दिल्ली आते ही घर और कमरे का मतलब बदल गया। गृहस्वामी को मकान-मालिक कहते सुना तो अजीब लगा। पटना में घरों को हम शर्मा अंकल,तिवारी जी का मकान,यादव जी का घर,रामबालक बाबू का मकान,केशव बाबू,उदय बाबू का मकान,पांडे जी का मकान। पूरा मोहल्ला मकानों को इन्हीं जातिसूचक और व्यक्तिगत सूचक नामों से जानता था। इन नामो से आप यह भी महसूस कर सकते हैं कि मैं जिन जगहों पर रहा और जिन मकानों में गया,उनमें दलित नाम वाले मकान नहीं थे। पता चलता है कि हमारी ज़िंदगी के सामाजिक अनुभवों में इस चीज़ की कितनी कमी रही है। मैंने बाद में इस कमी को पूरी कर ली लेकिन मध्यमवर्गीय विकास के मोहल्लों में दलितों के मकान आज भी नहीं मिलेंगे। खैर मकसद लिखने का कुछ और है।
दिल्ली आ गया था। गोविंदपुरी। प्रोप्रटी डीलर घरों को कमरों में बांट कर पेश कर रहा था। एक वन रुम है, कहिये तो टू-रूम सेट या बरसाती चलेगा? भकुआ जाता था। घर का हर कोना किराये के लिए काट दिया गया था। मैं किसी महल से निकल कर दिल्ली नहीं आया था। जहां रहता था वहां कमरा होता भी था और नहीं भी होता था। लेकिन एक कमरा अपने आप में पूरा घर हो जाएगा,ये कभी नहीं सोचा था। अपनी औकात भांपते ही प्रोपर्टी डीलर समझ गया और बोला कि जितने पैसे आप दे सकते हो,उसमें वन रूम सेट या बहुत से बहुत बरसाती मिलेगी। बरसाती रहने की उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके तहत मकान बनने के बाद बचे खुचे सीमेंट गारे से छत पर एक कमरा बन जाता है। जिसकी छत एस्बेस्टस शीट की होती थी और होती है। वन-रूम सेट के अलग-अलग पैमाने थे। किसी में आलमारी तो किसी में नहीं। किसी में टेबल फ्री तो किसी में नहीं। अगले दस साल तक न जाने कितने वन-रुम सेट बदले। मज़ाक में कहता था कि अपनी ज़िंदगी वन-रूम सेटहा हो गई है। सात सौ लेकर पंद्रह सौ रुपये तक के वन-रूम सेट। उन्नीस सौ नब्बे की बात बता रहा हूं।
हम प्रवासी छात्रों के लाए सामानों से जो वन रूम भरता था उसका भी खाका खींचना ज़रूरी है। कमरे के एक हिस्से में किरासन तेल वाला स्टोव,ऑमलेट बनाने के लिए पैन,पिन,चाय के लिए बर्तन,दो कप और दो थालियां। एक कोने में चटाई,रजाई और बिस्तर। तीन चार किताबें। रैपिडेक्स इंग्लिश तो होती ही थी। इन्हीं तीन-चार किताबों से प्रवासी छात्रों और प्रवासी मज़दूरों के वन रूम सेट कमरों के बीच फर्क बनता था। कमरे के एक छोर से दूसरे छोर को छूती एक रस्सी। जिस पर लटके रहते थे हमारे कपड़े। और हां..एक बीस रुपये का रेडियो भी था। सबसे पहले खाने का तरीका बदल गया। घर पर मां थाली में परोस देती थी। अब पोलिथिन में दाल और ठोंगे में तंदूरी लिये चले आ रहे थे। दाल-फ्राई खाना नया अनुभव था। मालूम नहीं था कि काली दाल और पीली दाल इस टाइप के नामों से दाल पुकारी जाएगी। पुकार के कम दुत्कार के नाम ज़्यादा लगते थे। दिल्ली आने से पहले राजमा से तो भेंट ही नहीं हुई थी। गोविंदपुरी के ढाबों में राजमा चावल खाना शुरू कर दिया। दालभात सब्जी और चटनी खाने की आदत समाप्त। दाल फ्राई और रोटी नया कंबिनेशन बन गया। तवे और तंदूर की रोटी का फर्क बना। नाश्ते से दही-चूड़ा गायब। ब्रेड-ऑमलेट घुस गया। कभी-कभी तो ब्रेड-ऑमलेट भी मुख्य भोजन बन जाता था। और हां...