वासेपुर की बंगालन

इस फ़िल्म में बंगालन का किरदार अनायास नहीं आया है। धनबाद कोलकाता जैसे बड़े महानगर के एक्सटेंशन के रूप में काम करता रहा है। आसनसोल उसको सहोदर खदान है। धनबाद और आसनसोल एक सहज विस्तार का हिस्सा है। इसीलिए सरदार ख़ान के जीवन में बंगालन आती है। दुर्गा। इस फिल्म में बंगालन के किरदार को कोई और ठीक से व्याख्या करे तो अच्छा रहेगा मैं अपनी स्मृतियों के सहारे एक व्याख्या करने की कोशिश करता हूं। हिन्दी भाषियों के मन में बंगाल और बंगालन का वजूद अभी तक एक्सप्लोर नहीं किया गया है। हमारे सामाजिक मन में बंगालन हमेशा से एक आज़ाद ख़्याल वाली औरतें रही हैं। आज़ाद ख्याल पर विशेष ज़ोर देना चाहता हूं। जड़ हिन्दी भाषी मर्दसोच में बंगालन उस आज़ादी का प्रतिनिधि करती है जिसकी तलाश में वो भटकता रहता है। बंगालन की यह वो ख़ूबियां हैं जो वो अपनी पत्नी या सामाजिक लड़कियों में नहीं देखना चाहता। इस आज़ादी का अंग्रेज़ी का एक समकक्ष शब्द लूज़ बैठता है। आप इस बात को तब तक नहीं समझेंगे जब तक आप बिहार यूपी के हिन्दी भाषी नहीं होंगे।

अनुराग ने अपनी फिल्म में दुर्गा का किरदार उसी मानसिक इलाके की तलाश में रचा होगा। कहानीकार ने बारीक निगाह से इस किरदार के बारे में सोचा होगा। वर्ना ऐसा नहीं था कि दुर्गा के बिना वासेपुर की कहानी पूरी नहीं होती। सरदार को अगर चरित्रहीन मर्द के रूप में ही दिखाना था तो दुर्गा का प्रसंग एक रात के लिए होता। मगर वो हम हिन्दी भाषियों के मानसिक मोहल्ले में पूरी फिल्म के दौरान आखिर तक मौजूद रहती है। वो एक स्वतंत्र महिला है। कम बोलती है। बिना किसी सामाजिक दबाव के सरदार से संबंध कायम करने का फैसला करती है। एक दृश्य है जब सरदार नहा रहा होता है। दुर्गा टाट के पीछे बैठकर सरदार को देखती है। वो उसके करीब आ जाती है। बंगाल की लड़कियां काला जादू कर देती हैं। फंसा लेती हैं। ऐसी बातें हम सबने कही होंगी और सुनी भी होंगी। दुर्गा की साड़ी और ब्लाउज़ को हिन्दी आंखों की हवस और सोच के हिसाब से बनाया गया है। बंगाल की औरतों के कपड़ों को सर से पांव तक ढंकी हिन्दी भाषी प्रदेशों की औरतों और उनके मर्दों ने ऐसे ही देखा है। जलन से और चाहत से। सरदार का दिल तो आता है लेकिन अंतत दुर्गा फंसा लेती है। वो उसे अपने पास रख लेती है।

धनबाद के रंगदारों को रखैल रखने और किसी की रखैल हो जाने का सुख बंगाल से ही मिलता होगा। सोनागाछी उनका पसंदीदा और नज़दीक का ठिकाना रहा होगा। बिहार और यूपी के लोगों के संपर्क में पहले बंगाल ही आया। बंबई दूर था। बंगाली औरतों ने बिहारी यूपी मर्दों को अपना भी बनाया। कम किस्से हैं कि यूपी बिहार का भइय्या बंबंई गया और मराठी लड़की के प्रेम में पागल हो गया। हो सकता है कि मेरी जानकारी में ऐसे प्रसंग न हो लेकिन आप भोजपुरी गानों को सुने तो बंगालन का ज़िक्र एक खास अंदाज़ में हो ही जाता है। उसी का विस्तार है बंगालन का किरदार। बिहारियों ने उनकी सेक्सुअल स्वतंत्रता को विचित्र रूप से तोड़मरोड़ कर देखा है और मुहावरों से लेकर अपनी कल्पनाओं में सजाया है। तभी सरदार ख़ान उसे बंगालन जानते ही उपलब्ध समझने लगता है। वहां उसके बोलने का लहज़ा भी क्लासिक है। फुसला रहा है। गोरे गाल को दबोच लेता है। गाल का दबोचना भी हिन्दी प्रदेशों के सामंती मन में मौजूद कई दृश्यों को खोलता है।

बंगालन घर बर्बाद कर देने वाली औरतों के रूप में देखी जाती रही हैं। उनके संपर्क में आईं हिन्दी भाषी औरतों ने जब थोड़ी सी स्वतंत्रा का इस्तमाल किया तो उन्हें बंगाली कहा जाने लगा। यह मैं अपने बाप दादाओं के वक्त के सामाजिक अनुभव से लिख रहा हूं। तभी जब सरदार ख़ान का बेटा दुर्गा के दरवाज़े पर पत्थर मारता है तो उसका दोस्त भी मारने लगता है। ऐसे दोस्त मिल जाते थे जो बिना मतलब के दोस्त के काम आ जाते थे। मगर पत्थर मारने के उस दृश्य को यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। नारीवादी विमर्श में इसकी प्रशिक्षित व्याख्या होनी चाहिए जो शायद मैं नहीं कर पा रहा हूं।

हां एक दृश्य और है। जब दुर्गा खुद सरदार खान के साथ हमबिस्तर होने आती है। उसके चीखने में एक पूरा विमर्श है। एक मुसलमान और बंगालन का हमबिस्तर होना एक सामान्य फिल्मी दृश्य नहीं है ये। मैं लिखना नहीं चाहता क्योंकि अच्छा होगा जब ये सवाल कोई अनुराग से पूछे और जवाब भी वही दें। मेरा इशारा काफी है। ऐसे सेक्सुअल पूर्वाग्रहों को भी समझने की ज़रूरत है। इसीलिए वासेपुर में बंगालन का किरदार उसके रहने की जगह,उसका पहनावा और उसकी चुप्पी सिर्फ एक जगह वो बंगाली बोलती है जब वो पत्थर मार रहे लड़कों को दौड़ाती है, मुझे विशेष रूप से आकर्षित कर गया। आश्चर्य है किसी की नज़र क्यों नहीं पड़ी।

