वन-रूम सेट का रोमांस- दिल्ली मेरी जान (4)

घर बदलना शुरू हो गया था। आठ सौ रुपये और पंद्रह सौ रुपये के वन रूम सेट के बीच अपनी आर्थिक औकात का साप्ताहिक मूल्यांकन होता रहता था। फोल्डिंग कॉट के आगमन से हम ज़मीन से उठकर थोड़ा ऊपर हुए। नीचे सोना बंद हो गया। गरम पानी से नहाने की आदत पड़ चुकी थी। इससे पहले सर्दी में भी ठंडे पानी से नहाता था। दिल्ली की सर्दी और इसके ख़ौफ़ ने इमरसन रॉड की आदत डाल दी। इमरसन रॉड बाथरूम के एक कोने में लटकता रहता था। ठंडे ठंडे पानी से नहाना चाहिए। ये गाने में ही अच्छा लगता था।


किचन के सामान जुड़ने लगे। खिचड़ी बनने लगी। दिल्ली में दही खिचड़ी खूब खाई। खाना बनाने नहीं आया तो बर्तन धोने वालों में शुमार हो गया। अपने लिए रामू का किरदार चुन लिया। बर्तन धोकर दोस्तों के बीच अपराध बोध कम हो जाता था और भोजन पर दावेदारी बन जाती थी। दोस्तों ने बर्थ-डे मनाना शुरू कर दिया था। पटना में इस तरह से उनमुक्त बर्थ-डे मनते नहीं देखा था। मां-पिता से दूर होने और स्थानीय सामाजिक बंधनों से आज़ाद होने के कारण बर्थ-डे एक स्पेस बन रहा था। जिसके सहारे प्रवासी छात्र दिल्ली से अपनी सामाजिकता कायम कर रहे थे। इन्हीं मौकों के बहाने वन-रूम सेट में लड़कियां आने लगीं। मैंने बहुत पहले दिल्ली की लड़कियां सीरीज़ में ज़िक्र भी किया है।


बर्थ-डे साल का वो एक दिन। इस दिन के लिए लड़की आगमन विरोधी मकान मालिक को समझौता करना पड़ता था। इन्हीं सब तात्कालिक आयोजनों के बहाने दिल्ली के मकान मालिक उदार होने लगे। मकान-मालिक और किरायेदार का रिश्ता सास-बहू का होता है। हर समय शक। हर समय नया विश्वास। लेकिन इस नियम का ऐसा दबाव था कि जब कोई साथ आने की कोशिश करती थी तो तमाम बंदिशों के कांटे चुभते थे। ठीक वैसे ही जैसे कोई लड़की गली पार करती हुई हर दिन इस तरह की आशंकाओं से गुज़रती होगी। अच्छी बात ये रही कि लड़कों को भी देख लिये जाने के भय का अंदाज़ा हुआ।


ख़ैर,ज़्यादा मुश्किल लड़कियों को हुआ होगा। उन्हें हर दिन मकान मालिक को विश्वास का इम्तहान देना होता होगा। न जाने उनके कितने दोस्त इस दिल्ली में भाई बनकर उनकी बरसाती में गए होंगे। मिलने की हर जगह शक से देखी जाती है। ये हमारी सामाजिक नैतिकता की देन है। वन-रूम सेट ने प्रवासी लड़कियों को भी नई ज़िंदगी दी। कपड़े से लेकर खाने तक की आदत बदली। शराब और सिगरेट उनकी ज़िंदगी में भी आए। स्थानीय पहरेदारी से दूर होने के बाद भी मकान-मालिक और उनका परिवार सामाजिक बंदिशों के विकल्प के रूम में काम कर रहा था। फिर भी लड़कियों का जीवन बदला। उन्होंने लेट नाइट सिनेमा देखने का आनंद लेने शुरू कर दिया। उत्तरी दिल्ली का बत्रा सिनेमा बिहार यूपी से आई लड़कियों के रात्रि जीवन का पहला पड़ाव था। ग्रुप में लड़कियों का आना एक नया अनुभव था। बिहार की खराब कानून व्यवस्था ने इन मामूली सार्वजनिक अनुभवों को बंद कर रखा था।


