खुले में शौच करना शहरों के विस्तार के साथ साथ एक समस्या के रूप में देखा जाने लगा है । इससे होने वाली बीमारियों और मौत को लेकर जागरूकता फैलाई जा रही है । आज भी आधा हिन्दुस्तान खुले में शौच करता है । हमारी भी यात्रा खुले में शौच करने से बंद बाथरूम की रही है । बचपन में खेलते खेलते जब छत पर पहुँच जाते थे तो छत पर इंगलिस लैंट्रीन का सामान पड़ा देख हैरानी होती थी । बाद में यही इंगलिस इंडियन स्टाइल के नाम से मशहूर हुआ ।मेरे गाँव में भी किसी सरकारी योजना के तहत इंगलिस लैट्रीन अवतरित हुआ था । लोगों ने बहुत दिनों तक शौचालय ही नहीं बनवाया । कई प्रसंग याद हैं । गाँव के लोगों के । गाँव के लोग जब पटना आते तो शौचालय जाने की बजाय गंगा किनारे तरफ़ चले जाते थे । फ़्लश चलाने के लिए भयानक ट्रेनिंग होती थी । बाल्टी लेकर ज़ोर से पानी मारने का प्रसंग याद है । मैंने ऐसा शौचालय भी इस्तमाल किया है जिसे सर पर मैला ढोने वाले साफ़ किया करते थे । तब इसे लेकर किसी भी प्रकार की संवेदनशीलता नहीं थी । कई साल बाद बिंदेश्वर पाठक ने मैला ढोने वाली महिलाओं पर एक किताब छापी अलवर की राजकुमारियाँ । इसके लिए एक महिला से बात कर उस पर लिखने का मौक़ा मिला । खुद अपराधी जैसा महसूस कर रहा था उनकी बात सुनकर ।
फिर एक दौर आया कमोड से टकराने का । एक गेस्ट हाउस में मेरे दो रिश्तेदार अंदर जाकर लौट आए । बाहर आकर पिताजी से कहा भाई जी पाल्ला ( ठंड) मार दिया, उतरा ही नहीं । दोनों ही बारी बारी से असफल होकर बाहर आ गए थे । कहा कि कमोड पर बैठते ही अइसा ठंडा लगा कि सिकुड़ गया । पिताजी ने सबको अंदर ले जाकर समझाया था कि कैसे इस्तमाल करना है । मैं खुद एक रिश्तेदारी में गया था । कमोड पर बैठने की कला मालूम नहीं थी । जूता पहने उस पर ऐसे बैठ गए जैसे खेत में बैठते थे । कमोड की सीट टूट गई । बड़ी शर्म आई । चोट लगी सो अलग ।
भारतीय रेल इस बात का गवाह है कि हम शौच करने के मामले में एक असफल राष्ट्र हैं । फ्लश दबायें इसका भी निर्देश लिखा होता है । तब भी कई लोग फ़्लश भूल जाते हैं । निर्देश न हो तो आधे लोग शौच के बाद फ़्लश दबाना भूल जायें । मग को चेन से बाँध कर रखना पड़ता है कि कही कोई वहाँ से निकाल कर चाय न पीने लगे । यही नहीं रेल में शौचालय की दो राष्ट्रीयता होती है । एक इंडियन और एक इंगलिस । इसी बीच एक बड़ा बदलाव आया है । कमोड का मध्य वर्गीय जीवन में खूब विस्तार हुआ है । अब अपार्टमेंट में इंडियन शैली का शौचालय नहीं होता है । कमोड ही कमोड । टीसू पेपर पर नहीं लिखना चाहता । हाल ही में एक मित्र ने बताया कि कमोड की सीट को गिरा कर रखा जाता है , उठा कर नहीं ।
तो जनाब एक राष्ट्र के रूप में हमें शौचालय का इस्तमाल करने की व्यापक ट्रेनिंग दी गई जो अभी तक जारी है । हम खुले में स्वाभाविक हैं बंद कमरे में थोड़ा कम । हाँ पुरुषों के खुले में शौच की मानसिकता को मर्दवादी बनावट के तहत भी देखना चाहिए । देर तक रोकने की ट्रेनिंग का सम्बंध इस बात से भी है कि समाज लिंग के मसले को कैसे नियंत्रित करता है । मर्द इस दुनिया को अपने लिंग के अधीन समझता है इसलिए जहाँ तहाँ चालू हो जाता है । दिल्ली जैसे बड़े शहर मे अब कामगार औरतों को मर्दों की तरह फ़ारिग़ होते देखने लगा हूँ । महिलाओं के लिए शौचालय ही नहीं है । घर और कहीं पहुँचने की दूरी से रोकने की सामाजिक और सांस्कृतिक नियंत्रण की ट्रेनिंग कब तक टिकेगी । गाँवों में बरसात के वक्त अंधेरे में शौच के लिए जाती औरतों को सर्प दंश से लेकर बलात्कार और गुज़रती गाड़ियों के हेडलाइट का सितम झेलना पड़ता है । आज भी ।
