एक किराने वाले की कहानी

ध्यान से पढ़ें। किराना दुकानदार से मिलकर आ रहा हूं।उनकी जानकारी पर हैरान हूं। जो कहा वो लिख रहा हूं। उसने एक मिसाल दी। तीन चार साल पहले जब आशीर्वाद आटा आया तो थोक में गेहूं 11.50 रुपये प्रति किलो गेहूं मिल रहा था। उसी दाम पर हम आटा चक्की वाले आपको 130 रुपये प्रति दस किलो बेच रहे थे। तब हमारा 140 रुपये प्रति दस किलो था। चूंकी आशीर्वाद के पास पूंजी थी तो कम में बेचा और बाज़ार पर छा गया। लेकिन आज आशीर्वाद दस किलो आटा 240 रुपये का बेचता है और हम 180 रुपये का। थोक में गेहूं 15.50 रुपये प्रति किलो है। तो किसान को कहां ज़्यादा मिला। उपभोक्ता तो ज़्यादा दाम पर ही ख़रीद रहा है। इसलिए किसान के भले की बात पल्ले नहीं पड़ रही है। इतने सालों में दस किलो ग्राम आटे का दाम हमारी चक्की पर 40 रुपये बढ़ा और आशीर्वाद ने 110 रुपये बढ़ाये। इसने जमे जमाए शक्तिभोग की कमर भी तोड़ दी। उसी तरह से टाटा ने मूंग दाल लांच किया है। हाई क्वालिटी की है जो बाज़ार में 80 रुपये प्रति किलो में मिल रही थी । इससे खुदरा मूंग दाल वाले ग़ायब हो गए और अब टाटा की नई पैकेट 100 रुपये प्रति किलो की आ रही है। उसने कहा कि बड़ी कंपनियों के पास घाटा सहने की शक्ति है। जब पड़ोस में मोर का सुपर स्टोर खुला तो हम बर्बाद हो रहे थे लेकिन मंदी आ गई तो लोग दाम का हिसाब लगाने लगे। तब हमारा बिजनेस पिक अप करने लगा लेकिन तभी एक दूसरा मल्टी स्टोर ईजी डे में आ गया। हम पर फिर दबाव बढ़ गया। हम खत्म नहीं हो जायेंगे मगर ज़रूरत क्या है। यह क्यों कहा जा रहा है कि उपभोक्ता और किसान को फायदा होगा। जहां ज़रूरत है वहां निवेश करो। मेट्रो में निवेश का किसी ने विरोध किया। यह भी सही है कि मेट्रो के आने से कारों की बिक्री कम नहीं हुई लेकिन किसी की पूंजी की ताकत से हम कब तक लड़ेंगे। वालमार्ट जहां पर ताकत से खुलेगा वहां हम बर्बाद हो जायेंगे। अभी जो स्टोर खुलते हैं वो ज्यादा दिन नहीं टिक पा रहे हैं। इसलिए हम डूबते उतराते रहते हैं।

एक दुकानदार अपनी समझ से बोले जा रहा था। पूछा कि आपको जानकारी कैसे मिलती है। कहा कि टीवी पर बकवास चलता है हम पेपर ध्यान से पढ़ते हैं।

टूट रही है कमर शहर की

राजस्थान और मध्यप्रदेश के कई शहर बारिश से तबाह हैं। बारिश के वक्त जो हालत मुंबई और दिल्ली की हुआ करती है वही हालत जयपुर, अलवर,सीकर और भोपाल की भी होने लगी है। जयपुर ने तीस सालों में सबसे अधिक बारिश देखी तो मरुभूमि में बूंदों के गिरने का उत्साह कई तरह की आपदाओं की तस्वीरों में ढल गया। चंद दिनों की बारिश से निपटने के लिए सेना बुलाने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ठीक ही कहा कि जयपुर में बाढ़ कहां आई है। दरअसल यह बाढ़ तो है नहीं यह तो उन शहरी ढांचों के चरमराने से बहने वाला मवाद है जिसे व्यक्त करने के लिए बाढ़ के अलावा कोई शब्द नहीं है। हम संज्ञा सर्वनाम और विशेषण की जगह अगर अपने शहरों को ठीक से देखने लगे तो जवाब अपने आप मिलता चला जाएगा। आखिर उस राजस्थान के शहरों की हालत इतनी बुरी क्यों हुई जो हिन्दुस्तान के शहरीकृत राज्यों की सूची में नीचे स्थान पाता है। मुंबई और दिल्ली की तरह भोपाल क्यों तबाह हो गया? क्या यहां का शहरी ढांचा भी अब एक दिन की बरसात झेलने के लायक नहीं रहा? जिस जयपुर को १७२७ में योजनाओं के अनुसार बसाया गया था वो आज कहां पहुंच गया है। क्या उसके बाद जयपुर ने आज की बढ़ती आबादी और उसकी ज़रूरतों के अनुसार खुद को बसाया है?
