फ फू फू फा ही करती रह गई कमीने, एक बेकार फिल्म है

जो भी सोये हैं ख़बरों में उनको जगाना नहीं...। इस खूबसूरत लाइन को फिल्माने का बेहतर अंदाज़ क्या होना चाहिए था? कहीं ऐसा तो नहीं कि विशाल भारद्वाज जैसा प्रतिभाशाली निर्देशक बहुत अच्छी चीज़ को संभाल नहीं पाता है और मटकी फूट जाती है। मुझे शक था। जब से टीवी पर ढैन टन टनन...देख रहा हूं,लग रहा था कि इस गाने की जगह डिस्को नहीं हो सकती है। इस गाने में जो टपोरीपन और दुनिया से टकराने की जो क्षमता थी वो डिस्को में जाकर दम तोड़ देती है।

उम्मीद कर रहा था कि ढैन टन टन गाना अपने नए शब्दों और थीम को लेकर नए नए लोकेशन की तरफ दौड़ता भागता लगेगा। मगर ये गाना तीन नंबर के डिस्को गाने की तरह हाफ रहा था। इस गाने में रात ही नज़र नहीं आई। शाहिद कपूर का डबल किसी भाड़े के डबल जैसा लग रहा था। प्रियंका किसी मकसद के बिना पर्दे पर उतारी गई हिरोईन की तरह लग रही थी।

फिल्म हॉल में दर्शक बेचैन होने लगे। खत्म होने से पहले सीढ़ियों पर आ गए। फिल्म तीन तीन सेकेंड के फ्रेम में तो अच्छी लग रही थी लेकिन एक बड़ा कोलाज नहीं बन पा रहा था। फिल्म का कोई भी सीन ऐसा नहीं था कि जो सिनेमा हॉल से निकलने के बाद तक दिमाग में नाचता रहता।

गुलज़ार के शब्दों को संगीत के शोर में खत्म कर दिया गया। मेरी आरज़ू कमीनी, जब ये गाना आया तो बहुत बाद में पता चला कि अच्छा ये वो गाना है। संगीत का इतना भयंकर शोर था कि गुलज़ार के शब्द सुनाई ही नहीं दिये। आजा आजा दिल निचोड़े को भी कैसिओ के दुनंबरी संगीत में निचोड़ दिया है। सिर्फ ढैन टन टन मुखड़ा ही सुंदर और क्रियेटिव रहा। चंपक, नंदन और बाजबहादुर का जिक्र ज़बरन लगा।

फिल्म का अंत महाबेकार तरीके से होता है। पांच टाइप के गैंग एक छोटी सी गली में आ जाते हैं। छत पर खड़ी पुलिस गैंगवार में शामिल है या एनकांउटर करने आई है,ये फर्क तुरंत खत्म हो जाता है। किसी वीडियो गेम की तरह लास्ट सीन लगा। खिलौने वाली बंदूकें कब हंसे कब रोये समझ में ही नहीं आया।

फॉट कट से लेकर फैसा तक के अल्फाज़ आज कल के टाइम में चल जाते हैं। लोगों के पास शब्द नहीं हैं। नए शब्द को जीने का अहसास नहीं हैं। तो इस तरह के चालू चल निकलने वाले शब्द पसंद आते हैं। आप फेसबुक पर देखिये। जिसने भी कमीने के बारे में लिखा है- फ फू का इस्तमाल किया है। कभी कभी लगता है कि फिल्म फ को प्रचारित करने के लिए बनी है। ऐसी बहुत सी फिल्में बन चुकी हैं जिसमें इस तरह के एक शब्द वाले अल्फाज़ चल निकले। आउ लॉलिता से लेकर मोगैंबो खुश हुआ तक। हकलाने की समस्या को भी गंभीरता के साथ या ज़ोरदार व्यावसायिकता के साथ रख कर फिल्म को ऊंचाई दी जा सकती थी।

