हर मर्द नज़र जिन्हें वेश्या समझती है

मुनिरका दक्षिण दिल्ली का एक ऐसा शहर है जो गांव होने के अतीत के साथ ज़िंदा है। गांव के कच्चे मकानों को ढहा कर जिस तरह से यहां बहुमंज़िला इमारतें बनीं हैं,उनके ढांचे का अध्ययन बताता है कि जैसे जैसे पैसा आया,वैसे वैसे मकान बना। टेढ़ा-मेढ़ा और अंधेरा। बिना खिड़की के गुफानुमा कमरों को भरमार है। हर मकान अपने भीतर एक छोटा भारत है। एक कमरे में दक्षिण के लोग हैं,दूसरे में पूर्वोत्तर से आई कोई लड़की और तीसरे में बिहार यूपी से माइग्रेंट छात्र। हर किसी के लिए जगह है। जगह-जगह पर टू-लेट के बोर्ड से पता चलता है कि मुनिरका में हर वक्त किरायेदारों की तलाश जारी रहती है। सब कमरों का स्तर एक जैसा नहीं है। कुछ कमरे बेहद खराब हैं तो कुछ थोड़े कम खराब और कुछ अच्छे। अब जो यहां किरायेदार बनता है, वो सबसे पहले खराब कमरों में जाता है। फिर वो कम खराब कमरों के लिए निगाह गड़ाये रहता है। जैसे ही वह पढ़ने के बाद नौकरी करने लगता है,अच्छे कमरे की तलाश में बेचैन हो जाता है। यही कारण है कि मुनिरका के भीतर भी माइग्रेन की प्रक्रिया हर वक्त जारी रहती है।

मैं भी यहां रहा हूं। दस साल बाद फिर जाना हुआ। नागालैंड की एक छात्रा की हत्या हो गई। पटना के एक होनहार शख्स ने अपना जुर्म कबूल कर लिया। बिहार यूपी की यही समस्या है। यहां लड़के को होनहार बनना ही सीखाया जाता है। बाकी संस्कार नहीं दिये जाते। ज़्यादातर लड़के घर से ही ऐसी निगाहों का संस्कार पा जाते हैं, जिनके सहारे वो हर दिन आस-पास से गुज़र रही लड़कियों का पीछा करते रहते हैं। कुछ गार्जीयन को देखा है,ऐसी शिकायतें मिलते ही इतना उग्र हो जाते हैं कि लात घूंसे से बराबर कर देते हैं। बाकी गार्जीयन को तो पता भी नहीं चलता। दरअसल गार्जीयन भी ठीक इसी तरह की प्रक्रिया से गुज़र चुका होता है। निगाहों के करम से देखें तो बिहार यूपी की लड़कियां जानती होंगी कि वो हर दिन कितनी निगाहों से खुद को बचाती होंगी। अच्छा लड़का भी लोफर होने के इन नैसर्गिक और सामाजिक तत्वों के साथ बड़ा होता है। संक्षेप में जिन्हें लुच्चा कहा जा सकता है। तभी मैं कहता हूं भारत के मर्द बेहद ख़राब सामाजिक उत्पाद हैं।

इतनी भूमिका इसलिए बांध रहा हूं कि मुनिरका के दुकानदार ने मुझे थोड़ा खींच लिया। मेरी कानों के नज़दीक जाके बोला कि पूर्वोत्तर की इन लड़कियों ने मुनिरका को रंडीखाना बना दिया है। आपने देखा नहीं कैसे कपड़ें पहनती हैं। मैं भिड़ गया। क्या खराबी है उनके कपड़ों में। लेकिन वो नहीं माना। कहता रहा कि मुनिरका बदनाम हो गया है। रात भर पार्टी करते हैं। किसी से घुलते मिलते नहीं हैं। सज-धज के निकलती हैं। रोज किसी न किसी ब्वायफ्रैंड(दुनिया के तीन नंबर के शब्दों में एक यह भी है)के साथ आती हैं। एक बुज़ुर्ग बोलने लगे कि तवायफों का अड्डा बना दिया है। कपड़ें देखे हैं आपने? तभी उज्जव नागर से मिला। बोला कि हां ये सही है। यहां के लोग पूर्वोत्तर की लड़कियों के बारे में यही सोचते हैं। वो लोग भी कम घुलते मिलते हैं। आपस में ही रहते हैं। लेकिन यहीं से थोड़ी दूर प्रिया सिनेमा जाइये तो वहां बिहार यूपी और दिल्ली की कैट बन चुकी लड़कियों के कपड़े तो ऐसे ही होते हैं बल्कि इससे भी ज़्यादा कम और खुले होते हैं। उनको तो कोई वेश्या नहीं कहता। इनको क्यों कहें?जामिया में पढ़ने वाले एक लड़के ने कहा कि कालेज जाता हूं तो लोग पूछते हैं कि मुनिरका में तो नार्थ ईस्ट वाली मिलती होंगी। क्या करें बॉस ग़लत तो है लेकिन लोग यही सोचते हैं।

अब आप इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद सोच रहे होंगे कि हमारी मर्द नज़र किस तरह से लड़कियों को देखती है। पूर्वोत्तर की लड़कियां भी बेहद आहत। एक ने कहा कि चिंकी चिंकी बोलते हैं। हम जिन्स और टी शर्ट ही तो पहनते हैं। अकेले जाना खतरनाक होता है तो हर बार अपने इलाके के किसी लड़के के साथ निकलते हैं। तो इन्हें लगता है कि हम ब्वाय फ्रैंड बदलती हैं। एक लड़के ने कहा कि नज़र गंदी है तो वो पूरे कपड़े में किसी लड़की को वैसी ही देखेगी। जब पूछा कि आप लोग घुलते मिलते नहीं हैं? जवाब आया कि किरायेदार कितना घुलेगा मिलेगा। हिंदी नहीं आती लेकिन क्या हिंदी आती और हम उनसे घुलते मिलते तो लोगों की नज़रें बदल जातीं? इसका जवाब मेरे पास नहीं था।

