जाति अचीवर्स

नवभारत टाइम्स ने इक्यावन टॉप एंड यंग मारवाड़ियों की एक कॉफी टेबल बुक छापी है। किताब अभी पढ़ी नहीं है लेकिन द इकोनोमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार इसमें मारवाड़ी समाज के कामयाब युवाओं का तस्वीर सहित वर्णन है। अभी पिछले दिनों बाज़ार के मैदान में दवा के जातिकरण पर विवाद हुआ था। अब कॉफी टेबल पर कास्ट पहुंच गया है। कुलीन घरों में जाति एक कुलीन आइटम भी हो जाया करेगी। लगेगा कि उनकी उपलब्धि जाति सापेक्ष भी है। कामयाबी की एक पहचान जातिगत भी है। जाति की इस कॉफी टेबल किताब की तुरंत समीक्षा होनी चाहिए। किसी को इन टॉप इक्यावन मारवाडी अचीवर्स का इंटरव्यू करना चाहिए। पूछना चाहिए कि उनकी कामयाबी को इस जाति के होने के कारण कितना बल मिला? या इन अचीवर्स ने अपनी महान जाति को कितना समृद्ध किया है?

प्रकाशक ध्यान दें। वो हर जाति के ऐसे इक्यावन या सौ अचीवर्स को ढूंढ कर कॉफी टेबल किताब छाप सकते हैं। कई हज़ार जातियों वाले इस मुल्क में कास्ट पर इतने कॉफी टेबल बुक हो जाएंगे कि ताजमहल और क्राकरी पर कॉफी टेबल लेखकों के भी पसीने छूट जाएं। अभी तक लोगों के ड्राइंगरूम में जाति की सस्ती पत्रिकाएं ही हुआ करती थीं जिसमें ज़्यादातर मरने वालों के प्रति श्रद्धाजंलि हुआ करती थी। कॉफी टेबल रूप में आने से जाति का ड्राइंगरूम में भाव बढ़ जाएगा। आखिर जब लोग जाति के नाम पर जान दे सकते हैं तो चार सौ रुपये कॉफी टेबल बुक के लिए नहीं देंगे। चंदा देते हैं सो अलग। किसी के पास आइडिया और पैसा है तो वो अपनी जाति के लिए एक म्यूज़ियम भी बना दे। वहां जाति से जुड़े लोगों की मूर्ति, कपड़े, मूंछ दांत सब रखे दिए जाएं ताकि आने वाली पीढ़ियां देख सके कि हमारी जाति के लोग पहले कैसे हुआ करते थे, क्या खाते थे, क्या पहनते थे? म्यूज़ियम में उक्त जाति का इलेक्ट्रानिक जनगणना बोर्ड लगा दे जिसमें अपडेट आता रहे कि हमारी जाति में आज कितने लाल पैदा हुए और कितनी लालन। टीवी वाले जाति के हिसाब से कलाकारों को बांट कर आधे घंटे का वीकली कार्यक्रम कर सकते हैं। जैसे इस हफ्ते देखिये कायस्थ अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का बॉलीवुडाना सफ़र। इस आइडिया का पेटेंट नहीं कराया गया है।

22 comments:

Priyankar said...

हिंदी में जाति शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है : 'नेशन' और 'कास्ट' के अर्थ में . यहां रवीश की पोस्ट में उसे जाति के संदर्भ में प्रयुक्त किया है . पर मारवाड़ी जाति नहीं एक समुदाय या समाज है जो सामान्यतः व्यापार से जुड़ा है .इसमें सैकड़ों जातियां और उपजातियां हैं . और दो धर्म भी सामान्यतः मिलते हैं 'हिंदू' और 'जैन' . ओसवाल और अग्रवाल मारवाड़ियों के बीच का अन्तर धर्म का ही अंतर है . यदि यह सिर्फ़ पोस्ट की सामग्री है तो ठीक,पर यदि यह कोई विमर्श का मामला है तो रवीश को थोड़ा और होमवर्क की ज़रूरत है .

