ब्राह्मण वोट प्रतियोगिता
मंगल पांडे ब्राह्मण थे ।मुलायम सिंह यादव का बयान है। दि हिन्दू अखबार की एक खबर पढ़ रहा था। १८५७ की क्रांति के अन्य नायकों की पहले भी जाति खोजी जा चुकी है। गुर्जर और दलित शहीद की प्रतिमाएं गढ़ीं जा चुकी हैं। लखनऊ में जब मुलायम सिंह यादव ये बात कह रहे थे तो नई बात नहीं थी। समाजवाद तो मंगल पांडे से ही आगे बढ़ा है। ब्राह्मण समाज ने देश और समाज की प्रगति के लिए काफी कुछ किया है। अखबार बताता है कि समाजवादी पार्टी के भीतर ब्राह्मण सभा भी है जिसके अध्यक्ष कोई मंत्री हैं जिनका नाम है मनोज पांडे। मुलायम सिंह बता रहे हैं कि उनकी सरकार बनी थी तभी परशुराम जयंती पर छुट्टी का फैसला हुआ था। अब समाजवादी पार्टी के दिवंगत नेता जनेश्वर मिश्र को भी ब्राह्मण के रूप में खोजते हुए मुलायम बताते हैं कि लखनऊ में लोहिया पार्क से भी बड़ा छोटे लोहिया के नाम से जाने गए जनेश्वर मिश्र पार्क बन रहा है। जनश्वेर मिश्र की जात ही काम आई आखिर। बेकार में ये विचार और वो विचार में जीवन खपाये रहे छोटे लोहिया साहब। जात का एतना बड़ा टिकट पास में था और विचारधारा के भ्रम में बेटिकट घूमते रह गए। इसीलिए छोटे लोहिया शानदार भाषण देकर भी संसद में भाषणबाज़ से आगे नहीं जा सके।
यही नहीं आचार्य महावीर दिवेदी जिनका लिखा हुआ कई कोर्स में है मगर अब उनकी जीवनी इसलिए कोर्स में ठेली जाएगी क्योंकि आचार्य जी ब्राह्मण थे। हिन्दी साहित्य के सेमिनारी साहित्यक जमात इसका देखते हैं कैसे विरोध करती है। लेकिन ब्राह्मणों के वोट को लेकर प्रतियोगिता मुलायम ने तो शुरू नहीं की। मायावती ने २००७ के चुनावों में राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो चुके ब्राह्मण नेताओं और मतदाताओं की पुनर्खोज की थी। भाईचारा कमेटी बनाकर उन्हें बीएसपी के पाले में ले आईं। सतीश मिश्रा इसी कोटे से महत्वपूर्ण बन गए। अब मुलायम सिंह यादव भी वही कर रहे हैं। चूंकि ब्राह्मणों तक पहुंचना था इसलिए कार्यक्रम का नाम प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन रखा गया। इस नाम के सम्मेलन तो दलितों और पिछड़ों ने कभी अपने लिए तो नहीं कराये। कराये भी होंगे तो मुझे मालूम नहीं है।
राजनीति का अपना एक चक्र होता है। हमारी राजनीति में अब वैचारिक धार रही नहीं। इतना श्रम कौन करे। जल्दी जात को पहचानों और उसकी तारीफ करो। अतीत की तस्वीरों को अपने हिसाब से गढ़ों और ध्वस्त करो। राजनीति किसी दूसरी जाति की पहचान से लड़ नहीं सकती। समझौता करती है। कोई नाम दे देती है कि अब ब्राह्मण भी बदल रहे हैं। यह नहीं कहती कि हम बदल रहे हैं। हमें सिर्फ वोट की ज़रूरत है। विचारधारा पार्टी के नाम पर जुगाड़ पाने की उम्मीद में बैठे कुछ खाली लोग लघु पत्रिका चलाने का फंड खोजते रहते हैं। राजनीतिक दलों में ब्राह्मण वोट प्रतियोगिता चल रही है। इसलिए पहला रास्ते की नारेबाज़ी का ज़माना चला गया। जो भी जात जहां है और जैसा है के आधार अपनी संख्या क्षमता के कारण वोट है। इसे जोड़ों। इसलिए कांग्रेस और बीजेपी अपने चरित्र में घोर ब्राह्मणवादी होते हुए भी ब्राह्मण मतदाताओं से ऐसी बातें खुलकर करने से बचती हैं। क्योंकि जैसे ही वे यह बात करेंगी उनका दूसरे समाज का वोट घट जाता है। लेकिन मुलायम और मायावती के कहने से उनके वोट बैंक में कुछ जु़ड़ जाता है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि फिर से अपनी जातिगत पहचानों को लेकर सर उठाने का टाइम लौट रहा है। मालूम नहीं। यह भी तो हो सकता है कि जातिवाद का स्वरुप काफी टूट गया हो। दलितों और पिछड़ों ने एक किस्म की राजनीतिक बराबरी हासिल कर ली हो और अब वे अपनी तरफ से हाथ बढ़ा रहे हों। पर इस प्रक्रिया को उनके अवसरवाद से कैसे अलग करके देखें। बात ब्राह्मण की नहीं है। बात जातियों के गठबंधन की है जो इस सघन प्रतियोगिता के वक्त सभी राजनीतिक दल बनाते हैं। कहने का मतलब ये है कि उनका गठन भले ही ऐसी बातों की पृष्ठभूमि में हुआ होता होगा कि जाति का ढांचा तोड़ना है लेकिन वे भी अंत में इसी ढांचे का हिस्सा बन जाते हैं या वैसे ही हो जाते हैं जिसके खिलाफ होने निकले थे। ब्लाग पर ऐसे प्रसंगों में त्वरित टिप्पणी ही की जा सकती है ऐसे मामलों पर प्रो विवेक कुमार, दिपांकर गुप्ता, योगेंद्र यादव और चंद्रभान जैसे काफी लिखते रहते हैं। जब समाजवाद समाजवाद नहीं रहा तो ब्राह्मणों को लेकर समाज के पिछड़े तबकों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों की प्रतियोगिता सकारात्मक तरीके से भी तो देखी जा सकती है। जातिवाद टूट रहा है ये नहीं मालूम पर इसी ढांचे के भीतर सब बराबर हो रहे हैं। ऐसा है मैं दावा नहीं कर सकता, क्या पता ऐसा ही हो।