यह सवाल तो सिर्फ जयपुर से ही नहीं बल्कि भारत के ज्यादातर शहरों से पूछा जाना चाहिए। कागज़ पर  बहुत योजनाएं हैं लेकिन लगभग हर शहर नियोजन की कमी और अतिक्रमण की ज़्यादती का शिकार हो रहा है। जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार हम तेजी से शहरी हो रहे हैं लेकिन हमारे शहर उस तेज़ी से तैयार नहीं हो पा रहे हैं। यह तब है जब भारत में शहरीकरण करीब करीब शुरूआत की अवस्था में हैं। इतने बड़े देश में सिर्फ पैंतीस बड़े शहर हैं जिसकी आबादी दस लाख या दस लाख से अधिक है। कुल आबादी का तीस फीसदी हिस्सा ही शहरों में रहता है। बिल्डरों की बसाई कालोनी शहर की प्लानिंग की संकल्पना का हिस्सा नहीं बन सकती। सोसायटियों के बाहर जो शहर, सड़कें, ड्रेनेज, फुटपाथ, स्कूल, खेलने के मैदान हैं इन सबकी कोई ठोस प्लानिंग बराबर से नहीं दिख रही है।
दिल्ली एक ऐसा महानगर है जिसकी नब्बे फीसदी जनता आबादी शहरी कही जाती है। शत प्रतिशत शहरी क्षेत्र। लेकिन यहां भी बारिश के दिनों में तबाही मच जाती है। सड़कों पर पानी भर आता है और ड्रेनज की सफाई की दिखावटी समीक्षा बैठकें होने लगती हैं। इतना खुला शहर होने के बाद भी इसकी यह हालत है। फ्लाईओवर और मेट्रो कायम करने से शहरी ढांचे की बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो जाती हैं। हमने संसाधनों के इस्तमाल की कोई शहरी संस्कृति का विकास नहीं किया है। तालाबों का लोग ही अतिक्रमण करते हैं और फिर राजनीति से भरण पोषण की मांग करते हैं। अतिक्रमण हर शहर की पहचान है क्योंकि जिस तेजी से आबादी गांवों से शहरों में शिफ्ट हो रही है उसे रखने के लिए पहले से मौजूद शहरों में कोई व्यवस्था नहीं है। लिहाज़ा आप किसी भी शहर में देखिये, किरायदारों को जगह देने और उनसे कमाने के चक्कर में मकानों पर कैसे टेढ़े मेढ़े मकान बन गए हैं। शौच की भयंकर समस्या है। मैं रोज़ दिल्ली शहर में शौच के लिए जाती हुई महिलाओं को सड़क पार करते देखता हूं। किसी भी शहर में जाइये महिलाओं के लिए शौच की कोई व्यवस्था नहीं है।
कोरपोरेटर या पार्षद हमारे शहरी समाज का सम्मानित हिस्सा नहीं बन सके हैं। इनका काम भी राजनीतिक दलों की रैलियों के लिए अतिक्रमित बस्तियों से भीड़ लाने भर का रह गया है। इनकी मांगें कभी शहरी विकास मंत्रालय तक ठोस रूप में जगह हासिल नहीं कर पाती। हम इन्हें शहर के विकास के लिए ज़रूरी एजेंट के रूप में नहीं देखते। यहां तक कि नगर निकाय चुनावों में हम अपने शहर के स्वरूप और समस्या को लेकर गंभीर बहस और जवाबदारी की मांग तक नहीं करते। ज़ाहिर है हमारे शहर सबकी उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं। जिन जिन इलाकों में पार्षदों की भूमिका अच्छी रही है वहां विकास के काम हुए हैं। दिल्ली ने इस समस्या को रेजिडेंट वेलफेयर समितियों को कुछ अधिकार देकर बहुत हद तक संभाला है लेकिन फिर भी शहर के स्तर पर योजनाओं की व्यापक कमी दिखती है। जो आप जयपुर से लेकर भोपाल तक में देख सकते हैं।
हमारी नाकामी से बारिश बदनाम हो रही है। आसमान से गिरती बूंदों को सोखने के लिए कहीं मिट्टी नहीं बची है। फुटपाथ तक कंक्रीट के बन चुके हैं। सड़कें भी अब सीमेंट की बन रही हैं। गलियों में भी पार्षदों को लगता है कि सीमेंट की सड़क विकास की नई पहचान है। नाली के ऊपर सड़क बनाकर वोट से काम हो जाएगा। लेकिन हमें यह समझना होगा शहर इन नालियों के ज़रिये सांस लेता है। इनकी सफाई का अभियान तभी क्यों होता है जब बारिश आती है। आम शहरी होने के नाते हमने क्या गुटका या प्लास्टिक की थैलियों को नालियों में बहने से रोका है। हालत यह हो गई है कि शहरी जानवर अब घास की जगह प्लास्टिक चरने लगे हैं। यह सारी बातें आपको मालूम हैं। आप तभी गुस्सा ज़ाहिर करते हैं जब नाली का पानी आपके घर आता है। जयपुर हमारी पहचान है तो हम जयपुर के लिए कौन सी पहचान कायम कर रहे हैं। यही सवाल हर शहर में अब लोगों से पूछा जाना चाहिए।

