मेरा वाला फोरकास्ट- अंदाज़ी टक्कर बनाम अहंकारिता

नतीजे आने तक अब इस हेडेक से गुज़रना होगा। पहले फिल्ड वाले पत्रकार दावा करते थे कि इसको एतना आयेगा और उसको ओतना आएगा। इनके दम पर संपादक दावा करते थे। अब तो अखबार भी दावा करने लगे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया औऱ दूसरे कई अखबार बकायदा छाप रहा है कि हमारे संपादकों की राय में इस राज्य में इस पार्टी को इतनी सीटें मिलेंगी।

अंदाज़ी-टक्कर बिहार की भाषा-बोली में एक अवधारणा की तरह मौजूद है। भोजपुरी में कहते हैं अगर मेरा लह गया तो काम चल जाएगा। पैरवी भिड़ाए थे लहा ही नहीं। बहुत लोग इम्तहान से लेकर दुकान तक में अंदाज़ी-टक्कर के सहारे एकाध नंबर लाते रहे हैं और पुराने नोट चलाते रहे हैं। लेकिन वोट का टाइम आते ही उत्साह इतना बढ़ जाता है कि पत्रकार रिज़ल्ट बताना ज़रूरी समझता है। कुछ नेता तो यह समझ कर फोन कर देते हैं कि हमारे पास उनकी सीट का कोई सर्वे पड़ा हुआ है। बोलेगा कि आप बताइये,आपको तो हमसे ज़्यादा मालूम है।

हर पत्रकार दिल पर हाथ रख कर बोले कि इस ज़्यादा मालूम या अंदाज़ी-टक्कर का आधार क्या है? कई बार कई जगहों पर उनकी बातें सहीं भी हो जाती हैं। तब तो और भी हेडेक हो जाता है। एकाध महीने तक भाई लोग छोड़ते ही नहीं है। देखा कहा था न कि कांग्रेस को दिल्ली में सात सीटें आएगीं। लेकिन ये भाई हरियाणा का ज़िक्र नहीं करेंगे जहां बोले थे कांग्रेस को आठ लेकिन मिली पांच सीटें। वहां कारण बताने लगेंगे।

चुनावी चर्चा का हिस्सा है। भला हो कोर्ट का जिसमें ओपिनियन बाज़ी बंद करा दिया। मैं इस भ्रम में जीना चाहता हूं कि मेरी सोच सर्वे में शामिल दस हज़ार लोगों से बिल्कुल अलग है। ओपिनियन बाज़ी से तंग आ गया था। गलत पर गलत। सही हो गया तो साइंस। गलत हो गया तो स्वींग। हद है भाई। फिर भी ओपिनियन बाज़ी में कुछ तो आधार होता है। ओतना तो पत्रकार लोग भी स्ट्रींगर,दोस्त,रिश्तेदार को फोन करके बोल देता है कि सीवान में लालू की हवा खराब है। ऐसा नहीं कि नहीं बोला जा सकता है। कुछ जगहों के राजनीतिक हालात का अंदाज़ा बिल्कुल किया जा सकता है। लेकिन नतीजे से पहले रिज़ल्ट की घोषणा थोड़ा ज़्यादा है।

इस बीमारी का शिकार हम खुद हो गए थे। बड़ी मु्श्किल से कंट्रोल किये हैं। वैसे ही संस्कार में कई प्रकार के अहंकार घुस आए हैं। अब नए किस्म के अहंकारों के लिए जगह नहीं बची है। लोड नहीं ले सकता। पत्रकारिता में अहंकारिता का कोर्स होना चाहिए।
पत्रकार को मालूम होना चाहिए कि उसे अपनी कामयाबी, नौकरी, एकाध बड़ी स्टोरी से उत्पन्न होने वाले अहंकार से कैसे बचा जाए या कैसे अपने पुराने व्यक्तित्व में समाहित कर निखर जाया जाए। ऐसा क्यों होता है कि जब भी कोई बड़ा काम करते हैं या हो जाता है और जिसकी वाहवाही मिलती है तो तुरंत किसी ऐसे को याद ज़रूर करते थे कि देखा भाई साहब कहते थे कि बुरबक हमीं है न। देखा दिये न।

अहंकारिता की पढ़ाई होनी चाहिए। हमारे पेशे में अहंकारों के कई अच्छे नाम हैं। एक्सक्लूसिव, ब्रेकिंग न्यूज़,फर्स्ट ऑन फलाना ढेमकाना,सबसे पहले आदि आदि। आज कल आइडिया अहंकार का सबसे बड़ा नाम है। मेरा आइडिया है। किसका आइडिया था।
अरे भाई इतने आइंस्टीन पत्रकारिता में है ही तो इतनी दुर्गती काहे हो रही है। आइडिया को लेकर इतना कपंटीशन बढ़ गया है कि पत्रकार खबर कम खोजता है,आइडिया ज़्यादा सोचता है। ट्रिक भिड़ा कर आइडिया दे देता है। ये अहंकार की अभिव्यक्ति का नया मंच है। मेरा वाला आइडिया था। ये मैंने सबसे पहले फलाने जी को बता दिया था।

