अंग्रेज़ी से साक्षात्कार- पार्ट वन

उन्नीस सौ नब्बे । मगध एक्सप्रैस से दिल्ली आने से पहले तक अंग्रेज़ी भाषा का मतलब मेरे लिए सिर्फ विषय था । पेपर वन औऱ पेपर टू । क्लास में मैं डब्ल्यूईआरई को वेयर बोलता था । हमारी एक टीचर ने कहा कि वेयर नहीं वर बोलो । बहुत कोशिश करता रहा वर बोलने की । जब बोलना आ गया तो सोचा इसका उपयोग क्या हो सकता है ? भीतर से जवाब मिला छोड़ो वेयर वर होकर तभी सार्थक है जब मैं अंग्रेजी में पास होने लायक हो जाऊं । गणित के अलावा अंग्रेज़ी के दोनों पेपर ऐसे थे जिनकी पिच पर मैं क्लिन बोल्ड हो जाया करता था । पर इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता था । काउ इज़ ए फोर फुटेड एनिमल रट कर काम चल जाता था । गोल्डन पासपोर्ट (कुंजी) में छपे आनस्टी इज़ द बेस्ट पोलिसी रट कर लिख देता था । पास मार्क से एक नंबर कम मिलता था । कोई बात नहीं । वैसे गाइड बुक को भूरे कवर में ही रखा जाता था । ताकि घर आने वाले दोस्तों और मेहमानों को पता न चले कि हम अंग्रेजी और गणित में गाइड पढ़कर पास होते हैं । कुंजी पढ़ने वाले छात्रों की अलग मनोदशा होती है । वह पास तो हो जाता होगा मगर तेज विद्यार्थी की तरह छात्रों के बीच स्वाभिमान से विचरण नहीं कर पाता होगा । शार्टकर्ट तरीके से पास कराने के बाद भी गाइड आपके मन में लंबे समय तक के लिए चोर बिठा देता है । कमज़ोर छात्रों का यह मज़बूत हथियार हमेशा के लिए उन्हें बिखेर देता है ।

पता नहीं बाकी छात्रों को अंग्रेजी कैसे आ गई । मुझे तो प्रिपोज़िशन ने बहुत परेशान किया । इसका पोज़िशन मालूम होता तो शायद अंग्रेजी के प्रोफेसर भीम भंटा राव हो गए होते । नहीं हुए । आर्टिकल और टेन्स ने भी कम अडंगा नहीं डाला । इतने सारे टेन्स और डू, डन, डीड । बाप रे । समझ में नहीं आता था कब डू करें । कब डन हो गया और कब डीड कर दिया। मगर यह तनाव व्यक्तिगत था । तब के माहौल में अंग्रेजी अपनी सार्वभौमिकता के साथ मौजूद नहीं थी । या हमें पता नहीं था कि दुनिया में कहीं अंग्रेजी बोली जाती है । या अंग्रेजी बोलने से बाबू लाट साहब हो जाते हैं । मेरे सारे रिश्तेदार क्लर्क से लेकर एकाध जूनियर इंजीनियर थे । हम इन्हें साहब ही समझते थे मगर किसी को अंग्रेजी नहीं आती थी ।

