बिहार के आर्थिक सर्वेक्षण की समीक्षा
बिहार सरकार पिछले चार साल से आर्थिक सर्वेक्षण पेश कर रही है। इससे पहले कभी राज्य का आर्थिक सर्वेक्षण नहीं होता था। खूब सारे आंकड़े हैं। इन्हें पढ़कर बिहार के बारे में एक अंदाज़ा लगता है कि राज्य किस दिशा में जा रहा है। नीतीश सरकार की अर्थव्यवस्था 2004 से लेकर 2009 के बीच 11.35 फीसदी की दर से बढ़ी है। सरकार अपनी रिपोर्ट में कहती है इसमें तीन प्रमुख क्षेत्रों का काफी योगदान रहा है। निर्माण(35.80%),संचार(17.68%) तथा व्यापार,होटल एवं रेस्टोरेंट(17.71&)
मुझे नहीं मालूम की इनमें से संचार और व्यापार होटल और रेस्टोरेंट का प्रतिशत निकाल दें तो बिहार की आर्थिक प्रगति की असल तस्वीर कैसे नज़र आएगी। लगभग सत्तर फीसदी हिस्सा तो इन्हीं तीन क्षेत्रों से आ रहा है तो इसका मतलब है कि सड़कें और पुलों के बनने का हिस्सा ज़्यादा है। यह भी कोई मामूली बात नहीं है। लेकिन सवाल उठ रहा है कि खेती, उससे जुड़े उद्योगों का खास विकास नहीं हुआ है।
इसीलिए आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों को गौर से पढ़ा जाना चाहिए। राज्य सरकार बता रही है कि 1996 से लेकर 2005 तक(लालू राज) हर साल भ्रष्टाचार विरोधी औसतन 28.5 फीसदी मामले दर्ज होते थे, जबकि 2006 में 66 मामले,2007 में 108मामले,2008 में 110 मामले दर्ज हुए और 2009 में 62 मामले। इस मामले में मुझे कोई बड़ी उपलब्धि नज़र नहीं आती है। आम लोग भी कहते हैं कि खूब काम हो रहा है लेकिन कमाई भी चल रही है। ये लोगों की नकारात्मक सोच भी हो सकती है। लेकिन अगर आर्थिक सर्वेक्षण में विभागवार सूची होती तो पता चलता कि निर्माण क्षेत्र से जुड़े विभागों, ठेकेदारों के खिलाफ कितनी कार्रवाई हुई है। नीतीश सरकार के दौरान बिहार में तीन हज़ार किमी से भी ज़्यादा सड़कें बनी हैं। ज़्यादातर सड़कें मुख्यमंत्री ग्रामीण योजना के तहत ग्रामीण इलाकों में बनीं हैं। 2006 से 2010 के बीच मुख्यमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत 1913 किमी सड़कें बनीं हैं जबकि प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत इसी दौरान 223 किमी बनी हैं। अब यहां यह नहीं बताया गया है कि प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना में कितना पैसा आया था और उसका कितना प्रतिशत सफलतापूर्वक इस्तमाल हुआ है। चार साल में 1460 दिन होते हैं और इस दौरान गांवों में सिर्फ 2136 किमी सड़कें ही बनीं। यानी हर दिन एक किमी से कुछ ज़्यादा। नीतीश के अफसर आर के सिंह की कड़ाई और सीएम की सख्ती से इतना ही संभव हो सका। आर के सिंह ने पहली बार बड़े पैमाने पर ठेकेदारों को समय पर काम न करने की सज़ा दी।
आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि सरकार 520 बड़े पुल बनवा रही है। लगभग बारह करोड़ की लागत से 375 बड़े पुल बन चुके हैं और 1104 लघु पुलों का निर्माण हो चुका है। ज़ाहिर है सबसे अधिक प्रगति निर्माण के क्षेत्र में हुई है इसलिए यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि इस क्षेत्र से जुड़े लोगों के ख़िलाफ भ्रष्टाचार मामले में कितनी कार्रवाई हुई है। वैसे लोगों ने जो अपने पैसे से चचरी पुल बनवायें हैं,उसका खर्चा भी शामिल होना चाहिए। मज़ाक कर रहा हूं।
इतना ज़रूर है कि सड़कों के बनने से राज्य की रफ्तार बढ़ी है। अच्छी सड़क और कानून व्यवस्था का फायदा उठाकर लोग अपना रोज़गार करने लगे हैं। इसीलिए होटल और रेस्टोरेंट का योगदान बिहार के सकल घरेलु उत्पाद में 17 फीसदी है और संचार का भी इतना ही। सर्वेक्षण बताता है कि बिहार में 2008-09 में 220.4 हज़ार नई गाड़ियों का पंजीकरण हुआ है। साल 05-06 में 80 हज़ार गाड़ियों का पंजीकरण हुआ था। इससे राजस्व संग्रह बढ़ गया है। साल 01-02 में 130.10करोड़ था जो 08-09 में 303.58 करोड़ रुपये हो गया। लोग गाड़ियां क्यों ख़रीद रहे हैं? अच्छी सड़कें बनी हैं और कानून व्यवस्था बेहतर हुआ है इसलिए। लूटमार और छीन लिये जाने का डर कम हुआ है। पहले लोग इस डर से कार नहीं खरीद रहे थे कि कहीं अपहरण गिरोह की नज़र न पड़ जाए। यह प्रगति भी नीतिश के एक ही काम के नाम जाती है। कानून व्यवस्था। नीतीश ने कानून राज के मनोवैज्ञानिक वातावरण को कभी नहीं टूटने दिया। इसका श्रेय तो मिलेगा ही। वे पिछले पचीस सालों में सबसे बेहतर मुख्यमंत्री हैं।
सबसे बेहतर प्रगति शिक्षा के क्षेत्र में नज़र आती है। 2002 से 2008 के बीच समग्र नामांकन प्राथमिक स्तर पर जहां 58.5 फीसदी बढ़ा है,वहीं उच्च प्राथमिक स्तर पर 159.4 फीसदी। अनुसूचित जातियों के मामले में उच्च प्राथमिक स्तर पर नामांकन 187.4 फीसदी बढ़ा है। सर्वेक्षण लिखता है कि फलत इनके लिए(अजा,अजजा)प्राथमिक स्तर पर नामांकन के आंकड़े क्रमश 66.3 और 76.3 फीसदी है। लेकिन सबसे अधिक लड़कियों की संख्या में वृद्धि हुई है। इंजीनियरिंग में पुरुष अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों का नामांकन 5.5 फीसदी बढ़ा है वहीं महिला अजा विद्यार्थियों का 59 प्रतिशत। लड़कियों का सबसे अधिक नामांकन प्रतिशत मेडिकल में है 21 फीसदी, इंजीनियरिंग में 12 प्रतिशत और पोलिटेकनीक में 13 प्रतिशत। साक्षरता दर में भी तेजी से वृद्धि दर्ज की गई है।
बिहार एक ग्रामीण राज्य है। 38 में से 25 ज़िलों की 90 फीसदी से अधिक आबादी गांवों में रहती है। पटना और मुंगेर को छोड़ शेष सभी ज़िलों की 80 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। राज्य की आबादी लगभग दस करोड़ है। इसमें से अस्सी लाख की आबादी ही शहरी है। सर्वेक्षण कहता है कि भारत का यह दूसरा सबसे कम शहरीकृत राज्य है। यहां शहरीकरण सिर्फ 10.74 फीसदी है। सबसे नीचले पायदान पर हिमाचल प्रदेश है।
