लखनऊ में करोड़ों रूपये के हाथी बुत बन कर खड़े ही रह गए। वो दौड़ते कैसे? वो तो बनाए ही इस लिए जा रहे हैं कि लोग आकर देखें। पहले हाथी चलकर गांव गांव जाता था अब हाथी को लखनऊ में खड़ा कर दिया गया है। गुंडे बुत बन रहे हाथी पर चढ़ गए। ग़रीबों के मसीहा मुख्तार अंसारी सहित तमाम बाहुबली हवा हो गए। बीएसपी तीन फीसदी वोट बढ़ाकर भी एक सीट का ही इज़ाफ़ा कर सकी। कांग्रस के वोट बढ़ गए और हाथी हाथ से मात खा गया। अपने संगठन और कार्यकर्ताओं पर इतना भरोसा करने वाली मायावती को पहली बार ऐसा झटका लगा है। पहली बार बीएसपी अपना लक्ष्य तय कर नहीं पहुंच सकी है। वोट तो बढ़ गए लेकिन प्रभाव कम हो गया।
दलित राजनीति में मेरी दिलचस्पी रही है। उन उम्मीदों को समझना चाहता हूं जहां पचास साल पहले तक कोई जानता ही नहीं होगा कि उम्मीद किसे कहते हैं। लेकिन इस पचास साल में बहुत बदला है। लोकतंत्र ने दलितों को राजनीतिक अधिकार के साथ सत्ता के तमाम पदों पर जाकर काम करने का मौका दिया है। मेयर से लेकर राष्ट्रपति के पद तक। मायावती प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचना चाहती थीं। दलित मध्यमवर्ग ने सपना देखा कि कोई दलित चुन कर पीएम बन जाए। यह सपना मरा नहीं है। बचा हुआ है। कहीं किसी कोने में बचा ही रहेगा।
मायावती ने बीएसपी को नए ज़माने की पार्टी के रूप में पेश नहीं किया। कार्यकर्ताओं ने अपने दम पर यूपी में पार्टी को ४७ सीटों पर दूसरे नंबर तक तो ला दिया लेकिन पार्टी मायावती के कारण आगे नहीं जा सकी। दलित आंदोलन से जुड़े लोग अभी तक पत्थरों के हाथी और असली में अपराधी पर सवाल नहीं उठाते थे। अब उठाना होगा। पूछना होगा कि यह पार्टी कैसे अलग है। क्यों बीएसपी ने गुंडों को टिकट दिए? मायावती ने नए जमाने की नेता होने का फिलहाल मौका गंवा दिया। बीएसपी को विकल्प नहीं बनाया।
चंद्रभान लिखते हैं कि सफाईकर्मियों की बहाली में रिश्वत ली गई। ये सफाईकर्मी गांवों में घूस की ज़िंदा मिसाल बन गए हैं। गांव में आते नहीं,काम नहीं करते और सिर्फ तनख्वाह लेते हैं। एक और सज्जन ने बताया कि अस्सी से अधिक कालेजों के प्रिंसिपल की बहाली हुई, इनमें से एक भी दलित नहीं था। यानी इस बार दलित अपनी ही सरकार में रिश्वत दे रहे थे। ज़ाहिर है वो सिर्फ बीएसपी को ही क्यों वोट दें? जल्दीबाज़ी में मायावती ने हर पार्टी से लोगों को लेकर अपनी पार्टी के पदों पर बिठाने शुरू कर दिये। कार्यकर्ता नाराज़ हो गए। आज बीएसपी सिर्फ १०० विधानसभा क्षेत्रों में नंबर एक है।
कई दलित परिवारों को जानता हूं जिन्होंने इस बार बीएसपी को वोट नहीं दिये। उन्होंने कहा कि हम बीएसपी के बंधक नहीं हैं। पार्टी ने ऐसे काम किये हैं जिसका बचाव करना मुश्किल हो रहा है। बीसपी ने एक बड़ा राजनीतिक प्रयोग किया। दलितों के नेतृत्व में ब्राह्मणों को आगे आने का मौका दिया। ब्राह्मणों ने भी इसे स्वीकार कर एक सकारात्मक संकेत दिये। लेकिन जब दलित मध्यमवर्ग दूसरे मध्यमवर्ग के करीब आया तो उसके लिए मायावती की इन करतूतों का बचाव करना मुश्किल हो गया। जब भी बीएसपी को मध्यमवर्ग के दरवाज़े जाना होगा,उसे बताना ही होगा कि वो ये सब क्यों कर रही है। उन्हें यह बताना ही होगा कि पीएम बनने के बाद उनका कैबिनेट क्या होगा? आर्थिक नीतियां क्या होगी? यूपी के घोषणापत्र का रिप्रिंट नहीं चलेगा। न्यूक्लियर डील पर क्यों विरोध किया? क्यों नहीं कहा कि कुछ भी हो जाए बीजेपी का समर्थन नहीं करेंगे। बीजेपी में मायावती के इतने भाई बहन क्यों हैं? अब मनमोहन सिंह की छोटी बहन बन गई हैं।
मायावती के तेवर कमज़ोर हो गए लगते हैं। जैसे ही मनमोहन को बड़ा भाई स्वीकार किया वैसे ही बीएसपी ने मान लिया कि कांग्रेस उससे बड़ी है। मानना ही था क्योंकि जिस यूपी में बीएसपी ने कांग्रेस को खत्म कर दिया था,अब उसी यूपी में कांग्रेस मायावती की पार्टी के बराबर की पार्टी है। पहली बार दलित राजनीति को नया मुकाम देने वाली इस पार्टी की अकड़ कम होते देख सहानुभूति नहीं हुई क्योंकि दोषी खुद मायावती हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं को सज़ा देकर क्या होगा। ईमानदार कार्यकर्ताओं को ढूंढना होगा जो कांशीराम ने किये थे। कांशीराम ने खुद अपने लिए कुछ नहीं किया। दलित राजनीति में आज भी कांशीराम से बड़ा कोई नेता नहीं है।