अन्ततः यह मारवाड़ी संज्ञा भी भ्रामक है . मारवाड़ पश्चिमी राजस्थान का एक सांस्कृतिक अंचल है जैसे यूपी-एमपी-बिहार में बुंदेलखंड, रुहेलखंड, बघेलखंड,मालवा, भोजपुर या मिथिला इलाके हैं .

अधिकांश उद्योगपति जिन्हें मारवाड़ी कहा जाता है राजस्थान के शेखावाटी (ढूंढाड़) अंचल से आते हैं,मारवाड़ से नहीं . पर सभी के लिए एक ही शब्द चल रहा है : मारवाड़ी . और जब यह व्यावसायिक सफलता का प्रतीक बन गया हो तो ऐतराज भी किसे है .

संजय बेंगाणी said...

एक मारवाड़ी के नाते जहाँ तक मैं जानता हूँ, मारवाड़ जात न हो कर क्षेत्र का नाम है. उस क्षेत्र से आने आवे सभी मारवाड़ी कहे जाते है.

बाकि आप पत्रकार ज्यादा ज्ञानी है, गुस्ताख़ी माफ करें. हर जगह, हर काम में जाती को सुंघना.....

Anil Dubey said...

बहुत खूब.वैसे आइडिया बुरा नहीं है...चल निकलेगी किताब.

झालकवि 'वियोगी' said...

हर बात को जाति से जोड़कर कहाँ तक देखेंगे रवीश जी? अब देखिये न, मारवाड़ी को आपने जाति बना दिया. कल को कहेंगे बिहारी एक जाति है, बंगाली एक जाति है, उड़िया एक जाति है.

ये तो ख़राब लगेगा जी. जैसा प्रियंकर जी ने कहा; थोड़ा होमवर्क करने में बुराई नहीं है.

Rajesh Roshan said...

प्रियंकर जी आपको धन्यवाद. मुझे इसकी जानकारी नही थी.

रवीश जी यह सब बाजार का प्रभाव है

Ranjan said...

श्रीमान , भारत और खास कर आपके प्रदेश बिहार मे जाति एक परिवार के रूप मे समझा जाता है ! अगर कोई चीज़ हमे पसंद ना हो तो उसकी चर्चा क्यों ? मारवाडी समाज भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है - जैसे देश के हर जिला मे कोई न कोई बड़ा प्रशाश्निक पदाधिकारी "ब्राह्मण" समाज से आता है - जैसे हर "मीडिया" घर मे मजबूत खम्भे "ब्राह्मण" जाती से ही आते हैं - इसमे क्या हर्ज़ है ?
भारत का कोई भी ऐसा कोना नही है जहाँ "मारवाडी" समाज के लोग न हों - यह आपस मे भी काफी ताल मेल रखते हैं - अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचा कर रखते हैं और व्यापार मे पूरे विश्व मे डंका बजाने को क्षमता भी रखते हैं !
क्या दिक्कत है आपको ? समझ मे नही आता है ? जाति तो किसी न किसी रूप मे कहीं न कहीं रहेगी ही ! अगर आपको यह पसंद न है तो फ़िर "चिल्लाने ' की जरुरत नही !
बेवजह ही आप अपना नाम ख़राब कर रहे हैं !

Sanjay Tiwari said...

जाति और जनपद इस देश की हकीकत है. समझ में आये तो ठीक न आये तो और भी ठीक.
वैसे पत्रकार भी एक जाति हो गयी है जिसके अपने क्लब, संगठन, संघ आदि बन ही गये हैं. फिर उन जातियों की उपजातियां भी बनती जा रही हैं. यानी वही तीन-तेरह का बंटवारा. यह टीवी वाला पत्रकार है यह प्रिंटवाला है आदि. फिर पत्रकारों में फ्रीलांसर शूद्र भी हैं. क्यों कभी ऐसे भी देखा है अपने आस-पास.

संजय शर्मा said...

