अमर उजाला ने क्यों लिखा कि किसानों ने झुका दी सरकार और हिंदुस्तान टाइम्स का हेडर क्यों ऐसा था- BITTER HARVEST,THEY PROTESTED,DRANK,VANDALISED AND PEED.हिंदुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया ने किसानों के आंदोलन को ऐसे देखा और लिखा जैसे हुणों का हमला हो गया हो। दिल्ली लुट गई है। चार तस्वीरें निकाल कर लगा दी गईं। शराब पीते हुए। सरिया निकालते हुए और पथ-निर्देशिका गिराते हुए।
हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों ने किसानों के आंदोलन को अलग अलग चश्में से देखा। क्या अमर उजाला लिख सकता था कि किसानों ने दिल्ली बर्बाद कर दी। ट्रैफिक जाम लगा दिया। क्यों इस अखबार ने लघु-हेडर लगाए कि गन्ना मूल्य नीति के विरोध में किसानों का ज़ोरदार प्रदर्शन। क्या अगर अमर उजाला हिंदुस्तान टाइम्स की तरह लिखता तो उसके पाठक स्वीकार करते। भले ही पश्चिम उत्तर प्रदेश के शहरों से निकलता हो लेकिन आज भी इन शहरों के लोग गांवों से जुड़े हैं। थोड़े किसान हैं या किसी किसान को जानते होंगे। हिंदुस्तान टाइम्स का पाठक बिल्कुल अलग। तो क्या पाठकों की संवेदनशीलता और वर्ग चरित्र के अनुसार एक ही घटना को दो चश्मे से देखेंगे। वैसे मैं हैरान क्यों हूं?
नहीं मैं हैरान नहीं हूं। डरा हुआ है। शुक्रवार की सुबह जब अंग्रेजी अखबार देखा तो लगा कि दिल्ली में इतना बड़ा हमला हुआ और पता ही नहीं चला। सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस ने किसानों के आंदोलन को विकृति नहीं बताया। दिल्ली में आए दिन टायर पंचर होने से जाम लगते रहते हैं। यह भी सही है कि जाम के कारण कई लोगों को भयानक परेशानी होती है। तो बहस यही कर लेते कि आंदोलन होने चाहिए या नहीं। इस पर भी कर लेते कि अगर सरकार पहले ही सुन लेती तो दिल्ली एक दिन के लिए परेशान न होती। महीनों से पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों के आंदोलन चल रहे हैं। अजीब बात ये है कि इसी हिंदुस्तान टाइम्स में गन्ना किसानों की लागत और समस्या पर काफी विस्तार से एक अच्छी रिपोर्ट छपी थी। काफी मेहनत से लिखी गई थी वो रिपोर्ट। लेकिन जब किसान दिल्ली आए तो ट्रैफिक और सिविक सेंस इतना हावी हो गया कि वो हमारे लिए किसी और ग्रह से आए एलियन बन गए।
जिस शहर के बारे में चिदंबरम तक कह चुके हैं कि गाड़ी चलाने की तमीज़ नहीं। सड़क पर पिशाब करते चलते हैं। जगह जगह गदहा से लेकर कुत्ते का बाप मूत रहा है टाइप के बोर्ड लगें हों उस शहर को अपनी सफाई पर इतना नाज़। वाह। ठीक किया कि किसान गन्ना भी साथ ले आए। वर्ना किसी को पता ही नहीं चलता कि सुगरकेन होना क्या है।
