रिमझिम गिरे सावन-इस गाने में दिखती है बंबई

हिन्दी सिनेमा में दिखने वाले शहर और गांव के स्पेस का अलग से अध्ययन नहीं किया गया है। विदेशी लोकेशन जाने की होड़ से पहले सत्तर और अस्सी के दशक तक ज्यादातर फिल्में अपने शहरों में ही बनती थीं। गानों से लेकर भागने दौड़ने के दृश्य में शहर की पुरानी तस्वीरें मुझे रोमाचिंत करती हैं। कभी-कभी लगता है कि इन गानों में जो रास्ते और शहर दिखाए गए हैं,उन्हें एक बार खोजने निकल जाऊं। देखूं कि दस फिल्मों में मुंबई के वीटी स्टेशन के आस-पास का नज़ारा कैसे बदला है। मरीन ड्राइव अलग-अलग फिल्मों में कैसी दिखती है।

इसीलिए बार बार रिमझिम गिरे सावन सुनता रहता हूं। वीडियो देखने का कोई मौका नहीं छोड़ता। आप भी इस गाने को यूट्यूब पर चलाकर देखिये। मुंबई से पहले की बंबई का खुलापन दिखता है। अमिताभ और मौसमी जिन रास्तों पर भीगते हुए भाग रहे हैं उनकी चौड़ाई नज़र आती हैं। सड़कें इतनी चौड़ी हैं और फ्रेम में आसमान अपने आप आ जाता है। किनारे बने एक मंज़िला मकान की छत दिखने लगती है। मरीन ड्राइव पर जब अमिताभ और मौसमी दौड़ रहे हैं तो सागर की मस्ती देखिये। पानी में दोनों दौड़ रहे हैं। सड़कों पर गाड़ियां कम हैं। ट्रैफिक जाम जैसा नज़ारा नहीं हैं। आज इसी गाने को आप उसी लोकेशन पर शूट नहीं कर सकते। दोनों जब एक पार्क से गुजरते हैं तो तीन ससे चार मंजिला इमारतें दिखती हैं।

पहले भी यूं तो बरसे थे बादल...पहले भी यूं तो भीगा था आंचल। अबके बरस क्यूं सजन सुलग सुलग जाए मन। पार्क की गीली मिट्टी को कैमरा पकड़ता है। दोनों के जूते चप्पल किचड़ से सने है। इस बार सावन दहका हुआ है, इस बार मौसम बहका हुआ है..गाना आगे बढ़ता है, कैमरा सड़कों पर जमे पानी को देखकर निकल जाता है,तभी फ्रेम से एक लैम्ब्रेटा निकलता है। चलाने वाला सफेद बरसाती में हैं। सड़क पर जमे पानी से बेपरवाह चला जा रहा है। वीटी स्टेशन के पास अमिताभ और मौसमी सड़क पार करते हैं।हल्की बूंदा बांदी हो रही है। लोग हैं और मगर भीड़ नहीं है। लोग छाता लिये सड़क पार कर रहे हैं। वीटी का आसमान खुला लगता है। गोलंबर पर लगी मूर्ति के ऊपर का आसमान खाली लगता है। ऊंची इमारतों से शहर भरा नहीं लगता है। काली पाली टैक्सी की रफ्तार बारिश के बाद भी ठीक ठाक है। जाम नहीं है। गाड़ियां भागती नज़र आ रही हैं। एक कामगार शहर की तस्वीर बनती है। दोनों जब मरीन ड्राइव पर आकर एक बेंच पर बैठते हैं तो बगल से कुछ मजदूर अपने सामानों को कंधे पर लादे चले जा रहे हैं सागर की लहरें मरीन ड्राइव की दीवारों से टकरा कर ऊपर आने लगती हैं।

