छोटे शहर बड़े सपने

हमारी वरिष्ठ सहयोगी और दोस्त हैं शिखा त्रिवेदी। उनकी एक सीरीज़ आ रही है एनडीटीवी इंडिया पर हर शुक्रवार साढ़े दस बजे। शिखा जी ने कहा कि कोई नहीं देख रहा है। मुझे यह बात अखर रही है। लोग क्यों नहीं देख रहे हैं? क्या उन छोटे शहरों के लोग भी नहीं देखना चाहते, जिनके सपनों की छवि है इस कार्यक्रम में। मैं उनके प्रोग्राम का ब्लाग पर प्रोमो नहीं कर रहा। जानना चाहता हूं कि कोई क्यों सपनों की बात पसंद नहीं करता। क्या सिर्फ सपने अकेले किसी रात जागते हुए देखने की चीज़ हैं या सबके साथ बैठ कर बांटने की।

उनसे बात करते करते मैं झांसी के सपनों में खो गया। जनरल स्टोर में एक डाक्टर की बीवी पर अच्छी नज़र पड़ी। सोचा इनके सपनों में कौन सा शहर होगा। झांसी होगी। वो काफी सज-संवर कर दुकान में आयी थी। खुद कह रही थी- हमारा पति डाक्टर है। हमें मालूम है मैगी का फायदा नुकसान। स्लीवलेस ब्लाऊज, खूबसूरत साड़ी और शाम का वक्त। तभी उनके पति आ गये। मुझे पहचाना। कहीं आप टीवी में तो नहीं। मैंने कहा- हां, लेकिन अभी तो इस दुकान में हूं। और आपकी पत्नी से बात करना चाहता था। डाक्टर साहब ने कहा अरे घर चलते हैं। मैं उनकी कार में बैठ गया। एक अजनबी से चंद मिनट पहले हुई मुलाकात दोस्ती में बदल रही थी। आपको यह भी बता दूं कि डाक्टर साहब भी कम सजे धजे नहीं थे। दोनों की उम्र पचास के आस पास होगी।

घर पहुंचने से पहले ही मैंने पूछ दिया- आप दोनों के सपने क्या हैं? डाक्टर साहब बोले- बहुत हैं। हर वक्त बदल जाते हैं। यहां बिजली नहीं होती इसलिए सपने देखने का वक्त मिल जाता है। मैंने उनकी पत्नी से कहा- आपने सपनों के बारे में कुछ क्यों नहीं कहा। थोड़ी हंसी के बाद कहा कि सपने पूरे हो चुके हैं। जो सामने है वही सपने जैसा लगता है। मैंने कहा- डाक्टर साहब अब भी सपने जैसे लगते हैं। तो गाड़ी में दोनों हंस पड़े। सफाई देनी पड़ी कि बेटे जैसा हूं इसलिए बेतकल्लुफ हो गया हूं। और मुझे ऐसा होने दीजिए।

दोनों ने कहा कोई बात नहीं। हम घर पहुंच चुके थे। पहली मुलाकात में दहलीज पार। लेकिन मैं सपनों के पार जाना चाहता था। कहा कि छोटे शहरों में रहकर आपको नहीं लगता कि सपनों से दूर हो गये हैं। तभी नज़र उनके ड्राइंग रूम पर पड़ी। करीने से सजा कर रखा गया कमरा। बिल्कुल सपने की तरह। मैंने छोटे शहरों में देखा है- ठीक ठाक लोगों के ड्राइंग रूम खूब सजा कर रखे जाते हैं। मसूरी में खिंचायी गयी बीस साल पुरानी मियां बीबी की तस्वीर। सोफे पर क्रोशिया का कवर। बेटी की बनायी पेंटिंग्स। और दिल्ली के व्यापार मेले से खरीद कर लाया गया लैंप पोस्ट। सेंटर टेबल। महानगरों में भी ऐसा ही होता है। मगर कस्बों के ड्राइंग रुम का एहसास महानगरों से अलग होता है। लगता है किसी ने अपने सपनों को बाहर के कमरे में सजा कर रख दिया है। वहां आप का भी स्वागत है। अचानक आ जाएं तब भी।

तभी मिसेज माथुर ने कहा- हम सपनों के बहुत करीब हैं। हमारे सपने यहीं तक के थे। दोस्तों से शाम के वक्त मिलना जुलना हो जाता है। इनवर्टर से गर्मी की रात कट जाती है। फिल्में नहीं देख पाते। कोई अच्छा सिनेमा हाल नहीं है। डाक्टर माथुर ने कहा ऐसा भी नहीं कि हम वक्त से पीछे है। बच्चे बाहर हैं। फुर्सत में हम उनके भी हिस्से का सपना देख लेते हैं। बहुत दिल किया- काश, शिखा जी हमारे साथ होतीं। इस बातचीत में। सपनों की साझीदारी में। क्या हुआ उनका प्रोग्राम किसी ने नहीं देखा। बेहतर होने के बाद भी। मैंने माथुर परिवार से कहा- शिखा ने छोटे शहर बड़े सपने एक कार्यक्रम बनाया है। डाक्टर साहब बोले- अरे हमें पता होता तो हम उनका भी कार्यक्रम देख लेते। सपने ही तो हैं। किसी के भी हों। सपने अच्छे होते हैं। देखना चाहिए। चाहें आप किसी भी शहर में रहें। सपने देखिये। एक अजनबी से इतनी अंतरंग बातचीत सपना ही तो है। हकीकत को भी सपने जैसा होना चाहिए। हम सबके भीतर एक छोटा शहर है। जहां हम लोगों से नज़रे चुराकर चुपचाप सपने देखने चले जाते हैं।