डीटीसी की बसों ने वन-रुम सेट से निकल कर आने वाली लड़़कियों को सार्वजिनक स्पेस में घुसने का साहस और अनुभव दिया। सार्वजनिक स्पेस में की जाने वाली दादागीरी में भी लड़कियों ने हिस्सेदारी की। मुझे पहली बार एक लड़की ने ही कहा था तुम टिकट क्यों लेते हो। स्टाफ क्यों नहीं बोलते। दिल्ली की बसों में छात्र टिकट नहीं लेते हैं। प्राइवेट बसों में स्टाफ चलाते हैं। उस लड़की ने मेरी तरफ से कहा था कि ये स्टाफ है। इस नकारात्मक बदलाव पर मैं सकारात्मक हो गया। उत्तरांचल की एक संभ्रात सी लड़की से स्टाफ बोलना सीख गया। लेकिन अकेले बोलने में मुश्किल होती थी इसलिए धीरे धीरे कम कर दिया और बाद में बंद कर दिया। इन्हीं यात्राओं के ज़रिये जाना कि बसों में लड़कियों के साथ क्या क्या होता है। पहले तो लड़कियां बात नहीं करती थी लेकिन अब इस बारे में खुलकर बातें करती हैं। लड़कों की बातचीत से जाना कि कैसे एक लड़का चढ़ता तो साथ था लेकिन अचानक आगे चला जाता था। डीटीसी की बसों में लड़कियों,महिलाओं का समूह अक्सर आगे की तरफ जमा होता था। आगे नहीं लिखना चाहता था।


वैसे लड़कियों के लिए वन-रूम सेट आज़ादी बन कर आए। उनकी दीवारों पर जार्ज माइकल से लेकर शाहरूख ख़ान बेधड़क टांग दिये गए। इन लड़कों के दीवारों पर चौबीसों घंटे टंगे रहने पर किसी मकान मालिक को आपत्ति नहीं थी। सिर्फ कोई साक्षात न आ जाए। कल्पनाओं और चाहतों के ज़रिये कोई भी कमरे में आ जा सकता था। लेकिन ये खुशनसीबी दुनिया के चंद मशहूर शख्सियतों को ही हासिल थी। उन लड़कों को हासिल नहीं थी जो किसी लड़की के आने की अभिलाषा में अपने कमरे को सजाते रहते थे। आर्ची कार्ड के ज़रिये न जाने कितने रिश्ते बनाने की कोशिश हुई। लेकिन प्रवासी छात्रों ने इसे अपने संवाद का ज़रिया बना लिया। बर्थ-डे कार्ड को ध्यान से इसलिए पढ़ा जाता था ताकि कुछ इशारा तो मिले कि देने वाला या देने वाली के मन में क्या है। आर्ची गैलरी से खरीदा गया “इश्क का इत्यादि सामान”( एक्सेसरीज) मुझे बड़ा आकर्षित करता था। अपना जन्मदिन तो नहीं मना लेकिन जिन दोस्तों का मनता था उनको मिलने वाले तोहफे में मेरी नज़र इन इत्यादि सामानों को ढूंढती रहती थी। कप। फ्रेम। फ्रेम पर लिखा दोस्ती का खूबसूरत अफसाना। कुछ दिल नुमा टाइप की आकृति। कुछ कमरों में आर्ची से लाए गए पोस्टर। पोस्टरों पर लिखीं सूक्तियां। इन सूक्तियों वाले पोस्टरों के ज़रिये भी लड़के-लड़़कियां ख़ुद को डिफाइन यानी परिभाषित करने की कोशिश कर रहे थे। और हां...मौका निकाल कर किसी बहाने से किसी को छू लेने के बाद की तड़प और बाद में उस पर रात भर चर्चा। इस पर लिख दूंगा तो मार दिया जाऊंगा।


ये तो बताना भूल ही गया कि रात तक जागना,देर सुबह तक सोना और रजाई में घुस कर पढ़ना। दीवारों पर यूपीएससी की तैयारी का रूटीन चस्पां हो चुका था। दीवारों पर यूपीएसपी की तैयारी के रूटीन चस्पां होने लगे। रजाई में घुस कर देर तक पढ़ना और सिगरेट की डिब्बी में राख का जमा होना। हर कमरे की यही कहानी थी। नहीं पीने वाले मेरी तरह घोर नैतिकतावादी। लगता था जो सिगरेट पीता है वो अपने मां-बार से छल करता है। अब हंसी आती है। जो नहीं पीता वो भी छल करता है। ये बात बाद में समझ में आई। वन-रूम सेट का एकांत इन्हीं सब बातों से भरता था। मंडल, बाबरी मस्जिद को लेकर बहस और सचिन के कमाल की बातों से रातें कट जाया करती थीं। इन बहसों से प्रवासी छात्र-छात्रायें अपनी राजनीतिक सोच गढ़ रहे थे। उस वक्त रात के वक्त टीवी पर बहस नहीं होती थी। हम सब आपस में बहस करते थे। अब शायद हमारे टाइप के लोग टीवी के बहसकारों की बातों पर एसएमएस भेजते होंगे। जारी है...