बिहारमें लिंग अनुपात सर्वाधिक सीवान में है(1,031),8 ज़िलों में 900 हैं लेकिन सर्वेक्षण में बाकी के 28 ज़िलों के लिंग अनुपात का कोई ज़िक्र नहीं है। शिशु मृत्यु दर 2005 के 61 से कम होकर 2009 में 56 हो गई जो बहुत बड़ी कामयाबी की तस्वीर नहीं लगती। मातृ मृत्यु दर 2001-03 के 317 से गिर कर 2004-05 में 312 रह गई। संदर्भ साल को लेकर गड़बड़ी नज़र आती है। कहीं 2004 को आधार वर्ष माना गया है तो कभी 2000 को आधार वर्ष मान लिया गया है। सर्वेक्षण को बताना चाहिए कि आधार वर्षों का चुनाव किस मापदंड से होता है। कहीं सुविधा के हिसाब से बढ़ोतरी दिखाने के लिए तो संदर्भ साल नहीं चुना जा रहा है।
बिहार की पूरी जनसंख्या के लिहाज़ से ग़रीबी का अनुपात 54.4 फीसदी है जबकि राष्ट्रीय औसत 37.2 फीसदी है। गत वर्षों में गरीबी दूर करने के लिए अनेक योजनाएं बनाई और क्रियान्वित की गईं हैं।(पेजxxxii) लेकिन सरकार यह नहीं बताती कि पिछले पांच साल में ग़रीबी की संख्या में कितनी कमी आई है। पांच साल के पहले ग़रीबी का अनुपात क्या था। जिन योजनायों के क्रियान्वयन की बात हो रही है उसका असर क्या रहा। सर्वेक्षण लिखता है कि अक्तूबर 2009 तक स्वर्णजयंती ग्रामीण स्वरोज़गार योजना के लिए उपलब्ध राशि का राज्य स्तर पर 26.6 फीसदी ही उपयोग हो पाया था। ऐसा क्यों? अगर प्रशासन इतना चुस्त है तो बाकी का 74 फीसदी इस्तमाल क्यों नहीं हुआ। सर्वेक्षण नहीं बताता है।
बिहार में उद्यमिता का विकास अभी भी नहीं हो रहा है। सर्वेक्षण बताता है कि बिहार में 2008-09 में कुल जमा राशि में गत वर्ष की तुलना में 18,000 करोड़ रुपये से अधिक की महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। वहीं ऋण राशि पिछले वर्ष की ऋण राशि 3712 करोड़ रुपये की तुलना में मात्र 3251 करोड़ रुपये बढ़ी है। इस प्रकार मार्च 2009 में देश के अनुसूचित बैंकों के कुल जमा में बिहार के कुल जमा का हिस्सा पिछले वर्ष के 2.1 फीसदी से बढ़कर 2.2 प्रतिशत हो गया लेकिन इस दौरान ऋण में कुल हिस्सा 0.9 फीसदी से घटकर 0.8 फीसदी हो गया।( पेज-xxxiii) यहां भी प्रगति का कोई बड़ा सूचकांक नज़र नहीं आता। बिहार में देश की कुल कंपनियों का एक प्रतिशत ही है। सरकार बताती है कि 2006-07 के दौरान राज्य में 566 नई कंपनियों का निबंधन हुआ जिनकी कुल पूंजी 398 करोड़ रुपये थी। मार्च 2007 तक, बिहार में कुल 3,110 लिमिटेड कंपनियां थीं जिनकी कुल चुकता पूंजी 1,061 करोड़ रुपये थी( देश की कुल चुकता पूंजी का 0.16 प्रतिशत)
राजस्व अधिशेष में काफी प्रगति हई है। चार गुना। 4,469४ करोड़। ऋण प्रबंधन बेहतर होने का दावा किया गया है। प्रभावी ऋण प्रबंधन और 48,864 करो़ड़ रुपये से भी अधिक बकाया ऋण पर वार्षिक ब्याज भुगतानों को गत वर्ष तक 4,000 करोड़ रुपये से काफी नीचे रोके रखने से काफी राजस्व अधिशेष सृजित कर पाने में मदद मिली है। बिहार के कुल व्यय का हिस्सा 67 प्रतिशत हो गया है। गैर विकास व्यय में बहुत मामूली वृद्धि हुई है। राज्य सरकार का अपना कर राजस्व 2004-05 के 3,342 करोड़ रुपये से बढ़कर 2009-10 में 8,139 करोड़ रुपये हो गया है। इससे पहले आपको इसमें विकास दिखे, सर्वेक्षण बताता है कि करों के मुख्य स्त्रोत बिक्री कर, स्टांप एवं निबंधन शुल्क,उत्पाद शुल्क,माल एवं यात्री कर तथा वाहन कर हैं।
