सीन-एक
लम्पटर्जुन- हे देव। कुरुक्षेत्र में तटस्थ रहते हुए किसी पत्रकार की तरह देश-दुनिया की चिंता में डूबे रह कर तीर चला सकते हैं।
देव- लम्पटर्जुन। तुम तीर चला दो। चिंता करना तुम्हारा काम नहीं। आत्मा का डिपार्टमेंट अलग है और चित्त का अलग। दोनों में कैम्युनिकेसन गैप होता है। तुम बस दागते जाओ। क्रिटिक से मत डरो। क्रिटिक हमला करेगा। तुम गिरगिट की तरह रंग बदलो। युद्ध करो।
लम्पटर्जुन- क्या युद्ध के मैदान में कुछ देर के लिए कविता कर सकता हूं। भेजा फ्राइ हो रहा है। कपार भन्न भन्न कर रहा है। कुछ लिख दें देव। तीर चलते रहेगा। ऑटोमेटेड वाण खरीद दिये हैं भैया युद्धिष्ठिर। चीन से लाए हैं।
देव- लिखो। तुम युद्ध के मैदान से कविता रचोगे तो गोबर निकलेगा।
लम्पटर्जुन- गोबर को अइसन वइसन बुझे हैं का। क्रिटिक आउर आप दोनों को नहीं मालूम। ज्ञान झा़ड़ना बंद कीजिए। हमारा इंस्टेंट महाकाव्य सुनिये।
सीन-दो
गोबर
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया
हगने के तुरंत बाद नरम रहता है
सूखने पर सख्त हो जाता है
जब यह नदी गंगा सूख जाएगी एक दिन
उसकी तलछटी को गोबर से ही लीपा जाएगा
रेमण्ड के सूट में पन्डी जी,ग्ल्ब्स पहिन कर
बिसलेरी के पानी को अंजुरी में भर कर
छिड़क देंगे तलछटी पर
यही सीन सीधा कैमरे में घुस कर
ड्राइंग रूम में टीवी फाड़ कर करोड़ों दर्शकों के घर में उतर जाएगा
एग्झीक्यूटिव हो चुका एक बड़ा पत्रकार कमेंट करेगा
गोबर लीप कर भारत के पीएम ने एक नदी का अंतिम संस्कार कर दिया है
चलिये आप लोग जाइये,इतिहास बन चुका है,आप लंच कर लीजिएगा
गोबर
हमारे टाइम की सबसे बड़ी ख़बर है
भिन्नाती हुई मक्खियों का स्वर्ग है
मच्छरों को भगाने का कारगर मंत्र है
तभी तो पाथ पाथ कर हर ख़बर को दिन भर
टीवी स्क्रीन पर गोइठा सूखाया जाता है
और कहां पथेगा गोबर
न नदी बची न बचे हैं फुटपाथ
अतिक्रमण के इस दौर में गोबर के लिए जगह है
तो सिर्फ पत्रकारों के कपार के भीतर बनी गौशाला में
ख़बरों में आज भी बचा हुआ है गोबर
जिस देश में गंगा तक नहीं टिक सकी
वहां टिका है गोबर
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया बनकर
पाश की रचनाओं पर लीपने पोतने के काम गोबर ही आता है
सपनो के मर जाने के इस ख़तरनाक दौर में
अंत्येष्टि का सामान है गोबर
कुरुक्षेत्र से लौट कर पत्रकार ने लीप पोत लिया खुद को गोबर से
गंगा से बेसी टाइम के लिए बचे रहने के लिए
किसी समय के निरपेक्ष इस समय में
कौंतेय के अधकचरे ज्ञान के झांसे से बचकर
गोबर में सब तर हो रहे हैं
आइडिया की तरह ज़मीन पर गिरते हैं
बाद में कलेंडर की तरह दीवार पर सूखते रहते हैं
