मेट्रो मैन की लड़कियां
हमारे देश में टी-शर्ट साहित्य पर काम नहीं हुआ है। वक्त आ गया है कि टी-शर्ट पर लिखी सूक्तियों का सामाजिक अध्ययन किया जाए। पता चलेगा कि टी-शर्ट साहित्य भी लड़कियों को शिकार की तरह पेश करता है। मेट्रो में काम करने वाले मज़दूर के टी-शर्ट पर यह लफंगासंदेश छपा है। ज़रूर इन्हें मतलब नहीं मालूम होगा। लेकिन रीप्रिंट होते हुए इनके गले से आ लगा है। सारी लड़कियों को भोग लेने की ख्वाहिश।
एयरटेल का विज्ञापन तो आपने देखा ही होगा। थ्री इडियट के जोशी जी लड़की के भाई को फोन करते हैं। राव की किताब से सवाल आने का झांसा देकर उसकी बहन को फोन देने को कहते हैं। जब लड़कियों का ज़माना ही आ गया है तो कोई लड़की किसी लड़के की बहन को फोन क्यों नहीं करती और कहती कि सुन सुनीता ज़रा पप्पू को फोन देना। लफड़ा हो गया है मेरा उसके साथ। मस्त है तेरा भाई। झक्कास।
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51 comments:
रविश जी,
आपने जो सवाल उठाया है वाकई विचारणीय है। ज्यादा कुछ लिखना नहीं चाहूँगा बस एक ओर टी-शर्ट पर छपी टिप्पणी बताना चाहूँगा, "99% of all girls are beautiful, rest 1% are in my college."
it is problem of mentality, it may not be cured very soon. As I know, girls are no saint, they too keep passing comments on guys....
पहले इस तरह के जुमले ट्रको और टेंपो पर मिलते थे मगर उस मैं बेहतरीन शेर या मज़ेदार बात होती थी,मगर अब ज़माना बदल गया है या यूँ कहिए तहज़ीब का दामन छूट गया है,ज़ाहिर है तरक़्क़ी की कुछ तो क़ीमत चुकानी ही पड़ेगी,
इन वाक्यों और विज्ञापनों के माध्यम से लगातार पुरुष प्रधानता के मूल्य को स्थाई किया जाता है।
रवीश जी,
सवाल यह नहीं कि टी शर्ट पर क्या लिखा होता है, बल्कि सवाल यह है कि इन टी शर्ट पर लिखने वाले कौन होते हैं और वे लोग यह सब लिखकर क्या प्रमाणित करना चाहते हैं? मैं अपने लेखों में इस बात को प्रमुखता से उठाती रही हूं कि सार्वजनिक स्थानों, वस्तुओं आदि पर केवल स्त्रियों पर ही टिप्पणियां क्यों की जाती हैं? क्या आपने कोई ऐसी गाली सुनी है जिसमें हमारी मां या बहन की शोभा न बढ़ाई गई हो? उदाहरण के लिये- तेरी मां की.., तेरी बहन की.., मादर.., बहन .. आदि।
यदि ऐसी गालियों पर रिसर्च की जाए तो बहुत काम की सिद्ध होगी।
इन सब बातों से समाज का नारी के प्रति नज़रिया भी नज़र आता है.
वाकई सोचने वाली बात है.....
लगता है कि अब पहेलियाँ ही छापनी पड़ेगी....
...........
विलुप्त होती... नानी-दादी की बुझौअल, बुझौलिया, पहेलियाँ....बूझो तो जाने....
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http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_23.html
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
रवीश जी , टी शट्र्स पर इससे भी भद्दे स्लोगन लिखे रहते हैं। जिसे लड़के-लड़कियाँ सहज भाव से पहने घूमते हैं। स्त्रियाँ ,उनकी कामुकता के सारे संदर्भ घृणा और आक्रामकता का निशाना होते हैं। पितृसत्ताा स्त्री से जुड़े तमाम घटिया मूल्यों और सोच को बड़ी सहजता से पूँजीवादी आधुनिक सोच और ग्लोबल बाजार का हिस्सा बनाने में सक्षम हो जाती है। गंजियों पर निशान छापने वाले निरक्षर दिहाड़ी मज़दूरों जिनमें स्त्रियाँ भी शामिल हैं को पता नहीं होता कि वे क्या छाप रहे हैं।
sir,
Sahi kahte ho isi baat par mera apne dost se jaghda hua tha.me uski family ke saath picnic gaye the or usne jo t-shirt pahni thi usme likha tha " I M Still Virgin Plz give me one chance" kya khange sir.
