सब वोट न देने वाले वोटर को गरिया रहे हैं। पप्पू बता रहे हैं। बब्लू ने वोट नहीं दिया बदनाम पप्पू को कर दिया। ठीक बात नहीं है। जिनके भी नाम पप्पू हैं वो इनदिनों मुश्किल में हैं। वोट देने के बाद भी बच्चे पप्पू पास या पप्पू फेल चिढ़ाते हैं। इस पर एक स्पेशल रिपोर्ट तैयार की और अलग अलग इलाकों के पप्पुओं से बात की तो व्यथा का अंदाज़ा लगा। कानपुर के पप्पू पनीर वाले हों या राजकोट के मशहूर कपड़ा व्यापारी पप्पू मनदानी या फिर इलाहाबाद के एजी आफिस के सामने चाय की दुकान लगाने वाले पप्पू तिवारी। सब परेशान हैं कि पप्पू ही क्यों बदनाम हैं?
बहुत नाइंसाफी है ये। अंग्रेज़ी के टॉम डिक एंड हैरी की तरह पप्पू, मुन्ना या बब्लू की औकात है। मेरे अंदाज़े में टॉम डिक एंड हैरी यूरोपीय समाज के सबसे प्रचलित पुकार के नाम रहे होंगे। उनकी सर्वसुलभ उपलब्धता के विरोध में ही कोई खास नाम वाले शख्स इनका उपहास करते होंगे। हमारे समाज में भी यही हो रहा है। पहले मोहल्लों में पप्पू मुन्ना और गुड्डू ही पुकार के प्रचलित नाम थे। आज भी होंगे। समाज पूरी तरह से एकदम कभी नहीं बदलता। नया पुराना साथ चलता रहता है। लेकिन अमीर लोगों ने अपने बच्चों के लिए अलग नाम रखे। डॉली, डेज़ी और गोल्डी। ये सब खास नाम होते हैं। इनके बरक्स पप्पू नाम की सर्वसुलभता कमज़ोरी की तरह देखी गई।
जुलाई २००८ में विश्वास मत पर हुई बहस के दौरान राहुल गांधी ने कलावती का ज़िक्र किया तो सब हंसे। विरोध में लालू उठ खड़े हुए और कहा कि कलावती, लीलावती हमारे घर की बेटियों के नाम होते हैं। आप हंसते हैं। अगर यही नाम डम्पी फम्पी होता तो हंसते क्या? सबने हंस दिया। नाम को लेकर कुलीनता बरती जाती है। हैसियत नापी जाती है।
बाबा विलियम शेक्सपीयर को नामों की पीड़ा सताती होगी।तभी कहा होगा व्हाट्स इन ए नेम। पर बाबा विलियम सारे गेम तो नेम में ही है। हम अपने पुकार के नाम को लेकर शर्मिंदा होते रहते हैं। जब बड़े हो जाते हैं तो दफ्तर में बताने से संकोच करते हैं। जब मैंने अपने दफ्तर में लोगों से पूछना शुरू किया तो जवाब मिला कि पहले तुम अपना बताओ। कई लोग इस बात का इंतज़ार करते रहे कि पहले सब बता दें तब अपना बता दें। एक मोहतरमा ने अपना नाम बहुत धीरे से बताया तो एक मोहतरमा ने भीड़ से हटकर दो तीन क्लोज दोस्तों के बीच बताया तो एक मोहतरमा ने बुदबुदाकर बताया।
नाम को लेकर बायस यानी पूवाग्रह हमारे भीतर है। नई बात नहीं है। लेकिन पप्पू पर इतना हमला क्यों। कैडबरी के विज्ञापन में पप्पू पास हो गया के रचनाकार अरशद सरदार से पूछा तो यही कहा कि ये बहुत ही कॉमन नाम है। लेकिन उन्हें भी उम्मीद नहीं थी कि इसके बाद पप्पू हमेशा के लिए नकारेपन से जुड़ जाएगा। पप्पू कांट डांस साला के बाद पप्पू वोट नहीं देता।