खेती के बारे में सर्वेक्षण कहता है कि बिहार में फसल पैटर्न की बात करें तो दिखता है कि बिहार की कृषिगत अर्थव्यवस्था का रुझान अभी भी जीवन-निर्वाह कृषि की ही ओर है। यह एक बड़ी नाकामी है जिसे नीतीश सरकार को आने वाले समय में बदलना होगा। वर्ना अच्छी सड़क का लाभ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सिर्फ टैम्पो टैक्सी चलाने में ही मिलेगा। लोगों को स्टेशन पहुंचाने के लिए ताकि वे दूसरे राज्यों में मज़दूर बन कर जा सकें। फसलों के उत्पादन पैटर्न से कोई शुभ संकेत नज़र नहीं आता है। (पेज-३९)। अभी भी राज्य के सकल कृष्य क्षेत्रफल का दस प्रतिशत ही सब्जी उत्पादन के काम आ रहा है। यानी बिहार की जो सबसे बड़ी संभावना है, खेती, उसके लिए कम काम हुआ है। हो सकता है कि सिंचाई, सड़क और अन्य बुनियादी ढांचों के विकास के बाद सरकार का ध्यान इस तरफ भी जाए। बिहार को विकसित होना है तो खेती से ही होना होगा। पांच साल में कोई उद्योग नहीं आया। कोई का मतलब कोई बड़ा उद्योग। बिहार को उद्योग का इंतज़ार छोड़ देना चाहिए। बिहार को पूरे देश का खाद्य आपूर्ति राज्य बन जाना चाहिए और यह काम बिना किसी टाटा बिड़ला से एमओयू साइन किये आज से ही शुरू हो सकता है।
एस टेल के इस पोस्टर को प्रतीक के रूप में लगाया है। कंपनियां भी बिहार की असली आर्थिक ताकत को पहचानती हैं। (इस कंपनी पर हाल ही में सरकार ने रोक भी लगाई है।)आर्थिक सर्वेक्षण को पढ़ा जाना चाहिए। कम से कम बिहार के बारे में एक तस्वीर तो मिल ही रही है। पटना में मकानों के दाम आसमान छू रहे हैं। स्विमिंग पूल का सपना वहां भी बेचा जा रहा है। दो रूप का फ्लैट चालीस लाख रुपये में मिल रहा है। एक दोस्त ने बताया कि पूरे बिहार में यही एक शहर है। सब यहीं मकान बनाना चाहते हैं। ज़मीन कम है। जो बिहार से बाहर है वो भी अब मकान खरीदना चाहता है इसलिए मकान निर्माण तेजी से फल फूल रहा है और फ्लैटों के दाम बढ़ रहे हैं। बिहार में स्थानिय लोगों को निवेश बढ़ रहा है। नीतीश जब दुबारा आयेंगे( आयेंगे ही) तो उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार गुणवत्ता के मामले में भी प्रगति करे। जिसका अहसास उन्हें है। वर्ना उनकी कोशिशों का लाभ बिल्डरों को ही मिलेगा,आम जनता को नहीं।
नोट- पटना में जिस भी पत्रकार से मिला,सबने यही कहा कि ख़िलाफ़ ख़बर लिखियेगा तो नीतीश जी विज्ञापन रोक देते हैं। अगर उनके साथ रहिये तो सरकारी विज्ञापनों का पेमेंट जल्दी मिल जाता है। सरकार विरोधी मामूली ख़बरों पर भी दिल्ली से अख़बारों के बड़े संपादकों और प्रबंधकों को सीएम के सामने पेश होना पड़ा है। पंद्रह साल के जंगल राज को खतम करने में पत्रकारों की संघर्षपूर्ण भूमिका रही थी। नीतीश को नहीं भूलना चाहिए। अभिव्यक्ति की आज़ादी का ही लाभ था कि उनकी सरकार बन पाई। समझना मुश्किल है कि जिस सीएम को जनता सम्मान करती है,लोग उसके काम की सराहना करते हैं, मीडिया भी गुणगान करती है, उसे एकाध खिलाफ सी लगने वाली खबरों से घबराहट कैसी? कोई अच्छा काम करे तो जयजयकार होनी भी चाहिए लेकिन आलोचना की जगह तब भी बनती है जब बिहार में कोई स्वर्णयुग आ जाएगा। पटना के पत्रकार कभी इतने कमज़ोर नहीं लगे।