मजदूर को तो ये टी शर्ट कहीं से मुफ्त में मिल गयी होगी। लेकिन आजकल लड़के लड़कियां सभी ऐसी शर्ट्स पहनकर घूमते हैं की देखने वालों को शर्म आ जाये । आधुनिकता का एक और खामियाजा।
मैं पहले भी इन मुद्दों पर एक ही बात कहता रहा हूं कि आज देश का , समाज का , जो मानसिक स्तर है वो ऐसा नहीं है कि आप इस तथाकथित आधुनिकता को अपना कर जस्टीफ़ाई कर सकें । और अब समय आ गया है कि समाज को खुद ये तय करना होगा कि ..नंगई चुननी है या कि फ़िर से उन्हीं परंपराओं की ओर लौट चलना है , मगर मुझे लगता है अभी अति होने में थोडी सी कसर है । हां टीशर्ट स्लोगन्स पर अध्य्यन का विचार अच्छा है , मगर ऐसी टीशर्ट ..पहनने वालों में युवतियां भी बेशुमार शामिल हैं आजकल
ಅಜಯ ಕುಮಾರ ಝಾ
कुछ दिनों पहले ही मैंने सरोजिनी नगर मार्केट में एक लड़के को टी शर्ट पहने देखा जिसपर लिखा था "Hey girls! Fuck you all! We're from Texas!"
बहुत पहले भोपाल में एक लडकी की टी शर्ट की छाती पर बड़ा-बड़ा प्रिंटेड देखा "BOOBS".
इनकी भाषा अक्सर ही सभ्यता की हद पार करती दिखती है. सभी में लड़कियों के प्रति कामुक इशारे या सन्देश छपे होते हैं.
ज़रा अपनी वैशाली में ही कृष्णा भवन के पास, जहां मेट्रो का टर्मिनल बन रहा है, वहां जाइयेगा। एक जींस और टी शर्ट वाला बैठता है। टी शर्ट के ब्रांड नेम पढ़ लेंगे तो आपका सिर शर्म से झुक जायेगा। हालांकि उनके मायनों के बारे में ना बेचने वाले को कुछ पता होता है और ना ही खरीदने वाले को।
Ravish ji,
2 din pahle main yaha lucknow ke ek prasid mandir mein gayi thhi..paani ki dukaan mein ek ladka meri bagal mein aa kahda hokar paani ki bottel kharid raha tha....sir per usne ma durga ki chunari baandhi thhi ....meri najar uske t-shirt per likhe slogan per padi.....maine apna sir pakad liya.......usper likha thha....
I DONT DRINK WATER BCOZ FISHES FUCK THERE....
रवीशजी, लिखा तो आपने ठीक ही है पर मैं इस पर टिप्पणी नहीं कर सकता। जिस संस्था के पास मैंने अपना दिमाग़ गिरवी रखा हुआ है वहां से सर्कुलर आया है कि आपको औरतों पर लिखने वाले केवल उन्हीं लेखकों पर टिप्पणी डालनी है जो या तो ख़ुद औरत हों या औरतों द्वारा नियुक्त किए गए हों (हां, हां, धैर्य तो रखिए, ढूंढता हूं, कहीं लिखा है क्या कि औरतें किसके द्वारा नियुक्त की गयी हों)। मैं ऐसे लेखकों की जांच-परख की विधि ढूंढने की कोशिश कर रहा हूं (मिल गयी तो अपने ब्लाग पर डालूंगा, जल्दी ही)। ऐसे लेखकों की एक विशेषता मुझे यह पता लगी है कि ये औरतों को नए रंग-रोगन/पैकेजिंग के साथ देवी बना कर पेश करते हैं। यानि कि उनकी हर बात पर हां-हां करते हैं और कभी किसी लेख में उनकी बुराई नहीं करते। जिससे लगता है कि औरतें चूंकि इंसान ही नहीं होती इसलिए वे ज़िंदगी में कभी कोई ग़लती ही नहीं करतीं। अब कोई इसे त्यागी और मर्यादावान वगैरह कह-कहकर औरतों को चने के झाड़ पर चढ़ाकर ठगने की प्राचीन विधि का नया संस्करण समझता है तो समझता रहे। कुछ बोला या हल्का-सा भी मज़ाक किया तो उसे द्विवेदी जी की तरह सूली पर टांग दिया जाएगा। ऐसे लेखकों की एक योग्यता यह भी सुनने में आयी है कि अगर महीने की पहली तारीख को तसलीमा की तारीफ में ज़मीन-आसमान एक कर देते हैं तो तीसवीं तारीख को तसलीमा पर चल रही हर बहस में से, इंसानों में से मर्द की तरह ग़ायब हो जाते हैं। अब यह फ़लांपंथी फैशन है या पार्टी-प्रदत्त हृदय परिवर्तन, यह पता लगाने के लिए आप ‘सिर में दीवार’ मारते रहिए।
आप ऐसे लेखक हैं ? मैं आप पर (मेरा मतलब है आपके लिखे पर) टिप्पणी क्यों करुं ?