चुनाव में सारा ज़ोर हम वोट पर ही डालते हैं। मुद्दों पर कम। हम ये जानना ही नहीं चाहते हैं कि क्यों कोई वोट नहीं देने गया? कोई न कोई कारण रहा होगा।सिर्फ लोकतंत्र के प्रति उदासीनता ही अंतिम कारण नहीं हो सकता। वोट न देना पप्पू होना हो गया।
इलाहाबाद के पप्पू तिवारी ने कहा कि हम तो वोट देने गए थे लेकिन हमारा नाम ही नहीं था। अब बोलिये हम बदनाम हुए न। कानपुर के पप्पू पनीर वाले ने कहा कि हम वोट देकर आए हैं लेकिन आप वोट दीजिए वर्ना मैं बदनाम हो जाऊंगा। मध्यप्रदेश में कुछ लोगों ने हंगामा कर दिया। इन सबके नाम पप्पू हैं। एक की बेटी ने कहा कि सब मेरे पापा को पप्पू कहते हैं। उनके पप्पू नाम का मज़ाक उड़ाते हैं।
मेरी मां ने अपने पोते से मज़ाक किया कि तुम्हारे पापा का नाम पप्पू रख देंगे। उस वक्त स्पेशल रिपोर्ट आ रही थी। मेरे भतीजे ने कहा पप्पू मत रखना। सब मज़ाक उड़ायेंगे। हमें लगता है कि जागरूक करने का कोई और तरीका निकलता। पप्पू को बेकार ही बदनाम किया गया। दिल्ली में बावन तिरेपन फीसदी वोट पड़े तो लोगों ने कहा कि पप्पू विज्ञापन का कमाल है। पश्चिम बंगाल में तो लोगों पचहत्तर फीसदी मतदान किया, क्या वो भी पप्पू विज्ञापन का कमाल था। अगर दिल्ली की ही बात करें तो कुछ हद तक पप्पू विज्ञापन का हाथ हो सकता है, और इसी के कारण लोग वोट देने गए इसकी गहन जांच होनी चाहिए। गए भी तो क्या बावन फीसदी इतना बड़ा प्रतिशत तो नहीं कि जश्न मनायें। आधे लोग तो नहीं निकले न। इस बात के बाद भी कि लोग पप्पू कहेंगे। तो पप्पू विज्ञापन का फायदा क्या हुआ?
इसलिए प्लीज़ पप्पू को छोड़ दीजिए। राजू, गुड्डू, मुन्ना और पिंटू ये सब प्यार के नाम हैं। इनका सम्मान कीजिए। दफ्तर में बताइये कि मैं यहां रॉकी हूं और घर में राजू हूं। शर्मिंदा होना छोड़ दीजिए। पप्पू का मज़ाक मत उड़ाइये।
12 comments:
हमरा नाम पप्पू है जी। हमें नही ंना सामिल किए इसपेसल रपोरट कारट में ! बंचित का तरस्कार कर रहें है !? चलिए कोई बात नईंए। हमरे बिलोग पर जाकर कुछ और बिबरन लीजिए पप्पू का बारे में। कल ही लगाएं हैं। एकदम्मे ताजा है। अरे तनिक देखिए तो सही जाकर। कि कल अपने लेख में झूठ बोले थे कि हमका अपने अहंकार का पता है।
चलिए अपना पता भी छाप देते हैं हाथोंहाथ:-
www.samwaadghar.blogspot.com
हमने वोट नहीं डाला, पर हम पप्पू नहीं हैं हमारे घर वालों का भला हो जो उन्होंने हमारा नाम गुड्डू रखा...हा हा हा
सही है... पप्पु वाकई ्पप्पु हो गया... ९.३० पर देखते ्है..
पप्पू , मुन्ना और गुड्डू ....तीनो नाम बिहार में बकलोल टाईप दोस्त लोग होता था ! मोहल्ला में - मुना ही सिर्फ थोडा सा ज्यादा तेज़ ..! बिहार में "राजा" भी काफी फेमस नाम था ! गाँव में "बोका " , " पाड़ा" , "ढेला" इत्यादी भी काफी फेमस होता था ! वैसे नाम का असर होता है - तेंदुलकर ने बेटा का नाम - अर्जुन रखा - किसी को पन्न्दावों के बड़े भाई - युधीस्तीर या फिर "प्राण" नाम रखते नहीं देखा !
