हिंदी से डर लगता है। डरावनी हो गई है। सीबीएसई अब हिंदी के सवालों को हल्का करने जा रही है। प्राइवेट स्कूल इंग्लिश मीडियम होते हैं। गांव गांव में टाट की झोंपड़ी में इंग्लिश मीडियम स्कूल के बोर्ड लगे मिल जायेंगे। सुबह सबुह बच्चे सरकती हुई पैंट और लटकती हुई टाई लगाकर जाते मिल जायेंगे। सरकारी स्कूलों के बच्चे पैदल दौड़ लगाकार स्कूल पहुंच जाते हैं। लेकिन अब गांवों में भी स्कूली बच्चों के लिए जालीनुमा रिक्शा आ गया। इनमें बच्चे किसी कैदी की तरह ठूंस कर ले जाये जाते हैं। इंग्लिश मीडियम स्कूलों की तरफ।
मां बाप ने कहा कि इंग्लिश सीखो। हिंदी तो जानते ही है। घर की भाषा है। अब हिंदी से ही डर लगने लगा है। इसलिए सीबीएसई ने तय किया है कि अति लघु उत्तरीय प्रश्नों की संख्या बढ़ा देगी। अब हिंदी के भी सवालों के जवाब हां नां में दिये जायेंगे। गैर हिंदी भाषी बच्चों के लिए हिंदी का डर समझ भी आता है। घर से बाहर निकलते ही इंग्लिश सीखने वाले हिंदी से डरने लगे सुनकर हैरानी तो नहीं हुई लेकिन मन उदास हो गया। अपनी हिंदी डराती भी है ये अभी तक नहीं मालूम था। बहुत पहले विश्वात्मा फिल्म देखी थी। गुलशन ग्रोवर अजब गजब की हिंदी बोलता था। खलनायक के मुंह से शुद्ध या क्लिष्ट हिंदी के नाम पर निकले हर शब्द हंसी के फव्वारे पैदा करते थे। इस हिंदी को तो हिंदी वालों ने ही कब का काट छांट कर अलग कर दिया। मान कर चला जा रहा था कि सरल हिंदी का कब्ज़ा हो चुका है। व्याकरणाचार्यों के जाते ही हमारी हिंदी झंडी की तरह इधर उधर होने लगी। वाक्य विन्यास का विनाश होने लगा। वैसे मेरी हिंदी बहुत अच्छी नहीं है लेकिन मुश्किल भी नहीं है। ठीक है कि हम व्याकरण मुक्त हो चुके हैं लेकिन हिंदी बोलने वाले घरों के बच्चे क्या इस वजह से साहित्य नहीं समझ पाते क्योंकि भाषा का इतना अतिसरलीकरण कर दिया गया है कि अब मतलब ही समझ नहीं आता। इस पर बहस होनी चाहिए।
हिंदी से डर की वजह क्या हो सकती है? यह खबर हिंदुस्तान में ही पढ़ी। हिंदी का अखबार लिख रहा है कि कोई हिंदी का भूत है जिससे प्राइवेट स्कूल के बच्चे डर रहे हैं। उन्हें हिंदी के लिए ट्यूशन करना पड़ रहा है। ट्यूशन वैसे ही खराब है लेकिन अंग्रेज़ी के लिए ट्यूशन करने में कोई बुराई नहीं तो फिर अकेले हिंदी का भूत क्यों पैदा किया जा रहा है। मैं हिंदी राष्ट्रवादी की तरह नहीं लगना चाहता लेकिन मेरी ज़ुबान से उतरती हुई भाषा डरावनी कहलाने लगे चिंता हो रही है। वैसे हम भी अंग्रेज़ी से तो डरते ही हैं। कई लोग हैं जो कभी न कभी डरे। अंग्रेज़ी के भूत को काबू में करने के लिए नेसफिल्ड से लेकर रेन एंड मार्टिन और बच गए तो रैपिडेक्स इंग्लिश स्पिकिंग