वो समय चला गया जब बीएसपी प्रेस को खारिज करती थी। तब वो सिर्फ अपने वोटबैंक तक सीमित थी और खारिज कर सकती थी। अब नहीं कर सकती। मूर्तियां और स्मारक बनाना एक हद तक तो ठीक है लेकिन जन्मदिन पर ब्लैक मनी को व्हाईट करने की इस तरकीब को कैसे जायज़ ठहराये? दलित बुद्धिजीवी कहते हैं कि टीवी पर बीएसपी का बचाव करना मुश्किल हो जाता है। सिर्फ यह कह देना कि दूसरे दल भी अपराधियों को टिकट देते हैं या दूसरे दल भी पैसे लेते हैं,काफी नहीं है। यह कह कर आप देश की सबसे बड़ी पार्टी नहीं बन सकते हैं। बीएसपी के लोगों को फोन कीजिए तो फोन काट देते हैं। दिल्ली में रकाबगंज पर पार्टी का दफ्तर किला लगता है। प्रेस वालों को दरबान भगा देता है। अंदर कोई फोन नहीं उठाता। सवाल प्रेस के आदर करने का नहीं है। लेकिन जो सवाल हैं उसका जवाब तो देना ही होगा। कार्यकर्ताओं के दम पर रैलियों में लाए गए लोग हर बार वोटर नहीं होते।
अभी तक दलित आंदोलन बीएसपी पर सवाल नहीं उठाता था। अब उठाना होगा। समझना होगा कि अब स्मारक और मूर्तियां जनआकांक्षाओं के प्रतीक नहीं हैं। दलित जनआकांक्षाओं को नए प्रतीक देने होंगे। सर्वजन के चक्कर में मायावती ने अफसरों को भी ढील दे दिया। पिछली बार की तरह औचक निरीक्षण बंद हो गए। अफसर बेलगाम हो गए। भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आई। मायावती के पास समय कम है। बीएसपी का जादू निकल चुका है। एक आखिरी मौका यह है कि उनका प्रशासन कोई क्रांतिकारी काम कर दे। यह एक मुश्किल काम है। जो कल तक भ्रष्टाचार कर रहा था वो आज ईमानदार कैसे हो जाएगा। मायावती ने सख्त प्रशासक की जो यूएसपी बनाई थी, उसे खुद कमज़ोर किया है.
मैं बीएसपी की राजनीति में गहरी दिलचस्पी लेता हूं। इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी का हूं। किसी राजनीतिक दल के बारे में लिखिये तो टिप्पणीकार तुरंत निष्ठा पर सवाल उठाने लगते हैं। लेकिन हां,मैं अब भी देखना चाहूंगा कि कब लोकतांत्रिक प्रक्रिया से यह देश किसी दलित को अपना नेता स्वीकार करेगा। सवाल सत्ता का ही है। पांच हज़ार साल पुरानी सोच की सत्ता के टूटने का है। बहुत हद तक टूटा है लेकिन काफी हद तक बीएसपी ने इसे अपने दम पर तोड़ा है। दलितों को कांग्रेस से निकाल कर। तमाम दलित कार्यकर्ताओं की मायूसी समझ सकता हूं। लेकिन भ्रष्टाचार को सही ठहराकर इस सपने को पूरा नहीं किया जा सकेगा। पार्टी को जब हर घर में पहुंचना है तो बात करने वाला होना चाहिए। लिखित बयान पढ़ने के बाद झट से उठ कर चले जाने से काम नहीं चलता। मायावती को सवालों का सामना करना चाहिए। कांग्रेस या बीजेपी का विकल्प आप इनकी तरह बन कर नहीं बन सकते। इसके लिए वाकई में विकल्प बनना होगा। बीएसपी बन भी रही थी लेकिन अब तो जिसका विकल्प बन रही थी,उसने बीएसपी का विकल्प बनना शुरू कर दिया है।
मायावती ने यूपी विधानसभा में एक क्रांतिकारी सामाजिक राजनीतिक प्रयोग किया था। तमाम हार जीत के किस्सों के बाद इसे नकारा नहीं जा सकेगा। लेकिन यह प्रयोग ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा भी नहीं रह सका। मायावती को समझना होगा कि सिर्फ जातियों की गिनती से वोटों की गिनती पूरी नहीं होती। एक राजनीतिक चिंतक कहते हैं बीएसपी को खारिज नहीं कर सकते। बिल्कुल नहीं किया जा सकता। जिसके पास हज़ारों कार्यकर्ता हों और उनके पास सपने हों, उसे कोई कैसे खारिज कर सकता है।
खारिज तो बीएसपी को करना है। अपने स्टाइल और बुराई को।
31 comments:
बिल्कुल सहि विश्लेशन किय बी एस पी कि हार का खुदा तो सब का एक हि है फिझम्लोग आद्मी को हि खुदा क्यों मानने लगते हैं बस यहीं गलती हो जती है्
Raveesh,
main kukhh alag sochta hun. maslan, bhartiy kism ke jativadi samajvadiyon ki pari ab khatm hoti nazar aa rahi hai. ye khiladi jiske viruddh khade hue the, usi me vilin hokar kramashah kshin hote ja rahe hain. aap gambhir vishleshak hain, beshak aapki ray alag hogi.
