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उनसे बात करते करते मैं झांसी के सपनों में खो गया। जनरल स्टोर में एक डाक्टर की बीवी पर अच्छी नज़र पड़ी। सोचा इनके सपनों में कौन सा शहर होगा। झांसी होगी। वो काफी सज-संवर कर दुकान में आयी थी। खुद कह रही थी- हमारा पति डाक्टर है। हमें मालूम है मैगी का फायदा नुकसान। स्लीवलेस ब्लाऊज, खूबसूरत साड़ी और शाम का वक्त। तभी उनके पति आ गये। मुझे पहचाना। कहीं आप टीवी में तो नहीं। मैंने कहा- हां, लेकिन अभी तो इस दुकान में हूं। और आपकी पत्नी से बात करना चाहता था। डाक्टर साहब ने कहा अरे घर चलते हैं। मैं उनकी कार में बैठ गया। एक अजनबी से चंद मिनट पहले हुई मुलाकात दोस्ती में बदल रही थी। आपको यह भी बता दूं कि डाक्टर साहब भी कम सजे धजे नहीं थे। दोनों की उम्र पचास के आस पास होगी।
घर पहुंचने से पहले ही मैंने पूछ दिया- आप दोनों के सपने क्या हैं? डाक्टर साहब बोले- बहुत हैं। हर वक्त बदल जाते हैं। यहां बिजली नहीं होती इसलिए सपने देखने का वक्त मिल जाता है। मैंने उनकी पत्नी से कहा- आपने सपनों के बारे में कुछ क्यों नहीं कहा। थोड़ी हंसी के बाद कहा कि सपने पूरे हो चुके हैं। जो सामने है वही सपने जैसा लगता है। मैंने कहा- डाक्टर साहब अब भी सपने जैसे लगते हैं। तो गाड़ी में दोनों हंस पड़े। सफाई देनी पड़ी कि बेटे जैसा हूं इसलिए बेतकल्लुफ हो गया हूं। और मुझे ऐसा होने दीजिए।
दोनों ने कहा कोई बात नहीं। हम घर पहुंच चुके थे। पहली मुलाकात में दहलीज पार। लेकिन मैं सपनों के पार जाना चाहता था। कहा कि छोटे शहरों में रहकर आपको नहीं लगता कि सपनों से दूर हो गये हैं। तभी नज़र उनके ड्राइंग रूम पर पड़ी। करीने से सजा कर रखा गया कमरा। बिल्कुल सपने की तरह। मैंने छोटे शहरों में देखा है- ठीक ठाक लोगों के ड्राइंग रूम खूब सजा कर रखे जाते हैं। मसूरी में खिंचायी गयी बीस साल पुरानी मियां बीबी की तस्वीर। सोफे पर क्रोशिया का कवर। बेटी की बनायी पेंटिंग्स। और दिल्ली के व्यापार मेले से खरीद कर लाया गया लैंप पोस्ट। सेंटर टेबल। महानगरों में भी ऐसा ही होता है। मगर कस्बों के ड्राइंग रुम का एहसास महानगरों से अलग होता है। लगता है किसी ने अपने सपनों को बाहर के कमरे में सजा कर रख दिया है। वहां आप का भी स्वागत है। अचानक आ जाएं तब भी।
तभी मिसेज माथुर ने कहा- हम सपनों के बहुत करीब हैं। हमारे सपने यहीं तक के थे। दोस्तों से शाम के वक्त मिलना जुलना हो जाता है। इनवर्टर से गर्मी की रात कट जाती है। फिल्में नहीं देख पाते। कोई अच्छा सिनेमा हाल नहीं है। डाक्टर माथुर ने कहा ऐसा भी नहीं कि हम वक्त से पीछे है। बच्चे बाहर हैं। फुर्सत में हम उनके भी हिस्से का सपना देख लेते हैं। बहुत दिल किया- काश, शिखा जी हमारे साथ होतीं। इस बातचीत में। सपनों की साझीदारी में। क्या हुआ उनका प्रोग्राम किसी ने नहीं देखा। बेहतर होने के बाद भी। मैंने माथुर परिवार से कहा- शिखा ने छोटे शहर बड़े सपने एक कार्यक्रम बनाया है। डाक्टर साहब बोले- अरे हमें पता होता तो हम उनका भी कार्यक्रम देख लेते। सपने ही तो हैं। किसी के भी हों। सपने अच्छे होते हैं। देखना चाहिए। चाहें आप किसी भी शहर में रहें। सपने देखिये। एक अजनबी से इतनी अंतरंग बातचीत सपना ही तो है। हकीकत को भी सपने जैसा होना चाहिए। हम सबके भीतर एक छोटा शहर है। जहां हम लोगों से नज़रे चुराकर चुपचाप सपने देखने चले जाते हैं।