यह गाना मेरे भीतर हर दिन बजता है। जब भी बजता है इसके भीतर का शहर दिखता है। अब हम बारिश से डरने लगे हैं। भीगते नहीं हैं। कीचड़ में अपने बच्चों को खेलने नहीं देते। हमने हर जगह की मिट्टी को पराया कर दिया। प्रवासी मुल्क के लोग हैं। गांव से कस्बा और शहर। बनियान की तरह शहर बदलते हैं। मुंबई को बिना देखे मुंबई की कल्पना इन्हीं सब दृश्यों के माध्यम से मेरे भीतर बनती चली गईं। अक्सर लगता है कि किसी का हाथ पकड़ कर बारिश में दौड़ने चला जाऊं। जेब में रखे कागज़ भीग जाएं तो अमिताभ की तरह निकाल कर फेंक दूं और मौसमी का हाथ थामे रहूं। देर तक और दूर तक इस गाने को गाता हुआ निकल जाऊं। आने दूं जूतों से छिटक कर कीचड़ को चेहरे तक। डेटॉल और रिन साबुन के विज्ञापन को लात मारते हुए। गीले और गंदे कपड़ों का रोमांस तो अब परदे पर भी नहीं आता। सब कुछ साफ-साफ दिखता है।

डिस्को डांसर मिथुन चक्रवर्ती

मिथुन चक्रवर्ती को सबसे पहले मृगया में देखा था। उसके बाद हम पांच में। पतला दुबला एक लड़का जल्दी ही बालीवुड का पहला डांसिंग स्टार बन गया। मिथुन से पहले डांस के नाम पर शम्मी कपूर की छवि सामने आती थी। उन्होंने गानों को ऐसी रफ्ताशर दी कि लोग सिनेमा घरों से लौट कर डांस करने का अभ्यास करने लगे। मिथुन दा के बोलने का अंदाज़, बाहर निकली शर्ट,और झूलते बाल।

मिथुन के टाइम में एक डिस्को शर्ट भी काफी लोकप्रिय हुआ था। पटना में सरस्वती और दुर्गा की मूर्ति भंसाने के लिए निकलने वाली टोलियों में ये डिस्को शर्ट खूब दिखते थे। रिक्शे पर लाउडस्पीकर से करकराती हुई आवाज़ को चिरता हुआ डिस्को डांसर का गाना और सर पर पट्टी बांधे मोहल्ले के नौजवान आयोजक अबीर-गुलाल से नहाये हुए डांस करते थे। अमिताभ बच्चन की जादुई छवि के बीच मिथुन दा एक ब्रेक की तरह आए और अपने स्टाइल से छा गए।

मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म यात्रा पर लेख या कोई और काम नज़र नहीं आया। मुझे मिथुन चक्रवर्ती काफी अच्छे लगते थे। डिस्को डांसर का गाना शानदार था।‘दोस्तों,मेरी ज़िंदगी,गीतों की अमानत है,कि लोग कहते हैं मैं तब भी गाता था,जब बोल पाता नहीं था’,इस गाने में मिथुन का डांस अभिनय लाजवाब है। फिल्मों में काम करने वाले लोग इस गाने की एडिटिंग से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इसमें कितनी मेहनत और परिपूर्णता है। मिथुन अपने अभिनय यात्रा में नाचते ही रहे। कई फिल्में ऐसी भी की जिसमें उन्होंने डांस न के बराबर किया।‘मुजरिम न कहना मुझे लोगों,मुजरिम तो सारा ज़माना है’या फिर‘तुमसे मिल कर न जाने क्यों,और भी कुछ याद आता है’,‘प्यार कभी कम नहीं करना’,ये वो गाने थे जिनमें मिथुन एक संजीदा इश्किया हीरो लगते थे। फाइट सीन में सबको एक ही बार में ध्वस्त करने देने का मिथुन दा का अंदाज़ अलग था।

