अपने मकान का हर फ्रेम जोड़ने के बाद
अपने बाद अपने ही मकान में
एक कोने में पड़े थे
एक फ्रेम में बंद हो कर
बाबूजी
सिर्फ एक तस्वीर बन जायेंगे
एक ही कमीज़ में नज़र आयेंगे
वही चश्मा अब दिखेगा बार बार
सिर्फ सीध में ही देखते मिलेंगे
देखा तो लगा नहीं कि यही हैं
बाबूजी
उनके गरियाने की आवाज़
खरीद कर लाया गया सामान
एक जोड़ा टूटा चप्पल
अब भी मां के सिरहाने
सेंटर टेबल के नीचे रखा है
पुराना साल और मफ़लर
इस जाड़े में निकला ही नहीं
सिर्फ गर्मी के कपड़े की तस्वीर
सर्दी में भी नहीं ठिठुरते दिखे
बाबूजी
सोफे पर बैठे होने का अहसास
दरवाज़े से निकल कर आते हुए
सब्ज़ियों का थैला रखते हुए
मछली का कांटा छुड़ाते हुए
रमेसर को चिल्लाकर पुकारते हुए
वो सारी हलचलें अब भी दिखाई देती हैं
फिर क्यों फ्रेम में दिखाई देते हैं
बाबूजी
( इस सर्दी में पटना जाना उस खालीपन में ही भटकते हुए बीत गया जहां मैं अपने बाबूजी की आवाज़ को ढूंढता रहा। लगता था कि कहीं से कोई आवाज़ बिल्कुल उनकी जैसी आवाज़ आ जाएगी। दफ़्तर की इतनी गहमागहमी में भी अकेला हो जाता हूं। लगता है कि बाबूजी आ जाते तो सारी अधूरी बातें कह देता। एक बार छू लेता। अब कुछ भी हासिल नहीं लगता। पहले लगता था। इसलिए लगता था कि बाबूजी को बताता था। अब न इनाम में दिलचस्पी है न पदनाम में। लगता है कि दिन भर ढूंढता ही रह जाऊं बाबूजी को। दोस्तों की बदलती निगाहें,सहयोगियों की खास निगाहें और प्रतियोगियों की बद-निगाहें अब सब फिज़ूल लगती हैं। कुछ भी पाने का अहसास खत्म हो गया है। जो मिला था उसी के गंवा देने के अफसोस में मरा जा रहा हूं। लगता है किसी से बात करूं। फिर लगता है किससे बात करूं। फिर खुद से बात करने लगता हूं। फिर रोने लगता हूं)
41 comments:
अभिभूत कर देने वाली प्रविष्टि. आपकी ऐसी प्रविष्टियां पढ़ कर मन कसक उठता है अपनी अतीत की न जाने कितनी स्मृतियों के साथ, मैं ठहर जाता हूं उन्हीं संवेदनाओं पर.
बहुत ही मार्मिक।
मार्मिक| पढ़कर मन व्यग्र हो उठा| मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की पढने के बाद सभीको बाबूजी याद जरूर आयेंगे|
Raveesh ji ,
Apkee kavita "Babooji Ka Makan Aur Makan Men Unka frem" padh kar ankhen nam ho aayee.apne babooji kee yadon ko jis khoobsooratee ke sath shabdon men bandha hai vah kabile tareef hai.
Mujhe to ye pooree kavita sirf kavita na lag kar bahut hee mehnat ke sath kamre se kheencha hua ek shandar Portrait laga.
Raveesh ji vyakti jab naheen rahta hai to ham sirf unkee yadon ke panne hee samaya samaya par palat kar dekh sakte hain.Main bhee pichhale lagbhag 24 salon se ghar se bahar rah raha hoon .Meree khushnaseebee hai ki abhee bhee amma ,pitaji ka saya hamare ooper hai.Lekin vo log Allahabad men ..main Lucknow men.Kabhee kabhee meree halat bhee ap ke jaisee hee ho jatee hai....lekin hamare hath men to kuchh bhee naheen hai na.Hai to sirf yahee ki ham unkee yadon ko sahej kar rakhen.................ab age nahee likh pa raha hoon....
Hemant Kumar
दिल को छूने वाली बात कह गये हैं..