हमारे शहर रोज़ाना संकट से गुज़र रहे हैं। मामूली भीड़ पार्किंग की समस्या को विकराल कर देती है। अभी तक हम अपने शहरों के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट का विश्वसनीय सिस्टम नहीं विकसित कर पाए हैं। मेट्रो को ही अंतिम विकल्प मान लिया है क्योंकि यह विकास के प्रतिमान के रूप में दिखता है। दिल्ली में मेट्रो के बनने के बाद भी सड़कों से भीड़ खत्म नहीं हुई हैं। आए दिन हम पानी के संकट से गुज़र रहे हैं। नगरपालिकाओं के पास पानी नहीं है और बाज़ार में पानी का करोड़ों का कारोबार हो रहा है। ग़रीब आदमी को सड़क पर पानी भी नहीं मिल रहा है। क्या हमारे शहर सिर्फ बहुमंज़िला इमारतों में रहने वाले अमीर मध्यमवर्ग के लिए ही बने हैं। पूरी दुनिया में अब यह नई थ्योरी चल रही है कि भीड़ भाड़ वाले इलाके आर्थिक रूप से ज्यादा उपयोगी होते हैं। ये शहर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। क्या हम अपनी शहरी भीड़ को बेहतर सुविधाओं के बल पर आर्थिक संभावनाओं में नहीं बदल सकते? विकास को लेकर हमारा सब्र समंदर जैसा है मगर घुटने भर पानी का जमाव हमें ऐसे कूदने के लिए बेचैन कर देता है जैसे हम इनके कारण को जानते ही न हों। यह आसमान से आया ज़लज़ला नहीं है बल्कि जो आप जयपुर या भोपाल में देख रहे हैं उसे हम सभी ने पैदा किया है।
(राजस्थान पत्रिका के लिए लिखा था)

सोशल मीडिया : माध्यम दोषी है या मानसिकता

सरकार और सोशल मीडिया के विवाद की गहराई में जाने के लिए पाठकों से गुज़ारिश है कि वे इस लेख को पढ़ने के बाद थोड़ी मेहनत और करें। अगर आपमें से चंद लोग भी इंटरनेट तक पहुंच रखते हैं तो गूगल में आफ्टर दि रायट्स टाइप करें। यह सौ से अधिक पन्नों की रिपोर्ट है जो पिछले अगस्त लंदन में हुए दंगों पर तैयार की गई है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के कहने पर बनी एक कमेटी ने दंगों के कई कारणों की पड़ताल करते हुए सोशल मीडिया और मुख्य धारा की मीडिया के बारे में भी थोड़ी बहुत टिप्पणी की है। आप जब यह रिपोर्ट पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि कैसे वहां की कमेटी दंगों के कारणों की वृहत जांच करती है। यहां तक कि बच्चों अभिभावकों के संबंधों, स्कूल से लेकर तमाम सरकारी एजेंसियों से समाज के रिश्ते में आई दरार,उनके प्रति अविश्वास,अमीरी ग़रीबी में बढ़ती खाई और बाज़ार का दबाव जैसे कारणों को दंगों से जोड़ती है। आप हैरान हो जाएंगे कि रिपोर्ट के अनुसार पचासी फीसदी लोग मानते हैं कि युवाओं को टारगेट करने वाले विग्यापनों के दबाव ने महंगे और ब्रांड उत्पादों की लूट हुई। इसके समाधान में सत्तर फीसदी लोगों ने माना है कि इन विग्यापनों को सीमित किया जाना चाहिए। किसी ने सोशल मीडिया को मुख्य कारण नहीं बताया है। ये और बात है कि यह रिपोर्ट सोशल मीडिया पर एकाध टिप्पणी करती है।

असम और बंगलुरू से पहले लंदन दंगों की रिपोर्ट की टिप्पणी करने की मंशा यह है कि आप जान लें कि कैसे हिन्दुस्तान में सही कारणों को पता लगाने की बजाए एक खलनायक की पहचान कर ली जाती है और उसी के आस पास राजनीति घूमने लगती है। न तो आपको कारणों का पता चलता है और न समाधान का। हर राजनीतिक दल की सरकार का यही रिकार्ड है। आफ्टर दि रायट्स रिपोर्ट में सोशल मीडिया के बारे में जो टिप्पणी की गई है वो बस इतनी है कि दंगे फैलने में इनकी भूमिका थी लेकिन कारण महत्वपूर्ण थे, माध्यम नहीं। वर्ना इसी दौरान मेट्रोपोलिटन पुलिस के ट्वीटर अकाउंट को फौलो करने वालों की संख्या ४५०० से बढ़कर ४२००० नहीं हुई होती। मतलब साफ है कि लोग सही जानकारी के लिए भी ट्वीटर का इस्तमाल कर रहे