लेकिन कैमरे के साथ गलियों से गुज़रती पूर्वोत्तर की लड़कियों के आस-पास उठती गिरती निगाहों को देख रहा था। वो सब शरीफ इन्हें दबोच लेना चाहते थे। वैसे ही जैसे पुष्पम सिन्हा नागालैंड की उस लड़की को मार कर खा गया। खा ही गया। सिनेमाई संस्कार भी इस तरह की नज़रों को लाइसेंस देते हैं। मुझे पूर्वोत्तर के उस लड़के की बात याद रह गई। उसने बहुत समेट कर कहा..एक बात बताइये...लड़कियों को ऐसे देखने वाले लोग किसी भी राज्य की लड़कियों को ऐसे ही देखेंगे। नार्थ ईस्ट बहाना है। उनकी प्राइवेट निगाहों में हर लड़की एक इशारे पर उपलब्ध हो जाने वाली माल ही होती है। गाली की तरह लगी उसकी बात। इस तरह की बातचीत के ज़्यादातर हिस्से को अपनी रिपोर्ट में दिखाया लेकिन इस लाइन को नहीं दिखा सका। जानबूझ कर किया गया फैसला नहीं था,बस एडिटिंग करते वक्त भूल गया। लेकिन बाद में जब बात याद आई तो परेशान हो गया। नॉर्थ ईस्ट की लड़कियां रोज़ ऐसे बेहूदों की नज़रों के जंगल से गुज़रती होगीं। सोच कर डर गया। क्या हालत होती होगी उनकी हर दिन?

53 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

रवीश जी, काहे खाली बिहार यूपी को बदनाम किए देते हैं। राजस्थान, म.प्रदेश सब तहाँ ऐसे लोग मिलेंगे।
असल बात ये है कि मर्द समझता है कि ये लड़कियाँ हमारी निगाह से डरती क्यूँ नहीं? तो वह बदनाम करता है। वरना नजर तो बुर्के में छिपी लड़की को भी वैसे ही देखती है जैसे औरों को।

Kulwant Happy said...

एक लड़की अपने भाई के साथ भी घूम रही हो, तो देखने वाले कहते हैं देखो। देखो। वो पूछेंगे नहीं, बस मजा लेना है। सोच ही ऐसी है क्या करें। सोच तो ऐसी है। एक मर्द कई महिलाओं से शरीरिक रिश्ते रख सकता है, लेकिन एक लड़की कई लड़कों के साथ दोस्ती भी रखे तो वो टैक्सी कहलाने लग जाती है। कैसे बदलोगे इस घटिया सोच को। मैं कर रहा हूं तो दोस्ती, वो कर रहा है तो सेटिंग। समझ नहीं आती क्या होगा। कैसे बदलेगी नजर और सोच।

ravishndtv said...

dinesh ji

mera pooraa anubhav inhee do pradesho ka hai...isliye bihar up aa jata hai

JC said...

मैं पूर्वोत्तर इलाके में कुछ वर्ष रह चुका हूँ...इतिहासकार जानते हैं कि उस क्षेत्र में, भूत में, दूर पूर्व से विदेशी आये और उन्होंने भी राज किया, हिंदुत्व अपना लिया और शांति पूर्वक मिल- जुल के सैंकडों वर्ष रहे - पश्चिम से आये विदेशी, अंग्रेज आदि, दूर से देखते रहे और अपनी बुराई हिन्दुओं में थोप और सिखों की मदद से ही उस क्षेत्र में पदार्पण कर पाए हाल ही में...और अभी भी वो भाषा के कारण हम पश्चिम के प्रभाव से बिगडे को शक की निगाह से देखते हैं...वहां से शांति प्रिय बच्चे यहाँ दिल्ली अदि में वहां फैले आतंकवाद के कारण पढने आते हैं...

नज़र का दोष 'पश्चिम' के कारण है...जिस दिशा का नियंत्रण (शैतान) शनि के हाथों में है! इसे काल ही बदल सकता है...

Gyan Darpan said...

सही लिखा आपने
"तभी मैं कहता हूं भारत के मर्द बेहद ख़राब सामाजिक उत्पाद हैं।"
ये समस्या पुरे देश में ही देखने को मिलेगी |

मधुकर राजपूत said...

सब नज़र का खेला है भाई साहब, कभी नज़रे इनायत, कभी नज़रे अदावत लेकिन इस मामले में सबकी एक ही नज़र है। नज़रे हवस...दिल्ली नहीं खुद पूर्वोत्तर के दौरे पर चले जाएं वहां भी मिल जाएंगे ताड़ू जन। बस यहां कहते हैं कि तवायफखाना बना दिया, क्योंकि उनकी संस्कृति से परिचय नहीं है, लेकिन रंडीखाने की दुहाई देने वाले अपनी लौंडिया को पल्सर पर चिपकी मारे.. मुंह ढंके देखकर पहचान भी लें तो चुप्प। प्यार है ज़नाब उनकी बेटी का। देख रहा हूं कई साल से, दूसरे की छोड़ो मत अपनी को देखो मत। दिल्ली में यही फंडा है भाई साहब। घर-घर चूल्हे मटियारे। कपड़ों की दुहाई देने वाले ज़रा अपनी लाडली के पहनावे पर भी एक निगाह मार लें। रोज शाम को कई बुड्ढों की निगाहों को लड़कियों का पीछा करते देखता हूं। घर तक छोड़कर वापिस लौटती हैं कम्बख्त नामुराद निगाहें।

Nikhil Srivastava said...

Ravish ji, sateek kahi hai aapne. Ek wakya mujhe bhi yaad aa gaya. Main nai janta ki bahar ke pradeshon me log yahan ki ladkiyon ke baare me kya sochte hain, par is taraf jarur log aise baat karte hain mano dilli, north east aur bombay me har ladki ek ishare par chal deti hai...yakin na ho to un students se poochiye jo pahli baar in states me nikalte hain. har ladki ko aise ghoorte chalte hain mano wo rand ho...
Isse sambandhit ek lekh main apne blog par daal raha hun...jara najar daliye..
http://ankahibaatein.blogspot.com/

Nikhil Srivastava said...

post dalne mein thoda waqt lag gaya...par samay mile to jarur padhiyega...

