पित्ज़ा हट





















दिल्ली के निज़ामुद्दीन पुल से बायें मुड़ते ही यह बूढ़ी औरत नज़र आई। मैं दफ्तर जा रहा था। डिवाइडर पर बैठी तपती धूप में इस औरत को एक झोंपड़ी की ज़रूरत तो होगी ही। शायद कुछ खाना भी। नज़र पड़ी प्लास्टिक के उस थैले पर जिसपर
लिखा है पित्ज़ा हट। हट का मतलब तो झोंपड़ी ही है और पित्ज़ा से भूख तो मिट ही जाती है। मैंने गाड़ी रोकी और मोबाइल फोन से ये तस्वीर ले ली।

21 comments:

'शफक़' said...

Ravish ji .. aapne ek photo ke zariye jo baat uthayi hai humien photo lene se badh kar kuch to karna hi chahiye .. jitna ki kiya ja sake, chahe koi gareeb aadmi ho ya signal par bheek manta bachcha .. mera apna maanna hai ki agar kuch madad hi karni ho to ek biscuit ka packet de dein .. kum se kum main to yahi karta hoon ..

Ashish Deorari said...

अच्छा लिखा है ..........

दरअसल हम लोग चालीश-पचास रुपए का पिज्जा तो फोरन ले लेते है पर ऐसे लोगो को १ रुपए देने मे भी दस बार सोचते है {सच कहू तो सोचते ही नहीं }

विनीत कुमार said...

हाय राम, इस बूढ़ी औऱत ने तो यहां पिज्जा हट की थैली लटाकर पिज्जा हट की इज्जत ही उतार दी। छी...।

शेफाली पाण्डे said...

खाने की वस्तु
नाम है पीजा
जो इसको खा ले
उसका दिल कभी
न पसीजा ...
इटली से आया है ना..

JC said...

पिज्जा, या 'पिट जा', एक 'विदेशी' भोजन पदार्थ है जो हम 'आम भारतियों' को दिन में एक समय रोटी के रूप में ही मिल जाये तो उसे भी भगवान की कृपा ही मानेंगे...
रविश जी फोटो ले कर आपने एक भगिरथि प्रयास किया है!

जय माता की :)

noushy said...
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noushy said...

Ravish ji, main abhishek ji ki baato se bilkul sahmat hun, aapne bhi ye pic bas isliye li ki aapko 1 blog ka topic mil gaya ya bahut accha kahe to aapne 1 accha mudda uthaya. par main isse sahmat nahi hun. har vyaktii to pata hai ki Hindustan me kareeb 30-35 crore log aise hai jinhe sahi se roti bhi naseeb nahi. kya aapne koi aisi orgnisation chalayi hai ya chalane me madad ki hai jo aise gareeb logo ki madad kare ya fir koi rozgar uplabdh karaye ??

ABHIJEET tiwari said...

mere bharat ki tasweer hai ye...

मधुकर राजपूत said...

भाई लोग भड़भडाओ मत। भिखारिन है ज़िंदगी यूं ही काटने की आदत है। सुधार के देख लो नहीं सुधरेगी। महाराज जब मिले यूं तो करे क्यूं। वैसे पत्रकारों के हालात भी इससे ज्यादा भले नहीं। रवीश जी की श्रेणी के लोग ऊपर वाली लाइन के दायरे से बाहर हैं। अपनी बात कर रहा हूं। बाप के खर्च पर अच्छे कपड़े दिखावे के लिए पहनता हूं। वरना महीने में 12-13 दिन बिना रोटी के गुजारने पड़ते हैं। खाल खिंचवा रहे हैं मीडिया में। बुढिया एक भी दिन शायद भूखी सोई हो। हम तो मांग कर भी नहीं खा सकते। काम करना पड़ता है रोटी खाई हो या नहीं। उसे इतनी आज़ादी है कि काम करे या न करे कोई कद्रदान पेट में अनाज पहुंचाने का जुगाड़ कर ही देगा। अब कहो कैसे दूं बिस्कुट या एक रुपया।

Amit said...

ये तो बस एक बानगी है...ऐसे और भी कई फोटो मिल जाएंगे, जो पित्ज़ा हट जाने वालों को शर्मिंदा करें। लेकिन, सवाल तो अपनी जगह कायम है...कौन करेगा इनकी मदद ?

Aadarsh Rathore said...

:)

Kulwant Happy said...

