ओलंपिक टॉर्च का ख़र्च

हिंदुस्तान की मीडिया राजधानी दिल्ली के टीवी दफ्तरों में ओलंपिक टार्च को लेकर उत्साह सुखद है। इससे पता चलता है कि भारत देश ओलंपिक को कितनी गंभीरता से लेता है। दौड़ने को लेकर इतने बयान आए,विवाद हुए गोया भारत को पदक टॉर्च की रैली में ही मिलेगा। मुझे पूरा यकीन है कि भारत ने इतनी ही तैयारी ओलंपिक खेलों के लिए की है। सिर्फ हमेशा कि तरह मीडिया ने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया होगा। काश हम सचमुच में इतनी तैयारी करते। कितना अच्छा लगता कि टीवी और अखबार के पत्रकार हर उन पलों पर रिपोर्ट करते कि फलां खिलाड़ी की तैयारी का स्तर कांस्य पदक तक पहुंचता दिख रहा है। भारत उम्मीद कर सकता है। क्या आपने ओलंपिक खेलों की तैयारी कर रहे खिलाड़ियों का प्रोफाइल कहीं पढ़ी है। लेकिन टॉर्च की रिपोर्टिंग इस तरह से हो रही है जैसे हम ओलंपिक जीतने वाले देश हो गए हैं।

मैं उस प्वाइंट पर भी आ रहा हूं। आप कहेंगे कि टॉर्च रैली का संदर्भ सांकेतिक नहीं है। तिब्बत के लोग विरोध कर रहे हैं। इसलिए है। क्या वाकई में हम इस रैली और प्रदर्शन के बहाने चीन, भारत और तिब्बत को लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति की जटिलताओं से जनता को जागरूक कर रहे हैं। क्या वाकई में ऐसा हो रहा है?

टीवी पर क्रिकेट की रिपोर्टिंग स्कोर कार्ड से आगे नहीं हो पाती। उसी तरह से जैसे कुछ साल पहले राजनीतिक पत्रकार अकबर रोड और अशोक रोड पर होने वाले महासचिवों के परिवर्तन को बड़ी राजनीतिक घटना बताया करते थे। कयासों की रिपोर्टिंग हुआ करती थी कि वेंकैया बनेंगे या बंगारू जैसे इनके बनने न बनने से देश की राजनीति की दिशा बदलने वाली हो। आज वही पत्रकार ऐसी खबरों को महत्व नहीं देते। न ही न्यूज़ रूम में मिलती है। आने वाले दिनों में क्रिकेट के साथ भी यही होने वाला है। रन बनाने का विश्वलेषण कितने दिन तक करेंगे। क्रिकेट की बात कम ही होती है। हार जीत की ज्यादा। वही हाल ओलंपिक टार्च का है। किसी ने सवाल नहीं उठाया कि भाई सारी तैयारी रैली पर ही खर्च कर दोगे तो चीन जाकर क्या करोगे? वहां भी सचिन और आमिर को दौड़ाओगे? ख़बर बनाने के लिए।

वैसे आज वड़ोदरा के पास एक बस नहर में गिर गई। चालीस के करीब स्कूली बच्चे मारे गए। मुझे शक है कि दिल्ली मीडिया से कोई पत्रकार रिपोर्टिंग के लिए भेजा गया होगा। हो सकता है कि कोई गया भी हो। लेकिन तीन साल पहले तक ऐसी घटनाएं होते ही फ्लाइट की सारी टिकटें बुक हो जाया करती थीं। पता नहीं आज सोलह अप्रैल के दिन ऐसा हुआ या नहीं। शायद शाम की खबरों में इस घटना की गंभीरता और व्यापकता से हुई रिपोर्टिंग से मेरी यह आशंका ख़ारिज हो जाएगी।

5 comments:

निशान्त said...