24 comments:

ravish kumar said...

दोस्तों,


आप लोगों को यह सीरीज पसंद आई। इसके लिए बहुत शुक्रिया। इतना लंबा लेख पढ़ना आसान नहीं।

मेरा तो धीरज जवाब दे जाता है। फिर भी आप लोगों ने पढ़ा और सराहा और अपनी यादें भी साझा कीं। फिर से एक चौथा हिस्सा लिखा है। गतांक से आगे टाइप का है। आप पर अपनी यादों का बोझ डालने के लिए माफी चाहूंगा।

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

आप यादों का बोझ 'डाल' नहीं रहे हैं, बल्कि 'साझा' कर रहे हैं। हर एक के अंदर बैठा वन रुम सेटवा जाग गया है बॉस। बता दूं कि सीरीज को पढ़कर मेरे एक दोस्त को रहा नहीं गया और उसने कहा कि "चल दोस्त एक दिन मुखर्जीनगर में से बिताते हैं, बतरा में सिलेमा देखे कई साल गुजर गए यार...।"

इसी कारण कहता हूं यादों को यूं ही साझा करते रहिए।
शुक्रिया।

रंजन (Ranjan) said...

कभी वन-रुम सेट में रहा नहीं पर पढ़ कर लगा कि ये आस पास के दोस्तों की ही कहानी है...

Ashish Tiwari said...

Bhut bhut accha lakh ahi Ravish je

Kaushal Kishore , Kharbhaia , Patna : कौशल किशोर ; खरभैया , तोप , पटना said...

रविशजी
" वन रूम सेट का रोमांस - दिल्ली मेरी जान " इस सिलसिले को बिना किसी परवाह के जारी रखें. अस्सी और बाद के प्रवासी बिहारी छात्रों
के इस मायावी शहर के बेमिसाल अनुभव अभी तक सिर्फ वाचिक परम्परा में हीं कैद /सीमित थे. इन अनुभवों का अब तक शब्द बद्ध न होना
अखरता रहा है.. आपके जैसे सामर्थ्यवान हाथों से अब ये कमी पूरी हो रही है. हम सबकी कहानी कतरों- कतरों में इनमें समाहित है.अब इनको पढ़ कर
यादों की भूली बिसरी गलियों में जाना कितना आनंद दायक है ,क्या कहूं. दिल्ली मायावी मन-मोहनी नगरी , इस शहर का जादू और
जादूगरनियाँ . रविशजी अगर दिल से बात कही जाय तो सच में जान पर बन आ सकती है और हकीकत तो यह है की अभी तक हम सब का मन अतृप्त है.
आप लेख की लम्बाई आदि से चिंतित न हों.और आपने इसे अपनी यादों का बोझ कैसे कहा ? भाई , थोड़ी फेर बदल के साथ , तक़रीबन
हम सब के ये साझा अनुभव रहे. बेझिझक और बेधड़क इस सिलसिले को बरकरार रखा जाय. हाँ कुछ ऐसा न लिख दीजिएगा की जान पर बन जाय
सादर

JC said...

पढ़कर हंसी आयी क्यूंकि सन '७१-'७२ की बात है, जब बरसाती में रहते बच्चों को बीवी के मायके छोड़, और वापिस लौट, मैं एक रूम वाले घर में अकेला आ गया...और संयोगवश ४-५ मास बाद ही उनका दिल्ली आना संभव हुआ...इस बीच बंगला देश का भी जन्म हो गया...

नई कालोनी में एक दो-कमरे के मकान में रहने वाले मित्र परिवार ने मुझे एक माह तक रात का खाना खिलाया. लंच मित्र कार्यालय ले कर आता था और शेष 'snakes' आदि मैं अपने घर में ही कर लेता था.

फिर भाभीजी ने अपने मायके जाने के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के कारण, पड़ोस में ही एक अन्य हमारे मित्र परिवार को अपने पति सहित मेरी भी जिम्मेदारी सौंप दी - एक माह और कट गया, किन्तु अब दूसरी भाभीजी के अपने मायके जाने की बारी आगई...