कोर्स का रट्टा मार गए। मेरे एक लेख की प्रतिक्रिया में शंभू कुमार ने ठीक ही कहा है कि बिहार यूपी के लड़के क्लर्क बनने की इच्छा में अंग्रेज़ी तो सीख ही जाते हैं। हम भी अंग्रेज़ी का मज़ाक उड़ाया करते थे। अंग्रेज़ी व्याकरण के कई किस्से बिहार यूपी में आबाद हैं। वह गया गया तो गया ही रह गया। घो़ड़ा अड़क कर सड़क पर भड़क गया टाइप के मुहावरे खूब चलते थे। चुनौतियां दी जाती थीं कि इसका ट्रांसलेशन करके दिखा दो। लेकिन हम कभी स्कूल से मांग करने नहीं गए कि बोर्ड को बोलो कि अंग्रेज़ी का भूत परेशान कर रहा है। इसका सिलेबस बदलो।
दरअसल प्राइवेट स्कूलों के रसूख इतने बढ़ गए हैं कि वो ढंग के हिंदी टीचर रखने की बजाय बोर्ड पर दबाव डाल कर सिलेबस बदलवा देते हैं। सब आसान ही करना है तो फिर इम्तहान क्यों रहे। विद्वान तो कह ही रहे हैं कि इम्तहान की व्यवस्था खत्म कर दी जाए। ग्रेड न रहे। इसके लिए तो स्कूल वाले दबाव नहीं डालते। पश्चिम बंगाल की सरकार ने अपने बोर्ड की परीक्षाओं में ग्रेड सिस्टम लागू कर दिये हैं। बिना किसी दबाव के। सीबीएसई कब से ग्रेडिंग सिस्टम लागू करने पर बहस कर रही है। क्यों नब्बे फीसदी का एलान किया जाता है। इतने नंबर वाले बच्चे क्या हिंदी में नंबर नहीं ला सकते। जब रटना ही है तो हिंदी भी रट लो।
मुझे लगता है कि हिंदी का भूत पैदा किया जा रहा है। ताकि हिंदी गायब हो जाए। इंग्लिश मीडियम का हाल ये है कि अच्छी इंग्लिश लिखने वाले कम हो गए हैं। इंग्लिश के लोग ही शिकायत करते हैं कि प्राइवेट स्कूलों के बच्चों को ए एन द जैसे आर्टिकलों का प्रयोग ही नहीं मालूम। प्रिपोज़िशन का पोज़िशन गड़बड़ कर देते हैं। भाषा का भूत नया है। देखते हैं कि प्राइवेट स्कूल वाले इस भूत को कितना नचाते हैं।
28 comments:
सही है आपकी शिकायत शुभकामनायें
हिन्दी का भुत स्कुलों ने ही नहीं अभीभावको ने भी खड़ा कर रखा है.. जब मैं पढ़ाता था तो कुछ तो गर्व से कहते है.. बाकि सब में तो अच्छा है पर हिन्दी में कमजोर है? मन में सोचता था भाई तुम जापान से आये हो क्या? आपने सही कहा
"दरअसल प्राइवेट स्कूलों के रसूख इतने बढ़ गए हैं कि वो ढंग के हिंदी टीचर रखने की बजाय बोर्ड पर दबाव डाल कर सिलेबस बदलवा देते हैं"
raveesh bhai, hindi banaam angrejee kee bahas kafi pehle se chali aa rahee hai....main sirf itnaa kehnaa chaahtaa hoon ki aaj ke daur mein ham angrejee kee awhelnaa to nahin kar sakte magar hindi bhaashee hone ke kaaran koi aatmglaani ho to ye sthiti bhee khud hamein hee badalnee hongee..rahi skoolee shikhsaa kee baat to wahaan kaafee kuchh badalne kee jaroorat hai..
