दोनों लड़कियों ने खुद को एक दूसरे से जकड़ लिया और हवा में हाथ उठाकर कैमरे के क्लिक होने का इंतज़ार करती रहीं। दोस्तों ने क्लिक किया और फिर कैमरा लड़कियों के हाथ में और लड़कों के हाथ इंकलाब की मुद्रा में लहराते हुए। रामलीला मैदान से लौटते दोस्तों की टोलियों में एक आंदोलन से लौटने का इतना उत्साह कभी नहीं देखा। भले ही ये तस्वीरें उनके लिए सर्टिफिकेट कोर्स की तरह प्रमाण बन जायेंगी लेकिन 74 साल के एक बूढ़े के प्रति नौजवानों का उत्साह और समर्थन सिर्फ तस्वीरें खींचाने तक ही सीमित नहीं था। वर्ना वो कई महीनों और कई दिनों तक अण्णा आंदोलन से जुड़े नहीं रहते।
अब एक दूसरी तस्वीर देखिये। 2009 का लोकसभा चुनाव। पंद्रहवी लोकसभा को अब तक का सबसे युवा लोकसभा करार दिया जाता है। हिन्दुस्तान की आबादी के तरुण होने की कितनी बातें लिखी जाती हैं,बोली जाती हैं। पत्रिकाओं के कवर में उच्चवर्गीय राजनीतिक परिवारों के वारिस सांसद बन कर युवाओं के भावी प्रतिनिधि के रूप में चमकने लगते हैं। अंग्रेज़ी के एक अखबार में तो नियमित कालम ही शुरू हो जाता है कि युवा सांसदों की दिनचर्या कैसे बीत रही है। कई पत्रिकाओं में उनके फैशन,शौक और गुड लुकिंग का राज पूछा और लिखा जाने लगता है। 66 सांसद ऐसे चुन कर आते हैं जिनकी उम्र 25 से 40 साल के बीच है। 41-50 साल के बीच की उम्र के सांसदों की संख्या १५० हो जाती है और लोकसभा के सांसदों की औसत उम्र 54.5 साल हो जाती है। मीडिया इन युवा सांसदों को चमक दमक के चश्में से देखने लगा।
लेकिन रामलीला मैदान से लेकर देश के तमाम शहरों और गांवों में क्या हुआ? छह महीने तक चले इस आंदोलन में कोई युवा सांसद नज़र नहीं आया। इन युवा सांसदों के आने से जिस राजनीति को नया और तरोताजा बताया जाने लगा वो पहली रोटी की तरह छिप कर कैसरोल के डिब्बे में बासी होने लगे। इनमें से किसी युवा सांसद ने अण्णा हज़ारे के पीछे जुटे युवाओं से संवाद कायम करने की कोशिश नहीं की। मेरे एक मित्र ने दक्षिण दिल्ली के कमला नेहरू कालेज से गुज़रते वक्त बड़ी संख्या में लड़कियों का एक वीडियो बनाया। जिसमें ये लड़कियां चिल्ला रही थीं कि कहां हैं राहुल गांधी। वो अब अपने युवा राहुल गांधी को खोज रही थीं जिनके स्टीवंस कालेज में जाने पर लड़कियों ने आई लव यू राहुल गांधी कहा था। राहुल गांधी भले ही पारिवारिक कारणों से चुप रह गए हों मगर तमाम युवा सांसदों को चुप्पी ने बता दिया कि सांसदों के युवा होने से राजनीति में साहस का नया संचार नहीं हो जाता। युवा सांसद तभी आगे आए जब राहुल गांधी लोकसभा में आकर बोल गए। उसके बाद टीवी चैनलों पर बोलने के लिए कांग्रेस के युवा सांसदों की भरमार हो गई। यानी राजनीति में कुछ नहीं बदला। जब सबको पार्टी लाइन पर ही चलना है तो सांसद के युवा या बुजुर्ग होने से क्या फर्क पड़ता है। एक तरह से देखें तो युवा सांसदों और नेताओं ने युवाओं की इस बेचैनी की आवाज़ बनने से इंकार कर दिया।
उधर अण्णा हज़ारे के पीछे जमा युवाओं की भीड़ को समझने में जानकारों ने भी चूक कर दी। फेसबुक,ट्विटर और मोबाइल से लैस ये युवा उस भारत के नागरिक हैं जो इनके बीच खुद की मार्केटिंग विश्व शक्ति के रूप में करता रहा है। इन युवाओं के जीवन की रफ्तार और धीरज की गति में काफी फर्क है। वो प्रायोजित तरीके से विश्व शक्ति के रूप में प्रचारित किये जा रहे भारत की जड़ता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। वो जीवन के कई क्षेत्रों मे दीवारें गिरा रहे हैं। राजीनीति की दीवार उनके लिए बाद में आकर खड़ी हुई है। जब सामने आई तो युवाओं ने चुनौती दी। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में भी युवा आगे आए। इन युवाओं ने मीडिया और समाज की बनी बनाई छवि को तोड़ दिया। बड़ी संख्या में लड़के और लड़कियों ने घरों से निकल कर यह साबित कर दिया कि वो सिर्फ अपनी ज़िंदगी में ही नहीं जी रहे थे। जिन युवाओं के लिए हकीकत से काट कर फिल्में तक बनने लगीं, उन युवाओं ने देश की कुछ हकीकत से लड़ने का फैसला किया।