पानी रखने के लिए बोतल। बाद में पेप्सी और कोक के पांच लिटर वाले बोतल छात्रों और मज़दूरों के घरों में पानी जमा करने के सबसे लोकप्रिय साधन हो गए। और हां...प्रवासी छात्रों के कमरे में छुपा कर या सामने रखा गया टिकाऊ नाश्ता। नमकीन और ठेकुआ। फ्रिज आधारित दुनिया के बनने से पहले के टिकाऊ नाश्तों का उत्तम प्रबंध दिल्ली के वन-रूम सेट कमरों में हुआ करता था।
पहनावा भी बदला। पायजामा समाप्त। उसकी जगह जनपथ से पच्चीस-पच्चीस में खरीदे गए हाफ पैंट,जिसे क्लासी लैंग्वेज में शाट्स कहा जाता है,पहनने लगा। कुर्ते की जगह पच्चीस रुपये वाली होजियरी की टी-शर्ट। कैट बिहारी बनने की ये मामूली शर्तें बनती जा रही थीं। कैट इसलिए कहलाए गए कि हम बदल रहे थे। अजीब अजीब किस्म के कपड़े पहनने लगे। जीन्स का हमला हुआ। धोने से छुटकारा और फटेगा नहीं के नाम पर बदन के नीचले हिस्से से चिपक गया। मोहनसिंह जी पैलेस एक नया पता ज़िंदगी में शामिल हो गया। दिल्ली की ठंड के आंतक ने सर्दी के कपडे भी बदलवा दिये। तिब्बती मार्केट से जैकेट खरीदा गया। शायद गामा जैकट कहलाता था। हर जैकेट इस दावे से खरीदा जाता था कि ये दिल्ली की सर्दी का अचूक काट है। अब जैकेट फैशन के लिहाज़ से खरीदता हूं। गामा जैकेट पर अलग से लिखा जाना चाहिए। कैसे पर्यावरण के बदलने के साथ गामा जैकेट गायब हो गया। सिपाही से लेकर स्टुडेंट और ऑटोवाले सब गामा जैकेट पहनते थे। मोटा और भारी-भरकम जैकेट। लबादा लाद लिये हों,ऐसा लगता था। गामा जैकेट पांच सौ रुपये का। रईस या दुलारे प्रवासी छात्रों अपने मां-बाप की कृपा से गामा जैकेट पहनते थे। पटना से फोन आता था कि अंटार्कटिका की सर्दी की कल्पना के सहारे सवाल निकलते थे। अब लोग दिल्ली की ठंड के बारे में इस तरह के सवाल नहीं करते। अब कहते हैं कि दिल्ली में ठंड है या नहीं।
जिस ठंढ के बारे में दावा किया जाता था,उसके बारे में सवाल किया जा रहा है। कोपनहेगन जाने की कोई ज़रूरत नहीं है।
लेकिन बात मैंने घरों के कमरों में वितरित कर दिये जाने से शुरू की थी। वन रुम सेट भी भांति भांति प्रकार के। कमरा टेढ़ा तो बाथरूम कहीं और। किचन दोनों के बीच की एक संकरी सी गली में। रोशनी के लिए बल्ब का सहारा। कहीं आप वन-रूम सेट वाले मकान मालिक के बारे में तो नहीं जानना चाहते। इन मालिकों का वर्णन कभी और। वैसे हर मकान-मालिक यही पूछता था कि कॉलेज में पढ़ते हो,लड़की तो नहीं आएगी। शादी हो गई है? नौटंकी करता था। तब तक हम भी किसी लड़की को नहीं जानते थे। इसलिए ये सवाल ही समझ में नहीं आता था कि कहां से और कैसे लड़की आ जाएगी। बस जवाब का टोन ऐसा होता था जैसे महाभारत के भीष्म जी बोल रहे हों। प्रतिज्ञा टाइप शैली में। कोई लड़की नहीं आएगी। वन-रूम सेट के मालिक लड़कियों के विरोधी होते थे। लेकिन जब लड़कियों को कमरा देते थे तो ज़रूर पूछते थे कि लड़के तो नहीं आएंगे न। दिल्ली के ये मकान मालिक अपने कमरे को ऐसी एकांत जगह में नहीं ढलने देना चाहते