ख़बरों की अधर्मिता बनाम चैनलों की प्रयोगधर्मिता

हिन्दी न्यूज़ टेलीविजन में प्रयोगों को सक्रियता देखने लायक है। हिन्दी में फार्मेट को लेकर प्रयोग अंग्रेजी से पहले होने लगे हैं। पहले अंग्रेजी से शुरूआत होती थी और फिर हिन्दी में पहुंचती थी। अब हिन्दी न्यूज़ चैनल फार्मेट के मामले में अंग्रेजी को भी अनुसरण करने पर मजबूर कर रहे हैं। फटाफट हो या सटासट। कभी न्यूज़ बुलेटिन के आखिर में आने वाला न्यूज़ रैप को शुरूआत में सरकाने का श्रेय हिन्दी न्यूज़ चैनलों को जाता है। स्पीड न्यूज के कई वेरायटी आपको मिल जायेंगी। वॉयस ओवर को लेकर भी कई तरह के बदलाव किये जा रहे हैं। कंटेंट को लेकर इनकी सराहना-आलोचना अलग मसला है पहले यही नोटिस में लिया जाना चाहिए कि फार्मेट कैसे और कितनी तेजी से बदले जा रहे हैं। गनीमत है कि फार्मेट ही बदल रहे हैं,ख़बरें नहीं। फार्मेट को आप कनस्तर से तुलना कर सकते हैं। इसमें आटा ही भरा जा रहा है। कोई कनस्तर को पीट-पीट को ठूंस रहा है तो कोई हिला-हिला कर।

आज सुबह हेडलाइनन्स टुडे देख रहा था। बहुत ज़माने बाद फिर से न्यूज चैनलों को देखने की कोशिश की है। हेडलाइन्स टुडे में स्क्रोल्स जिसे आप हिन्दी में सरकत पट्टिका कह सकते हैं,स्क्रीन के ऊपरी हिस्से में चल रहा था। उसके ऊपर एक ठहरा हुआ ट़ॉप बैंड भी था। आमतौर पर ऊपर दो बैंड नहीं होते हैं। हिन्दी न्यूज चैनलों में सरकत पट्टिका नीचे आई थी। आई तो अंग्रेजी से ही थी लेकिन इसमें मौलिक बदलाव हिन्दी न्यूज़ चैनलों में ज्यादा हुआ। पहले ये सरकत पट्टियां बेनामी चला करती थीं अब सबके नाम हैं। न्यूज़ टॉप टेन या फटाफट जैसे नाम हैं। सबसे पहले हिन्दी चैनलों ने ही ऊपर और नीचे एक साथ यानी टॉप एंड बॉडम बैंड शुरू किया था। कई तरह की पट्टियां हैं। अलग-अलग साइज़ की।

न्यूज़ चैनलों के डेस्क पर जो लोग काम करते हैं उन्हें कम से कम पचास एलिमेंट याद रखने पड़ते हैं। मसलन टॉप बैंड का नंबर अलग है तो बॉटम बैंड का अलग। हर खांचे का एक नंबर होता है जिससे याद रखना होता है। खबरों के बीच में वाइप चलता है उसका अलग नंबर होता है। वाइप शब्द कार के शीशे पर लगे वाइपर से आया है। जैसे बारिश के वक्त वाइपर स्क्रीन को साफ करता है और चला जाता है उसी तरह स्क्रीन पर वाइप ख़बरों की बारिश को साफ करता रहता है। वाइप जिस पर फटाफट या स्पीड न्यूज़ लिखा होता है। जो किसी भी ख़बर में मच्छरों की भनभनाहट सी आवाज़ लिये चला आता है और गायब हो जाता है। जब तक आपको लगता है कि चला गया कमबख्त,वो वापस आ जाता है और कान के नीचे भन्नाते मच्छर जैसी आवाज़ निकालने लगता है। ये आवाज़ गाड़ियों की भागती आवाज़ से भी मिलती जुलती है। हमारे पास स्पीड की प्रतिनिधि ध्वनि यही है।

इतना ही नहीं इन खांचों में शब्द अंटाने में काफी मेहनत लगती है। आउटपुट एडिटर लघुतम शब्दों को खोजता रहता है। स्पेस बार की मदद से शब्दों के भीतर वर्णों को सटाते रहता है ताकि एक शब्द औऱ अंट जाए। हिन्दी में एब्रीविएशेन का कल्चर नहीं है। इसलिए लघुत्तम शब्दों को खोजना चुनौती भरा काम हो जाता है। पता नहीं अभी तक न्यूज़ चैनलों में अनुप्रास संपादक भर्ती क्यों नहीं हुए जो अ से शुरू होने वाले समानार्थी शब्दों की खोज कर इन खांचों में भर देगा। वैसे जो लिखा जा रहा है वो भी इस अंदाज़ में कि कोई चुनौती दे रहा है कि का रे..पढ़ा कि नहीं..अंखवे फोड़ देंगे। व्याकरण की तो कब की तेरहवीं हो चुकी है।

जब आजतक ने ट्रेन दुर्घटनाओं की बनी-बनाई एनिमेशन दिखाना शुरू किया तब लोग हंसते थे। ये वो लोग हैं जो अंग्रेजी में काम करते रहे हैं और उनके अनुसार तब तक कोई सम्मानित प्रयोग नहीं हो सकता जब तक वो अंग्रेजी न करें। आज सभी अंग्रेजी चैनलों में दुर्घटना के वक्त बनी-बनाई एनिमेशन ग्राफिक्स का इस्तमाल होता है। एक और प्रयोग हुआ है, घेरा बनाकर तीर से दिखाने का। इंडिया टीवी ने इसका खूब इस्तमाल किया है। कैमरे में कैद किसी छोटी सी चीज़ को लाल डोरे से घेर दिया और तीर मार-मार कर दिखाना शुरू कर दिया। पहले इस तरह के लाल डोरे सिर्फ बदचरित्रों के गर्दन के आस-पास बनाये जाते थे। टाइम्स नाऊ ने एक बदलाव किया। जिस तरह से हम फेसबुक या इंटरनेट पर भेजी गई तस्वीरों को क्लिक करते हैं तो नाम भी उभर आता है,उसी तरह टाइम्स नाऊ ने वीडियो में दर्ज तमाम लोगों के नाम लिखने की शुरूआत की। यह दावे के साथ नहीं कह सकता कि टाइम्स नाऊ ने ही की। लेकिन उसके तुरंत बाद कुछ अंग्रेजी चैनलों को भी नकल करते देखा।इंडिया टीवी ने ओवर दि सोल्डर शॉट को भी एनिमेटेड कर दिया है। आदमखोर चमगादड़ में पूरी स्क्रीन पर चमगादड़ उड़ रहे हैं। खटिया पर एक आदमी घायलावस्था में पड़ा है। उसके ऊपर से खून के धब्बे उड़ रहे हैं। कई चैनल इस तरह का एनिमेशन इस्तमाल करते हैं।