थे। रिपोर्ट में सुझाव है कि पुलिस को अपनी संचार प्रणाली में सुधार लाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेना चाहिए। जबकि यही रिपोर्ट मुख्य धारा की मीडिया पर गंभीर टिप्पणी करती है। कहती है कि एक ही तस्वीर बार बार दिखाने से और कई बार सोशल मीडिया पर चल रही अफवाहों को ख़बरों का आधार बनाने से स्थिति बिगड़ी। ज़रूरी है कि ऐसे वक्त में सख्त संपादकीय गाइडलाइन का पालन होना चाहिए क्योंकि यह देखा गया है कि सामाजिक राजनीतिक तनाव की स्थिति में लोग स्थानीय रेडियो और टीवी स्टेशनों पर ज़्यादा निर्भर होने लगे थे। ऐसे वक्त में उनका भरोसा मुख्यधारा की मीडिया पर बढ़ जाता है।


हिन्दुस्तान में चल रहे विवाद पर आने से पहले इतना कहना इसलिए ज़रूरी था ताकि साफ हो सके कि हम आज भी अपने पूर्वाग्रहों आशंकाओं को ही सच मानते हैं और उन्हीं की जड़ों की तलाश में अनाप शनाप कार्रवाई करने में यकीन रखते हैं। यह काम हम व्यक्तिगत जीवन से लेकर राजनीतिक और सरकारी संस्थाओं में हर जगह करते हैं। असम में जो कुछ हुआ और उसकी प्रतिक्रिया में देश भर में जो कुछ हुआ उसके मूल में सोशल मीडिया कम,हमारी व्यवस्थाएं ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं। क्या असम के भीतर पांच लोग सोशल मीडिया के कारण विस्थापित हुए या फिर सरकारी और राजनीतिक संस्थाओं के नाकाम होने के कारण इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी हुई। क्या सरकार ने किसी भी स्तर पर यह पता लगाने में तेज़ी दिखाई कि जो ज़िम्मेदार है उसे पकड़ा जाए ताकि विस्थापित हुए पांच लाख लोगों में सरकार के प्रति भरोसा हो और वे अपने गांव घरों की तरफ लौट पड़े। जब असम जल रहा था तब सरकार ने ऐसी त्वरित कार्रवाई की। उसकी नींद तो तब टूटी जब बंगलुरू से हज़ारों की संख्या पूर्वोत्तर के हमारे भाई बहन शहर से पलायन करने लगे। उनका यह कदम हमारी सरकार से लेकर सोच तक पर गहरा तमाचा था। सरकार ने एस एम एस के ज़रिये फैल रहे अफवाहों को तात्कालिक कारण माना और कई साइट्स से लेकर ट्वीटर अकाउंट को बंद करने के आदेश टाइप किये जाने लगे।
अब सवाल यह उठता है कि माध्यम दोषी है या मानसिकता। सोशल मीडिया के आगमन और प्रचलन के बहुत पहले शर्मनाक हिंसक दंगे हो चुके हैं जिसकी ज़िम्मेदार सिर्फ और सिर्फ हमारी आज की राजनीति और राजनीतिक दल हैं। जिन पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाता। सवाल यह भी है कि क्या सरकार सोशल मीडिया को नया खलनायक बनाकर अपनी संस्थाओं की नाकामी पर पर्दा नहीं डाल रही है। क्या आपके देश में लंदन दंगों जैसी रिपोर्ट मुमकिन है जो प्रधानमंत्री के कहने पर तैयार हो और जिसका मकसद कारण और समाधान दोनों का पता लगाना हो। एक ऐसे समय में जब प्रधानमंत्री का दफ्तर खुद ट्वीटर पर आकर संकेत दे रहा था कि उसने सोशल मीडिया के महत्व का सार समझ लिया है ठीक उसी दौर में सरकार ट्वीटर की दुनिया में अपना विरोधी खोजने लगती है। ट्वीटर की नीतियों के अनुसार किसी की पहचान का कोई नकली अकाउंट खोलता है तो वो गलत है लेकिन जो पैरोडी करता है उसे छेड़ने की क्या ज़रूरत थी। क्या समाज में हम अपने नेताओं की पैरोडी नहीं करते, अपने ख्याति प्राप्त लोगों की पैरोडी नहीं करते। ब्रेकिंग न्यूज़ की तर्ज पर फेकिंग न्यूज़ एक अकाउंट है। जिसपर हर दिन ख़बरों का मज़ाक उड़ाया जाता है क्या इससे मुख्य धारा की मीडिया को परेशान होना चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी सरकारी संस्थाएं आज भी सोशल मीडिया के महत्व को ठीक से समझ नहीं रही हैं। वे तभी परेशान होती हैं जब कोई उनकी नीतियों,सत्ता और साख को चुनौती देता है। आप ट्वीटर या फेसबुक को बंद कर देंगे लेकिन क्या इसे आम सामाजिक जीवन में गली चौराहों पर घटित होने से रोक सकते हैं?

