गोवा किसका- परशुराम, लोहिया या शोभराज का















यह तस्वीर इन दिनों ब्राह्मणों के राजनीतिक प्रतीक परशुराम की है। परशुराम का ज़िक्र तुलसीदास के रामायण में भी है। जहां राम के धनुष तोड़ने पर परशुराम नाराज़ हो जाते है। राम तो चुप रहते हैं लेकिन लक्ष्मण और परशुराम के बीच जमकर संवाद होता है। रामलीला में देखा गया यह दृश्य आज भी याद है। लक्ष्मण का हर संवाद परशुराम पर भारी पड़ता है। श्रुति परंपरा के अनुसार परशुराम क्षत्रिय संहारक माने गए हैं। तमाम तरह के पूजनीय ईश्वर तो सभी जातियों के रहे हैं लेकिन ब्राह्मणों ने बहुत दिनों बाद परशुराम को अपना प्रतिनिधि प्रतीक बनाया है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में परशुराम जयंती की परंपरा और इस दिन सार्वजनिक अवकाश की मांग हर साल सुनाई देती है। इतनी भूमिका इसलिए कि पूरे प्रसंग में इस बात का ज़िक्र नहीं आता कि परशुराम गोवा के संस्थापक हैं।

गोवा गया था। दक्षिण गोवा में बिग फूट नाम का एक सरकारी संग्रहालय है। यहां पर परशुराम की प्रतिमा लगी है। प्रवेश द्वार पर ही। नज़र पड़ते ही गाइड से पूछा कि भई धनुर्धर कौन हैं? जवाब मिला परशुराम। गोवा के संस्थापक। सह्याद्री के पहाड़ों में तप करते वक्त परशुराम ने तीर चला दिया। अरब सागर में तीर गिरते ही सागर का पानी पीछे हट गया और यहां धरती निकल आई। इसी भूखंड पर गोवा बसा है। मेरी आंखे खुली रह गईं। परशुराम ने तीर क्यों चलाई? क्या उनके निशाने पर कोई आदिम अरब था या यवन था? पता नहीं। फिर परशुराम को लेकर ब्राह्मण उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में ही क्यों सक्रिय हैं? काश यहां परशुराम ने तीर चला दिया होता तो बिहार और उत्तर प्रदेश के बाढ़ग्रस्त भूखंड पर गोवा जैसा रमणिक स्थल बन जाता। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह प्रतिमा एक चिंगारी के रूप में यहां रखी गई है जो आने वाले किसी समय में भड़केगी। जब यह मांग होगी कि गोवा के फर्नांडिस, रोड्रिग्स और डिसूजा अपना नाम बदल कर शर्मा, पांडेय और मिश्रा रख लें। ख़ैर आशंका में अभी से क्यों मरें। बात इतनी सी है कि बड़ी हैरानी हुई।

















यह तस्वीर गोवा की है। राममनोहर लोहिया की। फूल माला से लदी उनकी प्रतिमा। मुख्यमंत्री और मंत्री चढ़ा गए थे। दिन था १८ जून। गोवा हर साल १८ जून को गोवा क्रांति दिवस मनाता है। प्रतिमा के बाहर लिखी इबारत के अनुसार १८ जून १९४६ को युवा राम मनोहर लोहिया ने पुर्तगाली शासन के खिलाफ आज़ादी का नारा दिया था। हज़ारों गोवन की भीड़ जमा हो गई थी। भारत छोड़ो आंदोलन में हुई गिरफ्तारी के बाद लोहिया गोवा आए थे। अपने मित्र के यहां आराम करने। इतिहासकारों ने आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं के जीवन के दूसरे पहलुओं का अध्ययन नहीं किया है। इतने सघन संघर्ष में भी लोहिया गोवा पहुंचे थे आराम करने। मैं कुछ देर तक विस्मय से सोचता रहा। ख़ैर। ठीक १८ जून से एक दिन पहले १७ जून २००८ को समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ने इंडियन एक्सप्रैस में एक लेख लिखा। जिसमें अमर सिंह ने तमाम मनमुटावों को भुला कर कांग्रेस का साथ देने की दलील दी थी। लोहिया गैर कांग्रेसवाद के किसान नेता रहे हैं। मुलायम सिंह ख़ुद को लोहिया का चेला बताते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में जन्मे राममनोहर लोहिया के नाम पर इस देश में कहीं सरकारी कार्यक्रम मनता है तो वह गोवा है। खुद उत्तर प्रदेश में सरकार बदलते ही लोहिया मैदान अंबेडकर मैदान हो जाता है। ख़ैर गोवा के इस सरकारी समारोह में मुलायम या अमर की मौजूदगी नहीं थी। विडंबना देखिये कि अमर सिंह कांग्रेस से रिश्ता तलाश रहे थे और गोवा में कांग्रेस के मुख्यमंत्री दिगंबर कामत लोहिया की प्रतिमा पर फूल माला चढ़ा रहे थे। उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई कांग्रेसी नेता ऐसा कर दे।
















