जसवंत, जिन्ना बनना चाहेंगे- पार्ट टू






















इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय ओपन विश्वविद्यालय के प्रो सलील मिश्रा कि किताब A Narrative of Communal Politics, Uttar Pradesh 1937-39 पढ़नी चाहिए। सेज प्रकाशन ने यह किताब छापी है। जसवंत सिंह की किताब भी पढ़नी चाहिए।
मैंने अभी नहीं पढ़ी है लेकिन मीडिया में जिस तरह से उनकी किताब के हवाले से १९३७ के चुनाव को लेकर ज़िक्र आया है कि इसी के बाद विभाजन तय हो गया तो मैंने सोचा कि इतिहासकारों की नज़र से भी देखता हूं। उन किताबों को फिर पलटा जिन्हें कभी पढ़ा करता था।

प्रो सलील मिश्रा लिखते हैं कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के साथ आने को लेकर समकालीन नेताओं और आधुनिक इतिहासकारों ने कई नज़र से देखने की कोशिश की है। दलील जी जाती है कि यूपी में १९३७ में जो हुआ उसी के नतीजे में विभाजन हकीकत बना। अगर कांग्रेस और लीग की साझा सरकार बनती तो विभाजन नहीं होता। कई तरह की बातें होती हैं। लीग और कांग्रेस के घोषणा पत्र में विशेष अंतर नहीं था। दोनों में अनौपचारिक समझ बनी थी कि साझा सरकार बनायेंगे। एक प्रमाण बहराइच का दिया जाता है। जब मुस्लिम लीग के कांग्रेस के रफी अहमद किदवई के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था। किदवई बहराईच में उम्मीदवार थे,जहां उपचुनाव हो रहा था। लेकिन कहा गया कि जीत के बाद कांग्रेस बदल गई।

सलील कहते हैं कि इन दलीलों को काफी तार्कित तरीके से गढ़ा गया। जबकि कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं कि कांग्रेस और लीग में चुनाव बाद समझौते की किसी तरह की बातचीत हुई है। सीतापुर रूरल,सुल्तानपुर रूरल और लखनऊ अर्बन मुस्लिम सीट पर कांग्रेस और लीग आमने सामने लड़े। १९३७ के चुनाव में कांग्रेस ने मुस्लिम सीटों पर कम ही चुनाव लड़ा। ४८२ में से सिर्फ ५८ सीटों पर। बाकी सीटें अलग अलग राज्यों की पार्टियों के लिए छोड़ दी।


इस चुनाव में जनसभाओं में नेहरू और जिन्ना के भाषण एक दूसरे के खिलाफ उग्र हुए। नेहरू ने कहा कि भारत में सिर्फ दो पार्टियां हैं। कांग्रेस और ब्रिटिश गर्वमेंट। जिसका जवाब देते हुए जिन्ना ने कहा था कि एक तीसरी पार्टी भी है- मुस्लिम लीग। एक सभा में जिन्ना ने कहा था कि नेहरू मुसलमानों को अकेला छोड़ दें। इसी चुनाव में लीगी कांग्रेस को खुलकर हिंदू संगठन कहने लगे थे। नेहरू और जिन्ना ने दोनों ने कहीं भी १९३७ के चुनाव के बाद गठबंधन की सरकार की बात नहीं की है। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के यूपी के कुछ नेता ज़रुर कहते मिलते हैं। वैसे ही जैसे २००९ के चुनाव के बाद अमर सिंह कांग्रेस की सरकार को समर्थन देना चाहते हैं और कांग्रेस लेना नहीं चाहती तो चिट्ठी राष्ट्रपति को दे आते हैं। ये पोलिटिक्स तब से हो रही है दोस्तों।