गैंग्स आफ वासेपुर-गुंडई का नया महाकाव्य

 (चेतावनी- स्टाररहित ये समीक्षा काफी लंबी है समय हो तभी पढ़ें, समीक्षा पढ़ने के बाद फिल्म देखने का फैसला आपका होगा )

डिस्क्लेमर लगा देने से कि फिल्म और किरदार काल्पनिक है,कोई फिल्म काल्पनिक नहीं हो जाती है। गैंग्स आफ वासेपुर एक वास्तविक फिल्म है। जावेद अख़्तरीय लेखन का ज़माना गया कि कहानी ज़हन से का़ग़ज़ पर आ गई। उस प्रक्रिया ने भी दर्शकों को यादगार फिल्में दी हैं। लेकिन तारे ज़मीन पर, ब्लैक, पिपली लाइव,पान सिंह तोमर, विकी डोनर, खोसला का घोसला, चक दे इंडिया और गैंग्स आफ वासेपुर( कई नाम छूट भी सकते हैं) जैसी फिल्में ज़हन में पैदा नहीं होती हैं। वो बारीक रिसर्च से जुटाए गए तमाम पहलुओं से बनती हैं। जो लोग बिहार की राजनीति के कांग्रेसी दौर में पनपे माफिया राज और कोइलरी के किस्से को ज़रा सा भी जानते हैं वो समझ जायेंगे कि गैंग्स आफ वासेपुर पूरी तरह एक राजनीतिक फिल्म है और लाइसेंसी राज से लेकर उदारीकरण के मछलीपालन तक आते आते कार्पोरेट,पोलिटिक्स और गैंग के आदिम रिश्तों की असली कहानी है।

रामाधीर सिंह, सुल्तान, सरदार जैसे किरदारों के ज़रिये अनुराग ने वो भी दिखा दिया है जो इस फिल्म में नहीं दिखाई गई है। हिन्दू मुस्लिम अपराधिकरण के इस गठजोड़ का इस्तमाल राजनीति में सांप्रदायिकरण की मिसालों के रूप में खूब हुआ है। मगर उसके पहले तक यह गठजोड़ सिर्फ धंधा पानी में दावेदारी तक ही सीमित था। गैंग्स आफ वासेपुर एक राजनीतिक दस्तावेज़ है। इस फिल्म को इसलिए नहीं देखा जाना चाहिए कि किस समीक्षक ने कितने स्टार दिये हैं। इस फिल्म को इसलिए भी देख आइये कि ऐसी फिल्में बनने लगी हैं और सेंसर बोर्ड उन्हें पास भी करने लगा है( सेंसर बोर्ड के अफसरों को बधाई,पंकजा ठाकुर से मिला हूं तो उनका नाम लेकर लेकिन बाकी को भी बधाई)। गालियों के लिए नहीं बल्कि उन दृश्यों के लिए जिनके बिना यह फिल्म वास्तविक नहीं बन पाती। बड़े बड़े मांस के लोथड़ों के कटने की जगह से जो आपराधिक मिथक बनते हैं,यह सीन अगर सेंसर बोर्ड काट देता कि लोगों की भावना आहत हो सकती है तो फिल्म आइना बनने से रह जाती। संवादों में कोइलयरी की राजनीति और अपराधिकरण में टाटा थापर का नाम लेकर उस प्रक्रिया को बता देना आसान फैसला नहीं होगा। नूझ लैनल( मैं न्यूज़ चैनल नहीं कहता क्योंकि मुझे ये लैनल ही लगते हैं) में यह औकात है तो बता दीजिए।

अच्छा निर्देशक वो होता है जो अपनी कहानी के समय और उसके रंग को जानता हो। कैमरे की लाइटिंग, दिन और रात के शेड्स,बारिश के क्लोज अप्स,मोहल्ले की गलियां,गलियों के ढलान, कोने, पुराने अखबारों की कटिंग,धूल,बाल इन सबको एक निरंतरता में रखते हुए दृश्य रचता हो। अनुराग मिलते तो पूछता कि मनोज वाजपेयी के लिए गमछा तो मिल गया होगा लेकिन ईनार(कुआं) पर नहाने के वक्त जो अंडर वियर पहना है वो ब्रांडेड है या पटरी से खरीदा था। ईनार पर बाल्टी में फुले हुए कपड़े और गमछा लपेट कर मनोज का चलना कमाल का है। कट्टा का विवरण और चित्रण बेजोड़ है। फट के फ्लावर हो जाता है। ये संवाद रिसर्च से ही आ सकता है। गुल और ज़र्दे के डिब्बे में बम बनाना और फेंकना वास्तविक है। लुंगी पहनने का तरीका और पीछे फंसी हुई लुंगी को हल्के से खींचना यह सब डिटेलिंग पर्दे के दृश्यों को यादगार बनाते हैं। कलाकार को अभिव्यक्ति देते हैं। जिसने भी इस फिल्म की लाइटिंग की है वो कमाल का बंदा या बंदी होगी। अंधेरा कितने शेड्स में उभरता है,लाजवाब है।

मैं कहानी में नहीं जाना चाहता। कसाई के मोहल्लों के बहाने अनुराग ने  पीयूष मिश्रा के नैरेशन से ज़ाहिर कर दिया है कि एक समय था जब ये बस्तियां ठेकेदारों के गुर्गों की खदानें हुआ करती थीं। जिनका नब्बे के दशक में सांप्रदायिक अफवाहों में इस्तमाल किया गया। बिना इस डायनमिक्स के आप इस फिल्म को नहीं पढ़ सकते। फिल्म बनती है वासेपुर में। आज़ादी के पहले से, अंग्रेज़ों के आने और जाने के बीच, ट्रेन के लूटने का लंबा सीन, सरदार के बाप का मरना, सरदार का बनना,उसकी शादी,बच्चे। वो एक सामान्य मर्द है। मनोज वाजपेयी ने ऐसे किरदारों को अपने समाज में खूब देखा होगा,सुना होगा। सत्या में मनोज अपने बेहतरीन अभिनय से काल्पनिक हो जाते हैं तो वासेपुर में अपने शानदार अभिनय से वास्तविक। गिरिडिह गिरिडिह बोलने का अंदाज़, नली वाला मटन पीस चूसना, लड़की को ताकना,कुएं पर दुर्गा के साथ कपड़े धोते वक्त ताल से ताल मिलना,बंगालन का राजनीति में आना यह सब बिहार यूपी के आपराधिक होते समाज के वास्तविक किस्से हैं। आप इन्हें बिंदेश्वरी दूबे, सत्यदेव सिंह सूरजदेव सिंह बीपी सिन्हा जैसे असली नामों में सुन सकते हैं(जिसकी बेहतरीन चर्चा रंजन ऋतुराज ने अपने फेसबुक स्टेटस में की है) या फिर आप अपने स्थानीय मोहल्लों में उभरे ठेकेदारों और उनके गुर्गे की सुनी सुनाई कहानियों में खोज सकते हैं। कोयला माफिया के पनपने की प्रक्रिया के भीतर कितने उप-वृतांत हैं।

