जब हमारे भीतर का कुत्ता बड़ा हो जाएगा




















यह कुत्ता हमारे भीतर से निकल कर विशालकाय हो गया है। वेद प्रकाश गुप्ता हम सबके भीतर दुबके कुत्ते को बड़ा कर देना चाहते हैं। दिल्ली के प्रगति मैदान में उनकी यह कलाकृति हम सबके लिए आईना है। बिहार में जन्मे और बड़ौदा स्कूल ऑफ आर्ट से कला में दीक्षित होकर निकले वेद प्रकाश गुप्ता क्षेत्रीय पहचान को भुनाने वालों को भी कुत्ते की तरह देखते हैं। मैंने पूछा कि आपने इतना विशाल कुत्ता क्यों बना दिया। इस युवा कलाकार का जवाब था कि हम सब कुत्ते के सामने बौने हो गए हैं। सफेद और काले रंग के इस डालमेशियन को चुनने का मकसद यही है कि जब हम खुद को सफेद बनाने की कोशिश करते हैं तो काले दाग को ढंक नहीं पाते। दोहरापन नहीं चलेगा। कहते हैं आज हम सब बौने हो गए हैं। लोकतंत्र में सवाल करना भूल गए हैं। सामाजिक बुराई से कौन लड़ेगा। मैं कलाकारों के बीच नहीं रहता। समाज में रहता हूं। बेचैन हूं कि इन बुराइयों से लड़ा जाए। इसलिए मुझे सामाजिक समस्यायें विकराल नज़र आने लगती हैं। कुत्ते की तरह दुम हिलाने या चाटने की आदत के शिकार हो गए हैं। हमें नज़र न आता हो लेकिन हम कुत्ता बन गए हैं। वेद के जवाबों से मेरी बेचैनी बढ़ गई। कला को लेकर मेरी समझ ज़ीरो है। मेरे लिए यह भी ज़रूरी नहीं कि मेरी पहचान इस आधार पर भी बने कि मैं कला को समझता हूं।

लेकिन वेद प्रकाश गुप्ता के जुझारूपन पर फिदा हो गया। जवान सा एक लड़का। इतनी बातें करना चाहता है,इतना कुछ करना चाहता है कि ऐसे लड़कों के लिए स्पेस कहां हैं। तो वो क्या करेगा?अगर कलाकार है तो एक दिन हम सबके भीतर बैठे कुत्ते को खींच कर बाहर निकालेगा,तान तान कर इतना बड़ा कर देगा कि आइने के सामने खड़े होने में डर लगेगा। मुंह पर भौंकने लगेगा कि बताओ तो हम अपने अपने दफ्तरों में लोकतंत्र और समाज की लड़ाई लड़ रहे हैं या इस उस को कम बताकर खुद को महान साबित करने की सेटिंग रच रहे हैं। ये बाबू लोग क्यों नेताओं की चाटने लगते हैं? ये नेता लोग क्यों बाबुओं की चाटने लगते है? कुत्ता बनने की प्रक्रिया हर तरफ है। इस क्षुद्र मानवीय प्रवृत्तियों के सहारे भीतरघात की तमाम कोठरियों में हम सब कुत्ते बन जाते हैं। अखबारों में लेख लिख देते हैं,किसी की समीक्षा कर देते हैं,इस कोशिश के साथ पांच सौ लाइनों में किसी पर सवाल उठा देने से लोकतांत्रिकता का दायित्व पूरा हो जाता है। लेकिन उसी लेखक को आप उसके सामने खड़ा कर दीजिए,जिसके फैसलों को चुनौती देकर लेख लिखा जाता है तो सौ में से निन्यानबे आदमी कुत्ता बन जाते हैं और चाटने लगते हैं। हम लोकतंत्र को भी अधिकार की तरह चाहते हैं। दायित्व की तरह नहीं। स्वाभाव की तरह नहीं। इसीलिए अपनी पसंद का एक डेमोक्रेटिक स्पेस बनाते हैं और उसमें कुत्ता बन कर चाटते रहते हैं। इस डेमेक्रेटिक स्पेस के शीर्ष पर बैठे लोगों की कभी आलोचना नहीं करते,क्योंकि उससे बाहर कर दिये जाने की आशंका की वजह से उस पर और वहीं पर सवाल नहीं करते। परोक्ष रास्ता चुनते हैं। कलाकार कहता है सवाल तभी तक महत्वपूर्ण है जब वो उसी समय और उसी जगह पर किया जाए। जसवंत सिंह की तरह नहीं। पार्टी से निकाल दिये गए तो आडवाणी और वाजपेयी के राज़ उगल रहे हैं। वेद कहते हैं जब तक हमारे भीतर का कुत्ता नहीं निकलेगा,हम सब बिना चाटे खाने का स्वाद ही नहीं ले सकेंगे।