बहुत मुश्किल से मां से विनती कर एक अंग्रेजी का ट्यूशन कर लिया । कुछ नहीं हुआ । हर गलत ट्रांसलेशन पर एक चांटा । कान उमेठ कर पीठ पर धम्म से एक मुक्का । उन दिनों में बहस नहीं होती थी कि छात्र की पिटाई गलत है और इससे उसका आत्मविश्वास टूट जाता है । दिल्ली आकर हिंदुस्तान टाइम्स के फ्रंट पर एक लड़की की तस्वीर छपी थी जिसे मास्टर ने मारा था । तब लगा कि अच्छा ये गलत भी है । पर इस बहस से पहले न जाने कितने मास्टर कितने रवीश कुमारों की धुनाई कर निकल गए । खैर मास्टर साहब बोलते पास्ट परफेक्ट टेन्स हीं नहीं समझ पाते हो । क्या लिखोगे । एक बहुत प्रसिद्द अनुवाद था । मेरे स्टेशन पहुंचने से पहले गाड़ी जा चुकी थी । अक्सर चाचा इसका ट्रांसलेशन पूछ कर दस लोगों के बीच में आत्मविश्वास का कचरा कर देते थे । पहली बार अहसास हुआ कि मैं अंग्रेजी के कारण गांव जाने से घबराने लगा हूं । गांव पहुंचते ही तब ऐसे अनुवाद प्रकरणों से गांव और शहर की प्रतिभा में तुलना हुआ करती थी । मैं अक्सर फेल हो जाता था । एक बार गोल्डन पासपोर्ट से उसका अनुवाद लिख कर ले गया । रास्ते भर रटता था । नो सूनर हैड आय रिच्‍ड द स्टेशन द ट्रेन हैड लेफ्ट । ऐसा कुछ अनुवाद था । आज भी सही नहीं लिख सकता । बहरहाल उसके बाद भी चाचा जी के सामने नहीं बोल पाया । चाचा के अलावा एक मास्टर जी ने भी परेशान किया । जब भी वह बांध की ढलान से उतरते अपनी सायकिल रोक देते । और ऊंची आवाज़ में बोलने लगते । व्हेन डीड यू कम फ्राम पटना ? व्हाट इज़ योर फादर नेम्स ? यह लाइन ठीक ठीक याद है । घबराहट में इसका जवाब नहीं दे पाता । मिट्टी में सने मेरे बाकी दोस्त बहुत उम्मीद से देखते थे कि शहर में पढ़ता है जवाब दे देगा । मेरी नाकामी से संतुष्ट होकर मास्टर जी अपनी सायकिल बढ़ा देते थे । मैं गांव के अपने घर से तब तक नहीं निकलता था जब तक यह देख न लूं कि मास्टर जी स्कूल के लिए चले गए हैं । अंग्रेजी से घबराहट होने लगी ।

हर गर्मी में गांव न जाने का बहाना करने लगा । मेरा पूरा परिवार गर्मियों में गांव जाकर रहता था । मैं अब शहर में रहने लगा । मैं अंग्रेजी के कारण गांव के लड़कों के सामने कमतर नहीं होना चाहता था । मुझे मेरे गांव से किसी महत्वकांझा ने नहीं बल्कि अंग्रेजी ने अलग कर दिया । इंदिरा गांधी पर गोल्डन पासपोर्ट और भारती गाइड में छपे लेख को मिला कर रट गया । वेयर देयर इज़ अ विल देयर इज़ वे । जहां चाह है वहीं राह है । बहुत कुछ रटता रहा । लेकिन अंग्रेजी सिर्फ इम्तहानों में पास होने वाली भाषा बनी रही । हम अंग्रेजी के क्लास में वर्ड्सवर्थ की कविताएं हिंदी में समझा करते थे । शी ड्वेल्ट अमंग्स्ट अनट्रोडन वे । लुसी निर्जन रास्तों के बीच रहती है । ठीक ठीक याद नहीं मगर कुछ ऐसे ही पढ़ाया जाता था । सिर्फ इम्तहान खालिस अंग्रेजी में होते थे ।

तभी ख्याल आया टाइम्स आफ इंडिया लेने का । देश के कई घरों में पहली बार यह अखबार ख़बरों के लिए नहीं मंगाया गया । बल्कि अंग्रेजी सीखने के लिए मंगाया गया । पढ़ते रहने से आदत बनेगी । किसी ने कहा संपादकीय पढ़ो । हर संपादकीय को अंडरलाइन कर पढ़ा । डिक्शनरी लेकर अखबार पढ़ता था । मगर दोस्तों अखबार तो आ गया लेकिन अंग्रेजी नहीं आई । पटना शहर में जब नवभारत टाइम्स बंद हुआ तो मेरे एक टीचर ने कहा था । हिंदी का ज़माना चला गया । उल्लू तुम्हे अंग्रेजी सीखनी ही पड़ेगी । उसके बाद से टाइम्स आफ इंडिया को जब भी देखता घबरा जाता था । अंग्रेजी हिंदी को बंद कर देगी तो मेरा क्या होगा ? धर्मयुग दिनमान पहले ही बंद हो चुके थे । पड़ोस में चर्चा होने लगी थी कि अंग्रेजी सीखनी चाहिए । आगे की कहानी अगली कई किश्तों में लिखूंगा । जारी.....