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12 comments:
की गई मेहनत झलक रही है। साधुवाद।
शिमला में मुझे मिले थे प्रमोद रंजन। मेरे साथ वो भी मीडिया में हिस्सेदारी विषय पर अपना पर्चा पढ़ने आए थे। उसी दौरान उऩ्होंने विस्तार से चर्चा की थी कि कैसे नीतिश के राज में अखबारों के बारे-न्यारे हो रहे हैं जबकि अखबारी विज्ञापन से इतर का सच कुछ और ही है।
अरे विकास हो रहा है तो जनता अंधी तो है नहीं. एक तो इसके लिए लाखों रुपये विज्ञापन में झोंकने की जरुरत क्या है और दूसरा कि पत्रकारों का मुंह बंद कराकर नीतिश बाबू विकास की कौन सी परिभाषा गढ़ना चाह रहे हैं,इस पर बात होनी चाहिए।
पिछली पोस्ट में आपने जो सवला उठाया था जवाब उसी से शुरू करता हूं। सिंपल सा लाजिक है। जहां लाखों लोग भूखे हों वहां सबसे पहले सबको आवश्यक भोजन देना प्राथमिकता होगी। उसके बाद बेहतरीन भोजन देने की बात हो सकेगी। ये जरूर है कि जो अंध-आलोचक होगे वो यही कहेंगे कि,अरे इतने बड़े दरियादिल थे तो पहलिए बार पूआ काहे न खिलाए ??
अब ये अलग बात है कि उन अंध-आलोचकों में से यह कोई नहीं बताएगा कि पूआ आएगा कहां से ? क्या कोई ऐसी जादू की छड़ी है ? ध्यान देने की बात है कि जिन जो लोग टांग खींचते रहे हैं उन्होंने अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार बिहार के विकास के लिए क्या किया है ?
पूरी हिन्दी पट्टी में एक मात्र समाजवादी सरकार नीतीश की है। केन्द्र में विरोधी दल की कारपोरेट सरकार रही है। ऐसे हालात में बीस-तीस साल से जड़ जमा चुकी बिमारी से लड़ाई इतनी भी आसान नहीं। फिर भी नीतीश सकारात्मक दिशा में जा रहे हैं इसमें हमें कोई शक नहीं है।
नीतीश किस-किस जाति का विकास कर रहे हैं इसका आंकड़ा देने वाले अपनी जाति नहीं बताते ? नितिश ने यदि कहा कि सेलेक्शन लीड्स टु करप्शन तो इसको समझने की जहमत वो लोग नहीं उठाते !
नितिश ने जो छवि सुधार किया है क्या वो हवा-हवाई है ? क्या-क्या नहीं हो सका है ? इस लाइन आफ आर्ग्युमेंट से दुनिया की हर सरकार को नाकारा और निकम्मा साबित किया जा सकता है ? अभी हाल ही में चोखेरबाली पर एक पोस्ट आई जिसमें बताया गया है कि अमरीकी महिला सैनिक अपने साथी पुरुष सैनिकों की मोस्ट वल्नरेबल रेप टारगेट हैं।
नीतीश के अंध-आलोचकों ने कभी भी यह बताया कि उन्होंने कोई अच्छा काम भी किया है ? नीतीश के आलोचक अक्सर उसे इनसाइडर व्यु से देखने की बात करते हैं !! लेकिन बिहार को कभी-कभी आउटसाइडर व्यु से भी देखना चाहिए या नहीं ?