मैं क्यों आपके ब्लाग को प्रसिद्धि दिलाऊं ? मैं तो इस टिप्पणी को लंबा करके, व्यंग्य बताकर अपने ब्लाग पर लगाऊंगा। कल्लो क्या कल्लोगे !? पहले औरतों पर लिखने का सर्टीफिकेट दिखाना पड़ेगा। है आपके पास ?
पर टिप्पणी तो मैंने कर दी !? इसे अन्यमनस्क (एनोनीमस) में डाल दीजिए। क्या कहा, आपके यहां ऐसी व्यवस्था नहीं है !?
बाप रे ! भागो, औरतें और उनके लेखक आ रहे हैं !
प्लैनेट m में की टीशर्ट पर छपी ये लाइन देखकर- thank god made girls..चहकते हुए मेयो के एक मेरे दोस्त ने टीशर्ट खरीदी थी। स्पाइकर,लिवाइस तंत्रा पर टीशर्ट के जो स्लोगन होते हैं उसे आप कभी गंभीरता से देखिए,आपको यूथ कल्चर की सही तस्वीर मिलेगी।.
क्या एसा नहीं हो सकता है की टी-शर्ट पर महापुरुषों की सूक्तिया छापी जाये. या कोई नैतिक बाते.
एक उदाहरण " all men are fools and my husband is king of them."
किसी की शर्ट-पैंट-कार-मकान-दुकान पर कुछ भी लिक्खा हो, क्यों दुबला होने का, पढ़ने का- मुस्कुराने का और आगे चलने का...बस्स्स्स.
Pavitra sujhaav me ek aur aadhyatmik paNkti jodi ja sakti hai.........
"..and my best friend is GURU of my husband."
ये टी-शर्ट कल्चर अमेरिका से आया है.
कामुकता भाड़े विज्ञापन हो या अंट-शंट सीरियल या बिके हुए मीडिया का अनर्गल आलाप. सभी ने भारतीय संस्कृति के पतन की जिम्मेदारी उठायी है.
किसी भी किस्म के दुष्प्रचार और अभद्रता के लिए कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए.
जितना बोल्ड कथन टी-शर्ट पर लिखा होगा
आजकल के लड़के और लड़कियां (भी) खुद को उतना ही आधुनिक और COOL समझते हैं।
cool दिखने की होड़ का ही नतीजा है ये। एक और जानकारी दे दूं, टी-शर्ट पर स्लोगन लिखने वालों के लिए अलग नौकरी है, और विज्ञापन की कॉपी लिखने वालों की तरह की लाखों रुपये कमाते हैं।
agar hm sirf likhe hue pe jayen tab to sahitya mein ya darshan mein bhi zyadatar baatein aurton par likhi gayi hai to kya hm use bhi galat kahenge...han ye sahi hai ki kai baar log mazak ki cheezon ko lekar ladkiyon ko target karte hai....badlav mansikta mein aye to baat bhi banegi...rahi baat behan k bhai ko pappu kehne ki to kai ladkiyan ye karti hi hai isme koi nai baat nahi.... kyunki ab vo vaqt aane vala hai ki ladke chhede jayenge......
