गाय माता नहीं नागरिक है

क़स्बा पढ़ने वाली रश्मि ने लिखा है कि मुझे गाय की दुर्दशा पर लिखना चाहिए क्योंकि हम गाय को लेकर पाखंडी हैं । रश्मि ने किसी अमरीकी राजदूत वाजदूत के हवाले से टिप्पणी की है कि हम पूजा करने का ढोंग करते हैं और दूसरी तरफ़ सड़कों पर मारा मारा फिरने के लिए मजबूर करते हैं । रश्मि की बात सही है । गाय के बारे में ज़्यादातर लोग बातें क्यों नहीं करते जबकि उसका दूध सब पीते हैं । 

मैं खुद दो संयोग की वजह से गाय के बारे में सोच रहा था । इनदिनों सब्ज़ीवाला जूस निकालने के बाद बड़ी संख्या में पल्प निकल आता है । जाड़े के कारण साग और गोभी की डंंठल निकल कर बर्बाद हो जाते हैं । यह सब बड़ी संख्या में कचरे में जाता है जहाँ चारा ढूँढते ढूँढते गाय पोलिथिन खा लेती है । जब तक बाबूजी ज़िंदा थे तब तक घर में गाय रही । चारा खिलाने से लेकर उसकी चमड़ी से अठईं निकालना कुछ न कुछ तो किया है । बछड़ा देने पर बाँस के कोंपल खिलाना और सर्दी में बोरे की चट्टी ओढ़ाना ।साग सब्ज़ी की कतरनें और पहली रोटी गाय को देना । गाय हमारी ज़िंदगी का हिस्सा रही है । दुख होता है कि इस तादाद में हरा चारा बर्बाद होता है । रोज़ सोचता हूँ कि इसे किसी गाय को खिला आऊँ । दूध ज़्यादा देगी ।

हम अंधाधुँध शहरी होने के क्रम में भूल गए हैं कि कभी गाय घर घर चौखट से बँधा करती थी । गाय से हमारी सामाजिक पारिवारिक यात्रा में सम्पत्ति का सृजन होता है । गाय से गोत्र बना है और गाय को हड़पने के लिए खूब युद्ध हुए हैं । उन युद्धों में गायों का क़त्ल भी हुआ है । गाय लूट ली जाती थी ।इस्लाम के उदय से पहले की बात कर रहा हूं । आज जब हम उसी गाय को सड़कों पर देखते हैं तो हार्न बजाकर आतंकित करते हैं और मज़ाक़ उड़ाते हैं । वो अब भी अर्थव्यवस्था का हिस्सा है मगर हम उसे ट्रैफ़िक की समस्या के रूप में देखते हैं । गोबर का मज़ाक़ उड़ाते हैं । यह नहीं सोचते कि गाय तब क्यूँ है । शहर इतना विशाल हो ही गया तो गाय क्यों हैं । क्यों नहीं हर शहर में गायों के लिए चारागाह है । हम गाय के प्रति बेहद क्रूर लोग हैं । तब भी जब उसकी उपयोगिता़ रहती है ।

दरअसल गाय को लेकर हमारा नज़रिया काफी समस्याग्रस्त है । नेता दूध के उत्पादन में अपने अपने राज्य को नंबर वन बताते हैं लेकिन गाय का नाम नहीं लेते । डेरी उद्योग का नाम देकर बिज़नेस माडल बताते हैं मगर गाय से दूध लेने के लिए उसके साथ क्रूरता बरतते हैं । इंजेक्शन लगाते हैं । हाल ही में हमारी एक दोस्त ने बताया कि डेरी वाले गाय को कैल्शियम फास्फेट नहीं देते जिसके कारण गाय दूध कम देने लगती है और वो जल्दी ही अनुपयोगी हो जाती है । जो पालता है वही पोलिथिन खाने के लिए शहर में छोड़ देता है । हम भूल जाते हैं कि गायों के लिए चलना बेहद ज़रूरी है । वो कहाँ चलने और चरने जाए । गाय के साथ जो बर्ताव हो रहा है उसके लिए माता माता कहने वाले लोग ही ज़िम्मेदार हैं । ढकोसले साम्प्रदायिक सब । 