बहुत पहले मैंने अपने ब्लॉग कस्बा पर लिखा था कि टीवी अख़बार हो रहा है। लेकिन ध्यान से देखें तो अखबार भी इतना क्लटर या बजबजाया हुआ नहीं लगता। हिन्दी टेलीविजन अपना ही रूप गढ़ रहे हैं। जिस तरह से बाज़ार फ्लेक्स होर्डिंग से भरे दिखते हैं वैसे ही अब न्यूज़ चैनल नज़र आने लगे हैं। समझ नहीं आता कि उसी तीस सेकेंड में पढ़ें,देखें या सुनें। दर्शक को तीन क्रियाएं एक साथ करनी पड़ती हैं। जब दर्शक के पास वक्त कम है तो उसे एक साथ तीन काम करने पर क्यों मजबूर किया जा रहा है। यह एक सवाल है। लेकिन यह बदलाव आ चुका है और इसे सभी ने स्वीकार भी किया है।

इंग्लिश न्यूज चैनलों में भी आप स्पीड न्यूज़ का जलवा देखेंगे। मैं नहीं मानता कि हिन्दी न्यूज़ चैनलों में सारे बदलाव नकल से हो रहे हैं। बहुत कुछ मौलिक हैं। वो भद्दे हैं या नहीं,यह दर्शक,आलोचक तय करेंगे। वैसे ज़्यादर आलोचकों को टीवी की तमीज़ भी नहीं। समझ नहीं आता कि वो ख़बरों की साहित्यिक समीक्षा कर रहे हैं या टीवी के फार्मेट की। उनकी समीक्षा ख़बरों के सरोकार टाइप के पुरातन फार्मेट से आगे नहीं बढ़ पाती। हालांकि वो भी एक गंभीर और ज़रूरी काम है। ख़ैर,टाइम्स नाऊ में कश्मीर की खबर आ रही है। सात तरह की सूचनाएं स्क्रीनपर हैं। बायीं ओर के ऊपरी कोने में कश्मीर क्राइसीस का लोगो है जो स्क्रीन बदलते ही ऊपर नीचे होते रहता है। जब रिपोर्टर का चेहरा आता है तो कश्मीर क्राइसीस का बैंड ऊपर कोने में होता है। जब कोई ग्राफिक्स प्लेट आती है तो नीचे आ जाता है। बंदर की तरह बेचैन लगता है। कभीं खंभे के ऊपर होता है तो कभी खंभे के नीचे। इसके अलावा रिपोर्टर जितना बोल रहा है उससे ज्यादा लिखा हुआ आ रहा है। ये सब स्क्रीन को ऊर्जावान बनाने के लिए किया जा रहा है। टाइम्स नाऊ ने संप्रेषण के क्षेत्र में कई प्रयोग किये हैं। कई चीज़े पहली बार पेश की हैं। पहले ब्रांड का 'लोगो' होता था अब हर ख़बर में एक 'लोगो' लगता है। 'लोगो' को 'लोगीकरण' हो गया है।

आप ध्यान से देखिये तो पायेंगे कि ब्रेकिंग न्यूज़ के सुपर बैंड किसी सामंत या गुंडे से कम नहीं हैं। इनके आते ही बाकी सारी सरकत पट्टिकाएं कहीं कोने में दब जाती हैं तो कुछ गायब भी हो जाती हैं। ब्रेकिंग न्यूज़ का लाल आतंक सबको खदेड़ देता है। ब्रेक में भी ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चलती रहती है। बचपन में एक पेंसिल देखी थी। एक तरफ ब्लू और दूसरी तरफ लाल। ऐसी ही पेसिंल से मिलती जुलती है आईबीएन सेवन की पट्टी। नीले में नक्सली लिखा होता है और लाल में हमला। टीवी के प्रोड्यूसर और ग्राफिक्स डिज़ाइनरों के हुनर को सम्मानित करने का वक्त आ गया है। आईबीएन सेवन लिखता है कि पांच मिनट में आपके काम की पंद्रह ख़बरें। एक्सप्रेस न्यूज़ नौ बज कर सत्ताईस मिनट पर। हिन्दी चैनलों ने ही सबसे पहले न्यूज देखने के वक्त की कल्पना बदल ली। ठीक सात बजे या ठीक नौ बजे जैसे जुमले गायब हो गए। छह सत्ताईस या छह उनसठ जैसे जुमले आ गए। इंडिया टीवी पर सरकत पट्टी बता रही है कि 9:30 की 5 हेडलाइन 9:27 पर। समय को भी हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने पुनर्परिभाषित किया है। जल्दी ही लोग अपनी घड़ी में अलार्म हिन्दी चैनलों के गढ़े इस समय बोध के अनुसार लगायेंगे। वो अब सवा पांच बजे का अलार्म नहीं बल्कि 5:16 मिनट का लगाया करेंगे।

इंडिया टीवी ने जितने फार्मेट में बदलाव किये हैं उतने किसी चैनल ने नहीं किये हैं। इंडिया टीवी की निरंतर आलोचना में उसके इस योगदान पर किसी का ध्यान नहीं जाता। इंडिया टीवी के कैमरा वर्क को भी कभी ध्यान से देखियेगा। उसके शॉट अलग होते हैं। अमूमन कई हिन्दी चैनलों के कैमरा कार्य में कई बदलाव आ रहे हैं। शॉट इस तरह से लिये जा रहे हैं जैसे कैमरा से टकरा कर ऑबजेक्ट टूटने ही वाला हो। इस तरह के बदलाव टाइम्स नाऊ में देखियेगा। तभी कभी-कभी लोग यह भी कहते हैं कि टाइम्स नाऊ अंग्रेज़ी का हिन्दी चैनल है। ग्राफिक्स टेक्सट और विजुअल का मिक्सचर बनाकर नया माल परोसने में इंडिया टीवी का जवाब नहीं। स्टार न्यूज़ ने 24 घंटे 24 रिपोर्टर में नया फार्मेट लाया था। रिपोर्टर की पीटूसी से खबर शुरू होती थी और उस खबर की विजुअल चलती थी। एक तरह से रिपोर्टर मैदान से एंकर की तरह दिखने लगा। बाद में इस फार्मेट की अनुसरण आईबीएन सेवन और इंडिया टीवी ने भी किया। सब एक दूसरे का अनुसरण कर रहे हैं। अब यह भी एक मान्य फार्मूला हो गया है। हैरान हूं कि अभी तक इंडिया टीवी या स्टार ने यह प्रोमो क्यों नहीं चलाया कि देखो देखो हमारी स्पीड न्यूज का कर रहे हैं सब नकल। ओरिजनल हैं हम। देखो देखो नकलची है वो। ठीक उसी तरह से जैसे इंडिया टीवी नंबर वन होने पर बाकी चैनलों की भी टीआरपी दिखा देता है। एक जनाब ने सूरत से फोन किया और कहा कि एनडीटीवी इंडिया की टीआरपी कम हो गई है क्या। मैंने कहा आपको कैसे मालूम। तो जवाब मिला कि इंडिया टीवी दिखा रहा है। हद है भाई। ये कैसा टॉपर है जो फेलियर का भी रिज़ल्ट लेकर मार्केट में उधम मचा रहा है। फेल होने वाले को मुंह छुपाने का वक्त और जगह की गुज़ाइश भी नहीं छोड़ता। बड़ा निर्दयी है मुआ। इससे पहले कि आप फेल होकर मोहल्ले में पहुंचे,बचते-बचाते,इंडिया टीवी हल्ला कर चुका होता है। बाप रे। आज तक पर क्या गुजरी होगी। वैसे गुज़रती तो हम पर भी है। इसीलिए तीन-तीन घंटे लगाता हूं फेसबुक पर। ऐ भाई,मेरी रिपोर्ट देख लेना। ऐ भइया...देखे कि नहीं। नहीं देखे तो देख लो न। जवाब मिलता है अरे आप और टीआरपी। लगता है उनका कपार फोड़ दें।