रविशजी ~ प्राचीन ज्ञानियों ने एक शब्द, 'काल', बहुत सुन्दर दिया: जो समय और उसके साथ जुड़े प्राकृतिक दृश्य को झलकाता है...उनके अनुसार काल 'घोर कलियुग' की ओर बढ़ रहा है जब 'विष' वातावरण में ही नहीं अपितु मानव मस्तिष्क में भी पाया जाना आश्चर्यजनक नहीं है - यह तो केवल संकेत मात्र हैं,,,
और, 'हिन्दू मान्यता' तो केवल संकेतों पर ही आधारित है,,,उदाहरंताया 'माँ काली' का भयावह रूप भी हमें 'सत्य' का ज्ञान हो तो विचलित नहीं करना चाहिए (बचपन में अज्ञानतावश मैं जरूर डरता था, और मंदिर के बाहर खड़ा रह अपने परिवार के सदस्यों के जूते-चप्पल पर नज़र रखना पसंद करता था :) क्यूंकि यह तो सभी जानते ही होंगे की हर जीव की, प्राण-धारी की, 'मृत्यु' अवश्यम्भावी है, किन्तु आत्मा की नहीं :)
जो सुर्यपुत्र शनि की सांकेतिक लोहे की रेल (जो मानव जीवन के सत्य को प्रतिबिंबित करती है) से मुम्बई से दिल्ली आ रहे होते हैं तो (शीला दीक्षित के) निजामुद्दीन स्टेशन आने पर बिस्तर क्यूँ बाँधने लगते हैं ? (शायद इसका उत्तर 'हिन्दू मान्यता' ही केवल दे पाए: जिसमें 'अमृत' शिव को आरंभ में अर्धनारीश्वर कहा गया,,,और हिन्दुओं ने स्त्री रूप को मायावी कहा)...
ढेरों ऐसी चीज़ें हैं जहां स्त्री खुद विरोध की मुद्रा में खड़ी दिखाई नहीं देती.आपका कहना सही है कि टी-शर्ट साहित्य भी लड़कियों को शिकार की तरह पेश करता है।
टी शर्ट साहित्य को लेकर जो ध्यान आपने आकृष्ट किया है उसके लिए धन्यवाद। सवाल ये है कि ऐसी कौन सी जगह है जहां महिलाओं-लड़कियों को शिकार नहीं बनाया गया है। टी शर्ट बनाने वाली कंपनी को अपना माल पुरुष प्रधान बाजार में बेचना है तो इस प्रकार के प्रयोग हो रहे हैं। यदि हमें आपको इस पर आपत्ति है तो हमें इस पर टिप्पणी करने के साथ-साथ ऐसी चीजों का बहिष्कार भी करना चाहिए।
साथियो!
आप निसंदेह अच्छा लिखते हैं..समय की नब्ज़ पहचानते हैं.आप जैसे लोग यानी ऐसा लेखन ब्लॉग-जगत में दुर्लभ है.यहाँ ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो या तो पूर्णत:दक्षिण पंथी हैं या ऐसे लेखकों को परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन करते हैं.इन दिनों बहार है इनकी!
और दरअसल इनका ब्लॉग हर अग्रीग्रेटर में भी भी सरे-फेहरिस्त रहता है.इसकी वजह है, कमेन्ट की संख्या.
महज़ एक आग्रह है की आप भी समय निकाल कर समानधर्मा ब्लागरों की पोस्ट पर जाएँ, कमेन्ट करें.और कहीं कुछ अनर्गल लगे तो चुस्त-दुरुस्त कमेन्ट भी करें.
आप लिखते इसलिए हैं कि लोग आपकी बात पढ़ें.और भाई सिर्फ उन्हीं को पढ़ाने से क्या फायेदा जो पहले से ही प्रबुद्ध हैं.प्रगतीशील हैं.आपके विचारों से सहमत हैं.
आपकी पोस्ट उन तक तभी पहुँच पाएगी कि आप भी उन तक पहुंचे.
मैं कोशिश कर रहा हूँ कि समानधर्मा रचनाकार साथियों के ब्लॉग का लिंक अपने हमज़बान पर ज़रूर दे सकूं..कोशिश जारी है.
इन्सान के एक गन्दी मानसिकता की देन है ऐसी घटनाएं.समाज में जहाँ एक नैतिक चरित्र के मजबूती की जरुरत है वहीँ ये सब हमारे समाज में हीं बैठे कुछ मानसिक बीमार लोगों की करतूत हमें बार बार शर्मिंदा कर जाती है..बिरोध में इतना ताक़त नहीं होता जिससे हम लोग इस पर अंकुश लगा सकें ..तो मामला सिर्फ गप का रह जाता है..एक गप दुसरे गप को जन्म देते जायेगी और हम इन मानसिक बीमार लोगो की दुनिया में चिंता कर जीने पर मजबूर रह जायेंगे..हमारी संस्कृति दुनिया की सबसे उन्नत संस्किति है इसे पहले हमें समझना होगा और बीमार मानसिकता वाले सभी लोगों संस्थाओं कंपनी को सख्ती से रोकना होगा इस जान से प्यारी संस्कृति को बर्बाद होने से.
