न्यूज़ चैनल अपने आस पास के माध्यमों के दबाव में काम करने वाले माध्यम के रूप में नज़र आने लगे हैं। इनका अपना कोई चरित्र नहीं रहा है। गैंग रेप मामले में ही न्यूज़ चैनलों में अभियान का भाव तब आया जब अठारह दिसंबर की सुबह अखबारों में इस खबर को प्रमुखता से छापा गया। उसके पहले हिन्दी चैनलों में यह खबर प्रमुखता से थी मगर अभियान के शक्ल में नहीं। यह ज़रूर है कि एक चैनल ने सत्रह की रात अपनी सारी महिला पत्रकारों को रात वाली सड़क पर भेज दिया कि वे सुरक्षित महसूस करती हैं या नहीं लेकिन इस बार टीवी को आंदोलित करने में प्रिंट की भूमिका को भी देखा जाना चाहिए। उसके बाद या उसके साथ साथ सोशल मीडिया आ गया और फिर सोशल मीडिया से सारी बातें घूम कर टीवी में पहुंचने लगीं। एक सर्किल बन गया बल्कि आज कल ऐसे मुद्दों पर इस तरह का सर्किल जल्दी बन जाता है। कुछ अखबार हैं जो बचे हुए हैं पर ज्यादातर अखबार भी सोशल से लेकर वोकल मीडिया की भूमिका में आने लगे हैं। टीवी के कई संपादक सोशल मीडिया के दबाव को स्वीकार करते हुए मिल जायेंगे। जैसे ही सचिन तेंदुलकर ने रिटायरमेंट की घोषणा की वैसे ही एक बड़े संपादक ने ट्विट किया कि गैंगरेप की खबरें पहले चलेंगी और सचिन की बाद में। इसी क्रम में इसी सोशल मीडिया पर मौजूद दक्षिणपंथी टीवी की आलोचना करने लगे कि ओवैसी की खबर सिकुलर मीडिया जानबूझ कर नहीं दिखा रहा है। चौबीस दिसंबर का भाषण अभी तक नहीं दिखाया जबकि सबको मालूम है कि उस दिन टीवी दिल्ली गैंगरेप के मामले में डूबा हुआ था लेकिन दक्षिणपंथी सोशल मीडिया के दबाव में कई चैनल जल्दी आ गए और गैंगरेप की ख़बरें छोड़ ओवैसी के पीछे पड़ गए। वैसे यह खबर भी कम महत्वपूर्ण नहीं थी, चर्चा करनी ही चाहिए थी लेकिन तब सिर्फ यही खबर क्यों। सचिन तेंदुलकर वाली खबर क्यों नहीं। वो किस मामले में कम महत्वपूर्ण था। अलग अलग सामाजिक समूहों के दबाव में टेलीविज़न दायें बायें होने लगा है। इसी बहाने कुछ मुद्दे पर सरकार को भी चेतना पड़ा। ज़ाहिर है टेलीविजन का इकलौता प्रभुत्व और प्रभाव खत्म हो गया है। ख़ैर।
गैंगरेप मामले मे रिपोर्टिंग कैसी हुई इस पर आने से पहले कुछ बात कहना चाहता हूं। जैसे पल्प फिक्शन होता है वैसे ही पल्प टेलीविजन होता है। भारत में ये पल्प टेलीविज़न का दौर है। पहले आप यह बात हिन्दी न्यूज़ चैनलों के बारे में यह बात कह सकते थे लेकिन अब इंग्लिश चैनल भी यही हो गए हैं। भाषा,प्रस्तुति और प्रोग्राम के मामले में हिन्दी इंगलिस चैनलों का अंतर पहले से कहीं ज्यादा कम हो गया है। हिन्दी और इंग्लिश चैनलों पर ज़्यादतर बहसिया फार्मेट के ही कार्यक्रम चल रहे हैं। पल्प को हिन्दी में लुग्दी कहते हैं । बहुत लोग मुझसे पूछते हैं कि आप चैनल को लैनल क्यों कहते हैं तो मैं लुग्दी से लैनल बनाकर लैनल बोलता हूं। इसका मतलब यह नहीं कि जो पल्प है वो खराब ही है या उसकी लोकप्रियता कम है। बस उसके पेश करने की शैली का मूल्यांकन या विश्लेषण मीडिया के पारंपरिक मानकों से नहीं किया जा सकता । चैनलों की भाषा,संगीत और तस्वीर पर बालीवुड की भाषा और बहुत हद तक हिन्दी डिपार्टमेंट की दी हुई ललित निबंधीय हिन्दी का बहुत प्रभाव है मगर लुग्दी टच होने के कारण मैं चैनलों की हिन्दी को लिन्दी बोलता हूं। तो लिन्दी लैनल और इंग्लिश वाले इन्दी लैनल। क्योंकि अब इंग्लिश बोलने का टोन भी हिन्दी जैसा हो गया है। इसका मतलब यह नहीं कि टीवी पर अच्छी पत्रकारिता नहीं होती है, वो भी होती है और वो कभी कभी पल्प टेलिविजन के दायरे में भी होती है। गैंग रेप मामले में भी बहुत कुछ अच्छा भी हो गया। अंदाज़ी टक्कर में। शैलियों पर बालीवुड और हिन्दी डिपार्टमेंट की हिन्दी के अलावा एक और प्रभाव है टीवी पर । वो है मेरठ माइंडसेट का। हर कहानी को रहस्य और रोमांच में लपेट कर मनोहरकथा की तरह पेश करना। जैसे जाग गया देश, मां कसम बदलेगा हिन्दुस्तान, चीख नहीं जाएगी बेकार, मैं लड़की हूं। इस तरह के शीर्षक और वायस ओवर आपको सुनाई देंगे। सिर्फ गैंग रेप ही नहीं ऐसे किसी भी मामले में जिसे लेकर सोशल मीडिया से भरम फैलता है कि पब्लिक यही सोचती है तो उसकी सोच में बड़े पैमाने पर गाजे बाजे के साथ घुस चला जाए। लैनलों में जो संगीत का इस्तमाल होता है उसका अलग से अध्ययन किया जाना चाहिए। इसका ज्ञान मुझे कम है। सरसरी तौर पर लगता है कि रेप और डार्क सीन या रेघाने वाली आ आ की ध्वनियों का असर दिखता है। अब यह अलग सवाल है कि इसे व्यक्त करने का दूसरा बेहतर फार्मेट क्या हो सकता था, तो जो नहीं है और जो नहीं हुआ उस पर क्यों बात करें, जो हो रहा है उसकी कमेंटरी तो कर ही सकते हैं।