यूपी का पप्पू पास हो गया

उत्तर प्रदेश के कस्बों गांवों के नौजवानों का क्या कहना । वो नेताओं से नकल की अनुमति चाहता है। फिर सर्टिफिकेट लेकर सिपाही बनना चाहता है । देश का सिपाही नहीं । नाकों पर वसूली करने वाला सिपाही । जो नौजवान चोरी कर पास होता हो उस बेचारे से क्या उम्मीद । मैं उत्तर प्रदेश की पूरी बेकार जवानी को नहीं गरिया रहा हूं । कुछ लोग तो बिना नकल के पास हो ही रहे हैं । कुछ लोग मेरिट से डाक्टर इंजीनियर भी बन रहे हैं । मगर ज़्यादातर कैसे बन रहे हैं ? बेशर्मी की हद पार कर दी है । मेरे लिए यह कोई नई बात नहीं थी । किसी के लिए भी नहीं है । बस फिर से चिंता हो गई । किसी महान नेता नुमा भाव पैदा हो गया । सवाल पैदा हो गया कि इस देश का क्या होगा ? बहुत दिनों बाद चिंता हुई देश के बारे में । अक्सर नहीं होती है । देशभक्त होने के बाद भी ।

तो मैं कह क्या रहा था..यही न कि यूपी में पप्पू नकल से पास हो रहे हैं । आजकल पप्पू मुन्ना भाई के नाम से भी जाने जाते हैं । अब समझ में आया कि मुन्ना भाई क्यों हिट हुई । देश की पढ़ी लिखी आबादी का पचास फीसदी से अधिक हिस्सा नकल से पास होता है । तो फिल्म हिट होनी थी । क्यों ? क्योंकि मुन्ना भाई ने सार्वजनिक तौर पर पहली बार मनोरंजन के ज़रिये नकलचियों को इज्ज़त बख्शी। उन्हें सर उठाकर घूमने का मौका दिया । कह सकते हैं जब दर्शक मुन्ना भाई पर पैसा लुटा सकता है तो हम क्या बुरे । हम क्यों सर छुपा कर जीयें । सर उठा कर जीयेंगे । तभी शूट करते वक्त कुछ नौजवानों ने कहा कैमरा बंद कीजिए और निकलिये । मैं भी अड़ा रहा। शूट किया । एक ने कहा भाई साहब अब तो हम लोगों पर फिल्में बनती हैं । गांधीगीरी को हमीं से नया आयाम मिला है । आप कहते हैं हम नकल कर रहे हैं । ज़्यादा अकल हो गई है क्या ? मुन्ना भाई देख लीजिएगा । एक बार फिर मुन्ना भाई देखने का मन कर रहा है। कि वाकई में इस फिल्म में नकल करने वाले शार्ट कट वाले अधिकांश भारतीय मध्यमवर्ग को मर्यादा का स्थान दिया है । ईमानदारों पर गांधी को गाड़ देने का आरोप है । गांधी को बोझिल बना देना का आरोप है । तो क्या इसके लिए गांधी का इस्तमाल किया गया ? पर हमने तो बड़े बड़े लेखकों और गांधी के परपोतों का भी बयान पढ़ा था कि मुन्ना भाई की गांधीगीरी से गांधी आम जन के हो गए हैं । क्या उस आमजन के हो गए जो नकल करते हैं, चोर हैं ? क्या इन्हीं का आदर्श बन जाना गांधी की प्रासंगिकता थी ? जिसका इंतज़ार किया जा रहा था । इन बयानों को कैसे समझूं । मुन्ना भाई देखूं या यूपी के पप्पुओं को नकल से पास होते देख अपनी आंखे मूंद लूं । क्या करूं ?