इस तरह के मानसिकता को सींचने और तदुपरांत बाजार बना देने की साजिश --
विद्रूप विकृतियो से भरा पड़ा है यह बाज़ार
शहरोज़ जी ने बहुत अच्छे सुझाव दिए हैं। मैं उनकी बात में बस इतना ही जोड़ना चाहूंगा कि कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो न दक्षिणपंथी होते हैं न वामपंथी। जो सभी को समान दृष्टि से देखते हैं। पर कई बार एक ही वैचारिक दायरे में रहते-रहते हम ख़ुद ही इतने पूर्वाग्रही हो जाते हैं कि ‘इस पंथ’ या ‘उस पंथ’ से बाहर निकल कर सोच ही नहीं पाते। आज सबसे ज़्यादा सावधानी बरतने की ज़रुरत यहीं पर है।
रवीश जी कभी आपने लड़कियों के टी-शर्ट पर छपी सूक्तियां और सुभाषित पढ़ने का दुस्साहस किया है? नहीं किया होगा.. पूरा यकीन है मुझे। ऐसा करने वाले लफंगे माने जाते हैं..क्या ऐसा कोई विश्लेषण किया जा सकता है उन सुभाषितों का भी? टी-शर्ट आलेखों के विषय विषयासक्त करने वाले होते हैं और उसमें कोई लिंग भेद नहीं होता। मुझे पता है आप मेरी टिप्पणी पर कोई प्रति-टिप्पणी नहीं करेंगे। सादर
namaskaar!
acchhaa vishaya hai.merii to samajh men hii nahiin aataa hai ki kapaDon par saahitya kyon likhaa jaataa hai.apane ko alag dikhaane ke bahut upaaya ho sakate hain.
kabhii kabhii to bechaara pahanane vaalaa jaanataa hii nahii kyaa likhaa hai.
kapaDon par likhe sahitya par bhii shodh honaa hii chaahiye.
kisee ko bhii manchaahaa pahanane kii aajaadii kaa matalab yah to nahii ki logon ko gaaliyaa padhavaaye aur kahate rahe ki aap ko acchhaa na lage to mat padhiye.
namaskaar.
भाषा और भंगिमा का यह भदेसपन अब कोई नई व आश्चर्यजनक चीज नहीं रह गया है। अच्छा लगा कि हम इसके बारे में बात कर रहे हैं और विचारों को शेयर कर रहे हैं। इस अध्ययन / विमर्श को बढ़ाइए मित्र !
मुद्दा तो मानसिकता का है...पुरुष की मानसिकता का...पर क्या यह मानसिकता बदल सकती है कभी?पुरुष की शरीर रचना उसमे एक तरह की सामजिक गैर जिम्मेदारी उत्पन्न करती है.वह सिर्फ अपनी पशुत्व से भरी मानसिकता का पोषण चाहता है...इसीलिए ऐसी टी शर्ट बनाई जाती है और बिकती है.
It's not just a t-shirt. This is what people (men) have had imprinted on their mind-wall. You can see that from that trainman to mulayam singh yadav everybody is so SEXIST nowadays. The society needs an overhauling asap.
विषय आपने अच्छा लिया है . शहरोज जी के सुझाव पर भी गौर करिये . संजय ग्रोवर ने क्या लिखा है ? समझ से परे लगा.
आपका आईडिया अच्छा है .. "टी शर्ट पर साहित्य "
लेकिन कम्पनी वाले ऐसे भद्दे स्लोगन ही क्यूँ लिखते हैं , अच्छी अच्छी बातें लिखकर जनता और समाज के लिए कुछ अच्छा काम क्यों नहीं करते ....
अब ये मत कहियेगा कि उन्हें खरीदेगा कौन .. पर जनाब याद रहे अभी दुनिया अच्छे लोगों से खाली नहीं हो गयी है ... बस उन तक आईडिया पंहुचा दीजिये फिर देखिये
आप लोगों का कुछ नहीं हो सकता .
लेट नाइट पीवीआर पर बहुत टी टैग देखे हैं। बानगी देखिए। एक लड़की की टी शर्ट पर लिखा है।
These are sour mangos, would you like to savour these? क्या कहिएगा। There is also a beautifull face upon these!
एक लडके की टी शर्ट पर।
The Man (एक तीर चेहरे पर संकेत करते हुए)The Legend (एक तीर नीचे की ओर संकते करते हुए)
और भी कई तरह के टी टैग हैं। जो बाप को एटीएम मशीन कहते हैं। किसी खोए भटके को साथ घर ले जाने की अपील करते हैं। नया काम पकड़ा है, लेकिन ध्यान रहे कि किसी लड़की की फोटो खींचते मत धरे जाना। बेहतर होगा कि टी शर्ट की दुकान पर जाकर फोटो खींच लें।
Ravishji
kya mai aapka email address jaan sakti hoon?