इसमें कोई शक नहीं कि महानगरों का अब गांव-कस्बों से रिश्ता टूट गया है। गांव से जो आ रहे हैं वो अब खांटी ग्रामीण नहीं है। एक साल में पांच शहर जाते हैं मज़दूरी करने। दो महीने गांव रहते हैं और दस महीने भटकते रहते हैं। उनके ग्रामीण संस्कार खतम हो चुके हैं। गांवों में भी पारंपरिक ज्ञान भंडार खतम होने का एक कारण यह भी है। लेकिन शहर यह भी भूल गया कि इनकी कुछ समस्या होगी। फेसबुक पर कम्युनिटी बनाकर आंदोलन का शौक पाल रही दिल्ली को अब जंतर मंतर पर किसी और का जाना भी गवारा नहीं हो रहा है।
ये रिश्ता किसानों की तरफ से भी टूटा है। उनके लिए दिल्ली अब एलियन हो गई है। इसीलिए कुछ किसानों ने तोड़फोड़ की। जंतर मंतर में पिशाब किया। जो नहीं करना चाहिए था। लेकिन वो दिल्ली पर उससे अनजानेपन की खीझ निकाल रहे थे। एक तरह का गुस्सा कि उनके सस्ते माल की कमाई पर शहर का ये नखरा। अंग्रेजी के अखबारों के लिए किसान अब किरदार नहीं रहे। वो खलनायक हैं जो बात बात में मांग कर शहर के लोगों को महंगाई के मुंह में झोंक देते हैं। फिर अमर उजाला ने ऐसा क्यों नहीं लिखा।
२० नवंबर के दिन दिल्ली में आए किसानों और प्रेस में हुई रिपोर्टिंग को लेकर अध्ययन होना चाहिए। न्यूज चैनलों की बात नहीं कर रहा हूं। उनकी बात करना बेकार है। मीडिया की वफादारी मुद्दे को लेकर नहीं है, अपने पाठक के वर्ग चरित्र को लेकर है। इसीलिए अमर उजाला लिखता है कि किसानों ने झुका दी सरकार। अंग्रेजी के अखबार लिखते हैं कि वे आए, हमला किया और मूत कर चले गए। न्यूज़ रूम का वर्ग चरित्र भी तो बदला है। जिस वर्ग के प्रति निष्ठा पत्रकारों को दिखानी पड़ रही है(मजबूरी में)उसी वर्ग के वे शिकार भी हो रहे हैं। आम आदमी की रिपोर्टिंग पर चार पांच बड़े अवार्ड बंद कर दिये जाएं तो सिंगल खबर न छपेगी न कोई टीवी का रिपोर्टर एक बाइट भी लेने जाएगा।
46 comments:
अच्छा लेख... बेबाक... जंतर-मंतर की ऐसी तैसी तो होती है रहती है... अबकी कुछ ज्यादा हो गया... दोनों की गलती है... सरकार भी सिस्टम जाम होने तक कुछ नहीं करती... ऐसे में बहरों को सुनाने के लिए यह कदम उठाये गए यह उनका तर्क हो सकता है... लेकिन पब्लिक ने क्या बिगाड़ा था... आदमी यहाँ वैसे भी परेशां है... ना जाने कितनो की हाफ डे लगी होगी और क्या-क्या समस्यायों का सामना किया होगा... पर भुगतेंगे हमीं ये पक्का है...
मैंने शीर्षक से अलग कमेन्ट की है... गहरायी की बात तो नहीं जानता... बस इतना सोचता हूँ की अंग्रेजी अखबार सिर्फ शहरों को सेंटर में रखकर काम करते हैं.. वो अब भी कस्बों-गाँव से जुड़ नहीं सके हैं... यहाँ उनकी विफलता है... शायद यह भी एक वजेह हो सकती है... जो उनका नजरिया अलग है...
दोनों ही एक दूसरे के लिए एलियन हो चुके हैं -आगे देखना है की कौन एलियन भरी पड़ता है -मत भूलियेगा की उन्ही के कुछ नुमायिंदे वेश बदल आपके साथ भी हैं ,देश की सर्वोच्च सम्मानित इमारत में भी बैठे हैं ! अखबार के दफ्तरों पर हमले अकारण ही नहीं हो रहे हैं!सावधान वत्स !
