मैं जहां रहता हूं उसके आसपास बहुत सारी इमारतें गाछ की तरह पसर गईं हैं। सोसायटी बोलते हैं हम इनको। इन इमारतों के आने तक सोसायटी का कोई मूर्त या शारीरिक ढांचा नहीं होता था। सोसायटी एक नए किस्म का समाज है। जहां एक निश्चित इदारे के भीतर लोग निहायत ही व्यक्तिवादी ज़िंदगी जीते हुए भी खुद को सोसायटी के तर्ज पर संचालित करते हैं। समूह बनाकर नियम बनाते हैं और तय करते हैं। किसी शोधकर्ता को अध्ययन करना चाहिए कि हरेक हाउसिंग सोसायटी में किस किस तरह के नियम बन रहे हैं। हाउसिंग सोसायटी में विस्थापितों के बीच किस तरह के संबंधों को परिभाषित किया जा रहा है। चाहरदीवारी के भीतर के स्पेस में आपसी सहमति से नागरिक कानून बन रहे हैं। किस तरह के धार्मिक माहौल और प्रतीकों की रचना हो रही है। क्या ये एक नए किस्म के घेटो यानी दड़बे में बदल रही हैं? इनके भीतर की धार्मिक समरसता कैसी है? इसी पर एक सीरीज़ लिखने का मन हुआ है।
अगर आप ध्यान से देखें तो हाउसिंग सोसायटी में रहनेवाले ज्यादातर लोग विस्थापित हैं। वो शहर के अलग-अलग इलाकों में काम करने जाते हैं। अलग-अलग राज्यों से आए हुए लोग होते हैं। इन सोसायटी में रोज़ाना काम करने वाले भी विस्थापित हैं। दूसरे राज्यों से उजड़ कर आए हैं। मगर आर्थिक हैसियत के लिहाज़ से निम्नतम तबके से आते हैं। विस्थापित होने के बाद ये लोग शहर के जिस हिस्से में अपना बसर करते हैं वहां कोई नियम कानून नहीं है। जैसे मैं गाज़ियाबाद के वैशाली इलाके में रहता हूं। यहां और इंदिरापुरम में काम करने वाले ज्यादातर पुरुष और स्त्री खोड़ा और मकनपुर में रहते हैं। जो अतिक्रमण की पैदाइश हैं। इन जगहों में रहने के हालात बहुत ख़राब हैं। यहां से लाखों लोग रोज़ गैर नियमित समाज और बस्ती से निकलकर नियमित बस्ती या सोसायटी में प्रवेश करते हैं। इस संक्रमण को सहजता से जीते हुए वो सोसायटी की बुनियाद बन चुके हैं। पूरी हाउसिंग सोसायटी अनधिकृत तौर से बसी कालोनियों से आने वाले दैनिक कर्मचारियों से संचालित होती है।
मेरी हाउसिंस सोसायटी में हर दिन ऐसे सौ लोग प्रवेश करते हैं। पचास के करीब ड्राईवर और पैंतालीस के करीब कामवालियां। जिन्हें अब सब मेड ही कहते हैं। नौकरानी जैसा सामंती शब्द लुप्त प्राय हो चुका है। आतंकवादी घटनाओं के बाद इन तमाम मेड के सोसायटी के हिसाब से परिचय पत्र बनवाए जा रहे हैं। सबके पास एंट्री कार्ड होता है। ये महिलाएं पांच से छह किमी पैदल चल कर काम की जगह पर पहुंचती हैं। इस कारण ज्यादातर छरहरी दिखती हैं। इनके शरीर में पोषक तत्वों की भी भयंकर कमी होती है। इन सबने लिफ्ट में चलना सीख लिया है। अपने भीतर के भय को जीत लिया है। लिफ्ट के कोने में दुबकी ये महिलाएं किसी तरह से अपनी मंज़िल के आने तक सांस रोके रहती हैं। इन सब महिलाओं का घर में प्रवेश करते ही दो तरह से रिश्ता बदलता है। मेमसाहब और घर में स्थायी रूप से रहनेवाली मेड से। स्थायी रूप से रहने वाली मेड भी इनके साथ मेमसाहब वाला रिश्ता रखती हैं। इस रिश्ते पर भी खास अध्ययन नहीं हुआ है। पहचान पत्र ने उनकी पहचान को बदला तो है मगर नियमित रूप से बसे विस्थापितों का उनके प्रति नज़रियां नहीं बदला। विस्थापन का दर्द साझा नहीं होता। भावनात्मक रिश्ता नहीं बन पाता।
मेरा ध्यान जिस बात ने खींचा वो इस सिस्टम में पारंपरिक जजमानी का बचा रह जाना। जजमानी सिस्टम में मज़दूरी नहीं होती थी। खेत की बंटाई, खेत का कुछ हिस्सा, अनाज और पर्व त्योहारों पर दान स्वरूप उपहार ताकि मज़दूर मालिक से बंधा रहे। जजमानी का यह रूप हाउसिंग सोसायटी में बदल गया है। मेमसाहब अपनी पसंद की मेड को पुराने कपड़े, फल और घर के कुछ सामान.स्वेटर, चप्पल आदि देकर उपकृत करती रहती हैं ताकि रिश्ता स्थायी बनता रहे। इससे हुआ यह कि कामवालियों के पहनावे में बदलाव आने लगा है। झांसी से आई एक महिला काम करने के लिए साड़ी ही पहनना पसंद करती थी, वही उसकी आदत भी थी, लेकिन जिस मेम साहब के यहां काम करती है वो घर में सलवार कमीज़ पहना करती हैं। लिहाज़ा उसने साड़ी पहनना कम कर दिया है और सलवार कमीज़ में आने लगी है। एक घर में मेमसाहब मिडी और जीन्स पहनती हैं तो उनके यहां स्थायी रूप से काम करने वाली झारखंड की आदिवासी महिला के पहनावे ही उनके जैसे हो गए। पुराने कपड़ों से पहनावे में एक किस्म की समानता बनती दिख रही है। यह सब हो रहा है जजमानी के बचे खुचे रूप के कारण। जहां मेमसाहब को इस बात से एतराज़ नहीं कि उनके साथ काम करनेवाली महिला भी स्कर्ट और जीन्स पहनती है। उन्हीं के दिये हुए। पहनावे ने काम करने वाली महिलाओं के व्यक्तित्व में ग़ज़ब का सकारात्मक बदलाव ला दिया है। बातचीत का लहज़ा भी तेज़ी से बदल रहा है। ये सभी महिलाएं साक्षर महिलाओं की तरह पूंजीवादी सिस्टम में एक फिनिश्ड प्रोडक्ट के रूप में परिवर्तित हो रही हैं। खानपान में भी बदलाव आ रहा है जिसकी आंतरिक जानकारी ज़्यादा नहीं है मुझे।
जजमानी सिस्टम से भावनात्मक रिश्ता बन जाता है। जहां मज़दूरी को लेकर होने वाले मोलभाव में एक किस्म का संकोच पैदा हो जाता है। यह संकोच दीवार का काम करता है। इसके बाद भी पुराने घरों को छोड़ नए घरों में जाने वालीं कामवालियों में मेहनताने को लेकर नज़रिया बदल रहा है। वो मोलभाव करने लगी हैं। कह देती हैं कि देख लीजिए मुझे इतने का ऑफर है। इस तरह के बारगेन यानी मोलभाव तो पढ़ी लिखी महिलाएं हमारे पेश में नहीं कर पातीं कि आखिर क्यों किसी टीवी चैनल में महिला संपादक नहीं है। नीचे के स्तर पर महिलाओं का जीवन काफी बदला है। वो पहले से ज्यादा आत्मनिर्भर होने लगी हैं। कई महिलाओं को देख रहा हूं जो गोरखपुर बस्ती और हरदोई से आतीं हैं मगर यहां काम करते हुए बदल रही हैं। साइकिल चलाने लगी हैं। साइकिल से वो दो से तीन सोसायटी में काम पर जाने लगी हैं। वर्ना पैदल चल कर आने की मजबूरी के कारण कोशिश यही रहती थी कि एक ही हाउसिंग कांप्लेक्स में काम मिल जाए। इस मजबूरी के कारण वो मज़दूरी को लेकर भी समझौता करने लगती थीं। अब बदलाव आ रहा है। साइकिल से आनेवाली कामवालियां दो या उससे अधिक सोसायटी में काम करने के लिए जा रही हैं। पढ़ी लिखी न होने के बाद भी वो सोसायटी के कायदों संकेतों को अच्छे समझती हैं। अपनी कमाई के एक हिस्से पर नियंत्रण कायम करने लगी हैं। बचत के तौर पर या मेमसाहब के यहां जमा रखकर।