दिलचस्प ! यह बात जो आपने उठाई है यह आपके प्रोफाइल से बिलकुल सटीक मैच करती है. शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर
वाकई अच्छी नज़र और खबर.
agree with you.,
आज कल टी शर्टों पर ऐसे स्लोगन लिखे होते हैं कि मेन्स टॉयलेट के स्लोगन फेल समझिये । शायद आज के समाज मे ज्यादा खुलापन आया है और ये सब अब टॉयलेट से निकल कर खुले मे बाहर फैल रहा है । कुछ लोगों को बदबू आ रही है और कुछ लोग इस खुलेपन पर गर्वान्वित भी हो सकते हैं । आजकल यह सवाल भी पूछा जाता है कि खुलेपन की या किसी भी बात की सीमा कौन तय करेगा ।
आश्चर्य, कुछ लोग वाम पंथ और दक्षिण पंथ से ही हर मर्ज का इलाज करना चाह रहे हैं । शायद आप के इस पोस्ट पर उठाये सवाल का भी । इस बीच धुर समाजवादी और वाम पंथियों के बिछुड़े साथी श्री मुलायम सिंह यादव की एक टिप्पडी भी इस टी शर्ट के स्लोगन से किसी भी तरह से कमतर नहीं है , आप उन्हे भूल ही गये । .
रविशजी, 'आप' और 'हम' (वो शिष्य, यानि 'सिख', के समान जिनके पास 'पंचभूत' समान आरंभ में केवल पांच 'कक्के' थे और आज भी लगभग पांच ही हैं और 'अष्ट चक्र' के बाकी तीन में से कुछ की - या तीनों की - तालाश अभी भी जारी है,,,) कितने भी शब्द प्रयोग में लायें, अंततोगत्वा यही कहेंगे "बहुत खराब समय आ गया है",,,और, शायद, "मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी है" भी जोड़ दें,,,
परीक्षा में प्रश्न-पत्र में दर्शाए 'खाली स्थान' भरने समान, 'खालिस्तान' पाने के ख्वाब देख रहे हैं सब (अपने अपने विभिन्न ब्लॉग पर प्रतिबिंबित जैसे ;) और महान पश्चिमी वैज्ञानिक भी तुक्के लगा रहे हैं कि कैसे आज अनंत ब्रह्माण्ड (और पृथ्वी भी) - एक दम खाली स्थान से आरंभ कर - अपने आप भरता चला गया,,,शायद वैसे ही जैसे आरंभ में सफ़ेद टी शर्ट भरती चली जा रही है, आठ पैरों वाले जीव, मकड़ी, के बुने जाले समान - शब्दजाल से (तिरंगे के मध्य एक तिहाई भाग समान जिसमें 'कालचक्र' का द्योतक 'गरीब' का चर्खा हुआ करता था स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले, और जो कलियुग / कलयुग का द्योतक, ('कल' यानि मशीन का) - किन्तु पश्चिम की नक़ल के कारण ('बिहार-यू पी' की नक़ल का हाल तो आपसे भी छुपा नहीं है), बिना द्वापर वाले कृष्ण रुपी रथ चालक के, अर्जुन के रथ का पहिया जैसा बन गया,,,किन्तु तेज गति के कारण 'आज का अर्जुन' परेशान है, क्यूंकि काल के प्रभाव से उसे पता ही नहीं है कि ब्रेक कहाँ है,,,यद्यपि वो इतना तो जानता है कि मानव मष्तिष्क की बनावट पहले जैसी ही है किन्तु हर व्यक्ति उसका एक छोटा सा भाग ही उपयोग में ला सकता है - मजबूरी है :)...
