इम्तियाज़ अली की फिल्म लव आज कल पसंद आई। बहुत दिनों बाद आई यह एक ऐसी फिल्म है जो शहरों से हमारे रिश्तों को जोड़ती है। हम सबके भीतर एक से ज़्यादा शहर होते हैं। एक से ज़्यादा मोहल्ले होते हैं। एक से ज़्यादा कहानी होती है। हम सब प्रवासी बटा अप्रवासी हैं। कहीं न कहीं से उजड़ कर कहीं न कहीं बसे हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में यह भी हुआ है कि नए शहर से हम सेंटिमेंटल रिश्ता नहीं बना सके। मुझे लगा कि इम्तियाज़ ने कैलिफोर्निया, सैनफ्रांसिस्को, कोलकाता और दिल्ली को ह्यूमनाइज़ यानी मानवीकरण किया है।
वो शहरों के अनजान कोनों और रास्तों पर जाकर अपनी कहानी गढ़ते हैं। एक गज़ब का कोलाज बनाते हैं कई शहरों के बीच। पिछले बीस साल में हिंदुस्तान में माइग्रेशन की प्रक्रिया काफी तेज़ हुई है। सिर्फ पंजाब ही विदेश नहीं गया। सिर्फ मज़दूर ही विदेश नहीं गए। बल्कि विदेश आने जाने वाला एक मध्यमवर्ग तैयार हुआ। यह एक शोध का विषय है कि कई शहरों में फ्लैट बदलते हुए इस तबके का शहर से रिश्ता बना या नहीं। उसकी यादों में ये शहर अपने बचपन के टाइम के मोहल्ले की तरह आते जाते रहे या नहीं।
हम सब शहर की समस्याओं को लेकर जूझते रहते हैं। कभी उसे रिश्ते की नज़र से नहीं देखा। जब भी मैं दक्षिण दिल्ली के गोबिन्दपुरी से गुज़रता हूं तो लगता है कि कोई अंदर खींच रहा है। १९९० से लेकर १९९३ का साल वहां गुजरा था। हमारे इलाके से आए कपड़ा मज़दूरों और किताबी मज़दूरो को मिक्स अप हो रहा था।
ढाबे में काम करने वाला गोरखपुर का वो शख्स(जिसका नाम याद नहीं) दाल में मटन का एक पीस डाल देता था। कहता था कहां पैसा है आपके पास। खा लीजिए आपको अच्छा लगता है। तो कभी मैं भी एक दो रुपये पूरी दरियादिली के साथ छोड़ आता था। सब मिलते थे तो गांव शहर का नाम पूछ कर खुश हो जाते थे। अब यह प्रक्रिया कम हो गई। क्योंकि अब मज़दूर और मैं दोनों शहर के लिए स्थायी हो गए। पहले किसी भोजपुरी भाषी को सुनता तो ज़रूर पूछता कि आप कहां के हैं। अब नहीं पूछता हूं। ऑटो वाले से पूछ लेता कि अच्छा बिहार के हो। अब नहीं पूछता। शायद इस शहर से अपने रिश्ते को समझ नहीं पाये।
इम्तियाज़ अली ने हमारे भीतर के कई शहरों को पकड़ लिया है। वो अपनी कहानी के पात्रों को तमाम गलियों मोहल्लों के नुक्कड़ों से भी ले जाते हैं और कैलिफोर्निया के अंडर पास और पैदलपाथ से भी। एक पुल किसी सुनहरे ख्वाब की तरह आता है तो पुराना किला की दीवारे ग्लैमरस हो जाती हैं। पुरातत्व को गैल्मराइज कर देते हैं और दीपिका को खूबसूरती से उस काम में ढाल कर बोरिंग विषय को सेक्सी बना देते हैं। पुरानी रेलगा़ड़ी और चमचमाची मेट्रो। ब्लैक कॉफी और काली चाय की कड़वाहट को मिला देते हैं। टैक्सी भी है और सेक्सी कार भी है। नया पुराना पानी में नमक की तरह घुलता जाता है। विज़ुअल आनंद मिलने लगता है।
इन सबके बीच पंजाब एक अनिवार्य तत्व के रूप मे मौजूद रहता है। पंजाब ने हमें कितनी खुशियां दी हैं। अपनी कहानियों से खुश रहने के तरीके दिये हैं। ये पंजाब ही कर सकता है। जितने गम और बंटवारों से पंजाब रौंदा गया है लेकिन इन सबसे अगर कोई दरियादिली के साथ निकला है तो वो पंजाब ही है।
अविनाश ने कहा कि इम्तियाज नए निर्देशकों की पौध में आते हैं। अच्छी फिल्में बनाते हैं। जिस तरह नया पुराना लव आज कल में आ जा रहा था लगा कि कोई है जो तेजी से बदले हिंदुस्तान में किसी संक्रमण काल की तरह मौजूद है। जो तमाम शहरों को अपना समझता है। मैं फिल्म देखते हुए यही सोच रहा था कि दिल्ली का कौन सा कोना है जिससे गुज़रते हुए मन रोमाटिंक होता है,नोस्ताल्जिक होता है। ऐसे तो बहुत हैं मगर क्या पता चलता है। इम्तियाज़ ने याद दिला दी।
19 comments:
हमने भी आज ही यह फ़िल्म देखी वाकई रिश्तों के गरमाहट को दिखाती है यह फ़िल्म ।
pata nahi sir jo bhi aapke dawara likha hota hai bahut acha lagta hai. koshish karta hu ki aapka special report aur blog per likhe gaye apke anubhav ko nahi choru.lekin jitni bar padta ya dekhta hu to aapse milne ki chahat badh jati hai. apke lekh se aapko jitna jan paya hu usse aisa hi lagta hai ki ek aisa sakhas jo aaj bhi apni mitti aur gao ko nahi bhul paya. use aaj bhi apne atit mai jine ki chahat hai. sayat yahi kisi vaykti ki mahnta hoti hogi aur aap is shereni mai aate hai. chahe aap apne taraf se jo bhi terk de ye aapki mahanta hai.