लैनलों ने जो अभिव्यक्ति के लिए जो फार्मेट गढ़े थे उसका त्याग कर दिया है। स्टोरी टेलिंग की जगह स्टेटस अपटेडिंग हो गई है। लैनल सोशल मीडिया का एक्सटेंशन हो गया है । इसकी समस्या यह है कि अखबार की तुलना में स्पीड की दावेदारी सोशल मीडिया ने खत्म कर दी है। ऐसे मौकों पर न्यूज रूम ध्वस्त हो जाते हैं। न्यूज रूम का पूरा ढांचा ध्वस्त हो जाता है। अमिताभ बच्चन कबीर बेदी, किरण बेदी और राहुल बोस जैसों के ट्विट से शुरू होता है और लैनलों पर घटना को लेकर पूरा माहौल बन जाता है। टीवी अपनी खोजी और गढ़ी हुई खबरों की अनुकृति कम करता है। कुल मिलाकर चैनलों का ट्विटराइजेशन यानी ट्वीटरीकरण हो गया है। स्क्रीन पर चौबीस घंटे बक्से बने होते हैं उसमें लोग बोल रहे होते हैं। ट्विटर या फेसबुक की तरह। आयें बायें सायं। गैंगरेप की घटना के बाद टीवी भी सोशल मीडिया का एक्सटेंशन बन गया। आप कह सकते हैं कि रायसीना हिल्स का विस्तार बन गया। जिस तरह सोशल मीडिया में बाते होती हैं उसी तरह से टीवी में होने लगी। एक टीवी पर एक लड़की को बास्टर्ड बोलते सुना। खुद मेरे शो में कुछ लोग अनाप शनाप शब्दों का इस्तमाल कर गए। स्मृति ईरानी और संजय निरुपम का प्रसंग को ट्वीटरीकरण के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। यह टीवी की नहीं, सोशल मीडिया की अभिव्यक्ति है। ट्वीटर और फेसबुक अकाउंट से ओपिनियन और सवाल लिये जाने लगे। खाताधारियों को बुलाया जाने लगा। आप ध्यान से देखिये, लैनल सोशल मीडिया की अभिव्यक्ति के माध्यम बन गए हैं। कम से कम ऐसे मौकों पर तो बन ही जाते हैं। स्क्रीन पर बगल में तस्वीर चल रही है लेकिन सब अपने अपने दिमाग के हिसाब से बोलते जा रहे हैं। कोई परंपरा की बात कर रहा है, भारतीय मूल्यों की बात कर रहा है तो कोई पाश्चात्य मूल्यों को दोष दे रहा है। अनियंत्रित गुस्सा, गाली सब प्रसारित हो रहा है। इससे क्या हुआ कि मेन स्ट्रीम मीडिया का जो अंग था टीवी उसका मार्जिनलाइजेशन होने लगा। वैसे तो सारे मीडिया अब सोशल मीडिया पर है इसलिए सोशल मीडिया ही मेनस्ट्रीम मीडिया है। एंकर लिंक से लेकर पीटूसी तक सब सोशल मीडिया के रिफ्लेशक्शन लगते हैं। इसमें आप हिन्दी और इंगलिस चैनलों में अंतर नहीं कर सकते हैं। जनमत के नाम पर हर तरह के मत हैं। बस हंगामे की शक्ल होनी चाहिए। इस काम में कई ऐसे मुद्दे ज़रूर आए जिनसे सरकार की शिथिलता टूटी है। यह भी देखना चाहिए। टीवी के सोशल मीडिया में बदलने से,उसके रायसीना में बदलने से बहुत फर्क आ रहा है। यह एक तरह का एक्टिविज्म है जर्नलिज्म नहीं है। उसमें भी खास तरह का एक्टिविज़्म है। इंटरनेट की धड़कन से टेलीविज़न चल रहा है न कि संपादक पत्रकार की हरकतों से।
तो हम दिल्ली गैंगरेप मामले में सिर्फ रिपोर्ट नहीं कर रहे थे। हम बहाव में बह रहे थे। चैनल जल्दी ही अपनी बनाई हुई कैटगरी से आज़ाद हो गए। तभी ल्यूटियन ज़ोन के कई बड़े पत्रकार इस बात से हैरान थे कि ये रायसीना तक कैसे जा सकते हैं, कैसे प्रधानमंत्री राष्ट्रपति से मिलने की बात कर सकते हैं, हमें तो इंटरव्यू मिलता नहीं, इन्हें प्रक्रिया प्रोटोकोल नहीं मालूम है। पीएम सिर्फ विदेश यात्रा से लौटते वक्त अपने प्लेन में मीडिया से बात करते हैं। वो या तो ऐसी बातें कह रहे थे या फिर इन बातों की पृष्ठभूमि में भीड़ की आलोचना करने लगे। उन्हें लगा कि ल्युटियन ज़ोन तो प्रोटेक्टेड जोन है यहां कैसे लोग आ सकते हैं वो भी बिना नेता के, वो भी बिना गरीब हुए, किसान हुए। अभिजित मुखर्जी ने तो बाद में डेंटेट पेंटेड की बात कही लेकिन इस भीड़ को कमोबेश इन्हीं शब्दों में पहले से भी खारिज किया जा रहा था। हो सकता है कि ये आलोचनाएं सही हो मगर ल्युटियन कंफर्ट ज़ोन में सिस्टम का पार्ट बन चुके या सिस्टम की आदतों को आत्मसात यानी इंटरनलाइज कर चुके कई बड़े पत्रकारों ने संदेह की नज़र से देखा। यह भी एक कारण तो था ही।