प्रतियोगिता को प्रेरित ,पल्वित, पुष्पित करता यह प्रयास आज से है नही , यह लगभग हर समाज मे है सफल को सलामी मिलती ही है ,और मिलनी चाहिए भी . फोटो छापना , जातिगत समारोह मे माला पहनाना , प्रशस्ति पत्र देना, कुछ राशि का पुरस्कार निश्चय ही अच्छा प्रभाव छोड़ता है सफल पर और सफलता की राह के राही पर भी .

पिछले साल सफल व्यक्ति के छपे फोटो कितना असर किया है इस साल के सफल की सफलता मे यह महसूस जा सकता है , इसे साक्षात्कार से भी जाना जा सकता है . सामाजिक परिवेश भी सफलता असफलता तय करती है .
पुरस्कार समाज को प्रेरित करता है , ये केवल किसी संस्था के द्वारा ही दिया जाए ,किसी समाज के द्वारा नही इससे असहमति रखता हूँ . पुरस्कार से प्रेरणा लेकर ,पुरस्कार से प्रेरणा देकर उस समाज का हित साधना ग़लत नही है . हो सकता है राज्य स्तर पर या राष्ट्रिये स्तर पर उस समाज के युवा निश्चित मापदंड को न छू पाते हो . ऐसे मे सफल लेकिन वंचित युवा को प्रोत्साहन के तौर पर ,पुरस्कार, ताली ,माला , फोटो आख़िर देगा कौन ?

Anonymous said...
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Anonymous said...

समाजवाद की आग से तप रहे रवीश भाई को N D T V मे ही सब कुछ अच्छा लगता है ! कल तक "ज्योतिष" के ख़िलाफ़ बोलने वाले रवीश भाई ndtvkhabar.com मे लगे हुए आप का भविष्य पढ़ कर ही लेख लिखना चाहिए !

"मारवाडी समाज पर हमला " - यह कोई नया नही है ! करीब १०० - २०० साल से देश के प्रांतो मे बसे हुए मारवाडी समाज पर किसी ने आज तक घोर विरोध नही किया लेकिन लालू प्रसाद - रबरी के राज मे कई हज़ार "मारवाडी" समाज के लोग बिहार से निकल गए - यह वही लालू प्रसाद और रबरी देवी हैं जिनके "पे रोल" पर बिहार के कई पत्रकार लम्बी लम्बी गाड़ियों मे घुमते ही नही बल्की "मुम्बई" नुमा बड़े बड़े फ्लातों मे रहते हैं !

मारवाड़ - राजस्थान का एक हिस्सा है - वहाँ के मूल निवासी बनिया जिन्हें रवीश के प्रान्त - बिहार मे - जति सूचक शब्द से बोला जाता है - दक्षिण भारत के सभी जिलों मे लगभग १००-२०० साल से बसे हुए हैं - शायद इनमे से ही एक धरम सिंह कर्नाटका के मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं ! पर धरम सिंह जी बिल्कुल raajsthan के ढंग से धोती पहनते हैं !

Unknown said...

ऐसा क्यों है ? दरअसल "marwadee" शब्द का सहारा लेकर महोदय पूरे बनिया समाज पर सवाल खडा करना चाहते हैं ! अभी हाल मे ही एक पत्रकार अपने निकट तम सम्बन्धी के इलाज के दौरान अपना परिचय एक "विख्यात" ( कुख्यात) पत्रकार के रूप मे देकर एक नर्सिंग होम का "बिल" नही देना चाहते थे - नर्सिंग होम को बरबाद कराने की धमकी देते हुए - उनको नर्सिंग होम से धकिया गया ! यह प्रचलन आम है - सब से सस्ता व्यापारी वर्ग नज़र आता है - कभी "दवा मे जाती" तो कभी "काफी टेबल" पर जाति ! बेचारी जाति ऐसी है की जाती नही :(

ब्लॉग पर इस तरह के बहस का मकसद जाति विहीन समाज बनाना नही बल्की जाति समाज को बरकार रखना है ! क्या रवीश के पसंदीदा लालू जी "जात पात के सहारे राजनितिक रूप से जिंदा नही हैं ? " ऐसा बहस कराने से रवीश क्यों कतराते हैं ? इंदिरा - राजीव के कोंग्रेस मे पुरा देश के ब्रह्मण अपनी छवी देखते थे - रातों रात "वजपाए" मे अपनी छवी देखने लगे ! ऐसा क्यों होता है ? रवीश जैसे पत्रकार - यह सवाल क्यों नही उठाते हैं ?