सांप्रदायिकता एक गंभीर समस्या है। इसका मुकाबला राजनीतिक ही हो सकता है। प्रकाशनों और वेबसाइटों के बंद होने से नहीं हो सकता। सरकार कह सकती है कि वो क्या करे। हम पूछ सकते हैं कि वे इससे पहले क्या कर रही थी। क्या पंद्रह बीस वेबसाइट बंद करने से ऐसी मानसिकताओं के खिलाफ लड़ाई बंद हो गई। और अगर यह उसके लिहाज़ से ज़रूरी कदम है तो इसे लेकर खुलेआम बहस करनी चाहिए। जिन साइट्स को बंद किया जा रहा है उन्हें नोटिस दिया जाना चाहिए। सरकार पहले ही सोशल मीडिया पर सेंसर लागू करने का रास्ता खोज रही है। अन्ना आंदोलन के समय मार खा चुकी सरकार को लगता है कि सोशल मीडिया के कारण ही मामला हाथ से निकल गया। यही घबराहट आज भी है जब रविवार को दिल्ली में प्रधानंत्री के घर प्रदर्शन होने जा रहा था तो कुछ घंटों के लिए मेट्रो सेवा बंद कर दी गई। जबकि सरकार को संवाद करना चाहिए था कि प्रधानमंत्री का घर सुरक्षा के लिहाज़ से ठीक नहीं है। क्या आप यह दलील मान लेंगे कि एक साल तक चलने वाला आंदोलन किसी सोशल मीडिया का आयोजन था या आप यह नहीं देखेंगे कि घोटालों ने साख इतनी गिरा दी है कि हर कोई इस सरकार को किसी न किसी मंच से कुछ बोलना चाहता है। क्या राजनीति में ऐसा पहली बार हो रहा है कि किसी सरकार की साख कमज़ोर हो रही हो। क्या सोशल मीडिया से पहले सरकारों की साख नहीं गिरी है और वो बदली नहीं गईं हैं।
इसलिए सोशल मीडिया को खलनायक बनाना ठीक नहीं है। लेकिन इतना ही कहने से जैसे सरकार नहीं बच सकती वैसे ही सोशल मीडिया भी नहीं बच सकता। ट्वीटर और फेसबुक में आपके पास ऐसे हथियार हैं जिनके सहारे समाज के लिए ख़तरनाक तस्वीरों और वीडियों को ब्लाक कर सकते हैं। अब सवाल यह उठता है कि जब व्यक्ति कर सकता है तो सरकार क्यो नहीं? लेकिन इसकी एक पारदर्शी प्रक्रिया तो होनी चाहिए। क्या सरकार उसे भी बंद करेगी जो उसके खिलाफ अभियान चलाते हों। यह दलील दी जा रही है कि डेढ़ करोड़ से ज्यादा ट्वीटर अकाउंट में से सिर्फ सोलह सत्रह को बंद करने की बात कही गई है। सवाल संख्या का नहीं है। सवाल है कैसी परंपरा कायम हो रही है। क्या हमारे प्रधानमंत्री उन्हें लेकर लतीफों चुटकुलों और मुहावरों से इतने परेशान हैं कि उन्हें बंद करा देने की सोचने लगे। ऐसी बातें तो राजनीतिक दल खुलेआम संसद से लेकर सड़क पर करते हैं। सरकार क्यों नहीं उनके खिलाफ मामले दर्ज करती है।
हमें इंटरनेट की मूल अवधारणा को समझना होगा। आज़ादी इसकी बुनियाद है। मुख्य धारा की मीडिया भी आज़ाद है लेकिन उस पर बाज़ार से लेकर सरकार तक किसी न किसी रूप में प्रभाव रहता है। सोशल मीडिया इन सबसे अलग है। जब लिखित रूप में अपने खिलाफ हज़ारों लोगों की बातें पढ़ने को मिल जाएं तो सुनी सुनाई बातों से ज्यादा घबराहट और गुस्सा मचता होगा। भारत सरकार के इस कदम पर अमेरिकी सरकार की प्रवक्ता विक्टोरिया नूलंद ने कहा कि हम इंटरनेट के राष्ट्रीयकरण के खिलाफ है। यह एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है। सोशल मीडिया की आज़ादी सार्वभौमिक है। देश और काल से परे हैं। इनकी ताकत दिनों दिन बढ़ती जा रही है। तभी मुख्य धारा की मीडिया भी सोशल मीडिया पर आ रही है। सोशल मीडिया उनका ही स्वरूप बदल रहा है। आखिर बड़े समाचार कंपनियों को क्यों अपना ट्वीटर अकाउंट खोलना पड़ रहा है। शायद इसलिए कि ये उनके बीच जाकर सही खबरों की प्रासंगिकता को भी बनाए रखना चाहती हैं। न्यूज़ देना और न्यूज़ पर बात करना ये दो अलग अलग सामाजिक मंचों पर होने वाली क्रिया है। मुख्यधारा की मीडिया बखूबी समझ रहा है। सरकार को भी अपना अकाउंट खोलकर अपने खिलाफ हो रहे मिथ्या प्रचार का मुकाबला करना चाहिए। बस यह जान लेना होगा कि इस मंच पर प्रोपेगैंडा थोड़ा मुश्किल है। लोग सीधे और तीखे सवाल करते हैं। आपकी मंशा से लेकर आशंका तक को घेरते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कोई राजनीतिक दल।
