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ब्राह्मणवाद सिर्फ ब्राह्मणों की देन नहीं है। सही है कि ब्राह्मणों ने इसे प्रचारित किया लेकिन ब्राह्मणवाद को गढ़ने में सत्ताधारी(क्षत्रिय) वर्ग ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। ब्राह्मणवाद सिर्फ वर्ण आधारित विचारधारा नहीं है बल्कि वर्ग आधारित भी है। इतिहासकार डॉ प्रदीप कान्त चौधरी अपने इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कोई चार सौ पन्नों की अपनी किताब RAMA WITH AN AXE,myth and cult of parsurama avtara में परशुराम कथा की मिथकीय यात्रा का काफी बारीकी से वर्णन करते हैं। एक इतिहासकार के रूप में प्रदीपकान्त की कोशिश है कि मिथक की संरचना की तमाम प्रक्रियाओं को समझा जाए और देखा जाए कि किस तरह कई जाति संप्रदायों के प्रतीक बनने के साथ साथ परशुराम उत्तर भारत के गंगा के मैदानी इलाकों में कम, दक्षिण के कोंकणी इलाके,जिसकी सीमा गोवा से लेकर केरल तक जाती है,में ज्यादा पूजे जाते हैं।
आजकल आप हरियाणा और उत्तर प्रदेश में परशुराम जयंती के आस-पास परशुराम के पोस्टर देखते होंगे। ब्राह्मण महासभा जैसे संगठन अपने सैन्य चरित्र के उभार के लिए परशुराम को अपना प्रतीक बनाते हैं। समझना ही होगा कि क्यों आज के दौर में विद्वता और विनम्रता से जुड़े तमाम प्रतीकों को छोड़ कर क्षत्रियों से लोहा लेने वाले मिथकीय किरदार परशुराम को अपना प्रतीक बनाते हैं? राजनीति के हाशिये पर पहुंचा दिये गए ब्राह्मण अपनी ताकत की दावेदारी के लिए परशुराम को प्रतीक बना रहे हैं।
लेकिन प्रदीप कान्त चौधरी राजनीति के झंझटों से निकल कर खुद को इतिहास लेखन और शोध तक ही सीमित रखते हैं। बताते हैं कि परशुराम कई जातियों के सामाजिक धार्मिक प्रतीक रहे हैं। सिर्फ ब्राह्मणों के नहीं हैं। इक्कीस बार क्षत्रिय कुल के विनाश की मिथकीय यात्रा और दाशरथी राम के हाथों पराजित होने की कथा के बीच परशुराम की एक समानंतर कथा भारत के दक्षिणी तटीय इलाकों में भी मौजूद है। किस तरह से परशुराम ने सागर को धकेल कर कोंकण को ज़मीनी इलाका तोहफे में दिया। तभी आप गोवा जायेंगे तो वहां के सरकारी म्यूज़ियम में परशुराम को गोवा का संस्थापक बताया गया है। लेकिन जब आप उत्तर भारत में परशुराम को खोजते हैं तो इस तरह की व्यापक मौजूदगी नहीं मिलती है। बिहार के अरेराज के महादेव मंदिर में इतिहासकार प्रदीप कान्त चौधरी परशुराम की प्रतिमा को ढूंढ निकालते हैं लेकिन पाते हैं कि वहीं के महंत को इस बारे में कुछ खास जानकारी नहीं है। इस प्रतिमा को राम सीता और लक्ष्मण की प्रतिमा से ढंक दिया गया है और परशुराम की पूजा तक नहीं होती। यह बताता है कि कालक्रम में परशुराम की ब्राह्मणों के बीच क्या स्थिति थी।
ऐतिहासिक साक्ष्यों में भी परशुराम की पूजा अर्चना की खास जानकारी नहीं मिलती है। प्रदीप कान्त चौधरी तर्क करते हैं कि दाशरथी राम के हाथों परशुराम की हार की मिथकीय कथा से मालूम चलता है कि परशुराम का किरदार बहुत लोकप्रिय नहीं था। तुलसी के रामायण में परशुराम का नकारात्मक किरदार है। वाल्मीकि रामायण में कहीं ज़्यादा सकारात्मक है। सबसे दिलचस्प है चार प्रमुख जाति वर्गों द्वारा परशुराम को अपने प्रतीक के तौर पर पूजे जाने की जानकारी। कोंकणस्थ ब्राह्मण की परंपरा के अनुसार परशुराम बिहार के तिरहुत से दस परिवारों को लेकर आए और उन्हें आधुनिक गोवा के नाम से मशहूर गोकर्ण में बसाया। इसका बहुत ही विस्तार से वर्णन किया गया है। पुस्तक को जानबूझ कर राजनीतिक विवाद से बचाने की कोशिश की गई है। इससे लोग बिना पुस्तक पढ़े संपादकीय तो लिख देंगे लेकिन परशुराम पर काफी मेहनत से किये गए शोध का ऐतिहासिक समझ बनाने में लाभ नहीं उठा सकेंगे।