इसीलिए रामलीला ग्राउंड से लेकर तमाम जगहों पर हर धर्म और हर जाति के युवाओं की तादाद दिखी। उनकी एक राजनीतिक ट्रेनिंग का माहौल बना। यह सवाल भी उठा कि क्या यह सवर्णवादी युवा है जो देश की विषमता को नहीं समझता और आरक्षण का विरोध करता है। क्या यह वो युवा है जो सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा प्रायोजित आंदोलन में बिना किसी राजनीतिक समझ के उतर गया है? लोग यह भूल गए कि यह वही युवा है जिसने २००४ और २००९ में दो बार सांप्रदायिक शक्तियों को खारिज किया है। यह वो युवा है जो राजनीति के बनाए इन पूर्वाग्रहों को समझने लगा है मगर पूरी तरह से समझ रहा है इसके प्रमाण और ढूंढे जाने बाकी है। आखिर भ्रष्टाचार के विरोध में नारे लगाते लगाते भले ही कुछ लोगों ने आरक्षण के विरोध का नारा लगाया वो अन्य जातियों में पर्याप्त रूप से शंका पैदा कर सकता है। लेकिन इसके बाद भी इस आंदोलन में जाति और धर्म के हिसाब से युवाओं की विविधता की भागीदारी उल्लेखनीय रही। न सिर्फ भागीदारी के स्तर पर बल्कि आंदोलन को तैयार करने और जारी रखने के स्तर पर। इसके लिए इन युवाओं ने किसी फैशनपरस्त और गुडलुकिंग युवा सांसद को भ्रष्टाचार की लड़ाई का प्रतीक नहीं बनाया। बल्कि अपने घर के पिछवाड़े में धकेल दिये गए बुज़ुर्गों में से एक को ढूंढ लाए और उनमें उन्हीं नैतिक मान्यताओं की खोज की जो हमारी राजनीति का आधार रहे हैं। १९७४ में भी युवाओं ने जयप्रकाश नारायण को खोजा था। वो ढूंढ लाए थे पटना में बीमारी से लड़ रहे जयप्रकाश नारायण को। इस बार ढूंढ लाए रालेगण सिद्धी गांव में बैठे अण्णा हज़ारे को।
लेकिन सवाल यहां एक और है जिसपर आंदोलन से लौट कर युवाओं को सोचना होगा। भाषण और नारेबाज़ी के बीच के फर्क का। बेचैनियों को आवाज़ देने के उतावलेपन में सहनशीलता को छोड़ देने के ख़तरे का। सांप्रदायिकता के प्रति सचेत रहने का होश गंवा देने के खतरा का। एक आंदोलन तभी कामयाब माना जाता है जब ऐसी आशंकाएं हाशिये पर ही खत्म हो जाएं,मुख्यधारा में न आएं। वसीम बरेलवी का एक शेर है। उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है,जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है, नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये,कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है। युवाओं की भागीदारी ने राजनीति को समृद्ध बनाया है मगर इस डर को उन्हें ही ग़लत साबित करना होगा कि उनकी भागीदारी से चलने वाले आंदोलन आगे किसी मोड़ पर संकुचित नहीं होंगे।
(आज के राजस्थान पत्रिका में छपा है)
आंदोलन चालू आहे
क्या आप भी अण्णा के आंदोलन का समर्थन करते-करते कई तरह के सवाल करने लगते हैं, या विरोध करते-करते तमाम सवालों की खोज करने लगते हैं। अगर ऐसा है तो आप उन लोगों में से हैं जिनकी बौद्धिकता को इस आंदोलन ने हिला कर रख दिया है। पांच अप्रैल को जबसे अण्णा का अनशन शुरू हुआ है तब से इस आंदोलन के तमाम पक्षों पर लगातार लिखा और बोला जा रहा है। देश की समस्याओं से जुड़े तमाम सवाल इस आंदोलन में ठेले जा रहे हैं जो कि चिन्ता के कई स्तरों पर जायज़ भी हैं। संभावनाओं की खोज करने वाली तमाम दलीलों को देखें तो आप उत्साहित हो जायेंगे। अकेले दैनिक भास्कर में ही अण्णा के आंदोलन पर छपे तमाम लेखों की एक किताब छाप दी जाए तो कई सौ पन्नों की हो जाएगी।
मेरी नज़र में अण्णा के आंदोलन का यह सबसे बड़ा योगदान है। लोग हर सवाल पर बहस कर रहे हैं।मेरे टीवी शो में दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने कह दिया कि इस आंदोलन में दलित नहीं हैं। सवर्णवादी आंदोलन है। प्राइम टाइम से बाहर आते ही तमाम दलित अफसरों के फोन आने लगे और कहने लगे कि चंद्रभान हमें मुख्यधारा से अलग करने की कोशिश कर रहे हैं। चंद्रभान अपनी बात पर डटे रहे। मशहूर विद्वान आशीष नंदी ने तड़ से कहा कि मध्यमवर्ग का चरित्र बदल गया है। यह वो सत्तर के दशक वाला मध्यमवर्ग नहीं है जिसमें नब्बे फीसदी सवर्ण थे। आज के मध्यमवर्ग में पचास फीसदी दूसरी जाति समाज के भी लोग हैं। फिर यह सवाल उठा कि इसमें मुसलमान नहीं हैं। रविवार को जब दिल्ली के सीलमपुर और शाहदरा इलाके से गुज़र रहा था तब एक-एक गाड़ी में कई मुस्लिम युवा भरे हुए थे और हाथों में तिरंगा लेकर रामलीला की तरफ रवाना हो रहे थे। आयोजकों से बात की कि क्या आपके यहां दलित और मुस्लिम युवा सक्रिय नहीं हैं तो उन्होंने कई लोगों को सामने कर दिया। संतोष एक दलित लड़की थी जो छत्रसाल स्टेडियम में टीम अण्णा की तरफ से मोर्चा संभाले हुए थी। उसे बड़ा दुख हुआ कि दलित की पहचान कर सवाल किया गया। उसने कहा कि कई दलित युवा इस आंदोलन में शामिल हैं। फिर भी चंद्रभान के इस सवाल के साहस को मानना होगा जिसने इस आंदोलन को संविधान बदलने या लिखने की कोशिश में देखा और दलित राजनीति से जुड़े सवालों के संदर्भ में।