ओलंपिक टॉर्च को लेकर यह दूसरा हलचल है मीडिया में - पहला पिछले ओलंपिक पर था जब बिपाशा बासु दौडी थी. टीवी में तब भी ये मसालेदार आइटम था. इस बार तो नही बन सका. ओलंपिक को लेकर कोई उत्साह मीडिया के अलावा मुझे तो कहीं नहीं दिख या जान पड़ता है. हाँ, इंटरनेट पर विदेशी अखबार और न्यूज़ में जरूर है. अगर आप और हम बीबीसी, ऐपी और रॉयटर्स की site पर न्यूज़ पढें तो कुछ देर में वही सारी चीजें रीडिफ़, आईबीएन-लाइव और एनडीटीवी पर मिल जाएगा. वेस्टर्न वर्ल्ड में ओलंपिक को लेकर हलचल है - कम से कम ब्रिटेन और यूरोप के देश में चर्चा का विषय टॉर्च और तिब्बत केवल नही है. यहाँ विषय हैं - बीजिंग का पोल्लुशन, खिलाड़ियों की सूची, टॉर्च के साथ चलने वाले चीन के ब्लू ट्रैक सुइट गार्डस, ओलंपिक का राजनितिक परिदृश्य में महत्त्व.
शायद इसके लिए हमारे बुध्धिजीवी और पत्रकार तैयार नही है. एनडीटीवी के अंग्रेज़ी और हिन्दी समाचार के विषय वस्तु को लेकर भी मैं छुब्ध हूँ. हिन्दी में मसालेदार खबरें होती हैं - इन्फोर्मेशन, डिस्कसन नहीं होता है. पर यह जान के खुशी हुई कि आप कि इस चर्चा से शायद विस्तार से सोचा जाएगा औए टीवी मीडिया थोड़ा कुशल बन पायेगा.

Vikas Sarthi said...

चैनलों की रिपोर्टिंग तो बस....देखते जाइए जिस दिन मशाल दौड़ होगी, हर कहीं केवल फिल्म वालों और दूसरे सेलिब्रिटीज़ की ही चर्चा होगी। खिलाड़ियों का नाम शायद ही कहीं लिया जाए क्योंकि आधे से ज्यादा लोग क्रिकेट के अलावा दूसरे खिलाड़ियों को शायद पहचान भी न पाएं। बहरहाल चैनलों की लीला तो अपरंपार है,टार्च को लेकर भारत की तैयारियां ऐसी हैं मानों मशाल का विरोध तिब्बत में चीन की नीतियों को नहीं बल्कि भारत को कटघरे में खड़ा कर रहा हो।

Nikhil said...

रवीश जी,
बहुत सही समय पर यह लेख लिखा आपने....मैं भी कल जंतर-मंतर के पास से गुज़रा था, देखा कैसे लोग १७ की टॉर्च यात्रा के लिए लगे पड़े थे.....जनता दल (यू) कार्यालय के ठीक सामने....कई हिन्दुस्तानी लोग वहाँ सहानुभूति के लिए पहुंचे थे..(मेरे कुछ कॉलेज दोस्त भी...)....सामने जूस की दूकान थी, पिज्जा वगैरह की भी.... वहाँ ज्यादा भीड़ थी...सबके हाथों में "सेव तिबत" जैसे नारे थे और जूस के गिलास भी....फ़िर मैं चला आया...वो भी चले आए होंगे.....
निखिल..

Arun Arora said...

रवीश जी चैनलो को खली और ट्राच से फ़ुरसत तो मिले ,वैसे भी बस गुजरात मे गिरी है और चुनाव अभि अभी हो चुके है ,वरना गुजरात मे मोदी ने बच्चो से भरी बस को नदी मे डाला की लाईव रिपोर्टिंग शायद आप ही कर रहे होते ,यही है ना आज की पत्रकारिता का सत्य,अब मोदी को गरियाने का कोई फ़ायदा नही बाकी लोग तो मरते ही रहते है किसी बडे आदमी या पत्रकार संपादक की गाय या कुत्ते के मरने की सूचना भी अखबार मे बडी बडी छापी जाती है है ना.? :)

JC said...

“Lead the kindly light,” “Jyot se jyot milate chalo,” “Tamso maa jyotirgmaya,’ ityadi aaj makkhi per makkhi marne saman ‘adhunik manav’ bunder saman nibha raha hai…gyan ke ujale per agyan ka andhera chhata hi ja raha hai – kalratri ka sanket?

Patrakar, sarkar aur hum sab bekar Nano car ke intezar mein bahar ke ujale se bhiter ke ujale ko Buddha the ‘Light of Asia’ ke baad Gandhi mein jhalak dekh ker bhi Ghulam Bharat phir se chirdiya ghatr ke sher saman pinjarde mein adatan lachar baith gaya dikhta hai: Kya kal ki ghulami ke karan? Kalam ke sahi upyog se Tulsidas ka nam aj bhi swarna akshar mein likha jata hai! Kintu ‘Sone ki Lanka’ aj phir se priya lagne lagi hai!