कश्मीर के अलगाववादी नेताओं की तरह बात करते हैं टीआरपी के विरोधी। इंडिया में रहकर संविधान का पालन तो करना ही होगा। टीआरपी टीवी का संविधान है,जिसका असफल विरोध सिर्फ अलगाववादी पत्रकार कर रहे हैं। टीआरपी का विरोध एम्पलॉयर नहीं करते हैं। अफसोस इसी बात का रह गया कि तथाकथित अच्छे पत्रकारों ने टीआरपी से लड़ने के लिए श्रम नहीं किया। वो लेख ही लिखते रहे और अपनी नैतिकता को इंडिया टीवी,आजतक,न्यूजड 24 और आईबीएन सेवन से श्रेष्ठ बताते रहे। जब एक मीटर पर खराब रिपोर्ट को अच्छी रेटिंग मिल रही है तो अच्छी रिपोर्ट को क्यों नहीं मिलेगी। क्या तथाकथित अच्छी रिपोर्ट के लिखने और पेश करने में कमी नहीं होती होगी? क्या अच्छी रिपोर्ट के समर्थन में कोई कारगर फार्मेट की खोज नहीं की जा सकती है? क्या अच्छी ख़बरों के नाम पर लोकार्पण की खबरें आप देखना चाहेंगे? उसमें भी तो सरोकार होता है। तथाकथित आलसी परन्तु अच्छे पत्रकारों ने बिना लड़े ही लड़ाई का मैदान छोड़ दिया। हिन्दी पत्रकारिता का संकट तथाकथित अच्छे पत्रकारों के नकारेपन का संकट है। जब अच्छे लोग घर बैठ जाएंगे तो बंदर और भूतों का कब्जा किसी भी हवेली पर हो ही जाएगा। आलोचकों की माने तो सारे प्रयोग तथाकथित पत्रकारिता के बदनाम करने वालों की गली में ही क्यों हो रहे हैं? शरीफों के मोहल्ले में भी तो कुछ होना चाहिए। हर क्लासिकल गीत सुनने लायक तो नहीं होता न। कोई तो नुसरत अली बनकर ज्यादा लोगों तक पहुंचाएगा या फिर तार पर रेगियाने या टुनटुनाने से ही काम चल जाएगा।

हिन्दी न्यूज़ चैनलों में बदलाव का कोई अलग सा दौर नहीं चल रहा है। बल्कि हर दिन और हर सेकेंड बदलाव हो रहे हैं। अब आप देखेंगे कि पहले शाम के वक्त सभी न्यूज बुलेटिन में तैयार रिपोर्ट हुआ करती थी। विज़ुअल,वीओ,बाइट,विजुअल,वीओ और फिर बाइट और उसके बाद सार स्वरूप दो तीन पंक्तिया लिखकर पीटूसी। जिसे रिपोर्टर ग्राउंड जीरों से अपनी टिप्पणी के रूप में पेश करता है। इसे वीडियो ऑन टेप यानी वीटी कहते हैं। अब वीटी का चलन खत्म हो गया और अगर कहीं है भी तो कम से कम मात्रा में। इसके लिए जिम्मेदार रिपोर्टर ही हैं। उन्हें तस्वीर और शब्द के इस्तमाल से कथा कहने का सलीका ही नहीं आया। न ही उनमें से किसी ने सीखने की कोशिश नहीं की। लिहाज़ा सचमुच कई रिपोर्ट बोरियत सी भरी लगती थी। धीरे-धीरे इस तरह की रिपोर्ट को डीडी टाइप कहा जाने लगा। इसकी एक वजह यह भी है कि टीवी में वो लोग लिए गए जिनको लिखने और बोलने और पेश करने की कला मालूम नहीं थी। आखिर आप भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर में हिन्दी के साहित्यकार को कैसे नौकरी दे सकते हैं। वो वहां क्या करेगा। टेलीविजन की दुनिया ऐसे अनमने से रिपोर्टरों को देखती रही। रिपोर्टर पान चबाते हुए आते रहे। जर्दा खाते रहे। लिखने का मन नहीं किया। पीटूसी की इस लाइन से आगे नहीं बढ़ सके कि आने वाला वक्त ही बताएगा कि आगे क्या होगा। आज भी बड़ी तादाद में रिपोर्टर अपनी पीटूसी नहीं लिख पाते हैं। लिहाज़ा कई चैनलो में डेस्क से लोग रिपोर्टर को पीटूसी लिखाते हैं। हद है जिस काम के लिए आप आए हैं वही नहीं मालूम।

यही कारण है कि आप ज्यादातर प्रयोग डेस्क से देखेंगे। मैदान में गया रिपोर्टर अपनी तस्वीरों और तत्वों से प्रयोग नहीं करता। वो कथा कहने की नई तरकीबें नहीं ढूंढ रहा है। कुछ रिपोर्टर हैं लेकिन सौ में नब्बे खराब हों तो दस की बात क्या मतलब रह जाता है। तो मैं कह रहा था कि रिपोर्टर की छाप वाली रिपोर्ट की अब मौत हो चुकी है। सारी खबरे विज़ुअल और एंकर वीओ के साथ चल रही है। एंकर वीओ भी गायब हो चुका है। वॉयस ओवर करने वाला वीओ कर देता है। स्पीड न्यूज़ ने एंकर को भी बेकार कर दिया है। वो सिर्फ इसलिए खड़े रहते हैं कि लिंक टूटने पर रूकावट के लिए खेद है का बोर्ड न लगाना पड़े। इसलिए आप देखेंगे कि पहले की तरह आप कम ही एंकरों को नाम से जानते होंगे। उनका चेहरा जब तक आता है तब तक चला भी जाता है। इंडिया टीवी और आजतक ने तो एंकर को स्क्रीन के कोने में खड़ा कर दिया जहां से उनका चेहरा भी नज़र नहीं आता था। फिर एंकरों से स्टैंड अप कहा गया। स्टार न्यूज़ ने न्यूज़ रूम में स्काई टीवी की तर्ज में दौड़ने का मैदान बनाया। एनडीटीवी इंडिया पर भी न्यूज़ रूम से एंकरिंग शुरू हुई। कई इंग्लिश चैनलों में भी शुरूआत हुई। स्टार ने एंकर को लेकर फिर एक कोशिश की है। टाइट क्लोज़ अप में उनका चेहरा आता है। कभी-कभी तो इतना टाइट होता है कि मेरी आंखों पर ज़ोर पड़ने लगता है। इस तरह के फ्रेम कई बार सीएनएन या फ‍ॉक्स पर किये जाते रहे हैं।