जितेंद्र चौधरी ने भी टिप्पणी में अंग्रेजी से जुड़ा एक संस्मरण लिखा है । पढ़ना आवश्यक है

26 comments:

Jitendra Chaudhary said...

बहुत सही। बहुत सही लिखा है। सबसे अच्छी बात जो लगी, बिना लाग लपेट के तुमने अपनी बात कही। कोई अपराध बोध नही, कोई छल-कपट नही कोई दिखावा नही। अतीत की बातों तो खास होती है। पढने वाला आपके साथ उस दुनिया मे ना जाए तो आपका लिखना बेकार है।

हमारे यहाँ भी अंग्रेजी पर भाषणबाजी होती थी, हमारे मोहल्ले मे एक मास्साब(पता नही किसी खैराती स्कूल मे पढाते थे) रहते थे, उनको विशेष तौर पर रविवार की चाय पर बाकायदा बुलाया जाता था, परिवार के सारे बच्चों को लाइन से खड़ा किया जाता था, जैसे कैदी खड़े होते है लाइन मे। मास्साब जेलर के माफिक अंग्रेजी मे सबसे कुछ ना कुछ पूछते, पूछते क्या थे यार! एक तरह का उपहास ही उड़ाते थे। मास्साब अंग्रेजी सवालों के समानुपाती या कहो ज्यादा संख्या में प्लेट मे रखे समोसे और नमकीन पर हाथ साफ़ करते। एक दिन हमे गुस्सा आया, हमने गाय और पोस्टमैन का निबन्ध साथ मे लीव एप्लीकेशन को मर्ज करके मास्साब के सामने सुपर एक्सप्रेस स्पीड मे परोस दिया। जब हमारे ऊपर से निकल गया तो मास्साब को कहाँ समझ मे आती। वो भी ओके ओके करते रहे। बड़े बूढे ये सोचकर खुश हुए, चलो कम से कम एक बच्चा तो अंग्रेजी सीख गया।

अब धीरे धीरे करके, मास्साब के सम्मान के लिए रखी जाने वाली प्लेटें एक एक करके कम होने लगी। जब आखिरी हफ़्ते सिर्फ़ चाय परोसी गयी तो मास्साब भी कट लिए। हम लोगों को भी काफी राहत मिली।

Raag said...

बढ़िया विवरण है।
आप पूर्ण विराम और अंतिम अक्षर के बीच में जगह ना छोड़ा कीजिए।

v9y said...

रवीश,

अंग्रेज़ी में एक जुमला इस्तेमाल किया जाता है - 'ब्रूटली ऑनेस्ट'. इसके मायने ऐसी साफ बात कहने से होते हैं जो निर्दयता (मुख्यतः अपने ऊपर) की हद तक पहुँचती है. आपके लेखों को पढ़ने के बाद अक्सर मुझे ये जुमला याद आता है. आपकी इस 'निर्दयी सत्यवादिता' को सलाम.

Sanjeet Tripathi said...

वाह रवीश भाई, कितने सरल मन से अपनी यादों के सहारे अपने व्यक्तितव के इस पन्ने को सबके सामने ला दिया आपने।
वैसे यह सच्चाई गांव और कस्बों में रहने वाले ज्यादातर की कहानी है।
और हां कथादेश सम्मान के लिए पुन: बधाई।

Gyan Dutt Pandey said...

पत्रकारीय धर्म में तो बड़ा छद्म है. भैया, ऐसा साफ-साफ स्वीकारोक्ति करते हैं आप तो दुकान (अपना काम) कैसे चलाते हैं?

मैं टीवी नहीं देखता. इसलिये मालूम नहीं कि आपकी अंगरेजी अब कैसी है. पर अपने देश में अंगरेजी आनी चाहिये टाप क्लास.
खैर हम भी आपकी जमात के हैं. मुझे याद है कि इंस्टीट्यूट में कक्षा में पहला सवाल (अंगरेजी चलती थी) दो महीने तक संकल्प करने के बाद, लिख कर रटने के बाद ही पूछ पाया था.

आपकी पोस्ट अच्छी लगी, बधाई.

ravish kumar said...