वाह! खरी बात।
मुझे अपनी कविता श्रृंखला 'नरक के रस्ते' से साम्य नज़र आया। दु:ख और चिंता का विषय है कि स्थिति वर्षों से ऐसे ही है थोड़ी इधर उधर भटकती सी लेकिन पेंडुलम की तरह अपने दोलन बिन्दु को कभी नहीं छोडती हुई !
आपने बहुत सही बात लिखी है। आपकी ये बात ठीक है कि दिल्ली उन लोगों के लिये एलियन हो गयी है इसलिये तो पूरा भारत दिल्ली की तरफ रुख करने लगता है। लेकिन जहा तक बात करें अंग्रेजी अखबार की तो उसको पढ़ने वालों के लिये किसान खुद एक एलियन है
सेमी अरबन शहर से हूँ.....जिसमे चार पांच किलोमीटर चलने पर कई गाँव लग जाते है ..इसलिए ये कहना के किसान दिल्ली को एलियन समझते है इसलिए मूतते है गलत है ...हमारे यहाँ आय दिन टिकेत जमावड़ा लेकर आ जाते है ओर कई बार अच्छे अच्छे एरिया की ऐसी तीस फैर जाते है......अब बात आपकी पोस्ट के मुद्दे पर सच है के अंग्रेजी अखबार ओर चैनल इस मुद्दे की ना समझ रखते है ना जानना चाहते है .केवल लोक सभा चैनल ने कल रात एक बड़ी सार्थक बहस की थी एक घंटे की .इसके अलावा सारे चैनल बस भांजते रहे ......कुछ कुछ अगर समझा तो सी एन बी सी आवाज वाले हरी जोशी ने जो इधर उधर घूमते रहते है इसलिए शेत्र की जानकारी रखते है ....क्या किसी ने पिछले दस सालो में गन्ने की मूल्य में तेजी की तुलना बाज़ार के किसी ओर उत्पाद से की है ?क्या इस वक़्त देश में गेंहू की बुआई का सीज़न है ओर उसके लिए खाद की उपलब्धता नहीं है ..राज्य ओर केंद सरकारे क्यों तालमेल में यकीन नहीं करती......
वैसे भी इस देश में अंग्रेजी अखबारों कि मुख्या समस्या कोई ओर है ओर हिंदी की कोई ओर.....पता नहीं वे कौन सी चाय पीते है बिना चीनी की
सही बात.
आपकी बात बिलकुल विचारणीय है। कल कई दिन बाद हिंदुस्तान टाइम्स के मुखपृष्ठ पर यह ख़बर देखी तब से अब तक यही लग रहा था कि सालों से अपनी अंग्रेजी पर ध्यान नहीं दिया इस लिए बात को ठीक से समझ नहीं पा रहा हूं। अभी आपकी पोस्ट पढ़ी तो आत्मविश्वास लौटा कि मैं ठीक ही समझ रहा था।
किसानो के साथ तो हमेशा ही पक्षपात हुआ है। इतिहास गवाह है। ये तो सर चौधरी छोटू राम थे, जिन्होंने किसानो को आज़ाद कराया, अपने ही देश के किसानो के भक्षकों से।
अब भी किसान के साथ यही हो रहा है ।
तभी तो आज भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
कृषि प्रधान देश में , किसानो की ऐसी हालत !
कहीं तो कुछ तो गड़बड़ है।
आप केवल अखबारों की बात करते हैं जबकि उनका सामाजिक सरोकार समाप्त हो चला है और व्यावसायिकता हावी हो चुकी है. जरा नीचे दिए लिंक पर किसानो की समस्या से जुडी पोस्ट और उस पर प्रतिक्रियाएं पढ़ लीजिये तो इन अंगरेजी अखबारों के "पाठक वर्ग" की सोच का भी कुछ खुलासा हो जायेगा.