सलील मिश्रा बहराईच सीट के मिथक को भी तोड़ देते हैं। अपने प्रमाणों के आधार पर लिखते हैं कि मुस्लीम लीग ने इसलिए किदवई के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारा था कि दोनों में कोई समझौता हुआ था। बल्कि जिन्ना ने एक बयान जारी किया था कि बहराईच से पहले भी मुस्लीम लीग का उम्मीदवार जीत चुका है। इस बार तो कांग्रेस वहां उम्मीदवार देने की गलती भी न करे। लेकिन जब उम्मीदवार तय करने के लिए मुस्लिम लीग की वर्किंग कमेटी की बैठक हुई तो किसी मुसलमान ने अप्लाई ही नहीं किया। एक उम्मीदवार मिला भी तो उसने अपना नाम वापस ले लिया और रफी अहमद किदवई निर्विरोध चुने गए।

सलील बताते हैं कि यह अफवाह इस बात के साथ उड़ी कि कांग्रेस को लीग से समझौता करना चाहिए क्योंकि कांग्रेस एक भी मुस्लिम सीट नहीं जीत पाई है। जबकि यह सही नहीं था। खैर,इसलिए मंत्रिमंडल में मुसलमानों को जगह देने के लिए लीग से समझौता करना चाहिए। ये समझौता कैसे हो सकता था? नेहरू ने घोषणापत्र में लिखा था कि भारतीय लोगों की राष्ट्रवादी मांग है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अंत हो और पूर्ण स्वतंत्रता मिले। मुस्लिम लीग के घोषणापत्र में था कि भारत के लिए एक पूर्ण ज़िम्मेदार सरकार हो। आज़ादी की मांग नहीं थी। कांग्रेस को खारिज करना ही करना था।

इसके बाद प्रो सलील मिश्रा इस बात की खोज करते हैं कि कांग्रेस लीग के गठबंधन की बात आई कहां से। कहते हैं कि उस वक्त यूपी का गर्वनर था हैरी हैग। इसने सोचा था कि चुनाव के बाद दोनों मिलकर सरकार बनायेंगे। ये इसकी सोच थी जो बाद में अफवाह उड़ी और उड़ते उड़ते जसवंत सिंह की किताब में धूल बन कर पहुंच गई। जैसे हम सब पत्रकार इस चुनाव के बाद मान कर चल रहे थे और हममें से आज भी कई पत्रकार मानते हैं कि कांग्रेस को लालू,पासवान और मुलायम को साथ लेकर चलना चाहिए। यूपी की पोलिटिक्स को समझो भाई।

सलील बताते हैं कि ये हैग की कल्पना की उपज थी। जैसे आज कल एक्ज़िट पोल वाले सोचा करते हैं। हैग ने सोचा था कि कांग्रेस तो अकेले सरकार बना नहीं सकती।उसे लीग की मदद लेनी ही पड़ेगी।लेकिन रिज़ल्ट आ गया उल्टा। कांग्रेस को बहुमत मिल गया। १९३७ में हालात ऐसे बन गए थे कि जिन्ना और नेहरू या लीग और कांग्रेस एक साथ नहीं आ सकते थे।

बहुत लंबा नहीं लिखूंगा। मन तो कर रहा है। लेकिन इतिहास को दोनों तरफ से देखा जाना चाहिए। आडवाणी और जसवंत इन दोनों को जिन्ना तो नज़र आते हैं मगर नेहरू और गांधी नहीं। खुद कभी पहल नहीं कि मुसलमान बीजेपी की धारा से जुड़े। दो चार सांसद लेकर प्रतीक के तौर पर दिखाते रहते हैं लेकिन जिन्ना को महान बताकर नेहरू को कम बताते हैं। अपने घर में इफ्तार कर लेने से सेक्युलर नहीं हो जाता कोई। गुजरात के दंगों के वक्त दंगाइयों के खिलाफ खड़े होना पड़ता है।

6 comments:

पंकज बेंगाणी said...

मैं आजतक समझ नहीं पाया कि आखिर सेक्यूलर बना कैसे जाए? ;) शायद कुलदीप नैयर, रविश कुमार, और दुआ साहब बेहतर तरीके से समझा सकें.