जूते मारूं या छोड़ दूं

जैसा नेता वैसी जनता । झांसी के एक गांव में गया कैमरा लेकर । गांव वाले बोले भई पत्रकार साहब इधर आइयेगा । गए भी । बोले कि रिकार्ड कीजिए कि हम वोट नहीं डाल रहे हैं । क्यों भई ? मेरे इस सवाल पर जवाब सुनिये ।
मुखिया बोलता है कि इस उम्मीदवार को बोलिये कि हमारे गांव में पानी का इंतज़ाम करे । यहां से बूचड़खाना हटाए । मैंने पूछा आप मुखिया किस लिए हैं ? आपने क्या किया है ? मुखिया बोले एमएलए जैसा असर नहीं है । मैंने कहा जनाब दबाव तो डाल सकते हैं । मुखिया बोला सुनते नहीं । मुझे गुस्सा आया कि आप वोट नहीं देना चाहते हैं या उम्मीदवार से यही सुनना चाहते हैं कि वो पानी बदबू के लिए कुछ करेगा । मुखिया बोले यही चाहते हैं । यानी मुखिया भी ढोंग कर रहा था । जनता भी अपना हक बेचना चाहती है । मैंने कहा वोट नहीं देने के फैसले पर कायम रहिए । तो कई लोग बोलने लगे । शोर में यही सुनाई दिया कि इस उम्मीदवार से हमें बहुत गुस्सा है । लेकिन नेता जी को क्यों सजा दें । यानी वो नेता जी जो गंध में सड़ रही जनता की जाति के हैं । क्या खेल है भाई । भारत की आत्मा गांवों में रहती है। एनसीईआरटी कि किताबों का यह सबक भी सड़ गया है । भारत के गांव मर गए हैं । उनकी आत्मा मर गई है । ऐसे वोटरों का क्या करें पाठक लोग । लेख लिखूं या जाकर उनको जूते मारूं ।

जाति की राजनीति कब तक?

मैं झांसी में चुनाव कवर कर रहा हूं। इस बार सोच कर गया था कि जाति की राजनीति से क्या फायदा हो रहा है। सिद्धांत रूप में मेरी राय रही है कि जातिगत चेतना से उन लोगों को आवाज़ मिली, जिनकी कोई सुनता नहीं था। जिनकी संख्या थी मगर भागीदारी नहीं थी। जातिगत राजनीति से उन लोगों को सरकार बनाने का मौका मिला, जिनके पास समाज में भी कुछ नहीं था। जाटव समाज की ऐतिहासिक भूख समझी जा सकती है, जिसके पास कोई ज़मींदारी नहीं थी। नौकरी से हैसियत मिलनी थी, नहीं मिली। नौकरी में तिरस्कृत किये गये। बीएसपी की राजनीति ने इन्हें आवाज़ दी। मगर इस आवाज़ के आगे क्या? हर दल अब बीएसपी की तरह जाति के पीछे भाग रहा है। बीएसपी के पास एक विचारधारा थी, दूसरे दलों के पास इन बेज़ुबान वोटरों को हड़पने की योजना है। दोनों सत्ता हासिल करने की सीमा तक एक हैं। किसी के पास सत्ता से आगे का कार्यक्रम नहीं है।

नतीजा यह हो रहा है कि हर दल में जाति विशेष के नेता पैदा हो गये हैं। जिनकी बीएसपी में नहीं गल रही है, वो कांग्रेस में जाकर दलितों का नेता बन जा रहा है और जिनकी कांग्रेस में दाल नहीं गलती, वो बीएसपी में जाकर नेता बन जा रहा है। हर दल में यहां वहां से आये उम्मीदवार हैं। किसी के पास अपनी विचारधारा में तपा हुआ नेता नहीं है। फतेहपुर सीकरी में बीएसपी, एसपी और आरएलडी के उम्मीदवार जाट हैं। तीनों जाट उम्मीदवार तीन महीने पहले तक अजीत सिंह की पार्टी में थे। यानी जाट बहुल इलाके में वोट पाने के लिए बीएसपी, एसपी के पास अपना कोई जाट नेता नहीं था। किराये पर लाये गये। यानी पार्टी की अहमियत खत्म हो गयी। यानी पार्टी की विचारधारा पीछे हो गयी। इससे बीएसपी की राजनीति की मंज़िल समझ में नहीं आती। मौकापरस्ती दिखती है। यही हाल कई इलाकों में है। ज़ाहिर है अब नयी राजनीति की ज़रूरत है।

यह भी देखा जाना चाहिए कि जाति की राजनीति से जाति विशेष को क्या फायदा हुआ है। क्या सिर्फ ठेकेदारी सिस्टम में प्राथमिकता मिली है? क्या सिर्फ अलग अलग जाति के ठेकेदार पैदा हुए हैं? जो स्‍कॉर्पियो लेकर चलते हैं। ईमानदारी का पैसा किसी दल के पास नही है। बसपा का मिशनरी पैसा हुआ करता था। एक एक रुपया जमा किया हुआ पैसा। लेकिन अब उसके वोट बैंक को कांग्रेस बीजेपी और एसपी से आये पैसे वाले लोग खरीद लेते हैं। पहले यही लोग वोटर को पैसा देते थे, अब उसके नेता को पैसा देकर टिकट खरीद लेते हैं। और वोटर नेता के कहने पर वोट दे देता है। यह बीमारी आयी है।

