क्या इस देश में ऐसा भी कोई राज्य है जहां लोग जात के आधार पर वोट नहीं करते हैं? हम सब पिछले कई चुनावों के तमाम विश्लेषणों से इस सत्य को बिना किसी चुनौती के ही स्वीकार करते रहे हैं कि सिर्फ जाति ही एक कारण है। क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक आधार का मूल्यांकन जाति और धर्म की सीमा से कभी आगे जाता नहीं। ख़ैर ये विवाद का विषय है। संजय कुमार की दलील है कि दिल्ली एक राज्य है जहां लोग वर्ग के आधार पर वोट करते हैं। दिल्ली में ज्यादतर मतदाता तीन वर्गों में बंटे हैं और क्लास के आधार पर ही वोट करते हैं क्योंकि इनकी गोलबंदी जाति या इलाके के आधार पर नहीं होती है। संजय कुमार ने अपने शोध और सर्वे से दिल्ली की एक दूसरी ही तस्वीर खींची है। दिल्ली मुख्य रूप से अनुसूचित जाति और ओबीसी के प्रभुत्व वाली राजनैतिक भौगोलिक स्पेस है। तब भी यहां मतदान वर्ग के आधार पर होता है। वर्ग के लिहाज़ से इसके वोटर का बड़ा हिस्सा आर्थिक रूप से गरीब है। लोअर क्लास का है।
किसी शहर के मतदान करने की प्रवृत्ति पर कम शोध हुए हैं। शायद यह पहला बड़ा शोध है। संजय की बात तब ठीक ठीक बैठने लगती है जब देखता हूं कि निर्भया या अन्ना अरविंद आंदोलन के वक्त तमाम वर्गों और जातियों को लेकर चल रही दिल्ली का एक बड़ा हिस्सा एक नागरिक बोध की पहचान में शामिल होने के लिए आतुर हो उठता है। इनमें से कुछ रामलीला या रायसीना पहुंचते हैं तो कुछ टीवी के सामने बैठकर दर्शक बन जाते हैं। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि दुर्गा को लेकर जब मीडिया ने अभियान उठाया तो यूपी में कोई लहर पैदा नहीं हुई। सोचता रहा कि क्यों ऐसा हुआ। शायद वहां ज़िला इलाका भाषा जाति और पार्टी की पहचान गहरी होगी। लोग नाराज भी होंगे तो समाजवादी पार्टी के खिलाफ बाहर नहीं आना चाहते होंगे। मगर दिल्ली में लोग निर्दलीय किस्म से बाहर आए। हो सकता है कि संजय के अनुसार यही बात उनके वोट देने में भी झलकती हो। लेकिन जब जिंद में दलित लड़की के साथ बलात्कार होता है, वहां से लोग आकर यहां प्रदर्शन करते हैं तो अनुसूचित जाति और ओबीसी की दिल्ली में कोई हलचल नहीं होती है। ऐसा नहीं कि बिल्कुल नहीं होती मगर मीडिया और मिडिल क्लास तक नहीं पहुंचती है।
यह किताब नई तस्वीर पेश करती है तो पुरानी धारणाओं पर बनी हमारी सोच से टकराती भी है। संजय कहते हैं कि लोअर क्लास कांग्रेस को वोट करता है। उसका बड़ा हिस्सा। इस लोअर क्लास में बीएसपी आ गई है जो चुनौती दे रही है। लेकिन बीएसपी यहां के दलितों में क्या क्लास के आधार पर जगह बना रही है। फिर यह किताब बताती है कि दलितों का अपर क्लास कांग्रेस के साथ है। दलितों का अपर क्लास कौन है। जाटव है या तमाम दलित जातियों का मलाईदार तबका है। अगर जाटव है तो पड़ोस के यूपी में वो बीएसपी का आधार है और दिल्ली में नहीं। वैसे ज़रुरी नहीं है कि हर दलित वोट बीएसपी का ही है। दूसरी तरफ भगवान शनि की लोकप्रियता भी दूसरे एंगल से संजय की बात की पुष्टि करती है। और आम आदमी पार्टी के उभरने का आत्मविश्वास भी कि दिल्ली वो जगह है जहां जाति छोड़कर एक आम नागरिकता को लेकर राजनीति की जा सकती है। संजय की बात सही है कि दिल्ली में जाति के आधार पर राजनीतिक गोलबंदी नहीं हुई है। मंडल को छोड़ कर जब स्थानीय और बाहर से आए छात्रों का तबका सर्वण और पिछड़ों में बंट गया था। सवर्ण छात्र उसका नेतृत्व कर रहे थे। बाद में ये सभी उदारीकरण के दौर में तमाम धंधों से लेकर तमाम दलों तक में एडजस्ट हो गए।