थे जहां लड़का-लड़की मिल सकें। बहुत बाद में समझ में आया कि दिल्ली के ऑटो में लड़का-लड़की इस तरह से क्यों चिपके रहते हैं, जैसे ऑटो वाले ने फालतू में सीट चौड़ी कर दी हो। बाइक पर सवार पीछे बैठी लड़की को जब लड़के को जकड़े देखता था तो समझ नहीं आता था। पटना शहर में लड़कियों को स्कूटर या बाइक पर बैठे देखा था। इतनी दूरी तो होती ही थी जैसे लगता था कि अंकल जी बस की ड्राइवर की सीट पर बैठे हों और लड़की कंडक्टर की सीट के बगल में। तब पटना में बाइक स्कूट पर गर्लफ्रैंड नहीं बैठती थी। बाप-बेटी,भाई-बहन का कांबिनेशन होता था। इसीलिए दूरी का आभास होता था। दिल्ली में दूरी मिट चुकी थी। बाइट और ऑटो पर सवार लड़के-लड़कियों ने इसे वन रूम सेट में बदल दिया था। दुपट्टों से मुंह को ढंकने की कला। ज़रूर काले धुएं से खूबसूरती को बचाने का प्रयत्न होगा और कपड़ों के अंधेरे में अपने किसी के साथ होने के अहसास का एकांत।
मुझे पूरी दिल्ली वन-रूम सेट के ढांचे में ढली हुई लगती थी। एडजस्ट करती हुई दिल्ली। गोविंदपुरी,पुष्पविहार,कठवाड़िया सराय,मुनिरका,बेर सराय आदि आदि। ये सारी जगहें वन-रूम सेट से बसे शहर की तरह लगती हैं। मुनिरका में जिस कमरे में मैं रहता था वो एक ड्राइंग रूम था। उसमें दीवार नहीं थी। चारों तरफ से खुलने वाले लकड़ी के दरवाज़े थे। जब वन-रूम सेट की मांग बढ़ी होगी तो हंसराज जी ने इसे हम जैसे किरायदारों के लिए समर्पित कर दिया। दरवाजा खुलते ही पूरे सामान के साथ मेरा एक कमरे का मकान सड़क पर आ जाता था। सीढ़ी से उतर कर बाथरूम का रास्ता। टॉयलेटशीट के ऊपर लकड़ी रख कर नहाने का इंतज़ाम। वन-रूम सेट का सामाजिक अध्ययन होना चाहिए। ये एक किस्म की मानसिकता भी है। रहने वाले के प्रति सोच भी है। बेर सराय के एक कमरे को देख कर बाबूजी ने मज़ाक में कह दिया था। भूगोल की परिभाषा के अनुसार यह कमरा नहीं है। गुफा है। जिसमें जाने का एक ही रास्ता है। निकले का भी वही है। खिड़की नहीं थी। वन-रूम सेट में खिड़कियां कभी-कभार मिलती हैं। नब्बे के दशक में दिल्ली में भयंकर मात्रा में वन-रूम सेट का निर्माण हुआ है। आज भी जारी है। साठ फीसदी मकान वन-रुम सेट के हिसाब से बने होंगे।
एक खतरनाक किस्म की दम घोंटू प्राइवेसी। दरवाजे को खूबसूरत बनाने के लिए रविना टंडन या माधुरी दीक्षित टाइप की हीरोईनों की तस्वीरें। अमिताभ से लेकर सचिन भी होते थे। दरवाजों पर टंगे पतलून। बेल्ट और कमीज़ और भीतर की हैंडिल पर लटकता ताला। और हां..ताला बंद कर जाने की आदत। दरवाज़े पर छो़ड़े जाने लगे नोट्स। कहां गए हैं और कब आयेंगे। ताकि आकस्मिक आगंतुक को सूचना मिल जाए। मोबाइल ने इस आदत को समाप्त कर दिया। खैर दिल्ली के कमरों पर लिखना जारी रहेगा। ताला अभी बंद नहीं हुआ है।पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त।
31 comments:
bahar se aaye student ya majdooron ke liye dilli ki one room set ek haqeeqat ho gai hai. Aapne sahi kaha hai iska samajik adhyayan hona chahiye. Aajkal aap baar baar dil ko chute hai aur o bhi kaafi andar tak.