मुझे वह दिन भी याद है जब आपके पिताजी बीमार थे और आप घर से आने के बाद दवाओं कि भी जाती होती है जैसी कुछ बातों का खुलासा किये थे.. अभी अचानक वह याद हो आया.. बस जानने की इच्छा है कि उस मामले का क्या हुआ?
बाबूजी को श्रद्धांजली..
मुझे भी अपने पिता इसी तरह याद आते हैं ..बेतरह ..
मार्मिक....मार्मिक....मार्मिक.
बहुत ही मार्मिक। दिल को छूने वाली बात कह गये हैं !
दिल को छू लिया ! मार्मिक !
अइसा पोस्ट लिखा जाता है, जी? अऊर लिक्खे बेना जी नहीं माने त् लिखके पोस्टिनो किया जाता है? हम त् सोचे थे लिखने-टिखने की बजाय अदमी बीच बज़ार अरबराके रोने लगता है, अऊर चार लोक देखते हैं त् घबराके हंसने लगता- बाबूजी का बारे में उल्टा-सीधा कहानी बकने लगता है..
ख़ बर-ख़बर टीभी खेलते हैं, ईहौ न हुआ कि एगो बड़का वीडिउऐ बनाये लिये होते, कि जब कभी मन का ब्रेकिंग हुआ त् ब्रेकिंग न्यूज़ माफिक चढ़ाके मन ठंडा करते?
जैसे जैसे समय बीतता है पिता और भी याद आतें है १८ साल बाद भी अपनी बेटी को जब कुछ उनके बारें मैं बत्ताती हूँ ....लगता है कल की ही बात हो ...मैंने भी २साल पहले उनकी पुण्यतिथि पर एक कविता लिखी थी कभी पोस्ट पर लिखुं शायद.....
बहुत सुंदर
क्या कहें.. दिल को छु गई आपकी बात..
रंजन
प्रमोद जी की बातों का सम्मान करता हूं। लेकिन मेरे विचार से ब्लॉग अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का माध्यम है। आदमी को अधिकार है कि जो भी वह चाहे करे। चाहे वह अपने विचारों को रखे, कल्पनाओं को या भावनाओं को। मन में जो भी भाव उठे उसे ईमानदारी से पोस्ट कर देना बहुत हिम्मत का काम है। आदमी दिल से बहुत कम लिखा करता है। मुझे नहीं लगता कि इस पोस्ट को लिखने में किसी तरह का स्वार्थ ढूंढा जाना चाहिए। ब्लॉग तो एक ऑनलाइन डायरी है, ये तो व्यक्ति की हिम्मत और प्रकृति पर निर्भर करता है कि वह अपनी डायरी को कितनी ईमानदारी से लिखता है।
ज्यादातर ब्लॉगर दिल से नहीं दिमाग से लिखते हैं और यहीं पर खेल हो जाता है। दिमाग से लिखी बात सिर्फ दिमाग को झटका दे सकती है, सिर्फ दिल से लिखी पोस्ट ही दिल में उतरती है। ये मात्र एक रचना या कृति नहीं है, ये भावों का अभिव्यक्तिकरण है, और इतना सटीक अभिव्यक्तिकरण कि हर भावुक इंसान खुद को इससे जोड़ रहा है। हर व्यक्ति सहानुभूत हो रहा है।
ईश्वर से कामना है कि रवीश जी शीघ्र इस दुख से उबरें।
नि:शब्द हो गया हूं, आपके पोस्ट पढ़ने के बाद लग रहा है कि गले में कुछ अटका हुआ है..दिल के अंदर से कुछ बाहर निकलना चाहता है लेकिन गले के पास आकर ब्लाक हो जा रहा है..बस आपका यह पोस्ट जो भी पढ़ेगा दावा है कि वह अपने बाबूजी से कहीं और अधिक प्यार करने लगेगा.उनकी फटकार को कहीं और प्यार से आत्मसात करेगा।...लेकिन दुनिया में कुच ऐसे भी होते है जो प्राकृतिक होते ही नही हैं..मशीनी होते हैं और उन्हे भाव और राग से कुछ लेना देना नही होता है...बस दुनियादारी आती है...
अभी- अभी आदर्शजी की टिप्पणी पढ़ा बिल्कुल दुरुस्त लिखे हैं..