http://halchal.gyandutt.com/2009/11/pulses-and-blue-bull.html
उन्हें किसान दूर से अच्छे लगते हैं। बस वे उगाते रहें और ये जीमते रहें। जब वे पास आते हैं तो बदबू औऱ घिन आने लगती है। टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादकों के भी दारू में धुत्त फोटो दिखाए जा सकते हैं। लेकिन शायद यह हमारे लिए असभ्यता होगी।।।
KISANO KE SAATH HI NAHIN....SABHI KE LIYE ANGREZI AKHBAR AISA HI RAWAIYYA RAKHTE HAI....
aisa lagata hai ki apne hindi ka hindustan nahi dekha. hindi dainik "hindustan". is akhbar ne bhi kisano ke is pradarshan ko ek atank batay.
kisaan tamasha karne wale jantu, muaafi prani hai. unhe n pradarshan ki rajniti thik se aati hai, aur n hi susanskrit sujaano ki taklif ki hi chinta hai. ab ganna se gurd aur chini khakar ptrakar bane log apni biradri ki trafdaari n karenge to aur in be-pado ya anpado ki parwah koan karega. vah aapko ek moaka mila aur aapne samaj ka digdarshan karne wale logo ki hava nikal di. aap nahi jante kya ki aapke bad ki pirdi aangreji hi bolegi, pardegi aur sunegi. so qasba me sunwai thordi savdhani se karo bahi...,
भारत 'कृषि प्रधान' देश कभी था पहले जब आदमी प्रकृति के साथ जुड़ा था और तब किसान ही नहीं सभी आदमी भारत में किसी न किसी अन्य विदेशी शक्ति के नियंत्रण में थे, बोतल में बंद जिन्न जैसे - हजारों वर्ष तक - और तब हर भारतीय मानता था, या विश्वास करता था, कि संसार मायावी, मिथ्या, है...किन्तु बोतल के बहिर आते ही/ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सब भूल गया और 'माया' को (और मायावती को भी!) सत्य मानने लग गया - गीता आदि को कूड़े की तरह कीमती गलीचे के नीचे छिपा कर चमकीले फर्नीचर पर बैठ ठर्रे की जगह विदेशी पी कर ऊंची आवाज़ में प्रचार करते हुए क़ि वो भगवान् को नहीं मानता, तथाकथित रावण जैसे :)
अब 'रामजी' का ही सहारा रह गया है शायद...
किसानों का आंदोलन था कि राजनीति दलों की दुकानदारी का ये तो आप भी जानते हैं और हम भी।
भारतीय किसान यूनियन और जाट महासभा में अंतर पता किजिऐगा पहले? कितनें गन्ना किसान जाट समुदाय के अलावा है? इतनें गरीब और भूखे नहीं है जो कि बेबांकी से अपनें खड़े खेतों में आग लगानें की बात कह रहे है? पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 22 जिले गन्ना खेती बहुल है, वो किस समुदाय विशेष के है उनकी सम्पन्नता के स्तर पर भी नज़र गढ़ाई जाऐ? आपके चैनल के पत्रकार ने रिपोर्टिंग भी कि थी उस गन्नालैंड की, पता करवाते कि क्या गन्ने के दाम प्रति क्विंटल ना बढ़ानें पर वो भूखे मर जाते? या कि उनके जीवन स्तर पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा? सवाल ये भी पेचीदा है कि सरकार ने केवल कच्ची चीनी को ही ब्राजील से मंगवानें के लिए क्यों चुना? क्या उसके पीछे गन्नालैंड(पश्चिमी उत्तर प्रदेश)के किसानों के प्रति द्वेष था या कि कृषि क्षेत्र में इस विशेष उपज पर निर्भर किसानों में आय और लाभ का अधिक मोह? किसानों का मानना है जिस मात्रा में चीनी का मूल्य बढ़ रहा है,उस मात्रा में क्या गन्नें का मूल्य नहीं बढ़ना चाहिए? मूल्य सभी के बढ़ रहे हैं गेंहूं,चावल,जौं,कपास,मक्का(पॉप कोर्न),क्या सस्ता है? प्रति क्विंटल की दर से क्या