Dhanyavaad
रविशजी ,
कुछ दिन पहले हीं पटना / घर से लौटा हूँ . अब तो कंकड़ बाग़ और पश्चिमी पटना में भी एक रूम धड़ल्ले से बन रहे हैं.जो
की पटना की "आधुनिक अर्थव्यवस्था" की मांग के तहत हो रहा है. यूँ तो अगर आप वाकिफ हों तो पूर्वी पटना ,खास कर पटना विश्विद्यालय के पास के मुहल्लों ,सैदपुर ,मुसल्लहपुर हाट ,आदि में वन रूम सेट के पटना संसकरण तरह -तरह के लौजों के रूप में अपनी फुल ग्लोरी और खूबियों के साथ मौजूद है.
हाँ यह बात अलग है की दिल्ली के वन रूम सेट राजधानी के शान - ओ - शौकत और बाजार की मांग से बनी हुयी चीज है.और विविधतायों और human ingenuity के नायाब नमूनें हैं.
रविशजी , दिल्ली युनिवेर्सिटी /कॉलेज के होस्टलों में प्रवासी बिहारी छात्रों का अनुभव भी कम अनोखा नहीं था.१७-१८ साल के किशोर इस मायावी महानगर के जादू और जादूगरनियों के तिलस्म में कैसे डूब उतरा रहे थे ,उस कथा को भी अगर कोई सामर्थ्यवान कहे ,तो अद्भुत होगा.
आप की चाहत के अनुसार ,ताड़ी के दीवानों की बैसाख -जेठ में लगने वाले जमघट की तस्वीर तो नहीं ला पाया हूँ पर इस दफा ताड़ी उतारने वाले की तस्वीर ले आया हूँ .उस तस्वीर को यथाशीघ्र भेजूंगा.
सादर
बहुत कमाल की स्टोरी है.. दिल्ली में रहने वाले हर बाहरी शख्स के मन की बात.. आंखे नम हो गई.. अल्फ़ाज़ नहीं है.. तारीफ़ के लिए...
बेहतर...
परिस्थितियां बदलने से बहुत कुछ स्वाभाविक रूप से बदलने लगता है...
संस्मरण की रवानगी मन को छूती है...
ji ravish ji .....namaste adaab salaam dua ssa hello .....shuru se hi appka fan hooon . appki spl reports jaise meri jindgi ka ek atoot hissa bnn chukki hain ......agar agla article app punjab par likhe..jo punjab mein pishle ik do saal se chal raha hae ..uss pur ...toh muje asliyaat se wakif honne ka mauka milega....hindi meri kuch achi nahi hae..lakin kosiih ki hae..galtian ho gaai hongi..maf kar dee jiyega
ravish ji mumbai se munirka ,ber sarai aur katwariya pahunchne mein 10 second lagey . faankon ka daur yaad kara diya aapne
ओह, क्या बेहतरीन बात पकड़ी है आपने साहब..वाह..दिल्ली की हालिया नब्ज थाम बैठे आप तो..!