इनकी आत्मनिर्भरता बदल रही है। बढ़ रही है। सोसायटी के स्पेस में मर्दों का जाल बिछा रहता है। गेटकीपर से लेकर स्टिल्ट में बैठे ड्राईवरों की नज़रों से होकर गुज़रना पड़ता है। उनकी चुटकियों और तानों से बचकर निकलने के अभ्यास ने ज़्यादातर कामवालियों को सीधी रेखा में देखने लिए अभ्यस्त कर दिया है। ये सभी कामवालियां सिर्फ सीधा देखती हैं। सीधा देखते हुए लिफ्ट में जाती हैं, लिफ्ट से निकलती हैं और सीधा देखते हुए घर के भीतर। घर के भीतर भी इधर-उधर नहीं देखतीं। बाल्टी कपड़ा उठाया और पोछा चालू कर दिया। दायें बायें ऊपर नीचे देखा तक नहीं। यह उनका आउटलुक है। इस हाव भाव में एक किस्म के सम्मान की चाह दिखती है। जो गांव और घर में रहने की प्रताड़ना की भरपाई कर सके। एक अनजान स्पेस में खुद को ढालने के इन अनुभवों का सामाजिक अध्ययन होना चाहिए।
विस्थापन ने उनके हाव-भाव में कितना बदलाव किया है। यह मौका विस्थापन से मिला है। एक नई जगह पर नए सिरे से सामाजिक संबंधों को विकसित करने का मौका मिला। गांवों में उपार्जन के अवसर मिल तो जाते मगर सामाजिक संबंधों में बदलाव कम होने के कारण उनके व्यक्तित्व का विकास उस तेज़ी से नहीं हो पाता। लोक लाज के रूप में सामंती बंदिशें उन्हें कई तरह से रोकतीं। यहां उनके व्यक्तित्व का विकास हो रहा है। वो खुद को वर्क फोर्स समझ रही है। मर्द की जगह कमाने वाला समझ रही हैं। वो जानती हैं कि शहर में उनकी कमाई पूरक नहीं है बल्कि घर के लिए बहुत ज़रूरी है। सोसायटी में घुसने के लिए बना कार्ड या मेमसाहब के साथ होंडा सिटी में मॉल जाने का अनुभव यह सब उनके निजी व्यक्तित्व का हिस्सा बन रहे हैं। इन अनुभवों के बनते वक्त उनके मर्दों का साया नहीं होता। वो चुपचाप दुनिया को देख रही हैं। कुछ सोच रही हैं। अपने पसीने को छुपाते हुए साफ सुथरी दिखते हुए।
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तो राहुल जाति-राजनीति सीख रहे हैं?
क्या आधुनिक भारत के निर्माता कहे जानेवाले जवाहर लाल नेहरू को चुनावी राजनीति में किस भी तरीके से लांच किया जा सकता है? इस बात पर चर्चा चलेगी कि राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनावी अभियान की शुरूआत के लिए नेहरू के संसदीय क्षेत्र फूलपुर को क्यों चुना? संविधान निर्माताओं और आज़ादी की लड़ाई के नेताओं में डॉ भीभराव अंबेडकर को छोड़ कर कोई चुनावी प्रतीक नहीं बन सका। नेहरू हमेशा राजनीति से ऊपर उठकर याद किये जाते रहे। सरदार पटेल लौह पुरुष की उपमाओं के लिए याद किये जाते रहे, मगर राजनीति में जैसी निरंतरता अंबेडकर की रही, नेहरू और पटेल की कभी नहीं रही। १९७१ के चुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह के फूलपुर से जीतने के बाद गांधी परिवार ने वहां से कभी नेहरू की विरासत पर दावा करने का प्रयास नहीं किया। अपने घोर राजनीतिक संकट के वक्त भी इंदिरा ने चिकमंगलूर और सोनिया ने बेल्लारी को चुना। फूलपुर को नहीं। बाद में रायबरेली और अमेठी राजीव गांधी,इंदिरा गांधी और राहुल गांधी से जुड़ते चले गए। राहुल गांधी ने अचानक अपनी दादी के जन्मदिन से पांच दिन पहले जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन को क्यों चुना? क्या इसलिए कि नेहरू तक पहुंचकर सारे राजनीतिक विवाद ठहर से जाते हैं। नेहरू को याद करने में एक किस्म का रोमांस है पर उन्हें रोमांस के साथ याद करने वाली पीढ़ियां अब बची ही कहां हैं।
लेकिन राजनीति प्रतीकों के पीछे अपने असली मायने गढ़ती है। फूलपुर पूरी तरह से पिछड़ों के वर्चस्ववाला राजनीतिक गढ़ है। यहां ब्राह्मण भी पर्याप्त मात्रा में हैं। यहां की पांच विधानसभा सीटों में से एक कांग्रेस के हाथ में हैं। राहुल की रैली से एक दिन पहले उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सम्मेलन में मायावती ने ब्राह्मणों को चेताया था कि अगर कांग्रेस आई तो ठाकुर दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बनेंगे और बीजेपी सत्ता में आई तो ठाकुर राजनाथ सिंह। मायावती का यह बयान राहुल गांधी के गुस्से की तरह अनायास नहीं था। वो जानती हैं कि यूपी की राजनीति में ठाकुर और ब्राह्मण प्रतिद्वंदि रहे हैं। दोनों सत्ता की वापसी के लिए बेचैन हैं। ब्राह्मणों ने थोड़ी बहुत वापसी भी की है मगर बीएसपी को डर है कि कहीं वे छिटकर राहुल गांधी के पास न चले जाएं जो कहीं न कहीं पंडित जवाहर लाल नेहरू से खुद को जोड़कर उस पहचान को और स्पष्ट करना चाहते हैं। राहुल गांधी भी जानते हैं कि अगर ब्राह्मण बसपा से छिटक गए तो कांग्रेस और मज़बूत हो सकती है। अपने भाषण की पहली दूसरी पंक्ति में ही राहुल गांधी ने कहा कि जहां के नेहरू एमपी थे,आज वहां से माफिया एमपी है। फूलपुर को अपनी इस विरासत पर गर्व होता तो अमेठी और रायबरेली की तरह गांधी परिवार के साथ जुड़ा रहता। अगर राहुल यहां के पचास से साठ फीसदी पिछड़ों को नेहरू और सुनहरे अतीत के नाम पर कांग्रेस की तरफ कर सकते हैं तो समाजवादी पार्टी को भी प्रभावित करेंगे। इसलिए फूलपुर जाकर उन्होंने मायावती और मुलायम को चुनौती ही नहीं दी बल्कि दोनों को लालची तक कह दिया। ये राहुल गांधी की ज़ुबान नहीं है मगर एंग्री यंग मैन की भूमिका में आए राहुल जब यह कहते हैं कि मुलायम मायावती को अब ग़रीबों के अत्याचार पर गुस्सा नहीं आता। मुझे आता है तो वो उत्तर प्रदेश में सरकार विरोधी जनभावना की इकलौती आवाज़ बनना चाहते हैं। बीजेपी का तो ज़िक्र भी नहीं था उनके भाषण में।