विशाल भारद्वाज ने रात की मटकी दिन में ही फोड़ दी। कई बार बहुत अच्छा निर्देशक भी चूक जाता है। विशाल इस फिल्म में एक कंफ्यूज़ निर्देशक की तरह लगते हैं। मनमोहन देसाई का फार्मूला फूहड़ तरीके से चलाने की कोशिश करते हैं। लगता है कि एक प्रतिभाशाली फिल्म के फॉरमेट को तोड़ना चाहता है लेकिन अंत में उसी में उलझ जाता है। उसका ढैन टन टन हो जाता है।

कम से कम फिल्म मनोरंजन तो करती। फैसा फर्बाद हो गया। फिशाल फारद्वाज को कोई बताओ कि उनसे अच्छी चीजे संभल नहीं पाती। फ फू करने से नहीं चलता। वो तो हम टीवी वाले करते हैं। टीआरपी के लिए यहां वहां से कट पेस्ट कर कुछ बना देते हैं। दर्शक मिल जाते हैं। काम हो जाता है।

कोई है जो तारीफो में सोये विशाल को जगा सकता है। जगाओ भाई। वो एक काबिल निर्देशक है। रात में मटकी फोड़ने का बहुत दम है उसमें।

29 comments:

chavannichap said...

taknik ko film samjhne ki dikkat chal rahi hai.film mein nayapan tukadon mein hai.poori film to vishal se pahle bhi nahin sambhli.

sharad said...

बेलौस टिपण्णी....लेकिन सच है....

fatoori said...

sach kaha ravish ji..film ke baare me mere bhi kuch aise hi vichaar hain..lekin har jagah sirf taareef padh kar aur sunkar dimaag kuch ghoomne sa laga tha ki maine kya sahi me film ko nahi samjha..aapka post padh ke sukoon mila..poori tarah se ittefaaq rakhta hu..

mera maan na hai ki ye film vishaal ne ek experiment ke taur par banai..jo soch, jo kala, film-making ko lekar jo temperament omkara, maqbool, makdee aur blue umbrella me nazar aaya hai, kaminey me vishal ne use kinare rakh dia hai..shayad wo ek nai disha me jaake dekhna chah rahe the..mujhe lagta hai, ye disha unke liye nahi hai aur unke kaam ka mureed hone ke naate meri unse guzaarish rahegi ki wo is film se sabak len aur usi disha me badhen jisme maqbool ityadi ki madad se vo badh rahe the..

अजित वडनेरकर said...

कल ही श्रीमतीजी और बेटाराम फिल्म देखने गए थे। लौट कर बड़े खुश थे। बेटाराम का कहना था कि मम्मी ये फिल्म बाबा को ज़रूर पसंद आएगी।
अब हम टॉकीज़ में जाकर तो कभी देखते नहीं और आपने इतनी तारीफ़ जो कर दी है। फिल्म ज़रूर देखी जाएगी, पर एक-दो महिना रुक कर।

राजीव तनेजा said...

पहले सोचा था कि हॉल में जा के फिल्म देखी जाए लेकिन अब आपके रिव्यू के बाद सोच रहा हूँ कि इसका पाईरेटिड वर्ज़न डाउनलोड कर घर बैठे के देखूँ या फिर टी.वी पे आने का इंतज़ार करूँ

दिनेशराय द्विवेदी said...

फिल्म पूरी देख ली क्या? अगर हाँ, तो फिर आप का लोहा मानते हैं।

मुनीश ( munish ) said...

' कमीने' से हिम्मत लेकर आने वाली फिल्मों के टाइटिल कुछ यूं हुआ करेंगे ...'कुत्ते' , 'हरामज़ादे' एवम ' चूतिये' ! वैसे दर्शक भी ऐसा ही बुदबुदाते हुए निकले .

Sanjay Grover said...

रवीशकुमार ने जो लिखा है उसमें उन्होंने कहानी नहीं बतायी है। उसे हम एक प्रबुद्ध दर्शक की प्रतिक्रिया कह सकते हैं। फिर भी हम उसे बतौर एक दमदार टिप्पणी, मिहिर की समीक्षा के सामने रख सकते हैं। जहां तक फ को फ कहने का मामला है, ‘पराग’ और वरिष्ठ लेखक के. पी. सक्सेना याद आ जाते हैं। हमारे वक्त के इकलौते वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले बालकथा मासिक (‘नंदन’ और ‘चंदामामा’ भूतप्रेत और राजा महाराजा के किस्से छापते थे) ’पराग’ में सक्सेना साहब ने खलीफ़ा तरबूज़ी नामक पात्र रचा था जो फ को फ कहता था और अत्यधिक लोकप्रिय हुआ था। उस वक्त हमें उसमें बहुत बढ़िया व्यंग्य नज़र आता था। सबसे पहले उसे पढ़ने के लिए हम लड़ पड़ा करते थे। अब लगता है कि यह कोई स्वस्थ हास्य नहीं है। साफ कर दूं कि मैंने ‘कमीने’ नहीं देखी है।
(Mohallalive par aapko aur mihir ko padhne ke baad)