रवीश सर क्यों हिंदी पट्टी वालों को और सौ साल पीछे धकेल देना चाहते हैं... अगर रोजी रोटी अंग्रेजी में मिलती है तो फिर हिंदी कोई क्यों सीखे... काश वो दिन आए जब हर गरीब और पिछड़े लोगों का बच्चा जो सिर्फ हिंदी की वजह से भारत का हिस्सा बनकर रह गए... वो कभी इंडिया का हिस्सा नहीं बन पाए... भी अंग्रेजी सीखकर क्लास में शामिल हो जाए... जिस दिन हर कोई अंग्रेजी बोलने और समझने लगेगा... उस दिन से भारत में भी जातिए, और भाषाई नस्लवाद का अंत हो जाएगा... तब क्लास वाले लोग भी ठेला पर चिकन से लेकर छोले भटूरे खाते मिल जाएंगे...
आपकी शिकायत जायज है. लेकिन ये भी सच है की अंग्रेजी के बिना एक अच्छी नौकरी भी तो नहीं मिलती... अभिभावक भी भुगते हुए होते है, इसलिए चाहते है की उनके बच्चे को भविष्य में कोई परेशानी ना आये.
चिंतित करता हिन्दी चिंतन
"अपनी हिंदी डराती भी है ये अभी तक नहीं मालूम था।... ठीक है कि हम व्याकरण मुक्त हो चुके हैं लेकिन हिंदी बोलने वाले घरों के बच्चे क्या इस वजह से साहित्य नहीं समझ पाते क्योंकि भाषा का इतना अतिसरलीकरण कर दिया गया है कि अब मतलब ही समझ नहीं आता। इस पर बहस होनी चाहिए।" बहुत सटीक विश्लेषण रवीशजी। सरलीकरण करते-करते खा गए हिन्दी को। दरअसल यह हमारी दरिद्र मानसिकता के चलते हो रहा है। मुझको तो उस वक्त हंसी आती है जब लोग 'मन्दी' की जगह विशेष अन्दाज में 'रिसेशन' कहते सुनाई पड़ते हैं। अब आप ही बताईए कि 'मन्दी' कहना और समझना आसान है कि 'रिसेशन'। एक वरिष्ठ पत्रकार तो हिन्दी की जगह अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग पर इतना उखड़ जाते हैं कि कहते हैं कि ''मैं मोची हूं... मेरे समझ में अंग्रेजी नहीं आती।'' हालांकि उतना ही वह क्लिष्ट हिन्दी से भी चिढ़ते हैं। कहते हैं कि 'श्वेत कपोत' वाली भाषा त्यागिए।
कई टिप्पणीकारों ने मुद्दे से इतर टिप्पणी किया है। सवाल अंग्रेजी सीखने का नहीं है। सवाल यह है कि क्या अपनी हिन्दी अब डरावनी लगने लगी है। अंग्रेजी सीखिए, खूब सीखिए, विद्वान बन जाइए। कौन रोकता है? लेकिन हिन्दी डराने लगे ऐसी स्थिति भी तो मत पैदा कीजिए... प्लीज...।
hindi gayab si hi hai...
