हैं। ऐसी दिशा जहां राक्षस रहता है। इसलिए हिंदू धर्म के कर्मकांड में दक्षिण को कम पवित्र माना गया है। दक्षिण की तरफ सिर्फ एक ही कर्मकांड है। पितरों का तर्पण। इसके अलावा सारे कर्मकांड पूरब की दिशा में होते हैं जिसका संबंध इंद्र है। उपनयन संस्कार के वक्त कुलदीपक पूरब की तरफ मुख करके बैठता है। दुल्हा दुल्हन भी पूरब दिशा की ओर मुख किए बैठते हैं। पंडित या तो कुबेर की दिशा उत्तर की तरफ बैठता है या पश्चिम की तरफ। दक्षिण की तरफ नहीं। कर्मकांडों के हिसाब से हम दक्षिण से दूर रहते हैं। हम यानी उत्तर भारतीय। हैदराबाद जाने से पहले हमने कुछ पंडितों और इतिहासकारों से पूछा कि दक्षिण को हमने इतना निम्न क्यों बना दिया है।
इतिहासकार ने इसका संबंध द्रविड़ों पर आर्यों की श्रेष्ठता से जोड़ा है। इसी क्रम में ऐसी धारणाएं बनती चलीं गईं। उत्तर अपने आप को महान समझने लगा। तभी महाभारत की लड़ाई के मूक दर्शक और कायर भीष्म पितामह को मृत्यु से ज़्यादा दक्षिण दिशा से डर था।मर्ज़ी से मरने का वरदान पाए भीष्ण पितामह ने तय किया कि जब सूरज उत्तरायण होगा, तभी शरीर का त्याग करेंगे। जो शरीर नैतिक अनैतिक की लड़ाई में कोई काम नहीं आया, उसे त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने का इंतज़ार करते रहे। मैंने जिस ज्योतिषाचार्य से बात की उन्होंने कहा कि मृत्यु का कोई शुभ मुहूर्त नहीं होता। जो कर्म आप कर चुके हैं उसी के आधार पर अगला जीवन तय होता है। इसलिए कभी भी शरीर का त्याग कर दें इससे पूर्व कर्मों के हिसाब किताब का कोई फर्क नहीं पड़ता। महाभारत के मूर्ख पात्रों में भीष्म पितामह भी उन भाइयों की तरह थे जो मामूली बात के लिए सौ से शून्य हो गए। खैर।
मैं दक्षिण की बात कर रहा हूं। अंग्रेजी ने भी दक्षिण दिशा से बड़ा अन्याय किया है। जब शेयर बाज़ार गिरता है तो कहते हैं मार्केट इज़ गोइंग साउथ। साउथ का मतलब नीचे जाना होता है। लेकिन धारणाओं के इस काल संग्रह में हम भूल गए कि दक्षिण के मायने आधुनिक समाज में कुछ नए भी हुए हैं। जैसे दक्षिण दिल्ली और दक्षिण मुंबई अमीरों की बस्ती है। यहां साउथ जाने का मतलब सामाजिक हैसियत अनुक्रम में ऊपर चढ़ना है। दक्षिणपंथी राजनीति को प्रगतिशील माना जाता है। ऐसा विद्वान कहते हैं।
लेकिन दक्षिण ने उत्तर को कभी नहीं धिक्कारा। बल्कि इतने धिक्कारे जाने के बाद भी उत्तर के बनाए कर्मकांडों को बेहतर तरीके से अपनाया। दक्षिण के ब्राह्मण उत्तर के ब्राह्मणों से ज़्यादा ओरिजनल हैं। ज्योतिष जी कहते हैं। उन्होंने उत्तर की संस्कृति को अपनी भाषाओं में ज्यादा संभाल कर रखा। एक इतिहासकार ने बताया कि दक्षिण के लोग अपनी कावेरी नदी को दक्षिण की गंगा कहते हैं। मदुरैई को मथुरा कहते हैं। लेकिन उत्तर के लोग गंगा को उत्तर की कावेरी नहीं कहते। पवित्रता की सर्वोच्चता में उत्तर बड़ा धूर्त है।
लेकिन उत्तर अब दक्षिण की शरण में है। अमरीका से आया रातों का कारोबार यानी आईटी सेक्टर दक्षिण के शहरों में अधिक है। उत्तर भारत के कई लड़के हैदराबाद, कोच्चि और बंगलूरु में काम कर रहे हैं। वहां जाकर इडली सांभर खाते होंगे या नहीं लेकिन वो दक्षिण को करीब से देख रहे हैं। आउटलुक पत्रिका ने भी हाल ही में एक विशेष अंक निकाला था। यह बताने के लिए हर मानकों में दक्षिण उत्तर से बेहतर है। सिर्फ भ्रष्टाचार की समानता को छोड़कर। इस मामले में भारत की सभी दिशाएं बराबर और अग्रणी हैं।