नमस्कार रविश जी,हम लोग मेरे दादा ससुर जी को भी बाबूजी कहा करते थे ,आज वो हमारे बीच नही हैं ,लेकिन आपकी कविता पढ़कर मुझे उनकी याद आ गई ,बहुत ही मार्मिक कविता हैं ,आखो में आंसू भर ही आए . आपके बाबूजी को मेरा सादर नमन .
मैंने ३१ तारीख के हिंदुस्तान पेपर में छपी,ब्लॉग वार्ता पढ़ी,जो मुझे इंटरनेट पर किसी ने स्केन करके भेजी ,आपकी बहुत आभारी हूँ की आपने मेरे ब्लॉग को 'ब्लॉग वार्ता'में स्थान दिया,दरअसल मैंने जब यह ब्लॉग शुरू करने का सोचा तो मन में काफी संशय था की शास्त्रीय संगीत की जानकारी देने वाला ब्लॉग कोई पढेगा भी की नही ?किंतु जैसे जैसे लिखती गई पाठको की प्रतिक्रियाओ और फ़िर आप जैसे श्रेष्ठ पत्रकारों द्वारा मिले प्रोत्साहन के कारण इस ब्लॉग पर हमेशा लिखते रहने का विचार पक्का हो गया . आपने मेरे ब्लॉग के सम्बन्ध में हिंदुस्तान अख़बार में बहुत ही अच्छा लिखा हैं ,उसके लिए आपको बहुत धन्यवाद . आशा करती हूँ आप जैसे वरिष्ट पत्रकारों से इस ब्लॉग को लिखने के लिए हमेशा इसी तरह प्रोत्साहन मिलता रहेगा मुझे .और मैंने जो यह बडा सा निश्चय किया हैं भारतीय संगीत के प्रचार प्रसार का,उसमे कामयाब हो पाऊँगी .
सादर
वीणा साधिका
राधिका
Parkar Aankhen num ho gayi, bahut bhavuk rachna likhi hai Ravishji.
बिल्कुल छवि सी बन गई, एक्दम यथार्थ।
बहुत ही मार्मिक।
ऐसे ही तो याद आते हैँ हमारे अपने -रवीश जी,
इतने कम शब्दोँ मेँ
इतनी गहन अनुभूति बयान कर गये और सभी के मन को गहराई तक छू लिया आपने -
आपके बाबुजी,
अब आप मेँ समा गये हैँ
उन्हेँ सहेजियेगा
और हम
उन्हेँ सविनय
श्रध्धा सुमन अर्पित करते हैँ
नव वर्ष शुभ हो !
- लावण्या
Very touching Ravish....
कहते हैं कि भावनाओं को शब्द देना संभव नहीं. फिर भी अगर अगर इन्हें प्रकट करने के लिए शब्द होते को इससे शक्तिशाली नहीं होते. ख़ासकर बाबूजी के प्रति.
सबकी कही में अपनी कही।
प्रमोद जी ...आदर्श जी ने सही कहा है ...
लम्हे जो बीत जाते हैं, यादें बन जाते हैं।
कुछ लोग इसे खजाना कहते हैं...किस काम का ?
ये एहसास है हर कहीं होता है हर कमी को पुरा करता है
वो हो न हो उनकी यादों से ही उनकी कमी पुरी की है
मार्मिक रचना है आपकी
अक्षय-मन
रविश सर ..आपकी हर प्रविष्टि पढ़ता तो रोज़ था लेकिन उस पर अपनी प्रतिक्रया देने के लिए हमेशा झिझकता रहा ...पर आज आप के इन शब्दों में मुझे अपने पिता मिले ...जिन्हें मै 2005 से कुछ ऐसे ही ढूढ़ रहा था .....रात पठने के बाद घर जाने के लिए मन बेचैन हो उठा ..लगा कि उड़ कर माँ के पास पहुँच जाऊं ...खैर परसों कि रात काम में जागती बीती और कल कि रात आंसुवो में...... लेकिन ये रात कई रातों से ज्यादा सुकून दे गई ....ajay singh patna
मेरे पापा चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया है । जब भी मेरे सामने वैचारिक दरिद्रता या एक शून्य सामने नजर आता है बाबूजी संकटमोचक बनकर मेरी समस्याओं को पल भर में छूमंतर कर देते है । दिल के मरीज है एम्स में दिखलाया तो बोला बाइपास करना होगा । जिद्दी भी है बाबूजी कहते है आपरेशन नही कराउंगा ।
आपके विचार ऐसे स्फुटित होते है जैसे लगता है हर कोइ अपनी ही कहानी सामने देख रहा है । इन सब के बीच हमें महानगरों में ओल्ड ऐज होम भी दिखता है । जहां कितने ही मां बाप अपने संतानों के द्वारा सताये और ठुकराये हुए मौत का इंतजार कर रहे है । व्यथा होती है देखकर । कविता या कहें कि आपका व्यथित संस्मरण दिल को छू लेने वाला है ।
इस एहसास को मैं महसूस कर रही हूँ
और उन कमरों में आंसू लिए खड़ी हूँ,...........