hindi ka bhot nischit hi chintaniy hai
रवीश भाई, हिंदी पर बहस इतनी कभी नहीं देखी थी जितनी आईआईएमसी में होती थी,हिंदी पत्रकारिता विभाग तो मानों देश के सबसे पिछड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करता दिखता। पूर्व-छात्र मिलन समारोह में हिंदी के पहले विभागाध्यक्ष रामजीलाल जांगीड़ द्वारा दिए गए भाषण में भी हिंदी और अंग्रेजी विभागों में जो दूरी बनीं थी उसकी नींव का पता चला रहा था। सरजी का कहना था कि "हिंदी वालों तुम इस देश के हो वो तो बाहर के है,तुम बाप हो वो बेटे है, तुम्हें किसी से डरनें की जरूरत नहीं है, तुम किसी से कम नहीं हो"।
लेकिन मैं जांगीड़ सर से इत्तिफ़ाक नहीं रखता, आज के वास्तविक परिवेश में आप-मैं क्या कोई भी इंसान बिना शिक्षा के पार नहीं पा सकता। हिंदी और अंग्रेजी भारत में शिक्षा के दो महत्वपूर्ण स्तंभ है,हिंदी पट्टी जहां अलग-अलग बोलियां बोली जाती है,जो कि हमारे-आपके जैसे पढ़े-लिखों को भी समझ नहीं आती,वहां कि एक सार्वभौमिक भाषा हिंदी, संचार का एक मात्र साधन है, और एक स्थिति हमारे दक्षिण के राज्यों में या उत्तर-पूर्व में हिंदी पट्टी के लोगों की होती है,वहां हम किसी तरह अंग्रेजी बोलकर काम चलाते है। तो ज्ञान तो जितना मिले उतना कम है,अंग्रेजी कोई बुरी चीज नहीं है, मैं शम्भूजी की बात से इत्तिफ़ाक रखता हूं कि अंग्रेजी भाषियों की सोच वास्तविक होती है। औऱ किसी महान बुद्धिजीवी नें कहा भी है"ENGLISH IS A MILK OF TIGER"।
main 1 bachhe ko tution padhata tha.uski maan use hindi me fail hone k liye encourage karti thi.maslan maine use kai baar aisa kehte paya ki"hindi iski itni kamzor hai na kya bataun" uski is dant me jo laar hota tha use mai mehsoos karta tha.bachhon k bare me ham sochte hain k wo kam samajhte hain par yakin maaniye bachhe bhavnaon ko padhne me hamse aapse kahin aage hotehain. wo bachha jiski hindi achi ho sakti thi waqai fail karne laga,sirf apni maan ko khush karne k liye .uski maan ne apni neo- rich guilt ko fulfill karne k liye bachhe ki hatya kar di.main mook darshak ki tarah is puri ghatna ka gawah raha,paise ki mazboori thi,zyada udta to tution se haath dhone padte.
doosri baat ye bhi hai k maan baap bachhon ko kabhi hindi me ache no aane par badhai nahi dete,unke liye math aur english ka no zyada mahatvapurna hota hai.ham kar bhi kya saktee hain,ye samsya hamare itihas ki upaj hai.nehru ko kamlapati tripathi k sath khade log bhi gali dete hain aur saamne khare log bhi.maslan kaancha ilaiya ko le lijuiye.aur 1 baat hai hindi ki kamaan sare kamzor logon ne sambhal rakhi hai.hindi ki waqalat wohi karta nazar aata hai jiski angrezi bas raddi hai.
एक प्रसिद्ध कहावत है, "आम खाने से मतलब है कि गुठली गिनने से?"
भारत में विभिन्न प्रकार के आम मिलते हैं, और उसकी भांति अनगिनत भाषाएँ भी बोली जाती है, रोजमर्रा के कार्य चलाने के लिए.
स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात हिंदी को राज्य भाषा का दर्जा दिया गया, किन्तु कंप्यूटर का पश्चिम देशों में पहले उपयोग में लाये जाने के कारण अंग्रेजी विश्व भर में छा गयी और सब के लिए एक मजबूरी बन गयी...
यह तो गूगल की कृपा है कि में हिंदी लिखता दिख रहा हूँ! केवल माया के कारण :)
इसे कृष्णलीला ही शायद कहले कि भारत में इसका लाभ उन राज्यों को धनार्जन हेतु अधिक मिला जहाँ पहले से ही अंग्रेजी अधिक प्रयोग में लायी जाती थी...
सत्य की खोज करे कोई तो फिर पा सकता है कि यदि हम, 'आम आदमी', आम के वृक्ष को धरातल पर रह कर ही देखे (यानि दृष्टिपात करे!) तो पाएंगे कि पाताल में गयी जड़ें उसे नजर नहीं आयेंगी, जहाँ कभी गुठली बोई गयी थी, शायद किसी गरीब किसान द्वारा...फिर उपर धीरे-धीरे नजर डाले तो मोटा तना दिखाई देगा, और फिर फूल पत्ते इत्यादि. और जिसकी मानव को चाह थी, अंत में फल दिखाई देगा - और वो भी तब यदि उसके लिए प्राकृतिक समय सही हो...