फूलपुर की रैली सिर्फ नेहरू के प्रतीक के पीछ के विश्लेषणों तक सीमित नहीं रहेगी। राहुल गांधी की नई छवि पर भी काफी कुछ कहने के लिए मजबूर करेगी। राहुल गांधी ने खुद को एक गंभीर नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की है। मनरेगा के मज़दूरों के साथ फोटो खींचाना, दलितों के घर जाकर खाना, भट्टा परसौल में पंचायत करना और पदयात्रा। मगर अन्ना आंदोलन ने उनकी छवि को काफी धक्का पहुंचाया। उम्मीद की जा रही थी कि भ्रष्टाचार को लेकर व्याप्त गुस्से के वक्त राहुल गांधी कुछ बोलेंगे। बहुत देर तक राहुल चुप ही रहे। यह ठीक है कि सोनिया गांधी की हालत उस वक्त काफी खराब थी मगर जब वो संसद में बोलने गए तो अपनी लाइन चला दी। उसके बाद वे फिर चुप हो गए। लोगों ने पूछना शुरू कर दिया कि ऐसे मुश्किल वक्तों में राहुल गांधी सार्वजनिक बयान क्यों नहीं देते हैं? हर नेता बयान के लिए अपना वक्त चुनता है। मायावती भी तभी बोलती हैं जब उन्हें लगता है कि सही मौका है। लेकिन राहुल की चुप्पी को अन्ना आंदोलन में शामिल युवाओं ने अलग तरीके से देखा। अब राहुल गांधी अपने गुस्से को यूपी का गुस्सा बनाना चाहते हैं। जवाब हम देंगे। ये उनके पोस्टर का नया नारा है। मुझे गुस्सा आता है कि कब जागेगा यूपी। मुझे बताइये कब जागेगा यूपी। राहुल गांधी काफी उत्तेजक रूप से बोल रहे थे। उन्होंने अपनी पुरानी शैली छोड़ दी है। बीस साल से अधिक हो गए कांग्रेस को सत्ता से बाहर हुए, फिर भी यूपी की जनता कांग्रेस की के लिए नहीं जागी। शायद राहुल यही पूछ रहे हैं कि क्या इस बार जागेगी? क्यों नहीं जागती है?
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जगाने की आशा-हताशा में राहुल चुनावी मुद्दे भी गढ़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश का आदमी कब तक महाराष्ट्र में भीख मांगेगा। राहुल गांधी ने यह बात उठाकर बता दिया है कि चुनावी राजनीति की पैंतरेबाज़ियों को भी अपनाने से नहीं चूकेंगे। विस्थापन को स्वाभिमान से जोड़ने की सफल कोशिश बिहार में नीतीश कुमार ने भी की थी। राहुल गांधी की फौरी आलोचना तो हो गई मगर भीख मांगने वाला उनका यह बयान स्वाभिमान के रास्ते उत्तर प्रदेश की जनता में उतर सकता है। यह सत्य है कि हाल के दिनों का विस्थापन विकास की क्षेत्रीय असंतुलन से भी बढ़ा है मगर उत्तर प्रदेश में विस्थापन दो सौ साल पुरानी प्रक्रिया है। इस बयान पर विवाद होंगे मगर यही वो बयान है जो उनके विकास के एजेंडे की राजनीति को बैक अप देने का काम भी करेगा। राजनीति इसी का नाम है। वो जितना सतही और चुनावी होगी, संघर्ष दिलचस्प होता है। कार्यकर्ताओं में जोश इसी से भरता है, विचारधारा से नहीं। राहुल गांधी ने सीख लिया है।
(आज के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित)
लेकिन राजनीति प्रतीकों के पीछे अपने असली मायने गढ़ती है। फूलपुर पूरी तरह से पिछड़ों के वर्चस्ववाला राजनीतिक गढ़ है। यहां ब्राह्मण भी पर्याप्त मात्रा में हैं। यहां की पांच विधानसभा सीटों में से एक कांग्रेस के हाथ में हैं। राहुल की रैली से एक दिन पहले उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सम्मेलन में मायावती ने ब्राह्मणों को चेताया था कि अगर कांग्रेस आई तो ठाकुर दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बनेंगे और बीजेपी सत्ता में आई तो ठाकुर राजनाथ सिंह। मायावती का यह बयान राहुल गांधी के गुस्से की तरह अनायास नहीं था। वो जानती हैं कि यूपी की राजनीति में ठाकुर और ब्राह्मण प्रतिद्वंदि रहे हैं। दोनों सत्ता की वापसी के लिए बेचैन हैं। ब्राह्मणों ने थोड़ी बहुत वापसी भी की है मगर बीएसपी को डर है कि कहीं वे छिटकर राहुल गांधी के पास न चले जाएं जो कहीं न कहीं पंडित जवाहर लाल नेहरू से खुद को जोड़कर उस पहचान को और स्पष्ट करना चाहते हैं। राहुल गांधी भी जानते हैं कि अगर ब्राह्मण बसपा से छिटक गए तो कांग्रेस और मज़बूत हो सकती है। अपने भाषण की पहली दूसरी पंक्ति में ही राहुल गांधी ने कहा कि जहां के नेहरू एमपी थे,आज वहां से माफिया एमपी है। फूलपुर को अपनी इस विरासत पर गर्व होता तो अमेठी और रायबरेली की तरह गांधी परिवार के साथ जुड़ा रहता। अगर राहुल यहां के पचास से साठ फीसदी पिछड़ों को नेहरू और सुनहरे अतीत के नाम पर कांग्रेस की तरफ कर सकते हैं तो समाजवादी पार्टी को भी प्रभावित करेंगे। इसलिए फूलपुर जाकर उन्होंने मायावती और मुलायम को चुनौती ही नहीं दी बल्कि दोनों को लालची तक कह दिया। ये राहुल गांधी की ज़ुबान नहीं है मगर एंग्री यंग मैन की भूमिका में आए राहुल जब यह कहते हैं कि मुलायम मायावती को अब ग़रीबों के अत्याचार पर गुस्सा नहीं आता। मुझे आता है तो वो उत्तर प्रदेश में सरकार विरोधी जनभावना की इकलौती आवाज़ बनना चाहते हैं। बीजेपी का तो ज़िक्र भी नहीं था उनके भाषण में।
फूलपुर की रैली सिर्फ नेहरू के प्रतीक के पीछ के विश्लेषणों तक सीमित नहीं रहेगी। राहुल गांधी की नई छवि पर भी काफी कुछ कहने के लिए मजबूर करेगी। राहुल गांधी ने खुद को एक गंभीर नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की है। मनरेगा के मज़दूरों के साथ फोटो खींचाना, दलितों के घर जाकर खाना, भट्टा परसौल में पंचायत करना और पदयात्रा। मगर अन्ना आंदोलन ने उनकी छवि को काफी धक्का पहुंचाया। उम्मीद की जा रही थी कि भ्रष्टाचार को लेकर व्याप्त गुस्से के वक्त राहुल गांधी कुछ बोलेंगे। बहुत देर तक राहुल चुप ही रहे। यह ठीक है कि सोनिया गांधी की हालत उस वक्त काफी खराब थी मगर जब वो संसद में बोलने गए तो अपनी लाइन चला दी। उसके बाद वे फिर चुप हो गए। लोगों ने पूछना शुरू कर दिया कि ऐसे मुश्किल वक्तों में राहुल गांधी सार्वजनिक बयान क्यों नहीं देते हैं? हर नेता बयान के लिए अपना वक्त चुनता है। मायावती भी तभी बोलती हैं जब उन्हें लगता है कि सही मौका है। लेकिन राहुल की चुप्पी को अन्ना आंदोलन में शामिल युवाओं ने अलग तरीके से देखा। अब राहुल गांधी अपने गुस्से को यूपी का गुस्सा बनाना चाहते हैं। जवाब हम देंगे। ये उनके पोस्टर का नया नारा है। मुझे गुस्सा आता है कि कब जागेगा यूपी। मुझे बताइये कब जागेगा यूपी। राहुल गांधी काफी उत्तेजक रूप से बोल रहे थे। उन्होंने अपनी पुरानी शैली छोड़ दी है। बीस साल से अधिक हो गए कांग्रेस को सत्ता से बाहर हुए, फिर भी यूपी की जनता कांग्रेस की के लिए नहीं जागी। शायद राहुल यही पूछ रहे हैं कि क्या इस बार जागेगी? क्यों नहीं जागती है?