मेरा पहला कमेंट अगर किसी की समझ में न आया हो तो क्षमा चाहूंगा क्यों कि (पूरी तरह तो नहीं पर) कुछ विषयांतर हो गया है। मगर मुझे नहीं लगता कि दूसरे और तीसरे कमेंट में ऐसी कोई बात है।
कहना मैं यह चाह रहा हूं कि स्त्रियों के मसलों से रुबरु होने के लिए नारीवादी या नारी विरोधी होना ज़रुरी नहीं है। तटस्थ, निष्पक्ष और मानवीय होकर भी इन्हें समझा जा सकता है। इसी तरह ज़रा कोई बात अपने खि़लाफ़ जाते देख दूसरे पर दक्षिणपंथी वगैरह होने के ठप्पे मारना शुरु कर देना कोई बहुत परिपक्व समझ और ईमानदारी का परिचायक नहीं है। आप किसी धारा, वाद, प थ आदि के साथ पले बढ़े हैं तो ज़रुरी नहीं कि बाक़ी सब भी किसी ‘गड्ढई’ और ‘कैदी’ सोच के शिकार हों। क्या माक्र्स ने यह कहा था कि ‘‘धर्म अफीम का नशा है-मगर इस्लाम अपवाद है’’ !? मगर पिछले कुछ महीनों से मैं कुछ ऐसा ही माहौल देख रहा हूं। अभी जब तसलीमा और हुसैन को लेकर बहसें चलीं तो आलम यह था कि हुसैन के हर तरह के विरोध को एक ही तराज़ू पर तौल दिया गया। लेखों को तर्कपूर्ण बनाने से ज़्यादा ज़रुरी शीर्षकों को गालीनुमा बनाना समझा गया। सभी को शिवसेनावादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विरोधी कहकर एक ही लाइन में खड़ा कर दिया गया। ऐसे में तसलीमा के हर विरोधी को स्त्री विरोधी क्यों न माना जाए ? एक के लिए एक तर्क दूसरे के लिए दूसरा !? ये लोग तब कहां थे जब इससे कुछ दिन पहले ब्राहमणवाद के खि़लाफ़ बहस चली थी ? तब ये लोग तो अपरोक्ष रुप से भी बहस में शामिल नहीं हुए। न ही इन्होंने हमसे यह कहा कि आप अपरोक्ष रुप से तालिबान का समर्थन कर रहे हो, क्योंकि हिंदुत्व पर उंगली उठा रहे हो ! भाई साहब, आप अगर जायज़ आपत्ति पर भी दूसरे पर दक्षिणपंथी होने जैसे तमग़े थोपेंगे तो कोई भी इस्लाम का अतार्किक प्रचार करनेवालों को आतंकवादी, पाकिस्तानी या तालिबानी कहने वालों को किस तर्क से रोकेगा ?
चश्मा उतारो, फिर देखो यारो.......
(यह भी विषयांतर था तगर ज़रुरी था।)
लिंग लंगोट से बाहर निकल रहा है। लक्ष्मी नंगी गणेश के माथे प बैठी है। दुर्गा पशु के साथ संभोगरत है। सरस्वती हाथ में किताब और वीणा लेकर बैठी है लेकिन गुप्तांग को नहीं ढकती है।
वाह क्या अद्भूत कला है ! देखने वालों की आँख में अश्लीलता है, अभद्रता है, वरना कला तो भई कला है !!
फिर मैट्रो मैन की लड़कियों की टी शर्ट पर ऐसा क्या लिखा है ? ये पढ़ने वाले की मानसिकता में अश्लीलता क्यूँ नहीं है ? क्या स्लोगन कला नहीं है ?
पार्कों में सरे आम संभोग करना, जान जोखिम में डालकर बाईक्स पर दौडते हुए लिपलॉक किस करना तो प्रेम है। फिर टी शर्ट पर बूबस लिखना आपत्तिजनक है !!
जो करता है स्त्री का ही उपभोग करता है स्त्री तो किसी का उपभोग कर ही नहीं सकती !!!
आदरणीय मुलायम सिंह जी ने कम से कम यह काम तो अच्छा कर दिया कि यह बता दिया कि संसद भवन में आने वाली स्त्रियों के विषय में उनके विचार क्या हैं। उन्होंने कहा कि जब अमीर स्त्रियां संसद में आएंगी तो उन्हें देखकर लोग सीटी बजाएंगे। वैसे उनका अपने घर के बारे में क्या विचार है? क्या वे अपने को गरीब समझने की गलती तो नहीं कर रहे? जब आज एक पार्षद का चुनाव लड़ने के लिए लाखों रुपए की आवश्यकता होती है तो संसदीय चुनाव लड़ने के लिए कितने धन की आवश्यकता होगी? मुझ जैसे कम जानकारी वाले व्यक्ति को भी यह पता है कि लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिये करोड़ों रुपए की आवश्यकता होती है। चलो यह मान लेते हैं कि करोड़ों रुपए की आवश्यकता नही पड़ती, बल्कि पचास-साठ लाख रुपए की आवश्यकता होती है (अब इससे कम नहीं करने वाली)। यदि आपकी बात मानकर महिला रिजर्वेशन के भीतर जाति़गत रिजर्वेशन कर दिया जाए तो वह महिला तो फिर भी लोकसभा या राज्यसभा तक नहीं पहुंच पाएगी, जिसकी बात आप कर रहे हैं। इसका सीधा-सा कारण यह है कि वह इतना सारा पैसा कहां से लाएगी?