रेटिंग की तारीखों में छुप छुप कर झूलते रहते हैं
पत्रकारों की अहमियत क्या है
मृत्यु शैय्या पर लेटे लेटे भीष्म ने उत्तर दिया है
कहा वे सिर्फ गोबर हैं
लीपने-पोतने के काम ही आएंगे
इतिहास की तारीखों को कीटनाशकों से बचाकर
स्मृतियों में अमर करते रहने के लिए
उनका एक ही काम है
चरना और हगना
जो गिरेगा वो नरम होगा
जो सूखेगा वो गोइंठा होगा
मूल्यांकन काल के इस विकराल टाइम में
गोबर एक टिकाऊ और बिकाऊ आइडिया है
अच्छी तरह सान कर पाथ दो स्क्रीन पर
कुछ ब्रेक से पहले सूखेगा
कुछ ब्रेक के बाद सूखेगा
गुलाल फिल्म के गानों की आइरनी की तरह
मोबाइल के टावर से टकरा कर वेवलेंथ के सहारे
पत्रकारों की वाणी पहुंचेगी आपकी अवेयरनेस तंत्रिकाओं में
तभी तुम गंगा को प्रणाम करना
पत्रकारों को तुम नहीं बचा सकी
गोबर ने बचाया है
तभी तो
गोबर
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया है
तभी तो कहता हूं देव
धंस जाइये गोबर में
धंसते जाइये
खबरों को दांत पीस कर कचर मचर कर
पढ़ते जाइये
मुंड को झटकिये
थूथना फूला दीजिए बेलून की तरह
इस देश को बचना है तो
एसएमएस करना ही होगा
ज्योतिष की रंगशालाओं में आज के दिन के लिए
नतमस्तक होना ही होगा
लेकिन जो नहीं करेगा उसका क्या
उसे भी गोबर से लीप कर बचा लिया जाएगा
किसी रविवार को आइडिया की तरह चला देने के लिए
वर्ना किसी एक दिन
टीवी के स्क्रीन से जब गोबर सूख कर गिरेगा
घर में बदबू की तरह फैल जाएगा
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया
सीन-३
लम्पटर्जुन- देव आय मीन कौंतेय। गांडीव ले जाओ। कुरुक्षेत्र की लड़ाई का नतीजा सिर्फ तुम्हारे हक में है। मैं कंवींस नहीं हूं। हज़ारों साल बाद आज अपने टाइम में देख रहा हूं। गीता बिना कापीराइट के बिक रही है। कई पब्लिसर पइसा बना रहे हैं। जीतने के बाद मुझे स्वर्ग भेज दिया गया। नैतिकता का पाखंड रच कर पार्थ तुमने मुझे हथियार बनाया है। मैं अपने भाइयों को काटता रहा और तुम उपदेशों का ब्लॉग रचते रहे। रेलवे स्टेशनों पर बिकने के लिए। तुम्हारे संदेश सिर्फ हारे हुओं की दुकानदारी बढ़ाते हैं। दावा करो,कौंतेय,क्या तुमने जीत का कोई मानक तय किया है। मैं तुम्हारा पात्र नहीं हूं। मैं कुरुक्षेत्र से जाना चाहता हूं। मैं तुम्हारे किसी भी प्लॉट का हिस्सा नहीं बनना चाहता। तुम्हारी लड़ाई व्यर्थ है। सेमिनारों में चर्चा के लिए की जाने वाली लड़ाइयां हम सबको निहत्था करती हैं। टी ब्रेक का बिस्कुट तुम भकोसो न,कौंतेय। मैं तो बन खाता हूं। बटर लगा के। पूरा खानदान साफ करा के तुमने हासिल क्या किया। अर्जुन पुरस्कार के अलावा मैं और किस काम आता हूं।