इस बीच मूत्र विसर्जन की बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए छोटी छोटी टाइलों की खोज की गई जिस पर देवी देवताओं की तस्वीर होती है ताकि लोग जहाँ तहाँ पेशाब करना छोड़ दें । तब किसी की धार्मिक भावना आहत नहीं होती । तब वीएचपी और बीजेपी को नहीं दिखता । आपको इसी दिल्ली के कई अपार्टमेंट के बाहर की दीवार पर ऐसी टाइलें मिल जायेंगी । कई दफ़्तरों में सीढ़ियों के कोने में देवी देवता वाली टाइल मिलेगी जो थूकने से लेकर मूतने तक को रोकने के लिए लगाईं गईं हैं । कई अपार्टमेंट में स्टडी से जुड़े शौचालय को देवालय में बदल दिया जाता है । किसी को दिक्कत नहीं होती ।
शौचालय को लेकर हम साम्प्रदायिक जातिवादी और अंध राष्ट्रवादी भी हैं । अंबेडकर ने सही कहा कि यह सिस्टम अछूतों से हिंदुओं की गंदगी और मल उठवाता है । कई लोग शौचालय को पाकिस्तान कहते हैं । फ्रांस और ब्रिटेन के बीच जब साहित्यिक सर्वोच्चता को लेकर दावेदारी होती थी तो फ़्रेंच ने कमोड की सीट की जगह शेक्सपीयर की किताब बना दी थी यानी वे शेक्सपीयर को पखाना करने लायक समझते हैं । पहले अंग्रेज़ी अख़बारों का सप्लिमेंट शौचालय में पढ़ा जाता था आजकल आईपैड भी जाता है । लोग वहाँ से भी ट्वीट करते हैं । दिल्ली में बिंदेश्वर पाठक ने शौचालय म्यूज़ियम बनाया है कभी वहाँ जाकर देखियेगा ।
जैसे जैसे शहरीकरण का विस्तार होगा शौच की समस्या उग्रतर होती जाएगी । हो रही है । अब इसे शर्म के रूप में देखा जा रहा है । पहले जब बंद कमरे में शौच नहीं था तब यह शर्मनाक नहीं था । शौचालय और देवालय के विवाद में पहले बीजेपी ने मूर्खता की और अब मोदी के बयान के बाद की चुप्पी उसी मूर्खता का विस्तार भर है । बेवजह दोनों पक्ष बयान की कापी निकाल कर पढ़ रहे हैं । कांग्रेस हो या बीजेपी सबकी सरकारों का रिकार्ड ख़राब है इस मामले में । एक अच्छी शुरूआत हो रही थी मगर व्यक्तिवादी राजनीति के चरित्र ने उसका गला घोंट दिया । यह मुद्दा ज़रूरी है । इसमें जयराम या मोदी ने धार्मिक भावना को आहत नहीं किया है । हाँ दोनों तरफ़ के मूर्ख आहत हो गए हैं । इनके लिए आहतालय बनवा दिये जायें ।
38 comments:
Agree with u..
100% sahi kaha aap ne aaj bhe isthati vahi hai , kuch dino se gandhi ki kitab satya k priyog padh raha hu....Gandhi ji bhi yahi kahtey the or aaj aap bhi vahi.....
sahi kaha hai aapne Ravish ji, par kuchh shabdon ki jagah "!@#$%^" symbols ka prayog kiya ja sakta tha.
"सोंच" शौचालय में ही आती है।
Agree!!! this is the basic requirement of a human being. ispe bhi politics!!! grow up dear politicians, only one day with devalay, without shochalay ... life will be hell even with ...