भाव जाना चाहिए इन सभी फसलों पर भी भारतीय किसान यूनियन(बीकेयू) को सोचना चाहिए। इन नेताओं से पूछे कोई क्यों केवल गन्नें को लेकर बवाल माचाया है? किसान देश भर में है भारत के सभी राज्यों में खेती होती है, वहां के किसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश से बद्दतर हालत में है। क्या भारतीय किसान यूनियन केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों औऱ वहां होनें वाली विशेष उपज के लिए प्रदर्शन करना जानती है?दिल्ली आ कर कोई भी अपनें विचारों की उल्टी कर देता है औऱ कोई मूत कर भोकाली दिखा देता है, पर क्या कोई उस मूतनें वाले से पूछता है कि आप कहां से आए दिल्ली में और कब आए हैं? जिस दिन पूछ लिया जाऐगा उस दिन मूतना भी बंद हो जाएगा। तहज़ीब के शहर लखनऊ के रेलवे स्टेशन में एक से दूसरे प्लेटफोर्म पर जानें के लिए अंडर पास का प्रयोग किया,तो क्या नज़ारा था ये आप स्वंय जाकर देखेंगे तो पता चलेगा। लेकिन हमनें उसे मानक नहीं बनाया। लेकिन किसी नें शायद सही कहा दिल्ली आ कर कोई भी अपनें विचारों की उल्टी कर देता है क्या नेता, क्या विचारक, क्या पत्रकार, क्या साहित्यकार, पता नहीं क्यों हिंदी पट्टी के लोग दिल्ली को अपनें लेखना का एक सोफ्ट कॉर्नर मानते हैं? शायद इस पर आप अच्छे लेखक साबित हो जाते हैं?
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रवीश जी,
कारण साफ है भारत देश मे INDIA नाम का एक द्वीप बन गया है और अंग्रेजी के ज्यादातर पत्रकार वहीं बसते हैं।
आओ 'शाश्वत सत्य' को अंगीकार करें........प्रवीण शाह
जिस शहर को गंदा करने की बात ये अंग्रेजी के अखबार वाले कर रहे हैं... उसी शहर में रोज देखता हूं कि अंग्रेजी में गिटिर पिटिर करने वाले चड्डी पैजामा छाप लोग अपने कुत्ते को सुलाते तो बेड पर हैं... लेकिन उन्हें हगाने(वाया बिहार से ये शब्द आया है, जिसका मतलब पैखाना होता है...) सड़कों पर लेकर निकलते हैं... और रही बात शराब की तो ठर्रा पीने वाले बदनाम होते हैं... और अंग्रेजी पीकर मखमली पर्दे के भीतर अदला बदली करने वाले संस्कारी और मॉडर्न कहलाते हैं... जो अपना घर तक साफ नहीं कर सकते वो क्या गंदगी की बात करेंगे... रही बात जाम की तो इन चार चक्कों के भीतर बैठने वाले एलियनों के बारे में क्या कहा जाए... जो सौ में नब्बे फीसदी कर्जे के रुपये से ली गई कारों को सड़कों पर ही पार्क करते हैं... मुझे नहीं लगता जब ये आईने के सामने खड़े होते होंगे तो इनका जमीर इन्हें धिक्कारता भी होगा... आखिर धिक्कारे भी तो कैसे... इन्हें धिक्कारने वाला रवीश कुमार का स्पेशल रिपोर्ट भी तो नहीं आता... और अंग्रेजी में इनसे निपटने के लिए कोई गांव को लौंडा भी तो तैयार नहीं है... अंग्रेजी की भूत से डरने की जरूरत नहीं है... अंग्रेजी आना एक भाषा की अतरिक्त जानकारी भर है... इससे विद्वान होने का कोई वास्ता नहीं है... इसलिए जिस तरह से तीन महीनें में चीनी, रसियन और फ्रेंच सीखी जा सकती है... उसी तरह से छह महीनें में अंग्रेजी भी सीखी जा सकती है... बस जरूरत है इस तरह के जवाबी लेख की... इस हिम्मतपूर्ण लेख के लिए शुक्रिया साहब,
wo kahte hai na ki in saharwalo ke vibhinn chochle hai kyoki inki najro me kisano ke ghar to ghosle hai.
nischit roop se kisan verg ab is desh ka wo hissa ho gaya hai jiski pareshniyo par kewal raajniti hoti hai.