सतीश पंचम said...

दिनेश जी ने कहा - रवीश जी, काहे खाली बिहार यूपी को बदनाम किए देते हैं। राजस्थान, म.प्रदेश सब तहाँ ऐसे लोग मिलेंगे।

रवीश जी, आप कहते हैं कि आप का अनुभव इन्हीं दो प्रदेशों से है, इसलिये बिहार यूपी आ जाता है।

रवीश जी, मेरा मानना है कि हिंदी पट्टी के मीडिया कर्मी ज्यादा संख्या में होने से यही मुसीबत हो रही है। एक इमेज सी बनती जा रही है यू पी बिहार के बारे में कि ये लोग ऐसे होते हैं..वैसे होते हैं। रहने का ढंग नहीं जानते है आदि...आदि...।

अब इसे मैं सौभाग्य तो कत्तई नहीं मानूंगा कि हिंदी पट्टी के लोग नेशनल न्यूज चैनलों में हैं। अक्सर न्यूज जब भी बिहार के बारे में चलाई जाती है तो एक दरिद्रता का वरक लपेट कर पेश की जाती है। लेकिन बार बार इन्ही प्रदेशों से खबरे दिखाये जाने पर नेगेटिव इमेज बनना लाजिमी है।

क्यों कैमरा हिमाचल को फोकस नहीं कर पाता....क्यों कैमरा तमिलनाडु या उडीसा को फोकस नहीं कर पाता। कभी रूट लेवल पर काम करते हुए कैमरे का फोकस एडजस्ट किया जाय तो देश में दिखाने के लिये बहुत कुछ है। लेकिन हिंदी पट्टी के होने के कारण पत्रकार भी अपने क्षेत्र से हट नहीं पाते और बार बार घोर घोर कर वही सब दिखाते रहते हैं।
यह इमेज ही है जिसके कारण हिंदीभाषी अब अपमानित होने को अभिशप्त होते जा रहे हैं।

उधर राजू श्रीवास्तव के गंवई चुटकुले भी हिंदी पट्टी को एक लंठ मान पेश किये जाते हैं।

इमेज बनने का एक उदाहरण और देना चाहूंगा।

जब सुबह टीवी ऑन करो तो सबसे पहले गुडगांव या नोयडा की खबर होती है कि वहां फलां ट्रक लुढक गया या फलां एक्सिडेंट हो गया या कि फलां जगह वारदात हुई है।

अब चूँकि नोयडा या गुडगांव का रास्ता मिडिया वालों के रास्ते में पडता है तो सुबह सुबह न्यूज चलनी शुरू हो जाती है औऱ वह भी ब्रेकिंग न्यूज का ठप्पा लगाये।

तो इमेज ये बन रही है कि नोयडा गुडगांव काफी असुरक्षित है...जबकि लोग यह नहीं सोच पाते कि आखिर सुबह सुबह न्यूज पहले वहीं की क्यों फ्लैश होती है।

काफी ज्यादा लिख गया शायद। लंबा खर्रा लिखना तो कब का छूट गया है :)

परमजीत सिहँ बाली said...

सतीश की बात मे दम है....जरा एक ही नजर से देश को देखने की कोशिश करनी चाहिए...

Swapnrang said...

ravish ji main batana chahungi ki main up se hun pichle 7 salon se bangalore mein rah rahi jab bhi aisi khabren sunti dekhti hun to anayas juban per aa jaata hai bhagwan main yahi thik hu main apni 3 saal ki beti ko woh mahuol nahi dena chahti jo maine aur who ssari ladkiya bhugtate huye badi hoti hai.nadtv per hi khaber dekhi thi baar baar north east ki ladki sun kar aisa lagta raha jaise uska waha ka hona bhi kuch jimmedar tha is hadse ke liye.south main ladkiya ekdum secure hai aisa nahi hai.lekin kam se kam yaha ghar se baher nikalne se pahle apni pasaand ke kapde pahnane main sochna nahi padta.eve teasing nahi ke baraber hai.is baat se bhi sahmat hun ki up bihar media ki wajah se garibi curruption aur mahilao ke saath anyay ka paryay ban gaya hai jabki puar ka pura north hi aisa hai.tamil nadu eveteasing ke mamle main bahut aagey hai.

ritu raj said...

रविश जी,सतीश पंचम जी की बातों को कुछ एडिट करके सही माना जा सकता है.यह भी सच है कि मुनिरका में रह रही हर नौर्थ ईस्ट वाली को गन्दी नज़र से देखा और चिंकी-चिंकी बोला जाता है. मैं अपने औफ़िस में जब सबको आप-आप कहके बात करता हूं तो सब हंसते है. मजाक बनाया जाता है "कर दिजिये न.. कर दिजिये न.." कह्के. कोई भी लडकी आई नहीं की उसे माल की उपाधि दे दी जाती है. सबके सबके विश्लेशक बन जाते है. ऐसी ऐसी बातें करते है कि पूछिये मत. "मैं तो स्योर हूं कि ऐसी होगी". "मैं तो स्योर हूं कि वैसी होगी." सबके सबके विश्लेशक. मैं इस लिये ये बात लिख रहा हूं कि बात नौर्थ ईस्ट वालों की नहीं बल्कि मर्द नज़र की है. पर एक बात और कि ऐसा नहीं है कि किसी एक प्रदेश या दो प्रदेश के लोगों को सिर्फ़ होनहार होना सिखाया जाता है. होनहार होने के बाद का सभी गुण दिल्ली में या अन्य बडे शहर में ही सिखा जाता है.

PD said...