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जेब आजकल के चलते लव आजकल नहीं देखी। रवीश ने रिव्यू दिया है तो देखनी पड़ेगी। देखते हैं कि गर्म काली चाय और ब्लैक कॉफी कैसी लगती है?
आपकी पोस्ट पढ़ने के बाद सोच रहा हूं कि 150 रुपयों का खून कर ही दूं....
aap ne imtiaz ki khoj ke naye pahloo ko dekha.is film ko dekhte hue chavanni ko lag raha tha ki imtiaz apne samkaleenon aur doston ko kuchh samjha bhi rahe hain...pyar ke ehsaas ki barikiyan...ravish,aap dil khush kar dete hain.
raveesh ji film achchi hai............
यहां मुंबई में भी नॉस्टॉल्जिक होने लायक कई इलाके हैं। जाते ही लगता है बब्बन मिंया उस्तरे पर धार लगा रहे हैं, बस्ती-देवरिया वाली बोली बोलते हैं और पूछते हैं - ए बाबू , खत तिक्खे चाही की लमछर ?
दूध का दाम दो रूपया लीटर बढते ही केशव खटिक कहते हैं - लगता है गांवै भागना पडेगा।
उनके बगल में ही अछैबर यादव मिलेंगे - का बिरादर, अरे एहर कहां रस्ता भूला गईल.... लागत बा कौनों माल वाल पटउलै बाड.....छाना र्रजा झार के.......आज कल के नवहन के आरे कालोनीए* सूट करेला :)
* आरे कालोनी - वह स्थान जिसे छोटा कश्मीर कहा जाता है और लौंडे-लपाडी कॉलेज बंक कर अक्सर वहां जोडे बना कर घूमने जाते हैं।
और हां, ये आरे कॉलोनी का इलाका 'गार्डनाईज्ड लवर स्पॉट' कहा जा सकता है जिसमें लव आजकल जैसे कैरेक्टर विचरण करते दिख जाते हैं।
थोडा शोध किया जाय तो 'लव आजकल- पार्ट टू' बन सकती है :)
फिल्म को जीवन से इस तरह जोड़ कर उस की समीक्षा करना बहुत खूबसूरत रिपोर्टिंग है।
रविश भाई - बहुत बढ़िया लेख है ! कई शहर बसे हैं दिल में ! मुकद्दर के सिकंदर का गीत या बलम परदेसिया का गीत सुनते ही ८० का दसक और मुझे मुजफ्फरपुर की गलियाँ याद आ जाती है ! या फिर आमिर खान की कयामत से कयामत तक का गाना सुनते ही अपना "जस्ट जवानी " का दिन और पटना के सिनेमा हॉल ! नॉएडा में सन २००२ में आया ! काफी लेट था ! पर आज भी कोई बिहारी मिलता है तो उससे अपना सम्बन्ध जोड़ लेता हूँ ! अरेराज के कई ऑटो रिक्शा वाले से इतनी जान पहचान हो चुकी है की अब अजमेरी गेट पर दिक्कत नहीं होता !
पर आपकी बात भी सही है - अपनो को पाने की ख़ुशी भी अब धीरे धीरे कम होने लगी है ... शायद कोई अपना मुझ से कुछ मांग न ले ... अब यह डर बहुतों से दूर ले गया है ...
आपके सुझाव पर यह सिनेमा देख लेंगे :)
yeh baat bachpan (san 75- 76) kee hai, Jab hum pahli baar bombai gaye to chaupati main chana masala banane walon se jaroor puchte the ki aap kahan ke ho. Wahan chana bechne wale aksar jaunpur / banaras ke hua karte the. Bal katen wale nauji Bahraich ke hote the. Milne main bada achcha lagta tha chalo apne log yahan bhi hai. Vaise aajkal hamne film dekhni chod di hai.