भीष्म- अरे लम्पटर्जुन। तुम तो सिर्फ कौंतेय के आइडिया पर चल रहे थे। जो उपदेश देगा किताब उसी की बिकेगी।
लम्पटर्जुन- भीष्म और कौंतेय। मैं जा रहा हूं। गोबर का लिजलिजा सिलसिला जारी रहेगा। तुम बिना कापीराइट के लेखक हो। मैं कोई और लड़ाई लड़ूंगा। गोबर पाथ कर काउडंग केक क्यों बनाऊ मैं। गंगा मिट जाये तो मेरी बला से। ख़बरों को कबर में गाड़ दिया जाए मेरी बला से। पाथो पाथो कौंतेय, तुम भी तो गोबर पाथो। मैं तो चला बरिस्ता। कॉफी और ब्राउनी के साथ मस्ती करूंगा। काव्य लिखूंगा। सत्या क्या है। आत्मा क्या है। फटीचर सिद्धांत रच कर नोबल जीतूंगा। तुम करो न ख़बरों की दुकानदारी। देश क्या ख़बरों के बाद चलता है? फुट...कुरुक्षेत्र इवेंट मैनेजमेंट की लड़ाई है। द्रोपदी का चीरहरण झूठ था। मैं ग्राफिक्स एनिमेशन के झांसे में आ गया। जा रहा हूं चौपाटी। लाइन मारूंगा। थिंक पोज़िटिव एक किताब लिखूंगा। दुनिया के सबसे बड़े सिनिक का फारवर्ड होगा। सोच को बदल दूंगा। देखना। टीवी पर आएगा। लाइव।
पटाक्षेप।
36 comments:
अमां आप और आपका गोबर, माफ कीजिएगा पर कोई और खुशबूनुमा टापिक नहीं मिला था क्या। बहरहाल पूरा गोबराने के बाद कम से कम मीडिया को तो बकस दिया होता। पर क्या बकसें मीडिया को साहब...हालत खस्ता है गोबर ही सस्ता है। पर गोइठा का दाम भी तो पहले से बढ़ गया है। पहिले दो रुपए में आठ गाही था अब दस में पांच बेच रहे हैं सुसरे। 'बाई दि वे' मुद्दा मस्त है बधाई, सबको लीप-पोत चउका किए हैं। लिखते रहिए महाराज। ऐसे ही.....
ओहोहो, कइसा त् सेंटेड बदबू है. टकसाली का बेमिसाली है. गरदन पर धीरे-धीरे झर रहा है, लेकिन बुझाता है केतना त् नीमन, सोहाना गाली है..
गनीमत कि 'जिस देश में गंगा तक नहीं टिक सकी'... उस देश में राखी सावंत, सच का सामना, समलैंगिक रिश््ते, इमरान हाशमी और उनके मामा महेश भट््ट, आदि टिके हैं। टिके ही नहीं निरन््तर 'गोबर' की खाद पाकर जबर हो रहे हैं, हरियर कचर हो रहे हैं।
समाज में कन््फेशन बहुत महत््वपूर््ण है, इसके लिए साधुवाद।
प्रेमचन्द जी के औपन्यासिक पात्र गोबर के पश्चात यह गोबर बहुत दिलचस्प लगा
सब कुछ गोबर गोबर हो गया । बेहद सजीव परिकल्पना ।
हर तरफ गोबर करने वाले हैं तो गोबर ही दिखेगा। यहाँ तो गोबर उठा कर थेपने और उपलों की उपलब्धियाँ गिनाने वाले भी कम नहीं हैं। सुंदर प्रस्तुति करण है।
मजेदार है ! वैसे आपका इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पूरी तरह से "गोबर" ही है - अधिकतर रिपोर्ट अख़बारों से चुराए हुए होते हैं - मालूम नहीं कब और क्या दिखा दें - पता ही नहीं चलता ! पर खुद को गोबर से तुलना करना सचमुच में बहादुरी का काम है !
मुखिया जी.