लेकिन क्या यह बेचैनी इसलिए भी नहीं कि इसके मंच पर दलित या मुस्लिम राजनीति के नेतृत्व के जाने-पहचाने चेहरे नहीं हैं। नेताओं के वो जाने-पहचाने समर्थक नहीं हैं जो उनके एक इशारे पर भारत की धार्मिक विभिन्नता का प्रदर्शन करते हुए मंच पर आ जाते थे। जैसे ही इस सवाल से गुज़र रहा था तो अंग्रेजी के अख़बार के एक ख़बर पर नज़र गई कि आधी रात के बाद रामलीला मैदान में आरक्षण विरोधी नारे भी लग रहे थे। संघ के समर्थन की ख़बरें छप रही हैं। जबकि अण्णा कह रहे हैं कि एक पार्टी जायेगी तो जो दूसरी आएगी वो भी भ्रष्टाचार में पीएचडी होगी। इसके बाद भी ऐसे तत्वों का आंदोलन में घुसना पुराने सवालों की गुज़ाइश की जगह बना ही देता है। वैसे आप देश भर से आ रही तस्वीरों को देखें तो उसमें काफी विविधता है। शायद इसीलिए हमें इस आंदोलन पर तुरंत किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले तमाम सवालों और संभावनाओं के साथ लगातार नज़र रखनी चाहिए।
मध्यमवर्ग की बुनावट पर बहस होते होते इसके गांधीवादी चरित्र पर बात पहुंचती है तो आज़ादी के आंदोलन से जुड़े बहुत सारे किस्से और आख्यान मुख्यधारा की मीडिया से होते हुए जनमानस में पहुंचने लगते हैं। गांधी टोपी कैसे अण्णा टोपी का रूप धर कर यह बता रही है कि आज के समय में गांधी के प्रतीकों का नवीनीकरण भी हो सकता है। कुछ साल पहले आई जब फिल्म मुन्ना भाई आई तो उसके आस-पास के समय में मुन्ना भाई की गांधीगीरी को लोगों ने अपना लिया था। अब वे अण्णा की गांधीगीरी अपना रहे हैं। गांधी अब सिर्फ खादी वालों की बपौती नहीं हैं। रैली में आए लाखों लोगों ने अहिंसक तरीका अपना कर साबित कर दिया। लेकिन इस अहिंसा में अनशन की ज़िद पर जो सवाल खड़े हो रहे हैं वो भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। आजकल के अखबारों में आप देखिये। अनशन की ज़िद पर खूब लेख मिलेंगे। ये लोग तब नहीं लिख रहे थे जब सरकार नौ अप्रैल के बाद बनी ड्राफ्ट कमेटी की बैठकों में इस टीम की साख को कमतर करने में जुटी थी। जब सत्ता अपने अहंकार में टीम अण्णा को पांच लोगों की टीम समझ रही थी। कहां तो सरकार इस पूरे मामलों को लोकतांत्रिक बनाती और विपक्ष सहित अरुणा रॉय के लोकपाल ड्राफ्ट को भी केंद्र में ले आती। लेकिन उनकी टीम के सदस्य निखिल डे ने बताया कि ड्राफ्ट कमेटी को लिखने के बाद भी बुलावा नहीं आया। तब सरकार को सहनशीलता के पाठ पढ़ाने वाले लेख नहीं लिखे जा रहे थे। फिर भी यह सवाल वाजिब है कि इस तरह की ज़िद पर अड़ा आंदोलन आगे आने वाले समय में किस तरह की राजनीति की बुनियाद रखने वाला है।
इसमें एक दिलचस्प बात यह भी है कि इसमें बड़ी संख्या में सरकारी अफसरों को उद्वेलित कर दिया है। वो भी भ्रष्टाचार के सवाल से टकरा रहे हैं। नेताओं की ही नहीं अफसरों की भी साख दांव पर हैं। ऐसा माहौल बना है जिसमें उन्हें वाकई सार्वजनिक या पारिवारिक जीवन में जाने पर सवालों का सामना करना पड़ता होगा। कई अफसर एसएमएस कर रहे हैं कि उस भ्रष्टाचार का क्या होगा जो पैंतीस करोड़ की कोठियों में रहता है मगर एक्साईज़ से लेकर इंकम टैक्स नहीं देता। क्या हम सभी चोर हैं? इसीलिए लगता है कि यह आंदोलन सामाजिक जीवन में भी भ्रष्ट लोगों के प्रति सहनशीलता को काफी कम करेगा। दीर्घकालिक रूप से न सही मगर अस्थायी कमी भी एक सकारात्मक माहौल तो पैदा करेगे ही। वर्ना मैंने भी देखा है कि मिडिल क्लास के लोग आराम से भ्रष्ट अफसर रिश्तेदारों की महंगी शादियों में शिरकत करते हैं।
जिस समाज को हम उदारीकरण के जश्न भरे माहौल में व्यक्तिवादी का तमगा पहनाकर लानतें भेज चुके थें, वो अचानक कैसे सामूहिक हो गई है। उसे क्यों यह सपना आ रहा है कि भारत को कैसा होना चाहिए। जो उदारीकरण की संताने भारत महान के झंडे को लेकर विदेशों में गईं हैं वो भी भारत महान की इस सबसे बड़ी बीमारी के खिलाफ सड़कों पर उतरी है। वही लोग जो कल तक यह कहा करते थे कि मीडिया में नकारात्मक ख़बरें दिखाने से विदेशों में भारत की छवि ख़राब होती है,आज वही लोग विदेशों में अण्णा के समर्थन में झंडा लेकर निकले हैं।
हम किसी आंदोलन को मिडिल क्लास बताकर खारिज नहीं कर सकते। हाल के दिनों में मुख्य राजनीतिक दलों के बड़े नेता कार्यकर्ता ढूंढ रहे थे। नए कार्यकर्ताओं की खोज में उनका लंबा वक्त भी गुज़रा है। आखिर ये कौन लोग हैं जो बिना किसी एक राजनीतिक नेतृत्व के इतने बड़े आंदोलन को संचालित कर रहे हैं। जब भी मिडिल क्लास का जनउभार सामने आया है यही कहा गया है कि यह भीड़ आज आई है, कल खो जाएगी। मुंबई धमाके के बाद लाखों लोगों की भीड़ आतंक के खिलाफ उमड़ पड़ी थी। वो गुम हो गई। उससे पहले दिल्ली के इंडिया गेट पर ऐसी ही कई भीड़ आकर चली गई। मगर यह समझना चाहिए कि ये वो भीड़ है जो बार-बार आ रही है। अप्रैल में भी आई थी और अगस्त में भी आ रही है। सिर्फ इस बात से निश्चिंत होने की ज़रूरत नहीं कि ये लोग जल्दी लौट कर गुम हो जाएंगे। तब क्या करेंगे जब फिर आ जाएंगे।