YE HUCHH KAARAN HAIn......
1.मायावती ने बीएसपी को नए ज़माने की पार्टी के रूप में पेश नहीं किया।
2.यानी इस बार दलित अपनी ही सरकार में रिश्वत दे रहे थे। ज़ाहिर है वो सिर्फ बीएसपी को ही क्यों वोट दें?
3.क्यों नहीं कहा कि कुछ भी हो जाए बीजेपी का समर्थन नहीं करेंगे। बीजेपी में मायावती के इतने भाई बहन क्यों हैं? अब मनमोहन सिंह की छोटी बहन बन गई हैं।
4. ईमानदार कार्यकर्ताओं को ढूंढना होगा जो कांशीराम ने किये थे। कांशीराम ने खुद अपने लिए कुछ नहीं किया। दलित राजनीति में आज भी कांशीराम से बड़ा कोई नेता नहीं है।
5. मूर्तियां और स्मारक बनाना एक हद तक तो ठीक है लेकिन जन्मदिन पर ब्लैक मनी को व्हाईट करने की इस तरकीब को कैसे जायज़ ठहराये? दलित बुद्धिजीवी कहते हैं कि टीवी पर बीएसपी का बचाव करना मुश्किल हो जाता है। सिर्फ यह कह देना कि दूसरे दल भी अपराधियों को टिकट देते हैं या दूसरे दल भी पैसे लेते हैं,काफी नहीं है।
6. लेकिन हां,मैं अब भी देखना चाहूंगा कि कब लोकतांत्रिक प्रक्रिया से यह देश किसी दलित को अपना नेता स्वीकार करेगा। सवाल सत्ता का ही है। पांच हज़ार साल पुरानी सोच की सत्ता के टूटने का है। बहुत हद तक टूटा है लेकिन काफी हद तक बीएसपी ने इसे अपने दम पर तोड़ा है।
7. एक राजनीतिक चिंतक कहते हैं बीएसपी को खारिज नहीं कर सकते। बिल्कुल नहीं किया जा सकता। जिसके पास हज़ारों कार्यकर्ता हों और उनके पास सपने हों, उसे कोई कैसे खारिज कर सकता है।
खारिज तो बीएसपी को करना है। अपने स्टाइल और बुराई को।
JO MAINE AAP HI KE LEKH SE LIYE HAIn.
बसपा की जीत में ही आम दलितों की जीत है। हाथी की चाल रूकी या पिफर मघ्दम हुई तो दलित बेसहारा हो जाएंगे। ऐसा इसलिए कह रहा हू क्योंकि कांग्रेस,बीजेपी जैसी बडी पार्टियों ने आज तक देश का बंटाधर किया है। वल्र्ड बैंक की मुनिमगीरी करने वाला देश का प्रधन बना बैठा है। राहुल को एक सुनियोजित तरीके से प्रधनमंत्राी के रूप में पेश किया जा रहा है।क्या कांग्रेस के लिए पूरे जीवन होम कर देने वाले पार्टी कार्यकर्ताओं में कोई ऐसा नहीं जो देश चला सके? या गांध्ी परिवार की चापलूसी कर कोई केंदिय पद पा लेने तक ही इनकी महत्कांक्षा सीमित है। बीजेपी की साम्प्रदायिक चाल ने देश की ध्र्मनिरपेक्ष छवि पर आघात किया। ऐसे में बेजुबान दलितों की आवाज बनकर उभरी मायावती को क्योंप्रधनमंत्राी पद का सपना देखने का हक नहीं। लोगों ने तो मायावती के पीएम पद की दावेदारी को लेकर बहुत नाक भों सिकोडे। लेकिन कुत्तों के भोंकने का हाथी पर न कोई प्रभाव पडा है न पडेगा। पूरे देश में एक ही परिवार की मूर्तियां बनाने में अव्वल पार्टी को तो कोई नहीं कोसता। न जाने कितने मंत्रिायों के जन्मदिन एययाश राजाओं की मापिफक लोग मनाते रहे। कोई सवाल मीडिया ने नहीं उठाए। अगर मैं भी किसी दलित परिवार में जन्म लेता और वैसी ही उपेक्षा मुझे झेलनी होती तो शायद मैं मायावती से ज्यादा प्रतिक्रियावादी होता। क्या उस व्यक्ति की पीडा को हम महसूस कर सकते हैं जो हमारे बराबर बैठने की साहस भी नहीं कर पाता। क्योंकि हमारे बाप दादा ने उसे आदमी का दर्जा कभी दिया ही नहीं। आज भी गांवों में वे बाबुजी के बराबर कुर्सी पर बैठ ले तो नंगा कर पूरे गांव में उनकी मां बहनों को घुमाया जाता है। अब अगर ऐसा हो तो वे हाथ खींचकर नीचे उतार खुद कुर्सी पर बैठ जाएंगे। क्या ऐसा अगर हमारे साथ हो तो हम तिलक तराजू को जूते मारने की बात नहीं कर रहे होते। हमारा अहो भाग्य कि मायावती ने सचमूच के जूते नहीं मारे। लेकिन आज दलित वर्ग में जो चेतना आई है उसमें मायावती और कांशीराम की भूमिका क्या कोई भूला सकता है? दलितों के वोट लेने का बडी पार्टियों के पास एक ही तरीका बचता है कि वोटिंग के एक दिन पहले झुिग्गयों में दारू,मुगाZ बंटवा दो या पिफर सौ दो सौ देकर वोट खरीद लो। अंध्े केा भला क्या चाहिए दो आंखें ।