भारत के सभी गांवों पर बुलडोजर चला देना चाहिए।सारे घर और सड़के तोड़ देनी चाहिए। बाभन टोली, कुम्हार टोली, ठाकुर टोली, चमर टोली आदि आदि। ये क्या है। क्या हमने सोचा कि इन नामों की टोलियों में जातिवाद बेशर्मी से मौज कर रहा है।जब तक ये टोलियां है जातिवाद से हमारी लड़ाई फिज़ूल है। लोग खड़े हों और गांवों पर हमला कर दें। एक एक घर को तोड़ दें। ताकि चमर टोली, बाभन टोली और कुम्हार टोली का वजूद हमेशा के लिए खत्म हो जाए।
ऐसे गांवों का अस्तित्व भारत के लिखित और मान्य संविधान की तमाम भावनाओं के खिलाफ है। बराबरी की बात करते हैं। और गैर बराबरी के मोहल्ले बने हुए हैं। जिनका आधार जातिवादी है। ठीक है कि आरक्षण के कारण और शहरों में पलायन के कारण दलित टोली के कुछ मकान पक्के होने लगे हैं। लेकिन क्या इन नए और सवर्णों जैसे मकानों का बाभन टोली के मकानों से कोई नया रिश्ता बन रहा है। क्या भारत की आबादी के इस बड़े हिस्से में आ रहे बदलाव में बभन टोली, ठाकुर टोली के लोग शामिल हैं। करीब से देख पा रहे हैं? आर्थिक प्रगति के बाद भी जातिवादी टोलियां मज़बूत हो रही हैं।
अब इन टोलियों में पलने बढ़ने वाला सवर्ण बच्चा सामान्य व्यावहार में भी दलित बच्चों से फर्क करना सीखता होगा। दलित बच्चे इस अपमान को सहजता से स्वीकार करते हुए बड़े होते होंगे। ठीक है कि कई गांवों में अब दलितों को चप्पल नहीं उतारना होता है मगर पहचान कहां मिट रही है। उसे व्यापक समाजिक प्रक्रिया में साझीदार कहां बनाया जा रहा है।
इसलिए एक नया राजनीतिक आंदोलन खड़ा होना चाहिए। जिसकी शुरूआत गांवों से हो और बाद में शहरों में पहुंचे। दिल्ली जैसे शहर में भी माथुर अपार्टमेंट, गुप्ता हाउसिंग सोसायटी, अहमदाबाद के चांदनगर में दलित डुप्लेक्स बन गए हैं क्योंकि पटेल अपने अपार्टमेंट में रहने नहीं देते। इनका नंबर बाद में आएगा। गांवों से शुरूआत का मतलब यह है कि कुछ चार पांच गांवों को मॉडल के रूप में चुना जाना चाहिए। जहां के तमाम घरों और उनसे जुड़ी स्मृतियों को बुलडोजर से ढहा दिया जाए। नई नगर योजना के तहत सड़के बनें, जिनके आने जाने से जाति का पता न चले। घर बने। एक कतार में सबके घर हों। सब जाति के लोग हों। एक ही मैदान हो ताकि सभी के बच्चे एक ही जगह खेलें।यह नियम बने कि एक कतार में लगातार किसी एक जाति का घर नहीं होगा। यानी ठाकुर टोली और चमर टोली खत्म।
अब आप यह पूछेंगे कि जातिवाद खत्म हो जाएगा? जवाब यह है कि नहीं होगा। लेकिन जातिवाद के नाम पर बने सीमेंट और मिट्टी के कुछ घर मिटा देने से उसका कंक्रीट ढांचा तो खत्म हो जाएगा। जो आपकी मानसिकता को आकार देता है। पहचान देता है। उसमें खांचे बना देता है। जहां आप ऊंच नीच के भाव के साथ रहते हैं।
मैं यह बात गुस्से में नहीं लिख रहा है। स्टालिन के की डाक्यूमेंटरी देखने के बाद जातिवाद पर विचार करते हुए यह रास्ता दिखा है। यह डाक्यूमेंटरी उन तमाम लोगों के मुंह पर तमाचा है जिन्हें लगता है कि हिंदुस्तान बदल गया है। इंडिया अनटच्ड नाम की इस डाक्यूमेंटरी में देश भर में फैले छूआछूत को पर्दे में उतारा गया है। इसे देखिये। आपको शर्म नहीं आएगी क्योंकि आप जानते हैं कि छूआछूत हमारे देश में अब भी है। हम सबने इस शर्म को छुपा कर जीना सीख लिया है। जैसे कोई शातिर अपराधी अपने इरादों को छुपा कर शरीफ दिखने की कोशिश करता है।स्टालिन की डाक्यूमेंटरी हर धर्म