(इसका संपादित अंश आज दैनिक भास्कर में छपा है, भास्कर से साभार)
मेरी नज़र में अण्णा के आंदोलन का यह सबसे बड़ा योगदान है। लोग हर सवाल पर बहस कर रहे हैं।मेरे टीवी शो में दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने कह दिया कि इस आंदोलन में दलित नहीं हैं। सवर्णवादी आंदोलन है। प्राइम टाइम से बाहर आते ही तमाम दलित अफसरों के फोन आने लगे और कहने लगे कि चंद्रभान हमें मुख्यधारा से अलग करने की कोशिश कर रहे हैं। चंद्रभान अपनी बात पर डटे रहे। मशहूर विद्वान आशीष नंदी ने तड़ से कहा कि मध्यमवर्ग का चरित्र बदल गया है। यह वो सत्तर के दशक वाला मध्यमवर्ग नहीं है जिसमें नब्बे फीसदी सवर्ण थे। आज के मध्यमवर्ग में पचास फीसदी दूसरी जाति समाज के भी लोग हैं। फिर यह सवाल उठा कि इसमें मुसलमान नहीं हैं। रविवार को जब दिल्ली के सीलमपुर और शाहदरा इलाके से गुज़र रहा था तब एक-एक गाड़ी में कई मुस्लिम युवा भरे हुए थे और हाथों में तिरंगा लेकर रामलीला की तरफ रवाना हो रहे थे। आयोजकों से बात की कि क्या आपके यहां दलित और मुस्लिम युवा सक्रिय नहीं हैं तो उन्होंने कई लोगों को सामने कर दिया। संतोष एक दलित लड़की थी जो छत्रसाल स्टेडियम में टीम अण्णा की तरफ से मोर्चा संभाले हुए थी। उसे बड़ा दुख हुआ कि दलित की पहचान कर सवाल किया गया। उसने कहा कि कई दलित युवा इस आंदोलन में शामिल हैं। फिर भी चंद्रभान के इस सवाल के साहस को मानना होगा जिसने इस आंदोलन को संविधान बदलने या लिखने की कोशिश में देखा और दलित राजनीति से जुड़े सवालों के संदर्भ में।
लेकिन क्या यह बेचैनी इसलिए भी नहीं कि इसके मंच पर दलित या मुस्लिम राजनीति के नेतृत्व के जाने-पहचाने चेहरे नहीं हैं। नेताओं के वो जाने-पहचाने समर्थक नहीं हैं जो उनके एक इशारे पर भारत की धार्मिक विभिन्नता का प्रदर्शन करते हुए मंच पर आ जाते थे। जैसे ही इस सवाल से गुज़र रहा था तो अंग्रेजी के अख़बार के एक ख़बर पर नज़र गई कि आधी रात के बाद रामलीला मैदान में आरक्षण विरोधी नारे भी लग रहे थे। संघ के समर्थन की ख़बरें छप रही हैं। जबकि अण्णा कह रहे हैं कि एक पार्टी जायेगी तो जो दूसरी आएगी वो भी भ्रष्टाचार में पीएचडी होगी। इसके बाद भी ऐसे तत्वों का आंदोलन में घुसना पुराने सवालों की गुज़ाइश की जगह बना ही देता है। वैसे आप देश भर से आ रही तस्वीरों को देखें तो उसमें काफी विविधता है। शायद इसीलिए हमें इस आंदोलन पर तुरंत किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले तमाम सवालों और संभावनाओं के साथ लगातार नज़र रखनी चाहिए।
मध्यमवर्ग की बुनावट पर बहस होते होते इसके गांधीवादी चरित्र पर बात पहुंचती है तो आज़ादी के आंदोलन से जुड़े बहुत सारे किस्से और आख्यान मुख्यधारा की मीडिया से होते हुए जनमानस में पहुंचने लगते हैं। गांधी टोपी कैसे अण्णा टोपी का रूप धर कर यह बता रही है कि आज के समय में गांधी के प्रतीकों का नवीनीकरण भी हो सकता है। कुछ साल पहले आई जब फिल्म मुन्ना भाई आई तो उसके आस-पास के समय में मुन्ना भाई की गांधीगीरी को लोगों ने अपना लिया था। अब वे अण्णा की गांधीगीरी अपना रहे हैं। गांधी अब सिर्फ खादी वालों की बपौती नहीं हैं। रैली में आए लाखों लोगों ने अहिंसक तरीका अपना कर साबित कर दिया। लेकिन इस अहिंसा में अनशन की ज़िद पर जो सवाल खड़े हो रहे हैं वो भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। आजकल के अखबारों में आप देखिये। अनशन की ज़िद पर खूब लेख मिलेंगे। ये लोग तब नहीं लिख रहे थे जब सरकार नौ अप्रैल के बाद बनी ड्राफ्ट कमेटी की बैठकों में इस टीम की साख को कमतर करने में जुटी थी। जब सत्ता अपने अहंकार में टीम अण्णा को पांच लोगों की टीम समझ रही थी। कहां तो सरकार इस पूरे मामलों को लोकतांत्रिक बनाती और विपक्ष सहित अरुणा रॉय के लोकपाल ड्राफ्ट को भी केंद्र में ले आती। लेकिन उनकी टीम के सदस्य निखिल डे ने बताया कि ड्राफ्ट कमेटी को लिखने के बाद भी बुलावा नहीं आया। तब सरकार को सहनशीलता के पाठ पढ़ाने वाले लेख नहीं लिखे जा रहे थे। फिर भी यह सवाल वाजिब है कि इस तरह की ज़िद पर अड़ा आंदोलन आगे आने वाले समय में किस तरह की राजनीति की बुनियाद रखने वाला है।