किन्तु यदि वो सबसे पहले उपर से आरंभ करे (सतयुग से) जब वो वृक्ष या पेड़ आम से लदा हो तब आम आदमी क्या जड़ तक कभी पहुँच पायेगा? और अब तो ग्लोबलाइजेशन (globalisation) के कारण चाहे सीज़न हो या नहीं, आम का पेड़ देखा भी हो या नहीं, बारहों मास आम खाइए यदि आम आदमी के बटुवे समान आपका पर्स खाली न हो तो...
एक कार्टून में दिखाया गया था कि जब एक बच्चे को उसके पिता ने गौ को दिखाते हुए उसे बताया कि जो दूध वो सुबह शाम पीता है ऐसी ही गायों का होता है तो उसने उत्तर दिया, "मुझे पता है कि वो मशीन से आता है - टोकन डालने के बाद! आप मुझे बेवकूफ नहीं बना सकते" :)
किसी 'पंडित' ने मुझे बताया था कि घोर कलियुग की पहचान यह है कि तब आदमी छोटा हो जायेगा. किन्तु उसकि धारणा यह थी कि केवल बौने ही दिखाई देंगे चारों ओर :)
मैंने उसे कहा कि क्या आज चार साल का बच्चा वो नहीं कर रहा जो पहले २०-२५ साल का आदमी करता था? टीवी में तो आज नन्हे कलाकारों कि भीड़ लगी है!
उसने कभी इस दृष्टिकोण से देखा ही नहीं था - शायद खास-ओ-आम आदमी ने भी नहीं? :)
मित्रों
मेरे इस लेख को इंग्लिश के विरोध में न समझा जाए। सिर्फ हिंदी के भूत के पीछे की किसी साज़िश को देखने की कोशिश की है। अच्छी इंग्लिश बोलने वाला अच्छी हिंदी भी बोल सकता है। इंग्लिश के प्रति मेरी कोई दुर्भावना नहीं है।
सीबीएससी पता नही क्या क्या बदलेगी...रोमिला थापर ने बिना लाग लपेट के जो इतिहास लिखा था वो तो बदल ही चुकी है..हिंदी की किताबें "स्वाति" और "पराग" भी शायद ख़त्म कर चुकी है जिनके पन्ने पलटते हुए हम जैसे जाहिलों ने भाषा से प्यार करना सीखा...
मैं जब स्कूल में था तो सोचता था कि अगर बोर्ड बीजगणित को चित्रकला और भौतिकी को गेम्स पीरिअड से रिप्लेस कर दे तो कितना मज़ा आये...शायद इसी तरह हिंदी को सरल करने के लिए किसी बच्चे ने मुराद मांगी होगी...चलो अच्छा ही है हमारी न हुई,किसी के तो मन की हो रही है.