गाय हमारी अर्थव्यवस्था की पहली ईकाइयों में से एक है । वह हमारी सहचर है । लेकिन हमने गाय को कभी जीव माना ही नहीं । परीक्षाओं में काऊ इज़ अ फ़ोर फ़ुटेज एनिमल लिखकर भूल जाते हैं । धार्मिक और साम्प्रदायिक राजनीति ने गाय के प्रति हमारे नज़रिये को और भी कुंद किया है । कुछ धार्मिक संगठन हैं जो वाक़ई गाय की सेवा करते हैं । घर घर से चारा जमाकर खिलाते हैं पर वो काफी नहीं है । लेकिन कुछ धार्मिक संगठनों ने गौ रक्षा का विषय बनाकर इसे हिन्दू बनाम मुस्लिम राजनीति के द्वंद में फ़िट कर दिया है । इनके लिए गाय का होना साम्प्रदायिक द्वेष के मुद्दे से ज़्यादा कुछ नहीं । इन्हीं के कारण सामान्य लोग भी गाय के बारे में बात नहीं करते । इनके ढकोसलों ने गाय को एक चश्मे में बंद किया है । गाय पूजनीय है मगर उसकी पूजनीयता को ख़ास राजनीतिक रंग देकर उसे पत्थर के जीव में बदल दिया गया है । जिसे ये खुद ठोकर मारते हैं । 

वाक़ई हमें गायों को धार्मिक सांप्रदायिक नज़रिये से मुक्त कराना चाहिए । सारे संगठनों को गाय के बारे में बात करना चाहिए । सिर्फ धार्मिक और दक्षिणपंथी संगठनों के भरोसे गाय नहीं छोड़ सकते । शहर और गाँव किसी का भी गाय के बिना काम नहीं चल सकता । इसलिए गाय रहेगी क्योंकि गाय माता से पहले या माता होने के नाते ही सही शहर की नागरिक है । महाराष्ट्र के बारामती में गाँव पर्यटन का माडल देख रहा था । किसान ने कहा कि शहरी पर्यटकों के लिए गाय भी है । मैंने पूछा क्यों तो जवाब दिया कि साहब बहुत बच्चों को मालूम नहीं कि दूध गाय देती है । वे समझते हैं कि दूध अमूल देता है, मदर डेयरी देती है । हम सचमुच गाय की चिन्ता करते हैं तो उसे गौ रक्षा के नाम पर हिन्दू मुस्लिम राजनीति का खुराक बनने से बचाना होगा । आप भी किसी भी गौ रक्षा सम्मेलनों के पोस्टर देख लीजिये । हमें बस उसके स्वस्थ भोजन और परिवेश की चिन्ता करनी चाहिए । गाय को लेकर भावुकता छोड़कर उसके साथ एक सह नागरिक का बर्ताव करना चाहिए । तभी हम उसके अधिकारों के प्रति सचेत हो सकेंगे और बच्चों को स्वस्थ दूध दे सकेंगे । 

16 comments:

Rajat Jaggi said...

गाय तोह गाय यहाँ तोह किसी के घर बेटी पैदा होने पे लोग मुह बनाने लगते है और वही लोग कंजक के दिन उसी बेटी को अपने घर पे लाके उसकी पूजा करने का ढोंग करते है |

Unknown said...

munirka vihar ke pas ek goshala hai.us ilake me aur aas pas gayen polythene khati aur beech sadak pe bhatakti najar aati hain aksar.pata nhi phr us goshale ka matlab kya hai wahan.aur tathakathit pragatisheel-secular log gaye ka naam sunkar hi pareshan hone lagte hain.us bechare janvar ki halat kharab hai :(

Unknown said...

गाय पर लिखने के लिए आपको और आपकी ब्लॉग पाठक रश्मि को धन्यवाद। गाय - मवेशी से सम्बंधित एक रोचक जानकारी लिख रहा हूँ।


२०११-२०१२ में एक अमेरिकी संस्था अशोका ( कई मायनों में अमरीकी पूंजीवाद के खिलाफ है यह संस्था) के न्यूट्रिएंट डेफिशियेंसी के ऊपर एक प्रोजेक्ट पर काम करने का मौका मिला। उसमें हम यह पता लगाने कि कोशिश कर रहे थे कि ग्रामीण छेत्रों में महिलाओं और बच्चों में पौष्टिक तत्वों की कमी क्यों रहती है। साथ ही साथ हम लोग मिटटी से भी पौस्टिक तत्वो के कमी के कारण जानने का प्रयास कर रहे थे।