भैया, यहाँ तमिलनाडु के लड़को कि सोच भी वैसी ही है जो लड़कियों के शरीर से शुरू होकर उसके किसी अंग पर जाकर ख़तम होती है..
इस मामले में देखा जाये तो हम भारतियों में अनेकता में एकता है..

Anonymous said...

रवीश भाई, ऐसे लोग हर जगह होते हैं। आप तो गाज़ियाबाद के वैशाली इलाके में रहते हैं ना। वहां के बाजार में और रिहायशी इलाके में बनी दुकानों में से कुछ पर मैंने महिलाओं को बैठे देखा है। तय है कि वो शौक में या मजबूरी में दुकान चलाने के लिये निकली होंगी। ये मेरा अनुभव है कि इनके लिये भी स्थानीय लोग ऐसी ही बातें करते हैं। ऐसे लोग जो अपने आपको मर्द कहते हैं लेकिन इन महिलाओं की उद्यमशीलता से डरते हैं। कहीं ना कहीं दूसरी तरह की कुंठा भी होती है, आप समझ रहे हैं ना। सेक्टर-4 के बाज़ार में मैने एक सज्जन (हरकतों से दुर्जनों का भी बाप लग हा था) को एक महिला दुकानदार से लड़ते हुए देखा, फिर वो उस महिला को छापा पड़वाने की धमकी देने लगा। महिला दुकानदार की कोई गलती नहीं थी लेकिन छापा सुनते ही वो रोने लगी। कुछ लोग आये, मामला टाला। बाद में पता चला कि वो सज्जन हर तीसरे-चौथे दिन आते हैं, सामान खरीदते हैं, कभी कम पैसे देते हैं कभी उधार कर जाते हैं। इस बार जब हिम्मत करके मना किया तो बेवजह भिड़ गये। गंदे-गंदे शब्द इस्तेमाल किये। हम लोगों ने भी क्या किया, उस आदमी को समझाकर भेज दिया। एक ने पुलिस में जाने की बात कही तो सबने उसे चुप करा दिया। महिला को नसीहत दी क्यों पंगा मोल लेती हो। तो हम सब भी उसी बिरादरी के ही हुए ना। मैंने कई बार सोचा कि उस दुकान पर जाकर पूंछूं कि बाद में तो कुछ नहीं हुआ। लेकिन मेरी हिम्मत नहीं पड़ सकी कि उस महिला ने कोई मदद मांग ली तो मैं क्या करुंगा। मुझे पता है कि ये एक तरह का घटियापना है लेकिन क्या करें।

आभा said...

जो मर्द बचपन से औरतों को घुघट में बाहर जाते और घर की बेटियों को पाब्दियों मे जीते देखते हैं, तो बाहर निकल सस्ते घर ढूढ़ अपने मुकाम की खोज मे निकली लड़की को ऐसी ही उपाधी देगें वैसे मुनिरका ही क्यो हर जगह हर तरह की लड़कियाँ लड़के होते है यह अलग बात है कि तोहमत ज्यादातर लड़कियों को झेलनी पड़ती है जिसके चलते आज भी होनहार बेटियाँ एक घर से दूसरे घर चूल्हा फुकती गुजर ताती हैं।

ravishndtv said...

सतीश जी

अव्वल तो मैं आपकी बात से इत्तफाक नहीं रखता। हम कोई बिहार यूपी की छवि नहीं बनाते। न ही दरिद्रता दिखाते हैं। रही बात कि हम बिहार यूपी की सेवा करने के लिए नहीं बने हैं। डाक्टर की नज़र मरीज़ की बीमारी पर ही जाएगी। हम भी किसी प्रदेश को वैसे ही देखते हैं।

जब एक समस्या की बात कर रहे होते हैं तो इसका मतलब यह नहीं होता कि बाकी चीज़ों का ध्यान नहीं हैं। इस लेख में सकारात्मक बातों का संदर्भ नहीं था इसलिए उनका ज़िक्र नहीं किया।

नोएडा गुड़गांव की खबर इसलिए नहीं बनती कि वहां मीडिया वाले रहते हैं। इस हिसाब से हर गली मोहल्ले में कोई न कोई मीडिया वाला रहता है तो वहां की खबर क्यों नहीं बन जाती।

मैंने कहा भी जहां का अनुभव रहेगा उसी का ज़िक्र करूंगा। इसका मतलब यह कहां से हो गया कि दूसरे प्रदेशों के मर्द ऐसे नहीं होते। अपने सामाजिक जीवन के आस पास की औरतों से पूछ लीजिए। बर्दाश्त और लिहाज़ करने की बेबसी न हो तो उनसे सुन लीजिए। कैसा जीवन रहा है उनका।

पर इसका यह मतलब थोड़े न होता है कि कहीं अच्छे लड़के नहीं हैं आदि आदि।

बुंदेला जी

आपने बिल्कुल सही कहा है। हर दिन मार्केट में औरतों से बेतकल्लुफ होने की कोशिश करते कई लोगों को देखता हूं।

SACHIN KUMAR said...

SACHIN KUMAR
I HAVE SEEN YOUR THAT REPORT..THANKS TO INDIAN RAILWAY. THE TRAIN WAS 17 HRS LATE..THAT WAS A SPECIAL TRAIN LIKE THIS SPECIAL REPORT. BUT YOUR SPECIAL IS FAR MORE BETTER THAN THAT SPECIAL.I HAVE WRITTEN SOMETHING ABOUT THAT SPECIAL TRAIN AND CHHATH. PLS COME TO SEE.

JC said...

ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे धुबरी शहर का नाम एक धोबन के नाम पर क्यूं रखा गया?

Sanjay Grover said...

"भारत के मर्द बेहद ख़राब सामाजिक उत्पाद हैं"


यह आपने बहुत सटीक बात कह दी। और जब उत्पाद खराब है तो सारे कारणों/कलपुर्जों को जांचना भी पड़ेगा और सुधारना भी पड़ेगा। और सबसे पहले तो ईमानदारी से स्वीकारना पड़ेगा कि हम खराब उत्पाद हैं।

Unknown said...

