मां क्यों नहीं देख पाती बेटी का घर

बहुत सारी मांओं ने अपनी बेटी का घर नहीं देखा होगा। अपनी लाडली का ससुराल कैसा है बहुत मांओं ने नहीं देखा है। बेटी का नहीं खाते हैं, इस बेहूदा सामाजिक वर्जना के अलावा कई अन्य कारण भी रहे होंगे जिनके कारण मांओं ने अपनी ब्याहता बेटियों का घर नहीं देखा होगा।

बिमला देवी से मिलते ही अपने गांव की तमाम मांओं का चेहरा सामने घूम गया। गांव में अपने घर की छत पर खड़ी होकर मैंने कई मांओं को दूर से आती बेटी की बैलगाड़ी, टांगा और अब कार या बस को निहारते देखा है। तब समझ नहीं पाता था कि ये आज क्यों रास्ता देख रही हैं। बिमला देवी से मिलने के बाद पता चला कि मांएं अपने बेटियों का हर दिन रास्ता देखती हैं।

मलेशिया एयरलाइंस की सीट नंबर १४ के बगल में बिमला देवी। १९३४ की पैदाइश। दस्तखत करना जानती थीं। मिलते ही कहा मदद कर देना बेटा। हां कहने के बाद किताब पढ़ने लगा। बिमला देवी खुद से बोलने लगीं। पहली बार बेटी का घर देखा है।
मेरी बेटी बहुत अमीर है। सोलह साल हो गए शादी के। लगता था कि किस घर में ब्याही है। ठीक है या नहीं। अब सकून हो गया है। सब ठीक है। सारी मौज है। सिर्फ बच्चा नहीं हुआ है। शादी के अगले ही दिन मेरी बेटी मलेशिया चली गई। वही आती जाती रही। शादी के बाद बेटी और उसका सूटकेस ही दिखाई दिया। घर नहीं देखा था। अब देख लिया है।

सुनते ही मैं सन्न रह गया। १६ साल तक इस मां ने बेटी के घर की क्या कल्पना की होगी? क्या सोचती होगी कि मेरी बेटी का घर कैसा है? फिर ख्याल आया कि बिमला देवी अकेली नहीं हैं। मेरी मां ने भी अपनी बेटियों का घर नहीं देखा। बड़ी दीदी की शादी के बाद वो कभी गाज़िपुर नहीं जा सकीं। पता नहीं किसी ने बुलाया या नहीं। बेटियों का वही घर देखा जहां उनके पति काम करते हैं। पुश्तैनी घर नहीं देख पाई। मेरी चाचियों ने तो इतना भी नहीं देखा।

इसे हम बाप या पुरुष कम समझेंगे। मांओं का बड़ा गहरा रिश्ता होता है बेटियों से। हर मां के भीतर एक बेटी होती है। जो अपना घर छोड़ कर आई होती है। शादी होते ही उसका घर मायका कहलाने लगता है। पता नहीं अपने पुरानी घर की यादों के बीच कैसे कोई लड़की, कोई मां और कोई बेटी नए और अनजाने घर को सजाने में लग जाती है। अपना बनाने में लग जाती है।

इन सब सवालों के जवाब ढूंढने का वक्त किसके पास है। सामाजिक संरचना में विकल्पों के लिए जगह कम होते हैं। बिमला देवी एयर होस्टेस को देख कर कहने लगी..बिचारी इसकी मां कितनी फिकर करती होगी। बिल्कुल बारात में जैसे स्वागत करते हैं, हंस हंस के खिलाते हैं, वैसे ये हम सब की खातिरदारी कर रही है।बिमला देवी को लगा कि यह मेरी ही बेटी है। रोकते रोकते उस खूबसूरत एयर होस्टेस को कह दिया कि बेटी तुम भी आराम कर लो। कुछ खा लो। केवल हमारा ही ख्याल कर रही हो। एयर होस्टेस की उस मुस्कान में अचानक अपनापन दिखा। वर्ना मुस्कुराना तो उनका काम ही है।

26 comments:

रश्मि प्रभा... said...

bahut achha laga padhkar.....
samaaj ki ek sachchi tasweer aankhon ke aage aur maa ki mamta,bahut shaandaar

mehek said...

kitni maa apni beti ka ghar nahi dekh pati,mamta taras jati hai,sahi kaha hai aane,

संगीता पुरी said...

अच्‍छे मुछदे पर लेख लिखा है आपने। बहुत जगहों पर ऐसी परंपरा है , पर हमारे यहां नहीं । बिना मौके के तो नही , पर किसी खास मौके पर हमारे यहां तो मांएं बेटियों के घर पर जाती हैं। यहां ऐसी कहावत भी है .. बेटी , घोडी देश दिखावे।

Arvind Mishra said...