अब इस बहस में अखबार की रिपोर्टिंग को भी लाना चाहिए लेकिन वो मेरा विषय नहीं है। उनकी भाषा और प्रस्तुति पर भी बात होनी चाहिए जो हम नहीं करते हैं। लैनलों की रिपोर्टिंग नीयत में सही थी । वो आजकल चालाक नेता की तरह जनभावना भांप लेते हैं और बयान देने की तर्ज पर अभियान चलाने लगते हैं। वो तो इसी भाव में रिपोर्ट कर रहे थे कि जैसे आंदोलन के साथ हैं। इस जनाक्रोश के साथ हैं लेकिन जो रिपोर्टिंग हो रही थी और जिस शैली में हो रही थी वो अपने आप में समस्याग्रस्त (प्रोब्लेमेटिक) है। आप उस टीवी से अचानक नारीवादी होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं, जो चार महीने पहले करवां चौथ के मौके पर अपने डिबेट के एक बक्से में चांद को लाइव काट कर रखे हुए था। महिला एंकर तक करवां चौथिया लिबास या भाव में डूबी हुईं थीं। बता रही थीं कि करवां चौथ कैसे करें । टीवी तो भारतीय पंरपरा में नारी के गुण कर्तव्य और अवधारणाओं को इन त्योहारों के कवरेज से गढ़ता चलता है। कभी तो उसने सवाल नहीं किया कि देवी रूप का क्या मतलब है। तो वो रायसीना या जंतर मंतर से अपनी रिपोर्टिंग में देवी के रूप की कैसे आलोचना कर सकता है। बल्कि एंकर से लेकर रिपोर्टर तक की बातों में इस तरह की पंक्तियां आ रही थीं। जिस देश में देवी को पूजा जाता है उस देश में कैसे हो गया। ये भाव था। वही मानव संसाधन जो साल भर घोर पारंपरिक या कई मामलों में स्त्री विरोधी छवियों को गढ़ता है उसी को आप चार दिनों में नारीवादी मूल्यों के प्रति सचेत कैसे बना देंगे। यह ज्यादती होगी।
तो टीवी के पास कोई अपनी भाषा तो नहीं थी। उसके पास अपनी कोई छवि नहीं है। इतनी आलोचना होने के बाद सभी लैनलों पर एक शर्मसार बैठी हुई, सिसकती हुई नारी के ही ग्राफिक्स चल रहे हैं। सिलुएट के अंधेरे में गुम नारी की तस्वीर है। जैसे ही तीन मंत्रियों ने तीन बेटी होने की बात की एक चैनल पर स्टोरी ने क्लास वार के रूप में टर्न ले लिया। आपकी तीन बेटिया हर वक्त सलामी के पहरे में रहती होंगी, क्या वो ऐसे सुनसान बस स्टैंड पर जाती होंगी, बिना जाने कि उनकी क्या स्थिति है,लेकिन रिपोर्टर उनकी विशिष्टता को चुनौती देने लगा। थोड़ी देर के लिए वर्ग युद्ध छिड़ गया। बाद में यह बात भी आई कि बेटी का पिता होने से संवेदनशीलता विशिष्ठ हो जाए यह ज़रूरी नहीं है। दूसरी तरफ मैं लड़की हूं टाइप मेरठ फ्रेम की आत्मकथाएं चलने लगी। फर्स्ट पर्सन अकाउंट में। टीवी भी सोशल मीडिया की तरह फैला हुआ था। हालांकि इसी बीच वो एडवोकेसी भी कर रहा था लेकिन उसकी भाषा स्लोगन और छंदों में इतनी फंसी हुई लगी कि ऊब और आक्रोश के अलावा समझ की गुजाइश कम नज़र आ रही थी। हिंसा को ही एक्शन मान कर दिखाया गया। शर्म की ढलती शाम के ढांचे टूट रहे हैं, सहमी हुई सांसे बोल रही हैं, दुबके परिंदों की पांखें बोल रही हैं, अब कौन कहे कि दुबके परिंदे का मतलब क्या है। क्या अभी तक आप उन लड़कियों को दुबके परिंदे बोल रहे थे। आप ही जब ऐसा समझ रहे थे तो सरकार और सिस्टम और समाज की क्या बात करें। हालांकि टीवी इस मामले में अपनी भूमिका को सकारात्मक तरीके से देखेगा और कई मामलों में हुआ भी,उसके चाहते हुए और न चाहते हुए दोनों। लेकिन वही बात है जैसे कई लड़के जो खुद को अच्छा समझते हैं या जिन्हें लड़कियां भी अच्छा समझते हैं वो पूरी तरह से अच्छे नहीं होते कम से कम नारीवादी संदर्भ में। सबकुछ नाटकीय क्यों लगने लगता है ये समझ नहीं आता। कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे ही लगता है। यह लेख तमाम लैनलों को ध्यान में रखकर लिखा गया है।
57 comments:
Sir well said and well written some of your points really makes one to think and introspect
Sir, kaafi accha blog likha hai. Alag alag angle se aapne cheezon ko analyze kiya hai.Jo kuch reaction is ghatna ke baad hua, vo apne aap main ek sawaal khada karta hai, ki hamara samaaj tabhi kyun sakriya hota hai jo kuch anhoni ho chuki hoti hai. samaaj aur media dono hi ek hi thali ke chattey battey hain.