डांस डांस में मिथुन और स्मिता पाटिल ने बेजोड़ अभिनय किया था। भाई और बहन बन कर दोनों ने डांस के पेशे को उस वक्त सार्वजनिक जीवन में घुसेड़ने की कोशिश की थी जब बारात या फिर मूर्ति भसाने के अलावा डांस करने के मौके कम थे। अब तो आप बर्थ डे पार्टी से लेकर दफ्तर की पार्टी में डांस करते हैं। डिस्को खुल गए हैं। शायद उन्हीं की पैदा की हुई पीढ़ी होगी जिसमें से बेस्ट डांसर चुनने के लिए मिथुन दा डांस इंडिया डांस टाइप के शो में जज बन जाते हैं। अस्सी के दशक के बंद समाज के भीतर चुपचाप गीतों को थिरकने के लिए मिथुन दा ने एक जगह बना दी थी।

अपने बचपने में सुना करता था कि मिथुन चक्रवर्ती नक्सल थे। पता नहीं यह बात कितनी सच है लेकिन इस स्टार ने किसी से कम हमारा मनोरंजन नहीं किया है। कई हिट फिल्में दी हैं तो कई सरदर्द फिल्में भी। मिथुन की अभिनय प्रतिभा पर तो चर्चा करना गुनाह समझा जाता है। ग़ुलामी में मिथुनी की एंट्री हिन्दी सिनेमा की शानदार एंट्रियों में से एक है। आप भूल नहीं सकते। ‘कोई शक’ कहने का उनका अंदाज़। गुलामी में उनके भीतर स्टारडम का आत्मविश्वास दिखा था। मैंने यह फिल्म कोई दस दिनों तक लगातार देखी थी। सिर्फ मिथुन की एंट्री और अनिता राज के साथ वो गाना सुनने के लिए,‘सुनाई देती है जिसकी धड़कन वो मेरा दिल और तुम्हारा दिल है‘। इसी फ़िल्म में जब मिथुन के साथ धर्मेंद्र डांस करने की कोशिश करते हैं तो बेजोड़ सिक्वेंस बनता है। अग्निपथ में मिथुन ने कृष्णन अय्यर एमए के किरदार को यादगार बना दिया था। मिथुन सफेद पतलून,शर्ट और जूते वाले जितेंद्र की छुट्टी कर दी। जितेंद्र डांस कम करते थे, दौड़ते कूदते ज़्यादा थे। तोहफा सीरीज़ की फ़िल्मों में उनके डांस को याद कीजिए। डांस के मामले में मिथुन जैसी वेरायटी जितेन्द्र के पास नहीं थी। मिथुन की बात ही कुछ और है। ‘प्यार हमारा अमर रहेगा याद करेगा ज़माना’….

आप अंग्रेज़ी सीखने के करीब पहुंच गए हैं



हिन्दी में अंग्रेज़ी सीखाने के ये साइन बोर्ड। हॉस्पिटलाइज़ेशन के चंद घंटे बाद ही मरीज़ को ठीक करने का दावा किया जा रहा है। अंग्रेजी में पारंगत होने की टॉनिक मिलती है यहां। भाषाई राष्ट्रवाद का कचूमर निकलने के बाद अंग्रेजी के शरण में जाये बिना क्या होगा। घंटे में अंग्रेजी सीखाने वाले कहते हैं कि नौकरी तो हिन्दी में नहीं है। आप इस सत्य को छुपाकर हिन्दी हिन्दी मत कीजिए। इंग्लिश मीडियम स्कूल अंग्रेजी पढ़ना लिखना तो सीखा देते हैं लेकिन बोलना नहीं।



बोलने की टेक्निक बदल दी गई है। ग्रामर को गांव भेज दिया गया है। घास चरने। अमेरिकन संस्थान के विक्रम लांबा कहते हैं कि जो सीखने आता है उसके भीतर से हिन्दी निकालता हूं। फिर धीरे धीरे अंग्रेज़ी फिट करता हूं। उसे बचपन से पंखा बोलने की आदत है। फैन बोलने की आदत के लिए जगह बनानी पड़ती है। ग्रामर का भय ठीक नहीं है। ही के साथ डू या डज़ लगाइये,इससे ही पर कोई फर्क नहीं पड़ता। वो तो वही करेगा जो करेगा। आप पहले यह तो बोलिये कि ही डू। बाद में उसे ही डज़ करा दूंगा।