रात को दारू मुगाZ मिल जाए तो उनके लिए स्वर्ग के सुख की अनुभूति इसी लोक में मिलती दिखती है। अगर गरीब एक दिन बिकता है तो पिफर पांच साल की गुलामी खरीदता है। कम से कम पार्टियां भी ये समझती हैं कि नमक खाया है तो उसका पफर्ज वोट देकर तो गरीब दलित लोग निभाएंगे ही। बडी पार्टियों के लिए दलितों का मतलब बस इतने से ही था। मायावती ने यूपी में कुछ हद तक इस टे्रंड को बदला । पिफर चुनाव लडना है तो पार्टी पफंड में पैसा होना ही चाहिए। तो टिकट बेचकर पैसे इकटठे करने में बुराई ही क्या है? आजादी के पहले भी महावीर त्यागी जी जहां से कांग्रेस के जीतने की उम्मीद कम होती थी टिकट जमींदारों को बेचकर पैसे इकटठे करते थे। राजनीति में हरेक बुराईयों की जड में कांग्रेेस ही दिखाई पडती है। दलितों का सिरमौर बन चुकी मायावती का पैर पूजने में पागल स्वार्थी उच्च वर्ग मंच पर मारा मारी कर बैठता है। मनुवादी तरीकों को ही अपनाकर मायावती कांटा निकालने का प्रयास कर रही है। हां तरीकों पर बहस तो जरूर हो सकती है पर उददेश्य पाक सापफ हों तो सौ गुनाह मापफ हो सकते है।
"मानो तो भगवान/ नहीं तो पत्थर"...
भारत महान आत्माओं का देश अनादिकाल से है. यहाँ शिव - जो केवल स्वयं, 'नीलकंठ महादेव', हलाहल पान कर उसे गले में रोके रखने की क्षमता रखते हैं, और सब के भीतर विराजमान भी हैं - छाये हुए हैं अमरकंटक से काशी से कैलाश पर्वत तक, दक्षिण से उत्तर तक :)
उत्तर प्रदेश पर राज्य करे कोई 'हिन्दू', और हलाहल से इंकार करे - संभव है क्या?
समय का इशारा है कि अभी, 'घोर कलियुग' में, सब 'सताये हुए' लोगों को, देवता हों या राक्षश, विषपान करना होगा. ऐसी मान्यता - कलिकाल के आरंभ में 'भारत' में पाया जाना - अनादिकाल से रही है...
पहाड़ कि चोटी से उतर आम आदमी धरातल/ रसातल में ही पहुँच सकता है :) और उसे सतयुग में केवल शिव ही पहुंचा सकते हैं - यदि माँ पार्वती, 'हिमालय पुत्री', की कृपा हो :)
ज्ञय माता की :)
बहुत अच्छा लिखा ,मायावती शायद पहली राजनीतिज्ञ होंगी जिन्होंने जीते जी अपना बुत खड़ा करवाया खुद को महान बनाने की जिम्मेदारी अपने जिम्मे ले ली , समझदार लोग तो उनकी इस मानसिकता पर मुस्कुराते ही होंगे .
कुछ दिन पहले देखा था मायावती जयंती के अवसर पर एक आलिशान आयोजन में मायावती जी को बारी-बारी से अफसर -कार्यकर्त्ता उन्हें केक खिला रहे थे .हैप्पी बर्थडे के दिन उन्हें मुह फुल केक खता देख कर पड़ोस के तीन साल के बच्चे की बर्थडे के दिन की भावः भंगिमा याद आ गयी.
रविश जी यदि कोई दलित ऊंचायिओं को छुए तो सदियों दबे-कुचले दलित समाज को गौरवान्वित होने की हसरत पूरी हो जाए .उन्हें चोट्टे शोषकों द्वारा थोपी गयी नीचता और भेदभाव से मुक्त होने का पहला अहसास तो हो .
पर ऊंचायिओं पर पहुचने के लिए सिर्फ दलित होना ही तो काफी नहीं है उस योग्य व्यक्ति का आचरण भी आदर्श होना चाहिए .
सर आपका लेख पढ़ा और ऐसा लगा आप खुद मायावती के प्रसंसक हैं,,दिल शायद टूट गया है ,दलित राजनीती के नाम पर स्वछंद राजनीती और हिटलरशाही की मिशालसर बन गयी थी माया मैडम और एक बात समझ नहीं आती ,क्यूँ कई पत्रकार उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में जुटे हुए थे ,,शायद बहुत दुःख हुआ होगा?????? जातिवाद की प्रणेताओं में से एक माया मैडम को आप लोग प्रधानमंत्री बनाकर ही दम लेते, मगर भला हो उस जनता का जिन्होंने माया मैडम को यह एहसास दिलाने की कोशिश की ,मैडम जमीं से जुड़े रहिये ....
Ravish ji aape ke blog maine pahle hi kaha tha ki BSP badhne wali nahi hai kyonki jo log lucknow ake patharon ko dekhne ke baad shayad hee kisi ne BSP ko vote diya hoga. Bahin ji ko apna approach badlna hoga nahi to haath hathi ko bahar kar dega
good.lokshangharsha.blogspot.com
प्रश्न यह नहीं है कि प्रधान मंत्री कौन बनेगा या बनना चाहिए था या सरकार किसकी और कैसे बनेगी. ६० साल से अपनी ही सरकारें बनी हैं और बिगड़ी हैं. प्रश्न यह है कि क्या जो भी सरकार अब बनी है क्या वो राम राज्य लौटा लाएगी? 'आम आदमी' की सारी समस्या का हल मिल जायेगा क्या?