मजा आ गया रवीश जी अब आप भी प्रणव मिस्त्री की तरह अपने 6th सेन्स का इस्तेमाल कर के आंकलन किये
बहुत दिनों बात कुछ क्रिस्टोफर urmson के रिसर्च पेपर जैसा कुछ पढने को मिला (christopher urmos Google self driving
car ke liye jane jate hai) रवीश जी ये इस देश का दुर्भाग्य है जब लोग पांचवी कक्षा में पढाई जा सकने लायक चीज़े engineering colleges
में पढेंगे तो इसी तरह का पल्प टीवी होता है जो अपने लिखा इस सब के लिए हमारा एजुकेशन सिस्टम
रेस्पोंसिबल है जब दुनिया में सुपर कंप्यूटर को चिप पे लाने की बात हो रही है हमारे नौजवान
java/sql में इंजीनियरिंग कोर्सेज के बाद रिक्शा पंचर जोड़ने जैसे जॉब्स बड़ी बड़ी कंपनियों में कर रहे है तो इस टाइप का पल्प टीवी रिपोर्टिंग कोई आश्चर्य नहीं है bahut shandar prastuti,
apka fan
Nice article. Lekin sir aap ek baat se agree shayad karein ki channels ki jo bi niyat (intention) ho lekin sensation se hi news asardaar banti hai. Bachpan mein jab roti nahi khaata tha toh mummy bhoot le jayega keh kar daraati thi, filmi duniya mein gabbar keh kar darati hongi, toh channels agar news ko darate hue dhang se ya meerut style se present nahi karenge toh shayad india ke match jeetne se log bhool bhi jayenge ki kitna galat ho raha hai aas paas. Toh jaane anjane mein channels theek hi kar rahe hai, masale ke bina kisi ko mazaa nahi aata toh kya karein, aaj kal toh bhagwaan ki aarti bhi bina music ke pasand nai aati logo ko, sab itne thake hue hai ki saadgi wala tarika bhi unhe aur thakane waala lagta hai. Aapka article thoda political laga kyunki aap sirf bhaav vyakt hi kar rahe hai, jo ho raha hai wohi bata rahe hai, kisi ko zyada support nahi kar rahe hai, kisi ke zyada against bol nahi rahe hai, samajh sakta hun aapki public image iska reason hai.
समाज के एक छोटे से लेकिन मुखर तबके का ट्वीटीकरण और सोशल मीडिया पर अधिकार है. टीवी, अखबारों, पत्रिकाओं के लोग उसी मुखर तबके के ही हैं या उस जैसा बनने का सपना देखते हैं. वही उसका भोपूँ बन कर उसे इस तरह फैंकते हैं जिससे अधिक दर्शकों को आकर्षित कर सकें. अगर इससे लोग मोमबत्तियाँ जलाने और नारे लगाने घरों से बाहर निकलते हैं तो यह भी एक बदलाव है. सदियों से फ़ैली और गहरी घुसी मानसिक सोच इन सबसे किस तरह बदलेगी? कल के भविष्य में किस ओर जायेगी और आने वाले दशकों में किस ओर जायेगी?
Must read article
हम तो उसी चैनल में टिकते हैं जिसमें नाटकीयता कम दिखती है
Padhi hamnein aur samjahne ki bhi koshish ki!
Padhi aur samjhne ki bhi koshish ki! Sargarbhit aur saymit bhasha! Abhaar!
प्रवीण वो है कहाँ
आप सभी कि टिप्पणियाँ पढ़ते रहता हूँ ।
Dammit You write from heart. And any thing which comes from heart is always correct though it may not be logical. Keep going. Bless you
Dammit! You write from heart and any thing..I say any thing which comes from heart can't be wrong however that may be defying logic. Keep it up. Bless you
कोई तो है जो इन लैनलो पे भी नजर रखता है !
इतने विचारित्तेजक लेख के बाद भी अभी तक टीवी चैनलो पर श्री यंत्र, बाल बढाने की गारंटिड दवाये, जन्म कुण्डलिया, चमत्कारी गुफा, भूत पिशाच भगाने के नुस्खे आदि बिक रहे है, आखिर कौन जिम्मेदार है. व्यवस्था या हम.
Ravish bhai aisa lgta hai ki media bhi ab swatantra nahi hai.ya swatantra rhna nahi chahti.
Agar Tv chanl twitter FB ke dabaav me aate hai to ye desh k liye shubh sanket hai
Ravish Ji mai to apki anchoring (hindi nahi pata hai) ka. Ravish Ki Report se parasansk hoon aur aaj apka lekh bhi gajab hai Guru. Itni sundar hindi ...!
Vastav me sab arthik samajshastra aur samajik arthshastra ka milajula prabhav hai. Isme pahale arthshastra samaj ko banata hai phir samaj arthshastra ko banata hai. Manav mulyo me aa raha parivartan isme mahatvapurn bhoomika ka nirvahan karta hai.
Asha hai ki aap chot se achhi tarah ubar chuke honge....!
Ravish Ji mai to apki anchoring (hindi nahi pata hai) ka. Ravish Ki Report se parasansk hoon aur aaj apka lekh bhi gajab hai Guru. Itni sundar hindi ...!
Vastav me sab arthik samajshastra aur samajik arthshastra ka milajula prabhav hai. Isme pahale arthshastra samaj ko banata hai phir samaj arthshastra ko banata hai. Manav mulyo me aa raha parivartan isme mahatvapurn bhoomika ka nirvahan karta hai.
Asha hai ki aap chot se achhi tarah ubar chuke honge....!
Class analysis sir. :)
Is desh me samsyaaye kai hai. Yadi media ki bat ki jaye to wo apne bar me hi samsya hai..kyonki tv ad. Khud tv news ke abhiyanon ke viprit hote hai...yadi gore home ki cream.. Nirmal baba.. Aurat ko product aur bhog ki vastu ke roop me prastut karne wale ad jab commercial break me dikhaye jate hai ..tab ye kis muh se nari swatantra ki bat karte hai.