मैंने इसे और करीब से देखने के लिए कोरी समाज को चुना। झांसी में पिछले साल मेयर का चुनाव हुआ। सभी चारों दलों ने कोरी जाति से मेयर के लिए उम्मीदवार खड़े किये। तो ज़ाहिर है इस जाति के लोगों को फायदा हुआ होगा। किसी भी नेता ने नहीं कहा कि आर्थिक फायदा हुआ है। सबने यही कहा कि संख्या की दावेदारी से सिफारिश का वजन बढ़ जाता है। यानी अंग्रेजी राज के समय से सिफारिश, पैरवी की जो व्यवस्था बनी है, उसी में हिस्सेदारी के लिए यह जातिगत चेतना काम आ रही है। या फिर ज़्यादा से ज़्यादा उस जाति के मोहल्ले में कोई सड़क बन जाती है। कोई योजनागत लाभ नहीं है। संख्या की भागीदारी से राजनीति बदल रही है, मगर समाज नहीं बदल रहा है। हो यह रहा है कि बीएसपी बाकी दलों के चाल को आज़मा रही है और बाकी दल बीएसपी की नीतियों को चुरा रहे हैं। बीएसपी सभी जातियों को टिकट दे रही है। उसे सत्ता चाहिए। कांग्रेस और एसपी बीजेपी भी यही कर रही है। आज जातिगत चेतना को कौन सी पार्टी नयी मंज़िल पर ले जाने का दावा कर सकती है? जाति को तोड़ने का प्रयास नहीं है। जाति के खिलाफ राजनीति नहीं है। उत्तर प्रदेश में बीस साल से पिछड़े औऱ दलितों की सरकार बन रही है। इन्हीं के मोहल्लों, खेतों में कोई बदलाव नहीं दिखता। ठेकेदारी सिस्टम से कुछ ताकतवर लोग ज़रूर पैदा हुए हैं, जो अभी तक सिर्फ ठाकुर ब्राह्मण ही हुआ करते थे। मगर व्यापक स्तर पर नहीं। मैं इन सवालों को लेकर परेशान हो रहा हूं। पहले मानता था कि जातिगत गोलबंदी से डेमोक्रेसी का स्वरूप बदला है। यह सच भी है। मगर यह बदलाव अब रूक गया सा लगता है। आपकी राय जानना चाहता हूं। इस बात के बावजूद कि अभी भी एक दूसरे के प्रति जातिगत सोच कायम है। मगर सवाल है कि राजनीति को क्यों इस जातिगत सोच तक सीमित रहना चाहिए?

बॉब वूल्मर को क्रिकेट ने मार दिया

बॉब वूल्मर की हत्या की गई है । किसी ने गला दबोच दिया । क्रिकेट की शोहरत की चमक में कोई रात अंधेरे नहीं घुस आया है । कुछ साल पहले के मैच फिक्सिंग के वाकयात याद किया जाना चाहिए । कैसे अचनाक भारत का झंडा लेकर खेलने वाले धरे गए थे । ठीक उसी तरह जैसे संविधान की शपथ लेकर देश सेवा करने वाला नेता पकड़ा जाता है । चोरी करते हुए । क्रिकेट में बहुत पैसा आ गया है । मगर इस पैसे में काला पैसा ज़्यादा है जो मैदान के बाहर इस खेल पर दांव में लगता है । यह भ्रष्टाचार नहीं आता अगर हम क्रिकेट को धर्म या राष्ट्रवाद के चश्मे से न देखते । राष्ट्रवाद अब पुरानी पड़ रही अवधारणा है । रोज़गार का कोई देश नहीं होता । काम की तलाश में गए लोगों से पूछिए कि दुबई या न्यूयार्क में रह कर किस राष्ट्र को जीते हैं । या फिर बंगलौर के साफ्टवेयर इंजीनियर से पूछिए कि आप किस राष्ट्रवाद के तहत अमरीका के काम को रात भर जाग जाग कर रहे हैं । राष्ट्रवाद सीमाओं को बांध कर एक संविधान बना कर कुछ लोगों के उसकी संपदा को भोगने का प्रयोजन है । जिसकी रक्षा में कुछ लोग सीमाओं पर तैनात रहते हुए अपनी जान दे देते हैं । राष्ट्र इतना अहम है तो भारत पाकिस्तान और श्रीलंका के कोच विदेशी क्यों हैं ? क्या हम अपने लोगों पर कम भरोसा करते हैं ? हां तो फिर राष्ट्रवाद तेल लेने गया क्या ? हम ब्लागर का राष्ट्र क्या होगा ? गूगल्स की सीमाएं हो सकती हैं । दूसरी बीमारी क्रिकेट को धर्म बनाने से आई । धर्म है तो पंडे और मौलवी तो घुसेंगे ही । अपने अपने अंधविश्वासों से काली कमाई करने ।

