रवीश कुमार
कस्बों को देखने समझने की परंपरा साहित्य से ज़्यादा विकसित हुई। हम अक्सर इन जगहों की बातें करते हुए रोमांटिक हो जाते हैं। किसी गली के नुक्कड़ पर पान की दुकान पर जमा होने वाले चार पांच बेकार किस्म के लोगों के साथ हुई चर्चाओं को मौज मस्ती का नाम देने लगते हैं। किसी जीप में लदे पटे लोगों के बीच दबे हुए सफर करने का लुत्फ बयां करने लगते हैं। हर बेकार आदमी किरदार बन जाता है। कस्बों और छोटे शहरों का रोमांस शुरु हो जाता है। मुझे लगता है अब इस नज़रिये पर बहस होनी चाहिए। क्या वाकई छोटे शहरों और कस्बों में सब अच्छा ही होता है। मुगलों ने सराय बनाये, तो अंग्रेज़ो ने ब्लाक या मुफस्सिल टाउन। ये जगह शहरीकरण के परिवार में बड़े शहरों के छोटे भाई की तरह पहचाने जाने लगे। हमने छोटे कस्बों को पुचकारना शुरु कर दिया। सुविधाएं हड़पता रहा बड़ा भाई यानी बड़े शहर और पुचकार मिलती रही छोटे भाई यानी कस्बों को। ये ठगे गये बेवकूफ किस्म की जगह से ज़्यादा नहीं। इसीलिए बड़े शहर के लोग कस्बों के लोगों को बेवकूफ समझते हैं। उन्हें एक तरह से सेकेंड हैंड माल का थर्ड हैंड उपभोक्ता समझते हैं । साहित्य न होता तो कस्बों की बात ही नहीं होती । मगर समस्या वही कि इतना रोमांटिक कर दिया गया कि कस्बे तमाम तरह की बुराइयों से दूर स्वर्ग जाने के रास्ते में हाल्ट की तरह लगते हैं। कस्बों के लोग सच्चे होते हैं। उनमें छल नहीं होता। कस्बे के दोस्तों की क्या बात। दुकानदारों की क्या बात। हर माल उधार देते हैं। रोमांस की भी कोई हद होती है।
मुझे लगता है कस्बे फ्राड किस्म की शहरी अवधारणाओं की देन है, जो कलेक्टर के अपने ज़िला मुख्यालय से किसी गांव में कर वसूली के लिए जाने के रास्ते में पड़ने वाली जगह से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। यहां सुविधा इतनी ही होती है कि गांव के किसी मरीज़ को बैलगाड़ी पर लाद कर यहां आइए तो ज़िले तक जाने की बस मिल जाती है । कस्बों के स्कूलों में पढ़ाने वाले मास्टर थर्ड क्लास के होते हैं। वो सिर्फ इसलिए मशहूर होते हैं कि इन बेवकूफ मास्टरों से पढ़ कर निकली कई पीढ़ियां स्कूल के आस पास या तो बेरोज़गार होकर भटकती रहती है या स्वरोज़गार पाकर मिठाई बेच रही होती है। ज़ाहिर है जब मास्टर और चेले एक ही जगह पर ठहरे पानी की तरह रहेंगे तो लोग याद ही करेंगे। हम इन सब चीज़ों के रोमांस में कभी नहीं देखते कि मास्टर कैसा है। बस उसे एक किरदार बना देते हैं। जिसे खारिज कर दिया जाना चाहिए था वो राग दरबारी में जगह पाकर अमर हो जाता है। तो बात यही है कि दिल्ली से निकली विकास की गाड़ी कई पंचवर्षीय योजनाओं के बीत जाने के बाद भी कस्बों तक नहीं पहुंचती। कस्बे बूथ लुटेरों, घटिया किस्म के नेताओं, चोर ठेकेदारों के सामाजिक अड्डे भर हैं। हमें गर्व नहीं करना चाहिए। बल्कि थूक देना चाहिए। क्या है वहां। ताज़ा हवा और मिट्टी की महक। ये क्या होती है। क्या दिल्ली के लोग मर गये हैं। मिट्टी की महक का क्या करना है। मुझे ये सब बकवास लगता है। सड़कें टूटी हैं। लड़कियों का कोई जीवन नहीं। बच्चों को पता नहीं कि दुनिया कहां जा रही है। और हद तो तब हो जाती है जब आजकल इन गलीज़ जगहों से निकला कोई लड़का इंडियन टीम में पहुंच जाता है । हम गाने लगते हैं छोटे शहर के कैफ, रैना इंडियन टीम में आ गये है। तो क्या कैफ और रैना के पहले छोटे शहर और कस्बे इंडिया में नहीं थे। एक पहचान भी नहीं है इन जगहों के पास। मैं जानता हूं कि मैं कस्बों को गरिया रहा हूं। मुझे लगता है ठीक कर रहा हूं। जहां कुछ नहीं। सामंतवाद पलता है। आज़ादी इतनी कि आप बिना काम के आवारा की तरह घूमते रहे और उसे साहित्य में बताते रहे कि मस्ती के दिन दिल्ली में कहां हैं। कोई बात हुई क्या।