इन सबके बावजूद कि दिल्ली में वर्ग के आधार पर लोग वोट करते हैं संजय की किताब बताती है कि विधानसभा की कई सीटें हैं जिन्हें जातियों के आधार पर अमुक जाति बहुल सीटें कहा जा सकता है। जैसे दिल्ली में दस विधानसभा सीटें ब्राह्मण बहुल हैं यह एक दिलचस्प जानकारी है। अब किताब यह नहीं बताती कि इन सीटों पर जीतने वाला या कांग्रेस बीजेपी से टिकट पाने वाला उम्मीदवार इसी जाति का होता है या नहीं। क्या एक जाति के बीच वर्ग विभाजन इतना साफ हो सकता है कि ब्राह्मणों का अपर क्लास बीजेपी को वोट दे और लोअर क्लास कांग्रेस को। पंजाबी खत्री जातियों के भी १९ सीटें हैं। बवाना नज़फगढ़ और हस्तसाल जैसे क्षेत्रों में गैर जाट नेतृत्व उभरा ही नहीं। यहां की सीटें जाट बहुल मानी जाती हैं।
जाति गई नहीं है। लेकिन राजधानी में वर्ग आ गया है। हम आराम से जाति और वर्ग के बीच की सीमा लांघते रहते हैं। यहां की राजनीतिक आबादी शायद अपने पूर्व के इलाको की राजनीति को भी जात से ऊपर उठ कर देखती होगी। मालूम नहीं। मुझे डर है कि दिल्ली हमेशा ऐसा नहीं रहेगी। या फिर दिल्ली को भी इन चुनौतियों से गुज़रना होगा। जब पूर्वांचल के नेताओं की सक्रियता और उनके भीतर पनप रही महत्वकांक्षा को देखता हूं तो लगता है कि संख्या अपने तरीके से दावेदारी करेगी।
अच्छी बात यह है कि यह किताब एक ऐसे स्पेस की खोज करती है जहां जाति की राजनीतिक पहचान प्रभावशाली नहीं लगती है। अगर ऐसा है तो दिल्ली भारतीय राजनीति का एक सुंदर भविष्य है। और ऐसा है भी। जाट हों या बिहारी हों इनके बीच तनाव नहीं है। दिल्ली में मुंबई की तरह भैय्या भगाओ राजनीति नहीं है। स्थानीय और बाहरी राजनीतिक गोलबंदियों में घुले मिले रहते हैं। इस किताब में कई आंकड़ें दिये गए हैं। उन आंकड़ों से गुज़र कर दिल्ली को इस नज़र से देखना राजनीतिक समझ की नई दुनिया में प्रवेश करना है बस आदत है कि जाती नहीं। जाति को लेकर पुराने सवाल पीछा नहीं छोड़ते।
(संजय कुमार सीएसडीएस में योगेंद्र यादव के साथ जुड़े रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषण का उनका लंबा और स्वतंत्र अनुभव है। )
8 comments:
योगेंदर यादव की वजह से ही अरविन्द में चुनाव में आने का साहस हुआ है।
मेरा दिल्ली में 6 साल का अनुभव भी इस survey को सही मानता है।
yeh baat kafi mayno me theek lagti hai delhi ka rajnaitik paiveesh kuch saalon me kafi badla hai kyonki logon ki priorities badli hain shetravaad delhi ki shuru se samsya nahi rahi hai delhi ne hamesha se sabko apnaya hai yahi karan hai ke delhi ke maahol me punjab ki bhi jhalak dikhti hai haryana ki mitti ki khushboo bhi hai UP ka touch bhi hai aur kuch bihar aur rajisthan ki mehek bhi hai. politics me bhi yeh parivartan dikh raha hai iska sabse bada example hai nitin gadkari ko bjp delhi ka election incharge banana jo ki nagpur se aate hain. mjhe lagta hai is survey ke baad aur bhi jyada badlav dikhega hume.