मैं बहक रहा हूं । कहना चाहता हूं कि क्रिकेट में आए दिल्ली के लाजपत नगर के सटोरियों ने अपनी चाल दिखा दी है । ऐसे लाजपत नगर सीमा पार पाकिस्तान में भी है । ये वो लोग है जो सैमुअल्स से लेकर अज़हरूद्दीन , क्रोनिये तक को अपनी फांस में ले लेते हैं । क्रोनिये की मौत दुर्घटना थी ? वूल्मर की तो हत्या ही हो गई ।

ऐसा क्यों हैं ? बहुत दलीलें हैं । भारतीय उपमहाद्वीप में औपनिवेशिक काल के समय से ही भ्रष्टाचार सरकार से चुराकर अपना पेट भरने के विद्रोह से पनपा । कचहरी से लेकर थाना सिस्टम ने एक ऐसी लॉबी को जन्म दिया जो शुरू से ही रिश्वत के दम पर सरकार बहादुर को खुश करते रहे हैं । आज़ादी के बाद भी हम सरकार के प्रति अच्छी श्रद्धा विकसित नहीं कर पाए । हम कहते हैं कि मेरे बाप का नहीं सरकार का है । इस जुमले में कई राज़ है । भ्रष्टाचार एक सामाजिक बीमारी है । इसी वजह से लाजपत नगर का सटोरिया घर से ही धंधा चलाता है । पत्रकारों से रिश्ते बनाता है । पत्रकार उसका मुंह ढक कर ब्रेकिंग न्यूज़ करते हैं । पुलिस चुप रहती है । यही वजह है कि उनका दुस्साहस बढ़ गया और कोई वूल्मर के कमरे में घुस गया । वूल्मर अपने राज़ के साथ दफन हो गए । वो नहीं समझ पाए कि इस महाद्वीप के लोग काली कमाई के लिए कुछ भी कर सकते हैं । तभी तो पैरवी एक मान्य भ्रष्टाचार है । चढ़ावा स्वीकार्य है । आज़ादी से पहले प्रेमचंद की कहानी नमक का दारोगा याद कीजिए । ईमानदार रहने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है । आज कल टीवी पर आ रहे इंकम टैक्स के विज्ञापन को देखिये । क्या आपके पापा टैक्स देते हैं ? हाय रे पापा । यही वजह है कि जो चीज़ भी शोहरत हासिल करती है हम उस पर दांव लगाना शुरू कर देते हैं । क्रिकेट के साथ भी यही हो रहा है । भारत का सरकारी सामाजिक भ्रष्टाचार इसमें घुस आया है । लोग फर्जी शाट्स के लिए या सिर्फ हवन में दिखने के लिए पूजा करने लगते हैं । ताकि टीम इंडिया को शुभकामना देते वक्त वो दिख जाएं । धोखाधड़ी का सार्वजनिक प्रदर्शन कहां होता है । भारतीय उपमहाद्वीप में होता है । जिसके जाल अब वेस्ट इंडीज़, द अफ्रीका से लेकर भारत पाकिस्तान तक फैले हैं । कृपया क्रिकेट को धर्म या राष्ट्र मत बनाइये । इन दो रास्तों से सिर्फ धोखाधड़ी करने वाले घुसते हैं । जो ईमानदार हैं वो सीमा पर पहरा दे रहे हैं । वूल्मर को श्रद्धांजलि कौन देगा ?

यार तुम बहुत ख़राब हो

आप पत्रकार हैं । आप तो सब जानते होंगे । रेलगाड़ी में सामने की सीट पर बैठे एक सज्जन ने कहा । तभी बॉस की बात कानों से गुज़र गई । पत्रकार हो और कुछ नहीं जानते हो । अक्सर होता है । जो बातें हम बॉस की मुंह से सुनते हैं ठीक उसके विपरीत बातें किसी और से सुनते हैं । उस वक्त कितना अच्छा लगता है । तुम खराब हो । तुम अच्छे हो । आपके साथ भी ऐसा होता है । क्या होगा जब घर में पत्नी भी यही बात कह दें कि तुम्हारा काम अच्छा नहीं । बाबूजी के मुंह से निकल जाए कि क्या रिपोर्ट लिखते हो । बॉस की बातों को तो आप दफ्तर के बाहर उड़ा देते हैं । घरवाले भी कुछ सच बोलने लगें तो क्या करेगे ? पर ऐसा क्यों हैं कि हम इन सब बातों के प्रति पेशेवर नहीं हैं । क्यों ख़राब लगता है ? क्यों ऐसा होता है कि एक ख़राब बोलता है तो हम किसी दूसरे के पास चले जाते हैं कि बोलो खुद तो देखता नहीं मुझे खराब बोलता है । इस चक्कर में आप दो चार लोगों को फोन कर व्यथा सुनाने लगते हैं । बताओ उन्हें ऐसा बोलना चाहिए था । हम क्यों करते हैं ऐसा । इन्हीं चार में से कोई बॉस के पास वापस आपकी बात पहुंचा देता है । मामला और उलझ जाता है । इसलिए कही गई बातों पर विचार कीजिए । इग्नोर कीजिए । और सामने बहस कीजिए । बाद में फोन मत कीजिए । अपनी राय भेजिएगा ।