बिहार के इनसाइडर क्रिटिक से पूछना है कि वो चुनाव के लिए लाबिंग करने से पहले यह भी स्पष्ट कर दें कि बिहार के पिछले तीन मुख्यमंत्रियों से नीतीश बेहतर हैं कि नहीं ? बिहार में इस वक्त जिन तीन लोगों के मुख्यमंत्रि बनने की संभावना हो सकता है उनमें से नीतीश से बेहतर कौन सा विकल्प है ?
स्वस्थ मानसिकता वाले पत्रकार विकासवादी नेता की टांग पकड़ कर झूल नहीं जाते ! क्या-क्या किया जाना शेष है इसको उजागर करना ही पत्रकारों का दायित्व है। लेकिन मीडिया का एक वर्ग तो इसी मुहीम में लगा है कि नीतिश बुरे क्यों हैं ? कितने बुरे हैं इसका प्रोपगैण्डा किया जाय।
बिहार के बारे में एक सवाल भी है। उम्मीद है यहां उसका जवाब मिलेगा। जब हम छोटे थे तो सम्पन्न ठाकुर घरों में एक आमधारणा थी कि अपने घर के जवान या किशोर बच्चों को किसी भी कारण से बिहार न जाने दें। क्योंकि बिहार में उन्हें अगवा कर जबरी उनकी शादी कर दी जाती है। हिन्दुओं में शादी हो गयी तो हो गयी। निभाना ही होगा। हालांकि हमारे तरफ अब ऐसी सोच खत्म हो रही है। लेकिन पता नहीं यह बात कहां तक सच थी ?
मेरे कमेंट को सिर्फ अपने इन दो पोस्टों पर कमेंट न समझें। आपने नीतीश के दोनों पक्षों को रखने का प्रयास किया है। लेकिन मैंने नीतीश के खिलाफ काफी कुछ पढ़ा है। सबसे खतरनाक बात तो मीडिया को दबाव में ले लेने वाली है। हालांकि इसमें नीतीश का दोष है तो कुछ दोष पत्रकारों का भी है।
नीतीश की आलोचना के साथ ही हमें विकल्प की बात करनी ही होगी। जो ऐसा नहीं करते उनका ध्यान आ गया। अतः मैं अग्रिम भुगतान कर दिया है।
रंगनाथ
आपकी बात से सही है। नीतीश कुमार पिछले पचीस सालों में बिहार के लिए सबसे बेहतर मुख्यमंत्री साबित हुए हैं। उन्होंने कानून राज के मनोवैज्ञानिक दबाव को कभी टूटने ही नहीं दिया।
रही बात आलोचना के नियंत्रण की तो इसका लॉजिक समझ नहीं आ रहा। जिस मुख्यमंत्री को जनता सर पर बिठा कर घूम रही है वो आलोचना से क्यों डरे। बल्कि इससे तो मौका मिलता है समस्या दूर कर और नाम कमाने का।
यह भी ठीक है कि पत्रकारों को झुकने में अब मज़ा आता है। लेकिन मालिक झुकने लगे तो बोझ और बढ़ जाता है।
Bihar main vikas to ho raha hai isme koi do rai nahi hai. Bijli ka haal bahut bura hai. Service ke silsile main mohania aur sasaram jana hua. Mohania bijle ke mamle main sasaram se behtar laga.Main UP ke pratapgarh ka rahne wala hoon. Agar tulna karoon to Sasaram hamare sahar se 10 saal peeche hai. Pratapgarh main bijli 10 ghante jatee hee hai uska kuch samai to fix hai. Sasaram main bijli jaane ka koi samay nahi hai. Ek maheene main hee man bhar ghar gaya. Main ab service ke khatir Tamilnadu ke Salem sahar main hoon.Es sahar ki bihar aur up ke saharon se koi tulna hee nahi hai.Phir bhi bihar main kuch to badal raha. Netish ji ko iske badhai to milnee hee chahiye.