आपने एक बहुत ही संवेदना भरे विषय को उठाया है -ऐसी साजिक रीति की ओरिजिन क्यों हुयी होगी ? अब तो यह बदल जाना चाहिए ! मैं तो इसे पूरी तरह से मिटाने के उपक्रम में लगा रहता हूँ -माँ को बेटियों (अपनी तीनों बहनों !)के घर ले जा चुका हूँ और सास जी तो आती ही रहती हैं !

सुनील मंथन शर्मा said...

कब तक जारी रहेगी मां तेरी यह कहानी.

ghughutibasuti said...

बेटियों को ही पहल करनी होगी । जब वे अपनी माँ को बुलाएंगी, सम्मान देंगी तो समाज भी इसका आदी हो जाएगा । जब बेटियाँ समय के साथ इतना बदल गईं हैं, इतने बदलाव लाने में सफल हुईं हैं तो सब नहीं तो बहुत सी बेटियाँ यह भी कर पाएँगी । मैंने किया और बहुत सफल रही । जब बहुत से अन्य काम हम औरों के विरोध के बावजूद कर लेते हैं तो यह शुभ काम क्यों नहीं ?
घुघूती बासूती

Himanshu Pandey said...

निश्चित ही इस परम्परा में कहीं न कहीं कोई गहरी बात छुपी होगी जो समय की गतिशीलता के साथ-साथ अपनी प्रासंगिकता भी खोती गयी . अलगाव के इस स्थापित मानदंड में कहीं तो कोई अर्थ होगा? पता नहीं.

आपकी इस टटकी अनुभूतियों का कायल हूँ मैं . आपके लिए कह चुका हूँ ऐसी बातें .
अनछुए पहलू पर लिखा,इसके लिए धन्यवाद.

नीरज मुसाफ़िर said...

बहुत ही मर्मस्पर्शी बात लिखी है आपने. लेकिन अब रिवाज बदल रहा है. पहले तो बाप भी बेटी के घर का पानी तलक नहीं पीता था.

श्रुति अग्रवाल said...

हमारे बुंदेलखंड में भी यही कुप्रथा है। माएँ बेटियों के घर का पानी भी नहीं पीती। यदि घर देखने आ भी जाएँ तो घंटा भर बैठे रहने के बाद भी एक बूंद पानी की नहीं गटकती....लेकिन इस कुप्रथा को तोड़ने का साहस दिखाया मेरी दादी ने, वो दुख-दर्द के समय अपनी दोनों बेटियों के घर गई। उसके बाद हम तीनों ने पूरी परंपरा ही बदल दी। पापा के नहीं रहने के बाद हमारी माँ हमारे साथ ही रहती हैं..वो भी पूरे सम्मान से। मुझे लगता है जब तक बेटियाँ ऐसी कुप्रथाओं का विरोध नहीं करेंगी तब तक ऐसी कुप्रथाएँ चलती ही रहेंगी।

!!अक्षय-मन!! said...

अहम समस्या है माँ कि ममता को उसके प्यार समर्पण को किसी भी प्रथा या किसी भी नियम में नही बांधा जा सकता
उसके लिए उसकी वही बेटी है तो ये बंधन कैसा
आपकी सार्थक सोच है .....
मन को अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर

मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है आने के लिए
आप
๑۩۞۩๑वन्दना
शब्दों की๑۩۞۩๑
सब कुछ हो गया और कुछ भी नही !!
इस पर क्लिक कीजिए
आभार...अक्षय-मन

Abhishek Ojha said...

माँ का बेटी के घर न खाना, ना जाना प्रथा हो गई है... पर इस नजर से कभी सोचा नहीं था !

Pranesh srivastava said...

Sir,
App ka jabab nahi hai,app ki story dil ko chhu jati hai.

A lotof Thanks.

sakhee said...

accha laga ki ladke bhi is tarah se sochte hai.isi saal maarch me shaadi hui.jab mammy ghar aayi to maine bhi unhe aagraha karke kuch khilaya lekin unhe bada sankoch ho raha tha.unhone mera man rakhne ke liye hi khaya.us pal ko yaad karke bura lagta hai.mere hi ghar me meri hi maa kitna asahaj mehsoos kar rahi thi.vaise sach kahoon to apne ghar jaisa lagta hi nahi mujhe vahan.bahu ho jaane ke baad ladkiye na yahha ki raha jaati hain na vahan ki.

सागर मंथन... said...

ये कहानी हर माँ की हमेशा से ही रही है... कहानी हर माँ की...

JC said...

Hamare mata-pita apni dono betiyon ke ghar jate rahte the aur thaharte the per purani soch kabhi kabhi vyakta karte hi the.
anav jeevan mein bahut kuchh samajh ke pare hai...

Chhote damad ne apni company ke wallets nav varsh per babuji aur hum char bhaiyoun ko bhi uphar swarup diye. Babuji ke mun mein us samaya vichar aya jo unhon-ne hamse bhi vyakt kiya ki lardki ke ghar ka pani bhi pehle varjit mana jata tha...

