हमारे देश में आरक्षण पर होने वाली बहसें खेमेबाज़ी से अलग नहीं रही हैं। हम दो फ्रेम लेकर चलते हैं। आरक्षण नहीं होना चाहिए और दूसरा आरक्षण होना चाहिए। लेकिन हम कभी यह मूल्यांकन नहीं करते कि आरक्षण का फायदा क्या हुआ? क्या यह नीति अन्य सरकारी नीतियों की तरह हैं जिसका कोई फायदा नहीं? हम पहले यह क्यों नहीं देखते कि आरक्षण से समाज को क्या लाभ हुआ?
मैं कहता हूं दुनिया में आरक्षण जैसी कारगर संवैधानिक नीति नहीं बनी है। सिर्फ पचास साल में इसकी वजह से लाखों दलित इस हालत में पहुंच गए जिन्हें पांच हज़ार साल से किसी लायक नहीं छोड़ा गया था। युगों का पिछड़ापन और आधी सदी का विकास सिर्फ एक नीति से हुआ है। आरक्षण एक आश्चर्य है।
जिस कांशीराम या मायावती को आप देखते हैं वो सभी आरक्षण की देन रहे हैं। वो नहीं तो उनका परिवार। जिसके सहारे वो स्वतंत्र राजनीति करने में सक्षम रहे। गांधी, नेहरू,लोहिया और वाजपेयी की राजनीतिक धारा के सामने अपनी एक नई धारा खड़ी कर दी। दलितों के पास अपनी राजनीतिक आवाज़ है।
राजनीतिक बदलाव इसलिए महत्वपूर्ण है कि आज़ादी के सैंतीस साल बाद बीएसपी का जन्म होता है। तब तक आरक्षण से लाभ पाए पहली पीढ़ी के ही दलित सक्षम हो सके थे। उनकी सामाजिक हैसियत धीरे धीरे बदल रही थी। मगर राजनीतिक दलों का रवैया नहीं। वो किसी के कहने पर वोट देने वाले सामाजिक तबके के रूप में धकियाये जाते रहे। लेकिन अब उनकी राजनीतिक आवाज़ है। बीएसपी में या दूसरे दलों में भी। इसकी ताकत कहां से आई? सिर्फ आरक्षण से।
कल्पना कीजिए। आज़ादी के पहले तक गांव के चमर टोली में रहने वाला दलित आज अगर दिल्ली के पटपड़गंज में अपनी हाउसिंग सोसायटी में रह रहा है तो इसे आरक्षण का चमत्कार कहा जाना चाहिए। चमर टोली के इन अछूत नागरिकों के पास क्या था? ज़मीन न रास्ता। वैसे आज भी शादी के वक्त दलित जब शादी के लिए घोड़ी चढ़ता है तो गोली चल जाती है। आज़ादी से पहले का हाल सोचिए। इनके पास कपड़े तक नहीं थे। अच्छा खाना नहीं था। सामाजिक सम्मान कितना था ज़रा ईमानदारी से सोचिएगा। क्या आपने कभी दलित के घर खाना खाया है? कुछ ने खाया होगा मगर सबने नहीं। क्यों? खा सकते हैं? कितने लोग हैं जो उच्च जाति के हैं उनके गांव के चमर टोली वाले हम उम्र नौजवान उनके दोस्त हैं? नौकरी या कालेज की दोस्ती छोड़िये। मैं कुछ लोगों की बात नहीं कर रहा हूं जिनके दलित दोस्त हैं और वो दलितों के यहां खाते पीते हैं।
दलितों के पास ज़ीरो था। आरक्षण ने ज़ीरो को भर दिया है। वे अब संख्या हैं। शून्य नहीं। उनके अपने मकान हैं। गाड़िया हैं। उनके बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। दलित साहित्य की परंपरा है। उनकी क्रयशक्ति से बाज़ार को सहारा मिलता है। उनकी उन्नति से भारत को दुनिया में मान कि हमने दलितों को जाति के आधार पर सताना संवैधानिक रूप से बंद कर दिया है। सामाजिक रूप से भी बंद हुआ है मगर उसका आयतन बहुत कम है। क्या हमें आरक्षण पर गर्व नहीं करना चाहिए?