यह तस्वीर भी गोवा की ही है। यहां एक मशहूर रेस्त्रां हैं। ओ कोकेरो। चिकन कफ्रील के लिए मशहूर है। लेकिन ओ कोकेरो में यह प्रतिमा चार्ल्स शोभराज की है। ओ कोकेरो के लिए चार्ल्स गुरमुख शोभराज ही इतिहास पुरुष हैं। क्योंकि इसी जगह पर इंस्पेक्टर झेण्डे ने शोभराज को गिरफ्तार किया था। शोभराज का यह बुत संगमरमर का है। बिल्कुल बेदाग़ सफ़ेद। कलाई में ज़जीर है। वैसे यहां शोभराज को रस्सी से बांधा गया था। और हाथ में होटल का मेन्यु ही होगा क्योंकि शोभराज खाने का बड़ा शौकिन था। हां इस प्रतिमा में आप शोभराज का काला जूता देख सकते हैं। यह संगमरमर का नहीं है बल्कि असली जूता है। शायद होटल वाले को लगा होगा कि शोभराज की तरह उसका बुत भी फ़रार हो सकता है। यहां पर शोभराज के अपराधों का मेन्यु कार्ड भी रखा है। बत्तीस हत्याओं का आरोपी नेपाल की जेल में उम्र क़ैद की सज़ा काट रहा है। और यहां गोवा में खुले आसमान के नीचे बुत बन कर शानदार व्यंजनों का रसास्वादन कर रहा है। इन तीन प्रतिमाओं के ज़रिये गोवा की कथा कुछ रोचक बनने लगी। अलग अलग जगहों पर कायम ये बुत हैं तो एक ही शहर में। एक ही शहर की पहचान बनाते हुए।

36 comments:

azdak said...

बहुत अच्‍छे..

Rajesh Roshan said...

एक फ़िल्म आ रही है किस्मत कनेक्शन.... इन चित्रों में भी क्या कनेक्शन है!! बढ़िया...

अभिनव आदित्य said...

"...कहीं ऐसा तो नहीं कि यह प्रतिमा एक चिंगारी के रूप में यहां रखी गई है जो आने वाले किसी समय में भड़केगी। जब यह मांग होगी कि गोवा के फर्नांडिस, रोड्रिग्स और डिसूजा अपना नाम बदल कर शर्मा, पांडेय और मिश्रा रख लें..."

बढ़िया कटाक्ष है रवीश जी... लग रहा है घूमते हुए भी बहुत मसाला जुगाड़ा है आपने..!

Ashok Pandey said...

मूर्तियां गढ़ना कोई हमसे सीखे। अवसर व लाभ देखकर गढ़ी जाती हैं मूर्तियां। कभी-कभी बुरे लोगों की मूर्तियां भी फायदा दे जाती हैं।

मधुकर राजपूत said...

मूर्तियों का हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन में बहुत महत्व है, सच है, लेकिन ब्लॉग जगत में आपने बहुत अच्छा ग्रयोग किया है।

समरेंद्र said...

बहुत खूब...

अभय तिवारी said...

आप को शायद पता नहीं कि आठ चिरंजीवियों में एक परशुराम भी हैं..अगर आप की बात उन्हे लग गई तो आप कहाँ छिपेंगे ये सोच रखिये.. और अगर आप क्षत्रिय हुए तब तो आप की खैर ही नहीं..
वैसे गोवा पर उनके अधिकार का राज़ यह है कि बढ़ते हुए समुद्र को रोककर कोंकण और मलाबार क्षेत्र को बचाने की भूमिका निभाई थी उन्होने, ऐसी कथा है.. गोवा उनके इस राज्य का एक छोटा अंग है.. और केरल में तो उनका प्रताप और प्रचण्ड है.. सावधान!