लाखों लोगों की भाषा बदल रही है। अंग्रेजी बोलना सीख रहे हैं। दुभाषिये हो रहे हैं। शहरों की होर्डिंग में रोमन में हिन्दी और अंग्रेजी दिखाई पड़ती है। दिल्ली शहर के भीतर होर्डिंग देखें तो लगेगा कि लंदन में हैं। इससे पहले सार्वजनिक रूप से इंग्लिश से इतना टकराव नहीं हो रहा था। नाम पट्टिकाओं पर हिन्दी उर्दू या पंजाबी की तरह नजर आती है। इंग्लिश मुख्य भाषा है। हिन्दी का भी बाजार बढ़ रहा है। अख़बार पसर रहे हैं। लेकिन जो साक्षर हो रहा है वो एबीसीडी से भी साक्षर हो रहा है। वो इंग्लिश सीखना चाहता है। हिन्दी में बने रहना नहीं चाहता। हिन्दी को लेकर गर्व की दुकान का कोई मतलब नहीं। हिन्दी का मोह छूटता नहीं लेकिन आप किसी को कह नहीं सकते कि हिन्दी जानिये,नौकरी मिलेगी। ये हकीकत आज की नहीं है। अंग्रेजी को लेकर राजनीतिक सहमति बन चुकी है। हिन्दी को लेकर सारे प्रयास बंद हो चुके हैं। संपर्क भाषा बन कर भी हिन्दी रोजगार की गारंटी नहीं है।

मेरा नंबर ही मेरी पहचान है



नाम ग़ुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज़ ही पहचान है। ग़र याद रहे। बॉलीवुड का यह गाना मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है। पहचान के तमाम निशानों के मिट जाने के बाद भी आवाज़ पहचान बनी रहेगी,कवि की कल्पना की दाद देनी चाहिए। हम वैसे ही कई पहचानों के साथ सहजता से जीते हैं। हिन्दुस्तान के साइनबोर्ड का अध्ययन करें तो आप पायेंगे कि मोबाइल नंबर तेजी से उभरता हुआ एक नया पहचान है।



मोबाइल नंबर को बड़ा करके छापा जा रहा है। दुकान का नाम रखने का चलन कम होता जा रहा है। कई दुकानदार तो सिर्फ नंबर लिख देते हैं। बहुत हुआ तो काम लिख देते हैं। आप इन तस्वीरों में देखेंगे कि कैसे लोगों ने कलाकृति बनाई है। रेडिएटर और पानी के टैंकर की तस्वीर कवि की नवीन कल्पना लगती है। दीवार पर ठेकेदार सिर्फ अपना नाम और नंबर लिख गया है। कार सीखाने वाले ने भी नंबर को ही प्रमुखता दी है। एक दुकान ने अपनी शटर के ऊपर नंबर ही लिख डाला है।



तब से सोच रहा हूं कि क्या अब मोबाइल का नंबर हमारी पहचान का नया हिस्सा बन चुका है। क्या अब हम नंबर से पहचाने जाने लगे हैं। फोन नंबर को लेकर हमारी झिझक खतम हो गई है। पहले हम नंबर सभी को नहीं बताते थे। छुपाते थे। अब नाम से पहले नंबर या नाम के साथ नंबर ज़रूर बताते हैं। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे लगते हैं।


