क्वालालंपुर से लौटा हूं।सीमेंट और स्टील की जोड़ी ने हवाई अड्डे को किसी शापिंग मॉल का चमकदार बाथरूम जैसा बना दिया है। हर चीज़ चमकती हुई। स्टील के खंभे और लकड़ी जैसी किसी चीज़ की छत। एयरपोर्ट से लेकर शहर की हर सार्वजनिक इमारतों से लगभग सीढ़ियों को ग़ायब कर दिया गया है। एस्कलेटर। भारत के माल में भी एस्कलेटर पुराना हो चुका है। मगर हम भूल गए हैं कि इस एस्कलेटर ने पेट पर बल महसूस करते हुए ऊपर चढ़ने का अनुभव खत्म कर दिया है। बल्कि समतल सतह पर भी एस्कलेटर की पट्टियां दौड़ती हैं। जो अनावश्यक विस्तार लिये एयरपोर्ट में एक काउंटर से दूसरे काउंटर के बीच की दूरी को तय करने में मदद करती हैं।
एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही स्टील पीछे छूटता है और सीमेंट दिखने लगता है। हर सड़क एक दूसरे के ऊपर से गुज़र रही है। दो सड़कों के बीच से रेल गुज़र रही है। रेल के ऊपर से कार और कार के ऊपर से मोनो रेल। हर कोई गुज़र रहा है। सीमेंट की मौजूदगी से आंखें पथरीली होने लगती हैं। बस और रेल को रंग कर बच्चों के खिलौने जैसा बना दिया गया है। हर कुछ रंगीन। क्वालालंपुर के पास पुराना कुछ नहीं बचा है। सब सीमेंट का बना है। पहली नज़र में लगा कि यहां के कमीशनखोर भारत के घूसखोरों से ईमानदार हैं। मगर अख़बारों से पता चल गया कि भ्रष्टाचार मलेशिया के लिए नया नहीं है।
शहर ने सैलानियों को बुलाने के लिए हर पुरानी इमारत को तोड़ दिया है। इन्हीं सब के बीच एक इमारत पर नज़र गई। १९०४ की बनी हुई एक इमारत। लिखा था विवेकानंद आश्रम। हवाई यात्राओं के पहले के दौर में कौन गया होगा विवेकानंद का नाम लेकर। सोचता रहा। अचानक ध्यान गया कि यह इमारत कैसे बची रह गई। किसने बचा लिया इसे। इसे भी तो तोड़ कर सौ मंज़िल की इमारत बन सकती थी।
दस दस मंज़िल की इमारत में मॉल है। मॉल को मेट्रो और मोनो रेल के स्टेशन से जोड़ दिया है। मोनो रेल से उतर कर सीधे माल में। बाज़ार का नामो निशान मिटा दिया गया है। हाट के अवशेष गायब हैं। क्वालालंपुर उन सैलानियों का शहर है जो सीमेंट का कमाल देखना चाहते हैं। देखना चाहते हैं कि कोई शहर बिना ऐतिहासिक इमारतों के भी लोगों को बुला सकता है। शहर बच्चों का खिलौना घर है और आदमी सीमेंट कृतियों को देखने के लिए बौराया हुआ लगता है।
लेकिन आंखों का किसी ने नहीं सोचा। कितने दिन तक ईंट पत्थर की ये इमारतें आकर्षित कर सकती हैं। वैसे भी जब से दिल्ली में मॉल, फ्लाई ओवर और मेट्रो देखा है विदेश जाने का आकर्षण खत्म हो गया है। पहले सुन कर उत्सुकता होती थी कि कोई विदेश गया है। वहां की कई चीज़ें यहां नहीं होती थीं। अब तो यहां वहां में कोई फर्क नहीं है। इसलिए विदेश यात्रा का कस्बाई रोमांच अब खत्म हो चुका है। सीमेंट और स्टील से बने इस शहर में आपका स्वागत है। इससे पहले कि आप यहां की नगर योजनाओं के कायल हो जाएं, बता दूं कि तमाम स्तरों और प्रकारों के फ्लाई ओवर और मोनो रेल के बाद भी सड़क पर कारें सरकती हैं। क्वालालंपुर सीमेंटनुमा नगर योजनाओं की नाकामी का शहर है। फिर भी अगर आप बिल्डर हैं तो यह आपकी पसंद का शहर हो सकता है। आते जाते रहियेगा। मुझे मत कहियेगा दुबारा जाने के लिए।
9 comments:
Raveesh ji videshi chitran saraahniya hai .Bhaarat mai bhi chote chite sahron mai kankreet ke jungles banaaye jaa rahe hen .Samay nikaal kar apni sohnee manmohni sarkaar ka dhyaan is taraf bhi dilaayiye .
"क्वालालंपुर सीमेंटनुमा नगर योजनाओं की नाकामी का शहर है".
इस एक पंक्ति का प्रभाव बहुत ज्यादा है. इस पूरे विवरण के लिए आपका धन्यवाद.
रवीश जी! सैर कराने के लिए शुक्रिया!!!
हम सबको यह समझना होगा कि flyover,bridge , बनने से traffic कि समस्या नहीं हल होने वाली!!!!!!
क्वालालंपुर तो अपना भी देखा हुआ है... कुछ तस्वीरें भी डाल देते तो अच्छा होता. वैसे नाकामी वाली बात पर तो एक पोस्ट लिखनी ही चाहिए पूरी बात क्लियर नहीं हुई.
रवीश जी, अब तो अपना दिल्ली भी ऐसा ही है. बस मुझे तो दिल्ली में एक ही जगह पसंद आती है- चिडियाघर.
तभी मैं कहूं कि इतने दिनों से आपने कोई न पोस्च क्यूं नहीं की। लेकिन बढ़िया है। आपने आते ही एक साथ तीन पोस्ट्स डालकर कवर अप कर लिया।
बधाई स्वीकार करें।
रविशजी
'' इसीलिए विदेशयात्रा का कस्बाई रोमांच अब ख़त्म हो गया hai.'' कहीं बाहर आते जाते बोर तो नहीं हो गएँ हैं.
एक उत्सुकता , क्या कभी हॉलैंड जाने का मौका मिला है ? उधर जाएँ तो शायद कुछ नया दिखे .
कौशल जी
हालैंड नहीं गया हूं। सिर्फ इंग्लैंड औऱ स्कॉटलैंड गया हूं। इसके अलावा विदेश यात्रा की न तो अधिक बारंबारता है न अनुभव।
Ravish jee,
maine bhi april 08 me kaulalumpur ki yatra ki thi, yeh sahi hai ki kl concrete ka jungle hai par is desh ne kafi vikas kiya hai, aur iske asli hare jungle kafi manmohak hai, ek balance hai.
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