इसीलिए सरकार को अपने भीतर झांकना चाहिए। बंगलुरू से लोग सिर्फ एस एम एस और फेसबुक पर गलत तस्वीरें के कारण नहीं भागे बल्कि इसलिए भी भागे कि उन्हें सरकारी संस्थाओं पर भरोसा नहीं है। उन्हें पता है कि सचमुच दंगा हो गया तो पुलिस पेशवर की तरह कम पार्टी की तरह ज्यादा बर्ताव करेगी। जैसा कि अभी अभी मुंबई में हुआ। फिर क्या इन अफवाहों को जगह इसलिए नहीं मिली कि मुख्यधारा की मीडिया ने अपना काम ठीक से नहीं किया। क्या उसकी चुप्पी से ऐसी बातों ने ज़ोर नहीं पकड़ा। अगर मुख्यधारा की मीडिया ने साहस से काम लिया होता और लोगों को बताया होता कि मुंबई के आज़ाद मैदान की कुछ तस्वीरें हम नहीं दिखायेंगे क्योंकि इनसे बातें भड़क सकती हैं लेकिन इसमें शामिल लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। चुप्पी दवा नहीं है। बोलना पड़ता है। ग़लत है तो ग़लत के ख़िलाफ़ और सही है तो सही के लिए। अभिव्यक्ति की आज़ादी निर्बाध नहीं है मगर अभिव्यक्ति के मंचों पर कोई शर्त या दवाब नहीं होना चाहिए। पुस्तकों से लेकर फिल्मों और कलाकृतियों पर पाबंदी से कुछ हासिल नहीं होता है। सवाल से टकराना पड़ता है।
(यह लेख नेशनल दुनिया में प्रकाशित हुआ था)

सोशल मीडिया से कौन डरता है

सोशल मीडिया से कौन डरता है? सरकार या मुख्यधारा की मीडिया? जिस इंटरनेट का टेक्नॉलजी के लोकतांत्रिकरण के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में हुआ था उसके मैदान पर घास की तरह पसरते सोशल मीडिया पर लगाम लगाने के कानून दुनिया भर के कई देशों में तेज़ी से क्यों बन रहे हैं? क्या सोशल मीडिया ने हमारी सामूहिक सोच और अभिव्यक्ति को पूरी तरह बदल दिया है? क्या सोशल मीडिया ने मुख्य धारा की मीडिया से निर्भरता कम कर दी है? क्या सोशल मीडिया किसी भी तरह की जवाबदेही से मुक्त एक ऐसा सार्वजनिक मंच है जिसे हमेशा ही किसी प्रकार के सरकारी नियंत्रण से मुक्त लेकिन इसे पैदा करने वाली माता कंपनियों की छाती से चिपके रहने को ही स्वतंत्रता समझता रहेगा? क्या सोशल मीडिया तभी तक ठीक है जब तक लोग इस पर नानी से कहानी की यादें और बारिश में जामुन के किस्से ही बांटते रहे? सोशल मीडिया अपनी हदे लांघ रहा है या सरकार और मुख्य धारा की मीडिया की हदों को तोड़ कर एक ऐसा स्पेस यानी स्थल का निर्माण कर रही है जहां ट्रैफिक के नियम लागू ही नहीं हो सकते।
इन सब सवालों का जवाब हम अनुमानों और पूर्वागर्हों के आधार पर देने लगते हैं। हमारे देश में सोशल मीडिया को लेकर प्रमाणिक शोध की घोर कमी है। इसीलिए जो हो रहा है उसी की रनिंग कमेंटी सब किये जा रहे हैं। सोशल मीडिया ने सार्वजनिक होने की तमाम पुरानी मान्यताओं को ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। पहले मीडिया और सरकार के बीच कोई नहीं था। सरकार की मीडिया थी और उसके बरक्स उसके आदेशों पर चलने वाली बाज़ार नियंत्रित मीडिया थी। इन दोनों के बीच आपसी टकराव, समझौते और आज़ादी का खेल और भ्रम चलता रहा। दोनों एक दूसरे से धूप छांव का खेल खेलते रहे। आपातकाल