One Sr Journalist from Times of India writes on my FaceBook :-
right now he is on cloud nine..he has stopped accepting any constructive critical analysis...no civil society or social scientists and intellectuals (so called), media has no guts to make any critical assessment of the present regime..no matters except for him..either bureaicrats or ministers..very bad for any civilised democratic society..in my opinion critiical assessment is also considered as a positive one....
the present regime is reminded me of old lalu days of 90s. the entire media was gaga over his subaltern approach..top media bosses (those who now started criticising him) praised lalu for his concern for underpriviliged section of the society..Agencies like Planning Commission had praised his much publicised novel concept of starting Charwaha ... See MoreVidyalaya.Echoes of Charwaha Vidyalaya were also heard in abroad. now what happened to charwaha vidyalaya..no existence of such vidyalayas...top academic institutes media houses visited rural areas to see the functioning of this school for drop outs...the same so called intelligentia of patna and delhi had written same rhetoric about lalu comparing him with Nehru etc.. Now the same lot is praising Nitish in a more agggressive manner bcoz nitish speaks gentlemens language not as lalu. he is sophisticated and gel with metro crowd in their drawing rooms..he always talks sense.. means business..english speaking people liked him for his simplicity without any family baggage.
there is a strong reason for it....the same intellectuals want to get some cake from him either some constitutional posts, ministerial berths or seat in state legislative council or in upper house..why shud i take a fight with him..who is interested in development..then likes of chandra Babu Naidu S M Krishna wud remaind CM for eternity...strangely... See More all the journals, newspapers and research articles are flooded with Bihar...stories..success stories.. Those who are able to write story have stopped writing and discussing....very dangerous trend...
so debate must go on..whether it is absurd or meaningful..hardly matters..if u stop discussing it it would be disastrous for any civilised society....keep on debating....
यह शायद 'संयोग' न हो कि जो विष (slow poison) 'नीतिशास्त्र' में महारत प्राप्त (यानि 'नीतिश' :) चाणक्य ने अपने प्रतिद्वंदियों को मारने के लिए विष-कन्या बनाने के काम में, और उनको विष के प्रभाव से बचाने में भी, थोड़ी-थोड़ी मात्र में उपयोग किया उसका नाम 'प्राचीन ज्ञानियों' ने 'संखिया' रखा, जबकि नंबर, ० से ९, को 'संख्या' कहा और अक्षरों को वर्णमाला, जबकि ब्रह्मा को चतुर्मुखी वृद्ध मानव रूप में दर्शाया :) और सब जानते हैं कि कैसे कम्प्यूटर 'अल्फानुमेरिक' और 'ग्राफिक' चित्र आदि को केवल ० और १ संख्या से बनाये गए सांकेतिक भाषा द्वारा हम और आप तक पहुंचाने में सक्षम हैं...किन्तु इस कारण 'डिजीटल कंप्यूटर' की, मानव मस्तिष्क रुपी प्राकृतिक कंप्यूटर की तुलना में, गति बहुत कम यानि सुस्त हो जाती है,,,यद्यपि, विष यानि प्रदूषण के प्रभाव से, कलियुगी मानव मशीन को कलयुग में अपनी एक बड़ी उपलब्धि मान धोखे में आ प्रसन्न होता है, और 'तोप से छर्रे दाग कर' धोखे में रहता है :)
Mr. Ranjan please copy&paste this comment on your face book wall.
If anybody don’t see any difference between concept of Charwaha Vidyalay and Concept of reinventing Nalanda Vishawavidyalay then nobody can make him seen this difference. If anybody don’t want to see the difference between the casteist tokenism of Lalu yadav and progressive agenda of Nitish Kr then let him see whatever he wish to see. Does this journalist say anything about Nitish’s new slogan “Selection leads to corruption?” just to keep the record straight I would like to mention that initially Lalu yadav really did the good job upto some extent. He made oppressed class enough self-confidence to face the upper caste chauvinism.