सवाल सिर्फ हिंदी-अंग्रेजी अखबारों में किसानों के ही अलग-अलग होने का ही नहीं है। दिक्कत तो ये है रवीश बाबू कि हिंदी-अंग्रेजी मीडिया अपने हिसाब से ही हर वर्ग तैयार कर रहा है। और, चूंकि अंग्रेजी की गाली भी सभ्य सी दिखती है और, हिंदी में थोड़ा जोर से बोलना भी असभ्यता तो, ये तो पूरे समाज के अध्ययन की जरूरत मांगता है उसमें गन्ना किसानों की आंदोलन की खबर के दिन वाले अखबार एक आधार का काम कर सकते हैं।
यहाँ बहुत से सभ्य लोग है जिन्हे किसान सिर्फ फिल्मो मे अच्छे लगते है .. सामने आ जाये तो नाक भौ सिकोड़ने लगते है ।
eng. newspaper abhi bhi hindi newspaper se achoot ki tarah bartav karte hain. yah apradh hai. iss tarah se angrezi ke akhbaar kya dikahana chate hain? afsoos hota hai, unke sochne ke tarike par aur usse besharm ki tarah chapne par. welldone. aap ke article me jaan hai. unki aap issi tarah farte rahiye.
rajiv mandal
jamalpur (monghyr)
Bahot dino k baad kuchh padh k aisa laga k jaise yahi to mere dil mein bhi tha.........
lag raha ahi jaise aapne mere vichar hi chura liye hain... Jis subah HT mein is tarah se khabar pesh huyi thi... main bahut gussa tha... lekin theek hai.. English Newspapers jis warg mein padhe jaate hain, us warg ko sirf SUGAR se matlab hai... FARMERS se nahi....
Lekin main HT ko dhayn dilana chahta h ki jis Elite Class ke saamne aapne khabar ko alag rang dene ki koshish ki ahi... usi Class ke logon ko daaru pikar sadak kinaare peshab karte aur gand daalte dekha hai maine...
Aur agar kisaan aisa ashiksha ke kaaran (asabhyata) ke karan kar rahe hain to bhi uske liye doshi kaun hai......
Mujhe Khushi Huyi Kissano ki ekjutata dekhkar... Isi tarah ki bhawan aur Josh Chahihye Hume jo HILA KAR RAKH DE....
YE DILLI KE ABHIJATYA WARG KI TARAH NAHI HAI JO APNE PADOSIYO KA SUKH CHAIN HI NAHI DEKH SAKTE
मैं इस पोस्ट को पढ़कर एक अलग ही बात सोच रहा हूं..
शायद आपको पता हो कि मैं पटना में पढ़ा-बड़ा हुआ हूं(जहां तक मुझे याद है, आप भी शायद कभी पटना में रहे हैं..).. और पटना जैसे शहरों में (दूसरे शहर का पता नहीं) बच्चे अभी भी अपनी अंग्रेजी ठीक करने के लिये अंग्रेजी अखबारों को पढ़ते हैं.. मैं सोच रहा हूं कि वे बच्चे जब बड़े होंगे तो उनकी सोच किस दिश में जयेगी?