पोस्ट चकाचक है, एकदम धांसू ! ये लाईन ज्यादा टच्ची है - "जयराम या मोदी किसी ने भी धार्मिक भावना को आहत नहीं किया है । हाँ दोनों तरफ़ के मूर्ख आहत हो गए हैं"
देवी देवताओं का इस्तेमाल गंदगी रोकने के लिये करने पर एक पोस्ट कभी लिखा था। उसी में ईश्वर के अस्तित्व को लेकर टिप्पणी दर टिप्पणी बहस भी चली थी कि उनका गंदगी रोकने को लेकर हुआ उपयोग क्या है, उनका अस्तित्व है भी या नहीं आदि आदि...। पूरी बहस दिलचस्प रही।
यह रही वो पोस्ट।
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http://safedghar.blogspot.com/2011/05/blog-post_24.html
आज लिफ्ट बंद होने से सुबह जब ऑफिस जाते समय अपनी बिल्डिंग की सिढ़ियों से नीचे उतर रहा था तब अचानक ही सामने की दीवार पर नज़र पड़ी। दीवार पर नया नया रंग रोगन किया गया था। सिढ़ियों के पास का कोना जहां कि अक्सर ‘पान के थुक्कारे’ , दंतनिपोरों के चिर-परिचित दागी निशान दिख ही जाते थे, वह जगह भी साफ सुथरी लग रही थी। यह सब देख कर अच्छा लगा कि चलो कुछ तो चेतना आई लोगों में। वरना तो लोगों को कहते रह जाओ कि भई पान की पिचकारी कोने अतरे मत छिटकाया करो, थूका-थाकी मत करो लेकिन मजाल है जो ‘बन्धु-भगिनी’ लोग मान जांय।
अभी मेरा यह नव-चेतन दीवारों का अवलोकन कर ही रहा था कि तभी नज़रें सामने की दीवार पर पड़ी। वहाँ विराजमान थे देवी देवता लोग। तुरंत ही सीढ़ियों के पास वाली इस साफ-सफाई का कारण पता चल गया। लोगों ने ‘पान-चबेरों’ और ‘दन्त-निपोरों’ से परेशान होकर दीवार को अच्छे से रंग रोगन करवा कर वहां देवी देवताओं की तस्वीरों को सटा दिया। अब जो कोई थूकना चाहेगा भी तो सामने ईश्वर को देख खुद ही ठिठक जायेगा। नतीजा, दीवार साफ की साफ और ‘पान-चबेरे’ कहीं और जाकर पिचकारी मारते होंगे।
वैसे, ईश्वर को इस तरह दीवारों पर सटा कर उनसे ‘वाचमेनी करवाने’ की तरकीबें काफी समय से उपयोग में लाई जा रही हैं। अक्सर देखा गया है कि सड़क के किनारे जहां दीवारें Standing Ovasion के चलते धारापुरी बनी रहतीं थी, वह देवताओं के चित्रों के आते ही साफ सुथरी नज़र आने लगती हैं। मनुष्य की धर्म-भिरूता का क्रियेटिव इस्तेमाल होते देखना अच्छा लगा।
उधर देख रहा हूं कि स्टीफन हॉकिंग ने ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हुए कहा है कि ईश्वर जैसी चीज कुछ नहीं हैं। न सिर्फ ईश्वर, बल्कि मृत्यु के बाद स्वर्ग और नरक का भी कोई अस्तित्व नहीं है। जो कुछ है इसी जीवन में है, इसी दम है। उनकी बातों को पढ़ने पर मुझे भगवतीचरण वर्मा के लिखे उपन्यास चित्रलेखा की वह पंक्तियां याद आ गई जिनमें वह ईश्वर जैसे गूढ़ विषय के बारे में बिल्कुल सरल ढंग से कहते हैं - ईश्वर मनुष्य की सर्वोत्कृष्ट कल्पना है। और वाकई उनकी इस बात में काफी दम है कि जिसे किसी ने देखा नहीं, न किसी ने जाना है, न किसी ने छूआ है.....उसने केवल अपने श्रद्धाभाव के बलबूते एक ऐसे रचेता की कल्पना कर ली है जिससे कि वह आज भी उतना ही डरता है जितना कि युगों पहले डरता था, आज भी उसके प्रति श्रद्धा भाव रखता है जैसा कि पहले रखता था। हां, कालक्रम में कभी भक्ति कम तो कभी ज्यादा जरूर होती दिखती है, लेकिन वह अलग मुद्दा है।
आज यदि ईश्वर के अस्तित्व को लेकर बहस छिड़ी है तो यह कोई नई नहीं है। और न ही स्टीफन हॉकिंग के विचार ही नये हैं। उनसे पहले भी कईयों द्वारा ईश्वर के अस्तित्व पर इसी तरह की बातें कही गई हैं और आगे भी कही जाती रहेंगी। किंतु मेरे हिसाब से ईश्वर हैं या नहीं हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है श्रद्धाभाव, महत्वपूर्ण है वह विश्वास जो कि मुश्किल परिस्थितियों में फंसे इंसान को एक किस्म की मानसिक शांति प्रदान कर सके, एक तरह का संबल प्रदान कर सके, क्योंकि देखा गया है कि जहां मित्र-सम्बन्धी, पुरखे-पुरनियों के आशीर्वाद तक काम नहीं करते वहां यही कल्पनाजन्य ईश्वर है जो कि आंतरिक शक्ति प्रदान करता है।
- सतीश पंचम
http://safedghar.blogspot.com/2011/05/blog-post_24.html
achha likha aapne.lekin sudhir ji ki baat se mai bhi sahmat hoo.aapko aise sabdo se bachna chahiye......