जितेंद्र जी
आज अपराध बोध नहीं है । लेकिन बहुत पहले तक हुआ करती था कि अंग्रेजी नहीं आता। इसे एक दिन सामने आना था। ब्लागिंग का शुक्रिया।
राग...पूर्ण विराम और अंतिम अक्षर के बीच जगह नहीं छोडूंगा। ठीक कहते हो।
अंग्रेजी हमारे व्यक्तित्व के निर्माण का अहम हिस्सा रही है। बाजार की मजबूरी बनने से पहले यह भाषा ज्ञान के साधन की मजबूरी के रूप में डराती रही है। बहुत वीर बालक हुए हैं जो डरे नहीं। ऐसे लोगों को मेरा सलाम।

काकेश said...

सही चित्रण कर दिया आपने हमारा भी .
" देश के कई घरों में पहली बार यह अखबार ख़बरों के लिए नहीं मंगाया गया । बल्कि अंग्रेजी के लिए मंगाया गया । पढ़ते रहने से आदत बनेगी । किसी ने कहा संपादकीय पढ़ो । हर संपादकीय को अंडरलाइन कर पढ़ा । डिक्शनरी लेकर अखबार पढ़ता था । मगर दोस्तों अखबार तो आ गया लेकिन अंग्रेजी नहीं आई । " . ठीक ऎसा ही हाल हमारा रहा.

mamta said...

अच्छा विवरण है। आगे की किश्तों का इंतज़ार रहेगा ।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

रवीश भाई,
नमस्ते !
आपका ये लेख और फ्रीज़ वाला दोनोँ ही बहुत अच्छे लगे -
आपने जो लिखा है उसे पढकर मुझे हँसी भी आ गई !;-)
खैर!
अँग्रेज़ी कोई हौआ नही है -- एक बात बतलाऊँ ?
अमरीका की और ग्रेट ब्रिटन की बोलचाल की भाषाएँ
बहुत अलग अलग हैँ ! हाई स्कुल तक जुगराती, हिन्दी और सँस्कृत
सीख कर कोलिज मेँ अँग्रेज़ी और अब अमरीकन ज़बा भी सीख ली है-
अगले लिखोँ को पढना चाहुँगी - लिखते रहेँ
स्नेह,

लावण्या

Yunus Khan said...

गुरू आपने तो कईयों की दुखती रग को छेड़ दिया है । म0प्र0 के सागर शहर में पढ़ रहा था, हाईस्‍कूल की बात है । कोई एक कैथलिक मैडम थीं, अंग्रेजी की सदाबहार ट्यूशन वाली, सारा शहर उनसे ट्यूशन पढ़कर अंग्रेजी सीखता था, कई पीढियां उनसे अंग्रेजी सीखती थीं । वही ग्रामर वाली लाल जिल्‍द वाली पुस्‍तकें । वही रट्टाफिकेशन, टेन्‍स और एक्टिव-पैसिव का खेल । कितना प्रेशर था, उनसे ट्यूशन का । सब मित्र गये, पर मेरा मन नहीं हुआ । लोग बोले, नहीं सीख पाओगे । आपने सही कहा है कि अंग्रेजी अखबार इसलिये मंगाए जाते थे कि हम अंग्रेजी सीख पाएं । और वो अखबार बिल्‍कुल ताज़े के ताज़े रद्दी वाले ढेर में चले जाते थे । लानतें मिलती थीं, नहीं सीख पाओगे । दबाव पड़ता था इलस्‍ट्रेटेड वीकली पढ़ने का, पढ़ते थे सारिका, धर्मयुग और बाकी हिंदी पत्रिकाएं । । अंग्रेज़ी तो थोड़ी थोड़ी आ ही गयी, पर अंग्रेज़ी वालों के नखरे और नफासत नहीं आ
पाई । आपके इस चिट्ठे से वही पुराने दिन खूब खूब याद आ गये ।

चंद्रभूषण said...

lagta hai shahron me angreji ka khauf gaon se jyada hota hai. maine inter ki padhai terhi inter college azamgarh se ki thi aur angreji ke master ko main hi nahi meri poori class lallu samajhti thi. albatta shaadi-byaah me angreji ki dhaunk dikhti thi aur raja beta bankar barat me aaye bacche janwaas ke time 'akbar was a great king' sunakar vahvahi lootate the. baharhaal, sansmaran dilchasp hai, ras lekar padhunga.

Manjit Thakur said...