क्या आरक्षण के विरोधियों को इस पर संतोष नहीं होना चाहिए कि इस नीति का सही पालन न होने पर भी इतना बदलाव आ गया है। रही बात क्रिमी लेयर की तो इसका भी समाधान हो जाएगा। पहले खैरलांजी जैसी घटना बंद हो जाए। हाल ही में मध्य प्रदेश के सागर में एक दलित युवक को शादी के लिए घोड़ी चढ़ने से मना कर दिया गया। उसी दिन अभिषेक बच्चन की भी घोड़ी चढ़ी थी। लेकिन उस युवक ने बिना किसी राजनीतिक मदद के अपने संवैधानिक अधिकारों का हवाला देते हुए एसपी से सुरक्षा की मांग की। और घोड़ी चढ़ कर गया। इस घटना के बाद कितने सवर्ण प्रगतिशील और महानगर के जातिविहीन समाज में रहने वालों को शर्म आई? क्या हमने सोचा कि इस लड़के की शादी नहीं होती अगर आरक्षण नहीं होता।
तो क्या हम मानेंगे कि आरक्षण के कारण हमारे सामाज में कुछ हद तक कईयों को बराबरी तक आने का मौका मिला। जिनसे यह मौका सिर्फ जाति के नाम पर छिन लिया गया था। क्या हम आरक्षण का विरोध करते वक्त सिर्फ अपनी नौकरी पर किसी के दावे तक ही सोचते हैं या फिर चमर टोली के उन लड़कों की भी जो हमारी तरह हैं। मगर उनके पास हमारे जैसे मौके नहीं।
आरक्षण पर बहस राजनीतिक तक सीमित नहीं होनी चाहिए। इसके सामाजिक पहलुओं पर भी गौर करना चाहिए। इतनी तेज़ी से किसी वर्ग की सामाजिक हैसियत बदल देने की कोई और नीति हो तो बताइयेगा। नौकरी में नहीं और पढ़ाई में आरक्षण की बात नहीं कीजिएगा। क्योंकि अब लोग पढ़ाई में भी आरक्षण का विरोध कर चुके हैं। जब नौकरी में आरक्षण का विरोध कर रहे थे तब यही लोग कह रहे थे कि पढ़ाई में दे कर समान अवसर बनाओ। ठीक है विरोध करने की आज़ादी है। मगर आप विरोध के अपने तर्कों में यह भी शामिल कर लें कि आरक्षण की नीति गलत है और इससे दलितों को कोई फायदा नहीं हुआ है तो आरक्षण विरोधी बहस सार्थक हो सकेगी। अगर नहीं तो यह मान लेने में क्या हर्ज़ है कि आरक्षण सबसे कारगर है।
15 comments:
रविश जी मैं आपके इस पोस्ट के हेडिंग से सहमत हू लेकिन लिखे गए मैटर से नही कारन एक-एक कर के बताता हूँ....
भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक है और इसका 4th पिल्लर दिनों-दिन मजबूत बनता जा रहा है इसके कारण कई सम्साये आज कल खुद-ब-खुद सुलझ जाती हैं । सागर जिले का वह लड़का अगर किसी हिंदी पट्टी में नही होता या हिंदी पट्टी के ही किसी सुदूर क्षेत्र में होता तो उसकी हालत कुछ और होती । आप क्या सोचते हैं ?
कांशीराम और मायावती को भी लोकतंत्र ने बनाया लेकिन उन्होने आरक्षण से जुडे कुछ पह्लुवो को अपना सोपान बनाया । आपने बात कि पटपडगंज लेकिन दरभंगा के सूरजपुर गांव में आज भी हर जाति का अपना समूह है । वह उन्ही के साथ उठता बैठता है । मैं आपसे पूछता हू ऐसा है कि नही ?
हां !! इस आरक्षण ने समाज को बहुत अच्छी चीजे भी हैं और इसकी जरूरत भी है क्योंकि भारत का मिशन-2020 समाज के नीचले तबको को उठाकर ही पुरा होगा ।
ये वर्तनी में कोई गलती हो तो उसे सुधार कर पढे । ये ब्लॉगर का ट्रांस्लितेर्शन टेक्नोलॉजी हैं । उदाहरण के रुप में रवीश को रवीश पढे ।
रवीश भाई, बिल्कुल सही है. सही कहा आपने. आरक्षण पर आज तक तार्किक तरीक़े से बहस ही नहीं हुई, होनी चाहिए. आरक्षण की नीति में कुछ गंभीर समस्याएँ हैं लेकिन सदियों के नेगेटिव डिस्क्रिमिनेशन का सिर्फ़ साठ वर्षों में इतना कारगर इलाज और कुछ नहीं हो सकता था.