Nikhil said...

मुनीश जी की टिप्पणी गौर करने लायक है...

JC said...

एक समय हम इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इस जीवन के भागम-भाग से समय निकाल आम आदमी फिल्म देखने जाता है मनोरंजन के लिए...इसको ध्यान में रख फिल्म से कुछ अपेक्षा रखना मूर्खता है...हमें अपना दिमाग घर पर ही छोड़ देना चाहिए...यदि आप बिना किसी पूर्वाग्रह के फिल्म देखेंगे तो शायद कोई न कोई बहाना मनोरंजन का हर पिक्चर में मिल ही जायेगा...और पैसा वसूल हो जायेगा :)

Unknown said...

फरदर्द, इत्ति तेज़ी भी फरदर्द करती है विशाल भाई..आप ने सब कुछ बहुत अच्छा किया किंतु एडिटिंग में इतनी तेज़ी की दिमाग़ के तोते उड़ गये. रात का शो देखा, सोने में भी दिक्कत आई और दूसरे दिन सुबह उठते ही सर दर्द की गोली खाई, तब कुछ आराम पड़ा. यार चंद लोग ही आप के नज़दीक हैं निर्देशन की कला में, मगर इस बार आप दर्शक की उम्मीद से दुगनी तेज़ी में थे.. रिलॅक्स यार .

मुनीश ( munish ) said...

@."हमें अपना दिमाग घर पर ही छोड़ देना चाहिए...यदि आप बिना किसी पूर्वाग्रह के फिल्म देखेंगे तो शायद कोई न कोई बहाना मनोरंजन का हर पिक्चर में मिल ही जायेगा...और पैसा वसूल हो जायेगा :)"In English literary criticism this theory is known as 'Theory of suspension of disbelief'. It was propounded by Romantic poet and critic Coleridge.
Without applying this theory u can not enjoy a single Hindi movie . What u say is the explanation of that theory and i always leave my brain in my car while going into theatre. But here, the director is hell bent on pulling the chutiya of audience!

Syed Asad Hasan said...

aap kyun film critic ban rahe hain sir..critics vaise bhi bahut hain. ek film mein itni zyada mehnat lagti hogi bahut saare logon ki. Ek bekaar Film hai kehna sahi nahi lagta..u can say that u did not like the movie

JC said...

धन्यवाद् मुनीश जी हमारे सामान्य ज्ञान में वृद्धि के लिए!

जब भी कोई फिल्म नयी नयी देखी होती है उसके हर एक शब्द मन में गूंजते रहते हैं...इस कारण देखने के तुंरत पश्चात हर कोई उसकी पूरी कहानी सुना सकता है...दस साल बाद पूछो तो आप शायद यही कहते हो कि पिक्चर अच्छी थी, या बेकार...उसी प्रकार जैसे हम एक सप्ताह पहले खाए खाने को भूल जाते हैं कि हमने क्या खाया था, जब तक वो कोई विशेष व्यंजन न रहा हो...

indorichora said...

sachin 0 par out ho gaya......har bar century nahi lagati...kameene se hamne kuch jayada umeed kar li shayad.

इरशाद अली said...