पब्लिक की पहुंच से दूर रहने वाले पब्लिक स्कूल बोर्ड के दिशानिर्देशों पर नहीं वरन, बोर्ड इनके दिशानिर्देशों पर काम करता है। अभी हिंदी को बच्चों के डर के नाम पर सरल करने के लिए राजी किया है, बाद में इसमें भी स्नोबल थ्योरी जोड़कर हिंदी में कुछ अंग्रेजी शब्द ठूंस दिए जाएंगे। उसके बाद सीबीएसई की परीक्षाओं में हिंग्लिश में उत्तर देना अनिवार्य कर दिया जाएगा। ये शिक्षकों का डर है रवीश जी, बालकों का नहीं। जो बालक अंग्रेजी भली प्रकार पढ़ता बोलता है, हिंदी का कुशल शिक्षक मिलने पर भला क्यों नहीं सीख पाएगा। आपने सही कहा कि प्रपोजीशन की पोजीशन बिगाड़ देते हैं। हम जब स्कूल जाते थे तो हिंदी और अंग्रेजी दोनों की पढ़ाई सूक्ष्म तरीके से कराई जाती थी। 45 मिनट किसी किसी दिन इसी बात को लेकर निकल जाते थे कि यहां, 'THE', का प्रयोग क्यों किया गया। हिंदी भी ऐसे ही थी। सूक्ति और दोहों को समसामयिकी और बच्चों की स्कूली ज़िंदगी से जोड़कर पढ़ाया जाता था। जिससे वे रोचक हो जाते थे। पब्लिक स्कूलों को हिंदी के तथाकथित जीर्णोद्धार के बजाय कुशल हिंदी शिक्षकों को नियुक्त करना चाहिए। बच्चों पर आज भी कच्ची मिट्टी का पौराणिक और कबीरपंथी सिद्धांत लागू होता है।
SACHIN KUMAR
यूपी में तेरह लाख बच्चे असफल रहे है। मध्यप्रदेश का हाल भी बेहतर नहीं रहा। यहां कितने बच्चे हिन्दी में फेल हुए है ये आकंडा देखना भी काफी महत्वपूर्ण है। मैं यहां शब्द दिलचस्प का प्रयोग नहीं कर रहा हूं। इसकी भी वजह है। पहले जरा इस बारे में बता दूं।
साल-डेढ़ साल पहले पवित्र गंगा नदी में एक नाव दुर्घटना हुई थी। तब एक एंकर ने अपने रिपोर्ट से जानकारी लेने के बाद टैग दिया....इस पूरे घटना का दिलचस्प पहलू ये है कि हादसे के सात घंटें बाद भी प्रशासन घटना स्थल पर नहीं पहुंची। यहां मुझे दिलचस्प शब्द पर आपत्ति थी। मैंने उन एंकर से इस बारे में बात भी की। उन्होने एंकरों की मुश्किल बताई। मेरा इरादा यहां उनके बारे में कोई टिप्पणी करने का नहीं है। उन्हे में भैया पुकारता हूं और उनका आदर भी करता हूं।
हिन्दी या अंग्रेजी या फिर कोई भी भाषा। ये संवाद का माध्यम है। अगर आप सामने वाले से जो कह रहे है और वो समझ पा रहा है तो आपकी हिन्दी हो या अंग्रेजी वो बेहतर है। आप बहुत जानते है लेकिन आपकी बात सामने वाले की समझ में नहीं आ रही तो हिन्दी भी बेकार और अंग्रेजी भी। भाषा के सरलीकरण से इसकी पहुंच की सीमा अनायास ही बढ़ जाती है। कुछ लोगों ने कहा कि अंग्रेजी बेहतर हो गई और हिन्दी खराब तो भाई मेरी ये समझ में नहीं आ रहा कि आपने किस चीज की अंग्रेजी अच्छी कर ली। आप पहले उस शब्द और विषय को अपनी भाषा में समझते है फिर उसका अनुवाद कर पाते है। कलम-PEN...आप पेन का क्या मतलब लगाएंगे...पहले आप उसे कलम के रूप में जानेंगे...कलम क्या है...कैसा होते है...इसका क्या होता है...वगैरह-वगैरह। तो आप दूसरी भाषा को पहले अपनी भाषा में समझते है फिर उसका अनुवाद होता है...तो ऐसे में समझ नहीं आता कि कैसे हिन्दी खराब हो जाएगी और अंग्रेजी मजबूत। ENGLISH के विरोध का तो मतलब ही समझ नहीं आता। आज इसी बदौलत अपने देश की प्रतिष्ठा में रोज चार चांद लग रहे है। हमारी इतनी डिमांड है। लेकिन अंग्रेजी भी तभी अच्छी होगी जब कोई चीजों को पहले अपनी भाषा में समझे। उम्मीद है इसे आप सब लेक्चर नहीं समझेंगे।