अब क्यूंकि हम तीनों अकेले रह गए थे - और मुझे पता था कि एक मित्र खाना बनाना जानता है (यद्यपि बीवी के लिए नहीं बनाता था जबकि वो पारंगत था पाक कला में!)- मैंने उन्हें अपने घर डिनर करने का निमंत्रण दे दिया - और रामू का किरदार रवीश जी समान मैंने निभाया :)

यह सिलसिला संपन्न हो गया जब मेरा परिवार सुरक्षित लौट आया...जबकि दोस्तों के परिवार पहले ही लौट आये थे...

मनोरमा said...

Ab 5vi kadi ka intajaar hain, Ravish ji aaplog itna achha likte hain ki wo aapka niji likhna nahi rah jata hain aisa lagta hain aap hum jaise loogon ki hi samvednao aur samay ko shabd de rahe hain. khair, Dilli jaise mahanagron ko hum Choti jagah se aaye Ladkiya hamesha sukriya kahti hain, hume ye mahanagar hi tamam kism ki space dete rahe hain.

नीरज गोस्वामी said...

आज आपकी वन रूम वाली पूरी सिरीज़ पढ़ गया...याने पहले से आखरी ये वाली भी...सच कहूँ ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद कुछ पढने में मज़ा आया...आपकी लेखन शैली अद्भुत है..रोचकता के साथ साथ आप जो छोटे छोटे जुमलों का इसमें छौंक लगते हैं उसका तो जवाब ही नहीं...आप की इस सिरीज़ के साथ बचपन और जवानी की बहुत सी बातें याद आ गयीं..बहुत बहुत शुक्रिया इन यादों को हम से शेयर करने के लिए...
नीरज

ghughutibasuti said...

बहुत रोचक श्रृंखला चल रही है। बच्चे माता पिता को नहीं छलते, माता पिता संवाद न बनाकर स्वयं छले जाने की स्थिति पैदा करते हैं, या फिर कबूतर की तरह बिल्ली के आने पर आँखें मूँदे रखकर सोचते हैं कि खतरा टल गया। प्रत्येक समझदार अभिभावक जानता है कि किशोरावस्था व शुरू की युवावस्था नए प्रयोगों का समय होता है। बस यही कामना करता है कि वे जीवन की इस अग्निपरीक्षा से झुलसे बिना निकल आएँ।
घुघूती बासूती

सुबोध said...

रवीश जी बहुत दिनों बाद कुछ दिलचस्प पढ़ने को मिल रहा है...सच कहू तो इंतजार रहता है..जारी रखिए और कभी खत्म ना करिएगा...ये उपन्यास सरीखा हो रहा है

योगेन्द्र मौदगिल said...

बढ़िया..... रोचक श्रंखला..

manoj said...

kafi din ho agye hindi padhe likhe, lekin ye aapke blog ka asar hai ki ,mujhe roj ish blog par ek nayi kahani padhne ka intezaar rehta hai..dhanywaad..

Anoop Kumar Singh said...

aap kabhi allahabad ke allapur mohalle me aaiye yahan bhi aapke jaise na jane kitne bhavi IAS aise hi one room set ki life jee rhe hain.any way aap ki post ke bare me 2 line likhna chahta hu
" parinde bhi nhi rhte hain paraye aashiyano me ,
apni to umra guzri hai kiraye ke makano me "
thanks
http://twitter.com/anoopdreams

Archana said...

Ravis Ji

aisa manovaigyanik vishleshan ....bahut khoob

Pratik Maheshwari said...

सच्चाई को ऐसे ही पढने में मज़ा आता है.. बहुत ही अच्छा ...

आभार
प्रतीक माहेश्वरी

सागर said...

आहा ! अति सुन्दर... पहले भी कहा था सबकी कुछ ऐसी ही कहानी होगी... "एक अकेला इस शहर में... रात और दोपहर में..."

my great india said...

कमाल है मै अभी तक अंतर नहीं कर पा रहा हू की ये आपकी जीवनी है या मेरी समय और जगह बदल दे तो कोई फरक नहीं है.
praveensinhaa@gmail.com

Sanjay Grover said...