इसमें एक दिलचस्प बात यह भी है कि इसमें बड़ी संख्या में सरकारी अफसरों को उद्वेलित कर दिया है। वो भी भ्रष्टाचार के सवाल से टकरा रहे हैं। नेताओं की ही नहीं अफसरों की भी साख दांव पर हैं। ऐसा माहौल बना है जिसमें उन्हें वाकई सार्वजनिक या पारिवारिक जीवन में जाने पर सवालों का सामना करना पड़ता होगा। कई अफसर एसएमएस कर रहे हैं कि उस भ्रष्टाचार का क्या होगा जो पैंतीस करोड़ की कोठियों में रहता है मगर एक्साईज़ से लेकर इंकम टैक्स नहीं देता। क्या हम सभी चोर हैं? इसीलिए लगता है कि यह आंदोलन सामाजिक जीवन में भी भ्रष्ट लोगों के प्रति सहनशीलता को काफी कम करेगा। दीर्घकालिक रूप से न सही मगर अस्थायी कमी भी एक सकारात्मक माहौल तो पैदा करेगे ही। वर्ना मैंने भी देखा है कि मिडिल क्लास के लोग आराम से भ्रष्ट अफसर रिश्तेदारों की महंगी शादियों में शिरकत करते हैं।
जिस समाज को हम उदारीकरण के जश्न भरे माहौल में व्यक्तिवादी का तमगा पहनाकर लानतें भेज चुके थें, वो अचानक कैसे सामूहिक हो गई है। उसे क्यों यह सपना आ रहा है कि भारत को कैसा होना चाहिए। जो उदारीकरण की संताने भारत महान के झंडे को लेकर विदेशों में गईं हैं वो भी भारत महान की इस सबसे बड़ी बीमारी के खिलाफ सड़कों पर उतरी है। वही लोग जो कल तक यह कहा करते थे कि मीडिया में नकारात्मक ख़बरें दिखाने से विदेशों में भारत की छवि ख़राब होती है,आज वही लोग विदेशों में अण्णा के समर्थन में झंडा लेकर निकले हैं।
हम किसी आंदोलन को मिडिल क्लास बताकर खारिज नहीं कर सकते। हाल के दिनों में मुख्य राजनीतिक दलों के बड़े नेता कार्यकर्ता ढूंढ रहे थे। नए कार्यकर्ताओं की खोज में उनका लंबा वक्त भी गुज़रा है। आखिर ये कौन लोग हैं जो बिना किसी एक राजनीतिक नेतृत्व के इतने बड़े आंदोलन को संचालित कर रहे हैं। जब भी मिडिल क्लास का जनउभार सामने आया है यही कहा गया है कि यह भीड़ आज आई है, कल खो जाएगी। मुंबई धमाके के बाद लाखों लोगों की भीड़ आतंक के खिलाफ उमड़ पड़ी थी। वो गुम हो गई। उससे पहले दिल्ली के इंडिया गेट पर ऐसी ही कई भीड़ आकर चली गई। मगर यह समझना चाहिए कि ये वो भीड़ है जो बार-बार आ रही है। अप्रैल में भी आई थी और अगस्त में भी आ रही है। सिर्फ इस बात से निश्चिंत होने की ज़रूरत नहीं कि ये लोग जल्दी लौट कर गुम हो जाएंगे। तब क्या करेंगे जब फिर आ जाएंगे।
(इसका संपादित अंश आज दैनिक भास्कर में छपा है, भास्कर से साभार)
अण्णा पर फेसबुकी प्रतिक्रिया
1)आंदोलनों में भी वीकेंड की व्यवस्था होनी चाहिए। दो दिन का रेस्ट मिल जाता। आंदोलन लाइव काल में मुश्किल हो गया है। अण्णा आंदोलन ने महाआख्यान को जन्म दे दिया है। सरकार के अहंकार का चूर होना, मिडिल क्लास की व्यापकता,इसके भीतर तबकों की भागीदारी पर सवाल, संसदीय दादागीरी से आंदोलन की दादागीरी तक,संघ के हाईजैक कर लेने की आशंका, एंटी आरक्षण भीड़ की साज़िश आदि आदि। पूरा आंदोलन ही रामलीला ग्राउंड हो गया है। आप भी किसी भी गेट से अपने सवालों को लेकर प्रवेश कर जाइये। इसे डिबेट मूवमेंट भी कहा जाना चाहिए।
2)अण्णा के आंदोलन में प्रतिक्रियाओं की इतनी विविधता है कि पता ही नहीं चलता कि थ्योरी कहां गई। मैं कोई संपूर्ण तो हूं नहीं। विषयांतर बहुत हुआ इसलिए मुझे भी लगा कि जमा नहीं आज मामला। रही बात चंद्रभान के सवाल की तो सुनना चाहिए।उनका काट तो था शो में। वो साहसिक व्यक्ति हैं। इसी शो में आरक्षण पर बैन की मांग का विरोध कर गए। कहा कि दलित संगठन कमज़ोर हैं। किसी आंदोलन का आत्मविश्वास बताता है कि वो हर सवाल से सामना करने के लिए तैयार है। जो लोग बीच में चैनल बदल गए मेरा नुकसान कर गए। टीआरपी लॉस।
3)आपकी प्रतिक्रियाओं से मेरी राय बदल रही है। प्राइम टाइम इतना भी बुरा नहीं था। कई सवाल मिल गए आपको शो के बाद बहस करने के लिए। वैसे भी समाधान देना मेरा काम नहीं है। सवाल खड़े हो जाएं वही बहुत है। दुखद समाचार यह है कि टीआरपी का क्या करें। क्या शो में वाकई ऐसी कमी है कि दर्शक बंध नहीं रहा। खुल कर बताइयेगा वर्ना अगले हफ्ते से प्रयोग बंद, फार्मूला चालू। नहीं ये मैं नहीं करूंगा। प्रयोग चालू रहेगा। गु़डनाइट।
4)अण्णा के आंदोलन की नियति पर सवाल कर सकते हैं मगर मुझे नहीं लगता कि इसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं है। शामिल होने वाले लोगों के लिहाज़ से और आयोजकों के समूह को देखने के लिहाज़ से। जो लोग सवाल कर रहे हैं वो किस आधार पर कह रहे हैं कि इसमें अमुक जाति के नहीं हैं और अमुक के ही हैं। यह एक जनआंदोलन है। अण्णा का भी नहीं रहा अब तो। यह लोगों का आंदोलन है। खिलाफ में बात कही जानी चाहिए मगर तथ्य तो हों पहले।