वेद प्रकाश गुप्ता कहते हैं कि मैं हम सबके भीतर बैठे इसी कुत्ते को बाहर निकाल देना चाहता हूं। चार महीने लगा कर यूं ही नहीं बनाया है इस कुत्ते को। जब मैं वेद प्रकाश से बात कर रहा था तो उनकी ऊर्जा मुझे बिजली दे रही थी। वही इस विशालकाय कुत्ते के आसपास गली के कुत्ते बदहवास घूम रहे थे। बौरा गए थे। ये क्या हो गया है। कुत्ते इतने बड़े क्यों होने लगे हैं? कुछ कुत्तों ने इस मूर्ति पर भौंकने की बहुत कोशिश की लेकिन अपनी ही जात के इतने विशालकाय हो जाने पर भौंचक्क होकर भाग भी रहे थे। अजब नज़ारा था। नीचे वेद की एक और कलाकृति है जिसमें कुत्ता आदमी को चाट रहा है। जब आदमी कुत्ते की तरह चाटने लगेगा तो कुत्ता तो वही करेगा न जो करता आया है। आदमी को चाट लेगा।





23 comments:

प्रज्ञा पांडेय said...

aadami ke bheetar ka kutta sach men bada hota ja raha hai .. ved prakaash ji ne sahi baat sabko dikha di aur aapne blog ke zariye hum sab ko bata diya ek ghinouna sach ... dhanyvaad .

सतीश पंचम said...

अभी अभी आपकी यह रिपोर्ट देखी है NDTV पर।

सचमुच कुत्ते के जरिये एक अच्छा रूपक पेश किया है वेद प्रकाश जी ने।


कुछ समय पहले भी कुछ इसी तरह का एक प्रयोग इंदौर में हुआ था। वहां पर नेताओ को जन्मदिन की बधाईयां देने वाले बडे बडे बैनर - कटआउट ज्यादा दिखने लगे तो इंदौर के रंगकर्मियों ने वहां पर उन नेताओं के बैनर के बगल में कुत्तो की तस्वीरे लगाना शुरू कर दिया।

मोती जी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई देते।



नेताओं के बैनर कम हो गये थे तब।

अब क्या हालात हैं वहां, मैं नहीं जानता।

श्यामल सुमन said...

रवीश जी,

आपने बहुत ही कटु सच कह दिया कि- "हम लोकतंत्र को भी अधिकार की तरह चाहते हैं। दायित्व की तरह नहीं।" १९७६ में जब टाटा स्टील ज्वाइन किया था तो किसी मित्र ने मजाक में ही कहा था कि भले हम कर्तव्य (ड्यूटी) को जीवन भर न जानें लेकिन अधिकार (राइट्स) को पहले जान लेते हैं। बात भले मजाक की हो, लेकिन यह कड़वा सच आज भी मुझको उद्वेलित करता रहता है, जिसे आज आपने और ताजा कर दिया।

कुत्ता को माध्यम बनाकर वेद जी की बातों को नया आयाम देने की कोशिश सराहनीय है। काश हर कोई कुत्तो से कुछ सीख पाता कम से कम देश और समाज के प्रति वफादारी ही।

मधुकर राजपूत said...