अनामदास
Ravish ji badhai ho aap ne sahi likha ahi hum aap se sahmat hai...hum ne sudra logo k vaha khana bhi khya hai aur hamara un k sath uthna bethna bhi hai...bahas bahut lanbi hai yaha nahi kar sakta....lakin hum aap se sehmat hai....aaraksan sabse kargar hai....
रवीश जी, बढ़िया लेख लिखा है आपने। लेकिन आरक्षण केवल विशेषाधिकारों को एक तबके से दूसरे तबके तक पहुँचा रहा है। आज तक जो तबका दलित था, विशेषाधिकारों से वंचित था, उसे विशेषाधिकार मिल गए। और जो आजतक विशेषाधिकारों का उपभोग करता था, उससे ये छीन लिए गए। जिसके पास विशेषाधिकार होते हैं वह उन्हें कभी छोड़ना नहीं चाहता है। आने वाले दौर में हालात उल्टे हो जाएंगे, विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग अपने ख़ास अधिकारों को जारी रख उसका मज़ा लेने के लिए शोषक हो जाएगा और मध्ययुग का शोषक वर्ग शोषित हो जाएगा, जैसा कि इतिहास में हमेशा से होता रहा है। आरक्षण की नीति सामाजिक पहिए को उसी जगह पहुँचा रही है, जहाँ वह पहले थे। हाँ, इस बार यह उल्टा होगा।
आरक्षण का यह उपचार पुराने वात रोग की दवाई की तरह है। पुराना वात रोग दवाई देने पर केवल जगह बदलता रहता है पर सही नहीं होता, टखने से कलाई में पहुँच जाता है, कलाई से कंधे में पहुँच जाता है। आरक्षण भी उसी तरह रोग को ठीक करने की बजाय उसके स्थान को बदल भर रहा है। साथ ही इसके साइड इफ़ेक्ट्स भी बहुत ज़्यादा हैं।
रवीश जी; बधाई आपने अच्छा लेख लिखा है. मैं तो महानगर में पैदा हुआ हूं, एसे दर्द से दो चार नहीं हुआ. लेकिन एसा नहीं होना चाहिये. साहिर के शब्दों में
जिन्दगी पे सबका एक सा हक है, सब तसलीम करेंगे.
रवीश जी, आपकी बातें बिलकुल सही हैं, लेकिन इसके और पहलू भी हैं, जैसे दक्षिण के कुछ राज्यों में एक जाति के लोगों का पलायन।
खैर, आरक्षण का फायदा हुआ है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि ये हर समस्या का इलाज हो गया, बल्कि इसका मतलब ये है कि इस योजना या नीति को बेहतर प्रयोग किया जाए आगे बढ़ने में।
मैं आपको अपने दो पुराने आलेख पढ़ने के लिए और टिप्पणी करने के लिए आमंत्रित करता हूँ।
आरक्षण - पुनः बढ़ती बहस
आरक्षण के मुद्दे के जवाब पर कुछ जवाब
रवीश जी, निर्गुण ब्रह्म के रूप पर बहस करने से क्या फायदा। दलितों के आरक्षण पर कोई विवाद नहीं है। मसला तो ओबीसी के आरक्षण का है, वह भी नौकरियों के क्षेत्र में नहीं, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में। क्या आज हमारे देश में ओबीसी की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति ऐसी है कि उन्हें आरक्षण देने की जरूरत है? फिर क्रीमी लेयर अगर 27% आरक्षण की सारी मलाई ले गई तो आरक्षण का मकसद कैसे हल होगा? ओबीसी आरक्षण का मसला राजनीतिक लड़ाई का है, इससे किसी नैतिकता और कल्याण का तर्क जोड़ना उचित नहीं होगा।