5)आशीष नंदी ने कहा कि मध्यमवर्ग को नए नज़रिये से देखने की ज़रूरत है। नब्बे के दशक के पहले के मध्यमवर्ग में नब्बे फीसदी सवर्ण थे। अब मध्यमवर्ग का ढांचा बदला है। इसमें पचास फीसदी अभी भी सवर्ण हैं लेकिन बाकी के पचास में दलित भी हैं। और भी तबके हैं। आदिवासी नहीं हैं। और यह एक शानदार आंदोलन है जिसने सत्ता के अहंकार को बेजोड़ चुनौती दी है।
6)शो के दौरान और बाद में कई दलित अधिकारियों के फोन आने लगे। कहने लगे कि दलित नहीं है इस आंदोलन में ऐसा न कहें। ऐसा कहकर आप हमें अलग-थलग कह रहे हैं। दफ्तर का फोन जाम हो गया। मुझे इस बात की गाली पड़ रही है कि दलित नहीं है ये सवाल महत्वपूर्ण नहीं है। वो हैं। गढ़वाल से एक एक्ज़िक्यूटिव इंजीनियर का फोन आया। कहा कि मैं दलित हूं। रोज़ शाम को मोमबत्ती लेकर निकलता हूं। लेबर विभाग के एक अफसर का फोन आ गया। कहा कि ये सवाल हम दलितों को मुख्यधारा से अलग कर रहा है।
7)दलित जनमत के भीतर की विविधता को नज़रअंदाज़ करना ख़तरनाक है। वो दलित नहीं है। वो दलितों के रूप में हैं। शो में जब यह सवाल उठा कि दलित नहीं हैं इस मिडिल क्लास मूवमेंट में तो टीम अण्णा की एक पुरानी सदस्य संतोष ने कहा कि वे ही छत्रसाल स्टेडियम में सब संभाल रही हैं। उनके साथ बहुत दलित लड़के लड़कियां हैं। आयोजकों में कई मुस्लिम युवा हैं। अण्णा आंदोलन की नुमाइंदगी की आलोचना तथ्यों पर हो। डिब्बावाला संघ ने बताया कि उनके संगठन में सभी जाति के हैं। वो अण्णा का समर्थन कर रहे हैं।
8)मध्यमवर्ग-जब वो सो रहा था तब गाली सुन रहा था, जब जागता है तब गाली सुनता है। पाश ठीक कहते थे बीच का कोई रास्ता नहीं होता। बीच का कोई वर्ग नहीं होता। मध्यमवर्ग को नामकरण दूसरा कर लेना चाहिए। इस आंदोलन की सबसे बड़ी खूबी है कि अप्रैल से अगस्त हो गया इसके भीतर इतने एंगल हैं कि आप कई सवालों और कई संभावनाओं के साथ इसे देख सकते हैं। लेकिन सिविल सोसायटी का हिन्दी नामकरण कैसा है। नागरिक जमात या नागरिक तबका। ये दोनों नाम जनसत्ता के संपादक ओम थाणवी ने सुझाये हैं। आप क्या पसंद करते हैं।
2)अण्णा के आंदोलन में प्रतिक्रियाओं की इतनी विविधता है कि पता ही नहीं चलता कि थ्योरी कहां गई। मैं कोई संपूर्ण तो हूं नहीं। विषयांतर बहुत हुआ इसलिए मुझे भी लगा कि जमा नहीं आज मामला। रही बात चंद्रभान के सवाल की तो सुनना चाहिए।उनका काट तो था शो में। वो साहसिक व्यक्ति हैं। इसी शो में आरक्षण पर बैन की मांग का विरोध कर गए। कहा कि दलित संगठन कमज़ोर हैं। किसी आंदोलन का आत्मविश्वास बताता है कि वो हर सवाल से सामना करने के लिए तैयार है। जो लोग बीच में चैनल बदल गए मेरा नुकसान कर गए। टीआरपी लॉस।
3)आपकी प्रतिक्रियाओं से मेरी राय बदल रही है। प्राइम टाइम इतना भी बुरा नहीं था। कई सवाल मिल गए आपको शो के बाद बहस करने के लिए। वैसे भी समाधान देना मेरा काम नहीं है। सवाल खड़े हो जाएं वही बहुत है। दुखद समाचार यह है कि टीआरपी का क्या करें। क्या शो में वाकई ऐसी कमी है कि दर्शक बंध नहीं रहा। खुल कर बताइयेगा वर्ना अगले हफ्ते से प्रयोग बंद, फार्मूला चालू। नहीं ये मैं नहीं करूंगा। प्रयोग चालू रहेगा। गु़डनाइट।
4)अण्णा के आंदोलन की नियति पर सवाल कर सकते हैं मगर मुझे नहीं लगता कि इसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं है। शामिल होने वाले लोगों के लिहाज़ से और आयोजकों के समूह को देखने के लिहाज़ से। जो लोग सवाल कर रहे हैं वो किस आधार पर कह रहे हैं कि इसमें अमुक जाति के नहीं हैं और अमुक के ही हैं। यह एक जनआंदोलन है। अण्णा का भी नहीं रहा अब तो। यह लोगों का आंदोलन है। खिलाफ में बात कही जानी चाहिए मगर तथ्य तो हों पहले।
5)आशीष नंदी ने कहा कि मध्यमवर्ग को नए नज़रिये से देखने की ज़रूरत है। नब्बे के दशक के पहले के मध्यमवर्ग में नब्बे फीसदी सवर्ण थे। अब मध्यमवर्ग का ढांचा बदला है। इसमें पचास फीसदी अभी भी सवर्ण हैं लेकिन बाकी के पचास में दलित भी हैं। और भी तबके हैं। आदिवासी नहीं हैं। और यह एक शानदार आंदोलन है जिसने सत्ता के अहंकार को बेजोड़ चुनौती दी है।
6)शो के दौरान और बाद में कई दलित अधिकारियों के फोन आने लगे। कहने लगे कि दलित नहीं है इस आंदोलन में ऐसा न कहें। ऐसा कहकर आप हमें अलग-थलग कह रहे हैं। दफ्तर का फोन जाम हो गया। मुझे इस बात की गाली पड़ रही है कि दलित नहीं है ये सवाल महत्वपूर्ण नहीं है। वो हैं। गढ़वाल से एक एक्ज़िक्यूटिव इंजीनियर का फोन आया। कहा कि मैं दलित हूं। रोज़ शाम को मोमबत्ती लेकर निकलता हूं। लेबर विभाग के एक अफसर का फोन आ गया। कहा कि ये सवाल हम दलितों को मुख्यधारा से अलग कर रहा है।