सरदार का अभिनय कमाल का है। मनोज वाजपेयी ने जितना बेहतरीन गुंडई के किरदार को उभारने में किया है उससे कहीं ज्यादा उनका अभिनय औरतों के सापेक्ष एक मर्दाना कमीनगी में दिखता है। मनोज को काफी फोलो किया है। लेकिन इस बार मनोज ने अपने कारतूस से वही निकाले जो हम सब देख चुके हैं। अगर नया वाजपेयी उभरता है तो वो सिर्फ नगमा और दुर्गा के बीच के संबंधों में फंसा मक्कार मनोज है। दानिश को गोली लगते वक्त और अंतिम दृश्य में ठेले पर गिरने का अभिनय काफी अच्छा है। कुएं के पास वो जिस तरह से दुर्गा से बात करते हैं और घर की सफाई करते वक्त जिस तरह से नगमा से बात करते हैं उसका सांस्कृतिक अध्ययन कोई फिल्म वाला करता रहेगा लेकिन हम जिस भोजपुरी समाज से आते हैं उसे देखकर गदगद हो गए। निश्चित रूप से दुर्गा और नगमा के बीच के अवसरों पर मनोज वाजपेयी ने अपने अभिनय को नया मुकाम दिया है। एक सीन में जिस सफाई से मनोज पांव उठाते हुए उठ खड़े होते हैं पता चलता है कि फिल्म में अभिनेता नहीं निर्देशक अभिनय कर रहा है। और बहुत सारे गुमनाम सहायक निर्देशक अपने निर्देशक के साथ खड़े हैं, तैयारी के साथ।

सरदार और औरतों के बीच के संबंध को अलग से देखा जाना चाहिए। नगमा और पीयूष मिश्रा के बीच जो संबंध होते होते रह गया और उससे जो फैज़ल पर असर पड़ा उसके लिए अनुराग ने कैसे आसानी से वक्त निकाल लिया है, शाबासी देने का मन करता है। बिना उस दृश्य के फैज़ल का किरदार पैदा ही नहीं हो सकता था जो शायद दूसरे हिस्से में उभरेगा। मनोज वाजपेयी के पिता का किरदार जिसने भी किया है उसका अभिनय भी नोटिस में लिया जाना चाहिए। कहानी में शुरूआती जान वही डालता है। कोइलरी में पत्थर से मारपीट का सीन प्रभावशाली है।

कसाइयों के मोहल्ले का सुल्तान इस फिल्म में जम गया है। यहां कबूतर भी एक पंख से उड़ता है का संवाद कितनी आसानी से बिना किसी विशेष भाव भंगिमा के उतार देता है। चप्पल उतारकर दांत पीसते हुए दौड़ा कर मारने का सीन। उफ कैसे बताऊं कि एकदम वास्तविक है। मेरे पिताजी ठीक इसी तरह चप्पल खींच लेते थे मारने के लिए। हमारे गांव समाज में चप्पल निकालने का सामंती चलन कैसे आया होगा इसका ज़िक्र करूंगा तो सामंतवाद और जातिवाद में उलझ जाऊंगा। खैर मनोज वाजपेयी ने भी ऐसे वास्तविक दृश्य अपने गांव घरों में देखे होंगे।

सुल्तान को मैंने पहली बार रीमेक वाली अग्निपथ में नोटिस किया था। इस कलाकार का भविष्य उज्ज्वल है। भोजपुरिया ज़ुबान में कहूं तो खंचड़़ा गुर्गा लगा है। इसका किरदार बहुत उभरा नहीं क्योंकि सरदार की बराबरी में नहीं था। सरदार की बराबरी रामाधीर से हो रही थी। क्या आप उस प्रसंग को भूल सकते हैं जब सुल्तान रामाधीर के घर जाता है। पत्नी चीनी मिट्टी वाले बर्तन की बात करती है। मुसलमान आया है। तभी मैं कहता हूं कि इसे आपराधिकरण और सांप्रदायिकरण के बीच की यात्रा के प्रसंगों के रूप में देखा जाना चाहिए। सुल्तान ने क्या एक्टिंग की है।

आप समझ रहे होंगे कि मैं समीक्षा लिख रहा हूं या किताब। कुछ फिल्मों को ऐसे भी देखना चाहिए। इस फिल्म में पीयूष मिश्रा का किरदार बहुत नहीं उभरा। उनकी आवाज़ और गाने ने कमाल का अभिनय किया है। अनुराग पीयूष को और क्रूर बना सकते थे लेकिन शायद स्कोप नहीं रहा होगा। पीयूष का किरदार मनोज के साथ जो लड़का मार काट करता है, वो होना चाहिए था। लेकिन क्या पीयूष के नैरेशन के बिना यह फिल्म पूरी हो पाती। नहीं। हो सकता है कि अनुराग ही पीयूष के रोल को ठीक से समझ न पाये हों। गुलाल में उनके लिए पूरा प्लान था लेकिन गैग्स आफ वासेपुर में पीयूष को लेकर कोई योजना नहीं दिखती है। नगमा और दुर्गा का अभिनय लाजवाब रहा है। दीवार का प्रंसग देखकर लगा कि अनुराग ने सिनेमा के भीतर सिनेमा का इस्तमाल ओम शांति ओम टाइम के भौंडे गाने रचने से हटकर किया है। मुकद्दर का सिकंदर का गाना आहा। सिनेमा देखने की चाह और चाह में बनते किरदार। वाह।

लिखते हुए सोच रहा हूं कि कुछ छूट तो नहीं रहा है। बहुत कुछ छूट रहा है। गानों पर बिल्कुल नहीं लिखा। लेकिन यह फिल्म इसलिए विवाद नहीं पैदा करेगी क्योंकि घटना के समय से बहुत बाद में बनी है। फिर इसका जवाब भी फिल्म में ही है। कैसे माफिया का काम कोयले का चूरा चुराने वाली महिलाएं करने लगीं और माफिया आखिरी दिनों में मछली मारने लगे और रंगदारी के धंधे में आ गए। कुछ नहीं हुआ तो उस रामाधीर सिंह का जिसके पास राजनीतिक सत्ता बची रह जाती है। वही रामाधीर सिंह आज रेड्डी ब्रदर्स लेकर ए राजा तक में बदल गया है।