Unfortunately He became worst and worst after every regime. But if Lalu got spoilt after his first regime then it is not necessary by any mean that Nitish will also go on the same old path of Lalu.
I am also concerned with you about iron hold of Nitish over Media. It may be his insecurity complex or fear of losing state power which is being manifested in this type of control.
I think, here media should be bold enough to tell him the bitter fact once or twice that your media regulation is doing harm to your image. But I would not be surprised if he might ask you in return that if media management is not harming to Mr. Rahul Gandhi and his whole family then how is it going to harm me ?
रविश जी
नीतीश असुरक्षा की भावना के तहत मीडिया को जकड़ रहे हैं या सांमती परंपरा के तहत यह तो समय ही बता सकेगा। भारतीय राजनीति में नेताओं के आभामण्डल के आगे मोहासक्त हो जाने की भी लम्बी परंपरा रही है। नेहरू जी,जेपी,लोहिया जी इत्यादि के पक्ष में पत्रकारांे ने पहले भी यह सब किया है। कुछ लोग अच्छे पक्ष पर जोर देने में यकीन रखते होंगे इसलिए नीतीश को थोड़ी ढील देते होंगे। कुछ लोग बिके भी होंगे। अलग अलग कारणों से नीतीश के पक्ष में पत्रकार खड़े होंगे। ठीक यही बातें उनके विरोधियों के लिए भी सही है। कौन किस लिए विरोध कर रहा है इसे तत्काल जानना मुश्किल है।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है की नीतीश को मीडिया मैनेजमंेट को छूट दे दी जाए। राजसत्ता सदैव पत्रकारिता को चेरी बनाना चाहती है। यह तो पत्रकारिता है जो हर बार दामन झटक देती है। किसी भी राजसत्ता के खिलाफ सभी पेशवरों से पहले लेखक/पत्रकार आगे आएं हैं। अभी भी आ रहे हैं। विनीत ने प्रमोद रंजन का उदाहरण दिया है। आपने अपने ब्लाग पर संभवतः दीपेन्द्र (नाम ठीक से याद नहीं आ रहा) का लेख लगाया था। जनसत्ता में अरविंद शेष ने लिखा था। कुछ अन्य लोग भी लिख ही रहे हैं कि नीतीश का खौफ बढ़ रहा है पत्रकारों में।
इंटरनेट के युग में नीतीश के लिए सच को दबाना नामुमकीन है। जब अमरीका इराक और अफगानिस्तान का सच नहीं दबा पाया। चाइना को अमरीका से ज्यादा गूगल चुनौती दे रहा है। ऐसे में अब मीडिया मैनेजमेंट हर किसी के लिए टेढ़ी खीर बन गया है।
आपने आखिर में जिस तरफ इशारा किया है वही सबसे बड़ा खतरा है। मेरी समझ से इसकी एक ही दवाई है कि जनपक्षधर पत्रकारों को समानांतर पत्रकारिता या लघु पत्रकारिता का हाथ मजबूत रखना होगा। यदि हमें समाज की चिंता है तो मुख्यधारा में रहते हुए भी छोटी पत्रिकाओं को यथासंभव सहयोग देना होगा। इतिहास में जब मुख्यधारा की पत्रकारिता गूंगी हुई या कर दी गई तब-तब छोटी सी चिंगारी ने काम किया है।
एक अतिवरिष्ठ एवं अतिसम्मानीय पत्रकार रहे थे कि कैसे एक बार उनका एक लेख कई अखबारों से वापस आ गया तो एक प्रमुख साहित्यिक पत्रिकार में छपा।
रंगनाथ सिंह
इसीलिए ब्लॉग में मेरी आस्था किसी टीवी और अखबार से ज़्यादा है। आपका रास्ता ही शायद काम आ सके।
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