जि समय विधान सभा में बीएसपी ने सत्ता प्राप्त की तो सोशल इंजीनियरिंग को लेकर बड़ी-बड़ी वाहवाही हुई। अब सब ढक्कनण्
लखनऊ विश्वविद्यालय ने तो पाठ्यक्रम तक शुरू कर दिया था। अब क्या होगा?
चलिए कोई बात नहीं इस देश में सब कुछ भुला दिया जाता है, लोग भूल जाते हैं कि दलित का नाम लेकर सत्ता तो पाई जा सकती है पर उनका भला नहीं किया जा सकता है। जिनके वोट से जीते वो झोपड़ी में और जो जीते वो पाँच करोड़ की हवेली में..... यही है दलित विकास..........
बहुत कुछ समझने की कोशिश करने से पहले ज़रूरी है कि एक कहानी सुनी जाये.
कई साल पहले की बात है, जे.जे. कालोनी, इंदर पुरी, नयी दिल्ली-12 के B ब्लाक में एक आदमी परिवार सहित 22.5 गज के प्लाट में रहता था. परिवार बहुत बड़ा था, कमाने वाला अकेली जान, केंद्रीय सरकार की चपरासीगिरी में घर का खर्च नहीं चलता था सो, दो-एक भैंसे भी घर के बाहर बाँध ली थीं जो कुछ और आमदनी कर देंतीं थीं. बच्चे पहले पूसा के सरकारी स्कूल में पढ़ाए पर कुछ ठीक नहीं लगा तो इंदर पुरी के ही सरकारी स्कूल में डलवा दिए. स्कूल ख़तम होते होते भी बच्चों की कोई विशेष उपलब्धि नहीं रही. घर की बड़ी लड़की ने जनता युवा मोर्चा में घुसने की कोशिश की, पर जे.जे. कालोनियों में इस तरह की बात दूर तक नहीं जाती ...
उसी लड़की को आज लोग मायावती के नाम से जानते हैं जो अधिक से अधिक कमा लेना चाहती है, अच्छे से अच्छा पहन और ओढ़ लेना चाहती है, ज्यादा से ज्यादा ज़मीन और मकान खरीद लेना चाहती है, जो अधिक से अधिक ताकतवर होना चाहती है, जिसमें चाह है कि दुनिया उसे देखे और पहचाने ..
BSP, हाथी, दलित, मूर्तियाँ, जोड़-तोड़, सत्ता आदि वो माध्यम भर हैं जो भीतर बैठी उस कल वाली लड़की को बहुत मानसिक सुख देते हैं...यह बात दीगर है की वो अकेली नहीं है, राजनीती में ऐसे सैकडों नाम हैं पर फर्क बस एक है...और वह है..दलित राजनीति का नीतिगत प्रयोग और वांछित प्रतिफल, जो पहले कभी इस स्तर पर देखने को नहीं मिला.
शेष...समय अपनी दिशा स्वयं तय करता है..
manlook जी की बात पर याद आया bahen के बर्थडे cake में एक एन्जीनिएर का भी खून मिला हुआ था ..
सिर्फ जाति की राजनीति करने वाले सभी मायावती ,मुलायम और लालूओं का यही हाल होगा
u r biggest castist like all we BIHARI. u like mayavati because she gave BHAV to brahmin. if NITISH has given bhav to rahmin he would best pilitician for you. BABA HO BABA
इस लेख की यह बात सबसे महत्वपूर्ण है
''दलित मध्यमवर्ग ने सपना देखा कि कोई दलित चुन कर पीएम बन जाए। यह सपना मरा नहीं है। बचा हुआ है। कहीं किसी कोने में बचा ही रहेगा।''
बीएसपी के आंदोलन से सहानुभूति रखने वालों के लिए यह बात विशेष तौर पर गौर करने वाली है कि बीएसपी आज दलित मध्यवर्ग के सपनों की प्रतिनिधि है। इस मध्यवर्ग का एक सपना मायावती को प्रधानमंत्री बनवाना है तो दूसरा खुद पूंजीपति बन जाने का भी है (चन्द्रभान की थ्योरी)। चलिए मान लें कि यह हो भी जाता है तो इससे आम दलित आबादी का क्या फायदा हो जाएगा? यूपी में सफाई कर्मियों की नौकरी बीएसपी के नेताओं ने पैसे देकर बांटीं। अब ठेकेदार के नीचे झाड़ू लगाने वाला या सीवर साफ करने वाला 2200 रुपया कमाने वाला इतना पैसा कहां से लाता। मजेदार बात है कि यही ठेकेदार बीएसपी का मोहल्ला स्तर का नेता भी होता है। बीएसपी का झंडा पूरी निष्ठा से लेकर चलने वाला आम कार्यकर्ता वहीं का वहीं है। हां उसके छुटभैय्ये नेताओं के तिमंजिला जरूर बनते जा रहे हैं। बीएसपी को ज्यादा जानना हो तो उसके अंदर जाटव (आर्थिक तौर पर अच्छे) और बाल्मीकी या अन्य जातियों के गहरे अन्तर को जानने की कोशिश करिए। हमारे चाहने से नहीं बल्कि अपनी गति से आखिर में जाति नहीं क्लास डोमिनेट करेगा। दलित मध्यवर्ग अन्य मध्यवर्ग के साथ खड़ा होगा और दलित गरीब अन्य गरीब के साथ। दूसरे शब्दों में कहें तो सफाई करवाने वाला ठेकेदार दूसरी जातियों के ठेकेदारों के साथ खड़ा होगा और सफाई करने वाले एक साथ। कुछ सालों में तो नहीं लेकिन आखिरकार बीएसपी का भी उसके जमीनी कार्यकर्ताओं से मोहभंग होना तय है।
ऐ काश की होती खबर कि तुमने कितना चंदा खाया है
धर्म- जातिवाद के नाम पर लोगो को खूब भड़काया है !
