अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी

मैंने झूठ का एक पुलिंदा बनाया है,
आकर देखो,
सच का भूरा जिल्द चढ़ाया है,
चाक पर मिट्टी से एक दीया बनाया है,
आकर देखो,
अंधेरे का डर कैसे भगाया है,
तुम ही कहते थे फरेबी है ये दुनिया,
आकर देखो,
फरेबियों को अपने घर बुलाया है,
बंद कर दी है हमने दिल की गवाही,
आकर देखो,
कचहरियों में जजों का दिल बहलाया है,
रख लो मुझे लिखे उन ख़तों को अपने पास
आकर देखो,
एक झूठा खत खुद को भिजवाया है।

14 comments:

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

बहुत बेहतरीन जी दुखती रगों को हँसते हँसते ही छू दिया जितनी वडाई की जाये उतनी कम है एक वेहतरीन कविता

Amit said...

बेहतरीन.....लेकिन, इतनी तकलीफ़ की और ये भी नहीं बताया कहां आकर देखें ?

रंजन (Ranjan) said...

:)

श्यामल सुमन said...

झूठ के ऊपर सच का भूरा जिल्द। वाह रविश जी। एक झूठ यह भी है-

रोटी जिसको नहीं मयस्सर, क्यों सिखलाते योगासन?
सुंदर चहरे, बड़े बाल का, दिखलाते हैं विज्ञापन।
नियम तोड़ते, वही सुमन को, सिखलाते हैं अनुशासन।
सच में झूठ, झूठ में सच का, करते हैं वो प्रतिपादन।
जनहित से विपरीत ख़बर का, छपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

अनिल कान्त said...

waah !!
:)

इरशाद अली said...

मैं इसे अब तक का सबसे बेहतरीन रविश कहूंगा, जो कहीं अन्दर से आहत है इस व्यवस्था से, और किसी ना किसी बहाने से अपना आक्रोश निकलता रहता है।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया एहसास।

संजय सिंह said...

बहुत अच्छी कविता है. मानव मन और यथार्थ का अच्छा मिश्रण है

अति Random said...

mann kahi na kahi is vyavstha se vyathit sa jaan padta hai

JC said...

खुद को लिखे झूठे ख़त
अलग अलग नाम से
अलग अलग पते पर
अलग अलग विषय पर...

एक साथ एक पुलिंदे में रख
खाली समय में फुरसत से
एक एक कर पढने में
शायद उन्हें सत्य मान
पुराना सब भूल कर
परमानंद की अनुभूति संभव है...

Bhawna Kukreti said...

FAREBIYON KO APNE GHAR BULAYA HAI, ANDHERE KO DARAYA HAI : BAHUT SUNDAR LIKHA BILKOOL NAYI KAVITA LAGI VARNA LAGBHAG HAR JAGAH KUCH KUCH MILTI JULTI HI PADNE KO MIL RAHI THI

मधुकर राजपूत said...

सस्ती नहीं ये फ्री की शायरी है। बिना पैसे की। अगर इसके पैसे मिलते तो ये भी ब्लॉगवार्ता की तरह किसी जगह पैसों के लिए छप रही होती। वैसे सच है कि दुनिया फरेबी है और फरेबियों की दुनिया में भी बगैर समाज के अस्तित्व नहीं है। यूपी बोर्ड के नागरिक शास्त्र का पाठ याद आ गया। समाज के बिना देव या दानव ही रह सकते हैं। इसलिए घर तो फरेबियों को ही बुलाना ही पड़ेगा। पहली लाइन में सामंजस्य झलकता है। झूठ के पुलिंदे पर सच का भूरा जिल्द। इसीलिए तो कामयाब हैं आप। सिंग्मण्ड फ्रॉयड याद आ गए। सामंजस्य सफलता का मूलमंत्र है। रही बात जजों के गिल बहलाने की तो उनका दिल तो तारीखें लगाने के एवज में पेशकार को मिले पैसे बहलता है। गवाही चाहे झूठी हो या सच्ची। आखिरी लाइन में तो भरपाई झलकती है। रखो अपनी फर्जी चिट्ठी जो कागजों में तुमने मुझे लिखी थी लेकिन आज तक बैरंग लिफाफे में भी नहीं मिली। इसलिए यहां दुनिया का फरेबी नियम लागू करके खुद से सुहाना फरेब कर लिया आपने।

Shambhu kumar said...

शब्दों की इस जादूगरी के लिए धन्यवाद... काश भारत में भी कभी विचारों से क्रांति होती... वैसे आपके विचारों की मैं काफी कद्र करता हूं... व्यवहार की आशा भारतीय पत्रकारों से नहीं रखता... लेकिन आप भारत में नैतिक मंदी के बावजूद आस जगाते हैं...

amit yadav said...

बस सर ये पंक्तियां पढ़कर मुख से यहीं निकलता है... बहुत खूब...

अमित यादव ( आईआईएमसी )