यकीनन आपसे शत-प्रतिशत सहमत हूँ...!
गजब का अनुभव बांट रहे हैं रवीश जी
रविश जी यकीनन आपके एक एक शब्द में वो सच्चाई है जिनको लेकर दिल्ली आने वाला हर वो इंसान समझता है जो य़हां पर सपने लेकर आता है और शुरुआत करता है पहली सीढ़ी से। लेकिन आज के हालात के बारे में कहूं तो मकान की ये पहली सीढी भी आज इतनी उंची हो गयी है कि इस पर भी चढ़ना मुश्किल है, मुझे वो बात अच्छी लगी कि यहां के मकान भूगोल की परिभाषा में गुफा है और हम यहां के रहने वाले तुच्छ जानवर...विचारों को भावात्मक शब्द दिये हैं।
वाह वाह.... बहोत खूब..... मज़ा आ गया....!!!!
सर ज़रा दिल्ली यूनिवर्सिटी के आस पास के कमरो का भी बताइए.... जो कुल मिला कर एक छ्होटे दीवान (पलंग) से बड़ा नही होता...!! कॉमन टाय्लेट.... सुबह जाइए तो ज़रूर लेकिन कमरे पे ताला मार के... और वहाँ भी लाइन......!!!!
अभी उदास बैठा था। आपको पढ़ा तो मुस्कुराहट याद आ गयी। एक-दो बार तो हंसी भी आ गयी अकेले में। दर्द पर हंसी का जो मुलम्मा आप चढ़ाते हैं कि अपने ही ज़ख़्म टटोलने में आनंद आने लगता है।
katwariya sarai aap ne galat likh diya hai sir.
Ravish Ji
aaj achanak se bees saal purani baat kaise yaad aa gayi?
बेहतरीन प्रस्तूति
इस वन रूम सैट का पुराना तजुर्बा है। बचपन से ही अनेक देखे हैं, बदल-बदल कर।
भाई साहब आपने तो दिल की बात कह दी। आपने जितने कमरों का वर्णन किया है, शायद उन सबसे मेरा भी पाला पड़ा है। अब भी अपने वहां से आनेवाले लड़के और मजदूर उन्हीं घरों में रहते हैं और उनके लिए यह नया अनुभव होता है। मुझे लगता है आनेवाला समय और भयावह होगा और वन रूम सेट भी मिलना मुश्किल हो जाएगा।
SACHIN KUMAR
'दिल्ली आ गया था। गोविंदपुरी। प्रोप्रटी डीलर घरों को कमरों में बांट कर पेश कर रहा था। एक वन रुम है, कहिये तो टू-रूम सेट या बरसाती चलेगा? भकुआ जाता था। घर का हर कोना किराये के लिए काट दिया गया था।' ONE ROOM SET KA CHEMISTRY, GEOGRAPHY, HISTORY, SOCIAL AND ECONOMICS AND MANY MORE...WAITING FOR ONE ROOM SET MALIK'S STORY....KHA LIBRHAN PER CHARCH...KAHA ONE SET KI KAHANI...JAYAD AAM LOGO KI YAHI DIKHTI HAI AAM KA JINDGI ISI ONE ROOM SET ME KHAS HO JATI HAI SAYAD KHAS NAHI AAM HI RAHTI HAI...THNX...KAMAL...INTZAAR...BEKRAR BUT NOT TAKRAR SORRY FOR THAT....
शानदार संस्मरण...