विकास के नाम पर सिर्फ गरीबो का दिल दुखाया है
दलितों का बेडा गरक किया, और कांशीराम का घर भी ढाया है
साम्प्रदायिक मुसलमान को जब जोर की ठोकर लगी, तब पहचाना.
पत्थर के सनम ...............!!
आपके बारे मे एक बात शीशे की तरह साफ है की आप बिल्कुल भी निस्प्क्ष खबर नही लिखते हैं
पिछले लेख मे विरोधी और इस लेख मे समर्थक विश्लेषण देकर आप अपने पेशे को ही दगा दे रहे हैं|
मायावती की हार से लगता है आपका दिल टूट गया.....पर क्या करे. वो तो होना ही था....
भ्रास्तचार का अंत देर से सही पर होता ज़रूर है....जैसा की लालू के साथ हुआ है....
देश मे विदेशी मीडीया का अंत भी निकट ही है......
काले-गोरे का भेद तो क्या ! हम तो दलितों को जलाते हैं ऽऽऽऽऽऽ
कुछ और न आए-जाए हमें, पर झूठ बोलने आते हैं ऽऽऽऽऽऽ
इसे जान न ले सारी दुनिया
ओ इसे जान न ले सारी दुनिया......
...हम फिल्मों तक में छुपाते हैं ऽऽऽऽऽऽ
दरअसल कहीं जो हो ही नहीं हम वैसी इमेज बनाते हैं ऽऽऽऽऽऽ
ओ ओऽऽ ओ ओ ऽऽऽऽ
ओ ओऽऽ ओ ओ ऽऽऽऽ
इतना पाखण्ड इंसान मरे पर पत्थर पूजे जाते हैं ऽऽ
पशुओं को बचाने वाले ही इंसानों को खा जाते हैं ऽऽ
पहले फन को ठुकराते हैं ऽऽ फिर ग्रंथ में ढूंढ के लाते हैं ऽऽ
ओ ओऽऽ ओ ओ ऽऽऽऽ
ओ ओऽऽ ओ ओ ऽऽऽऽ
( मूल गीत: है प्रीत जहां की रीत सदा,, फिल्म: पूरब और पश्चिम,, गायक: महेंद्र कपूर )
दलित मुक्ति और इनके सशक्तिकरण का सवाल भारतीय समाज के व्यापक लोकतांत्रिकरण प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा है. समता और समानता के संघर्ष पर चर्चा अथवा इस संघर्ष को आगे ले जाने का सवाल हो , दलितों की मुक्ति को प्रमुखता से रखना और आगे करना होगा .
अगर यह स्थापना सही है तो क्या सामंतवादी तौर तरीकों और आडम्बरों में लिप्त होकर यह लडाई लड़ी जा सकती है ?
दलित मुक्ति आन्दोलन क्या भारत के अन्य शोषित तबकों की लडाई को नज़र अंदाज कर लड़ा जा सकता है ?
क्या दलित मुक्ति संघर्ष साम्प्रदायिक शक्तियों की गोद में बैठ कर आगे बढ़ाया जा सकता है ?
इन मौलिक बातों को नजर अंदाज करने वाला कोई भी हो , वह दलित मुक्ति संघर्ष को अपने सही रास्ते पर नहीं ले जा सकता है. भले हीं वह मायवती हीं क्यों न हो .बाकी करें तो गलत और मायावती करें तो सही .यह अनर्थ ज्यादा समय तक नहीं चल सकता है.
या तो मायावती बदलें या फिर नया दलित नेत्रित्व उभरेगा और इस संघर्ष को आगे ले जाएगा .
अंत में एक बात और , मेरा अनुमान कहता है कि साम्प्रदायिकता के आसन्न अवसान से सामजिक परिवर्तन की प्रक्रिया आने वाले सालों में तेज होगी .
सादर
फिल्मों की, टीवी की, और दुनिया भर की अन्य कोई भी चर्चा तो हम आसानी से कर लेते हैं, page पर page भर देते हैं...किन्तु यदि कोई 'पत्रकार' या 'मूर्तिकार' यह बता दे कि कैसे वो, हम सब, और अन्य तुच्छ प्राणी भी नींद में सपने देख पाते हैं तो बात है :)
क्या NDTV ने सबकी आँखों में कैमरा लगाने का ठेका लिया हुआ है? और कब से?
मायवती से उम्मीदें रखना सही नहीं......
नोएडा सेक्टर 16 (फिल्म सिटी) जाकर देखें अगर धन का दुरुपयोग देखना है।
some comments are really nice..
keep it up..
ravishji, what do you think about todays Indian Society, where does it stand and how it is heading/progressing
Ravish ji maere comments par dhayan de.
1. Jab bhi Mayawati, Mulayam, Lalu Jaise neta sata me ate hai to app jaise log ka najariya aisa hota hai mano unhone rajniti me aa kar puri samaj ko ganda kiya ho.
