दुनिया के अमीरों कुछ दे सकते हो- मनमोहन

दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में राजनीतिक दल द्वारा अमीरों से की गई यह पहली याचना हो सकती है। गरीबों की आवाज़ बन कर सत्ता में आई यूपीए का प्रधानमंत्री अमीरों के आगे हथियार डाल कर मांग रहा है। आप तनख्वाह कम कर दो, शादी में अधिक खर्च मत करो, और लालची मत बनो। चार्वाक विरोधी इस बयान से अमीर आहत हैं। फिर वो अमीर किस लिए बनें। इस पर बहस है।

मनमोहन सिंह ने चार्वाक के इन्हीं संतानों को पैदा करने के लिए नब्बे के दशक में अर्थव्यवस्था का दरवाजा खोला था। तब इन्होंने कहा था कि गरीबी दूर होगी। देश तरक्की करेगा। इस बीच मनमोहन सिंह की तरक्की तो हो गई मगर सबसे शीर्ष पर पहुंच कर लग गया कि गरीबी दूर नहीं हुई है। इनता तो नंबर मिलना ही चाहिए कि प्रधानमंत्री को वोट से पहले ही गरीबों का गुस्सा नजर आ गया है। इसीलिए अमीर बनने के व्यक्तिगत सिद्धांत का प्रतिपादक अर्थव्यवस्था के प्रचारक मनमोहन सिंह अमीर व्यक्तियों से मांग रहे हैं। मांग बढ़ाने के खिलाफ वो मांग पर संयम की बात कर रहे हैं। पता नहीं मनमोहन सिंह जी कम्युनिस्ट हो रहे हैं या कन्फ्यूज़ हो रहे हैं।

लोकतंत्र और व्यक्तिगत पूंजी साम्राज्य में गरीबी दूर करने का ठेका सरकारों को दिया गया है। कंपनियों को अमीर बनने का ठेका दिया गया है। इसीलिए मनमोहन सिंह की सरकार सेज जैसी नीति बनाकर गरीब किसानों की ज़मीन लेती है। विदर्भ के किसानों को मुआवज़ा देकर भूल जाती है। तीन साल में सरकार की नीतियों के नतीजे ज़ीरों से आगे बढ़ते देख मनमोहन सिंह को बात समझ में आ गई है। बस वो इस समझ को दूसरे पर टाल देना चाहते हैं। उनमें कहने की हिम्मत नहीं कि गरीब विरोधी कोई है तो वो सरकार है। गरीबी दूर करने के काम में उनकी सरकार फेल हो गई है। इसलिए बाकी के ढाई साल में अमीरों से चंदा मांग कर गरीबों को दे दिला कर काम चला लें। अर्थशास्त्र फेल हो गया या राजनीति यह शोध का विषय होना चाहिए। मौजूदा हालात में दोनों ही फेल नजर आते हैं। बस किसी में साहस नहीं है नए विकल्प की बात करने की। हम नया सोचना नहीं चाहते मगर नया करने का वक्त आ गया है।