Ravishji,

Its not case of NE girl or girls living in unhealthy accomodation due to financial constraints,but if you ask every female personally whether married or unmarried or of any age,girls are not looked upon as human beings but as objects of desire for sex or money as if they have no sensations or feelings.

I see absolutely no hope except few men who look upon females as living human beings,its not case of being not given 'sanskars',men of highly esteemed parents do acts of nonsense very often in every household.Its in their genes.People claim genes can be altered in ancient times by religious training,but how many are willing to change?

I see no hope for women except women either withdrawing from lecherous gazes or else ready to die to taste freedom if even for short time.I would prefer to die because freedom is important.Withdrawl can be compared to death.

Girls are not safe even with husbands and in their own houses.Danger lurks without informing when you do not bend to someone's whimsical demands.

Few people like you are a relief to such unsafe lives women live as at least someone understands.

Regards,
Pragya

सतीश पंचम said...

रवीश जी,

आप का कहना है कि यू पी बिहार की सेवा करने के लिये हम नहीं बने हैं। मानता हूँ। यह भी मानता हूँ कि डॉक्टर के तौर पर मरीज को देखना पडता है।
लेकिन जिस डॉक्टर की जरूरत पूरे देश में है, वह केवल अपने घर के आस पास के मरीजों को ही देखेगा तो बाकी लोगों को तो यही लगेगा कि शायद डॉक्टर के घर के पास ही ज्यादा मरीज रहते हैं।

यही हाल हिंदी पट्टी से आये मीडिया कर्मियों का है। वह केवल अपने आस पास ही देख ताक कर रिपोर्ट बनाते हैं। चूंकि हिंदी चैनल पूरे देश में देखे जाते हैं तो ऐसे मे आप समझ सकते हैं कि उन क्षेत्रों के बारे में बाकी जगह इमेज क्या बनती है।

मैं पत्रकारिता से नहीं जुडा हूँ, न ही मैं कभी गुडगांव या नोयडा गया हूँ। लेकिन जिस तरह से चींटियों की कतार देख कर अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां चींटियों का घर होगा और उसके कतार की दिशा में ही कोई मीठा या खाने योग्य सामग्री है तो उसी आधार पर कह रहा हूँ कि मीडिया तंत्र का जमावडा एक गुच्छे के रूप में जरूर नोयडा या गुडगांव के आसपास है। आधुनिक शब्दावली में इसे ही हब कहा जाता है।

चींटियो की कतार अपने आवागमन से सुबह छह बजे खुद ही लाईव हो जाती है :)

एक बार फिर से ध्यान दिजियेगा कि गुडगांव या नोयडा की खबर अक्सर ही हर दो या तीन दिन में सुबह छह बजे किसी चैनल पर क्यों फ्लैश होती है।

रही बात हर गली या मुहल्ले में मीडिया वालों के होने की, तो वह तो हैं ही लेकिन नेशनल लेवल पर कोई तुरंता प्रसारक या OB Van उनके लिये शायद उस हद तक उपलब्ध न हो। जबकि हब होने से गुडगांव या नोयडा इस मामले में प्रसारण कर देते हैं।
बाकी तो शरद जोशी के लापतागंज की तर्ज पर कहूं तो यहां सब बिज्जी हैं..... थोडा सा ध्यान दिया जाय तो बिज्जीपन नजर आ जाता है कि कितने बिज्जी है :)

Aadarsh Rathore said...

जब तक दिमाग़ पर से संस्कृति के ज़रीदार आवरण को हटाया नहीं जाता, फफूंद की तरह अंदर ही अंदर इस तरह की सोच पनपती रहेगी। पूर्वोत्तर राज्यों की लड़कियां इन लोगों के लिए सॉफ्ट टारगेट हैं। बंधनों भरे समाज में पले-बढ़े ये लोग इन दूसरों की स्वतंत्रता को पचा नहीं पाते। हमारी से बेल्ट हर वक्त लार टपकाते रहने वाले यौन कुंठित लोगों से भरी पड़ी है। अपनी बेड़ियों को काटकर आज़ाद होने की हिम्मत तो इनमें है नहीं इसलिए दूसरों पर ही उच्छृंखलता का आरोप लगा देते हैं।

बेबसी ये है कि हमारे पास अभी इंतज़ार करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। जाने कब ये संकीर्णता खत्म होगी

आशुतोष उपाध्याय said...

यह बहुत महत्वपूर्ण निष्कर्ष है कि 'भारत के मर्द बेहद ख़राब सामाजिक उत्पाद हैं।' इसलिए हमारी फिक्र के केंद्र में वह प्रक्रिया होनी चाहिए जो ऐसा उत्पाद पैदा करती है. वरना हम यूं ही समस्या को लेकर रुदन करते रहेंगे. हम अपने जनतंत्र का लाख ढोल पीटें, सच तो यही है कि हमारे घर-परिवार अमूमन घनघोर सामंती हैं. ऐसे घरों के भीतर स्त्रियों के प्रति नजरिया भी सामंती रहता है. अगर हम अपने घर में लोकतंत्र की स्थापना करेंगे, सुख-दुःख, अधिकार और कर्तव्य में बेटे-बेटियों को बराबर का हिस्सा देंगे, असहमतियों का सम्मान करना सीखेंगे तो हमारे बच्चे भी घर से बाहर निकल कर भेडिये नहीं बनेगे.
चिंता की बात यह है कि समृद्धि और आधुनिकता(?) के बरक्श लोकतान्त्रिक मनुष्य बनने की हमारी रफ़्तार बहुत धीमी है. हिंदी पट्टी में ये बातें इसलिए ज्यादा है, क्योंकि यहाँ लोकतान्त्रिक मूल्यों को जन्म देने वाले सामाजिक आन्दोलन लगभग नहीं के बराबर हुए है. हमारे लिए आदर्श अनुशीलन के लिए नहीं, प्यालों में उछालने की लिए हैं. इसलिए अपने समाज की आलोचना करते हुए अक्सर हमारी बात निराशा में ख़त्म होती है. आदर्शों का अनुशीलन उम्मीद पैदा करता है, जबकि ढोंग की परिणति हताशा में होती है.