ye sabb bazarvadi akhbaro ka GIRGITIYA RANG HAI,...ganga gaye to ganga ram jamna gaye to jamna daas,sugar free ki sugar khane wala delhi ka elite tabka jo in englishiye akhbaro ka chatora hai, ko kisan ka yehi roop swadisht lagega isliye sariya ukhadte ,mutiyate kisano ki photo v kuch tamsik heading wale sheershak chhap diye,..lekin punjab mein jo elite tabka ht padta hai us ki eliteness kheti se hi aati hai ye jante hue isi HT ne heading diya GOVT BOWS TO FARMERS,,,SUGAR COSTS DEARER TO GOVERNMENT.yani yaha ht amar ujala ho gaya.(ravish ji shukar manaiye ki ndtv ka sanskaran ek hi hai varna delhi ki special report maharashtar mein kya hoti kehne ki jarurat nahi shayad)
माफ़ी चाहता हूँ कहने में कि जब तक कोई 'भारतीय', या कोई अन्य 'सांसारिक'. प्राणी, किसी 'शैतान', यद्यपि सर्व शक्तिमान शक्ति (विष्णु या शिव या कृष्ण), की उपस्तिथि का खुद आभास नहीं करता, या फिर इस सनातन कथन को नहीं मान लेता, नाटक चलता ही रहेगा...आग में 'घी देने वाले पंडित' आग को थमने नहीं देंगे - यदि 'वर्षा' (प्रलय) न हो जाए और क्रिकेट के खेल सामान खेल खत्म न हो जाए...और हिन्दू मान्यता के अनुसार, जैसा 'महाभारत' (महाराष्ट्र नहीं) के माध्यम से सबको पता है, नाटक पर पर्दा डालने, अथवा 'मुक्ति दिलाने' का, काम 'कृष्ण' को ही विष्णु द्वारा सौंपा गया है...
अब का करें जब मजबूरी हो :( 'सोमरस' के पान का अधिकार केवल देवता को माना गया है, जो 'नीलकंठ' जैसे अपने कंठ में विष धारण कर सकते हैं, दानवों को नहीं जो एक पेग में ही होश गँवा बैठते हैं :)...वर्तमान में 'अंग्रेज़' भी जानते हैं कि दो पेग हृदय कि सेहत के लिए अच्छा है...किन्तु देसी डॉक्टरों का मानना है कि हिन्दुस्तानी सदैव गणित में कमजोर रहता है, चौथा पेग पीते हुए भी कहता है कि यह दूसरा ही है (हरभजन/ मुरलीधरन वाले, बल्लेबाज का माथा घुमाने वाला जैसा - नाम भी कुछ पुरातन काल में ले जा सकते हैं, और नाम इसलिए भी रखे जाते हैं कि इसी बहाने भगवान् का नाम तो ले लिया जायेगा कलि काल में भी :)
यहाँ पर यह भी कह सकते हैं कि भारत में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वैसे भी योगियों द्वारा केवल दो शक्तियों की उपस्तिथि दर्शाई जाती रही है: एक तो निराकार विष्णु ('०') और 'दूसरे' - जिनके साथ 'योगमाया' द्वारा जोड़े गए - कृष्ण ('१'), जिससे अनेक बन सकते हैं), यानी विष्णु के ही सर्वश्रेष्ठ अवतार जो इस ड्रामा के कर्णधार माने जाते हैं :)
आपने ध्यान दिया होगा कि फोटो छापने में टाइम्स पहले दिन पिछड़ गया। उसके फोटोग्राफर को डांट पड़ी होगी कि दारू पीते फोटो क्यों नहीं आई तो वो बेचारा गया और जंतर मंतर पर ढेर सारी बोतलें रखकर फोटो खींच लाया जो पहले पृष्ठ पर प्रकाशित हुई।
टाइम्स आफ इंडिया और एचटी में किसानों के दिल्ली मार्च की कवरेज देखकर मैं भी इन अंग्रेजी अखबारों की संवेदनहीनता और नीचता को लेकर हैरत में था. परंतु आपने बहुत सही तरीके से इन्हें बेनकाब किया है. ये वही अखबार हैं जो बीआरटी कारीडोर पर जमीं-आसमां एक कर देते हैं, पर शहर में सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की बेहतरी पर कुछ नहीं लिखते. हकीकत यह है उस दिन सबसे ज्यादा कारवाले साहिबान को दिक्कत हुई थी जो पांच लोगों के घर में पांच कार रखते हैं और ट्रैफिक की मंथरता में अमूल्य योगदान देते हैं.