Kitni bhi samvedanashil charcha ho.. Beech me commercial break jaroori hai..aur baki bate phir kabhi...
Ravishji bahut badhia likha he blog aapne. Padhkat maja aaya par ek baat mania ki saare channel ko survive karne ke lia business interest kaa bhi dhyaan rakhna hota he. Channels ko koi grant to milti nahin he , nahi channels ko koi Coal Block allott ho sakta he.To thoda bahut natkiyata survival (TRP) ke lia jaruri he.
Aaj media vishesh roop se News Channels ka bahut bada yogdaan he hamare corrupt (not all but mostly)netaon ko control karne main aur public ko sab batane main.
Lekin Owaisi mamle ke kuch channels dwara (jinke naam aapko achchi taraf pata he) bahut kam yaa nahin ke barabar reporting ka koi justification samajh nahin aata, aapke dwara dia gai justification main bhi utna dam nahin lagta. pata nahin aap agree karenge yaa nahin.
Har channel ka apna agenda he, kuch ka bilkul saph, permanent aur jyada aur kuch ka thoda aur temporary. Jaise aaj Gen V K Singh ke ghar main ek army major bina documents ke ghusa tha , saare channels ne saph taur par bataya ki ek army major ghusa he par ek channel ne scroll chalaya ki ek aadmi ghus gaya he. he to bahut chhoti baat par, channels ke agenda ko saph karne ke lia likh raha hun.
waise jab tak aap aur Ashutoshji jaise patrakaar he, mujhe puri umeed he media houses ke maalik aur editor ek seema se bahar nahin jaa painge. waise ashutoshji aajkal gayab he IBN7 se, kuch khabar ho to batain.
प्रिन्ट मीडिया जिसका माध्यम ही लुग्दी है, pulp से दूर है
http://www.thehindu.com/news/national/article4249405.ece?ref=video
http://www.thehindu.com/news/national/article4249597.ece?ref=video
nice article..yes ur right. TV channels hv gr8 impact of social media. n yes now i undestand y u call chennel as lannel nd hindi as lindi...
"वही मानव संसाधन जो साल भर घोर पारंपरिक या कई मामलों में स्त्री विरोधी छवियों को गढ़ता है उसी को आप चार दिनों में नारीवादी मूल्यों के प्रति सचेत कैसे बना देंगे..."
बहुत ही महत्त्वपूर्ण टिप्पणी...और आलेख...
Achha likha sir ji ...ye kuch log ndtv aur ibn7 ko gaali de te hn ?? Khass kar ke Hindu fanatics....
बहुत उम्दा और तथ्यपरक लेख। आपने सभी पक्षों का बहुत बढ़िया विश्लेषण किया। आपने समस्या की बहुत विस्तारित और उन्नत शब्दों में विश्लेषण किया।
रवीश जी, आपकी बातें बेशक उत्तम हैं बल्कि अतिउत्तम हैं मगर आप तमाम तफ्शीलात के बीच तो खुद भी हैं न? ये बिल्कुल एसे है जैसे कोओं की बारात के बीच कोआ ही कोओं की कर्कशता को उजागर करे। बकौल आप ही इस पर आपने कमेंटरी तो कर ली पर होगा क्या, इस कल्चर को कैसे बदला जा सकेगा। आम टीवी दर्शक जो कि जानता भी केवल हिन्दी ही है उसके घर पर तो आपके टीवी चैनल जबरी ही घुस आते हैं न उसके पास तो विकल्प ही नहीं है वो क्या करे। अब अपनी ट्वीटर की भाषा में न कहना "टीवी कम देखो"
बहुत पहले मैंने एक लेख पढ़ा था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (न्यूज़ चैनेल्स ) और प्रिंट मीडिया के द्वन्द का । उसमें तमाम बातों के साथ इस बात का भी जिक्र था की भले ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कितना भी तेज़ और जल्दी खबरें लोगों तक पहुंचाता हो (उदाहरण के लिए किसी क्रिकेट मैच का स्कोर या परिणाम ), लोगों को फिर भी अगले दिन उसी खबर को अखबार में विस्तार से पढने की दिलचस्पी बनी रहती है। अगर आपको याद हो तो जब आज तक DD 2 पे आता था रात 10.30 बजे तो उसके प्रचार में भी यही दिखाते थे की सब लोग न्यूज़ पेपर वितरक को पेपर वापस (पेपर उसी के ऊपर फेंकते थे ) कर देते थे । उस समय तक सोशल मीडिया का नाम भी नहीं था ।
तब से समय बहुत बदल गया है । आज सोशल मीडिया बहुत शक्तिशाली माध्यम है अपने विचार व्यक्त करने का और दूसरों के ऊपर थोपने का भी ।
बहुत सारी खबरें जो की न्यूज़ चैनेल्स में शायद ही आती हों , आपको बहु आसानी से सोशल नेटवर्किंग साइट्स पे मिल जाएँगी ।
यहाँ एक बात गौर करने वाली है की न्यूज़ चैनेल्स को खबर प्रसारित करने के पहले उसकी प्रमाणिकता जांचनी होती है साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होता है की खबर के प्रसारण से क़ानून और व्यवस्था न बिगड़े , और सबसे बड़ी बात संयमित भाषा का प्रयोग करना होता है । वहीँ सोशल मीडिया के साथ ऐसी कोई बंदिश नहीं है । हैदराबाद में भाग्य लक्ष्मी के मंदिर में आरती में आप घंटा नहीं बजा सकते , ये खबर आपको सिर्फ सोशल मीडिया ही दे सकता है । ओवैसी का भाषण अगर आज चर्चा में है तो सिर्फ सोशल मीडिया के कारन। जिन न्यूज़ चैनेल्स ने वरुण गाँधी के भाषण पे आकाश पाताल एक कर दिया था उनका ओवैसी के मुद्दे पे चुप रहना कई लोगों को अखरा । चलिए नेताओं को छोड़ देते हैं, उनका वोट बैंक का चक्कर समझ में आता है लेकिन न्यूज़ चैनेल्स को तो इसे दिखाना था । माना की उस दिन दामिनी का मुद्दा था लेकिन एक से ज्यादा खबर भी एक साथ चल सकती है ।