में मीडिया पर लगाम लगाने की राजनीतिक कोशिश हुई तो बाज़ारकाल में मीडिया को दूसरे रास्ते से ख़रीदने या प्रभावित करने की। अब इन दोनों के बीच एक नया खिलाड़ी आ गया है। जिसके मैदान में करोड़ों लोग एक साथ खेल रहे हैं। एक सूचना साझा होते होते पल भर में लाखों लोगों की सूचना हो जाती है। इसकी रफ्तार निजी टेलीविज़न की रफ्तार को बेमानी कर दिया है। रफ्तार का खेल भी पहले टीवी और अखबार के बीच चला लेकिन अब टीवी और अखबार मिलकर इस सोशल मीडिया से मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं। ज़ाहिर है तीनों के बीच टकराव के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। तीनों के बीच प्रभुत्व की लड़ाई चल रही है। क्योंकि सोशल मीडिया ने मीडिया के जमे जमाए प्रभुत्व और साख की धज्जियां उड़ा दी है। विज्ञापन के मामले में भी मुख्य धारा की मीडिया को होड़ दे रहा है। जिसकी फिराक़ में चालाक सरकार और मुख्य धारा की मीडिया अपने आप भी सोशल मीडिया बन रही हैं। बात साफ है अगर आप सोशल मीडिया नहीं हैं तो आप मीडिया नहीं हैं।
लेकिन प्रभुत्व और प्रसार के खेल के बीच एक परिवर्तन और हो चुका है। हमारे बीच कई लोगों को लग रहा है कि परिवर्तन हो रहा है बल्कि यह कई साल पहले ही हो चुका था उसका अहसास अब हो रहा है। न्यूज़ यानी ख़बर प्रसार माध्यमों की तुलना में सोशल मीडिया के विभिन्न रूपों से पहुंच जा रहा है। संवाददाता ख़बरें टीवी चैनल पर ब्रेक करने से पहले ट्वीट कर देता है और पल भर बिना टीवी सेट ऑन किये वो ख़बर सैंकड़ों से लेकर करोड़ों लोगों के बीच पहुंच जाती है। यह किसी रोमांच से कम नहीं है। सोशल मीडिया ने मुख्य धारा की बनाई भाषा को भी खारिज कर दिया है। उसकी अपनी भाषा और शैली है। पहले लोग संपादक के नाम चिट्ठी के ज़रिये अख़बार से बात करते थे फिर टीवी में वाक्स पाप के ज़रिये छटांक भर जनता की आवाज़ लाखों लोगों के बीच पहुंचती थी,फिर एस एम एस के ज़रिये टीवी ने जनता को हिस्सेदार बनाना शुरू किया, फिर टीवी स्क्रीन और अखबारों में फेसबुक और ट्वीटर के कमेंट जगह पाने लगे। इस प्रक्रिया को कोई रोक नहीं सकता था। जो न्यूज़ चैनल और अख़बार स्वतंत्र मीडिया बन कर उभरे थे वो अब एक नए माध्यम के सहारे हो गए। हर अखबार और टीवी चैनल की वेबसाइट है और ट्वीटर अकाउंट है। हर पत्रकार का अपना माध्यम है जो उसके संपादक से स्वतंत्र है। हर आदमी खुद को पत्रकार की भूमिका में ले आ रहा है। सूचना और सार्वजनिक मंच के माध्यम जब इस तरह से उलट पुलट हो जाते हैं तो स्वाभाविक है कि सब इस पर कब्ज़ा चाहेंगे और सब एक दूसरे से लड़ेंगे। आज अमिताभ बच्चन को ट्वीटर पर किसी भी एक न्यूज़ चैनल के ट्वीटर अकाउंट या दैनिक हिट्स से ज्यादा लोग अनुसरण करते हैं। वो अब प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते। वो सीधे बात कर रहे हैं लोगों से। मीडिया अब माध्यम नहीं रहा। फिर अंग्रेज़ी के कुछ नामचीन पत्रकार राजदीप सरदेसाई और बरखा दत्त को लाखों लोग क्यों फालो करते हैं। जबकि वही लोग उनके चैनल को भी फॉलो करते हैं।