कुमार आलोक said...

खोजी पत्रकार है आप ..विश्लेषण भी सटीक है..परशुराम ब्राह्णों के नही भूमीहार भाइयों के कुलगुरु है। अगर भविष्य में भूमीहारलैंड की मांग की गइ तो विशेष जाति के आंदोलनकारियों के लिये यह आलेख टानिक का काम करेगा। रही बात दूसरे चित्र की तो जिस दिन से लोहिया के शिष्य मुलायम ने अमर सिंह का दामन थाम लिया उस दिन से लोहिया मुलायम के लिये सांकेतिक पात्र रह गये. तीसरे चित्र पर कोइ प्रतिक्रिया नही....

Ram N Kumar said...

कहा गया है की परशुराम ने दुनिया से कई बार क्षत्रियो का संहार किया तो फिर आज कैसे है लोग. दूसरी बात यह की परशुराम ने ब्राह्मणों को अत्याचार से लड़ने की ताकत दी. वैसे मैं भी सुनी सुने बात ही बता रहा हूँ.

लोहिया आज भी प्रासंगिक है और गोवा हमें उसकी याद दिलाता है. मुलायम ने अमर सिंघ का दामन थाम लिया तो क्या हुआ, लोहिया था, है, और रहेगा. मुलायम रहे या न रहे. उत्तर प्रदेश में बैकवर्ड रुल गया तो अब दलित शाशन आया है. तो मैदान भी बैकवर्ड से दलित का हो गया. गोवा प्रतीक है धर्मनिरपेक्षता का, गोवा प्रतीक है आधुनिकता का, गोवा प्रतीक है सामाजिक सद्भाव का.. गोवा ने लोहिया के एक उपकार को नही भुला तभी आज गोवा, गोवा है और यूपी, यूपी.......

आलोक जी, मैं तो भगवन परशुराम को विष्णु के अवतार के रूप में पूजता हूँ. और. मैं इसी महीने परशुराम जयंती के दिन लखनऊ में था और वह कान्यकुब्ज ब्राह्मण समाज ने बहुत बड़े पैमाने पर परशुराम जयंती का आयोजन किया था...अतः विशेष रूप से समस्त ब्राह्मण समाज परशुराम जयंती मनाता है, वैसे ही जैसे कायस्थ चित्रगुप्त जयंती.

mamta said...

गोवा मे ही पहली बार हमने परशुराम मन्दिर के बारे मे सुना । और एक पोस्ट भी लिखी थी जिसका लिंक नीचे दे रहे है।और गोवा के मुख्यमंत्री का ये भी कहना है की वो पहले लोहिया जी की मूर्ति पर फूल अर्पित करते है वो चाहे गणतंत्र दिवस हो या गोवा का क्रांति दिवस।
http://mamtatv.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html#comments

Sarvesh said...

रविश जी नमस्कार,
सचमुच आपका पत्रकार मन हर जगह वैसी चिजें ढुंढ लेता है जो कुछ निउज बना सके. आपको पेड पर छुपे परशुराम जी नजर आ गये लेकिन बडा स मन्दिर नजर नहीं आया? इसे कहानी बनाने के लिये किसी ने नहीं रखा है. वहां पर इससे भी बडा भगवान परशूराम का मन्दिर है. निचे के लिन्क पर ममता जी के ब्लोग पर लिखा है.
http://mamtatv.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html

वैसे एक विद्वान का लिखा पढा था कहिं कि भगवान परशुराम जैसा power transfer आज कल देखने को नहीं मिलता. लिजिये उनका कुछ लिने यहां पर चिपका देत हुं. आज के समाज और नेताओं को भगवान परशुराम से सिखना चाहिये.

When Parshuram appears, Janaka tells him about the Siva bow’s story and how he had vowed to marry Sita with one who could break the bow. When Parshurama hears this, he shows his extreme anger for whosoever has done that. Rama keeps his cool. Parshurama comes to know that the next incarnation has happened. It is Rama. However, he wants to double-check it and gives his own bow for pulling the string. Rama does that easily. Parshurama bows and leaves the scene for Rama. How many do that sort of handing over to the right person with no bias today? It is a good example of right management practices where the power gets handed over to the best man rather than one of own clan or caste.