उत्तर प्रदेश के चुनावों में जा रहा हूं । चुनाव लड़ने नहीं । कवर करने । झांसी, जालौन, ललितपुर और महोबा । मेरा नंबर ९८११५१८२५५ । अगर कोई ब्लागर पाठक वहां का है तो संपर्क कर सकता है । मेरी रिपोर्ट को बेहतर बनाने में मदद कर सकता है । मैं सबसे जुड़ते हुए रिपोर्टर बनना चाहता हूं । सबसे दूर जाकर नहीं । वह शायद एडिटर होता होगा । दूर रहना उसकी नियति है । बहरहाल चुनावों में व्यस्त रहने के कारण ब्लाग कुछ दिनों के लिए स्थगित रहेगा । कोशिश करूंगा कि वहां के साइबर कैफे से दो चार लिख मारें पर देखा जाएगा ।

नेमसेक के किरदार हम भी हैं

हम सब के भीतर कितना कुछ छूट गया है । कितना कुछ जुड़ गया है । मीरा नायर की फिल्म नेमसेक को कई तरह से देखा और पढ़ा जा सकता है । किसी से अचानक हुई मुलाकात, कोई किताब, फिर शादी, फिर परदेस और वापस स्वदेश । इन सब के बीच वो छोटी छोटी तस्वीरें, जो पीड़ा के किन्हीं क्षणों में फ्लैश की तरह आती जाती रहती हैं । हम सब कई शहरों और कई संस्कारों के मिश्रण होने के बाद भी अपने भीतर से सबसे पहले के शहर को नहीं मिटा पाते । विस्थापन का दर्द मकानों के बदलने से नहीं जाता । दुनिया को देखने का जुनून कितना कुछ छुड़ा देता है । भले ही अफसोस न हो । सिर्फ हिंदुस्तान से अमरीका गए लोगों की दूसरी पीढ़ी की कहानी नहीं है नेमशेक । पहली पीढ़ी की कहानी है । जो पहली बार गया अपने मोहल्ले को छोड़ । अपनी गलियों को छोड़ के । परदेस में सब कुछ खो देने के बाद भी तब्बू के किरदार में बहुत कुछ बचा रह जाता है । वह अमरीका से नाराज़ नहीं होती । बस अपने भीतर मौजूद उन तस्वीरों को पाने के लिए उसे छोड़ देती है । ज़माने बाद हिंदुस्तान से अमरीका गए परिवारों के विस्थापन की कहानी में अमरीका को लानत नहीं भेजी गई है । उसे धिक्कारा नहीं गया है । वह एक स्वभाविक मुल्क की तरह है । जो अपने यहां आए लोगों के बीच मोहल्ला नहीं बना पाता । वो यादों का हिस्सा नहीं बन पाता । तब्बू की ज़िंदगी खोते रहने की कहानी है । कुछ पाने की कोशिशों मे । मैं इस कहानी को देख बहुत रोया । अमरीका नहीं गया हूं । पर जहां काम करता हूं वहां कहीं से आया हूं । पंद्रह साल बीत गए । पर हर सुबह आंखों के सामने से गांव गुज़र जाता है । चुपचाप । यह कोई साहित्यिक नोस्ताल्ज़िया नहीं है । मेरे भीतर जो गांव है उस पर दिल्ली का अतिक्रमण नहीं हो सका है । हम सब विस्थापन के मारे लोग हैं । पर कोई अफसोस नहीं होता । शायद इसलिए कि यही तो चाहते थे हम सब । मेरे मां बाप,रिश्तेदार । कि लड़का बड़ा होकर नौकरी करेगा । कुछ करेगा । कुछ भी संयोग नहीं था । सब कुछ निर्देशित । मीरा नायर की फिल्म नेमशेक की तरह ।

वो सारे दोस्त मुझे अब भी याद आते हैं मगर वही पुराने चेहरों के साथ । वो अब कैसे दिखते होंगे जानता नहीं । पंद्रह साल से मिला ही नहीं । पूरे साल दशहरे का इंतज़ार करना । कपड़े की नई जोड़ी के लिए । मेले के लिए दो चार रुपये के लिए बड़ी मां से लेकर मां तक के पीछे घूमना । एक टोकरी धान के बदले बर्फ (जिसे हम आइसक्रीम कहते हैं) खरीदना । बहुत छोटी छोटी तस्वीरें हैं जो अचानक किसी वक्त बड़ी हो जाती है । किसी चौराहे पर हरी बत्ती के इंतज़ार के बीच सामने की होर्डिंग्स पर गांव की वो तस्वीरें बड़ी हो जाती है । फिर गायब हो जाती हैं । हम आगे बढ़ जाते हैं ।