में छूआछूत की कंक्रीट इमारतों को पकड़ती है। स्टालिन गुजरात के एक प्रसंग में कैमरे पर दिखाते हैं कि कैसे पटेल(सवर्ण) की गाय का दूध स्थानीय बाज़ार में बिकता है और दलित की गाय का दूध बाहर के राज्य में भेज दिया जाता है। क्योंकि स्थानीय लोग दलितों की गाय का दूध नहीं पीते। ये गुजरात की कापरेटिव सोसायटी की हकीकत है। जहां दलित दुग्ध उत्पादकों के साथ यह बर्ताव हो रहा है। अब इसमें एक बात हो सकती है कि दूसरे ज़िलों या बाहर के राज्यों में अलग से प्रचारित किया जाए कि आप जो दूध पी रहे हैं वो दलित कोपरेटिव का है। देखते हैं कि कितने पढ़े लिखे और प्रगतिशील भारत के लोग पीना जारी रखते हैं।
इसीलिए आइये मेरे साथ चलिए। गांवों को तोड़ने। इनकी प्रशंसा बंद करने का वक्त आ गया है। हिंदुस्तान में इससे भ्रष्ट और गंध बसावट नहीं है। इसे तोड़ दो। नया गांव बनाओ। गांवों को तोड़ कर नया बसाने के काम से क्रांतिकारी बदलाव आएगा।
12 comments:
अति उत्तम विचार।
kahte huye aap kafi achhe lag rahe hai...logo ko sunne me bhi bahut achha lag raha hoga...Bat haqiqat ki hoti hai to bahut sari batein yad aati hai. Tehelka Aajtak k khulase mein "Maine Garbhwati mahila ka pet chir diya" bahut bade bade akshron mein flash kiya ja raha tha..Ye ek haqiqat hai lekin kya ye dikhana sahi hai???????
Aap bhi ek kadwe haqiqat se samaj ko gujarana chahte hai...bat deewaron ki nahi hai Ravish ji. Bat hai Aapke is soch mein kitne log aapke sath honge....Chamar Toli, Kumhar Toli gir jayenge lekin Ek naya toli aayega Swarn Toli aur Anya toli..
AIIMS mein Jo ho raha hai usse aap aankh kyun band rakhte hai..Gaon ki to bat rahne dijiye...AIIMS jaise institution mein Swarn aur Anya pe mar hota hai...
Dengue k karan Do stundent ki maut ho jati hai...Uski padtal kyon nahi hoti ki kaise mra....Dar se...Us deewar ke tutne ki darr se jahan pe swarn k iinton mein zyada mazbuti hai..
AAPke darsnik wichar bahut achhe hai...itne achhe hai ki kal hoke samaj k swarno ko ek naya soch mil jayega ki ekjut ho jao...deewar todne ki bat kar rahe hai log ab.....
आपका लेख बहुत अच्छा व विचारणीय है । इसपर बहुत सारी बहस व वैचारिक आदान प्रदान की आवश्यकता है ।
घुघूती बासूती
विचारोत्तेजक..
स्टालिन के की डॉक्यूमेन्टरी के बारे में थोड़ा और बतायें..
शहर मे भी तो जात पात है ! ज़ैसे की अब आप बडे पत्रकार हो गये है - !
ज़ात पात तो रहेगा ही - जैसे आप "राजपुत" से "पत्रकार" बन गये है ! अब आपकी नयी जात " बडे पत्रकार" वाली है !
अच्छा लेख है। लेकिन ये बात सिर्फ मुहल्लों पर ही लागू नहीं होती। आपने गांव औऱ शहर की एख बानगी भर दिखाई है। लेकिन शायद आपको याद नहीं रहा होगा कि जहां से बच्चा तहज़ीब का ककहरा सीखता है, वहीं से जाति पाति सिखाई जाती है। मैं जब गदहिया गोल कक्षा में ( इसे शहरों औऱ क़स्बों में नर्सरी कहते हैं ) पढ़ता था तब मुझे बताया गया था कि ये चमरा मास्टर है औऱ ये अहीरा मास्टर है। इसे ख़त्म करने के लिए स्कूल ढहाएंगे या फिर ऐसी मानसिकता तोड़ने के लिए मशाल जलाएंगे ?
चंदन प्रताप सिंह
रवीश जी,
कब जा रहे हैं गाँव की ओर, और किस गाँव के किस घर से शुरुआत कर रहे हैं अपनी ये क्रांति?
क्यों ऐसे solution के बारे में लिखते हैं जो कभी भी follow ही नही किया जा सकता है?
वैसे शायद आपने थोडी देर कर दी, Idea वाले कुछ इसी तरह का solution अपने नए "ad" में दिखा रहें हैं...
मनोज
Ye sab kya hai Ravish ? ek jaane -maane patrakar ka jabbardast Bhatkaav ! Bharat ke mahapurush ko padhane ke baad hi Videshi public
se taalmel rakhen.21 Din yoga kare
tab hi blog par aayen.