मैंने भी फिल्म देखी... बहुत शानदार है.. लव आजकल में पुरानी वाली लव स्टोरी ज्यादा अच्छी लगी... पंजाबी टच में हरलीन ने तो सचमुच कमाल कर दिया... चुप रहकर भी वो सबकुछ कह गईं, जो दीपिका इतने डॉयलॉग बोलकर भी नहीं कर पाईं... इम्तियाज़ अली ने दोनों कहानियों को अच्छी तरह पिरोया है।
इम्तियाज़ ओर अनुराग कश्यप गहरे यार है ओर कहे नए सिनेमा के ऐसे खिलाडी जो खालिस सेंस ऑफ़ ह्यूमर का तड़का रखती है जो कई सालो से हिंदी फिल्मो से मिस हो रहा था ".सोचा ना था "इतनी शानदार सिच्वेश्नल कामेडी थी ...की हैरान हूँ हिट क्यों नहीं हुई..इम्तियाज़ का प्लस पॉइंट उनके संवाद है....फराह खान ,साजिद खान जैसे हॉलीवुड के भोंडे संस्करणों में इम्तियाज़ नयी खुसबू सरीखे है ...
जैसा ज्ञानियों ने जाना, हर व्यक्ति के भीतर ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप समाया हुआ है, जिसमें से एक जीवन में शायद हर किसी को कई झलक देखने को मिलती है...खुद को समझने के लिए...
फिल्म अच्छी लगी मुझे भी,मगर मेरे कई दोस्तों को जो कि पता नहीं क्यों नहीं भाई, शायद वो सभी अपनें जीवन में प्रैक्टिकल सिद्धांत को मानते हैं। क्योंकि ऐसा देखनें को मिला है कि जब भी कोई भारतीय फिल्मकार कोई भी हिंदी फिल्म तात्कालिक परिवर्तनों पर बनता है तो भारतीय दर्शक उसे स्वीकारनें से कतराते हैं। चाहे वो स्वदेस हो या ट्रैफिक सिग्नल। हमारे उन दोस्तों को शायद ये आदत है गई है कि कोई भी उन्हें आईना ना दिखाए, वो तिलमिला उठते हैं। आज के वास्तविक प्रेम संबंधों को,कुछ समय पहले के ही प्रेम से तुलनात्मक रूप से प्रस्तुत करना शायद हमारे प्रैक्टिकल मित्रों को नहीं भाया, और भाता भी कैसे शायद वास्तविक्ता से मुहं मोड़नें की आदत हो गी है हमें,हमारी स्थिति उस कबूतर की भांति हो गई है जो आंके बंद कर लेनें भर से यह समझ लेता है कि बिल्ली नें उसे नहीं देखा। मुझे बहुत दिनों बाद एक बढ़िया फिल्म देखनें को मिली। जबलपुरस से आए इंतियाज़ अली ने अपने छात्र जीवन में दिल्ली के हिंदू कॉलेज में थिएटर की शुरूआत की आज भी उन्हीं के द्वारा दिए गए "इब्त़िदा" नाम से वो थिएटर ग्रुप चल रहा है। इंतियाज़ ने दिल्ली को भी देखा है और जबलपुर को भी,हिंदू कॉलेज में शहरी युवाओं को भी जाना है और गांवों और छोटे शहरों से पढ़नें आए छात्रों को शहरों और गावों के बीच के अंतर को बखूबी समझा है इस फिल्मकार नें, शिक्षा से होनें वाले भावी परिवर्तनों में रहन-सहन, प्रेम-व्यवहार और रिश्तों के बदलते मायनों को समझनें और स्वीकरनें का मागदा ही आपको देश के गावों और शहरों के बीच की खाई को कम करनें में मदद करता है। इंतियाज़ ने जितनी खूबसूरती से गांवों और छोटे शहरों को जिंदा रखा है उतनी ही खूबसूरती से शहरों के प्रति भी स्वीकार्यता और सम्मान रखा है। जबकि हमारे साहित्कार और पत्रकार आज भी बड़े शहरों में कमा खा कर,सारा जीवन इन्हीं शहरों में लगानें के बावजूद भी, अपनी जुबां से दिल्ली या मुंबई या किसी भी बड़े शहर के लिए सिवाय आलोचना के कुछ नहीं कर पाते। किसी भी रचनाकार के लिए इंतियाज़ जैसी सोच होना जरूरी है।
रवीश जी आपने लव आजकल फ़िल्म के बारे में जो कुछ भी लिखा है वो अच्छा लगा.... सोचता हूं कि लव आजकल देख ही लूं।
लव कुमार सिंह
maine love aaj kal ki kaali chai aur black coffee ke sequence ki gehrayi us waqt miss kar di par aapka post padh kar is baat ko realize kiya...maine bhi apne blog par love aaj kal ko ek alag nazar se dekhte hue kuch likha hai, umeed hai aap waqt nikal kar padhenge..ho sakta hai jo aapne miss kiya ho maine notice kiya ho http://iamfauziya.blogspot.com/2009/08/blog-post.html
Respected sir,
aaj kal aap 9:30 k special report me nahi aate hain to woh program dekhne me acha nahi lagta hai.
so,please sir special report aap hi represent karen.
sorry sir,hindi typing nahi aati.
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