हिंदी साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन ने दक्षिण की अलग छवि बना दी थी। जितनी दीवार संस्कृत ने उत्तर दक्षिण के बीच खड़ी नहीं की उससे कहीं अधिक इस हिंदी ने की।लेकिन अंग्रेजी के आईटी ने उत्तर दक्षिण की दीवार को गिरा दिया है। अंग्रेजी बीच की भाषा है। मध्यस्थ बन कर दूरी मिटा रही है।पटना और जोधपुर में लोग अब बातें हैदराबाद और कोच्चि की करते हैं। दक्षिण का आत्मविश्वास बढ़ा है। तभी उत्तर प्रदेश की चुनावी सभाओं में जयललिता और चंद्रबाबू नायडू ने हिंदी में भाषण दे कर उत्तर को बता दिया कि वो क्या कर सकते हैं। उत्तर भारत के लोग भी समझ रहे हैं। इसलिए अब दक्षिण के सारे लोगों को मद्रासी नहीं कहते। फिल्म एक दूजे के लिए में सपना और वासु के प्यार को उत्तर और दक्षिण की दीवार परवान नहीं चढ़ने दिया। लेकिन आज वासु और सपना हर घर में हैं। करीब आ रहे हैं। कामकाज के सरकारीकरण के दौर में सिविल सेवा जैसी कुछ नौकरियों को छोड़ दे तो उत्तर के लोग उत्तर में और दक्षिण के लोग दक्षिण में ही काम कर रिटायर होते रहे। लेकिन उदारीकरण के इस दौर में कोई भी कहीं भी काम कर रहा है। उसके लिए दिशा का कोई मतलब नहीं रह गया है। इतिहासकार विश्वमोहन झा ने एक छोटी सी जानकारी दी जिसका मतलब शायद बहुत बड़ा है। इजिप्ट में नील नदी दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहती है। वहां पर दक्षिण को पवित्र माना जाता है और उत्तर का मतलब होता है नीचे जाना। गोइंग नार्थ। हिंदुस्तान में भी नील नदी बहने लगी है। सूरज दक्षिणायन हो रहा है। यमराज की दिशा समृद्धि ला रही
इतिहासकार ने इसका संबंध द्रविड़ों पर आर्यों की श्रेष्ठता से जोड़ा है। इसी क्रम में ऐसी धारणाएं बनती चलीं गईं। उत्तर अपने आप को महान समझने लगा। तभी महाभारत की लड़ाई के मूक दर्शक और कायर भीष्म पितामह को मृत्यु से ज़्यादा दक्षिण दिशा से डर था।मर्ज़ी से मरने का वरदान पाए भीष्ण पितामह ने तय किया कि जब सूरज उत्तरायण होगा, तभी शरीर का त्याग करेंगे। जो शरीर नैतिक अनैतिक की लड़ाई में कोई काम नहीं आया, उसे त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने का इंतज़ार करते रहे। मैंने जिस ज्योतिषाचार्य से बात की उन्होंने कहा कि मृत्यु का कोई शुभ मुहूर्त नहीं होता। जो कर्म आप कर चुके हैं उसी के आधार पर अगला जीवन तय होता है। इसलिए कभी भी शरीर का त्याग कर दें इससे पूर्व कर्मों के हिसाब किताब का कोई फर्क नहीं पड़ता। महाभारत के मूर्ख पात्रों में भीष्म पितामह भी उन भाइयों की तरह थे जो मामूली बात के लिए सौ से शून्य हो गए। खैर।