फ़िरदौस ख़ान said...

रवीश जी, आपने सही कहा...
"तभी मैं कहता हूं भारत के मर्द बेहद ख़राब सामाजिक उत्पाद हैं।"
ये हालत हर जगह है...लड़कियों के कपड़े तो बहाना हैं...क्या सलवार कमीज़, साड़ी या बुर्के वाली महिलाओं के साथ ऐसे हादसे नहीं होते...?

JC said...

एक अकेली धोबन वर्षों तक सक्षम थी मुग़ल सेना को ब्रह्मपुत्र नदी पार न करने देने में जिस के नतीजतन मुग़ल असम में प्रवेश नहीं पा सके...जब तक गुरु तेघ बहादुर को सिखों की फौज के आगे न भेजा गया...

आम आदमी कामरूप जाने में डरता था क्यूंकि वहां की कन्याएं आदमी को जादू से फांस लेती थीं!
यह शायद काल का प्रभाव ही है की आज उत्तर-पूर्व की कन्याएं कमजोर पड गई हैं...

azdak said...

सही लिखा.

JC said...

इतिहास बतलाता है कि जब एक फौज लडाई के मैदान पर जीत जाती थी तो उसका अधिकार उस प्रदेश पर हो जाता था और जीते हुए फौजियों को सब जीती हुई संपत्ति पर अधिकार हो जाता था, जिस में कन्याएं भी शामिल होती थीं...

यह शायद काल की ही मजबूरी है कि आज भी, शायद जींस के कारण, कुछ 'क्षत्रियों' में दृष्टि-दोष अभी भी चल रहा है...कौरव-पांडव के समय से भी जब द्रौपदी चीर हरण का प्रयास कौरवों ने किया...

Anil Pusadkar said...

गंदी नज़र वाले हर जगह मिल जायेंगे और उनके लिये हर लड़की समान/सामान होती है।एक बात ज़रूर है कि पालको मे हिंसात्मक रवैया शायद अब गुज़रे दिनो की बात हो गई है और बेहद अफ़सोस की बात है कि जब किसी से उनके सपूत की तारीफ़ करो तो उसका जवाब होता है इस उमर मे नही करेगा तो कब करेगा,हमने भी किया है।और यही शिकायत अगर उसकी सपूतनी के बारे मे करें तो शायद उसका हिंसात्मक रवैया देखने को मिल सकता है।दोहरे मापदण्ड पालको के भी हैं।आपने सही लिखा है।सहमत हूं आपसे सौ प्रतिशत्।

sushant jha said...

There might be another debate over why an average male in India views a girl with such sexual starvation? The gender divide, the artificial distance between boys and girls and the virginity taboo, all are responsible for such type of upbringing for an average India male. Unless and untill we address this, we can't check such incidents.

JC said...

As one tends to normally see things superficially, because of the variations from one region to another from time to time over a long duration in the life of earth, innumerable factors would appear responsible for the 'war between the sexes' all through as the apparent truth (for ancient Hindus also believed only that as the 'truth' that doesn't change with the passage of time)...

It would perhaps thus be clear to any ratinal person that it is virtually impossible to analyse all those factors and reach the apparent 'root cause'...although, as it is always the case, one might come to see a variety of possible reasons arrived at by different people who see from different view-points that get developed during limited life-span of each and experienced by each as one is brought up in some particular region and time, ie., due to different temporal and spatial distribution of human beings in an ever changing world despite human tendency to keep written records, which unfortunately are also temporary, and relate to a limited duration in the past...Of course, in essence, ancient Hindus have indicated fall in human virtue with the passage of time (from Satyuga to Kaliyuga repeatedly) as the basic characteristic of time...

डॉ .अनुराग said...

आज आपकी आधी बात से सहमत हूँ आधी से नहीं ..पहला तो बात कही है एक खास जगह की लड़कियों को अमूमन इसी नज़र से देखा जाता है .... वो बिलकुल वाजिब है
पर इस देश के मर्दों औरतो के नजरिये में एक सी राय रखते है ....ये भी दूसरा सच है .....

ghughutibasuti said...

आपकी बात से सहमत हूँ। यू पी बिहार ही नहीं ,पूरे उत्तर भारत को इसमें शामिल किया जा सकता है। मैं भारत के बहुत से प्रदेशों में रही हूँ। महाराष्ट्र व गुजरात इस मामले में सबसे अच्छे हैं। गुजरात में एक स्त्री जितना सुरक्षित महसूस कर सकती है, भारत में शायद ही और कहीं उतना सुरक्षित महसूस कर सकती है।
जहाँ तक किसी क्षेत्र की लड़कियों के लिए यह कहना कि उन्होंने किसी जगह को वैश्यालय बना दिया है तो क्या बिना पुरुष की साझेदारी के कोई वैश्यालय बन या चल सकता है?
घुघूती बासूती

Unknown said...

ravish ji mojhe mardo ka to cha-chalan hi badname hai aap kahe ghat laga kar badnami lete hai.
ladhki chahe jaha ki bhi ho anubhave se kehta hon ki vo bhi kochh mardo ki najar ka khayal rakhti hai. uneh pata hai ki uneh koi kyo dekh raha hai kaise dekh raha hai ?
jab ye najro ka takrave hi khole aam hota hai to hum kyo bich me ungli kare.chalne do jo pratha chal rahi hai.
bas jarorat is bat ki hai ki is akarshan se bare aurat ke badan se mard pata nahi kyo kshan bhar me tutne lag jata hai . vaise tutne ka name mard nahi hai.



rakesh khairaliya
blog ,(ek.shehr.hai) se

Unknown said...