हमारे देश में पहचान को लेकर सरकारी और व्यक्तिगत स्तर पर कोशिशें चलती रहती हैं। कैंलडरों में हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई की छवि गढ़ी गई है। दूरदर्शन पर मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा काफी मशहूर हुआ है। हम कई चीज़ों को मिलाकर एक चीज़ बनाने की कोशिश करते रहे हैं। विविधता को स्वीकार ही नहीं किया। उसे पहचाना लेकिन एक नई पहचान बनाने के पंचफोरन मसाले के रूप में। इस बीच आइडिया वाले विज्ञापन लेकर आ गए। पांडे शर्मा हटाकर अपार्टमेंट के नामों की पट्टी पर नंबर लिख दिया। लोग हैरान थे कि ये भी होगा क्या। मगर ये तो हो ही रहा है। लोग अपनी पहचान खुद गढ़ रहे हैं। कई कारीगर दीवारों पर सिर्फ नंबर छोड़ कर अनंत संसार में गुम हो जाते हैं। डायल कीजिए और आपको मिल जायेंगे। नंबर अलग अलग होता है। एक नाम के सौ लोग होते हैं। एक इलाके और एक भाषा के सौ लोग होते हैं। एक नंबर का एक ही आदमी होता है। नंबर तभी मिलता है जब आपकी पहचान सत्यापित होती है। पता सही होता है। मोबाइल नंबर है तो आदमी फर्ज़ी नहीं हैं। ये भाव पैदा हो रहा है। यह एक बड़ा बदलाव हमारे समाज में हो चुका है।



सारी बातें दिमाग़ में इसलिए घूम रही हैं क्योंकि सरकार यूनिक पहचान नंबर ला रही है। क्या हम देख पा रहे हैं कि नंबर अभी से ही हमारी पहचान का हिस्सा बन चुका है। यूनिक पहचान नंबर पर भी लिखूंगा लेकिन समझने की कोशिश कर रहा हूं कि यह कैसे हो रहा है कि नाम की जगह नंबर प्रमुख होता जा रहा है। मेरा नंबर ही मेरी पहचान है। ग़र याद रहे। क्या ऐसे भी गाना गाया जाएगा।

मोटी तगड़ी औरतों के कपड़े की दुकान




नई दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में हमारा दफ्तर है। ठीक उसी के सामने यह दुकान खुली है। बहुत दिनों से है। आज अचानक नज़र पड़ी। दुकान में रखी माटी की मूरत कुछ तगड़ी नज़र आई। सोचा कि आम तौर पर ऐसी मूर्तियां छरहरी और गंजी हुआ करती हैं। ये मोटी तगड़ी क्यों हैं। माजरा समझ में तब आया जब नज़र साइनबोर्ड पर पड़ी। दुकान का नाम क्रान्ति है। उन औरतों के लिए हैं जो सामान्य और तगड़ी हैं। ज़ीरो साइज़ के ज़माने में कोई दुकान औरतों के स्वाभाविक सम्मान की रक्षा में उतर आया हो,तो उसकी तारीफ होनी चाहिए। पतला या मोटा दोनों मेहनत के फल हैं। मोटापा एक हकीकत है। बड़े-बड़े शो रूम में जाने पर मोटी-तगड़ी औरतों को काफी तकलीफ होती होगी। हर नाप के कपड़े ऐसे होते होंगे कि हीन भावना का शिकार हो जाए। लेकिन लगता है इस दुकान में आप बाज़ारूपन की परवाह किये बगैर अपने आकार प्रकार के साथ अंदर आ सकते हैं। पसंद के कपड़े पहनकर जा सकती हैं। आइडिया के इस काल में यह आइडिया ज़बरदस्त लगा। जानकारी जमा कर रहा हूं। ज्यादा जानकारी मिलते ही विस्तार से लिखूंगा।