माफी चाहता हूं बोर समीक्षा के लिए। इस तरह से कोई समीक्षा करे तो फिल्म ही न देखने जाए। मगर आप इस फिल्म को देखिये। काफी मनोरंजन है इसमें । मैं कमज़ोर दिल का आदमी हूं। सोचा था कि बहुत गोली चलेगी तो सिनेमा हाल से चला आऊंगा। बड़ा कलेजा कांपता है महाराज। लेकिन हत्या और गोलीबारी के दृश्य क्रूरतम तरीके से नहीं फिल्माये गए हैं। क्रूरतम से मेरा मतलब वल्गर भी है। सबसे बड़ी बात है कि पूरी फिल्म अनुराग कश्यप की है। निर्देशक ने कहानी पर बराबर की पकड़ बनाए रखी है। किसी किरदार को ज्यादा जगह नहीं दी है। इसीलिए इस फिल्म से आप मनोज वाजपेयी या नवाज़ या पंकज चतुर्वेदी नहीं चुन पायेंगे। जब भी चुनेंगे फिल्म को ही चुनेंगे। अनुराग ने कहानी की ज़रूरत को बहकने नहीं दिया है। हाथ और दिल पर नियंत्रण रखा है। जिसने संपादन किया है उसका नाम तो कोई नहीं जानेगा। उसके परिवारवाले भी स्क्रीन पर नहीं पढ़ पायेंगे मगर वो तारीफ के काबिल है। शायद उसका नाम श्वेता है। इसीलिए कहता हूं कि गैंग्स आफ वासेपुर फिल्म निर्देशकों के लिए चुनौती है। ऐसी बात नहीं है कि इस स्तर की फिल्में नहीं बनी हैं। बनी हैं। मगर आज के मोड़ पर यह फिल्म प्रस्थानबिंदु है। पाथब्रेकिंग।

मार्केट में जाति-वैदिक,ब्राह्मण और बसपा

इस लेख में सुधार किया गया है। मैंने यहां चार तस्वीरें लगाई थी। एक तस्वीर चमड़िया हींग गोली की थी । मुझे लगा कि इसका संबंध दलित चमड़िया जाति से है। लेकिन मेरे कई मित्रों ने बताया कि मारवाड़ी भी चमड़िया होते हैं। मारवाड़ियों में एक टाइटल सुल्तानिया का भी होता है। मैं तस्वीर को हटा तो नहीं रहा लेकिन लेख बदल रहा हूं। ताकि आपको भी पता चले कि मुझसे ग़लती कहां हुई थी। भूल सुधरवाने के लिए मित्रों का शुक्रिया। अजीब है यादव भी जाटव होते हैं और चमड़िया भी मारवाड़ी।

पहली तस्वीर में पं अमरपाल शर्मा ब्राह्मणों के नेता बन गए हैं। मैं जहां रहता हूं उस मोहल्ले में और ठीक इसी जगह पर जहां उनकी परशुराम सम्मेलन वाली होर्डिंग लगी है, कई नीली होर्डिंग देखे हैं। तब बसपा का राज था। अमरपाल शर्मा को बसपा ने टिकट भी दिया था। शर्मा सर्वजन सरकार का नारा मायावती की तस्वीरों के साथ होर्डिंग में लगाते दिखते थे। सरकार जाने के बाद ब्राह्मणवाद का दामन पकड़ लिया है। जैसे जात एक गंजी भी है। वक्त आने पर कमीज़ उतार कर हम डालर,लक्स,ऑन,वीआईपी। दूसरी तस्वीर में परशुराम सेना में भर्ती का विज्ञापन है। आटो में लगा है। यह भी मेरे ही इलाके में दिखा था।



 सौ मीटर के इलाके के भीतर इनकी तस्वीरें उतारी हैं मैंने।यह मार्केट फ्रैंडली जातिवाद है।

प्रगति का कॉलर ट्यून है शांघाई।

शांघाई। जय प्रगति,जय प्रगति,जय प्रगति। राजनीति में विकास के नारे को कालर ट्यून की तरह ऐसे बजा दिया है दिबाकर ने कि जितनी बार जय प्रगति की आवाज़ सुनाई देती यही लगता है कि कोई रट रहा है ऊं जय शिवाय ऊं जय शिवाय । अचानक बज उठी फोन की घंटी के बाद जय प्रगति से नमस्कार और जय प्रगति से तिरस्कार। निर्देशक दिबाकर स्थापित कर देते हैं कि दरअसल विकास और प्रगति कुछ और नहीं बल्कि साज़िश के नए नाम हैं। फिल्म का आखिरी शाट उन लोगों को चुभेगा जो व्यवस्था बदलने निकले हैं लेकिन उन्हीं से ईमानदारी का इम्तहान लिया जाता है। आखिरी शाट में प्रसनजीत का चेहरा ऐसे लौटता है जैसे आपको बुला रहा हो। कह रहा हो कि सिस्टम को बदलना है तो मरना पड़ेगा। लड़ने से कुछ नहीं होगा। उससे ठीक पहले के आखिरी शाट में इमरान हाशमी को अश्लील फिल्में बनाने के आरोप में जेल भेज दिया जाता है। कल्की अहमदी पर किताब लिखती है जो भारत में बैन हो जाती है। अहमदी की मौत के बाद उसकी पत्नी चुनावी मैदान में उतर आती है। अहमदी को मारने वाला उसकी पत्नी के पोस्टर के नीचे भारत नगर की पुरानी झुग्गियों को ढहाता हुआ एक फिर से हत्या करने में जुट जाता है। झुग्गियों का टूटना और शांधाई का बनना ही तय है। अहमदी की मौत के वक्त का फ्रेम लाजवाब है। एक नज़र में लगता है कि सब स्टिल हो गए हैं। मगर कैमरे की बजाय अभिनय से स्तब्धता का जो स्टिल माहौल रचा है वो पूरी कहानी को फिर से रिवाइंड करती है। हमारी स्मृतियों पर ज़ोर देती है कि यही होता है। होता कुछ नहीं है। लड़ाई एक व्यर्थ प्रयोजन है। बस इसी यथार्थ की स्वीकृत पोजिशन को साबित कर देने के बाद एक बहुत अच्छी फिल्म पहले बनी फिल्मों की तरह लगने लगती है। फिल्म हमारे भीतर की राजनीतिक निराशा का आईना है। हीरो पैदा नहीं करती। नए राजनीतिक आदर्शों और विकल्पों की तलाश में चलताऊ नहीं होती। सारे विराट दृश्यों को आस पास का बना देती है।