मैंने आपकी पप्पू की रिपोर्ट को देखा और सुना. बहुत जल्द लेकर आ रहा हूं, उससे जुड़ा एक नमूना पप्पूओं की शिकायत..
हमारे पडोसी ने तो कल अपने बेटे का नाम पप्पु रख दिया केहते हैं यूँ तो कुछ्ह पढे लिखेगा नहीं ऐसे ही मशहूर तो हो जायेगा और इसीलिये उन्होने पप्पु को वोते नहीं डालने दी व्यंग अच्छा लगा
भारत देश कभी महान कहलाता था योगियों के कारण...
हाय रे भोगी इंसान की मजबूरियाँ, आज बाज़ार के प्रभाव से, मीडिया के सहयोग से, सब बिकता है - सरकार बनाने के लिए नेता भी, और आम आदमी भी, उसे चाहे पप्पू कहो या गप्पू. यह तो खरबूज और चाकू वाला रिश्ता है, कटेगा 'आम आदमी' यानि खरबूजा ही :)
रवीश जी ,
पप्पू ने वोट दिया या नहीं दिया ..उसकी छानबीन हो या इन्क्वायरी ...चुनाव हो गया ..वोट पड़ गए और बस कुछ दिन इंतजार करना है सबको ...चुनाव परिणाम आते ही ..नेता हो जायेंगे व्यस्त ...चमचे मस्त ..पूरे देश की जनता पप्पू बन जायेगी (पिछले छह दशकों का इतिहास फिर दुहराया जायेगा )....
हेमंत कुमार
परसों जब वोट देने जा रहा था तो वहाँ भी इसकी चर्चा हो रही थी। एक आदमी रास्ते में मिले अपने दोस्त को कह रहा था कि तुने वोट दिया कि नही। उसने कहा कि अभी नही दिया, तो उसने कहा कि पप्पू मत बनना यार।
सच पप्पू बदनाम हो गया।
बब्लू ने वोट नहीं दिया बदनाम पप्पू हो गया की चर्चा मेरे ब्लॉग समयचक्र में
डियर रवीश जी,
कहीं आप का नाम पप्पू तो नहीं। बहरहाल मुद्दा कहीं से भी छोटा नहीं। नाम कुलीन वर्ग औऱ निम्न वर्ग के बीत अंतर बनाने का ज़रिया बन गए हैं या कह लें पहले से रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं। लेख अपने सरल भाषा और प्रवाह के साथ उन गंभीर बिंदुओं को समेटे हुए है जो हमारे मानसिक रूप से बंधे समाज का असली चेहरा दिखाते हैं। लिखते रहिए यूंही ईश्वर आपकी कलम तेज़ करता रहे। और हां मेरा नाम पप्पू ही मानिए।
"पहले मोहल्लों में पप्पू,मुन्ना और गुड्डू ही पुकार के प्रचलित नाम थे। आज भी होंगे। समाज पूरी तरह से एकदम कभी नहीं बदलता। नया पुराना साथ चलता रहता है। लेकिन अमीर लोगों ने अपने बच्चों के लिए अलग नाम रखे। डॉली, डेज़ी और गोल्डी। ये सब खास नाम होते हैं। इनके बरक्स पप्पू नाम की सर्वसुलभता कमज़ोरी की तरह देखी गई।" सहीये बात। हमारे गांव में तो नाम को लेकर झगड़ा हो जाता है। किसी की मजाल है जो अपने लड़के का नाम वेद रत्न रख दे। लेकिन पप्पू में थोड़ी सी मजाक वाली ध्वनि अपने आप आ जाती है। कुछ-कुछ गोल-मटोल टाइप।
गरीब लोगों के नाम घुरहू, मंगरू, कतवारू, खदेरू पहले पाए जाते थे। अब भी पाये जाते हैं। किसी बड़े परिवार के लड़के का नाम खदेरू हो सकता है लेकिन उसमें दूसरा कारण होगा 'जियले क नांव घुरहू'। तो इसका मतलब कि कुलीनता और प्रकृति की यह मिली-जुली साजिश है। घुरहू नाम होगा तो भगवानो नहीं पूछेंगे। ऊर-घूर की तरह पड़ा रहेगा। बहरहाल, अब सुधार है...
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