आह रविश! कमाल करते हो। मैंने रेखा जी को दोनों समीक्षाए मेल कर दी है (रविश कुमार, मिहिर पंड्या), कि विशाज जी भी नज़रे इनायत कर ले। आपकी पहले सज्जनपुर पर समीक्षा पढ़ी थी। तब लिखा था, कि तुम्हारे अंदर जो एक फिल्मकार बैठा हुआ है, वो पत्रकार के लिबास से जाने कब बाहर निकलेगा। कमीने हिन्दी फिल्म के अस्सी के दशक वाले मनोरंजक फार्मूले पर आधारित कथानांक था। जिसे सलीम-जावेद बहुत बढ़िया से अंजाम देते थे। विशाल बाबू को विदेशी कहानीयां चुनने में मजा आता है, अपने यहां उन्हे कहानियों का अभाव नज़र आता है। इसलिये साउथ अफ्रीका के उपन्यासकार (जैसे हमारे यहां, सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा, जेम्स हैडली आदि) ज्यादा भा गए, और इस कहानी में उन्हे ज्यादा ही नयापन नज़र आ गया। मैं और मेरा दोस्त फिल्म के दूसरे दिन देखने गए थे। इंटरवेल में ही मुझे छोड़कर गालियां देता हुआ निकल भागा। मैंने ये सोचकर अपने आप को तसल्ली दी कि ये उसके बुद्धिजीवी ना होने का प्रमाण है। ये बेकार फिल्म नहीं है बल्कि बंडल फिल्म है, जिसको विशाल ने नया प्रयोग समझ कर बनाया है। असल में वो मकबूल और ओमकार ने विशाल को नुकिले शिखर पर बैठा दिया था, जो उनको पैंट के नीचे से चुभ रहा था, उन्होने कमीने नही बनायी बल्कि अपनी चुभन से छुटकार पा लिया है, हम सबको उम्मीद है। आगे वो अच्छी फिल्म बनायेंगे। कमीने को विशाल की खुशफहमी का नतीजा भी कहा जा सकता है, खुशफहमी इस बात की वो जो भी बनायेंगे वो सार्थक और लीक से हटकर होगा। ये लीक से हटकर होने के बजाये बेकार की तुकबन्दी को समेटे हुए कहीं की ईट कहीं का रोड़ा हो गया है। हमें उम्मीद करनी चाहिये कि कमीने के बाद विशाल का हाजमा दुरस्त हो जाए। बहुत दिनों बाद आपको पढ़ा अच्छा लगा।

सुशीला पुरी said...

रविश जी ! पहले इम्तियाज़ और अब बिशाल ....छोड़ दीजये इन्हें इनके हाल पर और चलिए कहीं और ....

Aadarsh Rathore said...

प्रियंका को प्रोमो में इस्तेमाल करके दर्शकों को आकर्षित करने के लिए फिल्म में लिया गया था।
:)

ravishndtv said...

अपनी गैरयकीनेपन को मैं सस्पेंड किये देता हूं। जो यकीनापन है उसी के आधार पर अब फिल्म देखूंगा।
यकीनापन कोई शब्द है क्या? इस्तमाल करते लगा कि ये चल सकता है। खैर फिल्मों पर लिखने की मेरी उत्तेजना को मत शांत कीजिए। सही है कि मुझे बेकार कहने की बजाय ये कहना चाहिए था कि पसंद नहीं आई। आगे से ध्यान रखूंगा।

संगीता जी,
फिल्मों की दुनिया से दूर जाना मुमकिन नहीं लगता। दिमाग में कोई न कोई फिल्म चलती रहती है।

Jitendra Chaudhary said...

पसंद पसंद का फेर है। हो सकता है कि आप किसी पूर्वाग्रह के साथ फिल्म देखने गए हो। यदि आप एक नयी फिल्म देखने जा रहे है तो सबसे पहले, आप निर्देशक की पुरानी फिल्मोंसे तुलना करना छोड़िए। निर्देशक विशाल भारद्वाज ने कहानी के साथ पूरा पूरा इंसाफ़ किया है। सभी कलाकारों ने बहुत ही अच्छी एक्टिंग की है, चाहे वो फा(शा)हिद कपूर हो, प्रियंका चोपड़ा हो या बाकी सभी कलाकार। कई सीन तो बहुत ही जबरदस्त बन पड़े है, फिल्म की गति तेज है, सोचने का मौका ही नही मिलता। संगीत भी अच्छा है। मै फिर कहूंगा कि आप दोबारा फिल्म देखिए, इस बार ये सोच कर जाइयेगा कि एक नयी फिल्म देखने जा रहे है, ना कि विशाल भारद्वाज की पुरानी फिल्म का नया वर्जन।

फिल्म अच्छी है, मनोरंजक है, पैसा वसूल है।

ravish kumar said...