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जगाने की आशा-हताशा में राहुल चुनावी मुद्दे भी गढ़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश का आदमी कब तक महाराष्ट्र में भीख मांगेगा। राहुल गांधी ने यह बात उठाकर बता दिया है कि चुनावी राजनीति की पैंतरेबाज़ियों को भी अपनाने से नहीं चूकेंगे। विस्थापन को स्वाभिमान से जोड़ने की सफल कोशिश बिहार में नीतीश कुमार ने भी की थी। राहुल गांधी की फौरी आलोचना तो हो गई मगर भीख मांगने वाला उनका यह बयान स्वाभिमान के रास्ते उत्तर प्रदेश की जनता में उतर सकता है। यह सत्य है कि हाल के दिनों का विस्थापन विकास की क्षेत्रीय असंतुलन से भी बढ़ा है मगर उत्तर प्रदेश में विस्थापन दो सौ साल पुरानी प्रक्रिया है। इस बयान पर विवाद होंगे मगर यही वो बयान है जो उनके विकास के एजेंडे की राजनीति को बैक अप देने का काम भी करेगा। राजनीति इसी का नाम है। वो जितना सतही और चुनावी होगी, संघर्ष दिलचस्प होता है। कार्यकर्ताओं में जोश इसी से भरता है, विचारधारा से नहीं। राहुल गांधी ने सीख लिया है।
(आज के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित)
रॉक स्टार- स्टीफेंस का लपाड़ा और हिन्दू की लौंडिया क्यों नहीं?
रॉक स्टार। अस्सी के दशक में जो कोशिश डिस्को डांसर ने की थी, उसके उनतीस साल बाद यही कोशिश रॉक स्टार की है। डिस्को डांसर का अव्वा अव्वा, रॉक स्टार के बेहतरीन निर्देशिक और रचित हव्वा हव्वा के सामने पत्तों की तरह उड़ जाता है। पटना से वास्ता रखने वाले इम्तियाज़ पर डिस्को डांसर का जादू नहीं होगा कहना मुश्किल है। डिस्को डांसर का अनिल भी फुटपाथ से कामयाबी के शिखर पर पहुंचता है मगर रिश्तों की बुनियादी उलझनें उसे यह बता देती हैं कि कामयाबी की कीमत क्या होती है। मैं यहां डिस्को डांसर और रॉक स्टार की तुलना नहीं कर रहा। सिर्फ दोनों का ज़िक्र साथ-साथ कर रहा हूं। उस फिल्म में मिथुन गा रहे थे-कि लोग कहते हैं मैं तब भी गाता था जब मैं बोल पाता नहीं था। रॉक स्टार का जनार्दन गा रहा है- जो भी मैं कहना चाहूं,बर्बाद करे अल्फाज़ मेरे। जनार्दन इस उत्तर आधुनिक दौर में अति संचार और अति संवाद की जड़ताओं से निकल कर अपनी बुनियादी अहसास से संवाद करने की पीड़ा से गुज़र रहा है। कशिश और तपिश की निरंतरता डिस्को डांसर से लेकर रॉक स्टार तक में महसूस की जा सकती है। डिस्को डांसर ने उस वक्त के बारातियों को एक ऐसी चुनौती दी कि पटना के चिड़ैया टांड पुल के नीचे बारात रोक कर पटाखे के साथ डांस की पीड़ा पुल के दोनों तरफ जाम में फंसे लोगों ने ज़रूर महसूस की थी। बैंड मास्टरों का पसंदीदा गाना था आया मैं डिस्को डांसर। ढैन ढैन। रॉक स्टार के गाने बेहतरीन हैं। हव्वा हव्वा सुनते हुए सात ख़ून माफ का गाना डार्लिंग रोको न...भी याद आता है। कितना सुंदर गीत है ये हव्वा हव्वा।...पैरों से रानी फिर नौ दो ग्यारह। एक दिन में जूते बारह...राजा का चढ़ गया पारा...खबरी को पास पुकारा....देखो..वो जाती कहां...खबरी ने पीछा किया...रानी को घर से...जाते देखा...। उत्तर आधुनिक विमर्श में पुरानी आशंकाएं आज़ाद ख़्यालों का पीछा करती हैं।
रॉक स्टार जनार्दन को जॉर्डन बनाकर बताती है कि कामयाबी और कुलीनता का ठेकेदार भले ही मालिश कराने वाला म्यूज़िक कंपनी का पंजाबीबागीय बंदानवाज़ हो मगर शोहरत में देसी टच की जगह नहीं। डिस्को डांसर में भी म्यूज़िक कंपनी वाला है मगर वो बंबइया है। पंजाबीबागीय नहीं। खैर शोहरत में भदेस नहीं चलेगा इसीलिए हिन्दू कालेज का कैंटीन वाला खूब समझाता है दिल का टूटना ज़रूरी है। इश्क़ ज़रूरी है। संगीत वहां से निकलता है। यानी जो रिजेक्टेड है वही रचनाकार है। जो एक्सेप्टेड है,वो बाज़ार है। जनार्दन को मार्केट के हिसाब से यह कहानी शुरू से ही ढालना चाहती है। ज़बरदस्ती ठेलकर। स्टीफेंस कालेज की कुलीनता पर आंच नहीं आने दी है इम्तियाज़ ने। मगर अपने ही कॉलेज हिन्दू कालेज की कुलीनता के साथ खूब छेड़छाड़ किया है। हिन्दू कॉलेज का जनार्दन सिर्फ दिल्ली का जाट नहीं बल्कि मिरांडा और स्टीफेंस की लड़कियों को हसरत से देखनेवाला ‘बिहारी माइग्ररेंट बट आईएस एसपिरेंट’ भी है। मैं इस प्लाट से चट चुका हूं। दिल्ली की सारी प्रेम कथाएं स्टीफेंस के स्वीकृत और हिन्दू के तिरस्कृत भाव से ही जन्म नहीं लेती हैं।
इम्तियाज़ निहायत ही कुलीन निर्देशक हैं। ज़हनी तौर पर भी। वो आज की पीढ़ी के हैं जिसे पैकेजिंग बहुत अच्छी आती है। मगर कहानी के लिए जनार्दन का पात्र गढ़ता है और दिल्ली की ग़ैर कुलीन बस्तियों को फन यानी मस्ती के लिए खोजता यानी एक्सप्लोर करता है। जंगली जवानी किस वर्ग के ख्वाबों को सहलानेवाली प्रातदर्शनीय फिल्म हैं? हीर और जनार्दन पहली बार जंगली जवानी देखने जाते हैं। सिर्फ एक दिन के लिए। अमर थियेटर को बदनाम जगह के रूप में स्थापित करते हैं। वही जो एक कुलीन सोच होती है। उधर मत जाना। स्टीफेंस और हिन्दू के लौंडे लपाड़े गंदे नहीं होते, मगर एक दिन के लिए गंदे काम कर सकते हैं। ‘जस्ट लाइक अ ट्रिप’। गए और वापस आ गए। अपनी अच्छाई के खोह में। ये जगहें लाखों के जीवन का हिस्सा है मगर इम्तियाज़ जैसे कहानीकारों और हिन्दू स्टीफेंस के छात्रों के लिए फन यानी एकदिवसीय मस्ती का अड्डा। ताकि जब वो जीवन में अपने नेटवर्क की