टीवी साला गोबर का पहाड़ है। इसकी क्षमताएं ही कमज़ोरी बन गई हैं। पतंगबाज़ी करते करते अब परेशान होने लगता हूं। सरकार और समाज ने तय किया है कि साठ साल तक जीने के लिए कुछ न कुछ करना ही होगा,सो करना पड़ रहा है। लेकिन यह साठ साल को छूने का सफर अब बोझ बन गया है। लगता है आज ही बूढ़ा हो जाऊं।
कुछ लोग कहते हैं ये नैराश्य है। लेकिन सकारात्मक होना कुछ नहीं होता। वो एक दुकानदारी है। थिंक पोज़िटिव। भले ही फ्यूटाइल और मटियाइल थिंकिंग हो लेकिन पोज़िटिव थिंकियाते रहिए। ताकि किताब बिके। मैनेजमेंट गुरु पैदा हो जाए। हाऊ तो कॉम्बेट डिप्रेशन।
पता नहीं मुर्गा बन कर इस साठ साल के रिटायरमेंट एज लिमिट तक कैसे पहुंचेंगे। मैं सिर्फ वही करना चाहता हूं जो दूसरे कर गए हैं। मैं लीक पर चलना चाहता हूं। नया नहीं करूंगा। इसीलिए नौकरी मुझे सत्य की तरह भाती है। इसके बाद सब झूठ है।
रिटायर होते ही गुप्ता पार्क में लाफ्टर क्लब में मंकी कैप पहन कर ब्लड प्रैशर कंट्रोल करूंगा। यही मेरे बाप दादा कर गए हैं। कइयों के बाप दादा करते रहे हैं। बस।
इसीलिए मैं गोबरवाद का प्रवर्तक हूं। गोबर को सम्मान दिलाने की लड़ाई लड़ूंगा। कहूंगा लीक को मत बदलो। लीक को गोबर से पोत कर नया कर दो।
जय हिंद। फुट हिंदी।
लगता है आप गलती से गोबर खाने भी लगे हैं..एनडीटीवी की कैंटीन में लंच बंद हो गया है क्या...कॉस्ट कटिंग के नाम पर सब चलता है....गोबरवाद बहुत सोबर विचारधारा है....आप एक नया चैनल लांच कीजिए....पंचलाइन रखिएगा, 'मुंह में गोबर, दिल में इंडिया'..
मुझे ये कविता आपकी अब तक की सबसे अच्छी रचना लगी.....साठ साल का सच जान लिया आपने...उसके बाद मंकी कैप मत पहनिएगा....उसके बाद मंकी बनने के बहुत विकल्प हैं दिल्ली में......संसद मार्ग तक इवनिंग वॉक पर जाते हैं फिर भी ये ज्ञान नहीं मिला....वहां आपकी जमा-पूंजी का गोबर बहुत कम आएगा....पूरे देश पर लीपते रहिएगा फिर....मुझे बड़ा मज़ा आया ये गोबरनामा पढ़कर.....आपने ब्लॉग का अंगना पवित्र कर दिया गोबर लीप कर.....जय हो
पोस्ट त् पोस्ट, ससुर, मुखिये का जबाबो एगो सेपरेट सुगंधीदार महकव्वा मुआमला हो गया.. जय हो, पड़पड़गंज ऋषि रवीशजी महाराज..
एक सज्जन कनाडा गए और वहां बीफ खाए तो किसी ने टोका कि हिन्दू तो गौ को माँ मानता है...सज्जन चतुर, और उस पर क्षत्रिय पंजाबी, थे इस लिए उनको समझाया कि मैं भारतीय गौ को माँ मानता हूँ. कनाडियन को नहीं :)
सोचने वाली बात यह है कि हमारे प्राचीन, अनपढ़ गंवार, पूर्वज गोबर से घर क्यूँ लीपते थे, जबकि आज के ज्ञानी अब हाल ही में यह खोज पाए कि गोबर में फोर्मलिन होता है, एक रसायन जो जीवाणुओं को मारता है?
येही प्रश्न तो कवी ने भी किया कि हम लोग तो अभी से उकता गए वो कैसे अनादी काल से बोर नहीं हो रहा? किसी ने उत्तर दिया, "मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी"...jai hoooo!