काफी जानकारी प्राप्त हुई आप के ब्लॉग से...
सिर्फ दिल्ली के significant factors पढ़ने का क्या मतलब?आप ने किताब के बारे मैं ज्यादा कुछ नहीं लिखा।यह कोई research thesis लगता है शायद।
रविशजी,धर्म,जाती,भाषा,वेतन इतने voters के प्रकार थे
अब age और gender भी add हुए है। ठीक वैसे ही ये netalog सभी voters नाम की property के भाग कर रहे है जैसे बच्चे कंचों का :) क्या?:) दुनिया मैं सब से complex लगनेवाली चीजों का base सब से सरल सिद्धांत होता है। आजमा के देख लो।:)मेरे गुरूजी ऐसा कहते है।
anyways आप कंचों की property का विभाजन थोडा ध्यान से देखिएगा अब से:) पहले रंग के हिसाब से,फिर न जंचने पर बड़प्पन के हीसाब से फिर नए और पुराने के हीसाब से,फिर थोड़े spare रख के और थोड़े लकी/जिताने वाले के हिसाब से विभाजन तो होगा लेकिन finaly तो झगड़ा तय होगा:) और केस कोर्ट मैं जाएगा:)वहाँ विभाजन की सर्व सम्मत नीति तय की जायेगी-जो सर्व मान्य होगी(बहुधा एक बुद्धिशाली की तरफदारी) फिर वाही विभाजन कोर्ट मैं माँ बाप कर के देंगे तो भी
एक न एक का रोना तय होगा।:)
इन्सान की मुल्तः प्रकृति छल करने की नहीं सरल रहने की है-यह सिद्धांत है-और जहाँ छल है वहां समस्याएँ !! simple !!
:)
Delhi main aadmee paise kamane aata hai.Matlab yhan to kewal business kee baten hotee hai. Wahi class sabse bada hai.Inhe aap ABCD main baant dejiye.
ye purana survey hai.pub. abhi huwa hai.maine bhi is servey me yogdan diya hai.mne kai jgh jakr survey kiya tha.qustionare se
सच कहते हैं, जात पाँत चलता नहीं है, वह तो दौड़ता है।
उदारीकरण के बाद हुए इतने बड़े स्केल में हुए प्रव्रजन के सामाजिक असर अब शायद इस तरह से (भी) दिखने लगे हैं। लोग अपनी परम्पराओं को तोड़कर नयी जगह नए समाज का हिस्सा बनते हैं.. वो अपना कितना पीछा छोड़ आए हैं? कितना नया बन पाए हैं - ये वोटिंग पत्त्रें में बदलाव भी उसी का एक आयाम लगता है। इसके बार में सामाजिक विज्ञानं की दृष्टि से देखन काफी रोचक रहेगा। अच्छा है कि ऐसे अकादमिक कार्य किये जा रहे हैं जो हमारी जड़ सोच और अव्धार्नाओं को चुनती देते हैं। हमेशा से बदलते समाज को नए आयाम से देखने का जरिया बनते हैं। (इस विषय पर ज़मीनी हकीक़त से परे होने के कारन, किताब के निष्कर्ष पर कोई टिपण्णी नहीं कर सकता)
Wondering why isn't there isn't a single channel on devbhumi appraising or discussing what other states have achieved .
What we are not discussing
1. 360 turnover in punjab police.Remember this is the same state straight out of terrorism.
2.Primary education improvements in orrisa.
3.Tourism from rajasthan.
4.Health plans from tamilnadu.
and story goes on and on and on
what the f**k is wrong with this country is debatable but what the f**k is right does anyone cares to post , discuss or whatever? Mitro , what are you doing? pure bakchodi?
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