गुटका है बदन...जलता है बदन
पटना की यात्रा बिहार के आर के लक्ष्मण कार्टूनिस्ट पवन से हुई मुलाकात के कारण यादगार हो गई। पवन से बसंत बिहार में खूब बातें हुईँ। कॉफी विद पवन टाइप की। उनकी भाषा और स्टाइल को समझने का मौका मिला। पवन के हवाले से मुझे ये तस्वीर मिली जो आपके सामने है। उसी बातचीत में पवन ने कहा कि पटना आर्ट कॉलेज के अंतिम वर्ष के छात्र अमृत ने गुटका की खोलियों के साथ नया प्रयोग किया है। कैंसर से पीड़ित आदमी को गुटके की खोली(रैपर) ने जकड़ लिया है। मैं इस तस्वीर के लिए उतावला हो गया। शाम की ट्रेन पकड़ने से पहले ही पवन ने ईमेल से अमृत की बनाई इस बेजोड़ कलाकृति की तस्वीर भेज दी। कला का पारखी नहीं हुई लेकिन कला हर बार परखने के लिए नहीं होती। पहले देखने के लिए होती है। देख कर अच्छा लगा।
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10 comments:
Hi Ravish jee,
Junun basta hai meri aankhon mein, sukoon kahin aur hai, kya karun dekhte rahne ki behaini ne meri neende uda di hain.
Aapki is bechaini se mohabbat si ho gayi hai, baar baar aapke blog pe aata hun, aur hamesha kuchh naya pata hun, Pakka bengali sindur.pasine mein na bahne wala, London ki padhai aara mein, kidhar ja rahe ho bhai, ye sab lagta hai nazar ke saamne naachte rahte hain, jee karta hai main bhi kuchh aisa karun.aap journalist se jyada photografer hain. kahin pesha badalne ki to nahi soch rahe. Agar han, to kuchh bura bhi nahi. Aapke aankhon jaisi bechaini kahin aur nahi dekhi. Carry on....(dhote rahiye ya lage rahiye)
सबसे ज्यादा शिखर गुटखा का पैकट दिखायी दे रहा है। बिहार में खा ल तिरंगा जैसे गाने की प्रासंगिकता लगता है कम हुई है।..बिहार को ले जाईं शिखर पे,गरव करा इ शिखर पे लगता है ज्यादा जोर मार रहा है।..
very intresting... :)
very intresting... :)
सचमुच संदेश को समेटे हुए एक जीवंत चित्र...
रवीश जी ~ ऐसी तस्वीर केवल 'अमृत' नामक विद्यार्थी के मस्तिष्क में आ सकती है (?)...किन्तु अनुसन्धान का विषय होना चाहिए कि आदमी जानते हुए भी विषपान विभिन्न रूप में क्यूँ करता है - भले ही वो दवाई कहकर ही कोई डॉक्टर खिलाता हो? या आदमी इतिहास से क्यूँ नहीं सीखता? यू एन ओ बनालो, चाहे हिरोशिमा / नागासाकी कि तसवीरें दिखालो, युद्ध क्यूँ निरंतर चलता रहता है जबकि उसकी विभीषिका की तसवीरें आप लोग टीवी पर बार-बार दिखाते रहे?
[मेरे ७५-७६ वर्षीय नॉएडा निवासी चचेरे भाई को शिव की काशी यानी वाराणसी से तम्बाखू वाले पान की '५० के दशक से आदत पड़ गयी थी,,,जो 'पान पराग' के रूप में आज भी चालू है, यद्यपि बीच में कुछेक बार गले में रूकावट हटाने के लिए ऑपरेशन भी हो चुके हैं, और वो 'सौभाग्यवश' शिव की कृपा से, या 'संयोगवश', कैंसर नहीं निकला! ऐसी ही कहानी एक 'थोरसिक सर्जन' की भी पढ़ी थी जिसने कई सौ गले में कैंसर के ऑपरेशन किये थे - मगर उसका भी अंत गले के कैंसर के कारण ही हुआ,,,और मालूम होते हुए भी कि सिगरेट, धूम्र पान, उसके लिए हानिकारक है, वो उसे छोड़ नहीं पाया :(]
वाकई में शानदार है।
सर आप बडे अच्छे मन को हर्षित या छू लेने वाले शीर्षक देते हैं। आपकी भाषा का तो मैं प्रशंसक हूं। इसको कैसे विकसित किया जा सकता ? कृपया उत्तर जरुर दें।
बिलकुल अलग अनोखी सुंदर शानदार है.
लोगो में जागरूकता की ज़रूरत है,निसंदेह अच्छा प्रयास.
विकास पाण्डेय
www.विचारो का दर्पण.blogspot.com
छोटी से छोटी चीज़ आप शेयर करते हैं...अच्छा लगता है...
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