विजय प्रकाश सिंह said...

आदरणीय रवीश जी,

मैं तो आपका प्रशंसक हूं परन्तु जिस तरह से इतिहास को एक संकीर्ण दॄष्टि से और कांग्रेसी नज़रिये से देखा जा रहा है वह अनुचित है । आपका यह कहना कि मुस्लिम लीग ने १९२० के बाद अलग राह पकडी तो इस पर भी ध्यान दीजिएगा :

खिलाफ़त आन्दोलन का समर्थन की क्या आवश्यकता थी, क्या वह निर्णय मुस्लिम तुष्टीकरण का कांग्रेसी शुरुआत नही था । वह एक कदम भारत की राजनीति में हिंदू दक्षिणपंथ की शुरुआत, मुस्लिम लीग को एक्स्ट्रीम डिमांड की तरफ़ धकेलने वाला नही साबित हुआ ।

दूसरा ,इन बातों का भी खुलासा होना चहिए कि क्या जिन सूबों मे जिन्ना साहेब और लीग मुस्लिम शासन की मांग कर रहे थे वे अब पाकिस्तान में हैं या नहीं । जितना रिज़र्वेसन सरकारी नौकरियों में मांग रहे थे वह पाकिस्तान और भारत मिलाकर उससे ज्यादा प्राप्त है या नहीं । और क्या आज कांग्रेस की सरकार मुसलमानों को भारत में आरक्षण देने की पूर्ण तैयारी में है या नहीं तथा कुछ राज्यों में कोर्ट के दखल बावजूद कांग्रेस ने आरक्षण दिया या नहीं ।

अगर पिछले ७५ - ८० सालों की राजनीति का अवलोकन किया जाय तो यह कहना अतिसयोक्ति न होगी कि जिन बातों को १९३० में रिजेक्ट किया २००९ में वे सब पिछले दरवाजे लागू हो रही हैं पूरे सेकुलर सर्टीफ़िकेट के साथ क्योंकि कमिटेड मीडिया और सच्चर कमेटी साथ हैं और वोट बैंक पर नज़र है ।

इसके बाद यह बहस तो जायज है कि बटवारा क्यों हुआ और क्या जो उद्देश्य बटवारे का था वह हासिल हुआ । इस पर बहस से क्यों भागते हैं और हंगामा खड़ा करके, तथ्यों को घुमा कर असली मुद्दे को दबा देना चाहते हैं । इस पर बहस आज नही तो कल होगी ही , सेकुलरिज्म का बुखार थोड़ा कम होगा तब होगी, शायद कुछ सालों बाद ।

और अंत में आपने मुस्लिम लीग और कांग्रेस के १९३७ के संयुक्त प्रांत के समझौते की तुलना २००९ के लालू , मुलायम और पासवान से किया यह भी अनुचित है, क्योंकि यह सब जानते हैं कि २००९ के चुनाव में इनका कोई समझौता नहीं था एक सीट पर भी नहीं । तुलना अगर जायज है तो एन सी पी से जहां महाराष्ट्र में समझौता था अन्य जगह नहीं । चुनाव के बाद दोनों सरकार में शामिल हैं । दोनों का आपस में विरोध भी कम नहीं है, आखिर सुषमा स्वराज ने तो सिर्फ़ धमकी दिया सिर मुडाने का, पवार साहेब ने तो पार्टी तोड़ी । अगर आप का यह कहना ठीक है कि लीग और कांग्रेस १९३७ में साथ खड़े नहीं रह सकते थे तो चुनाव पूर्व समझौता क्यों किया था चाहे कुछ सीटों का ही सही ।

एन डी टी वी पर तो आप कमिटेड हैं चैनेल की वजह से, पर ब्लोग पर भी वही कांग्रेस प्रवक्ता वाला तेवर । माफ़ी चाहूंगा अगर कुछ अनुचित लगा हो तो मगर आपकी टिप्पड़ी का इन्तज़ार रहेगा ।

आपका प्रसंशक ,

ravishndtv said...