दिबाकर ने कोई नया प्रयोग नहीं किया है। बल्कि अपने दौर में साहस किया है कि राजनीति के इस क्रूर चेहरे को पर्दे पर उतारने का । हम अपने शहर के बसने और उजड़ने की राजनीति को नहीं समझते। यही बता रहे हैं दिबाकर कि कितना आसान है इस पोलिटिक्स को देख पाना। शांघाई कोई ग्रैंड फिल्म नहीं है। फिल्म अपने दृश्यों या कहें तो फ्रेम के लिहाज़ से भी नए मानक नहीं बनाती। ऐसे मसले पर बनी पहले की फिल्मों से चली आ रही दृश्यों को नए तरीके से संयोजित ही करती है। एक कुनबे और एक मोहल्ले की लड़ाई के बीच की राजनीति का सीमित संदर्भ है। अगर इसे पोलिटिकल थ्रिलर कहा गया है तो मैं सहमत नहीं हूं। इसमें कुछ भी थ्रिल करने लायक नहीं है।

जो कमाल है वो इसकी स्थिरता में है। इसके सामान्य होने में है। एक प्लाट पर शांघाई बसाने के लिए मुख्यमंत्री और विरोधी का अंदरखाने हाथ मिलाये रखना रोज़मर्रा की सियासत है। दिबाकर ने उस सियासत को जस का तस धर दिया है। इसीलिए जब वो मुखर होने लगता है तब दर्शक आनंद लेने लगते हैं। उनकी राय बदल जाती है जो इंटरवल के पहले इसे डाक्यूमेंट्री बताकर हंसने लगे थे। चटने लगे थे। बाद में जब समझ आती है तो कुर्सी की हैंडिल पकड़ लेते हैं। आज के शहरीकरण के दौर के इतने शेड्स हैं। उसकी राजनीति की क्रूरता के टूल बदल चुके हैं। लेकिन फिल्म में नेताओं के टट्टू भी वही हैं और वैसे ही हैं जो कई भारतीय फिल्मों की यात्रा करते करते शांघाई तक पहुंचे हैं। मतलब कुछ भी नहीं बदला है। हम सब टट्टू ही बने रह जाते हैं। अफसरों के बीच की राजनीति की कहानी भी नई उत्सुकता पैदा नहीं करती है। अभय देओल के शानदार अभिनय के अलावा उस प्लाट में ऐसा कुछ भी क्रांतिकारी नहीं है जो फिल्म को सत्यमेव जयते से अलग करती हो। बस सादगी और नाटकीयता का फर्क रह जाता है। अभय देओल के अभिनय की जितनी तारीफ करें कम हैं। फारूख़ शेख का अभिनय अच्छा है लेकिन ऐसा अभिनय तो वो करते ही रहते हैं। वो सिर्फ रोल में शूट करते हैं। उनका पात्र और अभिनय आपके भीतर कोई नया शेड्स नहीं बनाता। कल्की का अभिनय साधारण भर है। वो एक करप्ट बना दिये गए या करप्ट बाप की एक बेटी है जो ईमानदारी के रास्ते पर चल निकली है। लेकिन उसका इस यथार्थ से कोई संघर्ष नहीं है। अंग्रेजी सीखने की तमन्ना रखने वाला टैंपो ड्राइवर ने आकांक्षाओं की उड़ान की अच्छी पैरोडी की है। इमरान हाशमी में बहुत संभावनाएं हैं। शांघाई उनकी यादगार फिल्म होगी।

इसीलिए दिबाकर की शांघाई कई बार सत्तर अस्सी के दशक में बनी फिल्मों जैसी लगने लगती है। कोई तो है जो दोहराने का साहस। दोहराना भी पोलिटिक्स है। कुछ संवाद बेहतरीन है। कुछ फ्रेम बहुत अच्छे हैं। लेकिन मैं इसे महान फिल्म नहीं मानता। महानता इसी में है कि इसने फार्मूले का सहारा नहीं लिया लेकिन जिस पैमाने का सहारा लिया है उस पर ऐसी कई फिल्में पहले भी बन चुकी हैं। पिछले एक साल में पाकिस्तान फिल्म बोल के समानांतर हमारे यहां एक भी फिल्म नहीं बनी है। जिसे देखते वक्त आपका दिमाग झन्ना जाएं। आपका सीना कमज़ोरी महसूस करने लगे। फिर आप तुरंत एक आनंद के लम्हों में तैरते हुए फिल्म देखने लग जाएं। आप पहले बोल देख लीजिए।

शांघाई नहीं चल पाएगी तो मुझे हैरानी नहीं होगी। यही हमारा दर्शक संस्कार है। लेकिन निर्देशक जब जोखिम उठाता है तब दर्शक को भी जोखिम उठाना चाहिए। एक बार कुछ दर्शकों से बातचीत में उलझा था। सब मीडिया से उम्मीदों की लंबी लंबी सूची गिना रहे थे। मैंने एक ही सवाल किया। आप तो हमसे बहुत उम्मीद करते हैं ये बताइये हम आपसे क्या उम्मीद करें। सब चुप। तभी एक दर्शक जो डाक्यूमेंट्री बताकर खारिज कर रहा था बाद में टायलेट में कहता है कि राजनीति इससे अच्छी थी। शांघाई बड़ी फिल्म होती तब जब इसकी कहानी की राजनीति कोई ग्रैंड नैरेटिव पेश करती । इस फिल्म का एक ही संदेश है। इतना सबकुछ होने के बाद भी हम देखते रह जाते हैं। वो भी ठीक से नहीं देखते। अहमदी मारा जाता है तो अपनी व्यक्तिगत लड़ाई में मारा जाता है। जनता तो उसी राजनीति की गुलाम है। टट्टू है जो जय प्रगति जय प्रगति के नारे लगाते हुए अपना टैंपो को कर्ज मुक्त करने के मकसद से उसका हथियार बनती है और फिर उसी हथियार से मारी जाती है।