चाटन-चाटन सब करें लोकतंत्र में यार,
ना चाटो तो तरक्की नहीं, चाटो तो हो जाए उद्धार।
वाह री चटास।

JC said...

शायद गुप्ताजी भूल गए, या उन्हें मालूम नहीं, कि कुत्ते की उत्पत्ति जंगली भेडिये से हुई...और यह कि प्रकृति के नियमानुसार भेडिये भेडिये और कुत्ते कुत्ते में भी अंतर होता है...इसके अतिरिक्त हिन्दू मान्यता के अनुसार आदमी भी इश्वर कि उच्चतम कलाकृति है, और आदमी आदमी में भी अंतर होता है - कुछ जंगली भेडिये से ले कर वफादार कुत्ते जैसा व्यवहार करते हैं - जैसी स्तिथि होती है समय समय पर...

राजन अग्रवाल said...

रवीश जी, ये चटुकारिता का ही ज़माना आ गया है, बिना इसके किसी को चैन कहाँ है? जो करते हैं मलाई काट रहे हैं, और जो नहीं करते उनका हाल बेहाल है. लेकिन हर आदमी सिर्फ मलाई के लिए ही तो ऐसा नहीं करते. कुछ की मजबूरी होती है, घर चलाना होता है, परिवार देखना होता है, तो थोडा समझौता कर लेते हैं. फिर धीरे धीरे उसकी आदत हो जाती है, रूटीन लगने लगता है, बेरोजगारी के दिनों में जिस तरह विरोध कर पाते थे वो अब नहीं हो paata. लाला की नौकरी करते करते सोच कुंद हो जाती है. फिर विरोध करने की जब सोचते हैं तो आवाज़ ही नहीं निकलती. ये आज की हकीकत है. लेकिन उम्मीद रखिये कि जैसे विरोध के दिन ख़त्म हुए हैं, वैसे ही विरोध न करने के दिन भी नहीं रहेंगे, एक बार फिर लोगों कि रीढ़ सीधी होगी, और फिर से विरोध ki गूंज सुनाई देने लगेगी. बस उस दिन का इन्तजार कीजिये.

राजन अग्रवाल said...
This comment has been removed by the author.
Sanjay Grover said...

kya kutte ko vafaadaar isi liye mana jata hai ki vah sahi-galat dekhe bina, shraddha-bhav se maalik/guru/sir ki himaayat karta hai ?

JC said...

कुत्ता द्योतक है मालिक/ स्वामी, यानि पृथ्वी और उस पर आधारित जीव के अपेक्षित व्यवहार का...आम आदमी का स्वामी परोक्ष रूप से पृथ्वी है, उसके भोजन ग्रहण करने की थाली जैसे, किन्तु ज्ञानी पूर्वजों के दृष्टिकोण से अज्ञानता वश वो उसमें छेद करता ही नज़र आता है कलियुग में...आधुनिक सोलह वर्षीय भी कहते सुनाई देतें हैं कि वो किसी इश्वर विश्वर में विश्वास नहीं करते :)

किन्तु "अति भक्ति चोरेत लक्षणंम"...

Sanjay Grover said...

MaiN JC saheb ke gyan ka kayal huN. Hairani bhi hoti hai aur dukh bhi ki itna gyanwan vyakti ek hi blog tak seemit parha hai. Shayad JC sahab ne apna bhi koi blog nahin banaya. Dusre blogs par bhi jakar tippni karte to kitne log labhanvit hote. Khair, hum to yahiN aa jate hain labhanvit hone.

Yachna said...

बहुत सुंदर रचना
इस सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका चिट्ठाजगत पर स्वागत है।

आभार...

शशांक शुक्ला said...

अब क्या कहूं आप ही मजबूर है तो दूसरों की मजबूरियों का क्या होगा। लेकिन कुत्तों की फितरत बदलती नहीं है जिससे रोटी पाते है उसी की चाटते है

Anonymous said...