बदौलत कुछ हासिल कर लें तो ‘मेमोआयर्स’ यानी संस्मरण को रोचक बना सकें। पुराना किला के पीछे दारू पीने का प्रसंग वहां बैठे लोगों के स्टीरीयोटाइप को ही कंफर्म यानी पुष्टि करता है। निर्देशक का यही कुलीन पूर्वाग्रह प्राग में भी गंदे पब को ढूंढता है। एक दिन के लिए। जहां लेबर क्लास के लोग जाते हैं। क्या वो जगहें गंदी होती हैं? इम्तियाज़ को क्रांतिकारी तब मानता जब जनार्दन स्टीफंस का लौंडा लपाड़ा होता और हीर हिन्दू की ख़ूबसूरत हसीना। ख़ैर निर्देशक की आज़ादी होती है कैसे भी फिल्म बनाए। समीक्षक की आज़ादी होनी चाहिए कैसे भी फिल्म को देखे। उसका पैसा उसकी राय। हिन्दू के होने का कांप्लेक्स और स्टीफेंस का गर्वलेक्स किसी भी तरह से खंडित नहीं होता है। स्टीफेंस की सर्वोच्चता कायम रहती है। जॉर्डन तुम जाट नहीं हो, तुम बिहारी हो। पूछ लेना इम्तियाज़ से। तुम्हारा सांचा जाट का है मगर सच्चाई हिन्दी मीडियम बिहारी की है। भाभी वाला प्रसंग रेडियो एफएम के सोनिया भाभी और सविता भाभी डाट काम से प्रेरित है और अच्छा है। बेहतरीन। इसीलिए यह फिल्म उत्तर आधुनिक और पुरातन के बीच झूलती रहती है।
जिस वक्त हिन्दू के कैंटीन में फिल्म की शूटिंग चल रही थी, मेरी बेटी और मेरे मित्र का बेटा दोनों भाग कर वहां चले गए। शूटिंग के बाद बिखरे डिब्बों से खेलने लगे। उनके लिए यह स्पेस एक सामान्य से ज्यादा कुछ नहीं था। मगर सिनेमा में हम स्पेस को गढ़ते हैं। नार्थ कैंपस से पुरानी दिल्ली तक आना दिल्ली को खोजना नहीं है। दिल्ली के गांवों में आस पास बने मकानों की मिलती बालकनियों से झांकता और कालोनी के गेट से अंदर जाता जनार्दन एक शहर का बोध कराता है मगर दीवार और बैकड्राप से ज्यादा कुछ नहीं है। वो दिल्ली में रीयल होने की कोशिश करता है मगर प्राग जाकर भौंचक्क हो जाता है। यहां इम्तियाज़ खानापूर्ति करने की कोशिश करती हैं। मस्ती को न्यायोचित ठहराने के लिए प्राग में भी लिस्ट बनाते हैं और उत्तर आधुनिक होने का रिसेस यानी ब्रेक टाइम में भरम पाल लेते हैं जो एक रात जार्डन के दीवार लांघने पर सिक्योरिटी अलार्म बजने के साथ ही फुस्स हो जाता है। अंत में हीर का राजा पिस्तौल निकाल लेता है और जार्डन इंडिया आकर अलबला जाता है।
शहर को स्टीरीयोटाइप बनाने के साथ एक और कथा चलती है। निज़ामुद्दीन औलिया और भगवती जागरण की कहानी। पत्रकार जनार्जन के जॉर्डन बनने की कथा को हैरत से खोज रही है। शायद कामयाबी के बाद भी आखिरी बार पुष्टि की कोशिश हो रही है कि कोई गैरकुलीन स्टार कैसे बन जाता है। उसी क्रम में भगवती जागरण और निज़ामुद्दीन के दरबार के प्रसंगों को गढ़ा जाता है। संगीत समाज में बनता है। आसमान में नहीं। कोई महान संगीतकार अपने समाज का हिस्सा बने बिना पैदा ही नहीं हो सकता। इम्तियाज़ ने औलिया के दरबार और दरवाज़े को अलग ही कैमरे से भव्य बनाया है। लेकिन यह मत समझिये कि मैं फिल्म को रिजेक्ट कर रहा हूं। फिल्म के बाद की प्रतिक्रिया के रूप में पढ़िये इसे। फिल्म देखते वक्त कई तरह के शहरों, मोहल्लों और गलियों के बीच आते-जाते रहना और एक खूबसूरत हसीना हीर को देखते रहने की चाहत में डूबे रहना अलग अहसास से भरता है। तभी मैंने फेसबुक पर लिखा था,शहर सांसों सा गुज़रता है,अहसासों में कोई क्यूं रहता है।
जनार्दन से जॉर्डन बनने और बिखर जाने का सफर सुखांत और दुखांत पैटर्न पर चलने का एक संतुलित प्रयास है। कहानी अच्छी बन रही है तो जोखिम क्यूं लिया जाए। निर्देशक जोखिम वहां लेता हैं जब वो कश्मीर में घुसता है। तिब्बत की आज़ादी को नायक की बेचैनियों से जोड़ता है। कश्मीर में हीर जनार्दन को कहती है 'हग' करो मुझे। अद्भुत दृश्य है। हिन्दी गाई(guy) पर हीर थोड़े समय के तरस खा लेती है। उसके इनोसेंस पर। जनार्दन हग कर चला जाता है। हग मतलब अल्पकालिक आलिंगन। प्राग में हीर उसे भूल जाती है। सिर्फ बीमारी से साबित नहीं होता कि वो जनार्दन को मिस कर रही है। खैर दोनों मिलते हैं और दिल्ली की मस्ती प्राग की मस्ती में बदल जाती है। पूरी फिल्म में कुलनीता की निरंतरता कहीं नहीं टूटती है। शादी के भीतर एक अतिरिक्त संबंध को मान्यता दे दी जाती है। दोनों कमज़ोर प्रेमी साबित होते हैं। हीर अपनी कुलीनताओं में जकड़ी नहीं होती और हिन्दी मीडियम टाइप जनार्दन को एक दिन के चुंबन की आज़ादी से ज़्यादा और आगे के लायक सोची होती तो इस कहानी में भूचाल आ जाता। रॉक स्टार एक बेहतरीन फिल्म होने के बाद भी रणबीर को डिस्को डांसर जैसी शोहरत और गहराई नहीं दे पायेगा। इसके बावजूद यह फिल्म रणबीर के स्टारडम की पहली औपचारिक फिल्म मानी जाएगी।