ऐसा लिख रहे हैं आप कि कमेंट न करो तो अपराध-बोध होने लगता है। कृपया पूरा करकें ही छोड़ें।

ritu raj said...

dada khoob bhalo.
thanks

prabhat gopal said...

apki lekhanshaili kuch aisi hai ki log bandhte chale jate hai. kam se kam itna to pata chala ki bihar se gaye yuvak kaise jindagi ko ji rahe the....

gaurav vidrohi said...

waah ravish sir ji.........
pad kar bus maja aa gaya isko. mai to abhi chatr jivan se gujar raha hu aur delhi me hi hu. ab ghar se itni door rahkar bhi kabhi kabhi ghar jane ka man nahi karta. patrkaarita ka student hu isliye mere rrom par bhi jam kar bahas hoti rahti hai. apka lekh pada to laga jaise apni zindgi hi to jhalak rahi hai isme se..

JC said...

"...उत्तरांचल की एक संभ्रात सी लड़की से स्टाफ बोलना सीख गया..."

इस से मुझे याद आता है कि मेरे माता-पिता दोनों उत्तरांचली ही थे, बाबूजी 'ख़ास' अल्मोड़े के और ईजा नागौर, बेड़ीनाग, की जहां मेरा कभी भी जाना बहीं हुआ और अल्मोड़ा (नैनीताल भी) मैं एक परदेसी या विदेशी सैलानी के सामान गया हूँ, कई एक बार...
मेरी ईजा शादी के लगभग सात वर्ष बाद दुरागमन द्वारा '३१ में पहली बार शिमला आई थी, और जहां द्वितीय विश्वयुद्ध के आरंभ होने से पहले मेरा जन्म हुआ था...और, जैसा उपेक्षित है, उसे हिंदी बोलनी बिल्कुल नहीं आती थी...

और, जैसा कहा जाता है मैंने, दिल्ली में होश सम्हालने के बाद, उनको और बाबूजी को भी बच्चों से हिंदी में ही बोलते सुना, क्यूंकि केंद्रीय सरकार में कर्मचारी होने के कारण उन्होंने 'पहाड़ी' को मान्यता नहीं दी...उन दिनों 'पहाड़ियों' के मन में एक हीन भावना थी क्यूंकि वहां से अधिकतर गरीब लड़के घरेलू कर्मचारी बन शहरों में काम करते थे, और शायद अभी भी करते हैं...मेरी लड़की के कार्यालय में कुछेक वर्ष पहले जब उससे किसी ने मेरा नाम पूछा तो उसने कहा अरे! मेरे 'कुक' का भी बिल्कुल यही नाम है! जब में इंजीनियरिंग पढ़ रहा था तो सन ६०-६१ में एक इतिहास के टीचर के सुझाव पर कम्युनिटी सिंगिंग के कार्यक्रम में मैंने एक ग्रुप के साथ एक पहाड़ी गाना गाया...अगले दिन अपनी मेस में मैं घेर लिया गया क्यूंकि अधिकतर सभी हमारे इलाके के ही थे. जब मैंने कहा मुझे बोलना नहीं आता है यद्यपि मैं समझ सकता हूँ, वो मानने को तैयार नहीं थे :( मैंने छुट्टी के दौरान घर लौट अपनी माँ से शिकायत की उन्होंने क्यूं हमें पहाड़ी बोलना नहीं सिखाया?...उसका जवाब था हमनें सीखने के लिए तुम्हें मना तो नहीं किया था! अब वो भी दिल्ली का पानी पी होशियार हो गयी थी :)

फिर भी पहाड़ी सीधे ही होते हैं. एक 'रौंग नंबर' ने मुझे कहा वो हमीरपुर से बोल रहा था तो मैंने उसे कहा कि मेरा जन्म शिमला में हुआ था जिसके नाते में भी हिमाचली हूँ...उसने अपना पता बताया और निमंत्रण दे डाला :)

Sarvesh said...

मेरे एक मित्र ने आपके वन रूम सेट के बारे में बताया. पढ़ कर बहुत मजा आया. हम तो दिल्ली में नहीं रहे हैं लेकिन हाँ पटना के वन रूम सेट की याद तजा हो गयी. और पोस्टर चिपकाने के कुछ शौक़ीन तो छत के सिल्लिंग में लगाते थे ताकि day dreaming के समय उन्हें निहार सकें. बहुत बढ़िया.
-Sarvesh
Bangalore

amit yadav said...

sir vakai apki ye series padhkar ek bar fir se one room set ki jindagi jine ka man kar raha hai main iska ek bhi article nahi chod paya hun....lagta hai ki apne mere samne meri hi kahani kholkar rakh di ho....