Tab to balva khadaa ho jaayega.
वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

Khushdeep Sehgal said...

मुझे न जाने क्यों एक पाकिस्तानी पत्रकार दोस्त का सुनाया किस्सा याद आ जाता है. एक बार एक दीन-हीन किसान सूखे की मार से गाँव में परेशान हो गया. खाने तक के लाले हो गए तो किसी सयाने ने शहर जाकर मजदूरी करने की सलाह दी. बेचारा शहर आ गया. शरीर पर पहनने को सिर्फ एक लंगोटी थी. शहर में पहुँचते ही उसने एक बड़ी सी मिल देखी, नाम था अब्दुल्ला राइस मिल. थोडी दूर और चला तो दिखाई दिया अब्दुल्ला कोल्ड स्टोर. फिर आगे चला तो देखा- अब्दुल्ला काम्प्लेक्स. पचास कदम बाद फिर आलीशान कोठी- अब्दुल्ला महल. तब तक चौपला आ गया था. किसान ने वहां ठंडी सी सांस भरी और अपनी लंगोटी भी उतार कर हवा में उछाल दी, साथ ही आसमान में देखते हुए कहा- जब तूने देना ही सब अब्दुल्ला को है, तो यह भी अब्दुल्ला को ही दे दे.
 

JC said...

ग्रोवरजी, शायद यह कहना अजीब लगे की मेरा कोई निजी ब्लॉग नहीं है किन्तु मैं विभिन्न ब्लॉग आदि में वर्ष '०५ के आरंभ से लगातार लिख रहा हूँ - अधिकतर अंग्रेजी में...उसके पहले मैं मीडिया वालों से एक तरफा पत्राचार करता था...

मुझे समाचार पत्र में पढने को मिला कि कैसे ब्लॉग आजकल छा गए हैं...और इसे 'संयोगवश' कहें तो खोजने पर पहला ब्लॉग http://indiatemple.blogspot.com मंदिर आदि पर देखने को मिला...तभी से मैंने टिप्पणियां आरंभ कर दीं क्यूंकि मैं 'सत्य' की खोज में '८० के दशक से ही कुछ विचित्र घटनाओं के घटित होने के कारण गहराई में जाने की ठान चुका था...और मैं इश्वर के अथाह ज्ञान का कायल होता चला गया जैसे जैसे वो मुझे नित्य प्रति कुछ नया दिखाता चला गया - किन्तु खोज का अंत दीखता ही नहीं है :)

Aadarsh Rathore said...

कलाकार की सोच की तारीफ करनी होगी...

JC said...

क्या आपने सोचा कि कुत्ता जब आपके हाथ-पैर चाट रहा होता है तो वो शोले फिल्म की प्रसिद्ध लाइन "हुजूर मैंने आपका नमक खाया है" का मूक भाषा द्वारा चित्रण कर रहा हो सकता है?

हरी अनंत है :)

Arvind Mishra said...

स्वयं को व्याखायित करती अद्भुत कलाकृति मगर इसकी इसकी टीका क्या बहुत लम्बी नहीं हो गयी है ?

ankurbanarasi said...

aapki email id chahta hun.janta hun yahn ye sahi stambh nahi hai par mere pass aur koi option nahi hai?
please sir.
thnxx

Voice of India said...

अपने हक की बात करना गलत है क्या

Ram N Kumar said...

मुझे भी इंडियन आर्ट समिट में शिरकत करने का मौका मिला. यह कुत्ता तो वाकई लाजवाब था...सारे प्रदर्शनी का जान. waise इंडियन contemporary आर्ट aajkal khub bik रहा है.. 1 crore में एक painting.......

anil yadav said...

भौं...भौं .....गुर्र ....गुर्र

Unknown said...

kutte, buddha aur kabir ke jamane me bhi thee aur har samay rahenge.......lekin log kutton ke naam ko yaad nahi rakhate.......mahan aadmi ki vacancy har samay khali hai. vaise ved ki sonch ko salaam.