2. Aaj mai NDTV dekh raha tha jis karunanidhi ko aap kal tak Mahan bata rahe the (Clip ke sath) aaj o ulat ho gaya (Clip ke sath. 24 hrs. me aisa kya ho gaya.
3. Rahul Gandhi ka to aap mahimamandit karte hai par jab karunanidhi apne MP ke liya mantri pad mante hai to o rato rat galat ho jate hai.
4. Kya aap ne prime time me apne darshak se kabhi ye poocha ki NDTV kya Patrakarita ke namm par Congress ka parchark hai ki nahi?
5. Aap ye kaise soch late hai ki aaj ke yug me koi dalit jise mindir tak jana mana tha aaj NDTV jise propogenda channel se paar pa lega o bhi bina paisa ke, is liye paisa to chahiye.
6. Congress itni sahi thi to Aaj Amir or Amir hote ja rahe hai or garib, garib?
Naitikta tv me hi sahi lagta hai, bharat me bahut se log Rahul se talented hai par o sonia ke bete nahi hai?
If you can believe me i had a big doubt about the so called social engineering which supposedly unfolded the red carpet in 2007 assembly election and after so many years UP saw in single party govt.I am not a soothsayer or even a political commentator but i could foresee BSP's situation in 2009 parliamentary election. Raveesh ji i was almost sure that Mayawati-Misra combination will faten the elephant if not turn it upside down.Already high headed Maya laced with latent and clandestine supply of brahmanic arrogance (we all witness the resource beside her in almost every piture) which she does not realise,at least i think so,is all set to invert the entire situation and overthrow her and her dalit cause.This is high time, as you suggest,for reasoning and rebuilt her strict administrator image, check the corruption (starting with looking at the mirror herself),reach out the base worker and give momentum to all the elephants standing in a 'statue'command.
She is killing the aspirations of dalits by behaving in a very strange manner which had no place in Dr.Ambedkar or Kanshi Ram's vision and scheme of things for dalit's welfare.
akhilesh dixit
आखिर पत्थरों ने लोकसभा में अपना असर तो दिखा ही दिया। अगर ऐसे ही अति होती रही, तो ३ साल बाद विधानसभा भी है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
"चंद्रभान लिखते हैं कि सफाईकर्मियों की बहाली में रिश्वत ली गई। ये सफाईकर्मी गांवों में घूस की ज़िंदा मिसाल बन गए हैं। गांव में आते नहीं,काम नहीं करते और सिर्फ तनख्वाह लेते हैं।" लेकिन एक बात जरूर है कि बहन जी ने हजारों वर्ष के इतिहास को उलट दिया। इन सफाईकर्मियों में भारी मात्रा में सुकुल जी, तिवारी जी, श्रीवास्तव जी लोग भी हैं। हमारे यहां तो सफाईकर्मचारी बहाली संघ के अध्यक्ष एक सुकुल जी हैं। मैंने अपनी आंखों से देखा कि व्यावहारिक परीक्षा के वक्त कैसे लोग जींस-शर्ट पहनकर नाले में गोता लगा रहे थे। मैं तो उत्सुकतावश रुका, समझा कि कुछ गिर-गिरा गया है लेकिन पता चला कि ये लोग बाभन-ठाकुर हैं जो सफाईकर्मचारी की परीक्षा दे रहे हैं। यहां एक बात और गौर करने लायक है कि समाज का यह वर्ग मौका पाकर कोई काम नहीं छोड़ता। इसके अतिरिक्त बेरोजगारी की असल तस्वीर भी इससे स्पष्ट होती है। साथ ही यह भी कि अभी सरकारी नौकरियों के प्रति लोगों में खासकर देहात में कितना आकर्षण शेष और विद्यमान है।
बसपा के प्रदर्शन पर एक अखबार में छपा विश्लेषण
जो भी लड़ा, बसपा से लड़ा
लखनऊ। लोकसभा चुनाव में सीटें जीतने के मामले में बसपा बेशक सपा व कांग्रेस से पिछड़ गई, लेकिन ज्यादातर सीटों पर मुकाबले का केन्द्र बिन्दु बसपा ही रही। बसपा ने सिर्फ बीस सीटों पर सफलता प्राप्त की, जबकि 47 सीटों पर उसके उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे। इसके विपरीत अपने अप्रत्याशित प्रदर्शन से चौंकाने वाली कांग्रेस ने भले ही बसपा से एक सीट ज्यादा जीती, लेकिन उसके सर्वाधिक 25 उम्मीदवार मुकाबलों में चौथे स्थान पर रहे।