सोचता हूं कैमरे की इतनी अच्छी समझ रखनेवाला इम्तियाज़ डिस्को डांसर से आगे क्यों नहीं जा पाया? निश्चित रूप से उसने अच्छी फिल्म बनाई है। मगर उसे अपनी कहानी को स्टीफेंस और हिन्दू के बीच की ग्रंथियों से आज़ाद कर देना होगा। वो फालतू की और पचीस लोगों की हीन और गर्व गंथ्रियां हैं। हिन्दू कालेज का कैंटीनवाला दरअसल इम्तियाज़ से कह रहा है कि कहानी यहां नहीं हैं।। पूरे मन से देखा इस फिल्म को और मन भर देखा। रावन अगर पिट पिटा के नहीं गई होती तो रॉक स्टार को चुनौतियों का सामना करना पड़ता। रावन से घायल दर्शकों के लिए रॉक स्टार मरहम की तरह है। पूरा पैसा वसूल है। भावुकता के कई खूबसूरत लम्हें रचती है यह फिल्म। एक पलायनवादी तड़प कि नौकरी के बंधनों से मुक्त किसी को पाने के लिए सबकुछ गंवा देना ही चरम आध्यात्म है। जबकि ऐसा नहीं है। इम्तियाज़ अली एक अच्छे निर्देशक हैं। मगर अभी तक उन्होंने निर्देशन की ऐसी किसी ऊंचाई को स्पर्श नहीं किया जिससे उन्हें बेहद सृजनशील निर्देशक कहा जाए। कहानी के मामले में भी वो अभी तक कोई नई ज़मीन नहीं गढ़ पाए हैं। बहुत उम्मीद है इस निर्देशक से बस कोई इसे आजाद कर दे। कोई नई उड़ान का रास्ता दिखा दे।लेकिन जो भी इस फिल्म को देखकर लौटेगा, खुश होकर लौटेगा। रहमान के लिए इस नाचीज़ की नसीहत है, अल्फाज़ बर्बाद नहीं करते हमेशा, यादगार भी बनाते हैं। अपने संगीत को इतना हावी न होने दें कि बेहतरीन अल्फाज़ गा़यब हो जाए। न सुनाई दें न समझ आए। साफ साफ गाना होना चाहिए। कि लोग कहते हैं मैं तब भी गाता था जब बोल पाता नहीं था...तरा तरा..ढैन ढैन...याया...याइये....याया....। चलेगा मगर खो जाएगा। थोड़े समय के बाद।फिल्म बेहतरीन है। यह समीक्षा देखने के बाद की है। जब देख रहा था तब बहुत ही मज़ा आया। डूबा रहा।
रॉक स्टार जनार्दन को जॉर्डन बनाकर बताती है कि कामयाबी और कुलीनता का ठेकेदार भले ही मालिश कराने वाला म्यूज़िक कंपनी का पंजाबीबागीय बंदानवाज़ हो मगर शोहरत में देसी टच की जगह नहीं। डिस्को डांसर में भी म्यूज़िक कंपनी वाला है मगर वो बंबइया है। पंजाबीबागीय नहीं। खैर शोहरत में भदेस नहीं चलेगा इसीलिए हिन्दू कालेज का कैंटीन वाला खूब समझाता है दिल का टूटना ज़रूरी है। इश्क़ ज़रूरी है। संगीत वहां से निकलता है। यानी जो रिजेक्टेड है वही रचनाकार है। जो एक्सेप्टेड है,वो बाज़ार है। जनार्दन को मार्केट के हिसाब से यह कहानी शुरू से ही ढालना चाहती है। ज़बरदस्ती ठेलकर। स्टीफेंस कालेज की कुलीनता पर आंच नहीं आने दी है इम्तियाज़ ने। मगर अपने ही कॉलेज हिन्दू कालेज की कुलीनता के साथ खूब छेड़छाड़ किया है। हिन्दू कॉलेज का जनार्दन सिर्फ दिल्ली का जाट नहीं बल्कि मिरांडा और स्टीफेंस की लड़कियों को हसरत से देखनेवाला ‘बिहारी माइग्ररेंट बट आईएस एसपिरेंट’ भी है। मैं इस प्लाट से चट चुका हूं। दिल्ली की सारी प्रेम कथाएं स्टीफेंस के स्वीकृत और हिन्दू के तिरस्कृत भाव से ही जन्म नहीं लेती हैं।
इम्तियाज़ निहायत ही कुलीन निर्देशक हैं। ज़हनी तौर पर भी। वो आज की पीढ़ी के हैं जिसे पैकेजिंग बहुत अच्छी आती है। मगर कहानी के लिए जनार्दन का पात्र गढ़ता है और दिल्ली की ग़ैर कुलीन बस्तियों को फन यानी मस्ती के लिए खोजता यानी एक्सप्लोर करता है। जंगली जवानी किस वर्ग के ख्वाबों को सहलानेवाली प्रातदर्शनीय फिल्म हैं? हीर और जनार्दन पहली बार जंगली जवानी देखने जाते हैं। सिर्फ एक दिन के लिए। अमर थियेटर को बदनाम जगह के रूप में स्थापित करते हैं। वही जो एक कुलीन सोच होती है। उधर मत जाना। स्टीफेंस और हिन्दू के लौंडे लपाड़े गंदे नहीं होते, मगर एक दिन के लिए गंदे काम कर सकते हैं। ‘जस्ट लाइक अ ट्रिप’। गए और वापस आ गए। अपनी अच्छाई के खोह में। ये जगहें लाखों के जीवन का हिस्सा है मगर इम्तियाज़ जैसे कहानीकारों और हिन्दू स्टीफेंस के छात्रों के लिए फन यानी एकदिवसीय मस्ती का अड्डा। ताकि जब वो जीवन में अपने नेटवर्क की बदौलत कुछ हासिल कर लें तो ‘मेमोआयर्स’ यानी संस्मरण को रोचक बना सकें। पुराना किला के पीछे दारू पीने का प्रसंग वहां बैठे लोगों के स्टीरीयोटाइप को ही कंफर्म यानी पुष्टि करता है। निर्देशक का यही कुलीन पूर्वाग्रह प्राग में भी गंदे पब को ढूंढता है। एक दिन के लिए। जहां लेबर क्लास के लोग जाते हैं। क्या वो जगहें गंदी होती हैं? इम्तियाज़ को क्रांतिकारी तब मानता जब जनार्दन स्टीफंस का लौंडा लपाड़ा होता और हीर हिन्दू की ख़ूबसूरत हसीना। ख़ैर निर्देशक की आज़ादी होती है कैसे भी फिल्म बनाए। समीक्षक की आज़ादी होनी चाहिए कैसे भी फिल्म को देखे। उसका पैसा उसकी राय। हिन्दू के होने का कांप्लेक्स और स्टीफेंस का गर्वलेक्स किसी भी तरह से खंडित नहीं होता है। स्टीफेंस की सर्वोच्चता कायम रहती है। जॉर्डन तुम जाट नहीं हो, तुम बिहारी हो। पूछ लेना इम्तियाज़ से। तुम्हारा सांचा जाट का है मगर सच्चाई हिन्दी मीडियम बिहारी की है। भाभी वाला प्रसंग रेडियो एफएम के सोनिया भाभी और सविता भाभी डाट काम से प्रेरित है और अच्छा है। बेहतरीन। इसीलिए यह फिल्म उत्तर आधुनिक और पुरातन के बीच झूलती रहती है।
जिस वक्त हिन्दू के कैंटीन में फिल्म की शूटिंग चल रही थी, मेरी बेटी और मेरे मित्र का बेटा दोनों भाग कर वहां चले गए। शूटिंग के बाद बिखरे डिब्बों से खेलने लगे। उनके लिए यह स्पेस एक सामान्य से ज्यादा कुछ नहीं था। मगर सिनेमा में हम स्पेस को गढ़ते हैं। नार्थ कैंपस से पुरानी दिल्ली तक आना दिल्ली को खोजना नहीं है। दिल्ली के गांवों में आस पास बने मकानों की मिलती बालकनियों से झांकता और कालोनी के गेट से अंदर जाता जनार्दन एक शहर का बोध कराता है मगर दीवार और बैकड्राप से ज्यादा कुछ नहीं है। वो दिल्ली में रीयल होने की कोशिश करता है मगर प्राग जाकर भौंचक्क हो जाता है। यहां इम्तियाज़ खानापूर्ति करने की कोशिश करती हैं। मस्ती को न्यायोचित ठहराने के लिए प्राग में भी लिस्ट बनाते हैं और उत्तर आधुनिक होने का रिसेस यानी ब्रेक टाइम में भरम पाल लेते हैं जो एक रात जार्डन के दीवार लांघने पर सिक्योरिटी अलार्म बजने के साथ ही फुस्स हो जाता है। अंत में हीर का राजा पिस्तौल निकाल लेता है और जार्डन इंडिया आकर अलबला जाता है।