Unknown said...
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कुमार आलोक said...

राम एन भाइ चिंता नही करें भूमिहार ब्राह्ण भाइ भाइ ..अग्रसः सकलम शास्त्रम , पिष्ठतः सशर धनुषः ...यानि हाथ में शास्त्र पीठ पर धनुषवाण और अन्याय के खिलाफ लडने के लिये हाथ में तीर कमान यही तो भूमिहार भाइयों का श्लोगन है जिसमें परशुराम उनके लिये फीट बैठते है । हालांकि ब्राह्ण और भूमिहार में कोइ असामनता नही . स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने ब्रह्षि विस्तार वंश में स्पस्ट लिखा है कि ६ कमोॆ में से सिफॆ एक कमॆ भूमिहारों के ब्राह्णों से नही मिलते और वो है दान लेना और चूंकि भूमिहार संपन्न है इसलिये दान नही लेते तो आपकी भावनाये अगर आहत हुइ है तो इसके लिये माफी...

कुमार आलोक said...

एन्टी भाइ मगध का इतिहास देखेंगे तो पायेंगे कि बडे बडे असुरों की वह जन्म और कमॆ स्थली रही , गयासुर ..महिसासुर ..जरासंघ ..और आप वतॆमान में देखे तो फलां सेना ..फलां संगढन क्रांति के नाम पर क्या कर रहें है ..मुडी काट रहे है इतना विफर क्यूं जाते है ..और हां कोइ अगर प्रसीद्ध है तो उसकी क्या गलती है ...कोइ किसी को प्रसीद्ध नही बनाता ...रही औकात वाली बात तो क्या करेंगे कोइ फतवा जारी करेंगे क्या...कर दिजीये...

Unknown said...
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Unknown said...
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संजय शर्मा said...

कहीं ऐसा तो नहीं कि यह प्रतिमा एक चिंगारी के रूप में यहां रखी गई है जो आने वाले किसी समय में भड़केगी। जब यह मांग होगी कि गोवा के फर्नांडिस, रोड्रिग्स और डिसूजा अपना नाम बदल कर शर्मा, पांडेय और मिश्रा रख लें। ख़ैर आशंका में अभी से क्यों मरें। बात इतनी सी है कि बड़ी हैरानी हुई। "

रविश जी ,
आपके बामपंथी मन में ऐसी आशंका क्यों न छलाँग मारती, कि जिस ट्रेन से आप सफर कर रहें हों उसी का ट्रैक नक्सली ने मुट्ठी भर बारूद से छिन्न -भिन्न कर दिया हो .
आपके धर्मनिरपेक्ष मन के किसी कोने में ये आशंका क्यों न जन्म लेती की अफजल के प्रति नरमी का फायदा दूसरा अफजल उठा सकता है और अगला धमाके का शिकार आश्रम जाम में फंसे लोग भी हो सकतें हैं .

"अभय" भय को स्थापित करते हुए निर्मल आनंद की प्राप्ति कर गए .हैरान तो मैं हूँ लोग नाम के अनुरूप क्यों नही होते !
आशंका मुझे भी है कोई आकर कहेगा कि रविश जी कितना सुंदर मुद्दा उठाया था .क्या चिन्गारी देखी थी गोवा के परशुराम में कुछ लफंगों ने आकर उसे शोला बना दिया . मुझे हैरानी तब भी नही होगी .

जय परशुराम !

Unknown said...

परशुराम की प्रतीक्षा
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गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
===============================

Sarvesh said...

Alok,
Write something sensible man. Your cheap comments make all the discussions very low. Please keep your magadh and caste at your home and discuss it in your drawing room. I have seen many a times u discuss around Bhumihars and Magadh.

Unknown said...

malum nahi tha ki apne parshuram k zad goa tak hai varna hinduvad ka theka(jiske shikar parshuram ji hai) to hamare northindia ne le rakha hai.aise adbhut aur choka dene wali jankariyo k liye shukriya.

कुमार आलोक said...