u r really the best and my Ideal. I Have a relquest, ki gali ka use aap na karen... Aapka bhakt hu isliye dukh hota hai
Pata nahi kyon aaj kal aisa lagta hai ki aap bhi ab duniya ki nautanki se tang aa kar apna control kho dete hain,,, aise mauke par man bekabu ho jata hai, but agar aap aise khinna and bekabu rahenge to hum jaise jo aapko itna mante hai, unko kya rasta dikhega.
पिछले दिनों "Bill & Melinda Gates Foundation" भारत में "The Sanitation Challenge " लांच किया है, जिसके तेहत लोगों से नये तरह के शोचालय invent करने का आग्रह किया ताकि भारत में खुले में शोच और सर पे मैला धोने की परंपरा से निजात पायी जा सके | approve किये गए prototypes को हज़ारों dollars की funding दी जाएगी उनकी संस्था की ओर से |
लेकिन हरानी की बात यह है की भारतीय Industrialists कब भारत के लिए कुछ ऐसा करने की सोचेंगे | सारा पैसा यही रहना है उनका, साथ जायेंगे तोह सिर्फ अच्छे करम , यह बात उनको कोन समझाए |
जब हमारे अमीर ही नहीं कुछ करने का जज़्बा रखते तोह बेचारे गरीब से क्या उम्मीद रखें !
उम्मीद करता हूँ की आपका अगला पत्र अम्बानी बंधुओं के लिए होगा |
बाबा ..झूठ मत बोलो ...कम्बोड टूटा नहीं था ...तुम्हारा पैर फिसल गया था ...
खेत में लोटा लेकर जाना ...फिर उस लोटा को मिटटी से धोना ..कान पर जनेऊ चढ़ाए हुए ....:))
आहतालय का सुझाव अच्छा है। अभी चुनावो के दौरान इन की बहुत जरूरत रहेगी।
बहुत अच्छा, और उससे ज्यादा, बहुत सही लिखा है आपने ! कितनी ही पुरानी स्मृतियों को ताज़ा कर दिया। शौचालय की समस्या urbanization की तो है ही साथ ही इसमें masculinity वाला अन्गेल भी रहता है। सोच कर भी काँप जाता हूँ, कैसे हमारे शहर/गाँव की महिलाओं के लिए हमने , शौच जैसे प्राकृतिक और मूलभूत ज़रुरत को भी, हमने पूर्वनिर्धारित समय और स्थान में बाँध दिया है (उनकी बाकी बची हुई इछओं या विकल्पों की तरह). इसमें बिन्देश्वर पाठक जी का योगदान सराहनीय है, ख़ास तौर पर ये ध्यान रखते हुए कि वे किस समाज (/जाती ) से आते हैं, जिसके अपने खुद के कितने पूर्वाग्रह हैं इस काम को लेकर।
( ये लाइन शानदार लगी :
"हम खुले में स्वाभाविक हैं बंद कमरे में थोड़ा कम ")
whenever i surfing net i always open ur blog.....u r just amazing...aap चेतन भगत की तरह एक बुक पब्लिश क्यू नही करवाते जिसमे आपके सारे लेख,,समाचार पत्रों में छपे लेख ,,आपके ब्लॉग के इम्पोर्टेन्ट टॉपिक को उनमे कवर कर लेते.....