7)दलित जनमत के भीतर की विविधता को नज़रअंदाज़ करना ख़तरनाक है। वो दलित नहीं है। वो दलितों के रूप में हैं। शो में जब यह सवाल उठा कि दलित नहीं हैं इस मिडिल क्लास मूवमेंट में तो टीम अण्णा की एक पुरानी सदस्य संतोष ने कहा कि वे ही छत्रसाल स्टेडियम में सब संभाल रही हैं। उनके साथ बहुत दलित लड़के लड़कियां हैं। आयोजकों में कई मुस्लिम युवा हैं। अण्णा आंदोलन की नुमाइंदगी की आलोचना तथ्यों पर हो। डिब्बावाला संघ ने बताया कि उनके संगठन में सभी जाति के हैं। वो अण्णा का समर्थन कर रहे हैं।
8)मध्यमवर्ग-जब वो सो रहा था तब गाली सुन रहा था, जब जागता है तब गाली सुनता है। पाश ठीक कहते थे बीच का कोई रास्ता नहीं होता। बीच का कोई वर्ग नहीं होता। मध्यमवर्ग को नामकरण दूसरा कर लेना चाहिए। इस आंदोलन की सबसे बड़ी खूबी है कि अप्रैल से अगस्त हो गया इसके भीतर इतने एंगल हैं कि आप कई सवालों और कई संभावनाओं के साथ इसे देख सकते हैं। लेकिन सिविल सोसायटी का हिन्दी नामकरण कैसा है। नागरिक जमात या नागरिक तबका। ये दोनों नाम जनसत्ता के संपादक ओम थाणवी ने सुझाये हैं। आप क्या पसंद करते हैं।
लघु प्रेम कथा
1)
मूंग धुली दाल की तरह चमकती दिल्ली और घने-हरे पेड़ों की मस्ती के नीचे लोधी गार्डन में उसने अपने कदम तेज़ कर लिये। बालों को समेट कर शर्मिला टैगोर मार्का जूड़ा बना लिया। साड़ी मुमताज़ जैसी। पीछा करती आवाज़ से बचने के लिए उसने तेज़ी से सड़क पार की और ख़ान मार्केट की दुकानों को निहारते चलने लगी। वो आवाज़ अब भी आ रही थी..हमीं जब न होंगे तो ऐ दिलरुबा..किसे देखकर हाय शर्माओगे...बदन पे सितारे...कहां जा रही हो,पांव ठिठक से गए, दुकान के शीशे पर प्रिंस की तस्वीर,उफ्फ शम्मी,विल मिस यू।(लप्रेक)
2)
अभी-अभी वो शहीद देखकर निकला था। गोलचा सिनेमा से बाहर आते ही डिवाइडर पर खड़े होकर भाषण देने लगा। लानत है यह जवानी जो मुल्क के काम न आए। तोड़ दो बेड़ियों को। वो घबरा गई। अचानक से तुम्हें क्या हो गया। फ़िल्म के असर में इंक़लाब की बातें न करो। अब इंकलाब की इजाज़त नहीं है देश में। कल ही एक मंत्री ने कहा है। मैंने तो पहले ही कहा था कि ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा देखते हैं। कभी-कभी तो इस मुल्क पर खुश होना सीखो जानम।( लप्रेक)
3)
अभी-अभी वो शहीद देखकर निकला था। गोलचा सिनेमा से बाहर आते ही डिवाइडर पर खड़े होकर भाषण देने लगा। लानत है यह जवानी जो मुल्क के काम न आए। तोड़ दो बेड़ियों को। वो घबरा गई। अचानक से तुम्हें क्या हो गया। फ़िल्म के असर में इंक़लाब की बातें न करो। अब इंकलाब की इजाज़त नहीं है देश में। कल ही एक मंत्री ने कहा है। मैंने तो पहले ही कहा था कि ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा देखते हैं। कभी-कभी तो इस मुल्क पर खुश होना सीखो जानम।( लप्रेक)
4)
मसूर की दाल तो मालवीय नगर में भी मिलती है। लेकिन मुझे शापिंग का अहसास होता ही है ख़ान मार्केट में। वहां मुझे कोई जानता नहीं बट सब अपने जैसे लगते हैं। डार्लिंग सवाल वहां की भीड़ का नहीं है। मसूर की दाल का है। ओफ्फो,तुम्हारा भी न,क्लास नहीं है। ये कार, गोगल्स, डियोड्रेंट तुमने ड्राइंग रूम के लिए ख़रीदे हैं क्या। मुझे जीने दो और जाने दो। और तुम क्यों जाते हो ओबेरॉय में कॉफी पीने? क्या पता ज़िंदगी मिले न दोबारा। फिल्म देखकर आए तो दोनों के झगड़े भी बदल गए।(लप्रेक)
5)
नहीं मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। गहरी नींद से अचानक वह जाग गया। क्या हुआ। बगल में जाग रही लाजवंती ने पूछा तो अलबलाने लगा। सपना देख रहा था। क्या? यही कि सीएजी में नाम आ गया है। लोकायुक्त की रिपोर्ट में भी नाम है। लोगों ने मुझे घेर लिया है। इस्तीफा मांग रहे हैं। हां तो ये कौन सा सपना है। जो दिन में देखते हो, वही रात में भी । छोड़ों रिपोर्टिंग। एंकर बन जाओ। सपने नहीं आएंगे। क्या पता तब तुम किसी सपने में टाई में लटके मिलो। न बाबा न। मेरे ख्याल से तुम सपने देखना ही छोड़ दो।( लप्रेक)
6)
दोनों परेशान थे। सीएजी की रिपोर्ट में बारापुला का नाम देखकर। बारापुला पर ही खड़े होकर दोनों ने हुमायूं के मकबरे की पीठ की तरफ अपना सीना कर कसमें खाईं थीं। हमेशा हमेशा के लिए बारापुला पर आकर उसे निहारने का वादा किया था। अखबार में ख़बर देख वो घबराई हुई थी। कहने लगी कि इस पुल के साथ हमारा प्यार भी दाग़दार हो गया है। हमें क्यों न मालूम चल सका कि जिस बारापुला पर खड़े होकर हम एक दूसरे का हाथ थामे रहे, उसकी बुनियाद किसी घोटाले में है। अल्लाह, ये इश्क़ का कौन सा इम्तहान है।( लप्रेक)
7)