मैं दोबारा देखूंगा। राय बदली तो लिखूंगा भी। कोई भी राय सत्य की तरह अकाट्य नहीं होती।

vineeta said...

मैं जीतेन्द्र की बात से पूरी तरह सहमत हूँ. फिल्म देखते समय उसके निर्देशक की पुरानी फिल्मो से तुलना करना गलत है. मुझे तो फिल्म पसंद आई. कभी कभी मसाला फिल्मे भी देखनी चाहिए और विशाल ने मसाला फिल्म ही बनायीं है. कभी कभी फिल्मो में सन्देश या बौद्धिकता की अपेक्षा नहीं की जाये तो फिल्म देखने का मज़ा आता है. एक बार फिर से देखिये और इस बार पत्रकार और ब्लॉगर बनकर नहीं....

what say said...

पता नहीं क्युं पर मुज़े तो फिल्म अच्छी लगी. (यह मेरा नज़रीया है,शायद आप सहमत ना भी हो. ) ईस फिल्म में एक गती है. हर सीन आ पको बांध कर रखता है. और एन्ड, नो डाउट, फिल्मी था, पर मजा आया..
एडीटींग, उत्तम थी एकदम शार्प कट्स हैं इस फिल्म में. प्रियंका मराठी मुल्गी को बराबर न्याय दे रही है.
विशाल से तो मुजे यही उम्मिद थी..
एक उमदा और अलग फिल्म..

ritu raj said...

आपने फ़िल्म देखी इसके लिये शुक्रिया.जबकि फ़िल्म मेरी नहीं है. फिर भी. मुझे तो लगता है हम सब हिन्दी सिनेमा में जिस तरह की फ़िल्में देखते आ रहे है वही छाई रहती है अभी तक. किसी नये चीज़ के लिये जगह ही नहीं है शायद. हिन्दी सिनेमा में कितनी फ़िल्में है जिसे आप फ़िल्म कहना या लिखना पसन्द करेंगे. विशाल भारद्वाज ने कमीने के रूप में निश्चित ही एक अच्छी फ़िल्म बनाई है. फ़िल्म की कहानी, म्यूज़िक, गाने के बोल, निर्देशन, एडिटिंग और सबसे बडी बात फ़िल्म में फ़िल्म जैसी बात भी है. शाहिद की एक्टिंग, प्रियन्का तो पूरी ही स्विटी लगी है. क्लाइमेक्स भी सही है. दिल गज़गज़ा गया. देखके तो. मुझे एक ही शिकायत है. फ़िल्म थोडी छोटी लगी. पता नहीं क्यों १३५ मिनट में ही समेट दी गई. और सिर्फ़ "ढन टन नन" को छोडके हर गाने एक ही अन्तरे में समाप्त हो गई. फ़िल्म बहुत अच्छी बनी है. कमीने के बहाने साहब(गुलज़ार) को जन्मदिन(१८ अगस्त) की शुभकामनायें. विशाल जी का शुक्रिया. और अच्छा लगा कि आपने दुबारा देखने की बात कही है.

RAJESH YADAV said...

विशाल भारद्वाज की कमीने एक बेहतरीन फिल्म है और जो लोग फिल्म के बहाने विशाल पर हमला बोल रहें है उनकों एक बार फिर से विश्व सिनेमा और समाज के बदलते मानस पर गौर करना चाहिए। दरअसल कुछ लोग समय के साथ बड़े होने से डरते है और भवरें का संदेश जब समझ नहीं आए तो उनकों डार्कनेस ज्यादा दिखती है।पेड़ लगाना बहुत मुश्किल और समय देने वाला काम है और उसको कुल्हाड़ी से काट देना उतना ही आसन। मेरे लिए तो दिल की गुल्लक में कमीने हिट है और वर्तमान और अतीत को जोड़ने वाली फिल्म है...


http://www.bhaskar.com/2009/08/14/0908142159_kaminey.html
दिल की गुल्लक में हिट है ‘कमीने ’

ravishndtv said...