रवीश भाई,
गज़ब का लिखा है। मतलब, इसमें वह सब कुछ है जो हमारे साथ भी गुज़र चुका है। गांव जाते ही हमारे चाचा जी अपने बेटे के साथ भारतीय किसान की दशा पर अंगरेजी में बात करने के लिए भिड़ा देते थे। और हम असहाय होकर मुंह ताकते थे। सबके सामने वो हमसे मोस्क्यूटो की स्पेलिंग पूछते थे और हम मुंह बा देते थे। सिहराने के लिए काफी था यह सब। स्थिति यह था कि हमारे माथे को देखकर ही एक ज्योतिषी ने यह भविष्यवाणी कर दी थी कि यह लड़का अंगरेजी और गणित में लिद्दड़ है। क्या यह सब कपार पर लिख जाता है...

सादर
मंजीत, डीडी न्यूज़

Vivek Gupta said...

रवीश,
बहुत अच्छा लिखा है आपने ! पड कर बीच - बीच में काफी देर तक हँसता रहा । मैंने भी शुरु - शुरु अंग्रेजी से काफी फुटबाल खेली और बाद मैं धीरे - धीरे सीख ली ! आपका लेख पड कर मुझे अपनी याद आ गयी ।
विवेक
mailtovivekgupta@gmail.com

Prabin Barot said...

Ravish ji aap ne to hamari kahani kh dali...hame english se bahut hi dar lagta tha...kai log sahara dete the...ki sirf 26 alphabet hi to hai...papa ne kosis ki...mosa english teacher hai un ki bhi bahut kosis rahi...fir M.S.university main padne k liye gaya suru se hi dar tha ki english medium hai kya hoga...dost kese banege sab english main hi baat karege...paday...bate...sub english main utnahi nahi hindi,gujarati vibhag k bord bhi english main,aur vishwavidhayala ka naam bhi english main...lakin hosla nahi tuta...koi aachi english main baat karata to aapni aachi gujarati ya hindi main baat kar us ko bhi aapni aur kar leta...aaj waqt badla hai logose baat ki suruaat to hindi ya gujarati main hi karta hu lakin khaatam english main hi hoti hai...i m filing sad all about this...ravish ji good going...bye good bless you...

अभिनव said...

वाह भाईसाहब, अंग्रेजी पर आपका संस्मरण पढ़कर आनंद आ गया। अपनी अंग्रेज़ी की हालत तो आज भी सोनिया गांधी की हिंदी की तरह ही है। इसको आत्मा में उतार भी नहीं पा रहे हैं और इसके बिना काम भी नहीं चलता है। खैर, "ऐलीफैंट टीथ ईट अदर सी अदर" (हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और) की तर्ज पर दफ्तर में सबसे ऐसी अंग्रज़ी में बात करने लगे हैं मानो लंदन के कैम्ब्रिज कालेज में ही कबड्डी खेल कर बड़े हुए हों। जो रस तथा मज़ा हिंदी में है वो तो बस वही जान सकता है जिसे भाषा का सही ज्ञान हो तथा जिसने दिनकर, निराला, बच्चन तथा शरद जोशी को पढ़ा हो। अदरवाइज़, जो आस पास के मित्र हमारी भाषा सुनकर मुँह बिचकाते हैं उनसे यही कहने का मन करता है कि "मंकी वाट नो जिंजर टेस्ट" (बंदर क्या जाने अदरख का स्वाद)।
बढ़िया लेख लिखा है, आगे की कड़ियाँ पढ़ने की प्रतीक्षा रहेगी।

Unknown said...

Dear Ravish Jee ,
Shudya , saral likha hai aapne ...mujhe isse kuch yaad aaya ek ghazal jisko Jagjit Singh ne gaya hai.."koi mujhko lauta de woh bachpan ka sawan ,Woh kagaz ki qasti woh barish ka pani....."

keep writing healthy stufs.

-Parvez

Kamran Perwaiz said...

rvesh sir,
aapka lekh padha. it is very good. waise main bhe hindi ka he kha raha hu. english apne leye bhi ferangi bhasha hi hai. lekin 1 saal se media me hu aur kam ker raha hue.

Rajesh Roshan said...