कहानी का सूत्रधार शुरू और अंत में कहता है दुनिया देखो, कभी अफसोस नहीं होगा । यही नियति है विस्थापन की । दुनिया देखने की । बहुत परिपक्व तरीके से मीरा नायर ने इस फिल्म को बनाया है । कोई शोर नहीं है । अमरीकी निंदा का शोर या कोलकाता के गुणगाण का शोर । सब कुछ सामान्य और इतना स्वाभाविक कि लगता है कि इस कहानी में हम सब हैं । जिनका कस्बा, मोहल्ला कहीं छूट गया है । बार बार याद आने के लिए । हम लोगों में से बहुतों के पास वो पहला बक्सा ज़रूर बचा हुआ है जिसे लेकर हम मगध एक्स्प्रेस से दिल्ली आए थे । मैंने आज तक उस बक्से को संभाल कर रखा है । कभी लौटने के लिए । वह बक्सा बचा रहा मेरे साथ । दिल्ली के तमाम मोहल्लों में मकानों के बदलने के बाद भी । टिन का है ।
बनलता सेन जीवनानंद दास की एक और मशहूर और अच्छी कविता है ।


बनलता सेन
हज़ारों साल से राह चल रहा हूं पृथ्वी के पथ पर
सिंहल के समुद्र से रात के अंधेरे में मलय सागर तक
फिरा बहुत मैं बिम्बिसार और अशोक के धूसर जगत में
रहा मैं वहां बहुत दूर अंधेरे विदर्भ नगर में
मैं एक क्लान्त प्राण, जिसे घेरे है चारों ओर जीवन सागर का फेन
मुझे दो पल शान्ति जिसने दी वह- नाटोर की बनलता सेन ।

केश उसके जाने कब से काली, विदिशा की रात
मुख उसका श्रावस्ती का कारु शिल्प-
दूर सागर में टूटी पतवार लिए भटकता नाविक
जैसे देखता है दारचीनी द्वीप के भीतर हरे घास का देश
वैसे ही उसे देखा अन्धकार में, पूछ उठी, कहां रहे इतने दिन ?
चिड़ियों के नीड़-सी आंख उठाये नाटोर की बनलता सेन ।

समस्त दिन शेष होते शिशिर की तरह निशब्द
आ जाती है संध्या, अपने डैने पर धूप की गन्ध पोंछ लेती है चील
पृथ्वी के सारे रंग बुझ जाने पर पाण्डुलिपि करती आयोजन
तब किस्सों में झिलमिलाते हैं जुगनुओं के रंग
पक्षी फिरते घर-सर्वस्य नदी धार-निपटाकर जीवन भर की लेन देन
रह जाती है अंधेरे में मुखाभिमुख सिर्फ बनलता सेन ।

मैंने देखा है बंगाल का चेहरा

जीवनानंददास बांग्ला के अच्छे कवियों में से एक हैं । कस्बागतों के लिए उनकी चंद कविताएं पेश कर रहा हूं ।
जब भी लगे कि प्रकृति से दूर हैं तो जीवनानंद दास को पढ़ना चाहिए ।

--- मैंने देखा है बंगाल का चेहरा-

मैंने देखा है बंगाल का चेहरा इसलिए पृथ्वी का रूप
देखने कहीं नहीं जाता, अंधेरे में जगे गूलर के पेड़
तकता हूं, छाते जैसे बड़े पत्तों के नीचे बैठा हुआ है
भोर का दयाल पक्षी- चारों ओर देखता हूं पल्लवों का स्तूप
जामुन, बरगद, कटहल, सेमल, पीपल साधे हुए हैं चुप्पी
नागफनी का छाया बलुआही झाड़ों पर पड़ रही है
मधुकर के नाव से न जाने कब चांद, चम्पा के पास आ गया है
ऐसे ही सेमल, बरगद और ताड़ की नीली छाया से भरा पूरा है
बंगाल का अप्रतिम रूप ।

हाय, बेहुला ने भी देखा था एक दिन गंगा में नाव से
नदी किनारे कृष्ण द्वादशी की चांदनी में
सुनहले धान के पास हज़ारों पीपील, बरगद वट में
मन्द स्वर में खंजनी की तरह इन्द्रसभा में
श्यामा के कोमल गीत सुने थे, बंगाल के नदी कगार ने
खेत मैदान पर घुंघरू की तरह रोये थे उसके पांव ।
शब्दार्थ- मधुकर- सौदागर ( सती बेहुला की कथा का पात्र), श्यामा- लोक संगीत