आप अपनी जाति "पत्रकार" के क्यों बक्श देते हैं ? क्यों नही उन पर भी कुछ सवाल दागते हैं जो - देश के बेचने वाले लोगों कोऔर पैसे पर ऐश मौज करते हैं !

क्या यह सत्य नही है की - गाजिआबाद मे वैशाली मुहल्ले मे एक निर्माणाधीन माल गिर जाने से करीब ३० लोगों की मृत्यु हो गयी और ख़बर के दबाने के लिए कई करोड़ रातों रात राष्ट्रिये स्तर के पत्रकारों की जेब मे जा पहुंचे ?

किसी मजबूर बनिया के निशाना नही बनाईये !

suresh kumar said...

इसका पेटेंट भी करा लें..... विचार मौलिक है।

रविकान्त said...

रवीश,

ये पोस्ट थोड़ा हड़बड़ी में किया गया भले हो सकता है - तुमने स्वीकार भी किया है कि किताब नहीं पढ़ी है - पर मारवाड़ी समुदाय को जाति मानना या कई जातियों का एक समाहार मानना उतना ग़लत भी नहीं है. जो लोग जाति का लाल कपड़ा देखकर साँढ़ की तरह बमक जाते हैं, उन्हें ये पता होना चाहिए कि इसका झंडा उन्नीसवीं सदी से ही बुलंद किया जाता रहा है. और जैसा कि स्वाभाविक था, जो साधन-माध्यम-संपन्न थे, उन्होंने अपनी जाति का बिगुल पहले बजाया. साथ में राष्ट्र का भी बजाया और कई दफ़े समुदाय, जाति और राष्ट्र एक-दूसरे के पर्यायवाचि बन जाते लगते हैं. फिर बाक़ियों ने कभी जाति-विशेष का, या कई जातियों के, गुट बनाए. जैसा कि कई आहत टीपमारों ने सही फ़रमाया, मारवाड़ी निश्चय ही ऐतिहासिक तौर पर राजास्थान के मारवाड़ इलाक़े से देश-दुनिया में फैल गए. और उनमें आपस में भिन्नता भी है, पर बेटी-रोटी का व्यवहार करने में और राजनीतिक वोटबंदी/गुटबंदी करने में वे ख़ुद को एक वृहत्तर जाति के रूप में भी पेश करते रहे हैं. अपने आप में इस पर शोध करना दिलचस्प होगा - मेरे ख़याल से जाति के गौरवगान के अलावा एकाध इतिहास की किताब भी है आधुनिक मारवाड़ियों पर जिसमें इससे बेहतर जानकारी है:

http://en.wikipedia.org/wiki/Marwaris

जो ज़्यादा जानते हैं वे यहाँ लिखकर हमारे ज्ञान में इज़ाफ़ा कर सकते हैं. जो जाति-विहीन समाज की कल्पना कर रहे हैं, वे अपनी आँख मूँदकर ध्यान धरें: जब वह ज़माना आएगा, हम उन्हें जगा देंगे. वैसे टिप्पणियों से साफ़ पता चल जाता है कि लोग बात-बात में आहत होते हैं हमारे यहाँ - भई अगर जाति नहीं है तो शादी के जातिगत/समुदायगत विज्ञापन क्यों निकालते हो? अगर किसी ने कह दिया, ग़लती से भी तो उसका समाजशास्त्र दुरुस्त करो, हम सबका ज्ञानवर्धन हो.

शुक्रिया तुम्हारा भी और टीपकारों का भी

Unknown said...