शायद मेरी समझ ही इतनी छोटी है कि चीप कमेंट करने से बाज नही आता और आप शुद्ध भाषा में गाली देने से ...ना तो मैं मगध से हूं और ना ही ड्रांइंगरुम में बैठकर गाशिप कमेंट लिखता हूं..संजय शमाॆ , सवेॆश भाइ मैनें मुखियाजी के विचारोतेजक आलेख भूमिहार.काम मे पढने को मिला ..साइट पर भगवान परशुराम ..और स्वामी सहजानंद सरस्वती के क्लिप्स व्लिंक कर रहे थे..एन्टी भाइ ने स्वामी जी को भूमिहार मानने से इनकार कर दिया ..स्वामी जी ने जब भूमी आंदोलन का शंखनाद किया था तो सबसे बडा प्रबल विरोध उन्हीं के जाति की ओर से हुआ लेकिन बदली हुइ राजनीतिक परिस्थितियों में इस खास जाति को अहसास हुआ कि आखिर कितना बडी क्रांति की आधारशीला रखी थी उस शक्श ने ...वही बात मंडल आंदोलन के दौरान नजर आइ ..खासकर बिहार में इसी खास जाति के लोगों ने विरोध का मोॆचा खोला ..मंडल कमीशन लागू हुआ ..रोक लिया क्या किसी ने ..और इस खास जाति से जितनी भी दबी कुचली जातियां थी आक्रोशित हो गइ ..खामियाजा भुगतना पडा ...मैनें पहले भी कइ बार देखा है कि आप लोग कूद पडते है ऐसे जैसे किसी खास जाति का भार स्वंय आप लोगों ने ही उठा रखा है ..आजादी के बाद कांग्रेसी राज के बिहार में पतन तक आप की तूती बोलती थी लेकिन इस खास जाति के कुछ खास वगॆ मलाइ खाते रहे ..इस जाति के आम लोग इस मलाइ के बंदरबाट से दूर रहे ..आम लोग प्रेग्रेसिव थे उन्होने हैब्स और हैब्स नाट की लडाइ में शोषितों का साथ दिया। इस समुदाय के हीरो जहां सर गणेश दत्त , रामधारी सिंह दिनकर और बिहार केसरी जैसे महान लोग हुआ करते थे ८० और ९० के दशक में किंग महेंद्र , मुन्ना शुक्ला ..सुनिल पांडे और धूमल सिंह जैसे लोग हो गये ..तो फिर आइये इन्ही शिखर पुरुषों के लिये तालियां बजाये और अपनी पीठ आप थपथपायें...
(please read my article "jatiyata ka mahabharat" at my blog "http;confusionhai.blogspot.com)

anil yadav said...

गरीब की जोरु गाँव भर की भाभी
मुंबई में डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख बाबा राम रहीम के सुरक्षा गार्डों द्वारा चलायी गई गोली से एक सिक्ख के मरने के बाद सिक्खों ने जिस तरह का उत्पात मचाया वो अभूतपूर्व था यहाँ मैं अभूतपूर्व शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मुंबई में उत्पात करने का जन्म सिद्ध अधिकार केवल शिवसेना या राज ठाकरे की पार्टी को है .... छठ पूजा के नाम पर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों पर अत्याचार करने वाला राज ठाकरे अब किस बिल में घुस गया है और वो दगा हुआ कारतूस बाल ठाकरे अब सामना में कुछ क्यों नही लिख रहा है .... भूमि पुत्र राज ठाकरे के कार्यकर्ताओं ने जिस तरह रेहड़ी लगाने वालों हिन्दी भाषियों को चुन चुन कर पीटा उसकी जितनी भी निन्दा की जाए वो कम है ....रावण की औलाद इन दोनों चाचा भतीजों ने हिन्दी भाषियों को इसलिए निशाना बनाया क्योंकि वे जानते थें कि ये मेहनतकश कौम अपने घर से सैकड़ो किलोमीटर दूर रोजी रोटी की तलाश में आयी है इसलिए ये कोई प्रतिकार नही करेंगे ....लेकिन सिक्ख इनकी दादागिरी को खुलेआम चुनौती दे रहें है अब इनकी मराठी अस्मिता कहाँ घुस गयी .....सिक्खों की लहराती तलवारों को देखकर क्या मी मराठी और अमची मुंबई का नारा पैजामा में घुसा गया .....मैं मुंबई के अपने पत्रकार बन्धुओं सें निवेदन करता हूँ कि वे इन दोनों ठुकराये हुए ठाकरे चाचा भतीजों से ये जरूर पूछें कि अब तुम दोनों की हेक़ड़ी कहाँ गयी ....अब तुम दोनों की आवाज क्यों बन्द है क्या सारा ज़ोर हिन्दी भाषियों की लिए ही है ....किसी ने सच ही कहा है कि गरीब की जोरू गाँव भर की भाभी .........