रवीश जी,आरॿण जैसे गंभीर विषय एक साथॻक बहस शुरु करने के लिए पहले तो आपको धन्यवाद। मै आपके मत का समथॻन करता हूं कि जो पिछड़ापन और गरीबी सदियों से चली आ रही थी उसे आरॿण ने काफी हद तक पाटने का काम किया है, और देश की राजधानी या कहे बड़े शहरों में बैठे लोग शायद इसे नही समझ पाएगें। मैं स्वंय ही कुछ ऐसे नवयुवक डाॅक्टरों को जानता हूं जिनका साफ तौर पर सोचना है कि पहले कि गलतियों के लिए हमारी बलि क्यों चढ़ाई जा रही है। अब बताइए ऐसे लोगों से आप क्या उम्मीद करते है कि वो समाज को बराबरी पर लाने के प्रयासों को सहयोग देगें ? वैसे भी समाज सबको बराबरी पर लाने के लिए हमें कुछ तो बलिदान करना ही पड़ेगा वनाॻ इस देश में पिछड़ापन और सरकारी उपेछा नक्सलवाद के रूप में बढ़ती ही जाएगी।
सुधीर कुमार
डी डी न्यूज़
रवीश भाई,
पढ़ा. आपको बार-बार पढ़ने की आदत हो गई है। दफ़्तर आते ही सबसे पहले आपके ब्लाग पर जाता हूं। लेकिन इस बार आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हो पाना मुमकिन नहीं। रिजर्वेशन जैसे हथियार ने बिला शक दलितों को अगली पंक्ति में आने के मोक़े मुहैया कराए हैं। लेकिन लोक कल्याणकारी राज्य के लिए क्या यह मुनासिब नहीं कि वह सबके कल्याण के लिए सोचे। एक बेहद ग़रीब ब्राह्मण परिवार के लड़के के लिए जिसके पास किसी की सिफारिश न हो, क्या विकल्प बचते हैं। सोचिएगा ज़रा। उनके लिए भी बराबरी के मौक़े मुहैया करने वाला कोई माई का लाल है क्या। सारे सवर्ण करोड़पति हैं क्या.. दलितो को उनका अधिकार मिलनाा ही चाहिए. चाहे वह रिजर्वेशन के तौर पर ही क्यों न हो.. लेकिन उनकी भी सोचिए जो किसी दल के वोट बैंक नहीं है। कोई ऐसा लेख लिखिए जिसमें उनकी समस्या पर विचार हो जिन पर कोई विचार नहीं करता। मुसलमानों, दलितों , पिछड़े वर्गों के लिए सब सोचते हैं लेकिन कोई ऐसी राह निकालिए कि तथाकथित ऊंची जाति के लोगों के लिए भी कुछ निकल पाए. खासकर उनके लिए जिनका कोई नहीं..न सांसद, न एमएलए, न पार्षद, कोई नहीं.
सादर
मंजीत
डीडी न्यूज़
Hi Ravish ji,
I understand that in last 50 years SCs/STs/OBCs have achived much more than they had done in last 500 years. I also agree that now they are very much politicaly aware and hence powerful.
But what i am unable to understand is the corelation between these two facts. They become politically more aware because some people came forward(like KanshiRam Mayawati Lalu, Mulayam, Karunanidhi...) and united them as a vote bank.
Even in today's India, you can find many incidents where a person is not allowed to take admission in a school/temple/some other public place but compare it with incidents where you are not allowed to participate because of Money. No DPS,Modern Public School will ask me my cast but my financial status. And hence supporting Reservation on basis of Caste is beyound any logic.
The problem is also that the politicians just want to divert attention from the real issue. Rather than asking why didn't we open 100s of IITs in 50 years, when we were able toopen 5 in within 10 years of independence. We are not bothered about the free quality primary education. Only one thing bother us "USKI KAMIJ HAMARI KAMIJ SE SAFED KAISE?" Doosre ki "WIFALTA" hame apni "SAFLTA" se jyada khushi deti hai.
Yadi hum free quality primary education ka intajaam ker paate to ye waqt/question aata hi nahi.