सिर्फ ये बोल देना की उस दिन दिल्ली में बलात्कार का मुद्दा हावी था , काफी नहीं है।
आज न्यूज़ चैनेल्स के साथ विडंबना यह है की अगर वो कांग्रेस के खिलाफ बोलते हैं तो उन पर ये आरोप लगता है की संघ समर्थक हैं और भाजपा के खिलाफ रिपोर्टिंग की तो कांग्रेस फंडेड का लेबल मिल जाता है । वहीँ सोशल मीडिया खुले आम सिर्फ अपना पक्ष रखती हैं, दूसरे पक्ष के बारे में सिर्फ कुछ अच्छा बोलने मात्र से वो आपको ब्लाक कर सकते हैं ।
सोशल मीडिया की अगर तुलना करनी हो तो क्षेत्रीय दलों से कर सकते हैं , जैसे क्षेत्रीय दल दबाव दाल के अपनी कोई भी मांग सरकार से मनवा सकते हैं, वैसे ही आज की तारीख में सोशल मीडिया इतनी पावरफुल है की वो किसी भी खबर को इतना फैला सकता है की न्यूज़ चैनेल्स को उसे दिखाने के लिए बाध्य होना ही पड़ेगा।
Ravish ji, sarv pritham dhanyawad is utkrist aalekh ke liye. maine print madhyam ko hamesha 24*7 khabariya channels se behtar paya hai. Lekin aaj k is internet k daur me nishchit rup se social media tv channels ke liye ek badi chunouti bankar ubhra hai. Jaha kisi b ghatna ko sabse pahle share krne aur bhavnatmak atirek ko comment ya share krne ka trend sa chal pada hai. Is dasha me logo ko aakarshit krne k liye hum sansanikhejkaran prarambh kar chuke hai, dusri oor ek badi kadwi sachai ye b h ki adhikansh tv news anchor celebrities jaise mane jane lage hai, phalswarup ek hi sath socil media pr b active rahne, aur sada busy tv par kam ke chakkar 'vivek' kahin hashiye par chala gaya hai. Isliye adhikansh channels aur patrakaron k pas aatma manthan k liye waqt kaha bachta hai,....aap ko aabhar, soch ko naye aayamon ki taraf le jane k liye
यह लेख काबिले तारिफ है तथा बिना किसी पुर्वाग्रह का लिखा गया है ।
TV kam dekhiye!!!... I like it always
TV kam dekhiye!!!... I like it always
Ek baat kehna chaahungi--ek din jab main aur meri dost safdurjung ke baahar silently placards aur candles jalaakar baithe the..tab ek English channel ki journalist ne aakar humse baat ki aur puchha ki byte dena chahti hai..meri dost ne bolna(english me)shuru kiya lekin ek-do hindi words usne hindi me jaise hi bole,journalist ne kaha "Please ONLY ENGLISh!"..
mujhe thoda ajeeb laga..Emotions,Hurt,Anger pe
Bhasha ka zor toh nahi chalta,Na!
Gazab likha hai sir...
Thanks!
Waise to kuch had tk aap thik kh rhe hai...
Pr aaj jo v changes aaye hai....kahi n kahi media or khaskar tv ka yogdan rha hai...
Media ko advertisement pr kam dhyan dena chahiye....or anchor/reporter ko apni bhasa pe pkd honi bahut jaruri hai....kyoki aaj k yug me media ka ek insan pe gahra influence pdta hai......
Thank you I read your aryticle 1st time . I loked it.
thanks..kash yeh soch hamare pm padh le.
रवीश जी,
मै आपका कार्यक्रम प्राइम टाइम नियमित रूप से देखता हूँ। आपका संचालन, प्रस्तुतीकरण, भाषा-शैली उसे अत्यंत रोचक व विशिष्ट स्वरूप प्रदान करते हैं।
रवीश जी एक मनुष्य होने के नाते मै भी विचार करता हूँ और अनेक अवसरों पर यह विचार समाज, सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक कुरीतियाँ, सामाजिक सरोकारों, सामाजिक बदलाव आदि से भी सम्बंधित होते हैं। यद्यपि मैं मूलत: एवं पेशे से पत्रकार नहीं हूँ तथापि यदा-कदा अपने विचारों को उपलब्ध मंचो के माध्यम से यथासंभव उजागर भी करता हूँ।
मेरा मानना है कि अनेक अवसरों पर वैचारिक क्षमता या प्रतिभा प्रोफेशन के दायरों के बाहर भी मिलती है और कई बार तो चकित करने की सीमा तक होती है इसलिए संपादकों को पाठकों के पत्रों एवं प्रतिक्रियाओं को और भी गंभीरता से लेने की आवश्यकता को नकारा भी नहीं जा सकता।
एक बात मैं काफी समय से कहना चाह रहा था कि परसों के समाचार चैनलों के प्रस्तुतीकरण ने ऐसा किया कि मैं उस अभिव्यक्ति के प्रस्फुटन की छटपटाहट से मुक्त होने के लिए बाध्य हो उठा।