चित्तरंजन पार्के के मार्केट वन में कतला पर तरसती उसकी निगाहें जब उठीं तो मछलियों की भीड़ से टैंगड़ा चुनती उसकी कलाई पर टिक गई। ताज़ी मछली को चुन लेना पारखी निगाहों का काम है। कतला छोड़ वो भी टैंगड़ा ढूंढने लगा। कलाइयां टकराने लगीं। बगल में बेसुध पड़ी पाबदा और रोहू का कटा बड़ा सा हिस्सा,ताज़ी मछली ले लो की चिचियाहट,निगाहें जब मिलती हैं तो सूखी ज़मीन पर मछलियों की तरह तड़पने-तैरने लगती हैं। तब तक तड़पती है जब तक कोई काट कर झट से उसे पीस में न बदल दे। (लप्रेक)
8)
मूंग धुली दाल की तरह चमकती दिल्ली और घने-हरे पेड़ों की मस्ती के नीचे लोधी गार्डन में उसने अपने कदम तेज़ कर लिये। बालों को समेट कर शर्मिला टैगोर मार्का जूड़ा बना लिया। साड़ी मुमताज़ जैसी। पीछा करती आवाज़ से बचने के लिए उसने तेज़ी से सड़क पार की और ख़ान मार्केट की दुकानों को निहारते चलने लगी। वो आवाज़ अब भी आ रही थी..हमीं जब न होंगे तो ऐ दिलरुबा..किसे देखकर हाय शर्माओगे...बदन पे सितारे...कहां जा रही हो,पांव ठिठक से गए, दुकान के शीशे पर प्रिंस की तस्वीर,उफ्फ शम्मी,विल मिस यू।(लप्रेक)
2)
अभी-अभी वो शहीद देखकर निकला था। गोलचा सिनेमा से बाहर आते ही डिवाइडर पर खड़े होकर भाषण देने लगा। लानत है यह जवानी जो मुल्क के काम न आए। तोड़ दो बेड़ियों को। वो घबरा गई। अचानक से तुम्हें क्या हो गया। फ़िल्म के असर में इंक़लाब की बातें न करो। अब इंकलाब की इजाज़त नहीं है देश में। कल ही एक मंत्री ने कहा है। मैंने तो पहले ही कहा था कि ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा देखते हैं। कभी-कभी तो इस मुल्क पर खुश होना सीखो जानम।( लप्रेक)
3)
अभी-अभी वो शहीद देखकर निकला था। गोलचा सिनेमा से बाहर आते ही डिवाइडर पर खड़े होकर भाषण देने लगा। लानत है यह जवानी जो मुल्क के काम न आए। तोड़ दो बेड़ियों को। वो घबरा गई। अचानक से तुम्हें क्या हो गया। फ़िल्म के असर में इंक़लाब की बातें न करो। अब इंकलाब की इजाज़त नहीं है देश में। कल ही एक मंत्री ने कहा है। मैंने तो पहले ही कहा था कि ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा देखते हैं। कभी-कभी तो इस मुल्क पर खुश होना सीखो जानम।( लप्रेक)
4)
मसूर की दाल तो मालवीय नगर में भी मिलती है। लेकिन मुझे शापिंग का अहसास होता ही है ख़ान मार्केट में। वहां मुझे कोई जानता नहीं बट सब अपने जैसे लगते हैं। डार्लिंग सवाल वहां की भीड़ का नहीं है। मसूर की दाल का है। ओफ्फो,तुम्हारा भी न,क्लास नहीं है। ये कार, गोगल्स, डियोड्रेंट तुमने ड्राइंग रूम के लिए ख़रीदे हैं क्या। मुझे जीने दो और जाने दो। और तुम क्यों जाते हो ओबेरॉय में कॉफी पीने? क्या पता ज़िंदगी मिले न दोबारा। फिल्म देखकर आए तो दोनों के झगड़े भी बदल गए।(लप्रेक)
5)
नहीं मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। गहरी नींद से अचानक वह जाग गया। क्या हुआ। बगल में जाग रही लाजवंती ने पूछा तो अलबलाने लगा। सपना देख रहा था। क्या? यही कि सीएजी में नाम आ गया है। लोकायुक्त की रिपोर्ट में भी नाम है। लोगों ने मुझे घेर लिया है। इस्तीफा मांग रहे हैं। हां तो ये कौन सा सपना है। जो दिन में देखते हो, वही रात में भी । छोड़ों रिपोर्टिंग। एंकर बन जाओ। सपने नहीं आएंगे। क्या पता तब तुम किसी सपने में टाई में लटके मिलो। न बाबा न। मेरे ख्याल से तुम सपने देखना ही छोड़ दो।( लप्रेक)
6)
दोनों परेशान थे। सीएजी की रिपोर्ट में बारापुला का नाम देखकर। बारापुला पर ही खड़े होकर दोनों ने हुमायूं के मकबरे की पीठ की तरफ अपना सीना कर कसमें खाईं थीं। हमेशा हमेशा के लिए बारापुला पर आकर उसे निहारने का वादा किया था। अखबार में ख़बर देख वो घबराई हुई थी। कहने लगी कि इस पुल के साथ हमारा प्यार भी दाग़दार हो गया है। हमें क्यों न मालूम चल सका कि जिस बारापुला पर खड़े होकर हम एक दूसरे का हाथ थामे रहे, उसकी बुनियाद किसी घोटाले में है। अल्लाह, ये इश्क़ का कौन सा इम्तहान है।( लप्रेक)
7)
चित्तरंजन पार्के के मार्केट वन में कतला पर तरसती उसकी निगाहें जब उठीं तो मछलियों की भीड़ से टैंगड़ा चुनती उसकी कलाई पर टिक गई। ताज़ी मछली को चुन लेना पारखी निगाहों का काम है। कतला छोड़ वो भी टैंगड़ा ढूंढने लगा। कलाइयां टकराने लगीं। बगल में बेसुध पड़ी पाबदा और रोहू का कटा बड़ा सा हिस्सा,ताज़ी मछली ले लो की चिचियाहट,निगाहें जब मिलती हैं तो सूखी ज़मीन पर मछलियों की तरह तड़पने-तैरने लगती हैं। तब तक तड़पती है जब तक कोई काट कर झट से उसे पीस में न बदल दे। (लप्रेक)
8)
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