Manoj
रवीश जी,
भाषाई इंजीनियरिंग सुनने-सुनाने में बड़ा आत्मतोष देती है। आरक्षण के खिलाफ मैं भी नहीं हूं। इसे हर जगह लागू कर दिया जाना चाहिए। लेकिन मुझे लगता है कि आरक्षण का शार्टकट दिखा कर नेताओं ने दसियों साल से अपनी ही भुनाई है। जिस किसी ने इसके साईड एफेक्ट को बताना भी चाहा है तो उसे दलित विरोधी करार दिया गया है। ओबीसी का दुश्मन लिख दिया गया है। मुझे और मेरे जैसे कईयों को लगता है कि आरक्षण के साथ अगर इसे बनाने वालों ने शुरु से ही प्राईमरी एजुकेशन को भी आंदोलन के रुप में ढ़ाला होता होता तो शायद आरक्षण का फायदा और ज़्यादा होता। तब कोई आरक्षण विरोधी ये तर्क देकर अपने को सही साबित करने की हिमाकत नहीं करता कि अनपढ़ डाक्टर बन आॅपरेशन करेगा तो मरीज़ की जान ही लेगा।
क्या मैं आप से पूछ सकता हूं कि दलित आदिवासी बच्चों के अगर क ख ग सीखने की ही समुचित व्यवस्था ना की जाए तो क्या आरक्षण उसे और उसके साथ साथ देश और समाज को कोई फायदा दे पाएगा? सीधी सी बात है नेताओं को इस बात का मलाल नहीं कि बचपन कैसा बीत रहा है। पर जैसे ही वो जवान होता है या जवानी की दहलीज़ पर आता है तो एक वोट भी उसके पास होता है। और उसे सम्मोहित करने का सबसे आसान तरीक़ा नेताओं को लगता है कि उसके लिए आरक्षण की लड़ाई लड़ते दिखा जाए। आपकी संवेदना और अनुभव गज़ब का है लेकिन सिक्के के अब दो ही नहीं कई पहलू हैं। कम से कम मेरा अल्पज्ञान तो यही कहता है। अगर आप मेरे विचार को पूरा जानना चाहेगें तो मैं आपको जल्द ही सच की वादी में आमंत्रित करुंगा जहां मैं अपनी भांजता रहता हूं।
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह
valleyoftruth.blogspot.com
बढ़िया लिखा है
मौजूदा राजनीति पर आपके तमाम विचारों को पढ़ने के बाद बतौर एक जर्नलिस्ट, ये कोशिश है उन खयालों को शब्दों में पिरोने की, जो अब क्या करें, सब चलता है की तर्ज़ पर शहीद हो जाते हैं। और उत्तर प्रदेश में मायाराज आने की खबर ने इन कोशिशों में थोड़ी और ऊर्जा डाल दी है। तो पेश है.....
राजनीति भी अजब खेल होता है। कहने को कोई रुल नहीं.. औऱ कहने को ही तमाम कायदे। बस सब कुछ माहौल पर डिपेंड करता है। अब जैसे उत्तर प्रदेश। देश का सबसे बड़ा प्रदेश। लोगों की कोई कमी नहीं। औऱ यूं कहें कि लोगों को भेड़ बकरियों की तरह सड़क क्रास करते देखा जा सकता है। ना पुलिस का कोई डर और ना कोई कानून। क्योंकि सड़कों पर लोगों की माया है। पुलिस स्टेशन में थानेदार की माया है और चींटी की रफ्तार को मात देते दफ्तरों में सरकार की माया है। माया से याद आया अब तो वहां माया ही माया है। पूरा माहौल मायामय हो गया है। इस बार के चुनाव में हर नेता को उम्मीद थी कि अपने काम के बल पर नहीं, लेकिन जनता कम से कम उन्हें मुलायम को हराने के बहाने ही वोट दे देगी। अब नेता होने के नाते उन्होंने कुछ ग़लत भी नहीं सोचा। लेकिन जनता तो वो काॅकरोच है, तो लुढ़कते-लुढ़कते आखिर में किस करवट उल्टा हो, कोई नहीं जान सकता। बहनजी तो मायामेमसाब बन बैंठी। उन्हें क्या दुख, क्या परेशानी। कुछ अफसरों के घरों में मातम का माहौल है। पर बात करें लोगों की तो उनके नाज़ुक दिल का भी क्या कहना। पिछले साल की ही तो बात है। ओह! अब तो हर साल की ही बात है। आरोप लगा कि बहनजी के पास औकात से ज्यादा पैसा है। ताज की खूबसूरती बढ़ाने के नाम पर ही वो करोड़ों हड़प गईं। अब