नतीजों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि बसपा प्रदेश के लगभग सारे अंचलों की अधिसंख्य सीटों पर जोरदार लड़ाई लड़ रही थी, जबकि बाकी पार्टियां अलग-अलग क्षेत्र में बसपा को चुनौती दे रही थीं। प्रदेश में सिर्फ तेरह सीटों पर बसपा मुख्य संघर्ष में नहीं थी। उसके उम्मीदवार इनमें ग्यारह सीटों पर तीसरे तथा सिर्फ दो सीटों पर चौथे स्थान पर रहे। आंकड़ों से यह संकेत भी मिलता है कि बसपा को हराने के लिए मतदाताओं ने ज्यादातर सीटों पर 'रणनीतिक वोटिंग' की, और सपा, कांग्रेस या भाजपा का मजबूत उम्मीदवार चिन्हित करके उसके पक्ष में एकजुटता दर्शायी। यही वजह है कि जहां बसपा के 47 उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे, वहीं सपा के पन्द्रह, कांग्रेस के सात, भाजपा के दस तथा रालोद का सिर्फ एक।
सर्वाधिक 23 सीटें जीतने वाली सपा के पैंतीस उम्मीदवार तीसरे या चौथे स्थान पर रहे। जाहिर है कि मतदाताओं ने सपा को सिर्फ उन्हीं सीटों पर समर्थन दिया, जहां उसके उम्मीदवार जीतने की स्थिति में नजर आए। ऐसा ही कांग्रेस के साथ भी हुआ, जिसके सैंतीस उम्मीदवार तीसरे या चौथे स्थान पर रहे। कुछ ऐसा ही अनुभव भाजपा का भी रहा। उसके 46 उम्मीदवार तीसरे या चौथे स्थान पर रहे, जबकि सिर्फ बीस उम्मीदवार पहले या दूसरे स्थान पर। रालोद ने सिर्फ सात उम्मीदवार खड़े किये, जिनमें पांच विजयी हुए, जबकि एक-एक दूसरे व तीसरे स्थान पर। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में सिर्फ कल्याण सिंह चुनाव जीतने में सफल रहे, यद्यपि एक निर्दलीय उम्मीदवार तीसरे स्थान पर तथा आठ निर्दलीय उम्मीदवार चौथे स्थान पर रहे।
22 मई को रात पौने नौ बजे एनडीटीवी इंडिया पर टॉप टेन न्यूज का फ्लैश चल रहा था-आज शाम मनमोहन सिंह शपथ लेंगे। मनमोहन के साथ 19 मंत्री शपथ लेंगे। कुछ कीजिए रविशजी।
"आसमां ये नीला क्यूँ? पानी गीला- गीला क्यूँ? गोल क्यूँ है जमीं?" आदि-आदि अनंत प्रश्न कवि पूछता है. शायद उसे नहीं पता कि आज के मानव के पास टाइम नहीं है गहराई में जाने हेतु, किन्तु ढेर सारा समय है फल की तालाश में पेड़ पर चढ़ने के लिए, या दूसरों को चढाने के लिए यदि वो 'नेता' हो - और खुद आराम से उन्हें खाने के लिए. और क्यूँ न करे वो यदि उसे शेषनाग के सामान पृथ्वी का बोझ भी उठाना हो अपने सर पर, किन्तु विष्णु का ध्यान न हो कलियुग के कारण...
ये मूर्ति आदि तो इस युग में काम नहीं करती क्यूंकि आरंभ में केवल बाहुबली कार्तिकेय थे, जिनका वाहन आसमां के समान नीला मोर है जो सुंदर है किन्तु केवल नाच सकता है जब आसमान में बादल हों (अकाली दल के नहीं :)...
बुद्धि की उत्पत्ति, बाद में, हाथी के सर वाले गणेश के रूप में आई - किन्तु अफ़सोस सतयुग में...जिसके सपने देखने में कोई मनाही नहीं है - कोई भी कभी भी देख सकता है जागते हुए भी क्यूंकि प्राकृतिक कैमरा योगनिद्रा के विशेषज्ञ विष्णुजी के पास है और वो सबके भीतर सदैव विद्यमान हैं (ऐसी गहराई में गए हिन्दुओं की धारणा है जिन्हें सतयुग का अंदरूनी अनुभव है, और वे जानते, या मानते, हैं कि काल की रील उलटी चल रही है, अभी rewind होना बाकी है और फिल्म का आनंद लेनेकी मनाही भी नहीं है जिसका हर एक को, विशेषकर टीवी के कारण, काफी अभ्यास भी हो गया है :)
आप लोगो कि बातो से ऐसा लगता है कि आप सभी अभी तक जनादेश २००९ से अनभिज्ञ हैं.ये पहली बार है जब जनता ने क्षेत्र,धर्म और जाति से ऊपर उठकर विकास की निरंतरता को बनाए रखने के लिए वोट डाला है.अगर आप अभी भी भी ये सोचते हैं कि बिहार में एम्-वाय-डी समीकरण चलेगा और यू पी में पिछड़ा-दलित खेल आगे भी जारी रहेगा तो फिर मुझे ये कहते हुए खेद हो रहा है कि आप सब महानुभाव भुलावे में हैं.एग्जिट पोल क्यों फेल हो जाते हैं?क्योकि वो भी आपकी ही तरह सोचते हैं.
रही बात बहन जी की तो मुझे कहना पड़ेगा की भाई उनकी लीला तो अपरम्पार है, वो तो दलितों की ऐसी देवी(स्वघोषित) हैं जिन्हें दलित ही वोट नहीं देता.अपराधियों को जिस तरह से उन्होंने शरण दी है, विकास के नाम पर जो हाथी घोड़ा पालकी और पुतले खड़े करवाए हैं,और जो खुलेआम चंदा माँगा उसका तो कोई जवाब ही नहीं. उनका हश्र अगले चुनावों में राजस्थान की स्वघोषित रानी वसुंधरा राजे सिंधिया जैसा हो जाए तो आप लोग भाई आश्चर्य मत करना.
भारत का दलित भारत से अलग नहीं है दोस्तों.उसकी भी वही समस्यायें हैं जो हमारी और आपकी हैं.उसे भी बिजली पानी सड़क शिक्षा और रोजगार चाहिए.ये अगर प्राप्त हो जाएँ फिर "समानता" तो सह-उत्पाद की तरह मिल ही जाती है.
बहन जी के "दलित प्रेम" पर मैंने कुछ महीने पहले अपने ब्लौग पर कुछ लिखा था,चाहे तो यहाँ पढ़ सकते हैं:
http://shishirwoike.blogspot.com/2008/01/blog-post_9369.html
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