ज़रा कबाड़ीवाले से कहना कि उठा कर दिखाये गामा सेल



साइंस एडिटर पल्लव बागला के साथ डीआरडीओ के कैम्पस में जाने का मौका मिला। यहां भी गामा सेल है। वही गामा सेल जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय ने कबाड़ में बेच दिया। चंद कदम दूर लखनऊ रोड पर स्थित इनमास में गामा सेल १९६७ से काम में लाया जा रहा है। रखरखाव के कारण इसमें कोई खराबी नहीं आई है। १९६७ में भारत में ६ गामा सेल कनाडा से लाये गए थे। इनमास का गामा सेल अकेला है जो काम कर रहा है। अंदर जाते ही लगा कि इसे कबाड़ी में बेचना मुमकिन नहीं। गामा सेल के ऊपर दो जगहों पर चेतावनी लिखी हुई थी। कोई भी देख सकता था कि गंभीर मामला है इससे दूर रहना चाहिए। चेतावनी के साथ सावधानी के नियम भी लिखकर चस्पां किये गए थे। इस पर वजन लिखा था-3883 किग्रा। यानी आठ से दस हाथी के बराबर का यह गामा सेल। आप इसे लापरवाही के तहत न तो उठा सकते हैं और न ही बेच सकते हैं। इसके लिए बड़ी क्रेन और लॉरी की ज़रूरत होती है। तभी यह अपनी जगह से उठ सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि कबाड़ी वाला साइकिल पर लाद कर नहीं ले गया। इसी गामा सेल के भीतर कोबाल्ट ६० की पेंसिल रखी जाती है। इसके भीतर चूहा वगैरह डालकर उन पर विकिरण के प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। मायापुरी में दस हाथी के वजन के बराबर इस सेल को काटा गया। तब जाकर कोबाल्ट की पेसिंग का खांचा निकला होगा।

दिल्ली विश्वविद्यालय की नैतिक नहीं आपराधिक चूक थी। इतना भारी सामान कबाड़ में बिक ही नहीं सकता था। कोई खिलौना तो नहीं है कि आप कई सामानों के साथ इसे भी कबाड़ी वाले के हवाले कर दें।यहां पर रेडिएशन सेफ्टी आफिसर डॉ अरुणा ने बातचीत में बताया कि यह घटना शर्मनाक है। भारत में पहली बार विकिरण से किसी की मौत हुई है। पूरी दुनिया में इसे पढ़ाया जाएगा कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने जिस तरह की बेवकूफी की है वैसी बेवकूफी आप न करें। वैज्ञानिक डॉ द्वारकानाथ ने कहा कि सिद्धांत के अनुसार रेडिएशन का प्रभाव शून्य नहीं होता। दूरी और समय के साथ इसका असर कम तो हो जाता है लेकिन शून्य नहीं रहता। यह भी जानकारी मिली कि कुछ मरीज़ जो काफी नज़दीक से कोबाल्ट ६० के संपर्क में आएंगे उनके भीतर तो बदलाव के लक्षण तुरंत दिख जायेंगे लेकिन कइयों को कुछ महीने और साल के बाद भी दिख सकते हैं। पेट की बीमारी हो सकती है,मोतियाबिन्द या कैंसर के रूप में असर देखने को मिल सकता है।

वैज्ञानिकों ने बताया कि गामा सेल को हटाने के लिए भी कड़े नियम हैं। आप किसी को नहीं बेच सकते। इसके लिए आपको एटोमिक नियामक संस्था से अनुमति लेनी होती है। संस्था ही बताएगी कि आप किस एजेंसी को बेचेंगे। ज़ाहिर है इतनी सख्त प्रक्रिया के होते हुए लापरवाही नहीं हो सकती है। ये और बात है कि भारत के न्यूक्लियर मेडिसिन के वैज्ञानिकों के लिए अध्ययन का पहला मौका है। भारत में पहली बार विकिरण से किसी की मौत हुई है। वो लगातार इसके प्रभावों का अध्ययन कर रहे हैं।