ब्लॉग एक अच्छा माध्यम है लेखक पत्रकारों और साहित्यकारों की दुनिया में अपनें को सही साबित करनें का। आपकी इस कविता से मजबूरी झलकती है,पत्रकार का मजबूर होना समाज के लिए खतरनाक है, कुछ ऐसा है कि शायद हमारी इलैक्ट्रोनिक मीडिया में आनेंवाले पत्रकार तो दुनिया बदलनें की कसमें खाकर आईआईएमसी से निकलते हैं। कुछ दिन काम भी करते हैं अपनी उसी छवि में, फिर अच्छी तनख्वा और ऊंचा पद पाकर खुद के द्वारा किए गए कृत्य को मीडिया की मजबूरी का हवाला दे कह देते हैं, कुछ इस प्रकार"यही चल रहा है, बाजार में रहनें के लिए करना पड़ता है, टीआरपी का चक्कर है, कोई नहीं करता पत्रकारिता, बच्चे पालनें है तो करना पड़ेगा"। तमामा ऐसे दावें करके अपनी मजबूरी दिखा देते हैं हमारे मित्र। लेकिन असली कारण होता है कि अब अपनें उन मित्रो को आदत हो जाती है खुद को एडिटर या सीनियर प्रड्यूसर कहलानें की। भोकाल खत्म नहीं करना चाहते, गाड़ी को पालना, रहन-सहन का बदला(उच्च)स्तर उन्हें समझौता करनें को कहता है, और समझौता गमों से करना चाहिए खुशियों से नहीं...लेकिन हमारे मित्र शायद वो भी इंसान ही हैं। तो इसलिए वो भी इसे अपनी मजबूरी बता कर पल्ला झाड़ कर पार्क में बैठ कर रिटार्यमेंट के सपनें ले सकते हैं,किसी सरकारी बाबू की भांति।
Shaandaar drasyawali.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बहुत चिक्कन गोबरी की है आपने ,
जय हो -गोबरमय हो
गोबर से गीता का सार टपका है। नए सिरे से गीता का रिव्यू लिखा है। गोबर गूढ़ शब्द है। इसमें करोड़ों रहस्य हैं। परमानंद है, संतोष है, सच है और ग्लानि है। गोबर के पहाड़ पर बैठकर तलछंट में पड़े गोबर की विवेचना की है आपने। गोबरमहिमा महान
गोबर का आयडिया ‘जायका इण्डिया का’ वाले हमारे विनोद दुआजी को मत दे दीजिएगा !
सीरियसली बताऊं। एक काम करते हैं। मैं आप पर मुकदमा ठोंक देता हूं कि यह पोस्ट आपने मुझ पर लिक्खी है, मानहानि की है। व्यक्तिगत आक्षेप है। विवाद खड़ा करते हैं। विवाद उठते ही उसमें तरह-तरह की जाति-प्रजातियां घुस आएंगी। इसे और रोचक बनाने के लिए मैं बोलूंगा कि रवीश जी बचपन से ही मुझे संजय गोबर कहकर चिढ़ाते थे। पैदाइश से ही बड़े जातिवादी पूर्वाग्रही हैं। देखिएगा 60साल कब कट गए पता ही नहीं चलेगा।
स्पांसर ढूंढ लीजिए।
इस वक्त हिंदी के बड़े, महान और महत्वपूर्ण साहित्यकारों को ऐसे गोबर की बहुत जरूरत है।
acha tarkia hai gobar karne ka.. khate hain bhaiya app gobar se hee aur aalochna bhi uusi kee kar.. fir naam bhi kamna chahate hai..bare gobru hain app..sab gobar gach ketari ho gaya hai tab aapp jage hain...chalo acha hai aalochna kar jimmedari se bachne ka ... ab koi kisi ko badbudaar nahi kahega
रवीश जी, गोबर महापुराम अच्छी लिखी है लेकिन एक डाउट क्रिएट हो गया है। ये पार्थ और अर्जुन एक ही थे या कृष्ण और पार्थ एक थे। क्यों कि आपके महापुराण में लंपटर्जुन किसी को खीजात्मक संबोधन में पार्थ कह रहा है। क्या मसला है? हमने आज तक यही पढा है कि पार्थ और अर्जुन एक ही थे। उन्हे ही कृष्ण कभी कौंतेय तो कभी भारत कहते रहे।
SACHIN KUMAR
HAI HIMMAT TO GOBAR BECH KAR KOI DIKHAIYE..KHABRO KE NAM PER TO BAHUT BECH DIYA...LEKIN KYA GOBAR KO BECHNE KI KISI NE SOCHI...NAHI NA...LEKIN AAPNE BLOG PER GOBAR PER KYA KHUB LIKHA HAI...LEKIN GOBAR BECHNE WALO KI AB KHAIR NAHI...AAJ KA TRP TO AISA HI KAHTA HAI....LEKIN SURU KE TIN NAAM BHI PICHE AA JAYE TO KUCH BAAT BANE...
रवीश जी आप तो गोबर पुराण ही रच दिए हैं.... अगला गोबर रत्न आपको ही मिलेगा ....जय हो
क्या कहूं मजा तो आया पर समझ मे कम ही आया
एक और शंका: जिसे कृष्ण ने एक ऊँगली पर उठाया, लम्पट अर्जुन के दृष्टिकोण से, गोवर्धन पर्वत = गौ + वर्धन, या गोबर + धन ?