साल दर साल सामने आ रहे घोटालों से कम से कम एक बात का तो यकीन हो ही गया है कि जनता का माल हड़पना कोई ग़लत बात नहीं। तो चलो मायावती ने भी कुछ करोड़ ले लिए तो क्या बुरा किया। मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठकर खजाना जब सामने हो, तो हर कोई बहती गंगा में हाथ धोता ही है। और बेचारी मासूम जनता का दिल देखिए कि उसने उन्हीं बहन मायावती को फिर जिताया । और वो भी बहुमत से, जिसका किसी को अंदाज़ा न था। यानी मायावती को एक और मौका । पिछली बार जो बचा था, इस बार वो सारा कुछ समेटने का मौका। उन्होंने भी बोला और खूब जमकर बोला। एक मंझे हुए नेता की तरह ये जनादेश है कहकर, अपनी सारी हसरतें पूरी करने का रास्ता खोज लिया। मामले तो अब खुलेंगे नहीं। और उनके खिलाफ अब जांच करने की हिम्मत किसमें। कभी कभी तो इतनी कोफ्त होती है कि चुनाव जैसी सम्मानजनक संस्था को बंद ही कर देना चाहिए। क्योंकि आज के वक्त में एक शरीफ और जनता का प्रतिनिधि ढ़ूंढ़ना जानवरों के चारे के ढेर में राई का दाना ढ़ूढ़ने जैसा है। और अगर चुनाव का ज़िक्र हो औऱ लोग हर उम्मीदवार को नकार दें, तो उस उग्रवादी विचार के लिए वे खुद ही तमाम सवालों के कटघरे में खुद को खड़ा पाते हैं। कोई कहेगा कि भई अगर सारे चोर हैं तो वोट दोगे किसे। कोई कहता है खुद ही क्यों नहीं खड़े हो जाते। वोट नहीं देते तो सुनने को मिलता है कि ये कोई इलाज नहीं हुआ। क्योंकि आप आएं ना आएं, चाहे कितना ही नाराज़ हो, अपने उम्मीदवारे के लिए वोट डालने की ज़िम्मेदारी की ही कुछ लोग खाते हैं। तो अब जनता बेचारी क्या करे। कल्याण को वोट दिया तो फिर मंदिर मस्ज़िद , हिंदू मुस्लिम का बेसुरा राग सुनना पड़ेगा। फिल्मी पर्दे की सुदंरियों के साथ मार्डन समाजवाद की मर्सीडीज़ चलाते मुलायम की साइकिल की घंटी पर ज़रा भी दिल पसीजा, तो अमिताभ का कानों में चुभने वाला डायलाग सुनने को मिलेगा। चुभने वाला इसलिए कि किसी की ज़मीन पर गैर कानूनी तरीके से कब्ज़ा कर लिया हो, पुलिस हमेशा ही तरह चूंड़ियां पहने चौकी पर बैठी हो, तो जुर्म यहां कम है का नारा गर्म तेल की तरह ही लगता है। राहुल बाबा के बारे में सोचना तो जनता के लिए खुली आंखों से ख्वाब देखने जैसा है। राहुल बाबा का रिकार्ड है कि हर साल चुनाव के कुछ हफ्तों पहले से ही उन्हें उस फलां प्रदेश की याद आती है। वहां के लोग उन्हें अचानक अपने लगने लगते हैं। पृथ्वी की सूरज जितनी दूरी वाले वादे किए जाते हैं। अब कोई उनसे ये पूछे कि आप दूसरे प्रदेश की बात तो छो़ड़ो। उत्तर प्रदेश में दूसरे ॿेत्रों को भी छोड़ दो, तो अब बचे आपके अपने दो इलाके। वहां के लोगों को जगमगाते बल्ब को देखे अरसा हो गया, पहले वहां का काम तो निपटा लो, राहुल बाबा। नेता जितने वादे करना आसान है, पर उसके लिए थोड़ा जनाधार होना ज़रुरी है। और वो तब मिलता है जब आप दिखावे के लिए ही सही, कुछ तो काम कराते हैं। खैर.. राहुल मैजिक कितना चला इसका जबाब आयोग के उऩ आकड़ों में हैं, जिनमें दिखता है कि करीब 150 रैलियां करने के बावजूद राहुल बाबा के बेतुके भाषण महज़ एक दो सीटों पर ही पार्टी की लाज बचा पाए हैं। अब बचे अजित सिंह औऱ फिल्मों में विलेन का रोल निभाने वाले राज बब्बर। तो जनता ने उन्हें भी आइना दिखा दिया। अब जब आॅप्शन ही ऐसे हो, तो जनता बेचारी क्या चुने।
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