रही बात शादियों में खर्चा कम करने की तो इसमें समाज के साथ सरकार की नाकामी है। मैं करीब हर तीसरे लेख में दहेज की चर्चा कर देता हूं। मुझे भी इसकी जड़ में हिंदुस्तान की लड़कियों की बदतरीन ज़िंदगी के हालात नजर आते हैं। यह सिर्फ अमीर की समस्या नहीं है। सबकी है। इसे दूर करने का कानून है। जिसे लागू करने में सरकार फेल हो गई है। दारोगा को दहेज विरोधी कानून से ज्यादा फायदा पहुंचा है। शादियां सिर्फ अमीरों की वल्गर नहीं होती। वो मेरठ, पटना और मोतिहारी में भी होती हैं। इसका मुद्रा स्फीति से भी लेना देना नहीं। दहेज के लिए होने वाले पूंजी संचय से खास महीनों में बाजार को फायदा होता है। मैं दावे के साथ कहता हूं अगर दहेज न लियें जाएं तो लगन के समय में बाजार गिर जाएगा। माल की खपत कम हो जाएगी। फिर सामाजिक रूप से चैतन्य कोई आमिर खान नुमा संवेदनशील कलाकार टाइटन घड़ी का प्रचार नहीं करेगा। हिंदुस्तान के मर्दों को मर्द बनाने वाला रेमन्ड्स दुल्हे की खास पसंद नहीं पेश करेगा। रेमन्ड जानता होगा कि दुल्हों का सजने का यह शौक लड़की का बाप पूरा करता है। बाद में वही लड़की का बाप अपने बेटे के लिए किसी और लड़की के बाप से यह शौक पूरा करवाता है। फायदा बाज़ार को होता है। इससे हतोत्साहित होकर अक्सर मेरे पिताजी कहते हैं दहेज से पूंजी का सामाजिक वितरण होता है। बैंड बाजे, हलवाई,नाई, पत्तलवाले, इत्र वालों के पास पैसा पहुंचता है। मगर बड़ा हिस्सा बाज़ार ले जाता है। दहेज के ज़रिये एक परिवार की पूंजी दूसरे परिवार में पहुंच जाती है। बेटा या बेटी के पैदा होते ही तय हो जाता है कि परिवार से कितना पैसा जाएगा और कितना आएगा। वो ऐसा इसलिए कह रहे थे कि उन्हें भी लग गया है कि इसका अंत नहीं होने वाला। इसलिए वो इसमें खूबी देख रहे हैं। पिताजी का यह बकवास अर्थशास्त्र किसी काम का नहीं वैसे ही जैसे मनमोहन सिंह की सलाह का कोई मतलब नहीं।

मनमोहन सिंह किसी जात बिरादरी के नेता की तरह अंतिम संस्कार के भोज, शादी, विदाई के वक्त संयम बरतने की अपील कर रहे हैं। सरकार के मुखिया की तरह कुछ कर नहीं रहे हैं। रिलायंस के कार्टेल के सामने क्या मनमोहन सिंह खड़े हो सकते हैं? राजनीति में भी परिवारों का कार्टेल बन रहा है। क्या उसके खिलाफ खड़े हो सकते हैं? मनमोहन सिंह व्यक्तिगत जीवन में संयम से रहते हैं। उनकी बेटियां आज भी साधारण रूप से कालेजों में पढ़ाने जाती हैं। कोई अहंकार नहीं। मगर क्या वो इस व्यक्तिगत कामयाबी को सामाजिक या राष्ट्रिय कामयाबी में बदल सकते हैं? नहीं। वो भाषण दे सकते हैं। सो दे रहे हैं। बहुत ही बेकार भाषण देते हैं। खुद ईमानदार होने पर बधाई। मगर अपराधी, भ्रष्ट नेताओं को मंत्री बनाने की बेबसी पर लानत। मनमोहन सिंह जैसे बेबस ईमानदारों से ऐसे ही भाषणों की उम्मीद की जा सकती है। मर्दाना कमजोरी से बचने के लिए हस्तमैथुन से संयम बरते की सलाह देने वाले सड़कछाप बाबाओं की तरह मनमोहन सिंह के इस भाषण पर बहुत गुस्सा आया है।

12 comments:

Gaurav said...

इस भाषण पे आपकी प्रतिक्रिया कि राह देख रह था . बिल्कुल सही कहा आपने. मनमोहन सिंह इस बात को भूल गए के कितने नेता शादियों में पैसा खर्च करते हैं और समाजवादी होने का दावा करते हैं । जब देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि भ्रष्टाचार सबसे बड़ी बिमारी है , तब प्रधान मंत्री का भाषण महज़ एक पुब्लिसित्य स्टंट लगता है.तीन साल में सरकार ने सरकारी खर्च क़ुम करने के लिए और योजनाओं का पैसा लोगों तक पूरा-पूरा पहूचाने के लिए कोई कठोर कदम नहीं उठाएं हैं.

Satyendra Prasad Srivastava said...