वजूद दिल के कमरों में कैद है
बहुत मर्मस्पर्शी
bahut achchha
रवीश जी.. इन कविता तो भावों से भरी थी ही... लेकिन उसके बाद ब्रेकेट में जो लाइन्स लिखी है, वो दिल को छू गई..। हर पल बदलती ज़िदंगी में एक पल ऐसा भी आता है जब...
"कुछ भी पाने का अहसास खत्म हो गया है। जो मिला था उसी के गंवा देने के अफसोस में मरा जा रहा हूं। लगता है किसी से बात करूं। फिर लगता है किससे बात करूं। फिर खुद से बात करने लगता हूं।"
शुभकामनाएं
मन की भीतरी दीवार पे बाबूजी रह जाते हैं.
जाने क्यों उनके नहीं रहने पर सबकुछ होना भी,
न होना सा लगता है.
मन की कहने की कला में आप माहिर है.
जारी रहे.
आपके लेख ने दिल की गहराई तक छुआ है । सचमुच में एक पिता की अहमियत कितना होता है आपने इस लेख में बयां किया है । लेकिन इस शहरी संस्कृति के लोगो के लिए पिता के मायने उतने नही रह गए है । उन्हे तो यह बोझ समान लगता है । गांव के रहने वाले लोग इसका सही कीमत जानते है । सच कहूं तो यह लेख पढ़ने से घर की याद आ जाती है और अपने पिता को खोने का गम भी सताने लगता है । लेकिन इंसान के बस में कुछ नही है । यह भी एक सत्य है
आपके दुख में सब साथ हैं...दुआ है कि आप इससे उबर पाएं...और क्या कहूं....
कविता के फ्रेम में बाबूजी बिलकुल फिट बैठे हैं...बहुत ही अच्छी रचना...
Is kavita par tippani nahin ki ja sakti, ise keval mahsus kiya ja sakta hai.Shabdon ki apni simayen hain...
इस प्रविष्टि की कशिश ही ऐसी है कि इसे पढ़कर पहली बार मैं किसी के लिखे पर कमेंट देने को मजबूर हो गया
इस प्रविष्टि की कशिश ही ऐसी है कि इसे पढ़कर पहली बार मैं किसी के लिखे पर कमेंट देने को मजबूर हो गया
रविश भाई
आपका यह लिखना कि " कुछ पाने का अहसास ख़तम हो गया है ...." आंखों में आंसू ले आता है.अपनों का न रह जाना क्या क्या कर जाता है.
आपकी बेबाक बातें और वो भी बिना किसी झिझक और संकोच के कह देने का साहस इस भाग दौड़ और आत्म केंद्रित और आत्म मुग्ध लोगों के इस हुजूम में काबिले तारीफ है.
अगर अतिशयोक्ति और अतिशय प्रसंशा का भाव न लगे तो यह कहने का जी करते है कि इस तरह का साहस कबीर में था.
सादर
ravish sir ,
happy new year i m a great fan of u i like ur style of reporting .i am also from motihari district i feel that we should do something for the development of this area people of this area are very backward everybody is exploiting them.can u help me in this anyway?my tel no is 9471477755
Raveesh Ji,
Kuchh nahi kah sakta, shivaye iske ki rote - rote padha ya padhte padhte roya nahi janta. Bahut marmik.
धन्यवाद् रवीश जी, इस साल मैं भी अपने पिताजी की कमी महसूस कर रहा हुं. इन पंक्तियों ने आज एक बार फिर आँखें नम कर दीं.
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