रवीश जी कुछ ऐसा आपने लिख दिया हैं एकदम सटीक और कुछ ऐसे ढँग से जिसे मैं कभी ना लिख पाता
@aaapkablog.blogspot.com
बहुत बढ़िया पोस्ट मार्टम किया है। ये शोचालय से मूर्खा लय तक का सफ़र अच्छा लिखा है। हमेशा की तरह
बहुत बढ़िया पोस्ट मार्टम किया है। ये शोचालय से मूर्खा लय तक का सफ़र अच्छा लिखा है। हमेशा की तरह
गांधीजी ने सत्य अहिंसा के साथ स्वछ्छता और अश्पृश्यता को भी माना है
मतलब
स्वच्छता और अश्पृश्यता को सदाचार कहा है
और सत्य अहिंसा को शिष्टाचार
शायद इसको गांधीजी की नीति भी कह सकते है ?
उनके सामने आज के नेता 'गुलिवर के उपन्यास' लगते है।
ओह! अश्पृश्यता को सामाजिक दुर्व्यवहार कहा है गांधीजी ने-----
मेरे पहले की कमेंट मैं अश्पृश्यता से मेरा मतलब 'अश्पृश्यता निवारण' लिखने से था।
typing mistake-i am sorry.
hamara pet chuki aksar kharab rahta h...to jb kisi mahanagar me hota hu to aksar rokna padta h...jb tak ki kauno sahi thekana(shauchalay)na mil jaye..
baki padh k maja aa hansi duno aaya..
barsat me ta dehat me narke h...
aapka bhi is mamle me kafi karibi adhyayan raha h..baki dukh ekke go h.. hamko able comod par se girne ka mauka nahi mila h...
मोदी ठीक बोला.
मेरे एक रिश्तेदार दिल्ली यात्रा के क्रम में ट्रेन का सफ़र कर रहे थे. इंडियन स्टाइल वाला शौचालय का गेट टुटा था तो पाश्चात्य शैली का प्रयोग करने कमोड वाले में चले गए. कमोड पर खुला शौच आया नहीं. चाय पीकर, खैनी खाकर प्रेशर बनाने की कोशिश करके दोबारा गए. फिर भी नहीं आया. बाहर आये उनका मुंह देखकर ही लगा कि इसबार भी सफल नहीं हो पाए. पूछा क्या हुआ चाचा - बोले- बेटचोदना (क्षमा करेंगें मैं उनका ही अल्फाज लिख रहा हूँ) झाड़ा तो हो ही नहीं रहा है. तब दूसरे डब्बे में इंडियन शौचालय में जाकर उनका बोझ हल्का हुआ. हमारे देश में कई ऐसे इलाके भी हैं जहाँ सुबह और शाम रोड के दोनों तरफ रखे लोटे और शौच करती महिलओं के बीच से बेशरम होकर लोग आते जाते रहते हैं उनकी भी अपनी मज़बूरी होती है कि कोई दूसरा मार्ग नहीं होता. शौचालय की समस्या एक राष्टीय समस्या है. यह शहरों में भी है खासकर महिलाओं के लिए. एक उम्दा पोस्ट!
शु्द्धता से रहना सीखना होगा, तन की शुद्धता पहले आती है, मन को बाद में शुद्ध करने की बारी आती है। दोनों ही आवश्यक है, मूढ़ उसे मिलाते हैं और अपनी मानसिकता व्यक्त कर जाते हैं।
कमाल कर दिया रवीशजी..बेहद मजेदार और कई रोचक जानकारी से अवगत कराती बेहतरीन प्रस्तुति।।।
कल एनडीटीवी शो में एक मित्र कहने लगे कि मोदी जी में प्रधानमंत्री बनने की व्याकुलता तो आडवाणी जी की तुलना में न जाने कितने गुना ज्यादा है. आडवाणी जी तो धर्मनिरपेक्ष बनने की ही कोशिश में थे मोदी जी तो कई कदम आगे बढ़गर अब वामपंथी बनने लगे हैं..............
संदर्भ------शौचालय और देवालय की तुलना....
आखिर तुकबंदी के अलावा दोनों में क्या समानता है? शौचालय तो हर घर की आवश्यकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि सभी आस्तिक लोगों के घरों में मंदिर हो ही. पूजा-पाठ बिना मंदिर के भी हो जाता है घरों में मूर्तियों और तस्वीरों की स्थापना के साथ। और मंदिर तो शुरू से ही उपासना स्थल के साथ एक सामुदायिक स्थल के रूप में भी जाने जाते रहे हैं और आज भी उसी रूप में हैं. फिर क्यों ‘भाजपा के भावी प्रधानमंत्री जी’ ने ये तुलना की? कोई ज्ञानवर्धन कर सके तो आभारी रहूंगा.......