दर्शक का ध्यान अब विकेंद्रित हो चुका है। इसे केंद्रित करने के लिए सारे प्रयोग हो रहे हैं। रविवार को जब कॉमनवेल्थ गांव में कोबरा जी आ गए तो स्टार न्यूज ने कलमाडी को सपेरा बना दिया। आम तौर पर इस तरह की चीज़ को बग कहा जाता है। जो स्क्रीन के एक कोने में पड़ा रहता है। ध्यानाकर्षण के लिए। स्टार ने सपेरे कलमाडी के बग को स्क्रीन पर घुमाना शुरू कर दिया ताकि चैनल बदलने वाले एक मिनट के लिए रूक जायें। अगर कोई रूक गया तो टीआरपी दर्ज हो जाती है। टीआरपी दर्ज कराने के लिए एक मिनट तक रोकना ज़रूरी है। इस तरह के प्रयोग पहले भी हो चुके हैं। ज्यादातर प्रयोग स्क्रीन पर लिखे गए शब्दों की प्रस्तुति और वीडियो से बनाए गए स्टिल्स के मैनुपुलेशन को लेकर हो रहे हैं। विज़ुअल कैसे ली जाए, कैसे शाट बेहतर हों इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।

हाल ही में मोहल्ला, जनतंत्र और यात्रा ने सिनेमा पर बहसतलब का आयोजन किया था। अनुराग कश्यप ने कहा कि उन्हें मोबाइल के लिए तीन मिनट की फिल्म बनाने के ऑफर मिले। तीन मिनट की दो फिल्में बनाकर उन्होंने अपनी कुल फीचर फिल्मों से ज्यादा कमाई की है। अब आप सोचिये। तीन मिनट की फिल्में बन रही हैं तो तीन मिनट की रिपोर्ट मर रही है। कोई फार्म खत्म नहीं होता। एक जगह से भगाया जाता है तो दूसरी जगह रूप बदल कर अपना रास्ता बना लेता है। जब फिल्म मोबाइल फोन के लिए बनेगी तो रिपोर्ट भी बनेगी। लेकिन दो मिनट वाली लंबी रिपोर्ट का क्या भविष्य होगा कहना मुश्किल है। लेकिन यह तो कह ही सकते हैं कि हिन्दी के पत्रकारों ने अपने कौशल को दिखाने का एक मौका गंवा दिया। उन्हें यह मौका दस साल तक मिलता रहा। वो अपनी दो मिनट की रिपोर्ट को कूड़े जैसा बनाते रहे। जब अनुराग कश्यप इसी तीन मिनट में रोचक फिल्म बना सकते हैं तो क्या रिपोर्ट नहीं बन सकती थी। इसी नाकामी की ज़िम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ रिपोर्टरों की है। वो बंदिशों को बहाना बनाकर पानपराग खाते रहे। चेक शर्ट पहनते रहे। किसी भी ट्रेनिंग में यही सीखाया जाता है कि न्यूज रिपोर्टिंग में चेक शर्ट से बचिये। आप हिन्दी के पत्रकारों की कमीज़ देखिये। इसमें उनकी ग़रीबी नहीं बल्कि लापरवाह नज़रिया दिखता है अपने माध्यम को लेकर। मैंने एनडीटीवी इंडिया के बारे में नहीं लिखा है। कोई और लिखे तो बेहतर है। वैसे कई चैनलों के बारे में नहीं लिखा है। इस लेख का मकसद आलोचना नहीं है,बल्कि फार्मेट में आ रहे बदलावों को नोटिस में लेना भर है। कंटेंट की आलोचना हम अलग से करते ही रहते हैं। बहरहाल हिन्दी चैनलों की प्रयोगधर्मिता पर भी बात होनी चाहिए। उनके ख़बरों की अधर्मिता पर तो हो ही रही है। जिसका कोई नतीजा आज तक नहीं निकल सका।

देखते जाइए : बदलेगा बाजार, सिनेमा बदलेगा

बीस से पचीस रुपये की इन सीडी के टाइटल आपको अच्छे न लगें, लेकिन करोड़ों घरों में मौजूद हैं। रेट बोल जवानी के, किस देबू का हो से लेकर धाकड़ छोरा। हरियाणा में लड़के अपने मोबाइल में रागिनी अपलोड कर सुन रहे हैं। दिल्ली के कापसहेड़ा में काम करने वाले प्रवासी मजदूर के मोबाइल में किसी भोजपुरी फिल्म का वीडियो क्लिप अपलोड था। हर शादी-ब्याह में अब लोकल सिनेमा के गाने बजने लगे हैं। इनके कलाकारों के पास पैसा भले इफरात में न आया हो, लेकिन शोहरत आ गयी है, जो बता रहा है कि हिंदी सिनेमा के बाहर दर्शकों का एक समाज तो बन ही गया है।

Read More...

वातानुकूलित माता की चौकी



मैं जिस अपार्टमेंट में रहता हूं उसके नीचले हिस्से में काफी खाली जगह है। जहां बच्चे आये दिन स्केटिंग से लेकर जूडो का अभ्यास करते रहते हैं। लेकिन अब इस जगह को दो घंटे की माता की चौकी के लिए एयरकंडीशन हॉल में बदल दिया गया है। आज ही सुबह यह जगह खाली थी। लेकिन करियर ब्रांड एसी के कई बडे-बड़े यूनिट लगाकर इसे इतना ठंडा कर दिया गया है कि पूछिये मत। जिस लकड़ी की मेज़ पर बाराती खाते हैं उसके सहारे मोटी से दीवार बना दी गई है ताकि आवाज़ बाहर न जा सके और किसी को परेशानी न हो। बेरी दम्पत्ति ने अपने दोस्तों के अलावा सोसायटी के सभी सदस्यों को सार्वजनिक निमंत्रण दिया है।