हम पत्रकार लोग बीमार हो चुके हैं। अहंकार खा रहा है। सूचना और समझ की होड़ कम है। इसके दम पर हिंसक अभिव्यक्तियां ज़्यादा हैं। पत्रकार तो सिर्फ माध्यम है। वो फोटोकोपियर है। वह खोज करता है। आविष्कार नहीं करता। पत्रकारिता में अहंकारिता तो दूर नहीं की जा सकती लेकिन इससे कैसे बचें या कैसे संभाले इसका पाठ ज़रूर पढ़ाया जाना चाहिए। अगर मैं यह लिख रहा हूं तो कत्तई न समझा जाए कि मुझमें अहंकार नहीं है। है और अपने भीतर अहंकार देख पा रहा हूं तभी इसे लिख रहा हूं।

14 comments:

Himanshu Pandey said...

"गर मैं यह लिख रहा हूं तो कत्तई न समझा जाए कि मुझमें अहंकार नहीं है। है और अपने भीतर अहंकार देख पा रहा हूं तभी इसे लिख रहा हूं। "

यह बात जम गयी । पूरे का पूरा लेखन कर्म भी मैं इसी स्वानुभूत अहं का परिणाम ही मानने लगता हूँ कभी-कभी ।

JC said...

अंहकार रावण में अधिक था क्यूंकि उसके पास सोना और शारीरिक शक्ति दोनों थी, उस काल में सबसे अधिक, जबकि बाली में कभी उससे अधिक हुआ करती थी.. और युवा राम के पास सोना कम था किन्तु शक्ति, श्रद्धा और बुद्धि अधिक. तभी वो गद्दी का त्याग कर सका. यह कुर्सी और उसके साथ जुडा सोना ही दिमाग फेर देता है अच्छे अच्छों का...

विनीत कुमार said...

एक भाई ने अहंकार से भरकर फोन किया- आपने बहुत कोसा था इस प्रोग्रम को अपने ब्लॉग पर। साफ-साफी इस प्रोग्राम को एक करोड़ का नफा हुआ है। अब देखिएगा, प्रोग्राम के नाम के पहले हीरो होंडा लिखा आएगा। उस प्रोग्राम की रिकार्डिंग मेरे अर्काइव में अब भी मौजूद है। देखकर कोई भी आदमी सिर पीट लेता है। पत्रकारों का अहंकार दूर हो इसके लिए कोई शिविर लगाने की जरुरत नहीं और न ही मैं और नामी मीडिया समीक्षकों की तरह मीडिया को मोरल साइंस की तरह देखने का अभ्यस्त हूं लेकिन इतना जरुर समझ पा रहा हूं कि ये अहंकार किस हद तक बाजिब है। बाजार जिस लंपटता को भी उपलब्धि करार देता है,उससे जो अहंकार पैदा होता है, उसे कैसे रिजॉल्व किया जाए।

sushant jha said...

बड़ी इमानदार बोली बोले हैं आप। कई पत्रकारों की तो चालढ़ाल ही दबंगों जैसी लगने लगी है। कई वरिष्टों से मिला हूं जो पेशे में अपने को छोड़कर सबको (....?) बेकूफ समझते हैं। ये एक अलग तरह का अहंकार है। कई बार इसके पीछे हीन भावना होती है कि भाई लोग..मोटी सेलरी ले रहे हैं या कि स्क्रीन पर चमक रहे हैं। अंदाजीफिकेशन का तो ये आलम है कि एक सुपर पत्रकार ने(दरअसल वो पत्रकारिन थी) लिख दिया कि यूपी में कांग्रेस के पास अभी 25 सीट हैं, आगे अच्छा करेगी। मैं जहां पहले काम करता था तो मेरे आलाकमान ने कपिल सिब्बल से पूछ लिया कि ये जो महंगाई है, उसकी वजह कहीं परमाणु करार तो नहीं। सिब्बल ने अंकलजी को वहीं रगड़ दिया, बाद में हमें पोस्ट प्रोडक्शन में वो हटाना पड़ा। अक्सर कोई पत्रकार किसी को फोन करेगा तो दोस्तों को बताएगा कि फलानमा का फोन आया था। मतलब हम नहीं करते फोन, ससुरा वहीं करता है। बैठें है नार्थ एवेन्यू के चाय दुकान पे, बोलेंगे नार्थ ब्लाक का नाम। अपन अभी इस धंधे में नए हैं, कम अहंकार है। काश हमें भी थोड़ा अहंकार आ जाए, मतलब हम भी उस क्लब में घुस जाएं।

Aadarsh Rathore said...

रवीश जी, हम अहंकार शब्द के मायने उसी अर्थ में लेते हैं जिनके बारे में हमने कहीं से पढ़ा या सुना है। मसलन अहंकार नाश का द्वार है आदि-आदि। लेकिन मेरे विचार से अहंकार के मायने अलग है। लेकिन यदि यह दर्प भावना स्वाभाविक है और सही कारण से है तो ये हानिप्रद नहीं। मसलन अगर आप बिल गेट्स हैं और आपको इसका दर्प है तो बुराई क्या है। अहंकार के साथ यदि सहजता बनी जाए तो बुराई क्या है.... आपको अपने आस-पास ही ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे जो अहंकारी तो हैं लेकिन उनमें सहजता भी मौजूद है...