ravishji aapki lekhni mein woh baat hai jo mujhe hamesha se bahut mohit karti rahi hai...aapki special report on ndtv miss kar raha hoon...is andolan ke baare mein aapke vichaar bahut sateek aur bahut mamsparshi hain...aapki lekhni ka vidyarthi peeyush
http://interviewwithconfidence.blogspot.com/
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अच्छा लेख है, थोड़ी सच्चाई और होनी चाहिए थी...।
हाल ही में मैराथन हुआ था दिल्ली में....शाहरुख खान शीला मैडम के साथ खड़े होकर हाथ हिलाए जा रहे थे....भागो दिल्ली भागो.....क्या उस दिन सड़क जाम नहीं होते.....अगली बार मैराथन होगा तो किसानों से अपील है कि आप गन्ना लेकर दौड़ें, देखें क्या कहते हैं तब के अखबार और तब के शाहरूख खान,,,
हाल ही में मैराथन हुआ था दिल्ली में....शाहरुख खान शीला मैडम के साथ खड़े होकर हाथ हिलाए जा रहे थे....भागो दिल्ली भागो.....क्या उस दिन सड़क जाम नहीं होते.....अगली बार मैराथन होगा तो किसानों से अपील है कि आप गन्ना लेकर दौड़ें, देखें क्या कहते हैं तब के अखबार और तब के शाहरूख खान,,,
हाल ही में मैराथन हुआ था दिल्ली में....शाहरुख खान शीला मैडम के साथ खड़े होकर हाथ हिलाए जा रहे थे....भागो दिल्ली भागो.....क्या उस दिन सड़क जाम नहीं होते.....अगली बार मैराथन होगा तो किसानों से अपील है कि आप गन्ना लेकर दौड़ें, देखें क्या कहते हैं तब के अखबार और तब के शाहरूख खान,,,
nikhil ji ke baat se main kya ...koi bhi itefak nahi rakh sakta...baat ekdam satik hai...aam aadmi apni baat "aam" tarike se kehta hai to vo baat aam hi reh jati hai...khas logo tak baat pahunchane ke liye khas tarike jaruri hai..sansad ke shor mein aam aadmi ki aawaj kahin na kahin dab jati hai..lekin ye khas log ye na bhule ki jantantra ka shor,sansad ke shor se kahin jyada hai...
वो आए और मूत के चले गए....बेहोशी की नींद सोने वालों को जगाने के लिए कुछ छींटे तो मारने ही पड़ते हैं
किसान मीडिया में खबर और कम्युनिस्टों के लिए चारा है जो इसकी दिहाड़ी मार कर मीडिया में सुर्खियों में रहते है और यह शाम को लौटता है खाली हाथ किसी प्रायोजित आंदोलन में हिस्सा लेकर।
वैसे अब चीजे मुद्दा भर बन कर क्यों रह जाती है किसान और खेती दोनो मुद्द बनति है किसी को वोट चाहिए तो किसी को टी०आर०पी० और जैसे ये दोनो मिली मुद्दा खतम.ख...।
bilkul sahi aaklan kiya hai aapne..mai pichhle do saal delhi me tha..times of india daily leta tha..shayad hi koi aisa mahina raha ho jis me toi ne drinking ki legal age 21 se 18 karne ke support me kam se kam ek article na nikala ho.aise hai tauba macha rakhi thi legal drinking age kam karne ki,ki agar ye 18 saal na ki gayi to aasman toot kar gir jayega.
you are right.
Even they dont know the real pain of Indian Farmers, they know how to twist the language only.
You are right.
Even they dont know the real pain of Indian Farmers, they have not seen their lives.
They know only how to twist the language.
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