अब बड़े फ्लेटो में ४बाय चार की खिडकिया बस तय समय पर धुप देती है .ओर लिफ्ट के पास बना एक बड़ा सा सुराख़ पूरी बिल्डिंग को हवा....सारा खेल आबादी का है .ओर सबको शहर में जो बसना है ........जग्गूदा की एक गजल है न ."हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी "
बहुत रोचक लगी यह कमरों की कहानी! हमारे जमाने में छात्रों के लिए छात्रावास होते थे। जब बेटियों को ऐसे कमरों में छोड़कर आई तो बहुत मजबूरी का एहसास हुआ था और अपने छात्रावास के कमरे की बहुत याद आई थी। आज फिर वही सब याद आ गया।
घुघूती बासूती
रवीश जी। जब मैन कट्वारीया सराय मे पहली बार १रूम सेट लेने गया (in 1999)तो मकान मालिक ने कहा " किसी भी तरह की लड्की नही आनी चहिये"।
जब आज देख्ता हू तो पता चलता है कि अब Live-in भी allowed है।
ज़माना कितना change हो गया है।
one room set आज भी है, बस लोग बदल गये है। हम और आप बस अपनी यादो को टटोलते रहते है। खुश होते रहते है।
Ravish ji se sahmat hun, par Dr Anurag se sahmat nahi hun...sabko Dilli me nahi basna hai, balki sabka haq maar kar dilli ko chamkaya/diya ja raha hai....Dilli ko pamper kar baqi Hindustan ko dutkara ja raha hai...vikas ki ghair-barabari ka natija hai ki 'Daal-bhaat, sabzi, chatni' ki jagah kali-dal, pili-daal par zindigi guzar rahi hai. Hindustan me jo farq 'ameer-ghareeb ke beech panpaya gaya wahi metro aur qasbon ke beech...Dilli k pratiek vyakti par nau-guna (9 times)adhik kharch kiya ja raha hai baqi bharat se, phir bhi agar 2rupiye doodh k daam badh jaen to Dilli ke well-groomed civil society members apni dining table ki TV coverage karwatey hain...Saji-dhaji aunties tamatar k damon ka rona roti hain...ki unki sabzi be-maza ho gayi...unke liye baqi Bharat wajood nahi rakhta jahan na bijli hai, na paani, na sadak, na school, na haspatal, na park, na community centre, na club. Baqi bharat k liye sarkar police-thaney banwati hai...sipahi ek dandey se gaon su-shasit karta hai.Thanedar, be-taaj Badshah!
Bahut badhiya varnan!
Dilli mein hi rahte '71 mein ham bhi barsaati mein rahe teen bachchoon ke saath! uske baad kiraaye ke one BHK, aur phir 2 BHK mein!
Kahte hain ki 'jagat ka ek chhatra maalik', Bhagwan/ Allah, bhi shunya se arambh kar anant tak pahunch gaya tha kabhi...ham to trishanku saman 2 BHK mein hi atak gaye!
सर आपने प्रवासी होने के दर्द और परेशानियों के साथ सांस्कृतिक भिन्नता और सामाजिक परिर्वतन को एक साथ शब्दों और भावनाओं की लड़ी सें पिरो दिया है ।
स्मिता मुग्धा आईआईएमसी
behad shandar lekh ravishji...takreeban har apravasi vidhyarthi is bemisl anubhav se gujarta hai...
pranam sir ji.
'one room ka romance' ki yatra me mai itna dub gaya ki aankh bhar aayi he.aapne jo jiya he vo aaj me ji raha hu.vahi govindpuri he jaha me 6 sal pahale aaya tha.deshbandhu college se graduation karna tha aur aankho me IAS ka sapna.abhi mai is jivan ko chah ke bhi nahi chor pa raha hu.chahta hu aise hi jita rahu.aapne aapni bhawnayo ko jis tarah se ukera he vah aadbhutt he.dil ko jhakjhor diya aapne.
sir ji ,chautha khamba mera blog he.yaha kahbi-kabhi mai aapni bhawnaye ya bharas nikal leta hu.
- mukesh kumar 'Gajendra'
sir ji ,chautha khamba mera blog he.yaha kahbi-kabhi mai aapni bhawnaye ya bharas nikal leta hu.
- mukesh kumar
maza aa gaya sir...i hav no any word to say abt this..
aapka naya fan..alok
Aap Mahaan hain sir...
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