गुस्ताख जी
शुक्रिया आपका। सुधार कर दिया हूं। एक ही बार में लिखने की आदत के कारण ऐसे झांसे में फंस जाता हूं। ध्यान ही नहीं रहा कि पार्थ और अर्जुन एक ही हैं। अब सुधार हो चुका है।
एक बार कहीं पढा था कि पंडे पुरोहित हमारे पूजा विधि में गोबर की बनी हुई पिंडी रखते हैं और उसे कहते हैं कि इन्हें गणेश मानकर पूजा अर्चन करो। लेखक मुझे याद नहीं पर उनके विचार जानकर लगा कि शायद वह समाज के जातिवाद को कुरेद रहे हैं और पंडितों की बनाई परिपाटी को कोस रहे हैं कि खुद तो पंडित लोग चन्नन टीका लगाकर साफ सुथरे रहते हैं और आम जनता को गोबर पूजने को कहते हैं।
ये आजकल मीडिया भी उसी पंडिताई की ओर बढता लग रहा है जहां गोबर को पूजने की ओर ईशारा किया गया है। देखते ही देखते जिस शख्स की कोई हैसियत नहीं थी वह फेमस हो गया सिर्फ इसलिये कि उसे मीडिया पंडितों ने गोबर गणेश मान पूजन हेतु लोगों को उकसाया।
ये वरूण गांधी, राखी सावंत, मुतालिक आदि उसी नव पांडित्यवाद के उदाहरण हैं।
वैसे मैं मानता हूँ कि गोबर से लिपे पुते घर द्वार अच्छे लगते हैं लेकिन तभी जब उसका उपयोग भूमि लीपने के लिये हो।
कविता कुछ समझ में आई, कुछ न आई।
वाट एक ऐडिया, सरजी:)
संक्षिप्त में, जीव का शरीर अस्थायी निवास-स्थान समझा गया है स्थायी किन्तु काल-चक्र में डाली गयी आत्मा, शम्भू यानि स्वयम्भू, अनंत परमात्मा के ही अंश का...भू यानि पृथ्वी की मिटटी से रचित, पार्थिव, अथवा भू पर ही उबलब्ध की गयी नौ ग्रहों के रसों से निर्मित... इसलिए यद्यपि शरीर नश्वर है, विभिन्न शरीर अनंत काल-चक्र में होने के कारण लीला चालू रहती है...
महाभारत यानि संसार की कथा, आत्मा (कृष्ण) यानि शक्ति और शरीर ('पांच पांडव', यानि पंचभूत) के योग द्वारा विभिन्न रूपों को मनोरंजक कहानी द्वारा आम आदमी तक पहुंचाने का प्रयास है प्राचीन किन्तु ज्ञानी योगियों का जिन्होंने सत्य के मूल, परमात्मा, तक पहुँचने के लिए गहराई में उतरने की गहन इच्छा जताई...सब जान पाए बस यही नहीं कि काल-चक्र की रचना में स्वयं परमात्मा का स्वार्थ क्या है...
देखिए, अर्जुन और सर द्रोणाचार्य जी के नाम से तो यहां पुरस्कार बंटते हैं। फिर क्या आपका इशारा एकलव्य की तरफ है !? वही था ऐसा लल्लूलाल कि जिसने मेहनत खुद की और अंगूठा कोचाचार्य जी के सुपुर्द कर दिया। गोबर की श्रेणी में उसे ही रखा जाना चाहिए। जिसपर सारा गोबर भी फेंका जाए और फिर भी उसका जिक्र तक न हो। शेर क्या ऐसे ही बन गया होगा कि:-
वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था,
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है!
मेरे पास तो अब यह पता लगाने का कोई साधन भी नहीं कि लल्लूलाल को यह बात नागवार गुजरी थी कि नहीं ?
कुछ पोज़ीटिव लिख गया होऊं तो स्वेट मार्डन, डेल कार्ने, खेड़ा साहेब, चोपड़ा साहेब आदि-आदि सब माफ करें क्यों कि पोज़ीटिव का सारा रायल्टी तो उन्हीं को जाता है न।
हमारे तो पीने के पानी में भी बीच-बीच में कीचड़ फ्लैवर आने लगता है। सोचा रवीश जी को ‘एप्रोच’ करुंगा। पर आप तो खुदई इत्ता मजबूर निकले कि आपकी मदद करने का मन होने लगा है।
ओहो फिर से थिंकिंग निगेटिव हो गया, माफ कीजिएगा.....