इस सेल को दिखाने का मकसद यही था कि हम यह समझ सकें कि यह जिस ट्रक पर लद कर जाता है उसे अलग से पुलिस के लिए अनुमति पत्र दिया जाता है। किसी खिलौने को लापरवाही से तोड़ सकते हैं लेकिन गामा सेल को नहीं। हर दिन इसे डोज़ी मीटर से चेक किया जाता है कि नज़दीक जाने वाले आदमी ने कितना विकिरण ग्रहण किया। एक आदमी एक साल में निश्चित मात्रा में ही विकिरण ग्रहण कर सकता है। डीआरडीओ के इस संस्थान में आकर यही लगा कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने क्या बेवकूफी की है।

करतूत वैज्ञानिकों की थी और बदनाम कबाड़ी वाले कर दिये गए। मायापुरी के कबाड़गंज में एक से एक हुनरमंद लोग हैं। उनके हाथ की कारीगरी की तारीफ की जगह मीडिया ने जंक मार्केट को काले कारनामों का अड्डा बता दिया। कई तरह की छवि बना दी गई। इन्हीं छवियों से टकराने चला गया मायापुरी। इस बार शुक्रवार रात साढ़े नौ बजे आप रवीश की रिपोर्ट मायापुरी की ज़िन्दगी पर ही देखेंगे। दोबारा आप रविवार रात साढ़े दस बजे देख सकते हैं।

जलसेवक तोताराम


दिल्ली विश्वविद्यालय के ठीक सामने के रिंग रोड पर माल रोड है। उसके पीछे लखनऊ रोड है तिमारपुर है। वहीं मेरी नज़र तोताराम पर प़ड़ी। तोताराम सब्ज़ी बेचने का काम करते हैं। एटा ज़िले के कासगंज के रहने वाले हैं। दिल्ली में ही बचपन बीता। एक दिन सब्ज़ी बेचते बेचते मन किया कि लोगों को पानी पिलायेंगे। तब से अपने ग्यारह घड़ों को दिन भर भरते रहते हैं और निशुल्क पानी पिलाते रहते हैं। जलसेवक तोताराम अपने घड़ों की साफ सफाई रखते हैं। पानी गंदा न हो,इसका पूरा ख्याल करते हैं। मैंने पूछा क्यों करते हैं? जवाब दो टुक। मन किया।

चावल ही चावल

निरुपमा के लिए न्‍याय Petition

निरुपमा के लिए न्‍याय Petition

मार्केटिंग की 'ही' थ्योरी



आईआईएम अहमदाबाद वाले फालतू की चीज़ों पर रिसर्च करते रहते हैं। कभी इस पर रिसर्च करनी चाहिए कि हिन्दी बाज़ार जगत में 'ही' का क्या महत्व है। 'ही' लगाने से किस तरह की एक्सक्लूसिविटी का निर्माण होता है। इसकी शुरूआत कैसे हुई। रिश्ते ही रिश्ते से चलकर शीशे ही शीशे,बिस्तरे ही बिस्तरे से होते हुए हर एक माल वाली दुकान की टैग लाइन ही तय करने लगी। सॉफ्टी ही सॉफ्टी। ही शब्द का इस्तमाल जितना साहित्यकारों ने नहीं किया उतना हिन्दी के बाज़ार ने किया है। दुकानों की भीड़ में ही एक अलग पहचान बनाती है। लगता है कि दुकानदार विशेषज्ञ है। कई बार होता है तो कई बार ही के सहारे झांसा भी देता है। अगर आप भी ही पुराण की रचना में सहयोग देंगे तो अच्छा लगेगा। किसी न्यूज़ चैनल या अखबार की यह पंच लाइन क्यों नहीं है-ख़बरें ही ख़बरें,देख तो लें। वकील अपने बोर्ड के नीचे लिखवा दें-जीत ही जीत। कामनवेल्थ गेम्स का नारा बदलवा दीजिए। खेल ही खेल। नारायणमूर्ति को भी लिखना चाहिए-इंफोसिस,बीपीओ ही बीपीओ। कंपनी अपने आप गांव गांव में पहुंच जाएगी। इसकी लोकप्रियता में चार चांद लग जायेंगे।