मुझे लगता है कि कस्बों को लेकर रोमांस बंद होना चाहिए। उन्हें हर चीज़ से पीछे छूट गयी बैलगाड़ी की तरह देखा जाना चाहिए। जहां के स्कूलों का न तो कोई स्तर है न डाक्टरों का, न तथाकथित बड़े लोगों का। सारी योजनाओं को खा पीकर छुप जाने की जगह है कस्बा। भ्रष्टाचारी नेताओं की जन्मभूमि है। मैं यह नहीं कह रहा कि महानगरों में ये सब नहीं है। है भई। लेकिन हम गुणगान क्यों करते हैं। और गुणगान का पैमाना क्यों नहीं बनाते। कब तक चलेगा कि मैं छोटे शहर से आया हूं और अब ये करने लगा हूं। दुनिया मेरी उपलब्धि को दस प्वाइंट अलग से दे। क्यों। क्योंकि मैं छोटे शहर से आया हूं। कस्बों को रहने दो। उन्हें पहले लड़कर बड़ा बनने दो। फिर कस्बों को बात करने दो। कस्बों से रोमांस बंद करो।
6 comments:
देर रात की सर्फिंग के बाद आपके कस्बे तक पहुंचा हूं. और पहुंचने पर महसूस हो रहा है जैसे कस्बे की बिजली गई हुई है. ऐसी ख़ामोशी छाई है जैसे मणि कौल और कुमार शाहनी की फिल्मों की स्क्रिनिंग के बाद छोटे शहर के उत्साही फिल्म क्लब के बेचारे दर्शकों के चेहरों पर छा जाया करती थी. एनीवे, मज़ाक से अलग इसका उपचार कुछ तो सोचना होगा. ऐसे तो खंभा, तार, खपरैल सब टांगकर ले जायेंगे भाई लोग. चलिये, यह भी मज़ाक था, अभी आज तो उद्घाटन हुआ है. धीमे-धीमे बंधेगा समां. कस्बा आखिर किसी एक मोहल्ले, किसी एक पगलेट अज़दक की नीयत, किसी एक सलीमा के विस्तार और कुछ पते की बातों से बडी जगह तो है ही... आयोजन में प्लास्टिक वाली कुर्सियां ज्यादा मंगवा ली गई हैं. भरेंगी. धीमे-धीमे भरेंगी. पुरानी सभ्यतायें ऐसे भी फूंक-फूंक कर कदम रखती हैं. आप समझदार हैं, समझेंगे.
रविश जी आपके कस्बे में अविनाश भैया के मोहल्ले होते पहुंचा हूं....हां देर हो गयी..लेकिन यकिन मानिए अब आना-जाना लगा रहेगा.
आपके इस आलेख को मोहल्ले में पढा और वही अपनी प्रतिक्रिया छाप डाली. अब अविनाश भैया पर निर्भर है कि वे कब उसे अपने ब्लाग पर जगह देते हैं.
आपके रिपोर्ट का मुरीद
गिरीन्द्र नाथ झा
9868086126
my blog-www.anubhaw.blogspot.com
रोमांस आदमी की फ़ितरत है..रोमांस से दुनिया इतनी तक्लीफ़ों के बाद भी कुछ खुशनुमा लगती है...बावजूद इसके कि सच पर परदा किये रहती है..झूठ है..पर मीठा झूठ..और फिर किसको किसको रोकेंगे आप..आपकी अखबारी दुनिया बड़ी संगीन है..थोड़ी रूमानियत की रंगीनी बनी रहने दीजिये..
पुनःश्च: आपका सरोकार जायज़ है..आपके अन्य सरोकारों की ही तरह..
achha hai... par special report mein aap apne asal rang mein hote hain.. banaate rahiye.. aur agar award main deta to "taj mahal" ki report ko deta.. shayad mujhe kam samajh hai par jo bhi hai, aap hain kamaal.. aur NDTV par hi kamaal khan bhi hai jo aap ki tarah kavita mein bolte hain.. wo bhi achhe hain.. btayiega, shayad unhe achha lag jaye..
Aana jaanaa lagaaa rahega..
कमाल का लिखा है। कई बार लगा कि यह मेरे दिल की बात है।
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