अजीब याचना थी। गरीबों की हालत बेहतर करने के कोई उपाय ढूंढने की जगह उन्हें तसल्ली देने के लिए सीईओ का वेतन कम करने की सलाह। कितने सीईओ हैं जिन्हें बहुत मोटी तनख्वाह मिलती है। मनमोहन इस दिशा में काम क्यों नहीं करते कि न्यूनतम वेतन जरूर से मिले। गरीब मजदूरों की हालत में सुधार हो। दिल्ली के पास में ही नोएडा, ग्रेटर नोएडा के कारखानों में मजदूरों का हाल क्या है...छै महीने काम कराने के बाद मैनेजमेंट एक हफ्ते के लिए नौकरी से निकाल देता है। फिर नए सिरे से अनुबंध ताकि मजदूर का कोई हक नहीं बन सके। तीन-तीन चार-चार हज़ार रुपए पाने वाले मजदूरों को किस तरह बात का बतंगड़ बना कर नौकरी से निकाल दिया जाता है...नोएडा में न मजदूर यूनियन हैं ने मजदूर नेता...जो हैं वो दलाली करते हैं। मनमोहन भी सठिया गए लगते हैं।

kundan said...

bahut badhiya sir..darasla desh ke nav-dhanadhyo ke aadarsh MANNU BABU ki yah yachna bhi punjivad ke nag me ek Heera lagati hai... aur meri samajh se ye Singh Ji ki yachna nahi hai, is bahane desh ki bahusankhyak janataa ko ye janane ka mauka mila ki hamare garib desh me bhi itni amiri hai..bhai waah MANNU BABU...

dhurvirodhi said...

रवीश जी, दुरुस्त लिखा है.

राजू सजवान said...

नया करने का वक्त आ गया है। आप बिल्कुल ठीक बोले, लेकिन कौन करेगा? कुछ दिखता हो तो सुझाइए...

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छा और सही लिखा है।

राज भाटिय़ा said...

रवीश जी,मेने बच्पन मे कठ्पुतली का खेल देखा था,आज आप का लेख पड कर ‘कठ्पुतली याद आ गई
गरीवी नही हट्ती तो ना सही, दिन व दिन गरीब तो ( मर) हट ही रहा हे ना......

prabhat darsan said...

aap ke blog ka uddesh pura ho gaya, ya youn kahoon kee safal ho gaya. aise hee tipperi kee samaj ke leiya zarorri hai.
girjesh patna

Unknown said...

मनमोहन सिंह जी के बयान में उनकी बेबसी ही नज़र आती है। प्रधानमंत्री गुहार लगा रहा है सुधार की। हालांकि सिर्फ इन दोनों मामलों की बात करें तो एक प्रजातांत्रिक सरकार न तो सीईओ के लिए ऐसा कोई गाइडलाइन्स तैयार कर सकती है। न ही वो शादी किस तरह से की जाए इसके लिए कोई क़ानून बना सकती है (हां आपने जो दहेज़ वाला ऐंगल जोड़ा है वो सौ आने सही है)।
अगर प्रधानमंत्री वाकई ग़रीबी और सोशल डिस्पैरिटी को लेकर गंभीर हैं तो वो सरकार कई चीज़ें करने में सक्षम हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्होंने काफ़ी सोच विचार कर अपनी बेबसी को स्वीकार कर लिया है। या फिर उन्हें किसी जामबंत की ज़रूरत है जो उन्हें उनकी ताक़त का एहसास कराए। हद है भाई। कैसा पीएम है?
-ओम
http://kharikhoti.wordpress.com

Raag said...

बहुत ही बढ़िया लिखा है। जिस देश का प्रधानमंत्री ही बेबस हो उसके लिए क्या कहें।

दहेज तो वास्तव में बड़ी समस्या है ही।

अनुराग

काकेश said...

जिस देश का प्रधानमेंत्री अपने ही देश में बेबस है उस देश का क्या होगा. यही तो लोकतेंत्र है जहाँ भाषण देना ही मंत्र है.

Unknown said...

ravish bahutaccha likha hai bhai manmohan singh ke hastmaithun par... mazaa aaya parh ke. nalin