चलो यार कोई तो प्रतिभाशाली व्यक्तियों को पुरस्कृत और प्रोत्साहित कर रहा है. भले वो जाति के नाम पर ही क्यों ना कर रहा हो. अब ये जाति तो जाने वाली नहीं है. करने दो. वैसे एक किताब आपने देख लिया मारवारी समाज का. पढ़ कर बताइयेगा की उसमे क्या था. अभी तो कवर पेज पढ़ कर रगड़ दिए हैं आप. पिछले दिनों पटना में वैश्य सम्मेलन हुआ. जाति के सिपाही के ब्लोग पर मुझे उम्मीद थी की कुछ आएगी. लेकिन कुछ नहीं. आप चुन चुन कर केवल कुछ जातियों पर लिखते हैं क्या? कौन ऐसे मारवारी हैं जिसे कोई और समाज नहीं प्रोत्साहित कर सका उसे उसके घर वाले प्रोत्साहित कर रहे हैं?

Plain Politics said...

अगर मान भी लिया जाए की हजारों साल पुरानी "जाति" खत्म हो जायेगी - फ़िर नए जात बनेंगे - जैसे "पत्रकार " , डाक्टर , वकील इत्यादी ! शायद इसका प्रकोप अब नज़र भी आ रहा है - भारत मे डाक्टर और कलक्टर से ज्यादा गठजोड़ किसी भी आधुनिक जाति का नही है - पत्रकारों मे थोडा बहुत नज़र आता है - पर उनमे भी आपस मे "क्लास " सिस्टम है -
कुछ चीजें इतनी आसानी से नही जाती हैं ! जाति तो बिल्कुल भी नही जायेगी ! भले वह "मनुवादी" हो या "आधुनिक" ! फ़िर यह फालतू का "बहस" क्यों ?

JC said...

Jab mein French seekh raha tha to meri pehli teacher ne sabko kaha ki galat mat bolo, kyunki baki vidyarthi bhi us se prabhavit ho galat bolne lag paradte hain (shayad kyunki sab ek hi thaili ke chatte batte hote hein)...

Mein likhai mein to achcha ho gaya per bolne mein kamzor. Phir do sal baad meri senior teacher ne kaha ki mein likhai mein avval hoon per bolne mein peeche. Unka kahna tha ki agar vidyarthi bolenge nahin to bolna kaise seekhenge!

Aur sahi baat yeh hai ki her manav mein charon varna prakritik den hain. Savere sabse pehle bath room mein her koi kshudra hai (jo darshata hai ki arambh mein bhagwan bhi kshudra tha) aur kal ke sath uska janma janmantar mein unnati athva avnati hoti hai (kintu bhagyawan ya bhagwan is prakar Vishnu athva vish ke anu se Shiv athva jo vish ki upasthiti mein bhi amrit ban paye!)…Bharat aise hi mahan nahin hua!

Unknown said...

likne wale likh jate hain, palat kar padhte bhi nahi, comment aise aise ki bas sara jyan unhi ke pass hai... ravish kumar ki line hai-किताब अभी पढ़ी नहीं है लेकिन द इकोनोमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार इसमें मारवाड़ी समाज के कामयाब युवाओं का तस्वीर सहित वर्णन है। - aise me wo to praksakon ko is tarah ka dhandha karne ki salah de rahe hain,,,, dusare ki taraf ungali uthane se pahle dekh lena chahiye ki baki ki tin ungliyan aapki taraf hi ishara karti hain.... mukhiya g ko sawdhan rahne ki jarurat hai.......

TV said...
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Unknown said...

Here comes TV Sinha. He writes, thinks eats and drink only Pro Kayasth and anti Bhumihar. TVS being a Kayasth don't quote any caste name. Behave like a Vice president of a software company. Your writing reflects a castiest gawanar. I have seen you talking Kaysth. Every forum you cry that why some xyz prasad was forgotten for his fight for Mahatma Gandhi setu.

Unknown said...

