फिल्म मेट्रो देखी। ढाई घंटे में हर पल हर संबंध एक दूसरे को छलते रहे। शायद यह हकीकत भी हो। पर सारे छल प्रपंच किसी के साथ सिर्फ सोने को लेकर हो अजीब लगते हैं। फिल्मकार यही कहना चाहता था कि संबंध बदल रहे हैं क्योंकि शहर बदल रहा है। और बदलते शहर में सपने पूरे करने का एकमात्र ज़रिया सेक्स संबंध और उसके छलावे हैं। पर इस एक बात को कहने के लिए इतने सारे किरदार क्यों चुने गए? यह बात समझ नहीं आई।
हर कोई किसी नए को ढूंढ रहा है। जिन्हें नहीं मिली है या नहीं मिला है वो भी ढूंढ रहे हैं। संबंध बनाने या उसकी नाकामी से निकलने की छटपटाहट कम लगती है । सोने की जल्दी ज्यादा। और ढेरों बदलती करवटों के बीच तीन झुरमुट बाल वालों का गाना। महानगर के ये सूत्रधार कुछ गा देते हैं। जिंदगी के अतर्विरोध को सामने रख देते हैं। मगर कोई उनके गाने से सबक नहीं सीख रहा है। सुन भी नहीं रहा है। सब एक दूसरे को पकड़ रहे हैं किसी अनजान कोठरी में ले जाकर सेक्स पूर्ति के लिए। सेक्स से प्रमोशन है। वेतन है। और पूरा शहर। फिर इरफान की शानदार एक्टिंग। इरफान इस फिल्म की जान हैं। वो भागते संबंधों को रोकने की कोशिश करते हैं और अंत में खुद घोड़ी दौड़ा कर भाग निकलते हैं । उस लड़की के पीछे जो उन्हें आखिरी वक्त पर बेहतर जीवन साथी नज़र आती है। फिर वो भी भागती है जो अब तक राजी खुशी अपने बॉस के साथ सोती है।
के के मेनन बॉस के रूप में किसी हकीकत को बयां ही कर रहे होंगे जो आजकल के दफ्तरों में होने की अफवाहों पर आधारित है। कुछ प्रतिशत को शत प्रतिशत के रूप में दिखाया गया है। जब वो अपनी पत्नी के सामने स्वीकार करते हैं तो चेहरे का भावहीन बयान बेहतर लगता है। अफसोस न सबक। कह देते हैं कि दो साल से एक लड़की है ज़िंदगी में। जबकि हकीकत में वो लड़की सिर्फ बिस्तर में ही होती है। मेनन कई बार उस लड़की से कहते हैं कि नो इमोशन। सिर्फ सेक्सेशन। वो जिंदगी में कहां होती है। मगर मेनन कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। शिल्पा भी कह देती हैं कि छह महीने से उनकी ज़िंदगी में एक लड़का है। मगर के के मेनन को लगता है कि लड़का शिल्पा की ज़िंदगी में नहीं उनके बेडरूम में है। और वो शिल्पा को छोड़ देते हैं।
इन सबके बीच दो बूढे लोग प्रेम पात्र के ज़रिये एक रूपक बनते हैं। कि नए नए संबंधों के पीछे मत भागो। फायदा नहीं है। पछताओगे। मगर देर हो जाती है।
मेट्रो की कहानी सेक्सट्रो लगती है। जिसमें सिर्फ सेक्स की तलाश है। उसका फायदा है। नुकसान नहीं। फ्लैट वाले को भी नहीं। उसे भी अफसोस नहीं कि जिसे वो चाहता है वह लड़की उसके खुशी खुशी अपने बॉस के साथ सोती है। वो उसे अपना लेता है। अच्छा लड़का है।
फिल्म में सब कुछ सामान्य है। हो सकता है मेट्रो शहरों में भी यह सामान्य हो गया हो। होगा तभी दिखाया होगा। इरफान न आते तो न जाने फिल्म कैसी लगती । कोंकना सेन ने शानदार अभिनय किया है। मेट्रो देख आइये। संबंधों का पोस्ट मार्डन आपरेशन किया गया है। हद है अभी तक दक्षिणपंथी ताकतों ने क्यों नहीं देखी। या समझ में नहीं आई। मां बेटी और बाप..सब के सब। बाप रे बाप। देख आइये मेट्रो अच्छी फिल्म है भाई।
8 comments:
कुछ का सच सबका सच! सही है!
आप गुस्सा उतार रहे हैं या सचमुच देखने की सलाह दे रहे हैं?.. फ़िल्म का नाम ही गलत है तो फ़िल्म कहां कुछ सही होगी.. और पैसे का नुकसान होगा उसे कौन भरेगा?.. क्यों जाके देख आएं?
मैंने लिखना चाहा इससे पहले प्रमोद जी ने अपना कमेंट दे दिया । प्रमोद जी फिल्म तो सच में अच्छी बनी है । मैंने भी कुछ लिखा था और इसपर मेरे एक दोस्त ने कमेंट तो नही लिखा हां फ़ोन कर मुझे कह दिया कि यार ये नॉर्थ काम्पुस वाली बात एक दम सही लिखी है। मैंने कुछ सोच कर केवल हु कह उसे कुछ नही कहा । पोस्ट आप भी देख लीजिये।
http://merasapna.wordpress.com/2007/05/25/life-in-a-metro-dudate-bhagte-sahar-ki-kahani/
रवीश जी
इस फिल्म को न देखने का इरादा कर लिया अब।
*** राजीव रंजन प्रसाद
metro sextro zaroor hai. lekin aas paas dekhe to lagta hai bade shahroon me aajkal ye sab batein aam ho gaye hai. koi aascharya nahi hota. office ke chaar dostoon se dil kholkar baat kare to bahut kuch pata chalega jo aapne unke baar em soch bhi nahi hoga. morality ko lekar bedroom me koi do rai nahi rakhta. khaskaar mumbai jaise shahar me. kam se kam mera to anubhav yahi hai.
oye brother i like the way u write ,but what was the need of mentioning DAKSHINPANTHIS here hain? oy sudhar jao . Rightist r the future of this country. leftists r only a flavour of season which shall pass.
munish
Metro mein bhi purush hi sex ka pyasa hai. Shilpa, jo ek patni hai aur ek maan hai, pati ke vimukh ho jaane se, apni emotional pyas ki maari, ek gair-mard se milne julne lagti hai par jab waqt aata hai sharirik samabandh banane ka to aatm-glani se bhar jaati hai aur bhag khadi hoti hai. Doosri taraf us ka pati jo gair-aurat se milte hue kisi bhi tarah ka guilt nahi mahsoos karta. Metro mein chhali gayi patni ka response abhi bhi traditional nari ka hi hai - wo dahleej nahi paar kar payi. Metro ek chhota shahar hi rah gaya. Agar aurat usi dhang se itneqam leti to ek badi bold pahal hoti aise vishay par aur debate me maja aa jata. Daskshhinpanthi tab jarror theathre me aag laga dete.
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