सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान सा क्यों है इस शहर में हर शख़्स विज्ञापन सा क्यों हैं क्या कोई बात नज़र आती है हम सबमें अपनी हर बात पर अपनी ही दाद क्यों हैं?
रवीश जी आपने एक मुहावरे को उल्टा कर दिया है...जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि। वैसे आप भी काफी पहुंचे हुए हैं, लेकिन अपनी पहुंच के पहुंचा से आगे थाह नहीं लगा सके हैं। अब मैं आपकी अधटंगी तुकबंदी को कुछ (?)सही-सलामत यहां परोस रहा हूं (अपनी लूली बर्तनी को जरा ढंग से निहारिएगा)...
विज्ञापन की जलन (अर्थात चापलूसी का चलन)
सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान-सा क्यों है इस शहर में हर शख़्स विज्ञापन सा (सलमान-सा) क्यों हैं कुत्ते उठा के टांग जब निकालते हैं धार तनखैया चोर की तरह हैरान क्यों है? ...समझे रवीश बाबू? कविता-सविता के चक्कर में न ही पड़ें तो आपकी कथित-लेखकीय सेहत के लिए उम्दा होगा।
raveesh bhaiyya, tukbandi sahi se nahi bhida paaye hain lekin...koshish acchi hai...kai baar lambey-lambey lekhon ko padne key baad is tarah key chote chote prayog acche lagtey hain. tab jabki har koi yahan kuch alag paaney ki chah me aata hai...pahla comment bada khatarnaak hai..lekin usey dil par lengey to kavi raveesh kumar ki kavitaai se bahut se pathak vanchit rah jaayengey...ek pathak ki haisiyat se mere is aagrah par dhyaan dengey..aisi ummed hai... hridayendra
दिल है तो धडकने का बहाना कोइ ढूंढे ..आइना हमें देख के हैरान सा क्यूं है ..गमन फिल्म के इस गाने को भूल गया था ..सुरेश वाडेकर का ये पहला हिंदी गाना है ..आप ने फिर इस गाने को याद दिला दिया धन्यवाद
दोस्तों अगर रवीश जी से बोर हो गयें हो तो मेरे नए ब्लॉग foktiya.blogspot.com पर भी कुछ टिप्पणी चिपका दीजीएगा .... अपने फोकट समय निकालकर.... अनिल फोकटिया....
apni har baat par dad dene k dad(jo lagatar phhal raha hai)sabse zyada to patrakar bandhuo ko hi hai.baaki vigyapan banne k bimari jo metros ko thi vo mere vartman shahar patna ko bhi aggosh mai le chuki hai.
विज्ञापन तो हमारी जीवन रेखा है. जो दीखता है वही बिकता है और मैं इन चीजों को खूब मानता हूँ. मुझे विज्ञापन देखकर जितना सकुन मिलता है उतना तो बिजारे के सेक्सी आउटफिट का एड देखकर भी नही मिलता. मेरा काम है एड बनाना और चैनल का कम है उसको दिखाना. एड नही रहेगा तो चैनल कहा से चलेगा. सब दूरदर्शन तो नही है न....
बा मुलाहिज़ा सभी चाटुकारों को सूचित किया जाता है कि वो सभी मिल कर पता करें कि आजकल रवीश जी है कहाँ कोई नया विज्ञापन नही चिपकाया कई दिनों से क्या बात है एनडीटीवी में क्या सही में कुछ काम होने लगा है क्या जो झूठमूठ में बहुत बिजी हो गये है..........
भाइ अनिल सभी को चाटुकार बतानेवाले तुम होते कौन हो ..रविश कुमार से तुम्हारी पसॆनल दुश्मनी है तो मैदान में आकर फरिया लेना ...कौन जानता है तुम्हें ....और खबरदार किसी को चाटुकार मत कहना रविश कुमार बनने की कोशिश करों
Ravishji, ‘Hindu’ shabda ki utpatti shayad ‘Indu’ yani ‘chandrama’ se hui jo ratri kal mein, bina naga din pratidin, upasthit hota hai aur her din ek naya roop dharan karta dikhta hai. Aur mah mein kewal ek din uska poora chehra dikhta hai aur ek din antardhyan bhi hota lagta hai! Aur yeh kal-chakra aise hi chalta rehta hai... Isi prakar manav jivan mein bhi patra badalte dikhte hein. Kintu satya yeh hai ki har bachcha apne jivan kal mein vibhinna roop dharan karta dikhta hai aur Krishna saman apne jivan kal mein kuch leela kar jata hai… Hari/ Prithvi ananta hai is karan apne ati laghu jivan kal mein jo kuchh anubhava hote hain usi se aam aadmi prakriti aur iske rachaita ke vishya mein anuman laga pata hai. Isi liye ‘satsang’ avashyak ho jata hai :-) Sankshepa mein Mamtaji ke blog mein kuch shabda Parashuram aur Ram ke vishaya mein aur Hindu manyata per likhe hain…Sab jante hain ki shabda satya ko prastut karne mein asamarth hain…
20 comments:
रवीश जी
आपने एक मुहावरे को उल्टा कर दिया है...जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि।
वैसे आप भी काफी पहुंचे हुए हैं, लेकिन अपनी पहुंच के पहुंचा से आगे थाह नहीं लगा सके हैं।
अब मैं आपकी अधटंगी तुकबंदी को कुछ (?)सही-सलामत यहां परोस रहा हूं (अपनी लूली बर्तनी को जरा ढंग से निहारिएगा)...
विज्ञापन की जलन (अर्थात चापलूसी का चलन)
सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान-सा क्यों है
इस शहर में हर शख़्स विज्ञापन सा (सलमान-सा) क्यों हैं
कुत्ते उठा के टांग जब निकालते हैं धार
तनखैया चोर की तरह हैरान क्यों है?