देखिये जातियता तो हर जगह है. कहि कहि तो हमे आद्त हो जाति है और लगने लगता है कि शायद ये अच्छा हि हो रहा है.समाज मे कुछ ऐसी जाति है जो अगर जातियता करेन्गे भि तो ऊन्को दुध भात मिल जाता है.मारवारी, कायस्थ ये कुछ ऐसी जातिया है जो खुलेआम जातिवाद करते है. जैसे कि एक सज्जन को दवा कि जाति मे एक जाति का नाम लेकर किया. दुसरे सज्जन ने उनका पुरा जात पेशा और ऊनकी जातिवाद का पोल खोल कर रख दिया. बिहार मे कायस्थ महासभा होती है.पटना मे चित्रगुप्त नगर बसाया गया है. ऊसी तरह ये मरवारी किताब को मान लेते है कि ये समाज का एक नेटुरल घट्ना है. लेकिन पत्रकार कि खोजी नजर से नहि बच सकते है. देखिये लोग बिहार से बाहर बिहारी के नाम पर लड जाते है. बिहार के भितर घुसते लाला, राजपुत, ब्राह्म्न, कुर्मि यादव हो जाते है. हम दुसरि जाति के जात पात को स्विकार कर लेते है. जैसे कि एक सज्जन ट वि सिन्हा ने किया. ये वहि सज्जन है जो के बि सहाय को सब्से बडा नेता मानते है. पुर्ण कायस्थ मन्डली पटना डैलि के सक्रिय कार्यकर्ता है.मै ईनका कमेन्ट पढता हु. वि पि होकर आप ये सब जातिवाद कैसे कर लेते है. अगर आपके कम्पनी को पता चलेगा तो?

TV said...
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Unknown said...

जितेन्द्र , साकेत और ठाकुर साहब ,

मैं ठाकुर साहब से सहमत हूँ - भूमिहार का नाम आते ही एक लड़ाकू छवि नज़र आती है ! इसका एक कारन यह है की - भूमिहार ब्राह्मण खून से ही एक लड़ाकू जाती है ! भगवान् परशुराम का आशीर्वाद जो है ! एक कहावत भी है बिहार मे -

ब्राह्मण कभी "विश्वासी" नही होता
राजपूत को बुध्दी नही होता
भूमिहार कभी सीधा नही होता
और , लाला ( कायस्थ ) कभी "इमानदार" नही होता !

जिस तरह से "ठाकुर" साहब ने कोमेंट दे दिया की - यह बिम्बदाना है की "भूमिहार जति " को लोग बुरा समझते हैं - यह बात कुछ हजम नही हुई , क्या सभी कायस्थों को "चोर" और बेईमान समझ लिया जाए क्योंकि अधिकतर बड़े बड़े अफसर है और पटना दिल्ली मे बड़े बड़े कोठियाँ रखते हैं ! क्या बिहार यह भूल पायेगा की सब से बड़ा त्याग " जे प्रकाश नारायण" का था जो ख़ुद कायस्थ थे ! इस तरह की बातें ग़लत हैं !

कोई कायस्थ यह कैसे भूलेगा की - मुज़फ्फापुर और बाकी जगहों पर अधिकतर स्कूल , कोलेग भूमिहार ब्राह्मण द्वारा ही बनाये गए !

ख़ुद "ठाकुर साहब " बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पढे लिखे हैं - जिसमे काशी नरेश का बहुत बड़ा योगदान है - क्या ऐसे को यूं ही "बुरा" मान लिया जाए - क्योंकि काशी नरेश एक भूमिहार ब्राह्मण थे ?

पर , हाँ - अधिकतर बाहुबली विधयक भूमिहार जति से हैं - इसका भी एक वजह है - एक तो लड़ाकू जात - ऊपर से लालू का अत्याचार - कोई चारा नही बचा था सिवाय इसके की लालू से टक्कर लेने के लिए - यही विधायक पैदा किए जाएं !

कौन कहता है की भूमिहार जाती "बुरा" है और किस आधार पर कहता है ? ठाकुर साहब , कृपया इसका आधार बताएं - अन्यथा आप पर एक घोर जातिवाद होने का आरोप और खुले बिहारी समाज मे नंगा किया जाएगा !