Maharshi Arvind, Vivekanand, Aacharya sri Ram Sharma, Aacharya Kishore Kunal ko aatm saat kijiye.
udeshya pura hota dikhega,Gaon shahar sab sudhar rahen hai by dint of good Maansikta.
Waise ekdame zid par hain to aap mere ghar par Buldozer chala do
may aapke ghar par bas 2 toote ghar
hi dikhaane ka dam hai mere pas.
Gaon samaapt hoga to Bharat samapt hoga.aur Bharat ko samapt nahi kiya ja sakta.
Jaatiwad par kabhi furshat me may apane blog par likhoonga.na bhi padhana chahoge tab bhi bina padhaye may kahan maananewala ?
Gaon ko Bull aur dose ki jaroorat hai Bulldozer ki nahi.
आपके विचार काफी उत्तम है. पर भाईसाह्ब इसकेलिए गाँव जाकर बुलडोजर चलाने की कया जरुरत है. कुछ करना ही है तो एक जुट होकर हम पहले अपनी और फिर दुसरो की मानसिकता बद्ले. और बहुत हद तक निजीकरण के इस दौर मे लोगो की मानसिकता बदल चुकी है. एक ब्राहमण भी अब छोटे वर्ण की हुक्कुम आफिस मे सह्ष स्वीकारता है. क्योकि उसे भी अब रोटी चाहिए. पूजा पाठ के दिन लद गए. और ये सच्चाई है जिसका सामना सुवर्ण कर रहे है. अब एक सुवर्ण का बेटा आफिसर बने ना बने पर जागरुकता छोटे वर्ण के बच्चो मे आ चुकी है कि वह भी कुछ बन सकते है.
बुलडोजर चलाना कही से अब जरुरी नही क्योकि फ्लैट सिस्ट्म ने मिश्र से लेकर पोद्दार तक को एक छत के नीचे ला दिया है.
मै जमशेदपुर मे पलीबढी हूँ और मैने अपना बचपन ठीक उसी माहोल मे बिताया है जहाँ की रविश जी कल्पना करते है. मेरे पाँच दोस्त सभी अलग वर्ण. और उसकी खुशबू मेरे मन मे आज तक है. इसलिए हम आप मिलकर आनेवाली नस्ल को जात पात से मुक्त कर दे. और ये तभी सम्भव है जब हम सभी के नामो से उसकी जाती हटा दे या फिर जात बिरादरी की बात करना छोड दे. संकट को सामने देखकर आँख बंद करनेवाली बात नही है पर माचिस का कार्य जानकर ही माचिस जलानी चाहिए.
ऋषिकेश जी
एम्स की कहानी मालूम है। डेंगू की कहानी भी। आप शायद हमारा चैनल नहीं देखते हैं। जिस प्रसंग की बात कर रहे हैं उस पर पूरी पड़ताल के साथ आधे घंटे का प्रोग्राम हमारी एक संवाददाता ने किया था।
मैं कोई आइडिया नहीं दे रहा। उन फिजिकल स्ट्रक्चर की बात कर रहा हूं जिन्हें हटाया जा सकता है। मैंने लिखा है कि इससे मानसिकता नहीं बदलेगी लेकिन पहचान का एक ढांचा खत्म हो जाएगा। ऋषिकेश जी मैंने सवर्णों के मकान तोड़ने की बात नहीं की है। बल्कि सबके घर ढहा देने की बात की है। इसमें दलितों की बस्ती भी शामिल है। इसलिए सवर्णों को घबराने की ज़रूरत नहीं है।
इस लेख कर पढ़ कर वो लोग आहत न हों जिनका जात पात का अनुभव नहीं है। यह बेहद अच्छी बात है। आखिर इसी अनुभव के लिए मैं गांवों को ढहा देने की बात कर रहा हूं ताकि पुनिता की तरह सबको सब जाति के दोस्त मिले। जिनकी मानसिकता वाकई जातिवादी नहीं रही। किसी भी रुप में और किसी भी समय में खरोंचने पर नहीं निकलती है...ऐसे लोगों को और प्रयास करना चाहिए ताकि जात पात मिटे। अगर यह हकीकत है तो क्या यह हकीकत नहीं है कि जात पात है।
उत्तम विचार है रवीश जी, हमेशा की तरह/ इसी जातिवाद की विवेचना रेणू ने मैला आंचल में और श्री लाल शुक्ल ने राग दरबारी में की है/ मगर रवीश जी ये केवल गाँवों में ही महदूद नही है/ मैं करीब २ साल दिल्ली के आश्रम इलाके में रहा हूँ जो की तथाकथित पोश नई दिल्ली लोक सभा का हिस्सा है/ अपने ३ साल के प्रवाष में पाया की मोहल्ला जाती के आधार पे ४ समान इकाई में बँटा हुआ था और हर मकान मालिक दुसरे जाती वाले को गडिआता रहता था. दुःख तो होता ही था और नवनिर्मित भारत का मिथक भी टूट गया
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