आपने उस महिला से पूछा कि नहीं..आपने खाना खा है या नहीं, वो पलास्टिक का थैला हमारे लिए होगा, लेकिन उसके लिए तो वो किसी बैग से कम नहीं, शायद वो पिज्जा हट का मतलब भी नहीं जानती हो..मैं विनीत कुमार के इस केमेंट से खुश नहीं, हाय राम, इस बूढ़ी औऱत ने तो यहां पिज्जा हट की थैली लटाकर पिज्जा हट की इज्जत ही उतार दी। छी...। मुझे लगता है केमेंट में उसने खुद की बुद्धिमता का प्रदर्शन कर दिया. खुले दिमाग से सोचना शुरू करो...छी: मत करो गरीब पर..फोटो में सब को पिज्जा हट दिखा, वो बाहरी रूप है, लेकिन शायद उसके भीतर की अमीर की झूठ भी हो सकती है, जो उसके भीतर भूख की आग को शांत करेगी..

डॉ .अनुराग said...

छि. छि.....लोगो को तहजीब नहीं है जी....अब पीज्जा हर्ट्ज़ वाले डिफेम का मुकदमा ठोक देंगे बुढिया पे तो

Unknown said...

का बाबा , अब आप बिहारी नहीं रहे - बुढिया के लिए कुछ कर देते या ऊसको कुछ दे देते ! अब फोटो खीँच के अपने ब्लॉग का टी आर पी बढ़ाने लगे ? बाबा , आप हर वक़्त पत्रकार नहीं होते हैं - कभी कभी आप में भी अरेराज वाला एक मानुस होता होगा - करुणा विहीन और लम्बी चौड़ी गाडी पर दौड़ती जिन्दगी के आस पास बहुत कुछ होता है !

राजीव जैन said...

अच्‍छा मुददा जिस पर हम सभी सोच सकते हैं


और

एक बेहतरीन फोटो

संजय बेंगाणी said...

लोगों के पास न खाने को है, न रहने को...और आप गाड़ियों में घुमते है, फोटो लेते है...यह कैसे साम्यवादी हो भाई?

Unknown said...

ye ek sachai h mere desh ki,
bate sab badi badi karte h shayad hi koi in logo ke liye kuch karta h

jyoti mishra said...

main yeh mante hu jaise aapne utar kar photo liya usse haath ko badha kar agar uske liye roti ke paise ya roti hi de de hote toh shayad aapke dil ko bhi sukoon milta.waise agar koi ensaan enn saab chizo ko notice karta hai aise mudde uthata hai toh wahi enke madad kar sakta hai.aur main mante hu etne log,bache road side trafic ,signal pe ,station ,mandiro pe khane ke liye paise ya madad magte rehte hai.unn mein se bahut log ess tarah cheat bhi karte hai,kuch ne esko dhanda bana liya hai chahe jo bhi ho kisse majboore mein hi log aisa karte hai ya bacho se yeh karwaya jata hai.esseliye shayad mere do paise dene se unke madad ho jaege ye soch kar de dete hu{jab de sakte hu}.esseliye aage se saab se yahi kahugi ess confusion rehne ki bjay de ki nahi yeh soche ki uss ensaan ki koi majboore hi hai jo wo haath phaelaye hai apke samne.

noushy said...

@ jyoti ki udaan

main aapki kuch baato se sahmat hun, jaise ki agar aapko photo kheechne ta time hai to aap kisi zarooratmand ki madad bhi kar sakte hai. bilkul sahi , main bhi kabhi kabhi jab road ke kinare ya kahi aur kisi zarooratmand ko dekhta hun to uski madad karta hun(jaha tak sambhav hota hai). lekin jaisa ki aap bhi maante hai ki bahut se logo ne ise ek dhandha bana liya hai, aise logo ko bilkul bhi aarthik roop se mamad nahi karni chahiye. maine aksar dekha hai ki bilkul harst purst aadmi, joki saaririk rup se bilkul sahi maloom dikhta hai bhi bheekh maangta hai. Aise logo ko aaram se jisi hotel par ya koi aur chota mota kaam mil sakta hai. mera aap sabhi se nivedan hai ki is tarah ke logo ko paise deke bhikshavratti ko bilkul badhava na de.

yayawar said...

साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर
अफ़सोस तो करते हैं इमदाद नहीं करते

the focus was more on pizza hut than thinking of providing a hut.

a kind of डैनी बोऐल.......

akhilesh dixit

Neelendu Sharan said...

Ravish Ji,
Namaskar!
I am a new reader of ur blog and this is my first ever comment on ur blog.
Well, this photograph has really touched our herats. This is not what we have seen for the first time. It is very common in the streets of India. And this is the true picture of our so called developing society.
Atleast they can speak or some body is there to speak for them like u. But what about those stary animals who have got more petiable condition than the human beings. Please do write about them in ur blog.
Thanking you.
Neelendu, Ranchi