रविश जी, अपने सतीश जी और दिनेश राय द्विवेदी के बातों का जो जवाब लिखा है वह बस अपनी बात ऊपर करने की बेतुकी कोशिश है. मीडिया में मैंने भी कम किया है और बहुत अच्छे से मीडिया संस्कृति को समझता हूँ. वैसे बिहार और यूपी वालों को लुच्चा और ताडने वाला बता देना समस्या का अति सरलीकृत विश्लेक्षण नहीं है? मैंने तो यही संस्कृति दक्षिण के प्रदेशों और गुजरात (जिसे किसी ने अपने टिपण्णी स्त्री के लिए सबसे सुरक्षित कहा है) के अलावा स्त्रियों के लिए सांस्कृतिक रूप से अत्यंत रूढ़ राजस्थान में भी देखा है. नजरे वहीँ होती है, कमेन्ट भी वही होते है, बस भाषा का थोडा अंतर दीखता है.
आप मीडिया में रहकर सामाजिक और संस्कृति चिकित्सक बनना कहते है ( और कई बार आपकी रिपोर्ट बहुत अच्छी होती है मै भी इस बात को मानता हूँ) तो इससे कोई एतराज ही नहीं है, पर चिकित्सक का भी एक धर्म होता है; इस बात को भी आपको समझाना होगा. दिल्ली में जहाँ तक नॉर्थ ईस्ट की लड़कियों की बात है तो उनसे सरल शिकार तो सब मानते है और ये तो नॉर्थ ईस्ट के लड़के भी मानते है. पर इसका मतलब ये भी नहीं है कि अन्य प्रदेशों की लड़कियों पर कोई कमेन्ट नहीं होता, उन्हें भूखी निगाहों से नहीं देखा जाता. और इन आँखों की भूख को प्रदेश की सीमा से रूढ़ नहीं किया जा सकता.
वैसे बिहार और यूपी तो सहज टारगेट बन गया है मीडिया और जन संवाद के साधनों के लिए. कभी लालू जी के मसखरापन को बिहार का पर्याय बनाया जाता है तो कभी यूपी को भईया.. रविश जी आज भी मै इस बात को डेव के साथ कह सकता हूँ कि किसी कार्य स्थल पर सबसे ज्यादा कार्य संस्कृति के साथ चलने वालों में बिहार और यूपी के लोग रहते है.
लड़कियों की बात पर वापस आये तो दिल्ली की संस्कृति को ही दिल्ली वालों ने लड़कियों के विरूद्व बना रखा है. अपने बेटी सती सावित्री और दूसरी 'चलताऊ माल'.. रविश जी अच्छा होता कि इस समस्या को आप व्यापक पैमाने पर देख कर एक समग्र विश्लेक्षण करते और एक समाधान भी.. क्योंकि चिकित्सक का काम कवल बीमारी बताना नहीं होता..

Shakeb Ahmad said...

I think that the media persons from UP and Bihar, and not only the media persons but almost every person which claims to be intellectual and has his roots somewhere in UP or Bihar, feels a dangerous complex of inferiority. And u r not an exception. Why r u people always try to put bad image of UP and Bihar. Sinha types r enough for this task.............

JC said...

शायद माल-वाहक गाड़ियों के, आम तौर पर पीछे लिखी लाइन, 'बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला', से पता चले कि बुरी नजर से सबको खतरा है - जीव हो या वस्तु! और इस बुराई को जिन्दा रखने अथवा बढ़ाने में हिंदी, जो यूपी, बिहार में अधिक प्रचलित है, सिनेमा का भी एक बड़ा हाथ है...

Mahendra Singh said...

Satis Pancham ji ke baton se main sahmat nahi hoon. Hamare UP aur bihar ki conditions jyada kharab ho gayi hain. Main lucknow me rahta hoon. yaha ki lucknow university main aaye din chedkhane ki khabar yahan ke newspaper main aap padh sakte hain. Main ise chedkhani university kahta hoon. Haal ke varson main hamare samajik sarokar aur use aane wali peedhi tak pahuchane main hum svam ko asmarth pa rahe hain.Kam se kam MP ka itna bura haal to nahi hai.Do aur pradeshon se bhi wasta pada hai. Kolkatta main to ladke ladkiyon ko bechare dekhte hi nahi.wahan to ladkiyan hee havi hai. Pichle saal Main Tamilnadu ke sahar selem gaya. Jahan main rah raha tha wahin ek Engineering college aur Polytechnic tha.Mere pandrah din ke pravas maine koi ladki duptta bandhe kisi ladke ke peeche nahi mili.Boys aur girls hostel ke beech 3 feet ke divar thi. Mujhe samajh nahi aaya ki main hindustan main he hoon ya kanhi aur.Vaise apna apna nazaria hai.

कुमार आलोक said...

परायी नार पे बुरी निगाह डालने वालों ।
एक दिन तुम्हारी बिटीया भी सयानी होगी ।।

akshayaanant said...

भाई ऐसा भी नहीं है.......यहाँ शरीफ भी मिल जायेंगे जो इस तरह नहीं करते..............सभी को क्यों बदनाम करते है ?????????????

KK Mishra of Manhan said...

जै हो!

Its all about WILDLIFE said...

ravish ji, sirf monirka hi nahi, puri delhi hi aisi hai...jab tak delhi me nahi thi aane ka bhot man karta tha par jab se yaha hu har din ek nayi musibat milti hai....aur ye problem sirf chinkiyo ya bihariyo ke liye nahi har us ladki ke liye hai jo apne sapno ko sakar karne le liye yaha aayi hai.......ankita, aap mujhe nahi jante par mijhe aapke blogs padna acha lagta hai....

murar said...

मुनीरका म जो हुआअकले पन का नतीजा ही ह | और कुछ नही

murar said...

मुनीरका म जो हुआअकले पन का नतीजा ही ह | और कुछ नही

kundan kumar,Muzaffarpur(Bihar) said...