हिंदी पर चिंता जायज
बचपन से ही दो भाषाओं का बोझ डालकर बच्चों का फिचकुर निकाल दिया जाता है । समझ में नहीं आता है कि बच्चों को सुपरमैन क्यों समझा जाता है । निष्कर्ष यह निकलता है कि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही समझ में नहीं आती हैं । यदि आती भी है तो इतनी कि बस काम चल जाता है अभिरुचि जागने की बात तो दूर की है । प्रारम्भ में बच्चों को भ्रम की स्थिति से निकाल कर भाषा और भाव ज्ञान कराना चाहिये और दूसरी भाषा ६वीं कक्षा के बाद ही सिखानी चाहिये ।
भाषा संवाद का माध्यम रहती तो संभवतः लोग किसी भी रूप में स्वीकार कर लेते किंतु जब जीविकोपार्जन का साधन बन जाती हैं तो लोगो का लगाव उससे ज्यादा होना स्वाभाविक ही हैं... अंग्रेजी प्रेम भी इसी कारण हैं... पर हर अंग्रेजी प्रेमी के घर पर आज भी पारिवारिक संवाद की भाषा हिन्दी ही हैं (चाहे खिचडी रूप में ही)....आज भी लोग अपने बच्चों को यूँ अंग्रेजी पढाते हुए मिल जायेंगे - देखो बेटा वो गो़ट घास खा रही हैं.....
इसी जीविकोपार्जन के साथ जब तक आत्म गौरव की भावना नहीं जुड़ेगी हिन्दी कभी भी अंग्रेजी के समक्ष नही आ पायेगी....
इस समबन्ध में इस बार का समयांतर (पत्रिका) पढ़े जाने लायक है
अंग्रेजी में कहावत है, "Travelling is education." मुझे इस प्रकार या अन्यथा भी कई भारतीय/ विदेशी भाषाओँ के अस्तित्व का पता चला, पढाई या कार्य करते...
पहले हम दक्षिण भारत की भाषाओँ को कठिन मानते थे किन्तु जब मणिपुरी सुनने को मिली तो वो और भी कठिन लगी, कोई भी शब्द हिंदी के सामान नहीं था, जैसे बंगाली आदि में देखा जाता है. मणिपुरी के कुछ कुछ शब्द पहचान में जब आने लगे तो एक बात पर ख़ुशी हुई - में कई बार सोचता था कि हिंदी वर्णमाला में पांचवे अक्षर का प्रयोग मुझे हिंदी के शब्दों में कभी देखने को नहीं मिला था किन्तु मणिपुरी में उसे पाया मछली के नाम में उसको 'आ' की मात्रा लगा उच्चारण करते (नाक से बोले 'ना' समान)...
भाषाविद मानते हैं कि आरंभ में केवल एक ही भाषा रही होगी. और जनसँख्या वृद्धि के साथ आदमी का दायरा (घेरा) बढ़ता गया और वो नए नए स्थान पर कई टुकडियों में कालांतर में पहुँचते चले गए...तो इस प्रकार नए नए शब्दों का स्थानानुसार और आवश्यकतानुसार अविष्कार होता चला गया...और हर स्थान पर भाषा की भी उत्पत्ति होती चली गयी...
भारत में वैदिक काल में संस्कृत सर्वोत्तम भाषा मानी जाती है, जब योगी सन्यासी आदि प्रगति के पथ पर बहुत आगे निकल गए थे...जैसे पानी की सतह पर चलना, एक स्थान से भिन्न स्थान पर दूसरी जगह, भले ही दूरी कितनी भी हो, पलक झपकते ही पहुँच जाना आदि आदि: न मारुती न नानो, न सड़क की आवश्यकता :) और न सुनने को मिलता, नीरज के शब्दों में, "स्वप्न झडे फूल से, मीत चुभे शूल से...कारवां गुजर गया गुब्बार देखते रहे.." :)
आय हाय करने लगे न ससुरे हिन्दी वाले!!
इसीलिए तो हम पिछडे हैं जन्नाब !!
बात तो आपने अच्छी ही कही है पर कुछ अपने आईने में झांक लें!!