शहर को स्टीरीयोटाइप बनाने के साथ एक और कथा चलती है। निज़ामुद्दीन औलिया और भगवती जागरण की कहानी। पत्रकार जनार्जन के जॉर्डन बनने की कथा को हैरत से खोज रही है। शायद कामयाबी के बाद भी आखिरी बार पुष्टि की कोशिश हो रही है कि कोई गैरकुलीन स्टार कैसे बन जाता है। उसी क्रम में भगवती जागरण और निज़ामुद्दीन के दरबार के प्रसंगों को गढ़ा जाता है। संगीत समाज में बनता है। आसमान में नहीं। कोई महान संगीतकार अपने समाज का हिस्सा बने बिना पैदा ही नहीं हो सकता। इम्तियाज़ ने औलिया के दरबार और दरवाज़े को अलग ही कैमरे से भव्य बनाया है। लेकिन यह मत समझिये कि मैं फिल्म को रिजेक्ट कर रहा हूं। फिल्म के बाद की प्रतिक्रिया के रूप में पढ़िये इसे। फिल्म देखते वक्त कई तरह के शहरों, मोहल्लों और गलियों के बीच आते-जाते रहना और एक खूबसूरत हसीना हीर को देखते रहने की चाहत में डूबे रहना अलग अहसास से भरता है। तभी मैंने फेसबुक पर लिखा था,शहर सांसों सा गुज़रता है,अहसासों में कोई क्यूं रहता है।
जनार्दन से जॉर्डन बनने और बिखर जाने का सफर सुखांत और दुखांत पैटर्न पर चलने का एक संतुलित प्रयास है। कहानी अच्छी बन रही है तो जोखिम क्यूं लिया जाए। निर्देशक जोखिम वहां लेता हैं जब वो कश्मीर में घुसता है। तिब्बत की आज़ादी को नायक की बेचैनियों से जोड़ता है। कश्मीर में हीर जनार्दन को कहती है 'हग' करो मुझे। अद्भुत दृश्य है। हिन्दी गाई(guy) पर हीर थोड़े समय के तरस खा लेती है। उसके इनोसेंस पर। जनार्दन हग कर चला जाता है। हग मतलब अल्पकालिक आलिंगन। प्राग में हीर उसे भूल जाती है। सिर्फ बीमारी से साबित नहीं होता कि वो जनार्दन को मिस कर रही है। खैर दोनों मिलते हैं और दिल्ली की मस्ती प्राग की मस्ती में बदल जाती है। पूरी फिल्म में कुलनीता की निरंतरता कहीं नहीं टूटती है। शादी के भीतर एक अतिरिक्त संबंध को मान्यता दे दी जाती है। दोनों कमज़ोर प्रेमी साबित होते हैं। हीर अपनी कुलीनताओं में जकड़ी नहीं होती और हिन्दी मीडियम टाइप जनार्दन को एक दिन के चुंबन की आज़ादी से ज़्यादा और आगे के लायक सोची होती तो इस कहानी में भूचाल आ जाता। रॉक स्टार एक बेहतरीन फिल्म होने के बाद भी रणबीर को डिस्को डांसर जैसी शोहरत और गहराई नहीं दे पायेगा। इसके बावजूद यह फिल्म रणबीर के स्टारडम की पहली औपचारिक फिल्म मानी जाएगी।
सोचता हूं कैमरे की इतनी अच्छी समझ रखनेवाला इम्तियाज़ डिस्को डांसर से आगे क्यों नहीं जा पाया? निश्चित रूप से उसने अच्छी फिल्म बनाई है। मगर उसे अपनी कहानी को स्टीफेंस और हिन्दू के बीच की ग्रंथियों से आज़ाद कर देना होगा। वो फालतू की और पचीस लोगों की हीन और गर्व गंथ्रियां हैं। हिन्दू कालेज का कैंटीनवाला दरअसल इम्तियाज़ से कह रहा है कि कहानी यहां नहीं हैं।। पूरे मन से देखा इस फिल्म को और मन भर देखा। रावन अगर पिट पिटा के नहीं गई होती तो रॉक स्टार को चुनौतियों का सामना करना पड़ता। रावन से घायल दर्शकों के लिए रॉक स्टार मरहम की तरह है। पूरा पैसा वसूल है। भावुकता के कई खूबसूरत लम्हें रचती है यह फिल्म। एक पलायनवादी तड़प कि नौकरी के बंधनों से मुक्त किसी को पाने के लिए सबकुछ गंवा देना ही चरम आध्यात्म है। जबकि ऐसा नहीं है। इम्तियाज़ अली एक अच्छे निर्देशक हैं। मगर अभी तक उन्होंने निर्देशन की ऐसी किसी ऊंचाई को स्पर्श नहीं किया जिससे उन्हें बेहद सृजनशील निर्देशक कहा जाए। कहानी के मामले में भी वो अभी तक कोई नई ज़मीन नहीं गढ़ पाए हैं। बहुत उम्मीद है इस निर्देशक से बस कोई इसे आजाद कर दे। कोई नई उड़ान का रास्ता दिखा दे।लेकिन जो भी इस फिल्म को देखकर लौटेगा, खुश होकर लौटेगा। रहमान के लिए इस नाचीज़ की नसीहत है, अल्फाज़ बर्बाद नहीं करते हमेशा, यादगार भी बनाते हैं। अपने संगीत को इतना हावी न होने दें कि बेहतरीन अल्फाज़ गा़यब हो जाए। न सुनाई दें न समझ आए। साफ साफ गाना होना चाहिए। कि लोग कहते हैं मैं तब भी गाता था जब बोल पाता नहीं था...तरा तरा..ढैन ढैन...याया...याइये....याया....। चलेगा मगर खो जाएगा। थोड़े समय के बाद।फिल्म बेहतरीन है। यह समीक्षा देखने के बाद की है। जब देख रहा था तब बहुत ही मज़ा आया। डूबा रहा।
रागदरबारी से पहले की प्रस्तावना
दोस्तों, एक मौलिक और महत्वपूर्ण रचना का वाचिक पुनर्पाठ किसी भी कालखंड की सबसे दुखद घटना हो सकती है। पढ़नेवाला किस मनोभाव और हावभाव से पढ़ेगा यह जानने के लिए रचनाकार की गैरमौजूदगी उस घटना की विडंबना को बड़ा बनाती है। कुतिया से लेकर चूतिया तक सभी एक ही सफ में खड़े लाइव कमेंट्री के किरदार की तरह स्तब्ध नज़र आ सकते हैं, जबकि रचनाकार के मूलभाव में सभी ठहरावमान अपितु गतिमान समझे जा सकते हैं। समाज,सिस्टम के खटाल और जांघों के बीच से नुची हुई खाल का टुकड़ा मैं समय हूं के कथन को पठन लायक बनाता है। आंखों देखा हाल। संजय ने महाभारत का प्रस्तुत किया उसके बाद से भारत का आंखों देखा हाल सिर्फ राजपथ पर सजनेवाली गणतंत्र की झांकियों का हुआ,परन्तु शिवपालगंज का आंखों देखा हाल उस भारत का बदहाल भाव है जो महानगर से लेकर गांव कस्बों तक समभाव में मौजूद है। शिवपालगंज की त्रासदी