...समझे रवीश बाबू? कविता-सविता के चक्कर में न ही पड़ें तो आपकी कथित-लेखकीय सेहत के लिए उम्दा होगा।
nam seeta khan lekin likhte hain
सलामत यहां परोस रहा हूं
आप इन तुकबंदियों के चक्कर में क्यो पढ गये रवीश जी. गद्य खूबसूरत है आपका. आपकी रिपोर्टों का इंतजार रहता है.
ये क्या बात हुई भई;
बंदा कुछ नया आजमाना चाहदा हेगा
और आप किये जा रहे हो मज्जमत
कोई शायरों की दुकान थोड़े ही छीन रहा है.
और एक बात बाबा की खयाल रखना
कवि और शायर हर एक के मन में होन्दा हे
लिखण वाले जो होन्दे हेन्गे वो केसा भी लिखें
सोणा लगदा है...मन को भारी मत कर रवीश
लिख पुत्तर लिख.
pani ke upar koi lekh likhe.
raveesh bhaiyya,
tukbandi sahi se nahi bhida paaye hain lekin...koshish acchi hai...kai baar lambey-lambey lekhon ko padne key baad is tarah key chote chote prayog acche lagtey hain. tab jabki har koi yahan kuch alag paaney ki chah me aata hai...pahla comment bada khatarnaak hai..lekin usey dil par lengey to kavi raveesh kumar ki kavitaai se bahut se pathak vanchit rah jaayengey...ek pathak ki haisiyat se mere is aagrah par dhyaan dengey..aisi ummed hai...
hridayendra
raveesh ji aapne thoda
jaldbaaji kar di
es tukbandi ko aap or bhi behtar kar sakte the..
दिल है तो धडकने का बहाना कोइ ढूंढे ..आइना हमें देख के हैरान सा क्यूं है ..गमन फिल्म के इस गाने को भूल गया था ..सुरेश वाडेकर का ये पहला हिंदी गाना है ..आप ने फिर इस गाने को याद दिला दिया धन्यवाद
दोस्तों अगर रवीश जी से बोर हो गयें हो तो मेरे नए ब्लॉग foktiya.blogspot.com पर भी कुछ टिप्पणी चिपका दीजीएगा .... अपने फोकट समय निकालकर....
अनिल फोकटिया....
apni har baat par dad dene k dad(jo lagatar phhal raha hai)sabse zyada to patrakar bandhuo ko hi hai.baaki vigyapan banne k bimari jo metros ko thi vo mere vartman shahar patna ko bhi aggosh mai le chuki hai.
bahut badhiya...Gajraj.
विज्ञापन तो हमारी जीवन रेखा है. जो दीखता है वही बिकता है और मैं इन चीजों को खूब मानता हूँ. मुझे विज्ञापन देखकर जितना सकुन मिलता है उतना तो बिजारे के सेक्सी आउटफिट का एड देखकर भी नही मिलता.
मेरा काम है एड बनाना और चैनल का कम है उसको दिखाना. एड नही रहेगा तो चैनल कहा से चलेगा. सब दूरदर्शन तो नही है न....
durust farmaya aapne...
विज्ञापन अब हमारी आदत बन गई है . अगर हम अपना विज्ञापन न करें तो हम पिछडे हुए हैं .
ab wakte badal gaya hi apne mhuh miya metu he sab kya kare apna saman jo bechana jo hai .bajar ki yehi mag hai .
बा मुलाहिज़ा सभी चाटुकारों को सूचित किया जाता है कि वो सभी मिल कर पता करें कि आजकल रवीश जी है कहाँ कोई नया विज्ञापन नही चिपकाया कई दिनों से क्या बात है एनडीटीवी में क्या सही में कुछ काम होने लगा है क्या जो झूठमूठ में बहुत बिजी हो गये है..........
भाइ अनिल सभी को चाटुकार बतानेवाले तुम होते कौन हो ..रविश कुमार से तुम्हारी पसॆनल दुश्मनी है तो मैदान में
आकर फरिया लेना ...कौन जानता है तुम्हें ....और खबरदार किसी को चाटुकार मत कहना रविश कुमार बनने की कोशिश करों
Ravishji, ‘Hindu’ shabda ki utpatti shayad ‘Indu’ yani ‘chandrama’ se hui jo ratri kal mein, bina naga din pratidin, upasthit hota hai aur her din ek naya roop dharan karta dikhta hai. Aur mah mein kewal ek din uska poora chehra dikhta hai aur ek din antardhyan bhi hota lagta hai! Aur yeh kal-chakra aise hi chalta rehta hai...
Isi prakar manav jivan mein bhi patra badalte dikhte hein. Kintu satya yeh hai ki har bachcha apne jivan kal mein vibhinna roop dharan karta dikhta hai aur Krishna saman apne jivan kal mein kuch leela kar jata hai…
Hari/ Prithvi ananta hai is karan apne ati laghu jivan kal mein jo kuchh anubhava hote hain usi se aam aadmi prakriti aur iske rachaita ke vishya mein anuman laga pata hai. Isi liye ‘satsang’ avashyak ho jata hai :-)
Sankshepa mein Mamtaji ke blog mein kuch shabda Parashuram aur Ram ke vishaya mein aur Hindu manyata per likhe hain…Sab jante hain ki shabda satya ko prastut karne mein asamarth hain…
"अपनी हर बात पर अपनी ही दाद क्यों हैं?"
आपकी यह पंक्तियाँ बहुत गूढार्थ रखती हैं। इस बात को कहने के लिए भी बहुत गहरी सोच और गहरी समझ की जरूरत होती है।
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