विजय जी
मैं कांग्रेस का प्रवक्ता नहीं हूं। न तो टीवी पर न ही ब्लॉग पर। विभाजन पर क्यों नहीं बहस होनी चाहिए? आपको क्या लगता है कि बहस नहीं हुई या हो रही है? कौन सा तथ्य मैंने मोड़ दिया है मैंने। जसवंत सिंह एक प्रमाण दे दें कि किस बैठक में जिन्ना और नेहरू के बीच १९३७ में यूपी में गठबंधन सरकार बनाने का फैसला हुआ था? दे दें तो अच्छा है। मैं कह रहा हूं कि अभी तक इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है। नए तथ्य के साथ इतिहास की सोच बदलती है।


सेकुलरिज्म बुखार नहीं है। सांप्रदायिकता बुखार है। आप बात को कहीं से कहीं ले जा रहे हैं। कांग्रेस मुसलमानों के लिए आज क्या कर रही है उसका इस लेख से कोई संबंध नहीं है। मैंने जिन्ना की भूमिका के आस पास की राजनीतिक प्रक्रिया का ज़िक्र करने के लिए लेख लिखा है।

लालू मुलायम का ज़िक्र इसलिए किया गया है ताकि जो इतिहास के विद्यार्थी नहीं हैं उनसे आज के रूपक के सहारे संवाद किया जा सके कि किस तरह से राजनीति में तब भी शक या गेस के आधार पर दलीलें गढ़ी जाती रही है। तुलना करने का इरादा बिल्कुल नहीं था।

Khushdeep Sehgal said...

रवीश भाई, बीजेपी की पहले हार फिर यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, वसुंधरा के तीर, और अब जसवंत का जिन्ना हथौडा. जिस तरह बीजेपी ने खुद को बुरे दौर में फंसा लिया है, उस पर हरियाणा का एक किस्सा याद आ रहा है। एक बार एक लड़की छत से गिर गयी, लड़की दर्द से बुरी तरह छटपटा रही थी, उसे कोई घरेलु नुस्खे बता रहा था तो कोई डॉक्टर को बुलाने की सलाह दे रहा था, तभी सरपंच जी भी वहां आ गए. उन्होंने हिंग लगे न फिटकरी वाली तर्ज़ पर सुझाया कि लड़की को दर्द तो हो ही रहा है लगे हाथ इसके नाक-कान भी छिदवा दो, बड़े दर्द में बच्ची को इस दर्द का पता भी नहीं चलेगा, वही हाल बीजेपी का है. चुनाव के बाद से इतने झटके लग रहे है कि इससे ज्यादा बुरे दौर कि और क्या सोची जा सकती है. ऐसे में पार्टी कि शायद यही मानसिकता हो गयी है कि जो भी सितम ढहने है वो अभी ही ढह जायें, कल तो फिर उठना ही उठना है. आखिर उम्मीद पर दुनिया कायम है.

hamarijamin said...

Ravishji,
badhia likha vishleshan kiya hai aapne.itihas ke tathya or itihas ki samajh dono ka istemal kiya hai.
jaswant,virenji,salil adi ne pustak likhi hai jina par--sabaki apani drishti or ajende hain...
lekin pata nahi L.K.adwani ki jina ke bare mein kisi dusare ke quoat ke prati anudarta barti jati hai?
adwani ne koi jina par lamba chauda bhashan nahi diya,nahi koi kitab likh mari!(unki ranniti ho sakti hai)
khair, loktantra me har kisi ko apni wajib bat kahne ki ajadi so adwani,jaswant ko bhi hai.
ek critic ka kam hai punradrishti dena.
aap se bhi ek vishleshak,samalochak
ki tarah apni bat rakhane ki apeksha hai,jisme amtaur par aap khare bhi utarate hain.

Raag said...

गजबिये लिखे हैं रविश जी. आपके कलम की नोक की धार तेज़ ही होती जा रही है.