१-हम सब मानसिकता से हैं अंग्रेजों और अंगरेजी के गुलाम
२- इसीलिए गावं का भी आदमी अपने बच्चों को सिंघाडे की गाँठ (टाई ) पहने देखना चाहता है ?
और गावं के अंगरेजी स्कूलों के तथाकथित मास्टर बेचारे वही प्राईमरी के मास्टर के पढाये बच्चे !!
अब हम सब कुछ सिखाना चाहते हैं अपने बच्चों को पर जो संस्कार मान बाप के नहीं पड़े वह उनके बच्चों के कैसे भैया पड़ेंगे????
हिन्दी चिट्ठाकारों का आर्थिक सर्वेक्षण : परिणामो पर एक नजर
रवीश जी बिहार बदल रहा है....लालू यादव के हारते ही ट्रेनें फूंकी जा रही हैं....शत प्रतिशत बिहार बदल रहा है....
I simply adore Hindi and find this Hindi bashing really obnoxious. I would love to die watching Hindi news any day !
'हिंदी के भूत' को शायद हमें भूतनाथ और पंचभूत की मान्यता के संदर्भ में देखना होगा जो अनादि काल से भारत जो, अब हिंदी भाषी जन साधारण को, India अधिक हो गया लगता है.
शायद सोचने की बात यह है कि इतिहास भूत, यानि भूत काल में घटित झूठी-सच्ची कहानियों, से ही सम्बंधित है, जबकि आम आदमी समाचार पत्र/ टीवी आदि पर पहले अनजाने के भय के कारण भविष्य भी जानना चाहता है. किन्तु अनगिनत संभावनाएं उसके सामने प्रस्तुत कर दी जाती हैं ('हरी अनंत हरी कथा अनंत' की याद दिलाते हुए) जिनमें से अधिकतर शायद गलत ही निकलती हों. हाँ 'बुरी' बातें अधिकतर सही भी निकल जाती हैं. स्तिथि सांप छुछुंदर वाली जैसी होती है: विश्वास न करते हुए भी जिन्दगी से निराश व्यक्ति, जिसे 'मलाई' में हिस्सा न मिल रहा हो, किसी अनजान और अनदेखी गुप्त शक्ति पर विश्वास करने पर मजबूर हो सकता है...
एक समय 'भारत' में ऐसा था कि हर कोई मानता था कि 'उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता!" यदि यह सत्य है तो क्या केवल दस आदमियों के कह देने से "में भगवान को नहीं मानता" परम सत्य असत्य में परिवर्तित हो जायेगा?
जैसा प्राचीन योगियों, सिद्धों, ने अथक भगीरथी प्रयास से पाया, क्या आम आदमी आज, जानने की बात तो छोडो, मान पायेगा कि 'वो' हमें अपने इतिहास की रील उलटी दिखा रहा है 'शेषनाग'/ 'अनंतनाग' पर लेटे लेटे ?
रवीश जी, मुझे हिन्दी से लगाव है, और चाहता हूं कि हिन्दी और कहीं नहीं तो कम से कम भारत में तो खूब फले फूले. लेकिन क्या मेरे (और आपके) चाहने भर से ऐसा मुमकिन है? क्या बाहरी पर्यावरण का इस आकांक्षा पर कोए प्रभाव नहीं होगा? मुझे लगता है कि आज अपने देश में हिन्दे एकी जो स्थिति है, उसमें सबसे बड़ा योग तो बाह्य स्थितियों का ही है. उनसे ही हमारी सामूहिक मानसिकता बनती है और वही मानसिकता अंग्रेज़ी को हिन्दी के ऊपर बिठाती है. अगर दोष किसी को देना ही है तो फिर हिन्दी भाषियों को दीजिए, न कि इन स्कूलों को. स्कूल तो वो करते हैं जो उनक्से ग्राहक चाहते हैं. कल को आप शुद्ध हिंदी मांगने लगेंगे तो वे शुद्ध हिंदी पढाने लग
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