काम न होने का मानसिक तनाव- भाग दो

दोस्तों । काम न होने का मानसिक तनाव पर कई लोगों ने अपनी राय भेजी हैं । सबकी सलाह से एक सामाजिक दस्तावेज़ बन रहा है । काम न कर पाने के मानसिक तनाव से प्रेरित होकर प्रमोद सिंह अप्रगतिशील साहित्य आंदोलन चलाने जा रहे हैं । चलाएं । बहुत प्रगति हो ली दुनिया में । कुछ अप्रगति भी हो । इससे कई लोगों को काम मिल सकता है । अभय तिवारी तो कभी खाली रहे ही नहीं इसलिए उनके पास इस मसले पर कोई सलाह नहीं है । अविनाश मुझे संत बनाना चाहते हैं ताकि मैं नौकरी छोड़ कर ईश्वर की खोज में भीख मांगने लगूं । गिरिजेश ने ठीक पकड़ा है । आस पास की ज़मीन गीली है तभी तो बात निकली है । जितेंद्र जी ने काम न होने की स्थिति में मीटिंग करने की सलाह दी है और इशारा किया है कि खाली वक्त में रसूख का इस्तमाल कर ब्लाग का प्रचार करें । ये इशारा मैं समझ गया । पर किसी रसूख का इस्तामाल नहीं हुआ था कि कस्बा और मोहल्ला के ज़िक्र में । अपने चैनल में हर शनिवार नारद की चर्चा करता हूं और दो ब्लाग की अलग से । उसमें कस्बा मोहल्ला नहीं होता । अभी तक बारह अलग अलग ब्लाग की चर्चा टीवी पर हो चुकी है । आगे होती रहेगी । पर मीटिंग प्रधान देश वाली बात कामचोरों की घोषणापत्र में पहले तीन में रखी जाएगी । ये एक बेहतर आइडिया है । मीटिंग कर काम न होने के तनाव को दूसरे पर टाला जा सकता है जो काम करते हैं । अनिल इतना व्यस्त रहते हैं कि सांस लेने की फुर्सत नहीं । कहीं दफ्तर में सबसे ज़्यादा सताए तो नहीं जा रहे । पर कस्बा में जाने के वक्त को वो काम की तरह देखते हैं । वाह वाह । ओम, लगता है काम न होने की स्थिति में ज़्यादा बहादुर हो जाते हैं । तनाव की जगह दबाव बनाने लगते हैं कि भई दफ्तर में हमेशा काम हो यह मुमकिन नहीं । मज़ा आया इस आइडिया पर । काम न होने की स्थिति का बहादुरी से सामना करने का सकारात्मक संदेश पढ़ कर । राजेश रौशन ने नब्ज़ पकड़ी है कि कोई इंसान खाली नहीं रह सकता । अगर खाली है तो उसे उसकी मदद करनी चाहिए जो काम के बोझ से दबा हुआ है । यह बेहतर सुझाव है । इससे दूसरों से सीखने का मौका मिल जाएगा और काम भी । बशर्ते काम के बोझ से दबा हुआ व्यक्ति किसी बेकार को अपने साथ काम करने दे । कई बार सारा क्रेडिट लेने के चक्कर में लोग किसी को शामिल ही नहीं करते । ब्लाग इलेक्ट्रानिक मीडिया का जवाब भी काबिले तारीफ है । इनका कहना है कि खाली है इसका मतलब आप अपनी भूमिका तक सीमित हैं । ऐसी स्थिति में लोगों को अपनी भूमिका से बाहर सोचने की कोशिश करनी चाहिए । इलेक्ट्रानिक मीडिया ने यह भी कहा है कि टीवी में दिखने और तारीफ की बीमारी लग जाती है । हर वक्त लगता है कि चर्चा में रहें । यह बात ठीक है मगर कोई ईमानदारी से कबूल नहीं करेगा । एक सुझाव और है कि दफ्तरों में खाली वक्त व्यतीत करने की व्यवस्था होनी चाहिए । कोई जगह होनी चाहिए जहां खाली वक्त का इस्तमाल हो सके । मगर ख़तरा है। वो यह कि किसी नियत जगह पर खाली वक्त में बैठने पर निठल्लों की जमात जैसे दाग आपके दामन पर लग सकते हैं । हो सकता है कि ऐसी जगह बन जाए और आप खाली होने के बाद भी लोक लाज के भय से वहां न जाएं । तब वह जगह खाली ही रह जाएगी जो खाली वक्त में भरने के लिए बनाई जाएगी । वी की अपनी दलीलें हैं । कहते हैं खाली वक्त में एक और खाली बैठे व्यक्ति की तलाश करें और चर्चा करते हुए चमचों के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास करें । फिर घर चले जाएं । सागर चंद नाहर जी मेरी ही बात से जवाब निकाल लेते हैं । लिखते हैं यार इतना टेंशन मत लो । ज़िंदगी काम से बड़ी नहीं । उसकी कीमत है । दफ्तर तो बदल जाएगा । जिंदगी नहीं मिलेगी ।

ये आलेख मेरे काम न होने का मानसिक तनाव के पहले खंड पर आई प्रतिक्रियाओं से तैयार हुआ है । मगर अभी भी कई सुझावों की संभावना है । मैं सोच रहा हूं कि इस मानसिक तनाव पर एक घोषणापत्र तैयार हो जो प्रामाणिक हो । यह तभी होगा जब और सुझाव आएंगे । जो पहले भेज चुके हैं वो दुबारा भी भेज सकते हैं । कई बार अच्छा आइडिया बाद में आता है ।