भारत की त्रासदी है और भारत की त्रासदी शिवपालगंज की। वाइसी वर्सा के इस खेल में जो नज़र वर्षा हमारे दिवंगत कलमकार रचनाकार और असली कार विहीन साहित्यकार श्रीमान श्रीलाल शुक्ल ने की है वो किसी ने नहीं की है। यह वो किस्सा है जो कस के नहीं पढ़ा गया तो कसक बाकी हो सकती है। गनीमत है कि भारत की आत्मा गांवों में बसाई गई और वहीं से बाकी जीवों में भिजवाई गई है। उन स्थायी किन्तु स्थानीय स्तर पर भटकती आत्माओं का ऐसा जैविक कर्मकांडीय बखान किसी भागवत कथा में नहीं मिलता है। बाबा शुक्ल जो कह गए हैं उसी के बाद कहा जा रहा है। यथास्थिति की हर परिस्थिति का विहंगम मूल्यांकन कर गुज़रने के बाद जो बचना है वो तो बस पुनर्पाठ की संभावना और आलोचना की रचना है। शिवपालगंज हमारे आपके मोहल्ले दफ्तर,सरकार, रामलीला मैदान, प्रेम प्रसंग कहीं भी हो सकता है। उत्तर आधुनिक काल से पहले के तमाम कालों के चूतड़ उघाड़ कर ऐसी दृष्टि हमें दे गए हैं कि हम कभी हीन नहीं हो सकते। हर तरह के दरबारों का आडंबर यहीं नारियल की तरह फूटता है, जब लेखक कहता है कि ट्रक का जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार के लिए हुआ है। तो हर उम्र,हर प्रकार के माननीयों तैयार हो जाइये,रुप्पन बाबू,वैधजी,सनिचर,रंगनाथ,खन्ना मास्टर,बद्री पहलवान,बेला आदि अनेकानेक पात्रों से लैस रागदरबारी के चंद अंशों के महादान से बनी महान रचना के पुनर्पाठ के लिए। जो सुनेगा वो मुझे कोसेगा,जो इसे पढ़ेगा वो श्रीलाल शुक्ल जी को याद करेगा। मैं रागदरबारी हूं। मैं संजय धनंजय टाइप के टीवी रिपोर्टर आने से पहले का भारत हूं जिसकी लाइव रिपोर्टिंग तीन सौ उनतीस पन्नों के उपन्यास में ही होती है। जो है उसके होने की चुनौति उसके नहीं होने की तमाम संभावनाओं के साथ प्रस्तुत है।
( महमूद फ़ारूक़ी के घर में श्रीलाल शुक्ल को याद किया गया। बकरीद की पूर्व संध्या पर। वहीं पर राग दरबारी का पाठ करने से पहले यह प्रस्तावना मेरे द्वारा रचित और पठित की गई। विनीत का कहना था कि इसे पोस्ट कर दिया जाए। हालांकि मैं कहीं से भी श्रीलाल शुक्ल पर बोलने के लिए अधिकारी नियुक्त नहीं हुआ हूं पर चूंकि अन्ना आंदोलन के बाद कोई भी संविधान पर भाषण दे सकता है तो मैं भी साहित्य बांच सकता हूं। उपरोक्त लिखित पंक्तियों को मैंने ज़ोर ज़ोर से पढ़ा था। आपसे भी अनुरोध है कि आप इसे देख-देख कर न पढ़ें बल्कि बोल-बोल कर पढ़ें। जे बा से की)
( महमूद फ़ारूक़ी के घर में श्रीलाल शुक्ल को याद किया गया। बकरीद की पूर्व संध्या पर। वहीं पर राग दरबारी का पाठ करने से पहले यह प्रस्तावना मेरे द्वारा रचित और पठित की गई। विनीत का कहना था कि इसे पोस्ट कर दिया जाए। हालांकि मैं कहीं से भी श्रीलाल शुक्ल पर बोलने के लिए अधिकारी नियुक्त नहीं हुआ हूं पर चूंकि अन्ना आंदोलन के बाद कोई भी संविधान पर भाषण दे सकता है तो मैं भी साहित्य बांच सकता हूं। उपरोक्त लिखित पंक्तियों को मैंने ज़ोर ज़ोर से पढ़ा था। आपसे भी अनुरोध है कि आप इसे देख-देख कर न पढ़ें बल्कि बोल-बोल कर पढ़ें। जे बा से की)
क्या आपने सेमेस्टर के बारे में सोचा है?
सेंट स्टीफेंस के गणित के प्रोफेसरों ने प्रिंसिपल को खत लिखा है कि पहले सेमेस्टर की पढ़ाई खत्म होने के तीन दिनों बाद टर्मिनल इम्तहान हैं लिहाज़ा तैयारी का वक्त नहीं। खत में लिखा है कि बच्चे रो रहे थे। इतने विशालकाय कोर्स की तैयारी तीन दिनों में नहीं हो सकती। मास्टरों ने यह भी लिखा है कि गणित का कोर्स बड़ा है। सेमेस्टर के हिसाब से टारगेट टाइम दिया गया हैं वो काफी नहीं हैं। तमाम छुट्टियों के कारण शनिवार और रविवार को क्लास लेने पड़े फिर भी कोर्स पूरा नहीं हुआ। यह पूरा सेमेस्टरवाद टीचर और छात्र के लिए सज़ा की तरह हो गया है। हमारी तरफ से फीडबैक यह है कि यह सिस्टम पूरी तरह खरा नहीं प्रतीत होता है। टीचर चाहते हैं कि सर्दी की छुट्टी में से कुछ काट लें और तब इम्तहान करा लें, बीच का समय बच्चों को तैयारी के लिए मिले। प्रिंसिपल ने यह चिट्ठी वीसी को भेज दी है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में जब सेमेस्टर थोपा जा रहा था तब छात्र उदासीन रहे। कुछ छात्रों ने टीचरों का साथ तो दिया मगर बाकी को बड़ा मुद्दा नहीं लगा। सब कुछ नया कर देने के नाम पर सेमेस्टर भले ही अच्छा लगे मगर दुनिया के कई बड़े संस्थानों ने इसे नकारा है। कई जगहों पर सेमेस्टर सिस्टम वापस भी लिया गया है। इसके बाद भी शिक्षक छात्रों की पीड़ा समझ रहे हैं। ज़रूरी है कि शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर छात्र ज़्यादा सक्रिय हों। सेमेस्टर एक फटीचर नीति है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में जब सेमेस्टर थोपा जा रहा था तब छात्र उदासीन रहे। कुछ छात्रों ने टीचरों का साथ तो दिया मगर बाकी को बड़ा मुद्दा नहीं लगा। सब कुछ नया कर देने के नाम पर सेमेस्टर भले ही अच्छा लगे मगर दुनिया के कई बड़े संस्थानों ने इसे नकारा है। कई जगहों पर सेमेस्टर सिस्टम वापस भी लिया गया है। इसके बाद भी शिक्षक छात्रों की पीड़ा समझ रहे हैं। ज़रूरी है कि शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर छात्र ज़्यादा सक्रिय हों। सेमेस्टर एक फटीचर नीति है।
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