यही नहीं दुनिया भर में सोशल मीडिया न्यूज़ चैनल को बदल रहा है। अब न्यूज़ चैनल ख़बरें देने के माध्यम के रूप में सिमटते जा रहे हैं। ख़बरों ने अपना अलग मदारी ढूंढ लिया है। तो क्या मुख्य धारा की मीडिया खत्म हो जाएगी? ऐसा नहीं होगा। हर तरह का माध्यम किसी न किसी रूप में कायम रहेगा। अब न्यूज़ चैनलों का काम यह होगा कि तमाम तरह की सूचनाओं में से प्रमाणिक सूचनाओं को देना। पिछले साल अगस्त में लंदन में दंगा हुआ। जब वहां दंगों के कारण और सोशल मीडिया की भूमिका की जांच के लिए कमेटी बनी तो उसने एक रिपोर्ट दी है। आफ्टर द रायट्स नाम से इस रिपोर्ट को आप गूगल में ढूंढ सकते हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दंगों या तनाव की स्थिति में लोग सोशल मीडिया पर कम निर्भर थे। वे स्थानीय रेडियो और टीवी पर ज़्यादा भरोसा कर रहे थे लेकिन रेडियो टीवी यह कर रहे थे कि वे सोशल मीडिया की अफवाहों को भी ख़बर बनाने लगे थे। उन्हें बदलना होगा। इस रिपोर्ट ने बताया कि कैसे दंगों के वक्त म्यूनिसिपल पुलिस के ट्वीटर अकाउंट पर लोगों की संख्या दस गुनी बढ गई।  यानी सूचनाओं के मामले में मीडिया की भूमिका अब भी है। लेकिन हो यह रहा है कि ट्वीटर और फेसबुक के लोग अब न्यूज़ रूम के संपादकों को सरकार या बाज़ार से ज़्यादा प्रभावित कर रहे हैं। उनकी दलीलें चैनल की लाइन बन जाती है। यह एक गंभीर चुनौती है। जिसे आप सोशल मीडिया की आलोचना से नहीं बल्कि अपने पेशेवर नियमों की सख्ती से ही सामना कर सकते हैं।
 हां सोशल मीडिया में अभिव्यक्ति की आज़ादी का ग़लत इस्तमाल भी हो रहा है। राजनीतिक और सांप्रदायिक संगठन अफवाहों को फैला रहे हैं। ऐसे दल तो सोशल मीडिया से पहले भी कर रहे थे। असम में पांच लाख विस्थापित हुए। सरकार की वजह से या सोशल मीडिया की वजह से। बंगलुरू में एस एम एस से घबराहट फैली उसके पीछे दंगों या तनाव के वक्त सरकार या प्रशासन की खराब भूमिका का इतिहास कारण नहीं रहा होगा। दिल्ली से लेकर गुजरात के दंगों तक कब प्रशासन ने लोगों को हिफाज़त की है। इसलिए माध्यम को टारगेट करने का खेल ट्वेंटी ट्वेंटी का गेम है। मानसिकता से लड़ाई लंबी है और लंबे समय तक लड़नी पड़ेगी। हम अभी भी सोशल मीडिया को समझ नहीं पा रहे हैं। इसे एक भूत बना लिया है।
 इस लेख को लिखने से पहले अभी अभी प्रकाशित एक किताब पढ़ रहा था। जिसका नाम है- म्यूज़िक ऑफ द स्पिनिंग व्हील, महात्मा गांधी मेनिफेस्टो फॉर द इंटरनेट एज। किताब अंग्रेज़ी में है और लिखा है खुद को बीजेपी का कार्यकर्ता कहने वाले सुधींद्र कुलकर्णी ने । अभी पूरी नहीं पढ़ी है लेकिन इसलिए इसके वैचारिक पक्ष पर टिप्पणी नहीं कर रहा हूं लेकिन यह किताब इंटरनेट के युग में गांधी के चरखों को ढूंढती हुई दलील दे रही है कि इंटरनेट ही गांधी का चरखा है। एक ऐसी तकनीक जो पूरी तरह से लोकतांत्रिक और अहिंसक। हालांकि अहिंसक बात से सहमत नहीं हूं मगर इंटरनेट वो चरखा तो है ही जिसे सब आसानी से चला सकते हैं। इसलिए सोशल मीडिया एक ऐसा समाज बना रहा है जो मीडिया से पहले का मीडिया भी हो सकता है। जब अख़बार और टीवी नहीं थे तब सूचनाएं कैसे पहुंचती थीं। बस रफ्तार पहले जैसी नहीं है। यही वो खूबी है जो सोशल मीडिया को उपयोगी और खतरनाक बनाती है। यहां पर हर दिन एक नया मीडिया अमीबा की तरह पैदा होता है जो अगले चंद दिनों में बिखकर नया अमीबा यानी नया मीडिया बन जाता है। आप इसे कब तक और किस किस कानून से रोकेंगे। इसका जवाब नहीं है मेरे पास। जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कई तरह के अगर मगर के साथ मिली है तो अभिव्यक्ति का कोई ऐसा मंच हो सकता है जो किसी अगर मगर के बग़ैर हो। यह बहस का विषय है। बौखलाहट में कदम उठाने का विषय नहीं है।
(यह लेख राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में प्रकाशित हो चुका है)