मैंने बिहार के पूर्वी चम्पारण जिले के ३ ब्लाक ( पकड़ीदयाल, फेनहारा, और मधुबन) और अफ्रीका के रवांडा देश के कुछ जगहों का सैंपल इकट्टा करने के लिए चुना। दोनों जगह यह बात साफ़ तौर पर उभर के आयी कि तकरीबन हर उस घर में जहाँ एक स्वस्थ्य गाय या दूध देने वाला मवेशी था, उस घर के बच्चे (और कुछ हद घर के बाकी सदस्य) उस गांव के बाकी लोगों के अनुपात में ज्यादा न्यूट्रिएंट रिप्लीट थे। यानि हर उस घर में जहाँ गाय थी वहाँ के लोग बाकी जनसख्या के मुकाबले ज्यादा स्वस्थ्य थे।

उसी तरह हमें पता चला कि वह किसान जो गाय के गोबर का इस्तेमाल खाद के रूप में करता है, उस किसान कि ज़मीन की उर्वरकता ज्यादा बेहतरीन होती है और उस ज़मीन पर उपजाया गया खाद्यान्न बाकी तरह के खाद्यान्न से ज्यादा पौस्टिक होता है। इसका सीधा सम्बन्ध गाय के गोबर में करोड़ों के संख्या में मौजूद जीवाणुओं कि वजह से था जो नाइट्रोजन फिक्सेशन ज्यादा बेहतर करते हैं।

बिहार के किसानों में एक और बात यह आयी कि ऐसे सारे किसान जो पहले अपने यहाँ गाय, भैंस या कोई और मवेशी रखते उन्होंने अपने यहाँ मवेशी रखना काफी कम कर दिया था। मतलब इसमें गिरावट का प्रतिशत ३५% (ठीक ठीक याद नहीं) से भी ज्यादा था। और दूसरी यह बात भी सामने आयी कि किसान गाय के गोबर का इस्तेमाल खेती में कम से कम करने लगे थे जिसकी उनके खुद के ही परिवार पर दुस्प्रभाव पड़ रहा था। बिहार के किसानो में गाय पलने कि प्रवृति में कमी होने का प्रमुख कारण अकर्मण्यता और गाय से लगाव कि कमी थी।

इस तरह के रिसर्चों के आधार पर यू एन और बाकी कुछ बड़ी संस्थाओं (जैसे गेट्स फाउंडेशन) नें ग्रामीण छेत्र के लोगों में पौष्टिकता बढ़ाने एवं खेती को कृत्रिम खाद पर कम निर्भर करने के लिए गो पालन को प्रचलित करना शुरू किया है। वैसे कई अफ्रीकी देशों में "हर घर एक गाय" टाइप के कार्यक्रम चलायें जा रहे हैं।

Vidya said...

I am not sure about Delhi, but until a few years back outskirts of Bangalore had large tracts of govt land which was reserved for grazing. Due to the pressure of the growing population, greed of the people and in the name of development (IT parks) this land has been illegally encroached upon and totally disappeared.
The other irony is, if you look at campuses of any large companies or well developed real estate areas, there are huge well-manicured lawns on which you are not even allowed to walk - has anyone ever questioned the rationale in having them?
If you give a search (need not be google!!) for "bangalore grazing land" on the net, you will find umpteen number of articles highlighting this loot. This is not only a urban phenomenon but happening thru out the state. Our current CM comes from the community who graze cattle and sheep but sadly even he has done nothing in this regard.

vijayanand said...

There are two types of cow milk....A1 and A2 milk....A2 milk of desi cow is good but A1 milk of jersey cow is toxic...so avoid A1 milk...for more information google it...

प्रवीण पाण्डेय said...

गाय ६ वर्ष तक साथ रही, बंगलोर की जीवनशैली में वह सेवा छूट गयी। गाय के साथ रहने में जो आनन्द आता है, वह अवर्णनीय है। ईश्वर करे पुनः अवसर मिले।

शैलेश पटेल ( बनारसी ) सूरत ,गुजरात said...

जबतक हम किसी भी दो-पायो को चो-पायो का महानता समझ नही आयेगी आप जैसे ( परिवार से जुडा )सही सोच वाला मानुष को लिखना पडेगा.