आर0 एस0 एस0 के मोहन भागवत के भारत और इण्डिया वाले बयान के बाद अधिकतर चैनेल उस टिप्पणी पर अन्य राजनीतिक दलों और महिला संगठनों की प्रतिक्रिया लेने और उसे दिखाने के लिए इस तरह आतुर हो गए जैसे कोई असाधारण घटना घटित हो गयी हो। यह तो एक स्थापित तथ्य है कि आर0 एस0 एस0 और बी0 जे0 पी0 दक्षिणपंथी विचारधारा के है वहीं कौंग्रेस और वामदल इनके धुर विरोधी हैं। आर0 एस0 एस0 और बी0 जे0 पी0 के परंपरागत विचारों से कौंग्रेस और वामदलो का वैचारिक मतभेद भी जगजाहिर है। यह भी सर्वविदित ही है की प्रत्येक समाज में दो प्रकार की मानसिकताए सदैव विद्यमान रही है और रहेंगी-
पुराणपंथी-आधुनिक, परम्परावादी-उदारवादी आदि। यदि एक मानसिकता का व्यक्ति कुछ भी कहेगा तो दूसरी मानसिकता वाले व्यक्ति द्वारा उसका खंडन, निंदा, भर्त्सना और विरोध उतना ही स्वभाविक है जैसे सांप-नेवले का सम्बन्ध। एक बात और। इन कहासुनी के केंद्र में नारी का होना अनिवार्य है। वरना आप ही बताइए कि दक्षिणपंथी विचारधारा के आर0 एस0 एस0 और बी0 जे0 पी0 के नेतागण कितने वक्तव्य देते होंगे परन्तु उनके समस्त वक्तव्यों पर विरोधियों से प्रतिक्रिया कौन लेता है? अगर वे अपनी किसी सभा में कहें कि पुरुषों को पैन्ट की जगह पैजामा पहनना चाहिए या कि पुरुषों को फ़िल्मी हीरो की नक़ल नहीं करनी चाहिए या कि भोजन के पूर्व हाथ धोना आवश्यक है तो इस प्रकार की बातों को कौन न्यूज़ चैनेल प्रमुखता से बताएगा या विरोधी से प्रतिक्रिया लेने जायेगा? क्या हमें सनसनीखेज टाइप पत्रकारिता या समाचारों को चटपटा बनाने से बचना नहीं चाहिए? ऐसे में समाचार दिखाने के लिए इस प्रकार के बयानों और उन पर विरोधियों की प्रतिक्रियाओं के प्रयोग पर पत्रकारिता के सिद्धांत क्या हैं इससे मैं अनभिज्ञ हूँ परन्तु एक दर्शक के रूप में मैं यह कह सकता हूँ इस तरह के कार्यक्रम अरुचि उत्पन्न करते है।
तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर न्यूज़ चैनेल कब तक यह आरोप-प्रत्यारोप, क्रिया-प्रतिक्रिया या तू-तू मैं-मैं की अन्त्याक्षरी दिखाते रहेंगे और वे इससे क्या हासिल करना चाहते हैं? कई चैनेल ने तो पूरा का पूरा दिन इसी पर बिता दिया। ऐसा नहीं है कि समाचार के लिए मुद्दों की कमी है। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की उदासीनता व इससे उत्पन्न समस्याएँ, गरीबों को अस्पतालों में मिलती दुत्कार व दवाओं का अभाव, शहरों में बुनियादी सुविधाओं के दावों और हकीकत में ज़मीन आसमान के फर्क, आम आदमी को छोटे छोटे प्रमाण-पत्र बनवाने में दिक्कतें, राजनीति की विसंगतियां, भारतीय और विकसित देशों की राजनीति की तुलना और उनमें गुणात्मक अंतर, कुपोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वरोजगार, प्रदूषण, पर्यावरण, नदिया, पानी का भविष्य, मंदिरों में अव्यवस्था यानी हिन्दुस्तान में जहाँ देखिये अछूते, ज्वलंत व नए मुद्दे मिल जायेंगे पर सवाल यह है कि जब चटपटे कार्यक्रम सहजता व सरलता से बन रहे हैं और आम आदमी देख भी रहे हों तो मौलिकता रचनात्मकता सृजनात्मकता आदि कौन सोचे?
मेरे पास आपका ई-मेल पता न होने से यहीं लिख रहा हूँ और क्षमाप्रार्थी हूँ।
Raveesh Ji,
It is also requested that you may discuss this issue on prime time, if you wish so. Thanks.
jo jitni der se comment kar raha hai vo fayde me hai kyonki use pehle wale ki alochna karne ka adhar mil jata hai.
apko bhi thoda intzaar karna chahiye tha bhale hi media par tippani hi kyon na ho
vaise mujhe bhi thoda wait karna chahiye tha.
Ravish jee..namskar..jab bbc sunana band kiya tab aapko dekhna sunana shuru kiya or aaj bhi aapki har baat vishvaas hota hai varna media halaat ko samajhne or nispaksh roop se dikhane ke bajaye halaat ko banane ka ghrinit pryaas kar rha hai jiske falsvroop uski visvaniyat aaj lagbhag kho chuki hai...
delhi Ghatna ki reporting par aapke cament ka intazar tha. bahut khoob.
it's a societal flaw, everybody is responsible.
very right sir..
vakai may, news news nahi TV show ho gaya hai
sach bat ya hia ki delhi may roj 1 rape hota hai pur ya news kabhi nahi bana. pur achanak hi log ladkio ki raksh kay liay kady ho gaya. in sab kay douran duniya mi kafi kuch acha aur bura hua. seria ki khabar mujko algzira kay news chanal say mili jab mai bor ho kar bas waha ruk gaya.
ya ab khabar nahi TV show ban gaya hai. panic create kar raha hai.
sir ji jo bhi hai atleast amid profit maximization they are more democratic than our government structure-jo janta ke liye,janta duara,janta ke issues ko hipe dete hain...
and yes individual introspection is just enough to bring out visible changes.
"boond-boond se sagar bharta hai".
