मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है

पनघट के पानी की जगह बिसलरी का बोतल है
किरासन की ढिबरी की जगह जेनरेटर का धुंआ है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।

मां की रोटी की जगह हारवेस्ट की डबल रोटी है
मकई के भूजा की जगह हल्दीराम की भुजिया है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।

ख़त लिखना बंद है और ई मेल पर संबंध है
दरवाज़े पर आहट नहीं और फोन पर घनघनाहट है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।

पगडंडियां टूट गई हैं और नेशनल हाईवे आ गया है
टोले सब मिटा दिए गए हैं और अपार्टमेंट आ गया है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।

15 comments:

Jitendra Chaudhary said...

बहुत सही, अभी तो इसमे और गुन्जाइश दिखती है, अब हम कवि तो है नही, नही तो कुछ ना कुछ और बढा ही देते, मगर चिन्ता मत करो, बहुतेरे कवि है अपने टोले मे, आगे बढांएंगे इसे।

परमजीत सिहँ बाली said...

अपनी रचना में बदलाव को बखूबी कविता मे ढाला है।बधाई।

mamta said...

आपकी कविता मे सच्चाई है । वैसे जीतू जी की बात भी सही है।

Satyendra Prasad Srivastava said...

और जब से गांव शहर हुआ और अपने अंदर का आदमी शहरी हो गया तब से न जाने कितने समझौते, कितने पतन और पता नहीं क्या क्या कितना करना पड़ा।
थक गए हैं प्यार मेरे इस शहर में
नासूर हो गए घाव मेरे इस शहर में
गांव का प्यार दुलरुवा पूत था मैं
घट गए भाव मेरे इस शहर में

Sanjeet Tripathi said...

बहुत सही।

मेरे भीतर का गांव शहर हो गया,
पड़ोस का साग तो दूर पड़ोसी कौन है नही मालूम
पड़ोस से किसी की पुकार नही टी वी का शोर ही आता है
गुम हैं सब चाचा-ताऊ, बस अंकल-आंटी ही दिखते है अब

उमाशंकर सिंह said...
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उमाशंकर सिंह said...

अज्ञेय की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं...

ऐ सांप, तुम तो सभ्य हुए नहीं
शहर में रहना भी नहीं आया
एक प्रश्न पूछूं? उत्तर दोगे?
कैसे सीखा डसना,
विष कहां पाया!

शुक्रिया
उमाशंकर सिंह

अनूप शुक्ल said...

कविता में आपको देखकर अच्छा लग रहा है!

अभय तिवारी said...

अच्छी बात ये है कि आप बीच में स्थित हैं.. न इधर ना उधर.. कस्बे में..

Rajesh Roshan said...

सही लिखा है। इस दिल्ली ने कितनों में क्या क्या बदल दिया उन्हें भी पता नही। आपने गौर किया। This is the original version of Ravish Kumar.

राजीव रंजन प्रसाद said...

रवीश जी.

पहली बार आपकी कविता पढी,सरल-सहज शब्दों में बडी ही प्रभावी अभिव्यक्ति है। "मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है" बदलते हुए दौर का एसा बडा सत्य है कि हम समझ ही नही पाते कि जो पा रहे हैं उसका जश्न हो या जो खोता जा रहा है उसका मातम (इसमें हमारी संस्कृति भी सम्मिलित है)। पंक्तियों में आपने इस पीडा के साथ न्याय किया है, बधाई आपको।

*** राजीव रंजन प्रसाद

ravish kumar said...

अभय जी

सही कहा आपने । मैं अभी तक दिल्ली में अपने कस्बे को ढो रहा हूं। क्या पता कब कस्बे में भी रिलायंस का ढाबा खुल जाए। और हल्दीराम की आउटलेट। तब क्या करेंगे।

Manoj said...

ravish ji,
badhiya kavita hai par aap apne bhitar ke gaon ko shahar me dhalte dekhkar khush hain ya udaash :) ??

Manoj

Unknown said...

Ravish ji aap lucky hai (shayad) India mai hai, Mera Gaon kab ka bidesh ho gaya, Likh te huai aaisa lagta hai ki mai Professional nahi hoo, Apni energy kisi ko quotation de ke 2-4 hazar kamane ke bajaye comment post kar reha hoon............ sakoon hai
ombangkok@gmail.com

Monika said...

ravish g

namaskaar

bahut dino bad aapse roobroo hone ka mauka mil raha hai aur vo bhi ek prashn ke saath-

KYA AAP DEVELOPMENT KE KHILAAF HAI?

ek aur baat, mai aapki prishthbhoomi nahi jaanti, isliye dhrishttataa ho jaaye to maaf kijiyega. aap se un galtiyon ki ummeed nahi kee jati, jo aksar bihar-jharkhand ke log karte hai. jaise-bislari KA botal