तस्वीरों के माध्यम से आप माता की चौकी के आयोजन की भव्यता का अंदाज़ा लगा सकते हैं। शीशे का दरवाजा बना दिया गया है ताकि एयरकंडीशन काम कर सके। मसनद और गद्दे बिछा दिए गए हैं ताकि आप आराम से भजन-भक्ति का विलास कर सकें। देवी-देवताओं को भी ऐसे सजाया गया है मानो इस जगह पर कई साल से कोई मंदिर हो। पूरे अपार्टमेंट को बत्तियों की झालर से चमका दिया गया है। बहुत ही खूबसूरत लग रहा है। पैसे का रोना मैं क्यों रोऊं। कोई हिन्दी दिवस के सेमिनार से थोड़े न लौटा हूं। सरदार जी ने अपने बैंड के साथ लोगों का खूब मनोरंजन किया है। माता की चौकी भगवती जागरण का संक्षिप्त रूप है। दिल्ली में जागरण सिमट रहे हैं। अब वक्त कम है इसलिए रात भर के जागरण की जगह दो घंटे वाली माता की चौकी लोकप्रिय हो रही है। साईं जागरण ने तो भगवती जागरण की दुकान बंद करा दी है। दुर्गा के हिसाब से तो लाइसेंस राज ही अच्छा था यहां तो उदार धनव्यवस्था का राज आते ही साईं जी बीच मैदान में आ गए और सारी महफिल लूट रहे हैं। शनि जागरण भी नया आइटम है। काफी दिनों से मैं इन विषयों पर लिखता रहा हूं लेकिन आज वातानुकूलित भजन-कक्ष देखकर मन गदगद हो गया है। बेरी साहब को बधाई। काश मैं भी मसनद पर गाल टिकाकर भक्ति रस का आनंद ले पाता।

पुरूषोत्तम अग्रवाल ने अपनी नई और प्रभावशाली किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में सही कहा है कि ब्राह्मण-सर्वोच्चता की शाश्वतता ऐतिहासिक सत्य नहीं है। ब्राह्मणों की फैंटेसी है। जागरण और शनि-साई द्वय के उदय और बदलाव में पांडे-मिश्रा वालों का योगदान कम है। आहूजा चड्ढा और बेरी साहबों का ज्यादा है। पुरूषोत्तम अग्रवाल की यह दलील बिल्कुल साफ-साफ किसी भी प्रसंग में प्रासंगिक मालूम पड़ती है। पिछली बार इसी जगह पर साईं जागरण हुआ था तब साई भजन गाने वाले एक स्कूल टीचर से बात हुई थी। मास्टर साहब ने भोजपुरी, हिन्दी, गुजराती और पंजाबी में कई देवी-देवताओं के जागरण में विशारद हासिल कर ली थी। उनके लिए अलग भाषा और प्रांत के लोग महज़ एक क्लाएंट से ज्यादा कुछ नहीं थे।


काश मैं पत्रकार की बजाए किसी अर्काइव का दस्तावेज़ बाबू होता। दिन भर जहां-तहां से चीज़ों का संग्रह करके लौटता और उन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए श्रेणियों में बांट कर रखता। तीन नंबर की पत्रकारिता से दिल इतना भर गया है कि हर दूसरा काम अच्छा लगता है। अपना मूल काम नहीं।

देवताओं में शनि ही दबंग हैं


छह साल पहले जब मैं वैशाली के अपने अपार्टमेंट में रहने आया था तब यह पीपल का पेड़ सुनसान था। इसके पीछे चाय की दुकान हुआ करती थी। अब भी है। फिर कुछ दिनों बाद सब्जीवाले ने यहां कुछ टूटे-फूटे हिन्दू देवी-देवताओं की लघुप्रतिमाएं रख दीं। तब से वो कोशिश रह था कि इस पीपल के पेड़ को मंदिर की मान्यता मिल जाए और लोग पूजा आरती करने लगे। मकसद कुछ चढ़ावे का भी रहा होगा। लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली। फिर उसने शंकर पार्वती और हनुमान की छोटी प्रतिमाओं के ऊपर घरौंदे जैसी छत बना दी। लघु-मंदिर की शक्ल देने की कोशिश की। तब भी लोग नहीं आए। कल मेरी नज़र पड़ी तो माज़रा बदला हुआ लगा। अंधेरे में दो तीन महिलाएं आरती कर रही थीं।

ध्यान दिया तो नीचे शनि देव नज़र आए। मेरे प्रिय अध्ययनरत देव। उनके लिए भी सीमेंट की कुटिया बन गई है। सरसों तेल बह रहा था। ऊपर आरती का बोर्ड लग गया है। आप अगर शनि की पूजा न जानते हों तो बोर्ड पर लिखी आरती पढ़ते जाइये और अंत में दान देना न भूलें। मैं शुरू से कहता रहा हूं कि पिछले पंद्रह सालों में शनि और साईं से लोकप्रिय देव कोई नहीं हुए। हनुमान और दुर्गा मंदिरों की सत्ता ख़तरे में हैं। जब तक शनि प्रतिष्ठापित नहीं किए जाते हैं मंदिर हो या पीपल का पेड़ को कोई नमस्कार के लिए भी नहीं रूकता। शनि असली सलमान खान है। पूरे दबंग। भीड़ जुटाने वाले अकेले देवता। मैं अपने घर के सामने शनि की इस विकास यात्रा पर नज़र रखूंगा। पूरा भरोसा है कि एक दिन यहां बड़ा मंदिर बन जाएगा। देखते हैं क्या होता है।

अयोध्या के एक पुजारी की व्यथा-कथा


आवाज़ की तल्ख़ी और बुलंदी ने मटमैली धोती में लिपटे चंद्र प्रसाद पाठक का दीवाना बना दिया। चंद्र प्रसाद पाठक अयोध्या के हनुमानगढ़ी के पास ही ऊंचाई पर रामद्वार मंदिर के पुजारी हैं। इनके बच्चे नौकरी करते हैं। रामद्वार मंदिर हनुमान गढ़ी से भी ऊंचा है लेकिन वीरान पड़ा है। जब से खास मंदिरों की हैसियत बढ़ी है,अयोध्या के साढ़े सात हज़ार से भी अधिक मंदिरों की दुर्दशा भी बढ़ी है। मेरी रिपोर्ट में पुजारी जी की सारी बातें नहीं आ सकीं इसलिए कोशिश कर रहा हूं कि उनके जवाब को एक लेख के रूप में पढ़ सकते हैं। बस आप पढ़ते वक्त कल्पना करते रहिएगा कि दांत दबाकर,गले को खींचकर और आंखों को जलाकर पाठक जी बोल रहे हैं। तभी उनकी बातों का असर होगा। अक्सर हमारे इंटरव्यू का एक टुकड़ा ही रिपोर्ट में लग पाता है और बाकी हमेशा के लिए मिटा दिया जाता है। मैं उन्हें कापी पर उतारता तो हूं लेकिन समय की कमी के कारण ब्लॉग पर नहीं डाल पाता। इस बार कोशिश कर रहा हूं। आप भी देखिये कि इंटरव्यू के जिस हिस्से को मैंने अपनी रिपोर्ट में लगाया है वो ठीक है या नहीं। रवीश की रिपोर्ट आज भी यानी रविवार को देख सकते हैं। दिन के वक्त 11:28 बजे,रात के वक्त 11:28 बजे और सोमवार को सुबह 11:28 बजे। लीजिए पढ़िये और सुनिये चंद्र प्रसाद पाठक जी को।