काश मैं इस फिल्म को देश के तमाम झुग्गी बस्तियों में ले जाकर दिखा पाता। क्योंकि जिनके लिए यह फिल्म बनी है वही नहीं पहुंच पायेंगे। जिनके लिए नहीं बनी है जो समीक्षा और स्टार देखकर या इस लेख की तरह ज्ञान बांटकर खुश हो लेंगे। शांघाई ज़रूर देखिये। अच्छी फिल्म है। लेकिन यह मत बताइये कि ऐसी फिल्म बनी ही नहीं है। बन गई है मैं तो इसी से खुश हूं। दिबाकर पहले हिस्से को और बेहतर कर सकते थे। बेहतर से मेरा मतलब बस इतना ही है कि कहानी जब शुरू होती है तभी सभी को जोड़ ले तो अच्छा है। शायद यही वजह थी कि कुछ मूर्खों को यह डाक्यूमेंट्री लगी थी।

चिड़िया चिड़िया चिड़िया

चिड़िया चिड़िया चिड़िया
उड़ उड़ के आई चिड़िया
घूर घूर के देखे गुड़िया
कहाँ से आई चिड़िया
पंखों से उड़ती चिड़िया
बिस्तर पे रोती गुड़िया
चिड़िया चिड़िया चिड़िया
इधर से उड़ के आई
उधर से उड़ के आई
पंख हैं कि पुड़िया
सोचे है मेरी गुड़िया
हंसती है मेरी गुड़िया
उड़ती है देखो चिड़िया
आसमां की रानी है
बादल इनकी नानी है
चंदा इसका मामा है
सूरज इसका चाचा है
तारों की है सहेलियां
बतियाये सारी रतिया
चिड़िया चिड़िया चिड़िया
(बस गुनगुनाने लगा उसे मनाने के लिए तो हिन्दी साहित्य में भूल वश योगदान हो गया। मेरी चंद्रावती,रामदुलारी,प्रेमदुलारी,भगवती,केसरपति,चंद्रकला,सुमनलता इन तुकबंदियों को सुनकर झूमती रही। तभी मुझे अहसास हुआ कि यह कोई सामान्य रचना नहीं है। इसे तुरंत साझा किया जाना चाहिए। आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि आलोचक भी इसे सराहेंगे। नहीं सराह सकते तो अपने घर का पता दे दें..आकर समझाता हूं।)

ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या पर प्रतिक्रियाओं का समग्र पाठ