Sanjay Grover said...

लगता है सालों से व्यंग्य आपने दिल के भीतर दबा के रखा था। जाने किस की टक्कर से ढक्कन अचानक खुल गया है और व्यंग्य बहता चला जा रहा है, रोके नहीं रुक रहा है। बढ़िया है। मज़ा आ रहा है। ‘एनोनीमस’ एलाऊ कर दीजिए तो मैं बहुत ही बढ़िए-बढिए टिप्पणी डालंूगा। भले कोई टांग तोड़ दे। पर ‘अन्यमनस्क’ (‘एनोनीमस’) का टांग कैसे तोड़ेगा कोई !? ऊतो दिखता ही नईं ! हैना ?
OFFOO !!
Ektho ubala sher yahaN bhi jorhiye na..ki---
HAMI SE AABAD HAI DILLI.
HAMI SE BARBAD HAI DILLI.
bheri gud.

Subodh Deshpande said...

just casually I enjoyed and hope you will enjoy also,
http://www.vimeo.com/2894516

hope for the best..things will change..

prabhat gopal said...

baat sahi aur sochne wali hai

Rajiv K Mishra said...

अब बात चली है तो एक सर्वे इस विषय पर भी होना चाहिए कि कौन ज्यादा अहंकारी होता। टीवी वाला या प्रिंट वाला या फिर अंग्रेज़ी वाला या हिंदी वाला। ऐसे मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि टीवी में दो दोस्त में से किसी एक का प्रमोशन हो जाए तो वह दूसरे से कन्नी काटना शुरू कर देता है। दूसरे को ऐसे देखेगा कि मानो कोई एहसान कर रहा हो। इस पेशे अहंकारिता की एक वजह यह भी है कि टीवी भोकाली का माध्यम है। जितना ज्ञान है पेल दो...सामने वाला झंड हो जाए। ये भी सच है कि कार्पोरेट एमबीए के सामने इनकी बोलती बंद हो जाती है। पैसवा तो वही जुगाड़ता है, वो फिर चाहे टीवी हो या प्रिंट, अंग्रेज़ी या हिंदी...। ख़ैर, संक्रमण काल है, धीरे-धीरे ठीक हो जाएगा।

yayawar said...

i hope english is allowed if not the anonymous.though u reveala no.of breaking.shaking,caking baking,making,taking....and a no.of ...ing news but can't stand a anonymous commentator.do you relate this term with that anonymous whose raunchy and sizzling hot(pun intented)small books use to be a craze amongst the students of ten and twelve level.if a person wishes to hide his/her identity why do you insist upon revealing it,making it known to every one who visits your 'qasba'.should it be termed as the unconcious compulsion of your profession.well that's not fare.what is there in name but who knows why do you insist upon ? it's already quarter past twelve 'll talk about your latest post later but once again request you to rethink about the ANONYMOUSES !

janane_ka_hak said...

रवीश जी पहले यह तो तय कर लीजिये जो आज मीडिया घरानों में बैठे हैं वे क्या वाकई पत्रकार हैं? जो वाकई पत्रकार है उसे तो ऐसी कोई समस्या है ही नही। वरना आज जो तथाकथित पत्रकार बने बैठे हैं उनकी तो कुछ कहिये ही मत। अब अगर स्ट्रिंगर की फोज खड़ी करेगे तो य तो मिलेगा। सबसे तेज का जमाना जो आ गया है। आप जिस आईडिया की बात कर रहे हैं वो और कुछ नही अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का बासी होता है जो बाई चांस न्यूज़ एडिटर की निगाह में नही आ पाया होता है। हा कुछ अपवाद हैं जिनकी में आज भी तारीफ करता हूँ ।

दुआ दीजिये www.adrindia.org, , www.myneta.info, जैसी साइट्स को जिन्होंने बहुतेरो तथाकथित पत्रकारों की इज्जत बचा दी। tamasha अभी बाकी है सर।

SACHIN KUMAR said...

अगर इस तरह का अहंकार हो तो ये भी अच्छी बात है। काश ऐसा अहंकार सबको हो ख़ास कर अपने साथी दोस्तों यानि पत्रकारों को। मेरा अहंकार कह रहा है कि आपने बहुत ही अच्छा लिखा है। लेकिन मैं चाहकर भी ये अच्छा लिखना नहीं छोड़ पा रहा हूं। ये बताने की मैं जरूरत ही नहीं समझ पाता कि आपको क्यों कहूं कि आपने अच्छा लिखा है।
सचिन

amit said...

अपना operation बहुत मुश्किल होता है, लेकिन ये आपकी आदत है, आपकी वो बात भी अच्छी लगी थी जब आपने कहा था " जैसे हम सब उत्तर भारत के specialist हैं

hamarijamin said...

jamanawa ahankari--apane Ravish bhi matlab patrakarita bhi!