अयोध्या में साधु और बंदर दो की ही आबादी ज़्यादा है। जो गृहस्थ है वो भी साधु है। जिनका जन्म अयोध्या में हुआ वो भी साधु है। सारे मंदिरों पर काई है। जिसकी व्यवस्था नहीं है वहां काई तो होगी ही। ऐसा है अब वो समय नहीं रह गया। जब से अयोध्या में कुछ घटनाएं हुई हैं तब से अयोध्या की रौनक़ समाप्त हो गई है। कुछ पलायन कर गए हैं। जिनका मंदिर था, वो भी पलायन कर गए हैं। उस मंदिर को पुजारी के सहारे छोड़ दिया। पुजारी के पास आय नहीं है जो अपने मंदिरों का जीर्णोद्धार करा सकें। विवाद से अयोध्या को क्या मिला है। यही है जब विवाद खड़ा होता है तो दो-तार दिनों की परेशानियां खड़ी हो जाती हैं। यहां के रहने वालों को। उसके बाद फिर से अमन-चैन हो जाता है।

घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध। अयोध्या के बड़े-बड़े मठाधीश को यहां कोई नहीं पूछता। बाहर जाते हैं तो खूब पूजा-पाठ होता है। मान-सम्मान होता है उनका। यहां के मंदिरों के लिए कौन करता है। इतने राम मंदिर पड़े हैं। लोगों से इतना पैसा इकट्ठा हुआ है कि उससे सारे राम मंदिरों का जीर्णोद्धार हो जाए। इस पर तो कोई ध्यान नहीं देगा। शासन की तरफ से व्यवस्था की जाती है लेकिन उसका उपयोग नहीं होता है। वरना अयोध्या तो अब तक अयोध्या हो जाती। इतना पैसा मिलता है अयोध्या के लिए। अयोध्या अयोध्या हो जाती। खाने वाले खा जाते हैं। अब अयोध्या के लिए कुछ नहीं बचता। सड़कों पर गंदगी है। जलभराव है। कितना रुपया इसी सावन के झूले में आ गया होगा। अयोध्या से प्यार सबको है लेकिन कोई कुछ करना नहीं चाहता। बस ही एक प्यार है कि राम मंदिर बने। एक ही प्यार है कि चलो। अठारह बीस साल से यही देख रहा हूं. चलो और कुछ नहीं। सड़कें टूटी पड़ी हैं। इसकी कोई व्यवस्था नहीं है।एक ही तरफ सबका दिमाग़ है। चलो। बस वहीं चलो। बनाओ राम मंदिर। हमको तो इस बात की तकलीफ है कि इतना पैसा राम मंदिर के लिए आता है,उसी पैसे से बाकी मंदिरों का उद्धार करा दिया गया होता। उसमें भी तो वही राम रहते हैं। वही दशरथ पुत्र राम हैं। इस मंदिर में दूसरे राम तो नहीं रहते हैं।

यहां के साधु संत आनंद ले रहे हैं। पेपर में कुछ छपता है तो खंडन करने लगते हैं। कि देखो बहुत ग़लत हो रहा है। सब राजनीति है। तुलसीदास कह गए हैं कि कलयुग में वही साधु संत पूजे जायेंगे जिनकी जटायें बड़ी-बड़ी होंगी। जो देखने में मोटा तगड़ा होगा। यहां तो साधु वही है जो कार में चलता है।

फ़ैज़ाबाद के फादर ऑफ फोटोग्राफी



फ़ैज़ाबाद की गलियों में भटकता हुआ मैं एक फोटो स्टुडियो में चला गया। गली के किनारे से अंदर झांका तो कुछ ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरों पर नज़र पड़ी। ख़ासकर इन महिला की तस्वीर पर। ऐसा लगा कि इनकी खूबसूरती हमेशा के लिए एक फ्रेम में क़ैद हो चुकी है। ज़माने का इतना ही असर पड़ा है कि श्वेत श्याम इन तस्वीरों पर लाल रंग की बिंदी और लिप्स्टिक चस्पां कर दी गई है। मैं अंदर आ गया। हलो, मैं रवीश हूं। टीवी वाला पत्रकार। दुकानदार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। फिर भी अंदर आ गया। इस बारी ठीक से नमस्ते की और सवाल दाग दिया कि ये चारों तस्वीरें किनकी हैं।




दुकान के मालिक ने बताना शुरू किया कि आप जिस तस्वीर की बात कर रहे हैं वो फैज़ाबाद के ही एक रेलवे अफसर की बेटी हैं। ये फोटो मैंने 1962 में खींची थी। आशी दत्ता नाम है। इस तस्वीर के खिचे जाने के 48 साल बाद आशी दत्ता अब कैसी लगती होंगी कहना मुश्किल है। लेकिन कोई भी अपनी इस खूबसूरती को हमेशा ऐसे फ्रेम में देखकर खुश ही होता होगा। फ़ैज़ाबाद में आज भी एक ढंग का सिनेमा हॉल नहीं है। उस ज़माने में तो कुछ भी नहीं रहा होगा फिर भी अदायें सिने तारिकाओं की तरह हैं। एक लड़की की इस अदा से कई चीज़ों का अंदाज़ा मिलता है। कपड़े की स्टाइल,आकाक्षांएं,आधुनिक दिखने की चाह और कोई ख्वाब जो शायद फैज़ाबाद की सेटिंग में नहीं किसी मुंबई लंदन की सेटिंग में रची गई हो। जगत नारायण गुप्ता की इजाज़त से ये तस्वीरें ब्लॉग के लिए खींच लीं। आशी जी इस वक्त पंजाब में कहीं रहती हैं। इनके पति ब्रिगेडियर के पद से रिटायर हो चुके हैं। अब देखिये एक फोटो शॉप के मालिक को अपनी तस्वीर की इतनी लेटेस्ट रिपोर्ट मालूम है। आशी जी की तीनों तस्वीरें दुकान में लगी थीं। वहां भी सार्वजनिक थीं और ब्लॉग पर भी सार्वजनिक हैं।


(जगत नारायण गुप्ता की तस्वीर)