Unknown said...

बहुत बढिया रविश जी. आप ने तीन लोगो का नाम लिया. और ये भी कि तीन लोग कैसे देश के अलग अलग हिस्सो मे याद किये जातें हैं. भगवान परशुराम जो विष्णु के अवतार माने जाते है का अलग अलग हिस्सो मे लोग उनकी अलग अलग कार्यों के लिये याद किया जाता है. गोवा और केरल मे तो कहा जाता है कि उनके उपकार से हि दोनो राज्य बसे और बढे. उत्तर भारत मे उनकी अलग महिमा है. जब राजा अततायी और क्रुर हो गये थे. जनता त्राही त्राही कर रहि थी तब भगवान परशुराम ने उनका संहार कर जनता को मुक्ति दिलायी. राम जैसे कर्मठ राजा के आने के बाद वो प्रश्थान किये. वाह! वाह! धन्यावाद अभय, ममता जी और सर्वेश जी अलग तरह कि जनकारी देने के लिये. सर्वेश जी आपका सत्ता का स्थानान्तरण वाली वर्णन अच्छी लगी.
लोहिया तो उत्तर भारत मे राजनिति के रोटि सेंकने के लिये याद किये जाते हैं. वाह रे गोवा, तु तो उन्हे फ़्रीड्म फ़ाइटर के रुप मे याद करते हो.

रविश जी कभी आपको दुसरे धर्मॊ के बारे मे ऐसा कटाक्ष करते नहीं पढा. खास कर के किसी भगवान के बारे में. ऐसा क्यों? मसलन आप ही नहीं किसी भी क्रिटिक्स जो हिन्दु धर्म के भगवान पर टिक्का टिप्पणी करते हैं वो दुसरे के बारे मे ऐसा क्यों नहीं बोल पाते? गोवा मे चर्च भी बहुत होगा. वहां पर सब समान्य नजर आया या वहां भी कुछ नजर आया? आया भी होगा तो आन्ख मुंद लिये होगें. दोसर के मौगी सबकॊ अच्छी लगती है. ना?

Unknown said...

आलोक जी काहे हंसुआ के बियाह मे खुरपी के गीत गा रहे हैं. बात हो रही है गोवा, भगवान, फ़्रिडम फ़ाइटरस की तो आप हैं कि अपने खन्दान कि कहानी सुनाने कि जिद पर लगे हुए हैं. गोवा को जहानाबाद, मसौढी बनाने पर लगे हुए हैं. लोहिया के जगह अपने सारे रिस्तेदारों फ़लान सिंह फ़लाना पान्डे से बदलना चाह रहें हैं. थॊडा शरम किजिए और चर्चा को अपने खंदान कि लडाइ से मत जोडिये.

Unknown said...

रविश जी मुझे खेद है इस चर्चा को दुसरी तरफ मोडने के लिये लेकिन आलोक जी जो अपने ब्लोग का लिन्क दिये हैं उनका रिविउ डाल देते हैं.
आलोक जी,
मइ २००८ के बस्ता मे आपका जाती का लेख पढा. मुझे लगा आप कुछ विशेश लिखे होन्गे लेकिन आप तो गौशिप लिखे हैं. ऐसा वहां कुछ नही है जिसके चलते आप इतने बडे ब्लोग पर लिन्क देकर जवाब दे रहे हैं. चलिये इससे आपकि जेनरल नौलेज कि जनकारी हो गयी. गावं के चबुतरे पर का उदाहरण गांव के चबुतरे पर हि अच्छी लगती है.

anil yadav said...

शानदार....जबरदस्त

कुमार आलोक said...