Ise sanyog kahein ki prabhu ki leela, sabse pehle babuji ka batua shirt pocket se gayab ho gaya bazaar mein! Uske baad bade bhai ka Ratlam station per - paise aur delhi lautne ke ticket sahit - jab wo saparivar wahan bachchon ko circus dilhan Nagda se gaye the!

Uske baad mere se chhote wale ka Daryaganj ke bus stop per, bus per chardhte samay! Bechara Patel Nagar paidal hi lauta!

Kintu jab sabse chhote wale ka Karolbagh mein doston ke sath ghoomte pichhli pocket se nikal liya gaya to yeh sun meine apna purse turant khali ker koode-dan mein dal diya!

Aadarsh Rathore said...

लेकिन हमारे यहां ऐसी कोई परंपरा नहीं है। शायद दूसरे इलाकों में होती हो। मैं अपने जन्म क्षेत्र जोगिन्द नगर, ज़िला मंडी, हिमाचल प्रदेश की बात कर रहा हूं। हमारे यहां हर छोट बड़े अवसरों पर मायके के लोगों को न केवल आमंत्रण दिया जाता है अपितु विशेष सत्कार भी किया जाता रहा है। और माताएं भी अकसर जाती रहती हैं ।

Anonymous said...

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दीपक said...

आखिरी लाईन बडी अच्छी लगी सचमुच मुस्कराना तो उनका काम ही है !! और अपनापन एक अलग ही चीज है !!

Unknown said...

kya kahuu aakho mai aasuu aagaye...

anil yadav said...

marmsparshi.........

Poonam Misra said...

परम्परा शायद इसलिए हो कि माँ ने जिस बेटी को इतने प्यार से पाला है उसको ससुराल में सबकी सेवा करते न देखना पड़े. या फिर बेटी कि नयी गृहस्थी में ज़्यादा दखल अंदाजी न हो. बहरहाल जो भी हो अब रिवाज़ बदल रहे हैं और कई बेटियों अपने माता पिता की देखभाल करती हैं .और इनमें उनके पति का भरपूर सहयोग रहता है.दिल को छू लिया !

Kaushal Kishore , Kharbhaia , Patna : कौशल किशोर ; खरभैया , तोप , पटना said...

रविशजी
आपके लेख यादों की बारात ले आता है.
कभी कभी गला रुंध जाता है.
आप अपने देश और काल के तम्मं लोगों की भावनायों की अभिब्यक्ति बखूबी कतरे हैं.
मेरी बूढी नानी , ७० के दसक में मेरे बगीचे जो की घर के पिछवाडे में ही था आती थी . आम के पेड़ और साग सब्जी की निकौनी करती थी , पर अपने प्यारे नाती की जिद पर सिर्फ़ पानी पीती थी.
सादर

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

Raveeshji,
Is purush pradhan samaj se aur kya ummeed kee ja saktee ha?Yahan betee ka vivah ma,pita donon ke liye hee ek juye se kam naheen.Agar pasa theek pad gaya to betee kee jindagee sanvar gayee,anyatha use taumra nark bhogna hee ha.Aur bechare ma,pita apnee betee ko sirf til til kar samapt hote dekh sakte han.Kar kuchh naheen sakte,akhir samaj,loklaj ka bhaya jo ha.
Ma betee ka ghar naheen dekh patee ye to theek kaha apne .Lekin pita ya bhai hee bette ke sasural ka jo ghar ya swaroop dekh kar ate han ,kya garantee ki unkee betee,bahan usee ghar, mahaul men rahegee jo uske liye ve dekh kar aye the.Prashna bahut bada ha..iska javab hum sabhee ko khojna chahiye.Shubhkamnayen
Hemant Kumar

imnindian said...

aapne maa ke dard ko to dekha . par us ladki ke dard ko nahi jo apni maa ko kabhi apne(?) ghar ya pati ke ghar jaldi nahibula pai.is bulawe ke liye bhi usko kitni jadojahad karni padi hogi pata nahi. waise kaai saal pahe kisi ne mujhse kaha tha aurato aur kisi ek janwar ka naam (wo mujeh abi yaad nahi aa raha) ke ghar nahi hua karte . who kisi aur ka ghar basati hai. us samay mai us shaksh par naraj hui thi par aaj usi bato ka marm samajh me aata hai.good piece of writing.

Manoj JBN Singh said...

Raveesh Ji,
itni achche vishay par likhne ke liye, ham kabhi kabhi hi blog padhte hai, par aaj padh kar aankh nam ho gayi aur eshka aabhar vyakt karne ke liye likh raha hua. koshish karunga ki aage bhi padhu aur likhu. dhanyvad
manoj singh,daltonganj, jharkhand

MANISHKUMAR said...

KEO KI MA APNI BETI SE JYDA PAYAR KARTI HAI