दुकान के मालिक जगत नारायण गुप्ता ने कहा कि फ़ैज़ाबाद में फोटोग्राफी मैंने शुरू की है। 1953 में। तब फोटोग्राफी आर्ट थी और अब दुकान है। फैज़ाबाद में फोटो की पहली दुकान मेरी थी।मेरी बातचीत जमने लगी। जगत नारायण गुप्ता ने कहा कि फ़ैज़ाबाद में मैंने कई लड़कों को ट्रेनिंग दी। पहले लोग फोटो नहीं खिंचाते थे। मैं शादियों में खुद से फोटो खींचता था। बाद में दिखाता था तो खुश हो जाते थे। इस तरह से फोटोग्राफी को यहां पोपुलर किया। जगत नारायण के बेटे ने पीछे से आवाज़ दी कि मेरे पिताजी फ़ैज़ाबाद में फोटोग्राफी के फादर हैं।

जगत जी बताने लगे कि कैसे इंदिरा गांधी फ़ैज़ाबाद आईं। एक पुल का उद्याटन करने। गैमन इंडिया के अफसर ने कहा कि एक अल्बल गिफ्ट करना है उन्हें। जगत जी ने एक डीएसपी सहित सरकारी जीप की मांग कर दी ताकि वे प्रधानमंत्री की सुरक्षा के बीच से आसानी से निकल सकें। इंदिरा गांधी ने पुल का उद्याटन किया। जगत जी कहते हैं कि मैं बिल्कुल करीब था। पहली तस्वीर तब ली जब वो कार से उतरी थीं। फिर जब मंच पर आईं तो मैं बिल्कुल पास से तस्वीर ले रहा था। चार-पांच तस्वीरें लेने के बाद मैं जल्दी से स्टुडियो भागा। एक घंटे में फिल्म डेवेलप की। फिर उसी सरकारी जीप से एयरपोर्ट गया जहां वीआईपी लाउंज में इंतज़ार कर रही थीं। मैंने जब अल्बम सौंपी तो इंदिरा जी हैरान हो गईं। एक फोटोग्राफर के पास कितनी यादें होती हैं। कितने चेहरे होते होंगे।


(जानकी प्रसाद गुप्ता)

ये तस्वीर जगत नारायण गुप्ता के पिता जानकी प्रसाद गुप्ता की है। लॉन टेनिस के रैकेट के साथ। जानकी प्रसाद गुप्ता फ़ैज़ाबाद के ही किसी बलरामपुर इस्टेट में शिक्षक थे लेकिन अंग्रेजों के साथ लॉन टेनिस खेलते थे। 1930 में फैज़ाबाद में एक सरकारी स्कूल का मास्टर लॉन टेनिस खेल रहा था। ये शाही पोज़ पहले राजाओं और गोरों की रही होगी बाद में अन्य भारतीयों ने भी इसकी कॉपी करनी शुरू कर दी होगी। कुर्सी पर सीधे बैठे हैं जानकी प्रसाद जी। गोद में रैकट है। ये तब का दौर रहा होगा जब आधुनिकता निजी संपर्कों से पसर रही थी न कि मीडिया जैसे माध्यम के सहारे। आज मीडिया को लगता है कि आधुनिकता वही फैला रहा है।

राम जन्मभूमि विवादित क्षेत्र से लौटकर

RJB, राम जन्मभूमि का कैट या शॉट फार्म में अब यही पुकार नाम है। अयोध्या में लोग इतने ऊब गए हैं कि विवादित क्षेत्र को आरजेबी कहने लगे हैं। ज़ुबान का वक्त बचाने के लिए। फैज़ाबाद के शाने-अवध होटल में आकर लेट गया था। थोड़ी देर बाद वरिष्ठ कैमरामैन नरेंद्र गोडावली ने एक ज़िद कर दी। विवादित क्षेत्र चलते हैं देखने के लिए। आदतन नरेंद्र गोडावली ने आदेश और उपदेश देना शुरू कर दिया कि एक आइडिया होना चाहिए। हम चल पड़े। पांच बजने वाले थे तभी प्रमोद श्रीवास्तव ने कहा कि छह बजे तक दर्शन कर सकते हैं। नरेंद्र गोडावली ने ड्राइवर से कहा कि इस रास्ते चलो। पांच दिसंबर १९९२ को मैं यहीं था। वो दूसरी बार जा रहे थे। मैं पहली बार। इलाके की निर्जनता मन में किसी तरह की उत्सुकता पैदा नहीं कर रही थी। नरेंद्र बार-बार कह रहे थे कि देख ही लेते हैं कि उस जगह की हालत क्या है। हमारी गाड़ी आरजेबी का पता पूछते हुए एक गली में मुड़ती है। पुलिस चेक पोस्ट लगे हुए हैं। पुलिस नहीं है। एक-दो लोग आ जा रहे हैं। सभी घरों में मंदिर है। मंदिर के बाहर एक-दो लोग बैठे हैं। लेकिन टी प्वाइंट पर पहुंचते ही हथियारबंद पुलिसकर्मी तैनात दिखाई देते हैं। अहसास हो जाता है कि हम विवादित क्षेत्र के करीब है।

जवान आदेश देता है कि कैमरा,बेल्ट,मोबाइल,कलम,नुकीली चीज़ उतार दें। सिर्फ पैसा लेकर जा सकते हैं। नोटिस बोर्ड पर भी यही लिखा था। नगद,आभूषण और पारदर्शी प्रसाद लेकर दर्शन के लिए जा सकते हैं। हमारी करीब चार जगहों पर सघन चेकिंग की गई। चेकिंग के दूसरे पड़ाव पर खूब सारे तंबाकू और गुटका के ढेर नज़र आए। इन्हें जेब की तलाशी से निकाला गया था। एक दर्शनार्थी की जेब से ताबीज निकलती है। पंडितनुमा सिपाही ने रंग देखकर ही बता ही दिया कि राहु को काउंटर करने के लिए है ताबीज। हम अंदर चले जाते हैं। सारे सिपाही एक अजीब से भक्तिरस में डूबे दिखे।

पूरे विवादित क्षेत्र में लोहे की संकरी गली बनी हुई है। मोटे मोटे छड़ों के ऊपर से लेकर नीचे तक जाली लगा दी गई है। चिड़िया भी भीतर नहीं आ सकती। हाथ फैलाने की कोशिश की तो हाथ जाली से टकराने लगे। दर्शन की जगह दहशत का भाव उभरने लगता है। एक अजीब सी निर्जनता भीतर बनने लगती है। फिर से चेकिंग का पड़ाव आता है। यादव जी मिले। अरे रवीश जी नमस्कार। अरे जल्दी चेक कर इनका। इनकी रिपोर्ट नहीं देखी तुमने। यादव जी कहने लगे कि सुरक्षा के नियमों में कोई लापरवाही नहीं होती। आइये आप यहां से मुड़ जाइये। वहां से यादव जी लौट गए। आगे फिर वही बख्तरबंद संकरी गली। कुछ कदम और चलते हैं। महिला हथियारबंद टुकड़ी। उनके बीच उमा भारती को लेकर बातचीत हो रही है। वो बतिया रही हैं कि तब उमा भारती बीजेपी में थी। तब का मतलब समझ आ गया था।