रविश जी आपके हर पोस्ट पर है तो बहुतेरे जिन्हें इंतजार रहता है कि अबकी बार क्या लिखा आपने ...लेकिन विरोधियों के दो प्रकार है ठिक उसी तरह जब बाबरी मस्जिद का विध्वंश हुआ तो शिवसेना ने कहा हमने तोडा ..वाजपेयी जी बहुत निराश थे उन्हें इसका बहुत मलाल था ..लिब्राहन आयोग के सामने बडे बडे नेताओं ने यो स्वीकार नही किया कि हमारी प्रेरणा से मस्जिद टूटी..ठिक उसी तरह यहां भी है ..चिरंजीव ..संजय शमाॆ ..एंटी अलग अलग भाषाओं और तेवरों मे अपने कुत्सित विचारों को यहां रखते है ...एंटी ने मेरे व्लाग पर जाकर गाली दी ...इनका कोइ इलाज नही है ...

कुमार शैलेन्द्र said...

रवीश जी, संक्षिप्त चर्चा और संलग्न कुछ प्रतिक्रियाएं 'कस्बा' में दिखीं। आपकी भी नजर वहां पड़ी है जो 'परशुराम' को अपना 'राजनीतिक प्रतीक' दिखाने की कवायदें कर रहे हैं। गोवा से परशुराम को जोड़ना और आपके ही अनुसार श्रुतियों में उनके द्वारा तीर चलाने...और उसके परिणाम से सामयिक संदर्भों में एक वर्ग विशेष के लगाव का औचक उत्पन्न होना आदि कथन...इस चर्चा को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं-यह तो साफ नहीं पता चलता। मगर हां, इस 'चर्चा' का मूड स्वस्थ होना चाहिए वनिस्पत इसके कि मात्र हास-परिहास, मजाक, खिल्ली, आक्षेप, व्यंग्य, तिरस्कार, चुटकियां लेकर इसे अत्यन्त हल्का कर दें।...विचारों की मतभिन्नता नई सोच की सार्थक जमीन तैयार करती है किन्तु मेरा मानना है कि परशुराम को किसी एक कटघरे में खड़ा कर किसी एक वर्ग के खास 'प्रतीक' के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जो लोग उनसे अपने निजी हित साधन में लगे हों। परशुराम का मूल्यांकन उस काल-खण्ड के महापुरुष के रूप में जरूर किया जाना चाहिए जैसे प्रत्येक युग में महापुरुषों द्वारा स्थापित मूल्यों के आधार पर उनका मूल्यांकन किया जाता रहा है, निश्चित तौर पर परशुराम पौरुष और पराक्रम के प्रतीक माने जाएंगे। विडम्बना है कि सिर्फ वही तथाकथित एक वर्ग अपनी आत्ममुग्धता से लबरेज होता है, जो अन्य तमाम वर्गों की आंख की किरकिरी है...अंदेशा है कि इस विषय को गंभीरता दी जाए, अधिकांश पाठकों, टिप्पणीकारों और लेखकों के द्वारा...अन्यथा इस विषय का अध्ययन एक बड़े फलक पर करना न सिर्फ रोचक-रोमांचक होता अपितु ज्ञानवर्द्धक और प्रेरणदायी भी होता। तथापि संक्षेप में मैं अपनी बात कह दूं-भगवान परशुराम से संबंधित प्रचुर जानकारी केएम मुंशी की पुस्तक 'भगवान परशुराम', विश्वम्भर नाथ उपाध्याय की 'विश्वबाहु परशुराम', रामधारी सिंह दिनकर की 'परशुराम प्रतीक्षा', श्यामनारायण पाण्डेय के 'परशुराम' एवं कई पुराणों, रामायण एवं रामचरितमानस से प्राप्त की जा सकती है। क्षत्रिय विनाश के संबंध में प्रचलित वहम भी दूर होना चाहिए कि परशुराम की मां रेणुका क्षत्रिय इक्ष्वाकु वंश से थीं, जमदग्नि की मां क्षत्रिय कुल के भरत वंश से थीं और उन्होंने जिनका संहार किया था वे हैहयवंशी थे, जिन्होंने उनके पिता की जघन्य हत्या कर डाली थी। ऐसे भ्रम राम-रावण और कृष्ण-कंस के संबंधों और कृत्यों अथवा किसी युगपुरुष के मूल्यांकन में अनावश्यक रोड़ा उत्पन्न कर सकते हैं, जिससे स्वस्थ समाज निर्माण की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रतीकों की ओट में खड़ा होने की पात्रता का होना आवश्यक है..धन्यवाद अवसर मिला तो फिर कभी!