अच्चा लिखा है । पहले वो रोने-धोने वाले पोस्ट्स और अब ये पोस्ट्स । हमारे समाज में अचाई और बुराई दोनो हैं । हमे समाज कि अच्छाई के बारे में लिखना चाहिऐ । बुराई लिखने-दिखाने का काम तो हम ऑफिस (मीडिया ) में करते ही हैं । बड़ी इमानदारी से लिखते हो भाई । एक प्रश्न है क्या निजी जिन्दगी में भी इतनी इमानदारी रखते हो । जवाब देना जरूरी नही है ।

पूरा पोस्ट पढा साथ ही सारे कमेंट्स भी । अच्छा लगा । लेकिन अभिनव जी से कहना चाहूँगा कि कोई भी भाषा अच्छी या बुरी नही होती है अच्छे या बुरे उसे हमलोग बनाते हैं । भाषा के प्रति हमारा नजरिया उदार होना चाहिऐ । ऑक्सफोर्ड का इंग्लिश शब्दकोष इस मामले हमारा उदाहरण बन सकता है । हर साल इसमे विश्वा के हर उस भाषा से कुछ शब्दो को सम्मलित किया जता है जो kafi चलन में होते हैं । हिंदी के आलू, टोपी, लाठी और ना जाने कितने शब्द शामिल हैं । हमे अपने आचार-विचार को को भी ऑक्सफोर्ड के शब्दकोष कि तरह बनाना चाहिऐ

MRajLive said...

रवीश जी क्या आप अपनी आत्ममुग्धता से त्रस्त हैं.....आप कमेंट्स में अपनी बड़ाई देखना चाहते हैं ....आपने पत्रकारिता का गुटकाल पर मेरी कमेंट क्यों डिलीट कर दी ...आपको आत्ममुग्धता यदि इतनी ही पसंद है तो ब्ल़ाग पर न लिख कर घर पर किसी पन्ने पर ही अपनी बातें लिखिए और खुश होते रहिए....एक बात और, अंग्रेजी पर लिखा आपका लिखा बार बार पढ़ने लायक है ।

Manoj said...

Ravish ji,
kaafi badhiya article likhe hai aapne...
English ka khauf hamaare gaon ke kai logon ko shaadi ke waqt bada sataata tha. Aisa maana jaata tha ki "AGUA" logon ke team me ek angreji expert bhi hota tha jiska kaam tha "NOUN" ki paribhasha poochna.

aaj hi aapke blog ke baare me jaankaari mili aur padh ker kaafi maja aaya.
Manoj

shambhu said...

Ravishji,
ye post padhkar laga ki aapne meri ramkahani likh di hai. varshon tak times of india kharidkar bhi kaamchalau english hi sikh paya. Thodi-bahut english jaan bhi gaya to apne bhitar ye confidence paida nahi kar paya ki kisi ke samne apna gyan pradarshit karu. Badi hoti meri beti jab english bolti hai to use dekhkar hairani hoti hai. Hairani ye sochkar hoti hai ki jiska baap puri jindagi padhkar bhi english nahi bol paya, uski beti ne do saal me is pareshan karnewali bhasa par command kaise kar liya.
aake post waakai khub pasand aate hain. likhte rahiye.
bablu.

ravish kumar said...

एम राज जी
आप जब अपने बारे में लिखेंगे तो आत्ममुग्धता से कैसे बचेंगे। कुछ हद तक इसका तत्व तो मौजूद ही रहेगा। रही बात आपके सवाल की तो जवाब इसलिए नहीं दिया कि आप यकीन नहीं करेंगे। मैं किसी गुट में नहीं हूं। जिस बड़े पत्रकार का नाम लिया था उनके गुट में भी नहीं। गुट में होता तो नौकरी बदल लेता। बचने की कोशिश करता हूं। सचेत रहता हूं। पर कई बार ऐसे भी वाकये हुए हैं जिनसे लोगों को लगा कि मैं गुट में हूं।

mr kaushik said...

sirf ek shabd.....shandaar.

Rakhee said...

aapka lekh bahut pasand aaya...aage ki kadiyon ka intzaar rahega.

अंग्रेज़ी बोलना सीखें said...

Interesting post. I too witnessed the same problem and that's why decided to start a free blog to help others.

However, I do feel that the undue advantage given to the language is hurting the nation badly.

संजय भभुआ said...

अपनी कहानी लगी.रवीश जी आपके बोलने का स्टाइल मजेदार है.