मैं दक्षिण की बात कर रहा हूं। अंग्रेजी ने भी दक्षिण दिशा से बड़ा अन्याय किया है। जब शेयर बाज़ार गिरता है तो कहते हैं मार्केट इज़ गोइंग साउथ। साउथ का मतलब नीचे जाना होता है। लेकिन धारणाओं के इस काल संग्रह में हम भूल गए कि दक्षिण के मायने आधुनिक समाज में कुछ नए भी हुए हैं। जैसे दक्षिण दिल्ली और दक्षिण मुंबई अमीरों की बस्ती है। यहां साउथ जाने का मतलब सामाजिक हैसियत अनुक्रम में ऊपर चढ़ना है। दक्षिणपंथी राजनीति को प्रगतिशील माना जाता है। ऐसा विद्वान कहते हैं।
लेकिन दक्षिण ने उत्तर को कभी नहीं धिक्कारा। बल्कि इतने धिक्कारे जाने के बाद भी उत्तर के बनाए कर्मकांडों को बेहतर तरीके से अपनाया। दक्षिण के ब्राह्मण उत्तर के ब्राह्मणों से ज़्यादा ओरिजनल हैं। ज्योतिष जी कहते हैं। उन्होंने उत्तर की संस्कृति को अपनी भाषाओं में ज्यादा संभाल कर रखा। एक इतिहासकार ने बताया कि दक्षिण के लोग अपनी कावेरी नदी को दक्षिण की गंगा कहते हैं। मदुरैई को मथुरा कहते हैं। लेकिन उत्तर के लोग गंगा को उत्तर की कावेरी नहीं कहते। पवित्रता की सर्वोच्चता में उत्तर बड़ा धूर्त है।
लेकिन उत्तर अब दक्षिण की शरण में है। अमरीका से आया रातों का कारोबार यानी आईटी सेक्टर दक्षिण के शहरों में अधिक है। उत्तर भारत के कई लड़के हैदराबाद, कोच्चि और बंगलूरु में काम कर रहे हैं। वहां जाकर इडली सांभर खाते होंगे या नहीं लेकिन वो दक्षिण को करीब से देख रहे हैं। आउटलुक पत्रिका ने भी हाल ही में एक विशेष अंक निकाला था। यह बताने के लिए हर मानकों में दक्षिण उत्तर से बेहतर है। सिर्फ भ्रष्टाचार की समानता को छोड़कर। इस मामले में भारत की सभी दिशाएं बराबर और अग्रणी हैं।
हिंदी साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन ने दक्षिण की अलग छवि बना दी थी। जितनी दीवार संस्कृत ने उत्तर दक्षिण के बीच खड़ी नहीं की उससे कहीं अधिक इस हिंदी ने की।लेकिन अंग्रेजी के आईटी ने उत्तर दक्षिण की दीवार को गिरा दिया है। अंग्रेजी बीच की भाषा है। मध्यस्थ बन कर दूरी मिटा रही है।पटना और जोधपुर में लोग अब बातें हैदराबाद और कोच्चि की करते हैं। दक्षिण का आत्मविश्वास बढ़ा है। तभी उत्तर प्रदेश की चुनावी सभाओं में जयललिता और चंद्रबाबू नायडू ने हिंदी में भाषण दे कर उत्तर को बता दिया कि वो क्या कर सकते हैं। उत्तर भारत के लोग भी समझ रहे हैं। इसलिए अब दक्षिण के सारे लोगों को मद्रासी नहीं कहते। फिल्म एक दूजे के लिए में सपना और वासु के प्यार को उत्तर और दक्षिण की दीवार परवान नहीं चढ़ने दिया। लेकिन आज वासु और सपना हर घर में हैं। करीब आ रहे हैं। कामकाज के सरकारीकरण के दौर में सिविल सेवा जैसी कुछ नौकरियों को छोड़ दे तो उत्तर के लोग उत्तर में और दक्षिण के लोग दक्षिण में ही काम कर रिटायर होते रहे। लेकिन उदारीकरण के इस दौर में कोई भी कहीं भी काम कर रहा है। उसके लिए दिशा का कोई मतलब नहीं रह गया है। इतिहासकार विश्वमोहन झा ने एक छोटी सी जानकारी दी जिसका मतलब शायद बहुत बड़ा है। इजिप्ट में नील नदी दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहती है। वहां पर दक्षिण को पवित्र माना जाता है और उत्तर का मतलब होता है नीचे जाना। गोइंग नार्थ। हिंदुस्तान में भी नील नदी बहने लगी है। सूरज दक्षिणायन हो रहा है। यमराज की दिशा समृद्धि ला रही
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