भई मैने तो ब्लॉग भी पढ़ा और लोगों के कमेंट भी, मैं जितना चाह रहा हूँ उतना तो लिख नहीं पा रहा हूँ इसलिए एक वाक्य में कहना चाहता हूँ कि "पत्रकारिता की नई परिभाषा"- रविश कुमार्……॥
यू आर ऑसम सर ।
और कुछ लोग तो इसे अपने प्रतिद्वंदी के विकास के रूप में देख रहे हैं, जिससे की उनको घोर ईर्ष्या हो रही है, ये भी देखना एक आनंद की अनुभूति है…, चलिए ठीक है लेकिन जो लोग ऐसा कर रहे हैं उन्हे मैं बताना चाहुंगा कि भाई इसे कॉपी कर के अपने ब्लॉग में पेष्ट कर लो…, फायदे मे रहोगे…।
बेशक आपने जो लिखा वो बहुत सफाई और निष्पक्ष भाव से लिखा गया लेख है । और ये सवाल अब नया भी नहीं । लेकिन अब मौन नहीं रहा जाता रवीश जी ... पहले अपना दुर्भाग्य मान चुप हो लेते थे कि मिडिया के व्यवसायीकरण की होड़ एवं उससे उत्त्पन्न चकाचौंध के कारण अभी तक हमारे सच्चे और सशक्त (जिनके सोचने और करने से वाकई असर होगा) पत्रकारों की नज़र इस विषय पर नहीं पड़ी है । रवीश जी इस बात से इनकार नहीं की समस्या पर सवाल खड़ा करना पत्रकारिता का धर्म है, जरूरी नहीं की हल भी वही पत्रकार ढूंढ के लाये । लेकिन ये आग तो अपने ही घर में लगी है, तो बे बहस बुझाने का जुगाड़ भी हमें ही करना होगा, और भाग्यवश हमारे समाज में आज भी आप जैसे सशक्त और सामर्थवान पत्रकारों की कमी नहीं । अगर ऐसे 10 - 20 लोग एक हो निर्णय कर लें तो हालात बदलते कितनी देर लगेगी ? व्यवसायीकरण की स्पर्धा और हमारी आर्थिक पूर्तियों पर तो कोई सवाल ही नहीं है साहब ! जब हम में से ज्यादातर लोग एक ही रंग से रंगे होंगे तो चुनाव तो इन्हीं में से होगा जैसा अभी हो रहा है ! हालांकि ये इतना भी आसान नहीं ... लेकिन अगर रवीश कुमार भविष्य में होने वाले अनिष्ट की आशंका से चिंतित हो जब इस मुद्दे पर निष्पक्ष लिखने को बाध्य हुए ... तो क्या आप जैसों को रोल मॉडल मान कर आने वाली पीढ़ी के भविष्य की चिंता आपकी ज़िम्मेदारी नहीं ? क्या वो बाध्य नहीं करता आपको दो कदम और आगे बढ़ने के लिए ? मेरा सवाल यही है आपसे ... रवीश जी एक सेकंड की देर नहीं लगती हमें किसी पुलिस अफसर को उसका फ़र्ज़, ईमान, ज़िम्मेदारी और देश को दिए वचन याद दिलाने में ! लेकिन उस वचन का क्या जो आप और हमने पत्रकारिता में आने के समय खुद से किया, समाज के प्रति खुद को ज़िम्मेदार और संवेदनशील मानते हुए ? क्यूंकि ये तो मैं दावे से कह सकता हूँ की आप उस दौड़ के पत्रकार नहीं जब सिर्फ आर्थिक समृधी और बड़े नाम की लालच से इस दुनियां में आ गए हो !! बेसब्री से मुझे इंतज़ार रहेगा आपके उस लेख का जिसमें आप उसी बेबाकी से इस समस्या का समाधान लिखेंगे :)
डेढ़ साल से ज्यादा हो गया टीवी को एज टीवी देखे हुए | क्यूंकि कुछ इंटरेस्टिंग आ ही नहीं रहा | और यही न्यूज़ का "इंटरेस्टिंग" हो जाना ही चैनल को "लैनल" बना दे रहा है | पिछले दिनों लाइव टीवी पर फोलो करने की कोशिश की | गैंग-रेप से सम्बद्ध बातों को अगर सोशल मीडिया और टीवी पर देखा जाए, तो जैसा आपने लिखा उसी तरह , हाथ में हाथ डालकर चले ये दोनों मीडिया | अफवाहों पर चलने वाले इस देश में ये हो जाना घातक है |
Thanks for sharing above article. The concept you have used is really very clear & contents are too good. Wish you would share your more stuff with us soon.
How iphone
sir, mai sach me bhagwan(allah) ka sukr gujar hun k unho ne aap jaise sachey insan ko bnaya,kitni sacchai aur dridhta se aap ne sachai btayi,sir ur way of talking and simplicity realy inspire us.we thank to god.
Ravish ji,mai manta hu ki social media jansoch janane ka ek accha madhyam hai,pr iski pahuch bahut simit hai. Samachar channlo ka social media ke dabaw me aana shubh sanket ni hai kyoki social media pr trend bdlte der ni lgti.
आज देश का हर समस्या बाजार का रूप धारण कर लेता है ! देश का चौथा खम्बा भी इस भेड़िया धसान मानसिकता से उबर कर नया नजरिया पेश कर पाने में असफल नजर आता है ! गहराई से समस्या के वजह और उसका निदान मीडिया की प्राथमिकता नही,समस्याओं से टीआरपी निचोड़ने में व्यस्त लगता है !आपका लेख तथ्यपरक और बढ़िया विश्लेषण लगा ! इस लेख से मीडिया जगत में जुड़े लोगो को नसीहत भी लेनी चाहिए जिसका इशारा आपने किया है !
रविश जी मै आपका फैन हूँ :::::::::क्या आप मुझे एक पर्सनल बात बता सकोगे ?????
आज जिस चीज की सबसे जादा जरुरत भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ ऊठा रहा है उसीको बैन करके रख्खा है ? क्या आपको जच रहा है ?
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