रवीश भइया व्यंग का यह तरीका बहुत ही अच्छा लगा। एक गंभीर बिषय पर ऐसे लेखन की जरुरत है।
असित नाथ तिवारी, बेतिया
रवीश सर क्या आपको आपने सच में गोबर को बहुत बढिया ईज्जत बख्सी है। एक खबर आपको पता है...
देश के ठेकेदार ईन दिनों चैन से सो रहे हैं।
क्योकि उनको जगाने वाला चतुर्थ स्तंभ....
खुद हीं नींद में है.......। जी हां हम बात तथाकथित
मीडियावालों की कर रहें हैं। जो आजकल राखी सावंत में व्यस्त हैं। कोइ उनकी शादी को लेकर पैकेज बनाने में लगा है तो कोइ सलमान और कैटरिना को लेकर स्क्रिप्ट लिखने में भिडा. हुआ है। बाकी समय में सास बहु,आज आपका दिन,और लेटेस्ट फैशन,फिर भी पेट नहीं भरा तो.......किसी शहर में कोइ लडकी निवस्त्र हो रही है तो दूसरे को कर्तव्य बोधता का एहसास दिलाने के नाम पर अपना कैमरा खोलकर टीआरपी पीट लो......जैसे काम में लगे हुये हैं।
अपने आपको पत्रकारिता के पवित्र कार्य का ठेकेदार बताने वाले अखबारों का तो नाम ही मत लिजिए। राजधानी पटना से प्रकाशित कुछ अखबार प्रदेश की ज्वलंत जन समस्याओं को उठाने और छापने की जगह मेनफोर्स कंडोम के विज्ञापन छापने में व्यस्त हैं........................इसलिए देश के ठेकेदार क्या .................जनसमस्यायों को दुर करने वाले ,समाज के तथाकथित ठेकेदार और राजनेता तो आराम से सो ही सकते हैं ........क्योकि हम जो सो रहे हैं। बस इतना हीं और फिर कभी.....................................।
आशुतोष जार्ज मुस्तफा।
बेहद तीक्ष्ण! आपने समूची व्यवस्था पर ही गोबर पाथ दिया.
रवीश जी पिछले साल नहीं पढ़ा था, अब पढ़ा । बहुत अच्छा लगा । देर आये दुरुस्त आये की तर्ज़ पर ।
वैसे एक कनफ़ेसन - आप लेख के साथ उनपर कमेन्ट कम मज़ेदार नही होते उन्हे पूरा पढ़ता हूं ।
परन्तु एक ऑबजर्वेसन है । गुस्ताख जी ने जो कमी आप को बतायी और आप ने उसे सुधारने का दावा किया और वह भी फिर गलती कर दी । आप ने ध्यान नहीं दिया - पार्थ और कौंतेय दोनो ही अर्जुन के नाम हैं । श्री कृष्ण के लिए गीता मे श्री भगवान और वासुदेव तथा प्रभु का उद्बोधन है।
एक साल बाद ही सही एक बार फिर से देख लीजिए ( रीविजिट )।
रवीश जी पिछले साल नहीं पढ़ा था, अब पढ़ा । बहुत अच्छा लगा । देर आये दुरुस्त आये की तर्ज़ पर ।
वैसे एक कनफ़ेसन - आप लेख के साथ उनपर कमेन्ट कम मज़ेदार नही होते उन्हे पूरा पढ़ता हूं ।
परन्तु एक ऑबजर्वेसन है । गुस्ताख जी ने जो कमी आप को बतायी और आप ने उसे सुधारने का दावा किया और वह भी फिर गलती कर दी । आप ने ध्यान नहीं दिया - पार्थ और कौंतेय दोनो ही अर्जुन के नाम हैं । श्री कृष्ण के लिए गीता मे श्री भगवान और वासुदेव तथा प्रभु का उद्बोधन है।
एक साल बाद ही सही एक बार फिर से देख लीजिए ( रीविजिट )।
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