मनजीत said...

जब हम मनुष्यों के प्रति सवेन्द्न हीन है यहाँ तक की कुछ लोग तो परिवार, माता पिता के प्रति कोई लगाव महसूस नहीं करते तो फिर गाय के प्रति हमारा नज़रिया बातों या सुझावों से सुधर जाएगा ये सोचना बेमानी है, चाहे उसके साथ कितने ही लाभ और उपयोगिताएँ जुड़ी क्यूँ न हो ? इसके लिए तो सख्त कानून उसका पालन और अनिवार्य रूप से शहरी क्षेत्रों के साथ चरागाह भूमि का प्रबंध होना चाहिए।

सोहन said...

बहुत अच्छा लिखे हैं सर, रश्मि जी को धन्यवाद | अगर मां बाबूजी से जुडी कुछ यादें शेयर करेंगे तो बहुत कृपा होगी | वेट करेंगे सर आपके पोस्ट का |

Unknown said...

bacpan yad aa gaya. ma ko kabhi sabji ya matar, phalo ke chilko ko sadak ya kacher me phekte nahi dekha. koi na koi gaye aaker kha hi leti thi. gorakhapur ke us colony me aaj bhi ak,do logo ne gaye rakhi hai ma aaj bhi aisa hi karti hai. mai jab pondicherry aayi to yeha university campus me gaye aati thi. mere flat ke sabhi log un gayo ko kuch na kuch khilate the. ye dekhakar meri beti bahut khush hoti thi. par pichle 3 salo se "surcha karno" ki vajah se un gayo ke pravesh par rok laga di gai hai. kya pata kisi ne gayo ko ak47 ya bum ke sath dekh liya ho.

Nitin Shrivastava said...

Thanks and salute you for writing this excellent article.

Anonymous said...

Hamm

Rashmi R said...

Thank you for writing this one.

This topic is very close to my heart. I have been a member of PETA since a long time but they also work like 5 years plans of govt. No real improvement.

Meri maa bahut sari gau shala to meri taraf se har month chanda deti hai. par jab koi gaye zakmi halat me dekhti hai aur us organization to call karti hai to woh log kabhi nahi aate.
Par chanda lene ke liye har month pahunch jate hai woh bhi bhagwan ke nam me.

People are becoming so selfish.

Thank you for writing about this cause.

pradeep said...

दिल को छू गया ...आप बहुत ही ज़मीनी आदमी है .....god bless you...

Chief said...

आपका यह पोस्ट पढ़ा तो सोचने लगी अरे यह बात तो अभी अभी किसी ने कही थी...पूरा पोस्ट पढ़ा तो पता लगा यही पर कही थी :)
हमने तो इतने दोगलो की बारात देख ली है की वो एक तरफ सवर्ण होने का घमंड दिखाते है और दूसरी तरफ अपने बच्चो को गाय सूअर से बनी जिलेटिन और सासेजेस खिलाते हैं...वैसे हमने तो बचपन से भैंस का दूध पिया है, गाय का दूध तो बहुत महनगा और अजीब से स्वाद का होता था...लेकिन हाँ नवरात्रि से तुलसी विवाह तक गाय के गोबर से लीप कर रांगोली ज़रूर बनाई है...और गाय कुत्ते की रोटी आज तक पहली होती है...लेकिन गाय सड़क पर क्यो है,किसकी है..भूखी है...ये सब कभी नही सोचा....दोगलपन तो मुझ मे भी है...

Aamir said...

is desh mein jahan gayen pooji jati jati hain wahin usi ki haalat beinteha kharab hai.

Main Distt Unnao U.P mein rehta hoon. hamare mohalle ke transformer k pas ek gaye pichle mahine kareeb 02 hafte tak padi rahi... mari nahi, zinda thi.. thandak se lakwa maar gaya tha shayad.. roz office ke liye aate jaate use wahin par dekhta tha.. wiase he pada hua.. bina hile dule.. phr kuch din baad koi aakar bori daal gaya.. par aur koi intezam nahi hua... aam aadmi ki tarah, sabki tarah main bas aate jaate use pade dekhta he raha aur dusro ko kosta raha ki koi kuch karta kyun nahi.... Shayad mujhe he kuch karna chahiye tha.. apka ye lekh padhkar sochta hoon zarur kuch karna chahiye tha...