लब्बोलुबाव यह हुआ कि असली समस्या जातिगत रिजर्वेशन की न होकर आर्थिक है। चाहे कुछ भी कर दिया जाए, असली महिला तो फिर भी संसद तक नहीं पहुंचने वाली, जिसके लिए यह सब किया जा रहा है। लेकिन इसके बाद भी यह कहना पूरी नारी जाति का अपमान है कि जब अमीर स्त्रियां संसद में आएंगी तो उन्हें देखकर लोग सीटी बजाएंगे। स्त्री तो स्त्री है, चाहे वह अमीर हो या गरीब। मेरा माननीय नेता लोगों से यह आग्रह है कि कुछ भी कहने से पहले अपने पीछे ज़रूर देख लिया करें, क्योंकि उनके घर में भी स्त्रियां होती हैं।
रविशजी, आपने टी शर्ट के माध्यम से, और मंजू-विनोद जी ने मुलायम जी के माध्यम से 'शक्ति के रूप' कहे जाने वाली स्त्री जाति की लाचारी, और हमारे देश में, इस कारण गणतंत्र में भी, आम तौर पर स्वार्थी पुरुष जाति का उनके 'नेता' द्वारा प्रतिबिंबित असली रूप दिखाया तो है,,,किन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि वास्तव में उसी कोटा से कीचड समान प्रणाली में आ स्त्रियाँ किस प्रकार 'जन साधारण' का भला कर पाएंगी???
('हिंदू मान्यतानुसार', छोटे छोटे बदलाव केवल 'काल' - जिसका नियंत्रण 'कृष्ण-अर्जुन'/ 'भरत-राम' के हाथ में है - वोही लाने में सक्षम हैं,,,और बड़े बदलाव महाकाल शिव :)...
इस तरह की टी-शर्ट पर न केवल काम होना चाहिए। बल्कि इस तरह की संस्कृति पर रोक भी लगना चाहिए। लड़के ही क्या लड़कियां भी इस तरह की टी-शर्ट पहनने से परहेज नहीं करती है। लड़कियों की टी-शर्ट पर तो यह संवाद विशेष तौर पर इस तरह लिखा जाता है कि नजर गंदी न होते हुए भी गंदी हो जाए। हमारी पीढ़ी में सिर्फ और सिर्फ इस बात का ध्यान रखा जा रहा है कि कैसे भी अधिकाधिक लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा जाए। कहीं पढ़ा था उसको अभिव्यक्ति करने के लिए यह जगह सही लग रही है। वह quote था-
आपके हरकतों में जितनी ज्यादा बेवकूफी होगी, उतने ही ज्यादा लोग आपको देखगें!!
परेशान होने की कोई बात नहीं है....ये पाश्चात्य संस्कृति के कारण हुआ है,पर हमारी संस्कृति सबसे प्राचीन है l बहुत से आये आये कुछ रुके कुछ गए हमको कुछ नहीं हुआ l
Really sensitive thing.
This shows how western culture is damaging our brain n men dominated Society is overlapping all thing ...
Thanks Ravish Jee.
Jotare Dhaiba
http://clickdhaiba.blogspot.com/
Ravish sir, Javed Akhtar sahab ki ek pankti yaad aati hai....MAI APNI DEEVARO KO KYA DOSH DUN.. MERI TO BUNIYAAD ME HI KHOT THI... kya kar sakte hai.hamari manskita ko kyon dosh denge yaha to sabkuch globalisation ke leye hota hai...varna India ke chote chote shahro me Newyork aur London ka cap aur T-shirt pahanne walo ko kya kahenge...Here all is well
aaj ki youngistan ki woh staple attire ho gayi hai.........
aur phir jo dikhta hai woh bikta hai ka principle bhi to hai........
par jo main sochkar uncomfortable ho raha hoon woh yeh hai ki unke ghar ke hanger mein yeh kapde kaise latak rahe hain....
is angle par bhi dhyan diya jaana chaiye sir.....
@ last ravish sir ko mera saalam
hey this is 100 percent true
i also want to add a writting on a t- shirt
"I'VE PENDRIVE M IN NEED OF A USB PORT"
i saw it in a tv show
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