आज सुबह ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद फेसबुक पर तरह तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं। सोचा कि ज्यादातर को एक जगह किया जाए और उन्हें फिर से देखा जाए। नायक खलनायक के बीच बहुत सी बातें हुई होंगी जो आज की पीढ़ी को शायद ही पता चलें। इन्हें देखकर आप और जानने को उत्सुक होंगे। एक व्यक्ति की हत्या से कितनी अलग अलग तरह की आवाज़ें आने लगीं हैं।
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Ranjan Rituraj-
ब्रह्मेश्वर मुखिया नहीं रहे ! शहीद हो गए ! आरोप थे उनपर 'नरसंहार' का ! मामला कोर्ट में था ! पर् मुझे नहीं लगता रणवीर सेना राष्ट्र विरोधी थी - यह मेरी व्यक्तिगत राय है !
पर् जिस तरह की प्रतिक्रया फेसबुक पर् दी जा रही है - वो गलत है ! वरिष्ठ पत्रकार जातिगत रंग देकर लोगों की घृणित प्रतिक्रिया का लुफ्त उठा रहे हैं - मै इसकी निन्दा करता हूँ ! मिथिला में बैठा आदमी 'शाहाबाद' की जमीनी हकीकत नहीं समझ सकता... है !
मै उस क्षेत्र से नहीं हूँ जहाँ नक्सलवाद है - पर् पटना में पढ़ने के दौरान मेरे कई साथीओं को गंगा पार ले जाकर निर्मम हत्या कर दी गयी थी क्योंकी वो जहानाबाद के थे - कुछ समझ में नहीं आया - बस बुत की तरह दोस्तों की लाश देखता रह गया था - सबके चेहर मुझे आज भी याद है ! 'बारा' के ५२ लोगों की हत्या एक रात में हुई थी - मुझे याद है ! मै भी एक इंसान हूँ ! फिर 'सेनारी' में हत्याएं हुई ! तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती राबड़ी देवी ने जातिगत आधार पर् टिका टिपण्णी की थीं ! हत्याएं दूसरी तरफ से भी की गयीं वो भी घोर निंदनीय है ! पर् हम आप लालू दौर के सभी घटनाओं को जिम्मेदार दो , अन्ने मार्ग में रहने वाले उस राजगुरु को नहीं ठहरा सकते थे जो सुबह होते ही 'जातिगत' विशेष को गाली देते हुए अपने दिन की शुरुआत करता था - अगर यह सच है - फिर बिहार कोई कई और दसक लगेंगे ! दिल्ली / न्यूयार्क / लंदन में बैठ कर भी आप और हम एक दूसरे के लिये इतने नीचे स्तर पर् जा कर जातिगत आधार पर् गाली गलौज देंगे या उसको बढ़ावा देंगे - फिर शर्म आती है !
जहाँ तक वरिष्ठ पत्रकार और बाकी के लोग जातिगत आधार पर् टिका टिपण्णी दे रहे हैं - वो बहुत गलत है ! अगर आपके जातिगत टिका टिपण्णी को उचित मान लिया जाए तो भी - एक भाई के कमज़ोर होने से तत्कालीन तो आपका फायदा होगा - पर् अन्तोगत्वा आप ही कमज़ोर होंगे - इस् बात को याद रखियेगा !
"मै भूखा मर जाउंगा - पर् अपने बच्चों के खून में चीन के चंदे से और माओवाद / नक्सल के भीख से मिले पैसों का नमक नहीं मिलने दूँगा " !
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Rajeev Kumar Jha
आपने किसानों को बचाने के लिए "रणवीर सेना" संगठन बनाया जिसकी खूनी भिड़ंत अक्सर नक्सली संगठनों से हुआ करती थी. लेकिन सरकार ने आपको निजी सेना चलाने वाला उग्रवादी घोषित कर के प्रताड़ित किया. बाड़ा में नक्सली संगठनों ने हमारे 37 लोगों को मारा था जिसके जवाब में आपने बाथे नरसंहार को अंजाम दिया और उनके 58 पिल्लों को मार गिराया. 277 लोगों की हत्या से संबंधित 22 अलग अलग आपराधिक मामलों (नरसंहार) में आप अभियु...क्त बनाये गए जिसमें से 16 मामलों में आपको साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया. बाकी 6 मामलों में आप जमानत पर थे. आप पर पांच लाख का ईनाम था और आपने नौ साल जेल में गुज़ारे. आप नपुंसक नक्सलों के नाक में दम करने वाले जाबांज थे. आप जुबां से नहीं, बन्दूक से बोलते थे. बर्मेसर मुखिया, आप तोप थे, बिहार के लाल थे. आपकी आत्मा को शांति तब मिलेगी जब आपकी लडाई आपके जाने के बाद भी जारी रहेगी.
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Prakash K Ray
JD-U leader and MP Shivanand Tiwari calls Mukhiya with respectable 'Ji'. I am reminded of Digvijay Singh calling Osama bin Laden with 'Ji'.
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Shaishwa Kumar
एक भयानक सच्चाई का अंत...रणबीर सेना के ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या
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Awesh Tiwari
अंततः मार दिया गया मौत का मसीहा ब्रह्मेश्वर मुखिया ! यह वह व्यक्ति था ,जिसने 22 बार दलितों और पिछड़ों को मौत के घाट उतारा। इसके इशारे पर बिहार में दलितों और पिछड़ों की बच्चियों के साथ बलात्कार किया गया। सैंकड़ों मासूमों का गर्दन एक झटके से उड़ा देने वाले रणवीर सेना का मास्टरमाइंड ब्रह्मेश्वर मुखिया खुलेआम कहता था कि दलितों और पिछड़ों के बच्चों को मारकर उसने और उसके साथियों ने कोई गलती नहीं की ,क्योंकि बड़े होने पर वे नक्सली ही बनते।
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Ranjan Rituraj
Shaheed Ko Naman !!!
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Prakash K Ray via Ashutosh Kumar
नरपिशाच बरमेश्वर मुखिया की कहानी.....
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Sushil Jha
जातिगत लड़ाई का एक अध्याय खत्म माना जा सकता है क्या.....
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Kumar Alok
लालू यादव को पानी पीकर कोसने वाले ब्रहेश्वर मुखिया उनके राज में महफूज रहे...उनकी हत्या के बाद हालात को सामान्य बनाने की बडी जिम्मेदारी होगी नीतिश सरकार पर ।
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Prakash K Ray
संजीवना रे संजीवना, तू मुखियवा को काट के दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे संजीवना.. -'दामुल' (प्रकाश झा, 1985) का एक संवाद.
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Abhishek Srivastava
मुखिया तो गयो... आइए इस मौके पर अदम को एक बार फिर याद कर लें...
...हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, ज़ार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये...
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Prashant Priyadarshi
उसे ऐसे ही जाना था, वे ऐसे ही गए. कहते हैं तलवार कि धार पर जीने वाले तलवार की धार से ही मरा करते हैं.
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अविनाश दास-
ब्रह्मेश्‍वर मुखिया का मारा जाना हिंसा-अहिंसा की बहसों से ऊपर एक स्‍वाभाविक घटना है। यह न तो कोई चौंकाने वाली खबर है, न ही ब्रेकिंग न्‍यूज। हत्‍यारे मारे जाएंगे। बेबस के हाथों। वंचितों के हाथों।
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Dilip Khan लालू किस तरह ब्रह्मेश्वर की हत्या पर वह लाइन लेंगे जो आप सोच रहे हैं। उसके पास उस दिशा में जाने का कोई हक नही है। लालू बार-बार अपने बयान में ये कहते रहे कि किसानों-मज़दूरों को आपा नहीं खोना चाहिए। ऐसा लग रहा था गोया ब्रह्मेश्वर सिंह (मुखिया) ही किसान-मज़दूरों के प्रतिनिधि हो। लालू जैसे नेता के जमाने में ब्रह्मेश्वर ने सबसे ज़्यादा खून बहाया। लक्ष्मणपुर बाथे राबड़ी के शासन में हुआ (1 दिसंबर 1997) और बथानी टोला (11 जुलाई 1996) लालू के। क्या कर लिया था लालू ने? पूरे मसले पर लालू का बयान सिर्फ़ नीतीश को घेरने तक ही सीमित रहा।
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Sushil Kumar
सैकड़ों हत्याओं एवं नरसंहारों का आरोपी और प्रतिबंधित रणवीर सेना का मुखिया ब्रह्मेश्‍वर सिंह आखिरकार आज तडके मौत के घाट उतार दिया गया | उन चालीस गोलियों की गूंज में क्या कोई सन्देश छिपा है ? कहीं ये "लोक " का "तंत्र" से उठते विस्वास की गूंज तो नहीं ?
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रजनीश के झा