तभी मेरी नज़र जगह जगह लगे नल पर पड़ती है। स्टेट बैंक,यूनियन बैंक,पंजाब नेशनल बैंक और बैंक ऑफ बड़ौदा के प्रायोजित प्याऊ। हर प्याऊ पर बैंक के नाम लिखे हैं। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की तरफ से पानी का मोटर भी लगाया गया है। सुरक्षा में तैनात सैंकड़ों जवानों और आने वाले हज़ारों दर्शनार्थियों के लिए पानी तो जरूरी है। लगभग पौने दो किली मीटर की घुमावदार संकरी गली से गुज़रने पर प्यास तो लगेगी ही। राष्ट्रीय बैंकों की भक्ति पर अलग से क्या कहें अब।

इसके बाद हम पहुंचते हैं जहां पालने में राम लक्ष्मण और सीता की प्रतिमा है। बगल में हनुमान की मूर्ति भी हैं। पंडित तिवारी भी देखकर खुश हो गए। बोले रिपोर्ट बनाने आए हैं। एक सिपाही से कहते हैं देखते नहीं हैं इनको। टीवी में आते हैं। सिपाही ने कोई प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं की। अच्छा है सारे लोग टीवी नहीं देखते। मैंने तिवारीजी से पूछा कि यहां हर दिन कितने लोग आते हैं। बोलने लगे हर दिन पांच हज़ार। संख्या को लेकर कोई भी कुछ भी दावा कर देता है। सवाल करने पर गरम होकर बोले कि मेले के टाइम में तो लाखों लोग आते हैं। लोग दर्शन के बाद चढ़ावा भी देते हैं। इसके लिए दानपेटी रखी है। पंडित जी ने कहा कि रामलाला के नाम से अकाउंट है। उसी में जमा हो जाता है। मैंने पूछा कि कितना जमा हो गया होगा अबतक। बोले कि कोई गिनती है जी। प्रभु राम तो लक्ष्मीपति हैं। कौन गिनेगा। सारी दुनिया तो इन्हीं की है। पुजारी सबको पारदर्शी प्रसाद देते हैं। प्लास्टिक की थैली में लाल धागा और छोटे-छोटे मिश्री के दाने। लोग इन धागों को लोहे की जाली में बांध कर चले जाते हैं। कोई मन्नत छोड़ जाते होंगे।

पंडित जी से फारिग होकर मुड़ते ही एक आवाज़ सुनाई दी। एक सिपाही से कुछ दर्शनार्थी बात कर रहे थे। स्थानीय थे। बोल रहे थे कि सिपाही जी आपका लड़का बीटेक करने गया है। कितना भी पैसा खर्च हो,कीजिएगा। सिपाही जी अपने बेटे के भविष्य की चिन्ता में खोए थे। थोड़ी दूर पर एक दो सिपाही बात कर रहे थे। आदेश आ गया है। चार सौ रुपया ही बढ़ेगा। ३० बटालियन पीएसी गोण्डा के ये जवान। अपनी दैनिक चिन्ताओं में डूबे हुए हैं।

अट्ठासी एकड़ के करीब है विवादित भूमि। चारों तरफ कंटीले तार। लोहे के मोटे-मोटे खंभे। बाहर निकलते ही प्रसाद की दुकानें। जैसा कि हर तीर्थ में होता है। प्रसाद की एक दुकान में विवाह का गाना बज रहा था। शाहिद कपूर को लोग बड़े चाव से देख रहे थे। एक दुकान पर सरगम फिल्म के गाने डफली वाले पर भक्ति संगीत का कलेवर चढ़ा दिया है। जया प्रदा की जगह कोई और नाच रही है।

तभी छोटे-छोटे लड़के हमें घेर लेते हैं। कारसेवा की तस्वीर ले लीजिएगा। पांच रुपये की है। श्रीरामजन्मभूमि का रक्तरंजित इतिहास ले लीजिए। इनकी बिक्री पर कोई रोक नहीं है। ये कौन सा खतरनाक इतिहास बांट रहे हैं। किसकी इजाज़त से ये घर-घर पहुंच रहे हैं। कारसेवा की सीडी भी बेची जा रही है। सस्ते दामों में ये सामग्री न जाने कब से और कितने घरों में पहुंची होगी।

हम फिर वहीं पहुंच रहे हैं जहां पहली बार चेकिंग हुई थी। नज़र पड़ती दो दुकानों पर। एक का नाम है श्रीराम मोबाइल सेंटर और श्रीराम प्रेमजी हेयर ड्रेसर। मोबाइल सेंटर में तरह-तरह के मोबाइल फोन बिक रहे हैं। श्रीरामजन्मभूमि सेवा ट्रस्ट का बोर्ड लगा है। आस-पास की गलियां एकदम शांत है। इक्का दुक्का लोग आते जाते हैं। छह बज चुके थे। बाहर निकलते ही एक मंदिर पर एक कलाकार इंतज़ार कर रहा था। काग भुशुण्डी मंदिर। पखावज लेकर आ गया और कहने लगा कि हम बहुत अच्छा बजाते हैं। मैंने कहा तो बजाओ। बहुत ही घटिया पखावज बजाया उसने।

मैं अपनी बातों का सार नहीं कहना चाहता। विवादित क्षेत्र पर चौबीस सितंबर को फैसला आ जाएगा। बस चिन्ता हुई कि देश एक बार फिर दोराहे पर खड़ा है। डर भी लगा कि कौन सा सिरफिरा कहां क्या कर देगा। किस मंच से कौन किसको ललकार देगा। फिर भरोसा हुआ कि ऐसी मुश्किल घड़ी पचासों बार इस मुल्क के इतिहास में आईं हैं। कुछ नहीं होगा। इतना तो भरोसा है। यही फैसला इस विवाद को हमेशा के लिए शान्त करने का साहस और रास्ता दिखा देगा। उम्मीद है चौबीस सितंबर की दोपहर आने वाला फैसला इस विवाद को हमेशा के लिए शांत कर देगा। जिनको हिन्दुस्तान में यकीन है उन्हें ये सपना देखना ही चाहिए।

गाड़ी में बैठने से पहले पीछे मुड़कर देखता हूं। रामजन्मभूमि विवादित क्षेत्र के आस पास के मकानों की रौनक चली गई है। मंदिरों का सन्नाटा बता रहा है कि ये किसी की ग़लती की सज़ा भुगत रहे हैं। आखिर क्यों आरजेबी के आस-पास की गलियों में मायूसी पसरी नज़र आई। बहुत कोशिश की लेकिन जगह से रिश्ता नहीं बन पाया। ये विवाद को वो रास्ता है जहां पहुंचने के लिए न जाने ख़ून की कितनी नदियां बहा दी गई इस देश में। कितने घर उजड़ गए। ग़लती किसने की है,ये तय अब अदालत का फैसला करेगा। इतिहास तो कर चुका है।