लेकिन जब आज भी दलितों को हरियाणा या कहीं और के गांवों से मारकर भगा दिया जाता है तो बाकी दल चुप क्यों रहते हैं। उन पर ज़ुल्म करने वालों का जातियों के हिसाब से प्रोफाइल बनाना चाहिए। हर जात के ज़ुल्मी हैं लेकिन हर दल को हर जात चाहिए। इसलिए जाट जब दलितों को भगा देते हैं तो सरकार पर हमला होता है। एक जाति की ताकत या उसकी मानसिकता से लड़ने का प्रयास इतना ही है कि सताए हुए लोग मीडिया में रिपोर्टर ढूंढते रहते हैं कि कवर कर दीजिए। खबर कवर भी होती है और शून्य के सन्नाटे में खो जाती है। इन सताये हुए लोगों को अब नेता नहीं मिलता। न बहन जी मिलती हैं न भाई साहब। बाकी इनके छोड़े हुए विचारक हैं जो थोड़ी बहुत ईमानदारी से लड़ते रहते हैं।
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3 comments:
कोई भी अपनी ऊर्जा व्यर्थ नहीं करना चाहता है, कम में अधिक प्राप्त करने का प्रयास ।
jab tak UP ke netaon main PM proud rahega tab tak unki sank ka sahara bhi rahega matlab ki jaatiwad-aur ismain LS baithakon ka badlav na ho tab tak badlav ki koi goonjaaish dikhti hai kya?ravishji atleast 2025 tak to hai hee--koi chamatkar hee bacha sakta hai-to kisi baaba ko jaante ho aise-to blog par bataiyega ravishji :) :p
A very well-written piece. Identity politics is practiced all over the world. India is no exception. Seeking votes on the basis of social groupings or playing politics around castes is not so much a problem, in my view. The problem comes when there are atrocities and oppression in the name of caste. These are law and order problems and should be dealt with as very serious crimes. Problems also arise when politicians offer incentives or reservations based on castes or other forms of social identities based purely on their electoral advantage. This is short-sighted and not in our national interest.
However, some amount of caste-based reservations may be necessary to redress historic wrongs. As a Brahmin myself, I have always found opposition to bare minimum reservations for those oppressed through centuries distasteful and petty (also selfish and anti-national—in a way). This is a public policy issue, and we should evaluate questions surrounding this issue primarily through the lens of national interest.
In recent years, I have also watched with amusement and some annoyance misguided efforts on the part of some to “do away” with castes. There is no doubt that this loosely and somewhat mysteriously structured system—if it can be termed as one in a loose sense—has been a source of numerous problems, some of them serious. However, it is also a “system” that has shaped our society and country for many centuries. The Rigveda mentions the four varnas—in its famous “Purusa” hymn. The Bhagwad-Gita mentions the castes. It is thrilling to read in an essay on Alexander by Greek historian Plutarch that philosophers in India urged the local rulers to march on the invaders. In fact, the essay mentions that Alexander captured a few of these men and had them punished. The tussle between the followers of Buddha and the Brahmin priests whose way of life was threatened because of this popular new form of life is too well-known to those of us who know about Indian history. Thus, the so-called caste system with all of its problems is nonetheless our cultural heritage. Besides, revising history and erasing culture have been unsuccessful and futile endeavors whenever they have been tried. A democratic country has no place for sanctioned discrimination of any kind, but we must leave history and culture alone where they belong, in our families, in history books, in museums, in our festivals and social events, to name a few places. – Anish Dave
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