उम्मीद जग रही है, बिहार शायद फिर जलेगा. जाति का घनघोर अँधेरा एक बार फिर बिहार में सर पसार रहा है. मुफ्तखोरों की तादाद बढ रही है और हम अपनी हिफाजत करेंगे. अपनी माटी की हिफाजत खून से करना होगा तो रंग लेंगे अपनी माँ को अपने रक्त से .
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Vijai Pratap
बह्मेश्वर मुखिया को किसी ने नहीं मारा.....अपने हत्यारों का नाम बताने के लिए वह जिंदा नहीं रहा...कोर्ट ने बथानी टोला के फैसले में कहा था कि मौत की असली गवाह तो मरने वाला ही हो सकता है....
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Awesh Tiwari
जिन दिनों एम.एल के नेतृत्व में खेतिहर मजदूरी से सम्बद्ध जातियां राजनीतिक रूप से चेतस हो रही थीं, संगठित हो रही थीं, उन्हीं दिनों बिहार की राजनीति में मध्य जातियों ने सवर्ण वर्चस्व को समाप्त कर दिया था. यह जातीय तनाव का दौर था-सामजिक -आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व को बनाये रखने के लिए सवर्ण जमींदार आक्रोश मिश्रित छटपटाहट में थे . धीरे-धीरे मध्य जातियों ने पूरी तरह सत्ता स्थापित कर ली थी, सवर्ण जमींदार उनसे लम्बे दौर तक टकराने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए सारा आक्रोश और अपने को पुनर्जीवित करने का लक्ष्य हाशिये पर जीती जातियां बन गई,
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Manish Kumar Neurosurgeon
क्या रणवीर सेना को सभी अगडे / पिछड़े / दलित बड़े और मंझोले किसान का समर्थन नहीं हासिल था ? अगर आप घोर नक्सल हैं और आपके बच्चे के खून में नक्सल के चंदे का नमक मिला है फिर भी आपका दिल कहेगा - रणवीर सेना राष्ट्र विरोधी नहीं बल्की किसानों का संगठन था -
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Ranjan Rituraj
मैंने देखा नहीं है पर् मुझे बताया गया है की NDTV ने स्क्रोल किया - " Butcher of Bihar Killed " -
आग उगलने के लिये आप स्वतंत्र हैं - आग में घी डालेंगे - बच के ..बाबा ..आग की लपट बड़ी तेज ...धोती गायब कर देगी !
क्या किसी कसाई की हत्या के बाद एक शहर नहीं पूरा क्षेत्र उबल सकता है ? अगर रणवीर सेना किसी एक खास जाति की संगठन... थी फिर उस जाति की संख्या कितनी है - बिहार में ? मात्र तीन प्रतिशत ! दस करोड़ के जनसँख्या में तीस लाख लोग - वो भी पुरे बिहार / भारत में फैले हुए - क्या कोई अल्पसंख्यक जाति किसी पुरे क्षेत्र को अपने कब्ज़े में ले सकती है ? मै किसी चम्पारण वाले से या मिथिला वाले से कुछ नहीं पूछना चाहता - पर् मै शाहाबाद के लोगों से पूछना चाहता हूँ - की क्या रणवीर सेना सिर्फ एक जाति की सेना थी ? क्या रणवीर सेना को सभी अगडे / पिछड़े / दलित बड़े और मंझोले किसान का समर्थन नहीं हासिल था ? अगर आप घोर नक्सल हैं और आपके बच्चे के खून में नक्सल के चंदे का नमक मिला है फिर भी आपका दिल कहेगा - रणवीर सेना राष्ट्र विरोधी नहीं बल्की किसानों का संगठन था - जिसके बैनर के तले भी हिंसा हुई है ..वैसे संगठन पर् प्रतिबन्ध लगाना शासन का काम है !
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Chandan Mishra
Those who are lauding the murder of chief of Ranvir Sena Brahmeshwar Mukhiya I have one thing to say them, ''even the murder of a murderer can not be justified.'' But, Ranvir Sena killed 50 people, during the 1995 state elections. They killed 10 workers in Haibaspur on the 23 March 1997. They wrote the name of the organisation in blood on the village well before they left. On 11 July 1996, 21 Dali...ts were slaughtered by the Ranvir Sena in Bathani Tola, Bhojpur in Bihar. Among the dead were 11 women, six children and three infants. On 1 December 1997, they killed 61 Dalits, which includes - 16 children, 27 women and 18 men with guns. The same night,disfigured and shot to death 5 teenage girls.[2] Ranvir Sena said about the killings: ''We kill children because they will grow up to become Naxalites. We kill women because they will give birth to Naxalites." On 25 January 1999, there was a massacre of 22 dalit men, women and children by Ranvir Sena in the village of Shankarbigha, Jehanabad due to their alleged Naxalite allegiance. There was another massacre two weeks later in the neighbouring village of Narayanpur, where Ranvir Sena killed twelve lower-caste people. And Now In April of 2012, members of the Ranvir Sena were acquited of Bathani Tola massacre in Bihar. Now I have question can all these be justified. My colleagues are saying the fight of Mukhiya and Ranvir sena was the fight of ''Astitava''. People are saying you can not understand the ground reality and the cause of the rise of Ranvir Sena. How Ranvir Sena came into existence it's all before everyone, but making him a ''martyr''. What a nonsense?
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Prakash Singh क्या जिन भूमिहार परिवारों की हत्याएं हुई। हत्या करने वाले उन नक्सलियों और आतंकियों को सजा मिली है। क्या मुखिया जी यूं ही शौक से हत्याएं करने लगे। क्या किसी की जमीन पर कब्जा करना जाएज है। अपनी जमीन को बचाने के लिए लड़ना नाजायज है।........
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vaibhav sinha-
रणवीर सेना के सरगना रहे ब्रह्मेशवर मुखिया की मौत शायद इसी तरह से ही हो सकती थी। हथियार बंद दस्ते के हाथों, क्योंकि वह खुद सबसे बड़ी सामंती अराजकता का प्रतीक था। जब अप्रैल 1997 में लक्ष्मणपुर-बाथे (जहानाबाद) जनसंहार हुआ था, तब कुछ दोस्तों के साथ मैं भी वहां फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्य की तरह पहुंचा था। सोन नदी के रास्ते से आए हत्यारों ने गांव में कहर बरपाया था.. झोपड़ी की मिट्टी की दीवारों पर हर तर...फ गोलियों के निशान और जमीन पर खून के धब्बे। 58 लोगों की हत्या। उसी समय वहां अटल बिहारी वाजपेयी भी दौरे पर थे। लोग डरा रहे थे कि रणवीर सेना के लोग हमपर निगाह रख रहे हैं, वाजपेयी से सवाल किए तो वे पटना तक पहुंचने नहीं देंगे, रास्ते में ही मारे जाओगे। उस समय भाजपा का पूरा हाथ रणवीर सेना पर था, वाजपेयी हमेशा की तरह घड़ियाली आंसू बहाने पहुंचे थे। सेना के लोग भाजपा से लिए प्रचार करते रहे हैं। पर भाजपा वह दल है जो आज शायद सबसे पहले अपने इस गुर्गे की हत्या पर खुश हुआ होगा।
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If Brahmeshwar Singh is a martyr I can't help it. Of course, all tyrants are martyrs for some people. Is this the reason that we should not celebrate their deaths? Yesterday I met a Bhumihar and he was abusing Maoists and ML. I have no clue how to differentiate between political violence and political struggle.
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Ashok Kumar Pandey
रणबीर सेना के मुखिया की मौत जश्न की खबर हो न हो...मुझे कोई दुःख तो नहीं ही है इसका. बहुत संभव है यह ह्त्या उनके अपने किन्हीं आतंरिक विवाद के कारण हो...लेकिन क़ानून के पंजे (?) से सबूतों के अभाव में बच कर निकल जाने के बावजूद उनकी आपराधिक गतिविधियों के बारे में शायद ही किसी को संदेह हो. वंचित जन के खिलाफ उनका हिंसात्मक आंदोलन आज़ाद भारत के इतिहास के कुछ सबसे भयावह हत्याकांडों का जिम्मेदार रहा है. आज जब कुछ राजनीतिक दलों के लोग उनकी लगभग प्रशस्ति गा रहे हैं, तो समझ लेना चाहिए कि सामाजिक न्याय की बात करते-करते वे किस पाले में पहुँच चुके हैं...
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