राजेश

मैं विशाल भारद्वाज पर हमला क्यों करूंगा? सिर्फ एक समीक्षा लिखी है और वो भी उनकी प्रतिभा को स्वीकार करते हुए। फिर से पढ़िये इसे। मुझे फिल्म बेकार ही लगी। तो इसमें विशाल भारद्वाज पर हमला कैसे हो गया। बहुत लोग जो कह रहे हैं कि फिल्म अच्छी है, उनके बारे में आपकी क्या राय है? क्या वो विशाल भारद्वाज की खुशामदी में फिल्म को बढ़िया बता रहे हैं? नहीं न। सबकी अपनी अपनी राय है। लेकिन ये लिखना कि विशाल पर हमला हो रहा है मुझे लगता है कि कुछ ज़्यादा है।

Alap said...

रविश जी मैंने दो फ़िल्म पर आपके विचार पड़े, मुझे भी विशाल की फ़िल्म भारतीय परिवेश से थोडी अलग ज़रूर लगी पर विशाल की तो सभी फ़िल्म थोडी अलग होती है,मुझे लगता है ,हम भारतीयों की फ़िल्म देखने की मानसिकता हमेशा से दोहरी रही है बिलकुल हमारे जैसी "दोहरी" .....हमे सत्यजीत रे की तारीफ करते हुए लोग अक्सर मिलते होंगे जो उनकी स्क्रिप्ट से लेकर..कहानी कहने के तरीके तक की चर्चा इस तरीके से करेंगे जैसे की वो उनके समकालीन फिल्मकार हो. मगर अगर आप पलट कर पूछ लीजिये..साहब पाथेर पचाली में आपको क्या पसंद आया...या आपको वो ट्रेन वाला सीन याद है जिसको शूट करने में सत्यजीत साहब को दो साल लग गए .. अपु तो याद ही होगा ..तो आपको आवाजे सिर्फ चाय की चुस्कियों की मिलेगी ...फिर और भी तो काम है ग़ालिब, की दिन भर फिल्म के बारे में बात करते रहेंगे..मगर बात अगर किसी भी मसाला फिल्म की हो तो भाई साहब समाज की बात है सब बिगड़ रहा है एक - एक सीन ज़ुबानी याद है शर्मा जी को , लव आज कल और कमीने इसी दोराहे और दोहरी मानसिकता की बीच गूमती दिखती है....जहा कमीने में एक दिन की कहानी है जो अक्सक होलीवूड की फिल्म में दिखता है..एक वक्तित्व प्रधान फिल्म है ...जहा हर इंसान के ज़िन्दगी के एक दिन चुन कर उसके दोनों पहेलुओ को दिखने की कोशिश की गयी है... फिल्म के आखिरी हिस्से के बारे में मै आपसे पूरी तरह सहमत हु ...पर विशाल से फिल्म में शुरू से ही कहा था वो अपनी कहानी को चटपटा खाने वाले भारतीयों को मसाला मार के ही पेश करना चाहते है जो उन्होंने किया.. वैसे सबकी अपनी-अपनी समज होती है ..और हम सभी भारतीय क्रिकेट और फिल्म के एक्सपर्ट तो है ही.शायद तभी मैंने भी कुछ लिख दिया......धन्यवाद ...आलाप

जया निगम said...

hallo sir, mai aapke blog par nai hoon. maine aapko anchor ke bajay teacher ke bataur jana hai. es liye comment chhodte samay thodi hichak hai. pata nahi aap reply karenge bhi ya nahi.aap ne IIMC me hindi journalism(2008-2009) ki jo class li thi. mai us me thi. aapke chubhne wale vyangayon ne ek khas chhap chhodi thi mujh par.

जया निगम said...

mai es samay ek project par kam kar rahi hoon. desh me pade bheeshan akaal par ek story banana chahti hoon. aapke andaaz me. aap se marg darshan chahiye. aapka mail address nahi mil paya is liye yahan apni baat kahni padi. kya aap mera sahyog kar sakte hain. mai bangalore ke ek naye media group dakshin bharat me kam kar rahi hoon. aapke zawab ka intzaar rahega.