सुशील राघव said...

ravish ji namaskar
ndtvkhabar.com par aapka paryatak: season banam off season padha achchha laga. aapne vo purane din yaad dila diye jab hum nani ke yahan jaya karte the. khair ye baat chhaudiye iske piche ki vajah kya hai. shahar ki aapadhapi ya bachchon ko nani ke prati pyar kam hona.
aapka
agra ka ptrkar

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

यूँ तो गोवा के बारे में बहुत कुछ सुन व पढ कर रखा है। शायद इसलिए भी उसके बारे में पढना सुनना अच्छा लगता कि वह मेरी पसंदीदा जगह है। हालाँकि वहाँ गया आज तक नहीं हूँ।
पर गोवा के सम्बंध में आपकी पोस्ट बहुत कुछ नई जानकारी दे गयी। पढकर और आपकी कलम के तेवर देखकर अच्छा लगा।

JC said...

Chahe patrakar ho ya itihaskar, fokatiya ho athva chatukar, dhyan mein rakhna avashyak hai ki ‘Bharat’ prithvi ka ek prachintam rahasyamaya ansha hai jiska shrote Kashi stitha Bhootnath Shiva/ Nirakar Nadbindu Vishnu sanketik bhasha mein anadi kal se darshaya gaya.

Yeh desh hai Yogiraja Krishna se arambha ker ant mein sarvagunasampanna Gangadhar/ Chadrashekhar Yogeshwar Shiva ban-ne ki kahani, kintu kewal Satyuga ke ant mein…

Moti gahrayi mein samudra-tal per hi paya jata hai!
Samudra-manthan ki katha mein chhipa hai Mahabharat ki utpatti ka rahasya, jaise Panchtantra ki katha mein ‘niti-shastra’…

Jaki rahi bhavana jaisi/ Prabhu moorat tin daikhi taisi”…

Vishnu, yani ‘Shunya’ ke tathakathit avataron mein, panchbhooton mein pehle number per jivandayini vayu ke paschat jal ata hai. Aur usmein ‘Matsyavatar’ se arambh ker anya pashu roop grahan ker, prithvi per pehla manav roop, Vamanavatar, ke paschat Parashuram, Ram aur Krishna, kramashaha sashtam, saptam, evam ashtam darshaye gaye…aur unki leela vibhinna vastron ke tane bane jaise kam kerti a rahi hein…”

Arambhik kal mein, Kaliyuga mein, samudra-manthan se kewal vish hi utpanna hua tha!

नीलोत्पल said...

"मेरी आंखे खुली रह गईं। परशुराम ने तीर क्यों चलाई? क्या उनके निशाने पर कोई आदिम अरब था या यवन था? पता नहीं।"

Kya soch hai!! Dhanya hain aaplog.

pankaj prasoon said...

aapne baithe bithaye beshrm netaon ko ek mudda de diya...yaha ki janta ko development nahi entertainment chahiye...aur is waqt goa me isse bada entertainment ki vastu kuchh nahi hai...Par sachchai ye hai ki Goa un logo ka hai jo aaj waha rah rahe hai aur us rajya ko yaha tak pahuchane me madad kar rahe hain...

pankaj prasoon said...

aapne baithe bithaye beshrm netaon ko ek mudda de diya...yaha ki janta ko development nahi entertainment chahiye...aur is waqt goa me isse bada entertainment ki vastu kuchh nahi hai...Par sachchai ye hai ki Goa un logo ka hai jo aaj waha rah rahe hai aur us rajya ko yaha tak pahuchane me madad kar rahe hain...

JC said...

Is desh mein ‘Suryavanshi raja’ hote the jo ashvmedha yagya ker surya ki kiron ki bhanti apne samrajya ka vistar karte the. Varanasi mein ‘dashashwamedha ghat’ darshata hai hamari puratan soch, ki kaise ‘dasavataron’ ke madhyam se shakti ka bhi vistar hua aur Vishnu anant brahmand tak pahunch paye...

Samudra-jal ko surya-kiran ke agni roopi teeron se sukha ker, uska tal neeche ker, aur is prakar dharatal ke kshetraphal ka vistar karne mein Parashuram roopi surya ke teer Ram roopi surya ki tulna mein kam saksham the…

sanjay vyas said...

बहुत बढ़िया हर जाति ने एक एक भगवान पर अपना दावा कर रखा है.