कई राजपरिवारों ने भी परशुराम को प्रतीक के रूप में इस्तमाल किया है। केरल के इडापिल्ली के नम्बूदरी ब्राह्मण राजा का दावा है कि उनका वंश तब से मौजूद है जब से परशुराम ने समुद्र को धकेल कर इस जगह को बनाया था। यानी अपनी पौराणिकता का दावा परशुराम से किया जा रहा है। वहीं मिथिला के इलाके में परशुराम की कोई कथा नहीं मिलती है। लेकिन आज कल आप परशुराम की सबसे ज़्यादा तस्वीर हरियाणा और यूपी में देखेंगे। बल्कि दोनों राज्यों में परशुराम जयंती पर राजकीय अवकाश भी मिलता है। हाल ही में समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मणों को लुभाने के लिए परशुराम जयंती को चुना था। लेकिन इतिहासकार प्रदीप कान्त की यह जानकारी भी कम दिलचस्प नहीं है कि परशुराम का इस्तमाल उच्चवर्गीय ब्राह्मणों ने भौतिक संपदा को बढ़ाने के लिए परशुराम के ज़मीन पैदा करने के मिथक का इस्तमाल किया तो अतिशूद्रो ने अपनी सामाजिक हैसियत बढ़ाने के लिए किया। नंबूदरी ने यह दावा करने के लिए कि ये ज़मीन परशुराम देकर गए हैं उसे कोई नहीं ले सकता है। अतिशूद्रो ने परशुराम की मां रेणुका को अपनी देवी के रूप में भी पूजा है। परशुराम ने पिता के कहने पर अपने मां की हत्या कर दी थी।
मैंने इस पुस्तक की समीक्षा आज के संदर्भ में करने की कोशिश की है। अगर आप यह जानना चाहते हैं कि किस तरह से वेदों की परंपरा से निकल कर कोई कथा पुराणों में दूसरा रुप धरती है और पहुंच जाती है लोक कथाओं में और फिर वहां से जब पुराणों में लौटती है तो उसका रूप कुछ और हो चुका होता है,तो इस किताब को पढ़िये। कैसे एक दौर में परशुराम की कथा को उठाया जाता है और कैसे दूसरे दौर में गिरा दिया जाता है। अक्षय तृतिया के दिन परशुराम जयंती पर अवकाश घोषित कराने वाले ब्राह्मण संगठन भूल जाते हैं कि परशुराम आधे ब्राह्मण थे। उनकी मां,दादी और परदादी क्षत्रिय थीं।
परशुराम की कथा को समझने के लिए यह एक उपयोगी पुस्तक है। डॉ प्रदीप कान्त चौधरी मेरे टीचर भी हैं। बहुत दिनों से मुझे इनकी इस पुस्तक का इंतज़ार था। अंग्रेज़ी में आई है और आगे हिन्दी में भी लाने की कोशिश है। यह किताब सिर्फ परशुराम की मिथकीय यात्रा को समझने के लिए नहीं पढ़ा जाना चाहिए बल्कि यह जानने के लिए भी कि किस तरह से कालक्रम् में कोई मिथक अपना रूप बदलता रहता है। इसे छापा है आकार बुक्स ने। प्रकाशक का टेलिफोन नंबर है-011- 22795505। flipkart.com पर भी यह किताब उपलब्ध है। आपके कुछ भी सवाल हों तो आप इतिहासकार से सीधा संपर्क कर सकते हैं। उनका ईमेल है- pkcdu@yahoo.com। समीक्षा में सारी जानकारियां नहीं हैं। आपके कई सवाल होंगे इसलिए या तो इतिहासकार से बात कर लें या फिर किताब लेकर पढ़ सकते हैं। एक और बात है कि इस समीक्षा का मतलब किसी भी जाति विशेष को विशेष रूप से ठेस पहुंचाना नहीं है। बल्कि एक मिथकीय ऐतिहासिक किरदार के आस-पास बुनी जाती रहीं कथाओं को सामने लाना है। वैसे मैं जाति का विरोधी रहा हूं। ठेस पहुंचने की बजाय जाति खतम हो जाए तो राहत मिले। वैसे यह सपना मेरी जीवन में तो नहीं पूरा होने वाला।