Main bhi Bihar ka rahne wala hun. ye baat such hai ki hum dakchin bhartiyon ki tarah apna image nahi bana paye hai.UP Bihar ke log kaphi achche hai lakin image galat ban gaya hai.Hum jitna ijjat aur samman mahilaon ko dete hai sayad hi koi deta hoga.Aap kisi ek do pagal ke kartut ke karan pure mard jati ko badnam mat kijeeye.sare naujawan lucche lafange nahi hai.Dilli,Mumbai ke log sare samasyaon ka jar UP aur Bihar ko hi samajhte hai. Is mentality ko thik karne ki jarurat hai aur apne gireba me jhakne ki bhi.

JC said...

में शायद दिल्ली के बारे में थोडा अधिक जानता हूँ क्यूंकि में यहाँ १९४० से रह रहा हूँ (यद्यपि बीच में कुछ एक वर्ष और क्षेत्रों में भी रहा)...

देश के विभाजन से पूर्व नयी दिल्ली सीमित थी, DIZ area में - सीपी, सरकारी कालोनी और कार्यालय...गोल मार्केट, पहाड़ गंज अदि में स्तिथ दूकान वाले जो लगभग सरकारी कर्मचारियों पर अधिक आश्रित थे और 'बाबुओं' की इज्जत करते थे!

विभाजन से उत्पन्न भीड़, और निजीकरण के चलते आज सबको पता है दिल्ली का स्वरुप ही एक दम विभिन्न हो गया है...और जहाँ तक लड़कियों को छेड़ने की बात है, आरंभ में समाज विभिन्न दायरों में विभाजित था - छोटे बच्चे अपने से बड़ों की इज्जत करते थे...लड़कियां और स्त्रियाँ भी इसी प्रकार अलग अलग दायरों में रहती थीं - परदे में...कोई लड़का छेड़ देता था तो सब लोग मिल कर उसके पालकों को खबर करते थे और क्यूंकि छोटे बड़ों को मान्यता देते थे, उनसे डरते भी थे...

किन्तु जहाँ तक 'बुरी नजर' का सवाल है, वो तब भी रहा होगा...अक्सर किसी लड़के-लड़की के 'भागने' की खबर sunayee पड़ती थी...

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

निगाहों का खेल है सारा,
दोष किसी प्रांत भाषा का नहीं
गर निगाह में ही छलावा न हो,
तो त्रिया चरित्र का हवाला ना हो...
मर्दों का ही गुणगान होता है यहां,
नहीं औरतों का कोई हिमायत
मर्द को दर्द नहीं होता बना दी कहावत,
एक बार उस मर्द को लेबर रूम में खड़ा कर दो,
दर्द की परिभाषा से परिचय हो जाएगा
मर्दानगी का प्रमाण प्रत्यक्ष प्राप्त हो जाएगा।
दोस्तों, नंगी आंखें ही खोजती है नंगी जांघों को,
देते इलज़ाम दूसरों को,पूरा कर अपनी मांगों को...

Razi Shahab said...

achcha likha par sirf up bihar hi ke ladke kion?

ravishndtv said...

मेरा भी मकसद प्रांत भाषा पर दोष मढ़ना नहीं है। शीर्षक में ही कहा है कि हर मर्ज नज़र जिन्हें वेश्या समझती है। लेकिन बात निकलते चली गई और पाठकों को लगा कि बिहार यूपी बदनाम हो रहा है। इससे बहस का दायरा सीमित होता चला गया। बात मर्दों के नज़रिये तक ही होती तो ठीक रहता। लेकिन इतनी प्रतिक्रिया आई उससे लगता है कि कई लोग इस मुद्दे पर शिद्दत से सोचते हैं। उनकी चिंताओं में यह बात साफ दिखी।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

रविश जी,

आपको लगता है की आपके अनुभव(देश के हिसाब से थोडा सिमित अनुभव) को ज्यादा लोग सच मानेंगे. आपका सोचना गलत नहीं है. क्योंकि आपकी छवि बोलने वाली पहले रही रही. जिस तरह से आपका एक इमेज परसेप्शन बहुत लोगों के बीच बन गया है. उसी तरह कुछ राज्यों के साथ भी ऐसा ही हुआ है.

ज्यादातर हिन्दीभाषी पहले अभाव में जीते हैं फिर धीरे धीरे संपन्न होते हैं. क्या यह कारण नहीं है दृष्टिकोण में दोष का. (बहरहाल व्यापक चिंतन की जरुरत है.)

Vikas Kumar said...

ravish ji,
aapake is post or us par aaye comments ko padhkar ye kahane kee haalat me hun ki ham har badi baat ko samjhane ke badhle ek chooti ;ine ke piCh padh jaate hain.

yahi insani phitarat hai....

mai aapse pooti trah itiphak rakhata hun.....

RAJ said...

aapke lekhni me dum hai... iska matlab ye nahi ki sirf UP/BIHAR ko hi badnam kijiye.... pure bharat me sabse jyada rape jaisi vardaten delhi, mumbai or bengal me hoti hai... ye bat mante hai... ki kuchh logo ka nazaria galat ho sakta hai... lekin pure rajya ko badnam karna galat hai... waise aajkal ke nariyon ki kya kahna... BADE BADE MAAL OR NEWS MARKET YA SHAHAR KE KISI BHI PARK me chale jayen to aap inse nazren nahi mila payenge... aapki nazren khud jhuk kayegi..

Anonymous said...

Rabish ji,
Bihar aur UP ke adhiktar log achhe hote hain. iska wajah yah hai ki adhiktar log dehaat se hote hain. Dikhne mein dehaate type lagte hain, lekin sanskarwale hote hai. ikka dukka garbar har jagah hote hai.
Rajesh Mehta

Ashok kumar singh mukhiya patni said...

sirf bihar up ko kyo badnam kar rahe hai sir.....
aap kabhi north-east ya nepal me rahiye,,,,phir aap bat kijiyega,,ye log bahut aajib hote hai,,
mai nepal me medical kar raha hu,,
n i really hate neplies,,, n i meanit,