कल एनडीटीवी शो में एक मित्र कहने लगे कि मोदी जी में प्रधानमंत्री बनने की व्याकुलता तो आडवाणी जी की तुलना में न जाने कितने गुना ज्यादा है. आडवाणी जी तो धर्मनिरपेक्ष बनने की ही कोशिश में थे मोदी जी तो कई कदम आगे बढ़गर अब वामपंथी बनने लगे हैं..............
संदर्भ------शौचालय और देवालय की तुलना....
आखिर तुकबंदी के अलावा दोनों में क्या समानता है? शौचालय तो हर घर की आवश्यकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि सभी आस्तिक लोगों के घरों में मंदिर हो ही. पूजा-पाठ बिना मंदिर के भी हो जाता है घरों में मूर्तियों और तस्वीरों की स्थापना के साथ। और मंदिर तो शुरू से ही उपासना स्थल के साथ एक सामुदायिक स्थल के रूप में भी जाने जाते रहे हैं और आज भी उसी रूप में हैं. फिर क्यों ‘भाजपा के भावी प्रधानमंत्री जी’ ने ये तुलना की? कोई ज्ञानवर्धन कर सके तो आभारी रहूंगा.......
Bahut dino baad aapka blog padha. Hamesha ki tarah bahut achha likha hai. Mujhe nahi pata tha ki Shochalaya ki samsya ek gambhir samsya hai/
Bahut dino baad aapka blog padha. Hamesha ki tarah bahut achha likha hai. Mujhe nahi pata tha ki Shochalaya ki samsya ek gambhir samsya hai/
khule मैं शौच का सबसे बिगड़ा स्वरुप गाँव में वहां दीखता है जहाँ dhaan और गन्ने के फसल दोनों होती है सड़क पर चार पहिया को चलने की जगह ही नहीं मिलती. गाड़ी बिचारइ रंग जाती है. ईस्टर्न Utter प्रदेश में तो बहूत बुरे हालात है. एक ठेकेdar rat ne सड़क banane के लिए गिट्टी unload karaye तो सुबह पूरा ढेर रंग हुआ मिले. labor ने काम करने से मना कर दिया ठेकेदार ने गांवो me munadee कराई तो सड़क बन पाई.
जयराम रमेश के कुछ वाक्य -
१. शौचालय मंदिर से ज्यादा पवित्र होते हैं|-जयराम रमेश
[ इस वाक्य में सब कुछ अच्छा तभी माना जा सकता है, जब ये मान लिया जाए कि हिंदी भाषी जयराम रमेश को "पवित्र" शब्द का अर्थ नहीं मालूम]
२. मंदिर सबसे गन्दी जगह है, जहाँ नाक बंद कर के जाना पड़ता है|- जयराम रमेश
[ पता नहीं ये किस मंदिर गए थे? खैर शौचालय को महिमामंडित करने के लिए मंदिर की बुराई जरुरी है क्या ? ]
3. पहले शौचालय फिर देवालय - मोदी
[ स्पष्ट है कि शौचालय और मंदिर दोनों की महत्ता को स्वीकार कर बस प्राथमिकता पे टिपण्णी है ]
वैसे ये राजनीती है| किसी बात का समर्थन और विरोध बात के विषय के अलावा ये भी देखकर होता है कि बोलने वाला कौन, किस विचारधारा, पक्ष या पार्टी से संबंद्धित है| पर जयराम रमेश की बातें ईमानदार नहीं थी, विरोध होना हीं था|
Excellent.......... Sach kadwa hi hota hai...
Khusi hui editted version dekh kar, kal aapki report dekh raha tha,.......E rikshaw wala ...sorry...Pa- rikshaw wala... maja aa gaya
आपका जवाब नहीं है सर................. पर क्या ये बहस हमारी sabhyta में समां चुकी कब्ज को दूर करने की कोशिश की शुरुआत मानी जानी चाहिए कम से कम हम is tarike की बहस को badhava to de sakte है jo हमारी जड़ता और मुद्दों से दूर भागने की आदत को हतोत्साहित kare hamari jadta
अपने आमिर खान जी भी कहते हैं -यहाँ वहां मत करो ।
पर ये नहीं बताते कि कहां करो ।
रवीश जी,विषय कुछ भी हो ..पर आपके लिखने का अंदाज अल्टीमेट है .......
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